Book Title: Kalikal Kalpataru Vijay Vallabhsuriji ka Sankshipta Jivan Charitra
Author(s): Parshwanath Ummed Jain Balashram Ummedpur
Publisher: Parshwanath Ummed Jain Balashram Ummedpur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ अर्हन् नमः॥ कलिकाल कल्पतरु IIIIIIIIIIIIIIIIIIM •e AuN 11111 संक्षिप्त जीवन चरित्र Milin प्रकाशक मूल्य 11 श्री पार्श्वनाथ उम्मेद जैन वालाश्रम, उम्मेदपुर वाया एरनपुरा (मारवाड़) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ वन्दे श्री वीरमानन्द वल्लभ सद्गुरुभ्यो नमः ॥ पूज्यपाद प्रातः स्मरणीय न्यायाम्भोनिधि तपगच्छाचार्य १००८ श्रीमद्विजयानन्द सूरीश्वरजी महाराज ( प्रसिद्ध नाम श्री आत्मारामजी महाराज ) के पट्टधर अज्ञान तिमिर-तरणि कलिकाल कल्पतरु १००८ श्री आचार्य महाराज श्रीमद्विजय क्ल्लभ सूरीश्वरजी महाराज का संक्षिप्त जीवन चरित्र प्रकाशक - श्री पार्श्वनाथ उम्मेद जैन बालाश्रम, उम्मेदपुर वाया एरनपुरा ( मारवाड़ ) + मुद्रक – के० हमीरमल लूणियां जैन, अध्यक्ष – दि डायमण्ड जुबिली प्रेस, अजमेर रिनि० सं० २४६५ | ईस्वी सन् १९३८ आत्म सम्वत् ४३ विक्रम सम्वत् १९९५ प्रथमावृत्ति २००० शताब्दी सम्वत् Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाटण मण्डन श्री पंचासरा पार्श्वनाथ स्वामी का स्तवन ( तर्ज - जवादे जवादे ) लगादे लगादे किनारे किनारे, लगादे तूं नैया को सामे किनारे । ए नाथ इस संसार में, ढूंढूं अनादि से तुझे, सरदार मैं नादार हूँ, आज़ादि बक्षो अब मुझे, जिन्दगी मेरी बिना, तुझ बंदगी बेकार है । करुणा नजर से जो निहारो, दास खेवा पार हो ॥ १ ॥ है आर्जु हरदम मेरी, तुम धर्म की इक शर्ण हो, टल जाय दुनिया की दशा, तुम नाम मेरे कर्ण हो, जिनराज हे करुणा निधे, तुम ध्यान से भव तर्ण हो, वल्लभ गुरु संसार तारक, हृदय का आभर्ण हो ॥२॥ आनंद सिंधु लक्ष्मी दाता, हर्ष के भंडार हो, हे जगत वल्लभ विश्वबन्धु, सर्व के आधार हो, कान्ति तेरी हंस जैसी, विश्व में विस्तार हो, इक झलक उसकी बक्ष मुझको नाथ बेड़ा पार हो ॥ ३ ॥ [ श्रीमद्विजय ललित सूरिजी ] Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य वयं १००८ श्री श्रीमद्विजय वल्लभमूरिजी महाराज GOPALGAPPROAnaimama BURBAN ये चित्र अम्बाला शहर निवासी लाला राधामलजी ज्योतिप्रसादजी जैन भाबु ने अपने सुपुत्र ॐ प्रकाश के शुभ विवाह की खुशी में भेंट दिये हैं। 00mABCD000 Tu DIAMOND JUBILEE Press, AJMER Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A हमारे बालाश्रम के जिन मंदिर का प्रतिष्ठा महोत्सव नजदीक होने से हम सब प्रतिष्ठा महोत्सव की तैयारियां करने में जुटे हुए हैं, इसलिए इस पुस्तक में प्रस्तावनादि नहीं दे सके हैं। परन्तु हमको हर्ष इस बात का है कि मरुधरोद्धारक प्रखरशिक्षा प्रचारक आचार्य महाराज १००८ श्री मद्विजयललितसूरिजी के अथक परिश्रम और उन्हीं की कृपा से थोड़े समय में इस जीवन चरित्र को हम प्रकाशित कर पाठकों के करकमलों में समर्पण कर रहे हैं। शीघ्रता के कारण अशुद्धियां आदि रह जाना स्वाभाविक व क्षम्य है, अतः पाठक सुधार कर पढ़ें। सुज्ञेषु किंबहुना । मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदा ता. २२-११-३८ निवेदकश्री पार्श्वनाथ जैन उम्मेद बालाश्रम उम्मेदपुर (मारवाड़) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SUNT XX Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ownerarunown लुधियाना (पंजाब) निवासी लाला बख्तावरसिंहजी wwamreprencomewoomeromeras आपने पूज्यपाद आचार्य वयं १००८ श्रीमद्विजय वल्लभसूरिजी महाराज के जीवन चरित्र के प्रकाशन खर्च में रु० २००) की सहायता देकर परम गुरु-भक्ति का परिचय दिया है। THE DIAMOND JUBILEE PRESS, AJMER. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ €€€€€€€€€€ 2018012012101111120? लाला वख्तावर सिंहजी साहिब लुधियाना ( पञ्जाब) निवासी को सादर धन्यवाद GXX आप एक सखी सद् गृहस्थ हैं । पहले आप प्रजैन थे । सद्गत न्यायाम्भोनिधि नवयुग प्रवर्त्तक १००८ श्रीमद्विजयानन्द सूरीश्वरजी ( आत्मारामजी ) महाराज के सदुपदेशामृत का पान करके आप पक्के जैन धर्मानुयायी बने । आप स्वर्गस्थ गुरुदेव के तथा उनके पट्टालंकार वर्तमान आचार्य महाराज १००८ श्रीमद्विजय वल्लभ सूरीश्वरजी महाराज के पूर्ण भक्त एवं विश्वासपात्र हैं । जिस प्रकार उक्त गुरुदेवों में आपकी अटल श्रद्धा है, उसी प्रकार जैन धर्म के प्रति भी, अर्थात् आप जैन धर्म के परम उपासक हैं। देव पूजा, सामायिक आदि आपके नित्य नियम हैं । संवत् १९७१ में आपने उक्त वर्त्तमान श्राचार्य महाराज के समक्ष बारह व्रत स्वीकार किये थे और उनका पालन बरीवर कर रहे हैं । Phentertenmente*epreneurshiperen Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EDDENDE ODEO DE00B0DS00S00SODEODS ODECOEUDEO 030 DECISODED DENNE0030X HIEDVED02002002002000002qWEN 0201200201208 वर्तमान प्राचार्य देव के शिष्य पंन्यासजी (वर्तमान में आचार्य महाराज ) श्री ललितविजयजी महाराज जब होशियारपुर से बम्बई जाते हुए लुधियाना पधारे तब आपने अपनी नई बिल्डिंग की उद्घाटन क्रिया उन्हीं की विद्यमानता में कराई थी और पूजा पढ़ा कर स्वामीवात्सल्य किया था। फलोधी से निकले हुए जैसलमेर के संघ में आपने मुनि महाराजाओं की जो सेवाएँ कीं, वे सराहनीय हैं। ब्यावर से लेकर अम्बाले तक श्री गुरुदेव के साथ पैदल ® चल कर आपने जो अनुपम सेवा की है उससे आपकी भाक्ति का और भी ज्वलन्त उदाहरण मिलता है। आपने श्री आत्मानन्द जैन गुरुकुल आदि अनेक संस्थाओं में उदारता से दान दिया है। इस पुस्तक की ३ छपाई आदि में भी आपने आर्थिक सहायता प्रदान की 8 है। तदर्थ आपको बारम्बार धन्यवाद है। Deo dedne odsdoeodeode00200200SODBO OSO OSO OSO OSOOCOOBOOSOÓSCOBODZIOBOX निवेदकगुलाबचन्द ढड्डा एम० ए०, ऑनरेरी गवर्नर-श्री पा० उ० जैन बालाश्रम उम्मेदपुर (मारवाड़) 0200euteunenleucette0*0000euledledvedlem Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ वन्दे श्री वीरमानन्दम् ।। ॥ श्री मद्विजयानन्दसूरि सद्गुरुभ्यो नमः ॥ परोपकाराय सतां विभूतयः श्रीमजैनाचार्य श्री १००८ श्री विजयवल्लभसूरिजी महाराज का जीवन चरित्र जन्म और बाल्यकाल गायकवाड़ राज्य की राजधानी बड़ौदा नगरी है। इसे गुजरात की ही राजधानी समझिए। इस नगरी में महाजन वंश की भी काफ़ी बस्ती है। एक से एक सम्पन्न, सज्जन पुरुष आज भी इसमें हैं। इस हेतु से यह नगरी बड़ी भाग्यशालिनी है । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) इसी नगरी में श्रीमाली महाजन वंश के एक सज्जन पुरुष दीपचन्द भाई रहते थे। उनकी पत्नी का नाम इच्छा बाई था। दोनों पति-पत्नी परम सात्विक, ईश्वर भक्त तथा धर्मात्मा थे । वे सब प्रकार से शान्त और सन्तुष्ट थे । उन्हें इधर उधर की कोई चिन्ता न थी । आप अपने व्यवसाय के सिवाय अपना सारा समय सत्कार्यों में ही व्यतीत करते थे । इस प्रकार यह कुल अत्यन्त आनन्द से दिन बिता रहा था । उनके दो पुत्र थे, हीराचन्द और खोमचन्द तथा तीसरे के आगमन की आशा थी । इस बार दम्पती का हृदय विशेष आनन्दित रहने लगा | भाई दूज कार्त्तिक शुक्ला २ संवत् १६२७ के दिन तृतीय पुत्र रत्न ने जन्म लिया । माता-पिता का प्रेम इस सन्तति के गर्भ में आते ही परस्पर खूब रहने लगा। शुभ मुहूर्त्त पर जन्मोत्सव मनाया गया, और शुभ नाम “ छगनलाल " रक्खा गया । आप हो हमारे चरित्र नायक हैं । प्रेम की छाया में पुत्र का दिनों दिन विकास होने लगा । ऊधमी (चपल) बालकों से माता पिता तंग रहते । शान्त, आज्ञाकारी, सहन-शील पुत्र को देखकर उनका हृदय आनन्द से नाच उठता है । 'छगनलाल' वालकपने Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से ही गम्भीर, शान्त तथा आज्ञाकारी थे। "होनहार बिरवान के होत चीकने पात ।" गम्भीरता और सहनशीलता तो आपके जन्म जात गुण हैं। प्रेम और सुख की छाया में आप बड़े होते रहे। किन्तु "सब दिन जात न एक समाना" हमेशा एक सरीखी किसी की नहीं रही। “नानक दुखिया सब संसार" किसी को कम और किसी को ज्यादा, किन्तु सुख में दुःख का अंश अवश्य मिला रहता है। इसी नियमानुसार आपको भी वे दिन देखने पड़े। आपके पिताजी आपकी अल्पायु में ही इस असार संसार को छोड़ कर स्वर्ग सिधार गए । इस समय आपकी अवस्था लगभग 8 साल की थी। अब घर का सारा भार आपकी माताजी पर आपड़ा। आपकी माता एक सच्ची सती नारी थी। अपने बड़े पुत्र ‘खीमचन्द' भाई की सहायता से घर का काम स्वयं संभालने लगी। खोमचन्द भाई की देख रेख में घर का काम अच्छी तरह से चल रहा था। छगनलाल आनन्द से दिन बिताने लगे। आपका यथा समय विद्यारम्भ संस्कार हुआ। अब मां का प्यारा 'छगन' पाठशाला में भी 'छगन' हो गया। वहां जाते ही आपकी सज्जनता, सहनशीलता और पढ़ने Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) की ओर लगन को देख कर शिक्षक आपको प्यार करते साथी प्रेम रखते । इस प्रकार ये दिन भी बीत गए । समय का चक्कर ! 