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योगदर्शन का हृदय ६३
व्यक्तियों की जो वृत्ति-निरोध का जीवन जीते हैं। एक हैं-असमाधि में जीने वाले और दूसरे हैं-समाधि में जीने वाले । पतंजलि ने समूचे योगदर्शन में इसी बिन्दु को स्पष्ट किया है कि व्यक्ति इस समाधि के बिन्दु पर कैसे जी सकता है ? कैसे गतिशील हो सकता ह ? इस पहले सूत्र 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' में उनका समूचा योग-दर्शन आ जाता है।
प्रश्न होता है कि एक साथ वृत्तियों का निरोध सभव है ? यह प्रश्न बहुत जटिल है। प्रशिक्षण लेते-लेते, परिपक्व होते-होते, एक सैनिक अग्रिम मोर्चे पर लड़ने के लिए सक्षम हो सकता है, किन्तु आज ही सैनिक बना और आज ही अग्रिम मोर्चे पर लड़ने चला जाए तो मरने के अतिरिक्त और कुछ शेष नहीं रहता। वह स्वयं मरता है और दूसरों को पराजय में ढकेल देता है। इसी प्रकार कोई साधना के क्षेत्र में प्रवेश करता है और उसे उसी दिन कहा जाए कि तुम वृत्तियों का निरोध करो, तो उसे पराजित करना है। फिर इस बात को समाहित करने के लिए पतंजलि को विस्तार देना पड़ा। उन्होंने कहा-चित्तवृत्ति का निरोध होने से समाधि होती है, यह शत-प्रतिशत सही है, किन्तु चित्तवृत्ति का निरोध साधना में प्रवेश करते ही नहीं हो जाता। इसलिए उसे चित्त की पांच भूमिकाओं को समझना चाहिए। वे पांच भूमिकाएं हैं—क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध । क्षिप्त अवस्था और मूढ़ अवस्था समाधि के लिए उपयुक्त नहीं है। विक्षिप्त अवस्था में झूठी समाधि भी सही लगती है। उसमें कभी-कभी सही समाधि की झलक आ सकती है। वह स्थायी नहीं होती। आचार्य हेमचन्द्र के शब्दों में यह 'यातायात' अवस्था है। कभी आदमी भीतर जाता है और कभी वाहर आता है। इस अवस्था में यह क्रम चलता रहता है। जब कोई व्यक्ति साधना का अभ्यास करता है तब वह इसी अवस्था से गुजरता है । दीर्घश्वास-प्रेक्षा के प्रयोग में चित्त उससे जुड़ता है, बिछुड़ता है। उसका यातायात प्रारम्भ हो जाता है। इससे इतना लाभ तो अवश्य ही हो जाता है कि जो चित्त बाहर-ही-बाहर भटकता था, वह भीतर जाने में भी अभ्यस्त हो जाता है। जो सदा चंचल ही रहता था, अब वह किसी के साथ जुड़ने लगता है। यह भी बहुत महत्त्व की बात नहीं है। ।
चित्त की चौथी भूमिका है-एकाग्रता । यह जब उपलब्ध होती है तब वास्तव में साधना प्रारम्भ होती है। एकाग्रता में चित्त का निरोध होता भी है और नहीं भी होता । इस अवस्था में अनेक वृत्तियों का निरोध होता है, किन्तु एक वृत्ति का आलंबन भी रहता है। पतंजलि यदि कह देते-'योगःसर्वचित्तवृत्तिनिरोधः' तो समस्या खड़ी हो जाती। कोई भी व्यक्ति साधना को प्रारम्भ करने के तैयार नहीं होता । कोई भी व्यक्ति योग में प्रवेश करने का साहस नहीं करता क्योंकि पहले ही चरण में यह बात आ जाती है कि सब प्रवृत्तियों का निरोध करोगे तो समाधि उपलब्ध होगी, अन्यथा नहीं। न सब वृत्तियों का निरोध सम्भव है और न समाधि
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