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मंगलवाद : नमस्कार महामंत्र १०१
मिलता है । किन्तु वह आवश्यक का अंग नहीं है । आवश्यक के मूल अंग सामायिक, चतुर्विंशस्तव आदि हैं। इस दृष्टि से भगवती सूत्र में नमस्कार मंत्र का जो प्राचीन रूप हमें मिला, वही हमने मूलरूप में स्वीकृत किया । अभयदेवसूरी की व्याख्या से प्राचीन या समकालीन कोई भी प्रति प्राप्त नहीं है । यह वृत्ति ही सबसे प्राचीन है । इसलिए वृत्तिकार द्वारा निर्दिष्ट पाठ और पाठान्तर को स्वीकार करना ही उचित प्रतीत हुआ । ' णमो सव्वसाहूणं' पाठ मौलिक है या 'णमो लोए सव्व साहूणं' पाठ मौलिक है - इसकी चर्चा यहां अपेक्षित नहीं है । यहां इतनी ही चर्चा अपेक्षित है कि अभयदेवसूरी को भगवती सूत्र की प्रतियों में 'णमो सव्वसाहूणं' पाठ प्राप्त हुआ और क्वचित् 'णमो लोए सव्वसाहूणं' पाठ मिला ।
• नमो अरहंतानं - रामो सव- सिधानं - यह पाठान्तर खारवेल के हाथीगुंफा लेख में मिलता हैं'। इसमें अंतिम नकार भी णकार नहीं है, सिद्ध के साथ सर्व शब्द का योग है और 'सिधानं' में द्वित्व 'ध' प्रयुक्त नहीं है । यह पाठ भी बहुत पुराना है, इसलिए इसे भी उपेक्षित नहीं किया जा सकता ।
१. प्राचीन भारतीय अभिलेख, द्वितीय खण्ड, पृष्ठ २६ ।
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