'दो वर्ष पीछे माताजी ने, आपकी ग्यारहवें वर्ष की आयु में ही, इह लोक-लीला समाप्त की । माता पिता दोनों के प्रेममय हृदयों के वियोग ने आपको अब और भी अधिक गम्भीर तथा शान्त बना दिया | शिक्षा, साधु समागम तथा वैराग अध्ययन चलता रहा । हिन्दी, गुजराती आदि पढ़ने और सुन्दर लिखने में आप सर्वदा अच्छे रहे । जितने वर्ष आप पाठशाला में रहे आप किसी भी कक्षा में अनुतीर्ण नहीं हुए । कक्षा में सर्वदा सम्मान भाजन रहते रहे । किन्तु अब उस पढ़ाई की ओर आपकी रुचि कम होने लगी । अब आपके हृदय में इन दैनिक वियोगादि दुःखों से छुटकारा पाने (मुक्ति) की ओर रुचि हुई । पाठशाला में अध्ययन के साथ २ धर्म कार्यों तथा साधु समागम में आपकी रुचि होने लगी। बड़े भाई ने आपकी यह लगन देखी। उनके हृदय में शङ्का होने लगी, उन्होंने आपको पढ़ाई लिखाई से हटा कर घर के कार्यों में जोड़ने का विचार किया। पंद्रहवें वर्ष में पदार्पण करते ही आपको Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठशाला से हटा लिया गया और दुकान पर बैठने के लिए मजबूर किया गया। . बालक छगन का वैरागी मन इन झंझटों में कब फँसने वाला था ? आपने दुकान पर रहकर भी दान, साधु समागम और मननशीलता न छोड़ी। अब तो एक ही प्रश्नथा जो बार बार तंग करता था। बाल हृदय में द्वंद्व मचा हुआ था कि "वास्तविक सुख क्या है, और वह कैसे प्राप्त हो सकता है ?" संवत् १९४० को बात है। आपकी आयु अभी १३ वर्ष की थी। मुनि महाराज श्री चन्द्रविजयनी का बड़ौदे में चातुर्मास था। साधु महाराज के उपदेशों के फल स्वरूप आपके हृदय में वैराग्य की भावना जागृत हुई। उस समय आप दीक्षा के लिए प्रस्तुत भी हो चुके थे। किन्तु श्री चन्द्रविजयजी महाराज के परलोक गमन से उस समय दीक्षा न ले सके। खीमचन्द भाई तभी से आपकी ओर से सशंकित रहते थे। अपनी बांह को छोड़ देना वे कब पसन्द कर सकते थे? होनहार लोगों से सब को बड़ी२ आशाएँ रहती हैं, और इसी लिए आपको पाठशाला से छुड़ा कर दुकान पर बैठाया था। नियम है, सच्ची लगन होने पर निश्चित साधन प्राप्त हो ही जाते हैं । * संवत् १६४२ में आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज का बड़ौदे में आगमन हुआ। नित्य व्याख्यान हुआ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता था। व्याख्यान में आप भी गए। जिज्ञासु को ज्ञान का सागर मिल गया। आप प्रति दिन व्याख्यान में जाते और उपदेशामृत पान करते । वैराग्य की भावना दृढ़ हो गई। वैराग्य का सच्चा दर्शन हो गया। अब तक तो आपके हृदय में विचार मंथन ही होता रहता था, अब सुन्दर नवनीत प्राप्त हो गया। "संसार मिथ्या है । इससे छुट्टी लेकर आत्म कल्याण ही परम लक्ष्य है।" यह निश्चय हो गया। - एक दिन की बात है। व्याख्यान की समाप्ति पर सभा विसर्जित हुई। श्रोतागण चलने लगे, परन्तु आप वहीं ठहरे रहे। सब के जाने के पश्चात् आपने आत्मारामजी महाराज के पैर पकड़ लिए। आंखों में अश्रधारा थी, और वाणी गद गद थी। "शिष्यस्तेऽहं, शाधिमा स्वां प्रपन्नम्" "त्राहिमांत्राहिमाम्" आप की प्रार्थना थी। आपके आर्तनाद ने गुरु महाराज का हृदय मोम कर दिया। महाराजजी ने सोचा कोई गरीब होगा कुछ सहायता चाहता होगा, यह जान कर आश्वासन देते हुए कहा। "भाई! मेरे पास क्या है ? यदि कुछ मदद चाहते हो तो किसी गृहस्थ को आने दो।" छ०-गुरुदेव ! आ०-क्यों भाई ? Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( " ) छ० – मुझे लौकिक धन की ज़रूरत नहीं । मुझे मुक्तिपद की चाबी चाहिए । केवल पन्द्रह वर्ष के बालक के इस चातुर्य पूर्ण उत्तर को सुनकर आत्मारामजी महाराज अत्यन्त प्रसन्न हुए । आप को इस भव्यात्मा की वाणी ने अपनी ओर खींच लिया । इनकी भव्यता का अच्छा आभास मिला । उज्ज्वल भविष्य और तीव्र बुद्धि का भी खासा परिचय हुआ । आपने कहा- "भाई ! अवसर आने दो; बड़े लोगों की आज्ञा लो; तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी ।" यथा समय आचार्य महाराज का बड़ौदे से विहार हुआ । आप भी कुछ दूर तक साथ गए और दूसरे दिन घर लौटे । प्रश्न था, अब बड़े भाई की आज्ञा प्राप्त करने का । उनसे कहने में आप हिचकिचाते थे । आप अपने बड़े भाई का बड़ा सम्मान करते थे। साथ ही कुछ डरते भी थे। इस तरह, क्या हो और क्या न हो ? यही चिन्ता थी । श्री आत्मारामजी महाराज कुछ मुनिराजों के साथ विहार कर गये थे, परन्तु अपने शिष्य मुनिराज श्री हर्षविजयजी महाराज को वहां, कुछ साधुओं के अस्वस्थ होने के कारण, छोड़ गये थे। आप उनके पास भी प्रति दिन व्याख्यान सुनने जाते थे। मुनि श्री हर्षक्जियजी के Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८ ) विहार के समय भी आप अगले गांव तक साथ गए और बड़े भाई से एक दिन और साथ रहने की आज्ञा लेकर साथ रह गए। आपको वास्तविक इच्छा तो उनके साथ ही रहने की थी। अतः इस बार आप घर न लौटे। मुनिराजों के साथ अहमदाबाद पहुँच गए। खीमचंद भाई को मालूम हुआ, वे तुरन्त अहमदाबाद पहुंचे और आपको ज़बरदस्ती घर ले आए। ___ अब अन्तर्द्वद समाप्त हो चुका था। सच्ची लगन थी। वैराग्य की तीव्र भावना थी, किन्तु दूसरे लोग क्या समझें ? किसी के दिल की कोई क्या जाने ? बड़े भाई तथा परिवार वालों को मोह था। वे आपको छोड़ना नहीं चाहते थे। इधर आप पर जो कुछ बीतती थी, उसे आप ही जानते थे। यद्यपि आपको विवश होकर घर पर ठहरना पड़ा, परन्तु दिल तो आप का मुनिराजों की सेवा में ही था। ... दो एक बार आपने आज्ञा लेने के लिये प्रयत्न किया किन्तु बड़े भाई के तके के आगे कुछ पेश न चली। अब आपने सीधा रास्ता पकड़ा। साधु के जो कुछ नियम हैं और धार्मिक कृत्य प्रतिक्रमण, सामासिक, पौषध, आयबिल, उपवास इत्यादि हैं, उनका पालन घर पर रह कर ही करने लगे। बड़े भाई को ये बातें भी खटकने Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगों, अतः वे इनमें भी बाधा डालने लगे। वे आपको गृहस्थ बनाना चाहते थे, परन्तु आप आत्म कल्याण पथ के पथिक बन रहे थे। यह संघर्ष चलता रहा। इस संबन्ध में आपको कई बार बड़े २ कष्ट सहने पड़े। आपने कई बार गृह त्याग किया किन्तु पकड़े गए। आखिर आपने निश्चय किया, -"यदि आत्मारामजी महाराज दीक्षा न देंगे तो प्रभु मू के सामने दीक्षा ले लूँगा।" .संवत् १६४३ में श्री आत्मारामजी महाराज का 'पालीताने में चौमासा था। आप भी बडोदे से भाई साहिब की आज्ञा लेकर पालीताना पहुँचे। चातुर्मास भर वहीं रह कर अध्ययन किया। : आत्मारामजी महाराज विहार करके राधनपुर पधारे। आप भी साथ ही थे। वहां से आपने अपने भाई साहिब के नाम एक चिट्ठी इस आशय की भेजी कि "अमुक दिन मेरी दीक्षा होने वाली है।" भाई साहिब पहुँचे । देखा, वहाँ ऐसी कोई बात न थी। आचार्य महाराज से वृतांत 'पूछा तब पता लगा कि आपको अपने भाई को दीक्षा की आज्ञा देने के लिए ही यहां बुलाया था। आपके भाई आपको लाने के लिए पहुंचे थे। किन्तु धर्म में आपको श्रद्धा, लगन, झुकाव आदि देख कर वे भी Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान गए और दीक्षा देने की सम्मति दे दी । यह समाचार सुनते ही आपका मनो-मयूर नाचने लगा। आपकी उस समय की प्रसन्नता का वर्णन लेखनी के बाहर की बात है। दीक्षा की तैयारी होने लगी, आखिर राधनपुर में वैशाख शु० १३ सं० १९४४ को बड़ी धूम धाम के साथ आपने दीक्षा ग्रहण की। आप मुनि श्री हर्षविजयजी महाराज के शिष्य हुए। 'छगन' नाम बदला गया और आपका नाम मुनि श्री वल्लभविजयजी रखा गया। दोक्षा महोत्सव का ठाठ बड़ा अलौकिक और अद्वितीय था ।एक महीने तक लगातार जुलूस निकलते रहे। भाग्यशाली सद् गृहस्थों ने अपने द्रव्य का सदुपयोग किया । आपके बड़े भाई खोमचन्दजी ने भी पारख मोहन टोकरसी को कुछ रकम दी और कहा “दीक्षा महोत्सव पर मैं शायद उपस्थित न हो सकँ तो आप इस रकम को खर्च में शामिल कर लेना।" . अब आपको इच्छित वस्तु की प्राप्ति हो गई थी। अब तो केवल उसको सँभालना थी। वय केवल १७ वर्ष की थी। नये रक्त का जोश था। मन में उत्साह था और हृदय में लगन थी। यही तक नहीं, भविष्य में वक्ताओं ने आपके सम्बन्ध में जो कुछ कहा था, वे सब बातें सत्य सिद्ध हो ही चुकी थीं। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) दीक्षा के समय भी ज्योतिषियों ने लग्न बल और हाथ की रेखाओं के योग से कहा था कि "आगे चल कर ये निश्चय ही महापुरुष होंगे। इनसे समग्र संसार को शांति, समता धर्म तथा सत्य का उपदेश प्राप्त होगा। लाखों मनुष्य इनकी पद रज सिर पर लगावेंगे।" आपके भावी जीवन को उच्चतर बनाने वाले निम्न लिखित लक्षण हैं: पैरों के तलुवे बहुत लाल और कोमल हैं। देखने वाले को कमल दल का अनुमान होने लग जाता है। ____ आपके समुचित पैर बड़े नाजुक और सुन्दर हैं। अंगुलियाँ परस्पर सनिहित हैं। घुटने आपके निगूढ़ और पुष्ट हैं, नाभी दक्षिणावर्त, विशाल हृदय और शंबव के समान त्रिवलित ग्रीवा देखने वाले को मुग्ध कर देती है। भाल स्थल अर्ध चंद्राकार और दीर्घ है। सारे अङ्ग प्रत्यङ्ग जैसे चाहिए वैसे सुन्दर और लाक्षणिक प्रतीत होते हैं। दीक्षा मुहत्ते के समय भी आपको जैसा बलिष्ट लग्न प्राप्त हुआ है वैसा बहुत कम लोगों को प्राप्त हुआ होगा। उस वक्त की कुंडली का फल यह है:-- ___ "इस लम में दीक्षा लेने वाला अवश्य महा पुरुष और नावंद्य होता है।" Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) नव जीवन की ओर आपकी शिक्षा बालवय में ही प्रारम्भ हो गई थी, 'किन्तु वह थी केवल व्यावहारिक शिक्षा । धार्मिक शिक्षा जो कुछ प्रारम्भ में प्राप्त हुई थी वह माताजी की कृपा से थी। माता ने जिन जिन धार्मिक विचारों का बीज वपन किया था, वे पक्के थे और उन्हीं के परिणाम ने आप को आगे बढ़ने वाली वस्तुओं की खोज में विराग प्राप्त कराया था। . आपकी स्कूली शिक्षा सातवीं कक्षा तक हो समाप्त हो गई थी किन्तु धार्मिक अभ्यास प्रायः दीक्षा लेने तक भी चलता रहा था । आपने इस बीच में पंच-प्रतिक्रमणसूत्र, श्रावकों के कृत्य, चंद्रिका का पूर्वाद्ध आदि यथा अवकाश सीख लिये थे। अब ज्ञान पिपासा और उग्र हो उठी। किन्तु यहाँ साधु धर्म अंगीकार करने के कारण साधु नियमादि का भी व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करना था। अतः यह गति कुछ दिनों तक मन्द रही और आप साधु धर्म की क्रियाएँ सीखते रहे। : दीक्षा प्राप्ति के बाद आपका पहला चातुर्मास राधनपुर में ही हुआ। वहाँ चन्द्रिका समाप्त करके आपने अपनी तीव्र बुद्धि का बड़ा अच्छा परिचय दिया। व्याकरण Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) शास्त्र में आपकी अच्छी गति हो गई थी । केवल चंद्रिका पढ़कर ही आपने संतोष नहीं कर लिया किन्तु पंजाब में जाकर आपने चंद्रप्रभा जैसे कठिन जैन व्याकरण का भी अच्छी प्रकार अध्ययन किया था । श्री आत्मारामजी महाराज साहिब जैसे पुरुष पारखी ने पहले ही परख लिया था कि इस आत्मा में भावी उन्नति के लक्षण हैं। अतः महाराज साहिब ने आपको अपने साथ ही साथ रक्खा । आपका हस्तलेख सुन्दर होने के कारण आचार्य श्री अपनी सारी चिट्ठी पत्री आप से ही लिखवाया करते थे । इस प्रकार आप आचार्य देव के परम प्रीति-भाजन हो गए। आपने अब कल्पवृक्ष पा लिया था; अब उससे मनो वाँछित फल प्राप्त करना था । विहार में आप आचार्य देव के साथ रहे। इस बीच में आचार्य देव ने आपको योग्य देखकर नव दीक्षित मुनिराजों को पढ़ाने की आज्ञा दी । 