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६४ मनन और मूल्यांकन
सम्भव है। पतंजलि ने यह नहीं लिखा कि सब प्रवृत्तियों का निरोध करना है। उन्होंने केवल लिखा—वृत्तियों का निरोध करना है। 'सर्व' शब्द का प्रयोग नहीं किया, इसलिए साधक के लिए बहुत बड़ा अवकाश रह गया। सभी वृत्तियों का निरोध एक साथ कभी सम्भव नहीं है। पहले किसी एक वृत्ति का सहारा लो, अभ्यास प्रारम्भ करो। 'विषस्य विषमौषधम्'---यही सिद्धान्त इसमें भी कारगर होता है । संखिया स्वयं विष है, किन्तु उसका उपयोग विष-निवृत्ति के लिए होता है। विष को मिटाने के लिए विष का ही उपयोग।
वृत्तियों का निरोध दो भागों में बंट गया। एक है-सब वृत्तियों का निरोध और दूसरा है--किसी एक वृत्ति का आलंबन लेकर वृत्ति का निरोध । पहला निरोध है और दूसरा एकाग्रता। दोनों में अन्तर है। भाष्यकार लिखते हैं—'एकाग्रता निरोधमभिमुखं करोति'-~-एकाग्रता निरोध को अभिमुख करती है। वह निरोध की ओर ले जाती है। गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा- "भंते ! एगग्गसन्निवेसेणं जीवे कि जणयई"-- भन्ते ! एकाग्रसन्निवेषण से क्या उपलब्ध होता है ? भगवान् ने कहा-"चित्त को किसी एक आलंबन पर टिकाने से चित्त का निरोध होता है। एकाग्रता जितनी पुष्ट होती है, चित्त का निरोध भी उतना ही होता चला जाता है । एकाग्रता का जो प्रारम्भिक बिन्दु है वह वृत्ति-निरोध का प्रारंभिक बिन्दु है। जैसे ही एकाग्रता पराकाष्ठा पर पहुंचती है, एकाग्रता की भूमिका समाप्त हो जाती है और निरोध की भूमिका प्राप्त हो जाती है । वृत्ति का आलंबन भी छूट जाता है। निरालंबन स्थिति आ जाती है। जहां किसी वृत्ति का आलंबन नहीं रहता वहां चेतना की निरालंबन स्थिति होती है। यह निरोध की स्थिति है। पहले एकाग्रता की समाधि प्राप्त होती है और फिर निरोध की समाधि। पहला सम्प्रज्ञात योग है और दूसरा असम्प्रज्ञात योग है। सम्प्रज्ञात योग में वृत्ति का आलंबन रहता है और असम्प्रज्ञात योग में वृत्ति का आलंबन छूट जाता है । इसे निर्बीज समाधि भी कहते हैं। यहां कोई बीज या हेतु शेष नहीं रहता।
वृत्ति-निरोध के जीवन में 'स्वरूपावस्थानं' होता है --आत्मा अपने शुद्ध चैतन्य के अनुभव में स्थित हो जाती है।
जैन परम्परा का सूत्र है - जे अणण्णदंसी से अणण्णारामे-जो अनन्य - आत्मा को देखता है, केवल चैतन्य का अनुभव करता है, राग-द्वेष से मुक्त रहता है, वह अनन्य में आरमण करने वाला अनन्य-दर्शी होता है । जो अनन्य को देखता है वह अनन्य में आरमण करता है।
पतंजलि की भी यही भाषा है-'तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थान' (पातं० १-३)। उस अवस्था में जो द्रष्टा है वह स्वरूप में अवस्थित हो जाता है। यही है समाधि की अवस्था। चैतन्य का अनुभव हुए बिना, आत्म-स्वरूप का अनुभव हुए बिना, रागद्वेष-मुक्त क्षण जीये बिना समाधि की अवस्था उपलब्ध नहीं होती। न एकाग्रता
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