2.2 आपने पढ़ाने का कार्य सहर्ष स्वीकार किया । आप आचार्य देव के प्रत्येक व्याख्यान को बड़े चाव से सुना करते थे। इस प्रकार अल्प काल में ही आप अच्छे व्याख्याता हो गए। आप सब विहार करके धीरे धीरे मारवाड़ की ओर पधारे। आपने वाली और नाडलाई में Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) बड़ी दीक्षा के पूर्व ही व्याख्यान देकर अपनी व्याख्यान शक्ति का भी परिचय दे दिया था। संवत् १६४६ में पाली मारवाड़ में योगोदहन की क्रियाएँ कराके, आप को योग्य देखकर, नियमानुसार बड़ी दीक्षा भी दे दी गई। इस अवसर पर सात और साधुओं को भी बड़ी दीक्षा दी गई थी। यह चौमासा पाली में ही हुआ। गुरुदेव की अस्वस्थता के कारण आपका अध्ययन यहाँ भी कुछ सन्तोषप्रद नहीं हो सका। किन्तु गुरुभक्ति में अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले आप अपने अध्ययन की चिन्ता कब करने वाले थे? गुरुसेवा में दत्त चित्त होकर लगे रहे। "गुरु प्रत्यक्ष देवता है, उसके बिना अन्धकार है, संसार विचलित होजाय किन्तु गुरु-वचन विचलित होता हो नहीं" यह आपका अब भी अटल सिद्धान्त है। पंजाब के जैन समाज में जागृति का शंखनाद करने वाले पूज्यपाद आत्मारामजी महाराज ने आपको अब अपना दाहिना हाथ बना लिया था। सारे पंजाब में आचार्य श्री ने आपको अपना कार्य संभालने वाला प्रसिद्ध भी कर दिया था। तत्वनिर्णयपासाद, चिकागो प्रश्नोत्तर आदि पुस्तकों के लिखने में आपका आचार्य देव को बड़ा Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) सहयोग प्राप्त हुआ था। यहां तक की आपके ही हाथों से अंजनशलाका, आदि क्रियाएँ भी आचार्य देव ने कराई थीं। आपको प्रत्येक कार्य में सहायता मिले, इसलिये आपको आचार्य भगवान् ने एक शिष्य रत्न भी समर्पण किया। जिनका नाम मुनि श्री विवेकविजयजी रक्खा था। ये बड़े विनीत और वैराग्यवान एकान्त गुरुभक्त थे। ये आपकी शिष्य संतति में सब से प्रथम शिष्य हुए । आपकी शिष्य संतति में दूसरा नंबर मुनि श्री ललितविजयजी का है । इनको आपश्री ने अपने ही वृहद् हाथ से संवत् १६५४ में दीक्षा दी । आप भी आचार्य देव को छोड़ कर अलग रहना प्रायः पसन्द नहीं करते । किन्तु यह अवसर बहुत दिनों तक मिलते रहना कठिन है । आचार्य देव श्री १००८ श्री आत्मारामजी महाराज सं० १६५३ के ज्येष्ठ शु० ७ मंगलवार को सायंकाल की नित्य क्रियाएँ करके आराम करने वाले ही थे कि आचार्य श्री को खास का दौरा हुआ । अनेक बाह्योपचार किये गए किन्तु कुछ भी फरक न पड़ा। आचार्य श्री ने हमारे चरित्र नायक तथा सब छोटे बड़े साधुओं को सम्बोधित करके फरमाया- "लो भाई ! अब हम जाते हैं और सेब की खमाते हैं ।" इतना कह कर 'अर्हत' शब्दोच्चार के Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ जीवनलीला समाप्त की। आचार्य देव का,वियोग आपके लिए वज्रपात सम था। सारी छत्रछाया हठ जाने या समुद्र में एक बड़े सहायक के बिछुड़ जाने जैसा दुःख आपको था, किन्तु उसके साथ ही उत्तरदायित्व का बझ भारी बोझा भी सिर पर आ गया था। वह था स्वर्गीय आचार्य देव का वचन पालन । ... जब कभी पंजाबी लोग पूज्य पाद आचार्य देव से प्रार्थना किया करते कि गुरुदेव आप शतायु हो! किन्तु फिर भी जिसका जन्म है उसका अवसान अवश्यम्भावी है तो आपश्रीजी के पीछे हमारा कौन ? उस वक्त पूज्यपाद आचार्य महाराज यही फरमाया करते "तुम चिन्ता मत करो, 'वल्लभ' तुम्हारी संभाल लेगा।" ... विहार के कुछ संस्मरण । पंजाब में जागृति होगई थी। श्वेताम्बर संप्रदाय के घर भी थे, फिर भी हवा कुछ साफ नहीं थी। अब भी स्थानकवासियों की ओर से बार२ धार्मिक आक्रमण होते थे। शास्त्रार्थ तक की नौबतें पहुँचती थीं पंजाब की लाज तो अब आपके ही हाथों थी। आपने उसे भली प्रकार निभाया बल्कि गुरु आज्ञा पालन में Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह काम कर दिखाया, जिसे देख कर स्वतः आपकी प्रशंसा मुख से निकल पड़ती है। ___इन अवसरों पर आपकी प्रत्युत्पन्न बुद्धि और विद्वत्ता, सभी का बड़ा अच्छा परिचय मिला। अनेक शास्त्रार्थ हुए, बहस मुबाहिसे हुए, झगड़े टंटे हुए; किन्तु यह आपका हो अतुल प्रभाव था कि जिसके कारण सब दबते रहे। ___ आपकी वक्तृत्व शक्ति अत्यन्त प्रभावशालिनी है। आप जहां कहीं पधारते हैं इस शक्ति के द्वारा वहां की जनता पर जादू का सा असर हुए बिना नहीं रहता। क्या जैन क्या अजैन सभी आपके दर्शनार्थ व उपदेशामृत पान करने के लिए तैयार रहते हैं। अस्तु । पूज्य आत्मारामजी महाराज साहिब के स्वर्गवास के पश्चात् फिर से स्थानकवासी साधु कुछ जोश में आ गए और उन्होंने श्वेताम्बर मूर्ति पूजक समाज पर और उसके साधुओं पर आक्षेप करने शुरू किये। ___"साँच को आँच नहीं लगती" यह सिद्धान्त अटल है। किन्तु बाज़ार में ऐसा भी होता है कि अधिक शोर करने वाले की धूलि भी बिक जाती है और चुप रहने वाले का सोना भी नहीं बिक पाता। इस संबन्ध में आप पर और श्वेताम्बर जैन मूर्ति पूजक समाज पर कैसे Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) कैसे आक्षेप किये जाते थे, आपको किस प्रकार,ललकारा जाता था ? उसके एकाध उदाहरण सुनिये । आप सामाना (पंजाब) में विराजमान थे। आपके व्याख्यानों की चारों ओर धूम मची हुई थी। जैन जैनेतर सारी जनता के झुंड के झुंड व्याख्यान में आते थे। स्थानकवासी भाई भी आया करते थे। उनके मन में कुछ शंकाएँ थीं। आपके पास आकर वे शंका उठाते तो आप उनका यथोचित समाधान कर दिया करते थे । आपके उत्तर को सुन कर वे निरुत्तर हो जाते थे । एक बार उन लोगों ने आप से निवेदन किया कि "साहिब! आप बड़े बुद्धिमान हैं, सभा चातुर्य हैं। हम आपको महान् विद्वान् मानते हैं यदि आप कृपा करके ऐसा करें कि हमारे पूज्य सोहनलालजी महाराज, जो यहीं विराजमान हैं उनसे शास्त्रार्थ करके इन शंकाओं का सदा के लिए झगड़ा मिटा दें तो बड़ी कृपा होगी।" । ___"ठीक है भाई ! जैसी तुम्हारी इच्छा हो, करो" आपने हँसते हुए उत्तर दिया। उन्होंने फिर दूसरी ओर जाकर श्री सोहनलालजो से निवेदन किया, "महाराज ! वल्ल भविजयजी से आप शास्त्रार्थ कीजिये और उन्हें शास्त्रार्थ में हराइये । हम उनको तैयार कर आये हैं।" Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९ ) सर्व साधारण जनता ही नहीं, समाज के बड़े २ मनुष्य आपकी प्रतिभा के आगे झुक चुके थे। श्री सोहनलालजी महाराज भी इस प्रभाव से अज्ञात न थे फिर भी, 'नहीं' कहना उन्हें ठीक न अँचा । बोले "अच्छा शास्त्रार्थ तो पीछे होगा। पहले जाकर उनसे कहो कि आत्मारामजी महाराज ने 'तत्वनिर्णयप्रासाद' में जो मूर्ति पूजा का विधान लिखा है--वह 'महानिशीथ सूत्र' में कहां है ?" श्रावकों ने आकर आपसे निवेदन किया। आपने फरमाया "अवश्य लिखा है, यदि शंका हो तो शास्त्र देख लो।" दिन नियत हुआ। सभाजन एकत्रित हुए किन्तु सोहनलालजी महाराज न आये, न आने ही थे। तब तक आप जैन धर्म की महत्ता, स्थानकवासी तथा श्वेताम्बर संप्रदाय में विभिन्नता आदि बातें लोगों को समझाते रहे। अन्त में श्री सोहनलालजी के शिष्य मुनि श्री कर्मचन्दजी 'महानिशीथ सूत्र' लेकर पधारे और एक कोने में खड़े हो गये । व्यासपीठ तक तो आप (कर्मचंदजी) न आये किन्तु पुस्तक दिखला कर पूजा विधायक पंक्ति को अँगूठे से दवा कर वह स्थान दिखलाने के लिये बोले। श्री बख्शीऋषिजी मध्यस्थ थे। उन्होंने श्री कर्मचंदजी के हाथ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) छिपी हुई पंक्ति ज़ाहिर हो गई। पूजा का पाठ सब को दिख गगन मंडल गूंज से पुस्तक खींच ली । श्रम का पर्दा दूर हो गया। लाया गया। आपके जय-जय कार से उठा । चारों ओर धाक जम गई । १६३० की है । यह घटना संव इस प्रकार का एक चैलेञ्ज एकवार फिर मिला आपका पूज्य सोहनलालजी से हो मुकाबिला बार बार होता रहा । सामने हुई चर्चा के फल स्वरूप विरोध की आग और बढ़ी। आप वहां से विहार कर नाभा पहुँचे। नाभा में आपकी कीर्त्ति पहले से ही पहुँच चुकी थी अतः सर्व साधारण की ओर से आपका बड़े सम्मान से प्रवेश हुआ । वहां के महाराजा साहिब श्रीयुत् १००८ श्री होरासिंहजी बहादुर बड़े धर्म प्रेमी और न्यायी थे । साधु सन्तों पर उनकी बड़ी भक्ति थी । इसके अतिरिक्त महा राजा साहिब के प्राइवेट सैक्रेटरी श्रीयुत् जीवारामजी ( अग्रवाल) आपके पूरे भक्त थे। जब उन्होंने आपके आग मन की सूचना पाई तो आपको सादर आमंत्रित किया आप राज सभा में पधारे। नरेश ने आपको बड़े सम्मान से उच्चासन पर बिठाया । आपसे वार्तालाप कर बड़े प्रसन्न हुए संयोग की बात है कि पूज्य सोहनलालजी भी नाभा पधारे । पूज्य सोहनलालजी ने वहाँ भी बहुत दूर की Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हॉकी-"श्वेताम्बरों में ऐसा कोई नहीं है जो मेरे प्रश्नों का उत्तर दे सके।" ___ आपसे आकर श्रावकों ने निवेदन किया। आपने फरमाया "भाई ! नाभा नरेश धर्म प्रेमी, विद्वान् तथा सज्जन भी हैं। उनके सम्मुख ही यह फैसला क्यों न हो जाय ?" ... श्रावकों ने महाराजा साहिब से निवेदन किया । शास्त्रार्थ का दिन मुकर्रर हो गया। पूज्य सोहनलालजी के लिये शास्त्रार्थ करना तो दुश्वारथा ही लेकिन फिर भी हा कर ली। पूज्य सोहनलालजो को यह तो ध्यान था कि मैं किसी प्रकार भी श्री वल्लभविजयजी को जीत नहीं सकता। अतः अपना बचाव करके, अपने प्रशिष्य उदयचंदजी को शास्त्रार्थ करने के लिये भेजा । यथा समय महाराजा साहिब (नामा) की अध्यक्षता में शास्त्राथ प्रारम्भ हुआ और कई दिन तक लगातार होता रहा। अन्त में विजय आपकी होहुई और सोहनलालजी की वह शास्त्रार्थ की बात समाप्त हुई। . स्थानकवासी संप्रदाय में पूज्य सोहनलालजी के विरोध से किनाराकशो कर लेने के बाद विरोध कुछ कम हुआ। फिर भी स्थानकवासी साधु आपकी इस ख्याति से सन्न हो रहे थे। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) । एक बार आप लुधियाने (पंजाब) में विराजमान थे। एक दिन रतनचंदजी तथा चुनीलालजी नाम के दो स्थानकवासी साधु आपके निवास स्थान के सामने की सड़क पर आकर खड़े होगए और आपको बुलाने लगे। जब आपने खिड़की के नीचे की ओर झांका तो दोनों बोले:-- ___ "हम शास्त्रार्थ करने के लिये आये हैं। तुमने विहार मत करना। अगर विहार किया तो हारे हुए माने जाओगे।" __"शास्त्रार्थ कौन करेगा ? तुम या कोई और ? आपने पूछा। . "स्वामीजी महाराज उदयचंदजी करेंगे" उन्होंने उत्तर दिया। आपने उन्हें नाभा के शास्त्रार्थ की बात सुनादी जिसमें उदयचंदजो स्वयं हार चुके थे। किन्तु उन साधुओं ने जब बहुत हठ किया तो आपने स्वीकार कर लिया। मगर वहां शास्त्रार्थ करना किसको था ? आप वहां कई महीनों तक ठहरे किन्तु वे लोग सामने तक न आये और न आने ही थे। शास्त्रार्थों में जब स्थानकवासी लोगों ने सीधे पास न पाया तो उन्होंने दूसरी कौमों को बहकाना प्रारम्भ किया, उसका फल यह हुआ कि स्वर्गीय आचार्य श्री are L Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) आत्मारामजी महाराज साहिब की पुस्तक के विरुद्ध हल्ला फैलना प्रारंभ हुआ । गुंजरांवाला और कई स्थानों पर ऐसे व्याख्यान हुए, जिनमें जैन धर्म तथा श्री आत्मारामजी की त्रुटियाँ बतलाई जाने लगीं। आप उन दिनों बिनौली (मेरठ) में विराजमान थे । एक सभा गुजरां वाला में भी हुई। जैन और सनातन धर्मी भाइयों में परस्पर इतना विरोध बढ़ा कि वे एक दूसरे के कट्टर दुश्मन हो गए। जैनी लोग अस्सी घर की संख्या में थे और सामने प्रतिपक्षी ४५००० की संख्या में थे । उस विरोध ने ऐसा भयानक रूप पकड़ा कि गुजरांवाले के जैन समाज को अपने घरों में रहना मुश्किल हो गया । उस वक्त एक ऐसे विद्वान् अनुभवी गंभीर और अवसराज्ञ महात्मा की ज़रूरत थी, जो सत्य वस्तु दिखला कर दोनों पक्षों को शान्त करता । आप पर सब को विश्वास था । आप ही इस संकट से संघ की रक्षा कर -सकते थे। गुजरांवाला श्रीसंघ और आचार्य श्री १००८ - श्रीमद् विजय कमलसूरिजी महाराज के पत्र आपके पास पहुँचे । उनमें मुख्य बात यही थी, "यहां बड़ा उत्पात मच रहा है । यह तुम्हारे आने से ही शान्त होगा । जैन धर्म की रक्षा के लिए तुमको अवश्य और शीघ्र आना चाहिए ।" इसके अतिरिक्त शीघ्र आने के लिए २ तार · # Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी आपको मिले । इन दिनों गुजरांवाले में खूब नोटिस पर नोटिस निकलते थे। रोज शास्त्रार्थ होते थे। सब से बड़े शास्त्रार्थ का दिन निश्चित करके आपको पत्र लिखा गया था। हिन्दुओं की ओर से पं० भीमसेन शर्मा, विद्यावारिधि पं० घालाप्रसादजो मिश्र, पं० गोकुलचंदजी आदि तथा श्वेताम्बरों की ओर से पं० ललितविजयजी गणी, यतिजी श्रीकेसरऋषिजी, पं० वजलालजी शुक्ल इत्यादि थे। जेठ का महीना था। बिनौली से गुजरांवाला लग भग ३५० मील होता है । सवारी पर चढ़ना तो निषिद्ध ही था। अस्तु आपने विहार करने का निश्चय किया। ___ आपने अपने परम भक्त, धर्मवीर जैन समाज के चमकीले सितारे मुनि श्री सोहनविजयजी* से जो कि उस वक्त आपकी सेवा में थे, पूछा। वे तो खुद साहस की मूर्ति थे ही। उन्होंने हाथ जोड़ अर्ज की "गुरुदेव ! सेवक आपकी इच्छा के आधीन है, जिधर आप पधारेंगे . * आप पहले स्थानकवासी साधु थे। वसंतामलजी नाम था। गुणी और विवेकी भी अच्छे थे। इन्होंने विचारा कि सत्य वस्तु को स्थानकवासी छिपाते हैं, और मुझे सत्य वस्तु की खोज करनी है, तब अपने संप्रदाय के अच्छे वृद्ध साधुओं से शङ्काओं का समाधान न पाकर हमारे चरित्र नायक के शिष्य होगए । नाम आपका सोहनविजयजी रक्खा गया। .. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दास आपकी छाया का अनुगामी होता रहेगा।" धूप की लपटों में थके मांदे, प्यासे, मंजिल पर मंजिल ते करते हुए आप गुजरांवाला पहुँचने की कोशिश में लगे । ___ पहले दिन आपने २२ मील का सफर त किया । गांव में पहुंचे तो लोगों ने देखा, पैरों में छाले पड़ रहे हैं । शरीर थक कर चूर २ हो रहा है, मगर आपको इस बात का कुछ खयाल ही नहीं था। एक ही धुन थी कि किस प्रकार गुजरांवाला पहुँचे । . गरमी की ऋतु थी। जलती रेत में आप चलते ही रहे। रास्ते में श्रावक लोग प्रार्थना करते थे "गुरुदेव ! आपके पैर सूज रहे हैं, हालत बहुत खराब हो रही है । आप कुछ समय के लिए आराम कीजिए।" । ___ आप हँस कर कह देते--"यह तो पौद्गलिक शरीर का धर्म है, वह अपना धर्म पालता है और मैं अपना धर्म पालूँ इसमें क्या बड़ी बात है। मुझे आराम उस दिन मिलेगा जब गुजरांवाला पहुँच कर अपने वृद्ध मुनिराजों के वचनों को सफल करके धर्म की ध्वजा फहराती हुई देखूगा।" __इस प्रकार कठिन विहार करके आप गुजरांवाला पहुँचे। सारे संघ ने आपको जुलूस के साथ नगर प्रवेश कराने का विचार किया किन्तु आपने स्वीकृत नहीं किया Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) महाराज श्री विजयकमलमूरिजी के बहुत समझाने बुझाने पर आपने जुलूस के साथ नगर में प्रवेश करना मंजूर किया। बड़े उत्साह के साथ नगर प्रवेश हुआ। जिस कलह को शान्त करने के लिए आप पधारे थे, वह आपके आगमन के पूर्व ही शान्त हो गया था। आप को केवल व्याख्यान का ही अवसर प्राप्त हुआ। आपने वहां 'विशेष नर्णय' और 'भीमज्ञान त्रिशिका' नामक दो पुस्तकें लिखीं जिनमें आपके हिन्दू धर्म शास्त्रों के गहन अध्ययन की पूरी झलक दिखाई देती है। बिनौली से गुजरांवाला जाने में वहां भड़कती आग को शान्त करना एवं जैन धर्म और सनातन धर्म में फैले हुए क्लेश को शान्त करना यह तो आपका मुख्य उद्देश्य था ही, किन्तु एक बात और भी थी कि वृद्ध साधु महाराज आचार्य श्री विजयकमलमूरिजी और उपाध्यायजी श्री वीरविजयजी महाराज का श्री आत्मारामजी महाराज के स्वर्गस्थ होने के बाद पंजाब में यह पहला हो आगमन और चातुर्मास था। उनकी उपस्थिति में दोनों संप्रदायों में वैषम्य बढ जाय और सैंकड़ों वर्षों तक बना रहे, इसे आप उन वद्ध मुनिवरों के नाम के साथ कलंक समझते थे। उनकी मौजूदगी में हो दोनों पक्षों का समाधान होजावे और शांति फैल जाय, इसो में उन वृद्ध पुरुषों Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) की कीर्ति थी। इसका प्रयत्न करना आपका कर्त्तव्य था। क्योंकि उक्त मुनिराज आपकी प्रेरणा से ही पंजाब में पधारे थे। , श्रीमद् विजयानन्द सूरिजी महाराज ने पंजाब रक्षा का भार आपको सौंपा था। उसे आपने विरोधियों की बौछारों से इस प्रकार बचा लिया। अब बाहिरी विरोधों से बचकर सामाजिक संगठन का काम करना रहता था । सामाजिक जीवन का उत्थान संगठन के बिना अधिक दिनों तक सुचारु रीति से चलना दुस्तर होता है। इस कार्य के लिए आपने सर्व प्रथम सारे पंजाब प्रान्त को एक सूत्र में बांधने का कार्य-क्रम तैयार किया। . शास्त्रार्थों की बातें एक तरफ चल ही रही थीं। दूसरी ओर रचनात्मक कार्य की ओर भी आपका ध्यान था । सारे पंजाब का दौरा करते हुए आपने अपना प्राथमिक उद्देश्य भी सम्मुख रखा। श्री आत्मारामजी महाराज का देहान्त संवत् १९५३ में गुजरांवाला में हुआ था। आपने उस वर्ष वहीं चातुर्मास करके सर्व प्रथम स्वर्गीय श्री आचार्यदेव की स्मृति को चिर स्थायी रखने के लिए कुछ योजनाए तैयार की, तथा उन योजनाओं को कार्य रूप में परिणित करने हेतु पंजाब श्रीसंघ को उपदेश दिया। वे योजनाएँ निम्न प्रकार से हैं:-- Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) १ - आत्म संवत् प्रारंभ करना। यह संवत् अबतक बराबर प्रचलित है । २ - आचार्य श्री का समाधि मन्दिर बनवाना । वह भी अब बन कर तैयार हो चुका है और पंजाब का श्रीसंघ उस समाधि मंदिर को अपना तीर्थ समझता है । ३ - प्रत्येक स्थान पर श्री आत्मानन्द जैन सभाएँ स्थापित करके एक केन्द्रीय संगठन करना । ४ – पाठशालाएँ स्थापित करना तथा 'श्री आत्मानन्द जैन महा-विद्यालय' की स्थापना करना । 1 ५ - - " श्री आत्मानन्द जैन पत्रिका " प्रकाशन करना । आपके प्रयास से सभी उद्देश्यों की पूर्ति के लिये संतोष जनक कार्य हुआ और हो रहा है यह अवसर पंजाब के श्वेताम्बर मूर्त्ति पूजक संप्रदाय के लिए इतना नाजुक था कि जरासी भी भूल हो जाने या कमजोर हाथों में पड़ जाने से सारा किया कराया चौपट होजाने का भय था । गुरु वियोग का दुःख, सारे पंजाब की संभाल, अपना मिशन पूरा करना और उस पर भी विरोधियों द्वारा किये गये आक्षेपों को सँभालना । परन्तु आपने जिस उत्साह से यह सब कार्य सम्यक् रीति से किया, वह स्तुत्य हैं । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपकी व्याख्यान शैली तथा विद्वत्ता अबतक इस कोटि तक पहुंच चुकी थी और आपके व्यक्तित्व का इस कंदर प्रभाव था कि आप जिधर जाते सारी जनता, जैन जैनेतर सभी, आपके दर्शन करने तथा व्याख्यान सुनने के लिए टूट पड़ते। गाँव २ में तथा घर में आपके सद्गुणों की चर्चा हो रही थी। आपको जो कोई एकबार देख लेता, स्वतः ही आपके वशीभूत हो जाता। स्थानकवासी संप्रदाय पर तो आपकी विशेष धाक जम गई थी। शिक्षा के क्षेत्र में __ पहली योजना चल रही थी, किन्तु उसका पुष्ट होना अत्यन्त आवश्यक था; अतः उस शिक्षा वाले उद्देश्य को लेकर आप आगे बढ़े और संवत् १९५८ में जंडियाला में श्री आदीश्वर भगवान् के नवीन मन्दिर की प्रतिष्ठा के समय बाबाजी श्री कुशलविजयजी महाराज की अध्यक्षता में एक सभा करके ये प्रस्ताव भो स्वीकृत करायेः-- "श्री आत्मानन्द जैन पाठशालाओं के लिए प्रत्येक नगर में चन्दा लिखाया जावे, पाई फण्ड की स्थापना की जावे अर्थात् इस फण्ड में प्रत्येक मनुष्य हर रोज एक पाई दिया करे, एवं विवाह आदि अवसरों पर शिक्षा के लिए Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) निश्चित भेंट दी जाया करे। मन्दिर आदि की तरह शिक्षा के लिए भी दान दिया जाया करे ।" इधर यह कार्य होता रहा, दूसरी तरफ आपके सदुपदेश से निम्न लिखित दीक्षा महोत्सव भी हुये । नारोवाल में सं० १६५४ में मुनि श्री ललितविजयजी की दीक्षा हुई । सं० १६५५ में श्री साध्वीजी देवश्रीजी की दीक्षा जंडियाले में हुई । सं० १६५७ में साध्वीजी श्री दानश्रीजी दयाश्रीजी की दीक्षाएँ हुशियारपुर में हुई । सं० १६६०-६१ में भी अनेक साधुओं को दीक्षा दी। इधर गुजरात प्रान्त में दसाड़ा गाँव में आपके परम भक्त शिष्य मुनि श्री सोहनविजयजी की दीक्षा आप श्रीजी के नाम से हुई । सर्व साधारण को व्याख्यानामृत पान कराते हुवे श्री आत्मानन्द जैन पाठशाला और श्री आत्मानन्द जैन सभा की जड़ें पुष्ट करते हुए आप सारे पंजाब में बिहार करते रहे । पंजाब प्रान्त में जैनों के घर योंही कम हैं, उस पर भी मतों की फूट के कारण विहार की असुविधाएँ कभी २ बहुत ही बढ़ जाती थीं, किन्तु आपका लक्ष्य गुरु वचन को Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) पालने की ओर ही था । अतः आपने सहर्ष सारी तकलीफें सहन कीं । आप नये नये क्षेत्रों में फिर कर धर्म प्रभावना और गुरुदेव के नाम की ख्याति फैलाने के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहते थे । एक ही स्थान पर सुख पूर्वक रह कर बैठे रहना आपको बिलकुल पसन्द नहीं था | आपके सिर पर स्वर्गस्थ गुरुदेव का अदृश्य प्रभाव था इसलिए जहाँ कहीं भी आप पधारते आपकी अपूर्व प्रतिष्ठा और धर्म की भावना होती । सं० १६५३ की घटना है। पूज्यपाद श्री आत्मारामजी महाराज के स्वर्गवास को अभी ६-७ महीने ही हो पाये थे। गुजरांवाला का चौमासा समाप्त करके आप रामनगर पधारे। आपका विचार रावलपिंडी और पिंडदादनखां जाने का था। रामनगर में आप के व्याख्यानों का जनता पर अपूर्व प्रभाव पड़ा। एक दिन आप विहार करने को तैयार हुए। गाँव के सब लोग एकत्रित हुए । उनमें लक्षाधिपति रामशाह नामक वैष्णव क्षत्रिय और एक 1. तार बाबू मुख्य थे। उन्होंने आकर आप श्रीजी के चरण पकड़े और कहा 'हमारा आत्मा आपके बिहार से दुःख पाता है । हम आपको हरगिज नहीं जाने देंगे।' तार बाबू ऑफिस में डाक का थैला आकर पड़ा था । कुछ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) टेलीग्राम भी थे । जनता ने आकर कहा, बाबूजी ! पोष्ट ऑफिस खोलो । बाबूजी ने जवाब दिया भाई ! अब तो बाबाजी महाराज ऑफिस खुलायेंगे तो ही खुलेगा । हमारा तो एक ही सिद्धान्त है: बैठे हैं तेरे दर पर कुछ करके उठेंगे । या वस्ल ही हो जायगा या मर के उठेंगे ॥ दैवयोग ! इन्द्र महाराज ने मेहर को । दृष्टि शुरु हो गई और ३-४ दिन झड़ो लगो रही । प्रायः लोगों की आशाएँ सफल हुई। रास्ते में कीचड़ होजाने से आपका रावलपिंडी पिंडदादन खाँ जाना न हो सका । राम नगर में मास कल्प पूरा करके आप अकालगढ़ शहर पधारे । यद्यपि वहां श्रावक की सिर्फ एक ही दुकान थी तथापि सारा ही शहर आपके गुणों का रागी था। बड़ौदे के सुप्रसिद्ध झवेरी नगोनभाई आदि कुछ सज्जन आपके दर्शनार्थ अकालगढ़ आये । आपके पास छोटे साधु बैठे स्वाध्याय कर रहे थे, आगन्तुक सज्जन आपके भक्त थे, तथा सांसारिक संबन्धी भी थे। उनके मन में आया कि श्री वल्लभविजयजी महाराज जैसे लब्ध प्रति मुनिराज के साथ यदि कुछ वृद्ध साधु महाराज भी होते तो सोने में सुगन्धी जैसा काम हो जाता। यह संकल्प विकल्प उनके मन में हो ही रहे थे, इतने में श्रो . --- Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबाजी कुशलविजयनी महाराज स्थंडिल जाकर आये, श्री हीरविजयजी महाराज गोचरी (भिक्षा) लेकर आये और श्री मुमतिविजयजी महाराज पानी लेकर आये। वृद्ध महापुरुषों को देख कर उन भक्त श्रावकों के चित्त बहुत प्रसन्न हुए और अपने मनोगत भाव व्यक्त करते हुए बोले-हम ऐसा ही चाहते थे, कि अभी वृद्ध मुनिराजों के साथ रह कर यह पूरा २ अनुभव प्राप्त करके सुयोग्य बनें। हमारी इच्छा पूर्ण हुई। प्रामानुग्राम विहार करते हुए आप काश्मीर की राजधानी जम्मू में पहुंचे। वहां एक मास तक आपके व्याख्यानों की झड़ी लगी रही। जिससे ब्राह्मण पंडितों मे सहर्ष लाभ उठाया। वहां से विहार करते हुए आप छ साधुओं को साथ लेकर किसी गांव में पहुंचे। वहां नों का एक भी घर नहीं था। शाम हो गई। एक अमेशाला में जाकर आपने आश्रय लिया। उस गाँव में कथावाचक भी रहते थे। वह सायंकाल के समय अर्मशाला में हमेशा कथा किया करते थे; उस दिन भी माये। कथा प्रारंभ हुई श्रोताओं से उन्हें मालूम हुआ कि शाला में कुछ साधु आकर ठहरे हुए हैं। तुरन्त क्रोध वाकर वे कुछ २ बोलने लगे। मुनि महाराज शान्त सब कुछ सुन रहे थे। कथा समाप्त होने के बाद Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) आपने कथावाचकजी को बुलाया। पंडितजी पहले तो चिड़े हुए आये किन्तु जब इन महापुरुषों के निकट पहुँचे उनका क्रोध काफर होगया। उन्होंने पूछा आप कौन हैं। कहां से आये हो ? "भाई ! हम जैन साधु हैं। विचरते हुए यहाँ आ निकले हैं।" ___ "आप यहां नहीं ठहर सकते। आजकल साधुओं के वेष में कई लफंगे फिरते हैं। हम यहां किसी साधु को ठ.रने नहीं देते।" कथा वाचकजी ने उत्तर दिया। - आपने अपनी मीठी भाषा में ( गीर्वाण भाषा का उपयोग करते हुए ) अनेक जैन जैनेतर शास्त्रों के प्रमाण युक्त उपदेश दिये। आपकी गंभीर और अमृतमयी वाणी को सुनकर उनका बाहरी क्रोध भी शान्त हो गया। यही नहीं कथा वाचकजी मुग्ध होगए। हाथ जोड़ कर बोले । "महाराज क्षमा करें मैं ढोंगी साधुओं से इतना तंग आगया हूँ कि अच्छे साधु की कल्पना तक नहीं कर सकता। आज्ञा दें आप के लिए भोजन का प्रबन्ध करूँ।” नौकर को बुला कर बत्ती लाने के लिए भी पंडितजी ने कहा। - आप मुस्कराये और बोले "पंडितजी! हम एक घर का आहार नहीं लेते और रात में तो आहार का स्पर्श तक नहीं करते। रात में हम चिराग भी नहीं जलवा सकते।" Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) आपने कथा वाचकजी की उस दिन की कथा की त्रुटियां भी सुनादीं। पंडितजी मुग्ध थे। नत होकर बोले । “साहब ! हम तो पेट के लिए कथा करते हैं। हम से भूलें हो ही जाती हैं।" पंडितजी नमस्कार करके अपने घर चले गए। - ऐसे ही आप एक वार किसी गाँव में पहुँचे। गांव के पास पहुँचते ही आप के चित्त में कुछ ग्लानि सी हुई। किन्तु अगला गांव दूर देख कर आपने गांव में प्रवेश किया। सामने ही एक घर में बकरे की लाश टंगी देखी। अब क्या हो सकता था ? ... गांव की सराय में पहुँचे । जाकर बैठे ही थे कि कुछ लोग बल्लम (लाठी-डांग) आदि लेकर सामने से जाते हुए दिखलाई दिए। आपका दया पूर्ण हृदय भर आया। किन्तु कुछ पता न था कि ये कहाँ जा रहे हैं ? आप कुछ भी न बोले। थोड़ी ही देर में धर्मशाला के रक्षक बाबाजी की स्त्री आई। उसने आप से निवेदन किया। "महाराज ! आप यहां न ठहरें। मेरा स्वामी डाकू है। वह सते को मुसाफिरों का सर्वस्व लूट लेता है और यदि आवश्यक्ता समझता है तो उनकी हत्या करने में भी नहीं चूकता। मुझे डर है कि कहीं उसे साधु हत्या का पाप न लगे।" Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) आपने सुना और हँस पड़े। बोले, "भोली बहन मेरे पास धरा ही क्या है जो वह ले लेगा ? तूं निश्चिन्त रह ।" - साथ के दूसरे गृहस्थों ने हिम्मत की और कहा, "चाहे जो हो, आज इनसे दो दो हाथ ज़रूर होंगे।" आपने उन्हें भी शान्त किया। __शाम तक दूसरे गांव पहुंचना था, अतः आप ने वहां से तीसरे पहर विहार कर दिया। - पंजाब का विहार इस प्रकार की सैंकड़ों कहानियों से भरा है। फिर भी आप जहां कहीं पधारे वहीं शांति हुई। आपका सर्वत्र सन्मान हुआ और यश का डंका बजा। हज़ारों अजैन भी आपके पक्के भक्त और शिष्य होगए। जिनमें सर्व साधारण से लेकर अच्छे २ विद्वान् दुकानदार तथा श्रीमन्त सज्जन थे। ऐसे कई अवसर आये कि जब आप उन स्थानों पर जहाँ मूर्ति-पूजक पुजेरे श्रावकों के एक दो ही मकान थे; पधारे और आपको तीन चार साधुओं के साथ प्रेमवश कई २ दिन तक ठहरना पड़ता था। ___लाहौर छावनी की बात है। वहां केवल दो एक घर ही मूर्ति-पूजक जैनों के थे। लोगों के प्रेम और भक्ति के कारण आपको एक महीना भर वहीं ठहरना पड़ा। दूसरे वृद्ध साधु बड़ी चिन्ता में थे, किन्तु आपने Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) भब उन्हें पत्र लिखा तो उनको शांति हुई। पत्र में आपने अन्य बातों के साथ साथ यह भी लिखा था-"यद्यपि ये सभी अग्रवाल दिगम्बर जैन हैं किन्तु स्वर्गवासी गुरु महाराज को जैन धर्म का प्रभाविक पुरुष मानते हैं। अतः हमें हार्दिक खुशी है। आहार पानी की खास तकलीफ नहीं है। वैसे तो आप जानते ही हैं बिना कष्ट सहे नवीन क्षेत्र तैयार नहीं हो सकता?" __पंजाब में विहार संबन्धी कष्ट सहने का ध्येय इस पत्र से ही स्पष्ट हो जाता है। ठीक है, महात्माओं का जीवन परोपकार के लिये ही तो है। ___ आपका उद्देश्य क्या है, और उसे पूर्ण करने में आप किस प्रकार प्रयत्नशील रहे इसका दिग्दर्शन आपको हो चुका है। स्वर्गीय आचार्य देव के स्वर्गस्थ होने पर उसी साल आपने शिक्षा प्रचार का उद्देश्य आगे रक्खा। वर्त्तमान काल में पाश्चात्य शिक्षा की चकाचौंध में पड़े हुए लोगों की रक्षार्थ, समाज को उन्मार्गगामी होने से बचाने के लिए और साथ ही दूसरी जातियों की समानता में खड़ा रखने के लिए शिक्षा की बड़ी आवश्यक्ता समझी गई। "श्री आत्मानन्द जैन पाठशाला, पंजाब के लिए सं० १९५३ में ही प्रयत्न प्रारंभ हो गया था। परन्तु सारा क्षेत्र तैयार करते काफी समय लगता है। जनमत को Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जागृत करके जो काम किया जाता है वह स्थायी होता है और उसकी जड़ें गहरी होती हैं। इस बात का आपने अनुभव किया। उस वक्त जैन समाज कितना पिछड़ा हुआ था, यह अनुमान से जाना जा सकता है।। पंजाब के दौरे में आपने सब से पहले 'श्री हर्षविजयजी ज्ञान भंडार' की स्थापना करवाई। सं० १९५८ में "श्री आत्मानंद जैन पाठशाला" अमृतसर की नींव रक्खी गई। और भी स्थान २ पर छोटे बड़े विद्यालय स्थापित हुए। सं० १६६० में आपके उपदेश से अंबाले में श्री आत्मानन्द जैन पाठशाला की नींव पड़ी। उस पाठशाला की हालत दिनों दिन उन्नत होती जा रही है। इसी वर्ष उसे कॉलेज कर दिया गया है। आपके परिश्रम के फल स्वरूप जो जो संस्थाएँ उन दिनों स्थापित हुई जैसे, जंडियाला, मालेरकोटला, गुजरांवाला और लुधियाना इत्यादि के स्कूल, वे सब आज अच्छी स्थिति में चल रहे हैं । आप इस प्रकार शिक्षा प्रचार करके केन्द्रीय संगठन से जैन समाज का मुख उज्ज्वल करते हुए पंजाब में विचरते रहे। अब तक गुजरात प्रॉन्त से अनेक विनतियां और अनेक श्रीमन्त आपको गुजरात पधारने की प्रार्थना करने आते रहे थे। गुजरात से आये आप को २२ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष हो चुके थे। साथ के साधु भी पालीताना, गिरः नारजी आदि तीर्थ स्थानों की यात्रा के उत्सुक थे, अतः आपने गुजरात की ओर विहार करना निश्चित किया। : आपके गुजरात की ओर जाने में भी अपनी विचार धारा को विशेष विस्तृत रूप मिलने वाला था। जैन जाति तथा जैन समाज का उद्धार यही इस यात्रा में भी आपको अभीष्ट था। आपका पंजाब से विहार हुआ। ग्रामानुग्राम विच-. रते हुए आप जयपुर पधारे। यहां पर भी जैन समाज की स्थिति अच्छी नहीं थी। अतः आपको यहां २ मास रहना पड़ा। आपके विराजने से धर्म की अच्छी प्रभावना हुई। .. यहां तीन विरक्त श्रावकों की दीक्षा बड़े ठाठ के साथ संपन्न हुई। दीक्षितों के नाम मुनि तिलकविजयजी मु० विद्याविजयजी और मु. विचारविजयजी थे। यहां के स्थानीय ज्योतियंत्रालय के मुख्य संस्थापक तथा एक मुन्शिफ़ साहिब आपके पूर्ण भक्त हो गए। तीर्थ यात्रा करते हुए समाज की स्थिति का अध्ययन करते हुए आप आगे बढ़े। - सं० १९६६ का चातुर्मास आपने पालनपुर में करके कई शुभ कार्य किये। मुनि श्री विचक्षणविजयजी तथा Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री मित्रविजयजी को दीक्षा दी। वहां के परस्पर के कलह को भी शान्त किया। साथ ही साथ ज्ञान प्रचा. रार्थ और जैन संस्कृति के रक्षणार्थ प्रभूतम उपदेश दिया। इस चातुर्मास में जनता ने ज्ञान का महत्त्व समझ कर 'आत्मवल्लभ केलवणी फंड' नामक एक फंड स्थापित किया जिसके लिए तुरंत ही २० हज़ार रुपये एकत्रित हुए। . ' आज तक उस फंड से सहायता पाकर बीसियों |ज्युएट होकर निकल चुके हैं। . इस चातुर्मास में राधनपुर निवासी दानवीर सेठ मोतीलाल मूलनी आपके पास आये और प्रार्थना करके बोले-"गुरुदेव ! श्री सिद्धाचलजी का संघ निकालने की मेरी इच्छा है, आप श्रीजी पधारने की कृपा करें। आप पर मेरा पूर्ण हक भी है क्योंकि आप श्री हर्षविजयजी महाराज के शिष्य हैं और उन्हीं गुरुदेव का मैं गृहस्थ शिष्य हूँ।" आपने उनकी प्रार्थना को सहर्ष कबूल किया, पालनपुर से राधनपुर पधारे और श्री सिद्धाचलजी की यात्रा की। ___ श्री सिद्धाचलनी की यात्रा करके आप अपनी जन्म भूमि बड़ौदा पधारे। यह क्षेत्र भी आपकी ओर एक टक दृष्टि लगाये देख रहा था । बड़ौदे में चौमासा समाप्त करके आप गायकवाड़ महाराज के राज्य में घूमते रहे। वहाँ से आप मूरत पधारे। वहां पूज्य प्रवर्तकजी श्री Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) कान्तिविजयजी महाराज, शान्त मूर्त्ति श्री हँसविजयजी महाराज तथा आगमोद्धारक आचार्य श्री आनन्दसागरजी महाराज आदि ३६ साधुओं ने आपका अपूर्व स्वागत करवाया। सब के सब मुनिराज सहर्ष आपके सामने आये । आपने भी विनीत और सौहार्द भाव से उनका स्वागत किया । आपने अपना कुछ समय उस प्रान्त में बिताया । चारों ओर घूम घूम कर शिक्षा का नवीन सन्देश सुनाते रहे । आपके परम भक्त शिष्य श्री ललितविजयजी महाराज तथा मुनिराज श्री सोहनविजयजी महाराज भी आपके साथ थे । दोनों गुरु शिष्यों का अन्य साधुओं के साथ कठिन विहार - परिश्रम फल लाया और गुजराती जनता ने शिक्षण संस्थाओं की आवश्यक्ता समझी। आज कल बगवाड़ा, बोरड़ी आदि स्थानों में जो संस्थाएँ चल रही हैं, वे उसी परिश्रम के फल हैं। अगला चौमासा आपने मीयांगाँव में किया। चौमासा उठने के बाद आप इधर आस पास ही घूमते रहे। नर्मदा के किनारे कोरल गांव में आप का पधारना हुआ। यहां I बड़े समारोह के साथ अठाई महोत्सव मनाया गया । तत्कालीन एक विशेष घटना उल्लेखनीय है । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेथी गांव का रहने वाला एक स्थानकवासी, श्रावक आपका पूरा भक्त हो गया था। उसने बड़े ही ठाठ के साथ नवाणु प्रकार की पूजा पढ़ाई तथा और भी अनेक कार्यों में लक्ष्मी का सदुपयोग किया। उसी दिन उसकी एक १० वर्षीय लड़की मकान के दूसरे खंड से नीचे गिर गई। हज़ारों मनुष्य जो वहां एकत्रित हुए थे, उनमें अशांति फैल गई। चरित्र नायक ने. उन सब को सांत्वना देते हुए फरमाया "भाइयो ! घबराओ मन; गुरु महाराज सब अच्छा करेंगे।" सब ने जाकर लड़की की हालत देखी। वह पूजा में जाने के लिए नवीन कपड़े पहन रही थी। माँ और बाप से कहती थी "मैं गिरी तो सही किन्तु मुझे कुछ भी चोट नहीं आई।" यहाँ के अठाई महोत्सव को समाप्त करके आप पाछियापुर गांव में पधारे। वहां भी उत्सवादिक का बड़ा ठाठ रहा। यहां से आप फिर बड़ौदा पधारे और यह विचार किया कि बहुत वर्षों के बाद पंजाब से आये हैं और फिर पंजाब में ही जाना है। एक दफा श्री आत्मारामजी महाराज के सर्व साधुओं का सम्मेलन होजाय तो बहुत अच्छा हो। आपके इस शुभ प्रयत्न में बड़ौदे का श्रीसंघ पूर्ण सहायक रहा । दक्षिण और मालवा तक से Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) बड़े बड़े साधु महाराज वहां एकत्रित हुए और आनन्द पूर्षक ५० साधुओं का सम्मेलन हुआ । - इसके एक वर्ष बाद जब आप नर्मदा के किनारे विचर रहे थे तब नांदोद के महाराजा ने श्री हंसविजयजी महाराज को बुलाया। श्री हंसविजयजी महाराज सामाथ्र्य शाली समझ कर आपको भी साथ ले गए। वहां आपके प्रभावशाली व्याख्यान हुए। यहां पर भी आपके उपदेश से महाराजा साहिब ने गौशाला के लिए बहुतसी ज़मीन दी और धनपात्रों ने हजारों रुपये दिये। आपकी यह उपदेश वाणी 'सयाजी विजग' जैसे अनेक पत्रों में छप रही थी। बड़ौदा नरेश महाराज गायकवाड़ ने जब ये समाचार सुने तो आपको बड़ौदे बुला लिया। श्री हंसविजयजी जैसे महापुरुष के संग को आप श्रीजी ने नहीं छोड़ा। उनके साथ ही साथ आप बड़ौदे आये और न्याय मन्दिर जैसे विशाल भवन में आपके प्रभावशाली व्याख्यान हुए । एक दिन का ज़िक्र है। दिन के चार बजे आपका व्याख्यान हुआ। होते होते सायंकाल होने लगा। करीबन् ३५ साधु साध्वी भी व्याख्यानामृत का पान कर रहे थे। आपकी अविछिन्न उपदेश धारा से श्रोता लोग तन्मय बन रहे थे। आपने अपनी उपदेश श्रेणी को Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) जरासी देर के लिए स्थगित किया और फरमाया-"मैंने जो विषय लिया है उसे पूर्ण करने के लिये काफी समय चाहिये किन्तु लाचारी है। सभा में उपस्थित साधु साध्वी रात्रि में जल पान नहीं करते, अतः इस विषय की फिर किसी समय चरचा को जानी उचित है।" . यह सुनते ही महाराज संपतराव गायकवाड़, जो श्री सयाजी महाराज गायकवाड़ के छोटे भाई थे, खड़े हुए और नम्र भाव से बोले। "गुरु महाराज ! श्री साधु और साध्वीजी महाराज जैसे जल के प्यासे हैं, वैसे हम लोग आपके वचनामृत के प्यासे हैं। इस वक्त जो अविछिन्न धारा चल रही है। यह टूट गई तो ऐसा समय फिर न मिलेगा। अतः हमारी प्रार्थना है पूज्य साधु महाराज एवं साध्वीजी महाराज अपने २ उपाश्रय पधारें और जल पान करें।" यद्यपि उस समय आपको आहार नहीं करना था तथापि सूर्यास्त का समय निकट था, अतः आप को विवश व्याख्यान बंद करना पड़ा। आप श्रीजी का गुजरात पधारना शुक्ति को स्वाती के योग के समान था। जिस वक्त हर एक नगर व ग्राम के लोग आपके दर्शनों के लिये आतुर हो रहे थे उस वक्त बंबई का श्रीसंघ भी आपके दर्शनों के लिये लालागित था। आपका वहां पधारना हुआ। श्रीसंघ ने आकर चरणों में Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिर झुकाया। जैन समाज के हितार्थ आपने दो चौमासे बंबई में किये। परिणाम में 'श्री महावीर जैन विद्यालय नामक महती संस्था स्थापन करने का निश्चय हुआ और उपधान आदि अनेक धार्मिक कार्य करवाये। एक वर्ष और भी आप श्रीजी के वहां रहने की जरूरत थी परन्तु उस वर्ष आप सूरत चले आये। इन दिनों आपके शिष्य समुदाय में से मुनि ललितविजयजी, मुनि उमंगविजयजी, मुनि विचक्षणविजयजी म्हेसाणे का चातुर्मास समाप्त करके श्री सिद्धाचलजी की यात्रा करते हुए आप श्रीजी की सेवा में सूरत उपस्थित हुए। आपने मु० ललितविजयजी आदि अपने शिष्यों को बंबई भेजा और आप काठियावाड़ और गुजरात में विचरते रहे। इसी चातुर्मास में बंबई में महावीर जैन विद्यालय की स्थापना हुई। - प्रामानुग्राम विचरते हुए आप जूनागढ़ पधारे। वहां आपका नगर प्रवेश बड़ी धूम धाम से हुआ। हज़ारों की भीड़ थी। आप एक उच्चासन पर विराजमान हुए । आप का धर्मोपदेश होने लगा इतने में किसी श्रावक की ८ वर्ष की कन्या दो मंजिल से गिर पड़ी। नीचे पत्थरों का फर्श था। सब लोग घबराये, व्याख्यान में जरा कोलाहल मचा। लोग उस कन्या के शरीर पर नारियल का Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) पानी लगाने लगे। परन्तु कन्या ने हँसते चेहरे से,जवाब दिया-"म्हारे गुरु महाराज नुं वखाण समिळवु छै, म्हने ऊपर जावा दो। म्हने कशुं थयुं नथी। म्हने शा वास्ते दवाओ चोपड़ो छो। म्हारा शरीरे तो जराए इजा थई नथी ।" लड़की यह कह कर ऊपर चली गई। ... यहां बीसा श्रीमालि बोर्डिङ्ग हाऊस को आप श्रीजी के उपदेश से काफी मदद मिली और आपके सार्वजनिक व्याख्यानों से जनता को बड़ा लाभ पहुँचा। श्री आत्मानंद जैन लाईब्रेरी आदि की स्थापना भी हुई। बेरावल में भी आपके उपदेश से बहुत अच्छे २ कार्य हुए। ..... पालनपुर में भी आपके उपदेश से "श्री जैन बोडिङ्ग" की योजना हुई। उसके लिए तेबीस हजार रुपयों का फंड हुआ जो आज करीबन एक लाख रुपयों तक पहुँच गया है। वहां आप को करीबन एक मास रहना पड़ा। लगातार तीन अठाई महोत्सव हुए। - आचार्य महाराज श्री सोमसुन्दरमूरिजी, श्री विजय हीरसरिजी तथा श्री विजयानन्द सूरिजी महाराज की मर्तियों की स्थापना हुई। वहां से विहार कर . आपने कुंभारियाजी, आबूजी, अचलगढ़ की यात्रा करते हुए मार वाड़ में पदार्पण किया। मारवाड़ की जनता कृतकृत्य हुई। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) अपकारी का उपकार इस मारवाड़ के विहार में आप पर एक विकट घटना घटी। आप मारवाड़ में प्रवेश करने ही वाले थे कि बीजापुर के पास पहाड़ियों की तराई में से होकर कुछ सज्जन निकले। दैव योग ! उस दिन किसी महाजन की बारात उधर से ही जाने वाली थी। यह सारा का सारा भाग पहाड़ी है। भील, मणे आदि जंगली जातियां इसमें रहती हैं। अतः यहां लूट मार का भी बड़ा भय रहा करता है। बारात अभी तक निकलने न पाई थी। उसी की ताक में कुछ मैणे भी एक जगह छिपे बैठे थे। आपके साथ कुल पांच साधु और एक श्रावक तथा एक सिपाही था । लुटेरों को क्या? उन्होंने आकर आपको घेर लिया “जो कुछ हो रख दो" गरजते हुए उनके मुखिया ने कहा। "भाई ! हम साधु हैं, हमारे पास क्या है ?" शान्त किन्तु गम्भीर बाणी में आपने कहा। किन्तु वे 'शिकार' को कब जाने देने वाले थे। आप का प्रभाव तो पड़ा, वे कुछ नम्र हुए, किन्तु उनमें से कुछ साथी चिल्लाने लगे। "जो कुछ है, शीघ्र रख दो। हम नहीं मानेंगे, मुहूर्त खाली नहीं जाने देंगे। न मानोगे तो मारपीट कर ले जायेंगे।" साथ के राजपूत सिपाही से यह बात सहन न हुई। उसने रक्षार्थ तलवार निकाली, किन्तु उतने डाकुओं के Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) बीच में उसका क्या वश चलता ? डाकू उसकी तर्फ फिरे और दूसरे ही क्षण सिपाही बेहोश होकर जमीन पर पड़ा दिखाई दिया। - लुटेरों ने उसकी तलवार और कपड़े छीन लिये। अब आप लोगों की बारी थी। थोड़ोसी भी शान्ति खो देने पर सारा का सारा मामला चौपट होने का डर था। सबसे पहले आपने ही अपनी सारी चीजें एक एक करके उन्हें देदीं। आपकी देखा देखी दूसरे साधुओं ने भी अपनी सारी वस्तुएँ चोरों को दे दी। उन्होंने सारा सामान देखा । पुस्तकें और पात्र छोड़ दिये और बाकी सारा सामान लेकर चलते बने । जाते समय मुनि श्री विद्याविजयजी, मुनि श्री विचारविजयजी तथा लक्ष्मीचन्द पर वार भी करते गये । जब चोर वहां से चले गये। आपने सिपाही की ओर ध्यान दिया। वह बेचारा अबतक बेहोश पड़ा था। समय की बात थी.। आपने अवसर देखा और अपनी तिर्पणी में से पानी लेकर सिपाही के सिर पर डाला और पट्टी भी बाँधी, उसने आंखें खोली। सि.-"महाराज ! आपने मुझे बचा लिया, वर्ना यहां मेरा कौन था ?" Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु महा.-"तुम किसी बात की चिन्ता न करों। हम सब तुम्हारे हो हैं।" सिपाही को आश्वासन मिला। आपके प्रति उसने हार्दिक कृतज्ञता प्रकट की। . सर्दी का मौसम था। पहाड़ की हवा तीर की माँति चल रही थी। साधुओं के पास केवल चोल पट्टा था। लुटेरों ने लज्जा ढकी रहने देने के लिए ही उसे न लिया था। आप लोग वहां से बीजापुर की ओर चले, सिपाही बेचारा भी किसी प्रकार धीरे२ साथ ही आ रहा था। जब आप गांव के निकट पहुँचे तो आप और अन्य मुनिराजों को केवल चोल पट्टा पहने आते हुए आप के पूर्व परिचित एक सद् गृहस्थ ने देखा। पहले तो उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास ही न हुआ, किन्तु जब आप निकट पहुँचे। वे भौंचक्के रह गये । "अहो गुरुदेव ! आप की यह दशा ?" गद् गद कंठ से यह कहते हुए पैरों पर गिर पड़े। आप अब तक शांत थे। मुस्करा कर कहा-“कर्म सब कुछ कर सकता है। उपाश्रय बतलाओ! वहीं चल कर सारी कथा सुनावेंगे।" * आवश्यक्तानुसार सब ने वस्त्र लिया। साधु आहार पानी ले आये। आपने सारी घटना कह सुनाई। आप Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) के लुटजाने की बात सारे भारत भर में पवन की तरह फैल गई। श्रावक व्याकुल हो उठे। हजारों श्रावक सेवा में उपस्थित हुए और हज़ारों के खेद सूचक पत्र आने लगे। जोधपुर महाराजा साहब के पास भी कई तार पहुंचे। . उस समय जोधपुर के प्रबन्धक सर प्रतापसिंहजी थे। इन तारों से उनको आश्चर्य हुआ। उन्होंने अपने विश्वस्थ आदमियों से पूछा--"ये कौन साधु हैं, जिनके लुटजाने से सारे भारत में हलचल मच गई है।" - उत्तर मिला-"गरीब परवर ! जैनियों के लिए तो ये अद्वितीय महापुरुष हैं।" : सर प्रतापसिंहजी ने पुलिस को कड़ी आज्ञा दी कि वह चोरों को तत्काल गिरफ्तार करले। बड़ी कोशिश के बाद पुलिस उनमें से एक आदमी को गिरफ्तार कर सकी। वह सरकारी गवाह बन गया और उसने सब दूसरे चोरों को पकड़वा दिया। चोरों पर बाकायदा मुकदमा चला और आप से प्रार्थना की गई कि आप इनके बारे में क्या कहना चाहते हैं ? आपने उत्तर दिया कि "जाने दो, मुझे इनके विरुद्ध कुछ भी नहीं कहना है । इनको छोड़ दिया जाय ।" - आपके इस कथन को सुन कर 'धन्य ! धन्य । की ध्वनि चारों ओर छागई। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) आपके सारे काम जैन समाज में एक नवीन ज्योति के प्रतीक हैं। आपने समाज को सोते से जगाया, विधर्मियों के हमलों से बचाया। संघ को बलिष्ट बनाया। इसके फल स्वरूप आप पर संघ की दिनो दिन भक्ति बढ़ती गई। बीजापुर से आप सेवाड़ी और लुनावा होते हुए सेसली नामक तीर्थ स्थान में पधारे। यहाँ पर आप की सेवा में सादड़ी का संघ सादडी पधारने की विनती करने के लिए आया। आप उनकी प्रार्थना स्वीकार इसलिए नहीं करते थे कि जब से आपने गुजरात से विहार करके मारवाड़ की ओर प्रस्थान किया था, तभी से बीकानेर के धर्मात्मा सेठ सुमेरमलजी सुराणा आपकी सेवा में अनेक स्थानों पर आ चुके थे। उनकी इच्छा थी कि उनके पूज्य पिताजी जिनकी अवस्था अब बहुत होगई है और जिनके शरीर का भरोसा नहीं, यदि गुरुदेव के श्रीमुख से वे भगवतीजी को सुन लें तो अहो भाग्य हो ! सेठजो की धर्म श्रद्धा देख कर आपने बीकानेर जाने का संकल्प प्रदर्शित किया। आखिर सादड़ी वालों की विशेष प्रार्थना देख कर तथा मुनि श्री ललितविजयजी की विनंती स्वीकार कर आप एक रात्रि के लिए सादड़ो पधारे। . . आपने संघ को शिक्षा प्रचार का उपदेश दिया। लोगों के दिलों में इतना जोश था कि वे सहसा बोल Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) उठे--"गुरु महाराज की आज्ञा शिरोधार्य ! ,हम शिक्षा संस्था के लिए सब कुछ करने को तैयार हैं।" आपने कहा--"यदि तुम्हें गोड़वाड़ भर में शिक्षा प्रचार करना हो और जैन समाज का मस्तक उन्नत करना हो, तो तैयार हो जाओ। तुम्हारे गांव से एक लाख रुपया होजाना चाहिए।" आपका कथन लोगों ने स्वीकार कर लिया और एक लाख अठाईस हज़ार तक फंड इकट्ठा कर लिया। आपके उपदेश का आशातीत प्रभाव हुआ। आपको विश्वास होगया कि सादड़ी के लोग जरूर कुछ करने वाले हैं। इतना काम होजाने पर वे अब आप को छोड़ कैसे सकते थे? आप का चातुर्मास सादड़ी में ही हुआ। तथा श्वेताम्बर जैन कान्फ्रेन्स का अधिवेशन भी आपकी कृपा से सादड़ी में ही हुवा। . आपके शिष्य पंन्यासजी श्री सोहनविजयजी तथा मुनि श्री ललितविजयजी आदि ६-७ साधु भी जिनको आपने पाली (मारवाड़) भेज दिया था, आपकी सेवा में आगये। आपका चौमासा सादड़ो में और उनका बाली में हुआ। बाली में मुनि श्री ललितविजयजी, मुनि श्री उमंग विजयजी तथा मुनि श्री विद्याविजयजी का भगवती सूत्र का योग पंन्यासजी श्री सोहनविजयजी ने कराया और Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) उनको पंन्यास पदवी से अलंकृत किया। उस समय आप भी सादड़ी से बाली पधारे आपके पधारने से पदवी प्रदान की शोभा हजार गुनी बढ़ गई। ... आप सादड़ी से विहार कर इसी प्रॉन्त में और भी वर्ष भर विचरते रहे। साढ़े तीन लाख रुपये का शिक्षोपयोगी फंड जमा हो गया। फिर आप बीकानेर पहुँचे । इस चौमासे में आपने भगवती सूत्र की कथा की और सकल संघकी तथा विशेषतः वृद्ध सेठ शिवचंदजी सुराणा की आशा फलीभूत हुई। प्रातः समय आप व्याख्यान में भगवती सूत्र बांचते और मध्याह्न काल में श्री पंन्यासजी ललित विजयजी आदि को भगवती की वाँचना देते। आपके इस चातुर्मास से पहले इसी बीकानेर में आपके शिष्य रत्र पंन्यासजी श्री सोहनविजयजी, मुनि श्री समुद्रविजयजी तथा मुनि श्री सागरविजयजी ने चातुर्मास करके शिक्षा के लिए करीबन डेढ़ लाख रुपये का फंड कराया था, उसको इस चातुर्मास में बहुत पुष्टि मिली। चातुर्मास समाप्त करके आप पंजाब की ओर पधारे। जब आप पंजाब के सीमावर्ती "डभवाली' गांव में पहुंचे तो वहां पंजाब का सकल श्री संघ आपकी सेवा में उपस्थित हुआ। ये दिव्य घटनाएँ और अलौकिक धर्म प्रभावनाएँ जिन्होंने देखी हैं वे ही आप श्रीजी के प्रौढ़ पुण्य का अनुमान कर सकते Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) हैं। वहाँ से आप श्रीजी का जीरा जालंधर ,होते हुए. होशियारपुर में प्रवेश हुआ। _ आपने संवत् १६७६ में पुनः पंजाब में प्रवेश किया था। पंजाबियों ने स्वागत में हृदय बिछा दिये थे। पंजाब श्री संघ ने आपका होशियारपुर में अपूर्व स्वागत किया। पंजाब ने अपने बिछुड़े हुए गुरु को वर्षों के बाद प्राप्त किया था। श्री संघ के हृदय में बिजली सी दौड़ रही थी। होशियारपुर में प्रवेश करते ही शिक्षा प्रचार की नई धुन बड़े उत्साह से फिर उठी। वहीं पं० मदनमोहन मालवीयजी ने आपके दर्शन किये। दो एक घंटे तक बातें होती रहीं। . आप श्रीजी के विहार से गुजरात और मारवाड़ में जैसे अनेकानेक अटके हुए काम संपूर्ण हुए वैसी ही स्थिति पंजाब की भी थी। मुकाम सामाना स्टेट पटियाला में श्रीशांतिनाथ स्वामी का अपूर्व मन्दिर तैयार हुआ था। प्रतिष्ठा के लिए आप श्रीजी की राह देखी जा रही थी आप श्रीजी वहां पधारे। - संवत १९७६ माघ सुदि ११ को आपके वरद हाथों से भगवान गद्दी पर विराजमान हुए और गुरु-मूर्ति की भी प्रतिष्ठा हुई। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५ ) आपके पंजाब प्रवेश करते हीं 'आचार्य' पदवी का सवाल सामने आया । स्वर्गीय आत्मारामजी महाराज साहब के संघाड़े (समुदाय ) में दो मुनिराज — प्रवर्त्तकजी श्री कान्तिविजयजी महाराज तथा शान्तमूर्त्ति श्री हंस विजयजी महाराज से श्रीसंघ ने प्रार्थना की कि वे आप श्री को आज्ञा दें कि आप आचार्य पद स्वीकार करलें । उस वक्त आपके साथ में विराजमान वयोवृद्ध, चारित्र वृद्ध मुनिराज श्री सुमतिविजयजी महाराज ने भी आप श्री जी को आचार्य पद स्वीकार करने का आग्रह किया । आप में यह बड़ी भारी विशेषता है कि चाहे कुछ भी हो आप वृद्ध साधु मुनिराजों की आज्ञाओं का कभी उल्लंघन नहीं होने देते । आप तो अब भी इस पदवी के इच्छुक न थे । आपकी समझ में वह अब भी झंझट ही था, किन्तु समाज की इच्छा भी तो कोई स्थान रखती है ? संवत् १६७६ के चौमासे से ही बातचीत चल रही थी | चलते चलते संवत् १६८१ में कुछ निश्चय हुआ । मुनि महाराज प्रवर्त्तकजी श्री कान्तिविजयजी महाराज तथा शान्तमूर्त्ति मुनिराज श्री हंसविजयजी महाराज साहिब ने संघ के आग्रह को मान देकर आपको आचार्य पद स्वीकार करने के लिए तार दिए, पंजाब श्री संघ ने सम्मुख होकर निवेदन किया । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) "गुरुदेव ! अब 'ना' मत कहें। अब तो हमारी आकांक्षा पूरी होने दें।" आप कुछ समय तक ती मौन रहे, फिर बोले-"बड़ों को तथा श्री संघ की आज्ञा को इनकार कैसे करूं? फिर भी बड़ों के साथ मेरा व्यवहार वही रहेगा जो प्रथम था ।" आपका उत्तर सुनकर सारा संघ आल्हादित हो उठा। ... बात यह थी कि श्री संघ ने लाहौर में एक प्रतिष्ठा का आयोजन भी कर रखा था। उसी अवसर पर आपको 'आचार्य पद' देने का भी उपक्रम था। दोनों वृद्ध मुनिराजों के तार मिल जाने से काम सहज हो गया। प्रतिष्ठा के दिन ही आचार्य-पद-प्रदान का दिन था। छोटे और बड़े सभी उत्साहित थे। आनन्द का सागर उमड़ रहा था मार्गशीर्ष शुक्ला ५ सोमवार, संवत् १९८१ के दिन आपको प्रातःकाल सकल श्री संघ पंजाब ने एक बड़ा ही सुन्दर मान-पत्र भेंट किया, जिसमें आपको जैन समाज सम्बन्धी सेवाओं का पूर्ण विवेचन किया गया था। ____ उस दिन आचार्य पद और प्रतिष्ठा की सारी शास्त्रोक्त क्रियाएँ हुई। आपका आचार्य पदासीन करके पंजाब श्री संघ ने मूर्ति-प्रतिष्ठा करवाई और अपने को कृत-कृत्य माना। इसी प्रसंग पर आपके परम भक्त शिष्य रत्न पंन्यासजी श्री सोहनविजयजी महाराज को आपने Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) "उपाध्याय' पद पर प्रतिष्ठित किया। यह भी योग्य पुरुषं को कदर हो थी। आपने उस दिन सारे श्री संघ को जो उपदेश दिया था, वह अत्यन्त माननीय है। आचार्य पद हो जाने के बाद अभिनन्दन पत्र, चिहियों और तारों का ताँता बंध गया। सारा जैन समाज आनन्द सागर में मग्न था। आज आचार्य पद देकर जैन समाज अपने को कृत-कृत्य मान रहा था। __आचार्य पदवी और प्रतिष्ठा का सुवर्णावसर आज करीबन ४०० वर्षों से इस लाहौर को पुनः प्राप्त हुआ था। श्री जिनसिंहजी और भानुसिंहजी क्रमशः आचार्य और उपाध्याय पद पर आज से चार सौ वर्ष पहले प्रतिष्ठित हुए थे। आप सदा से ही स्वभावतः अधिक दिखाव के विरुद्ध हैं। निर्लोभ और सेवामय जीवन ही आपके प्रधान लक्ष्य हैं। आपको इतना ही सम्मान देकर समाज संतुष्ट न था। आप इनसे सर्वदा दूर रहे, फिर भी पंजाबी आपको "पंजाब जैन केसरी” कहते हैं। संवत् १९६० में श्री बामणवाड़जी तीर्थ पर पोरवाल महा सम्मेलन था और नवपद-ओली-तप-आराधन भी बड़े ठाठ-बाठ धूमधाम से हुवा था। लगभग पन्द्रह हजार जन | Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) संख्या उपस्थित थी । वहां शान्तमूर्त्ति योगिराज श्री १००८ श्री विजयशान्तिसूरिजी महाराज भी पधारे हुवे थे। आप भी योगीराज श्री से मिलने पधारे थे। वहां आपके अनिच्छा प्रकट करते हुए भी आपको महासम्मेलन ने "अज्ञान तिमिर तरणि, कलिकाल कल्पतरु” उपाधियां देकर ही दम लिया । वास्तव में उपाधियां तो समाज के प्रेम की द्योतक हैं । उनसे महात्मा लोगों को विशेष लाभ कुछ नहीं होता । उपाधियां देकर समाज अपनी तुष्टि मानता है; वही बात यहां भी हुई है। आपके व्यक्तित्व के लिए उपाधियां तो. । कोई मूल्य ही नहीं रखतीं । श्री महावीर जैन विद्यालय के लिए गुजरात, काठियावाड़ और मारवाड़ आदि प्रान्तों में तो जैन धर्म का बोलबाला हज़ारों वर्षों से हो रहा था, और सहस्रों साधु विचरण करके जैन धर्म की ध्वजा फहरा रहे थे, किन्तु पंजाब के लिए ऐसे एक सच्चे साधु की आवश्यकता थी, जो पंजाब के जैन जगत् में सच्चाई का बीजारोपण कर दे । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५९ ) पाठक पहले पढ़ चुके हैं कि स्वर्गीय श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वरजी महाराज ने अपने स्वर्गारोहण के समय पंजाब श्री संघ के प्रार्थना करने पर फरमाया था-"तुम चिन्ता मत करो। 'वल्लभ' पंजाब की संभाल करेगा।" उसी दिन से गुरु वचन प्रतिपालक सच्चे गुरु के सच्चे शिष्य 'वल्लभ' ने पंजाब-उद्धार का बीड़ा उठाया। धर्म प्रचार का कार्य हो रहा था। सच्ची लगन थी। पंजाब के बच्चे बच्चे के दिल में आपका निवास, आँखों में प्रेम और वाणी में नाम था। पंजाब के सिवाय अन्य प्रॉन्तों में भी आपके हाथों कई सुधार कार्य हो चुके थे। जब आपका संवत् १९७० में बम्बई में चातुर्मास था तो आपके उद्योग से वहाँ 'श्री महावीर जैन विद्यालय' की स्थापना हुई थी; किन्तु उसकी जड़ अभी तक परिपुष्ट होने नहीं पाई थी। आप जिन दिनों [सं० १६८०] में होशियारपुर में विराजमान थे, आपकी यशोराशि से पंजाब का कोना कोना धवलित हो रहा था। सारे पंजाब की ही नहीं अन्यान्य प्रॉन्तों की भी आपकी ओर दृष्टि लग रही थी। कई पॉन्तों से आपके पास पत्र आते रहते थे। उन्हीं दिनों बम्बई से श्री महावीर जैन-विद्यालय के ट्रस्टियों में आपकी सेवा में एक प्रार्थना-पत्र भेजा। उसमें यह लिखा Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था कि "गुरुदेव ! १० साल हुए जब से यह विद्यालय खुला है, आपकी कृपा से सुचारु रूप से चल रहा है, किन्तु अभी तक पूर्णतया पनपने नहीं पाया है। इसका कारण यह है कि अभी तक इसके लिए निज का मकान नहीं है। स्वकीय मकान के न होने से सालाना १८०००) रु. की रकम किराये में विद्यालय को देनी पड़ती है। आप जब तक इस ओर दृष्टि न देंगे यही दशा बनी रहेगी। आपके शिष्यों में यदि कोई ऐसा पक्की लगन का साधु हो जो हमारी नाव को पार लगादे तो कृपाकर ऐसे किसो साधु को यहाँ भेजें।" । पत्र को पढ़ते ही आप विचार समुद्र में निमग्न होगये। आपके परम शिष्य श्रीमद् ललितविजयजो आपके सन्मुख आ करके बोले- "गुरु-देव ! आज मालूम होता है आप किसी गहन विचार में हैं, क्या मैं अज्ञ उसको नहीं जान सकता ? जैसा भी हो कृपा करके मुझे फरमावें ।" आपने गम्भीर व ओजस्विनी वाणी में कहा-'बंबई से श्री महावीर जैन विद्यालय के ट्रस्टियों का पत्र आया है । लो पढ़ो और हिम्मत हो तो यथा शक्ति हाथ बटाओ।” आपके शिष्यरन ने पत्र पढ़ा और निवेदन किया कि "पधारिए, यह सेवक हर तरह से आपकी सेवा में रह कर यथा शक्ति भक्ति करने को तैयार है।" Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) आपने फरमाया - - " बेशक ! परन्तु तुम खुद ही विचार हो । अभी तो पंजाब में आये ही हैं । तत्काल उधर को कैसे जा सकते हैं ? हां, यदि तुम हिम्मत करके पहुँचो तो उधर का काम भी सुधर जाय । ” आपकी आज्ञा को शिरोधार्य करके श्री विजय ललित सूरिजी महाराज संवत् १६८० मागसर वदि २ ( कार्त्तिक वदि २ गुज़राती ) को होशियारपुर से रवाना हुए । निरन्तर लम्बा विहार करके वे लगभग ग्यारह सौ मील की पैदल यात्रा करते हुए ज्येष्ठ शुद्धि में बंबई पहुँचे । आपने महा जैन विद्यालय के ट्रस्टियों को पत्र भेजा और लिखा कि “ तुम्हारी प्रार्थना को मान देकर ललितविजयजी को भेजा है, मुझे पूरा २ विश्वास है कि जैसा उस विद्यालय के साथ मेरा हार्दिक प्रेम है, वैसा ही उनका है ।" श्री ललितविजयजी महा० बंबई पधारे। बंबई के श्रीसंघ ने उनका खूब स्वागत किया। बैंड बाजे और कई जुलूस के उपकरणों द्वारा उनका नगर प्रवेश हुआ। श्री ललिन विजयजी महाराज आपके आदेश को ईश्वरीय आदेश समझ कर बंबई पधारे थे । अतः इष्ट कार्य प्रारम्भ हुआ । इधर हमारे चरित्रनायक ने कई दिनों से एक अभिग्रह ( प्रण ) ले रक्खा था । वह यह था कि "गुरु महाराज ( श्री आत्मारामजी ) के नाम पर एक संस्था Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायम हो और उसके निभाव फण्ड के लिए एक लाख रुपया हो जाय तभी मैं मिष्टान्न अङ्गीकार करूँगा वरना गुड शक्कर आदि मीठी चीज़ों का मेरे त्याग रहेगा।" इस अभिग्रह की चर्चा आपने किसी के पास नहीं की। केवल बम्बई जाते वक्त श्री ललितविजयजी को थोड़ा सा इशारा कर दिया था, परन्तु आपने उसका व्यौरा पूरा पूरा नहीं बतलाया था। .... चातुर्मास समाप्त होने के बाद आपने होशियारपुर से विहार किया। ग्रामानुग्राम विचरते हुए आप लाहौर पधारे। यहां का चातुर्मास समाप्त करके आप गुजरांवाला पधारे। गुजरांवाला श्री संघने आपका बढ़चढ़ कर स्वागत किया। बड़े ठाटबाट के साथ आपका नगर प्रवेश हुआ। नगर प्रवेश के समय अच्छे अच्छे विद्वान, अहलकार, वकील और धनिक आपके स्वागत के लिये आये थे। आपने अपने वचनामृत से सब को तृप्त किया। मानस वाटिकाकी आशा लताएँ पुनः पल्लवित होने लगीं। आपके उपदेश को सब लोग बड़े चाव से सुनने लगे। _ दिनों दिन आपके प्रति लोगों की भक्ति बढ़ने लगी। उन्होंने चातुर्मास के लिए अर्ज किया। आपका सं० १९८१ का चातुर्मास गुजरांवाला में और श्री पंन्यासजी ललित विजयजी का बम्बई में हुआ। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आपके इस चातुर्मास में कई धार्मिक कार्य हुए। 'श्रीआत्मानन्द जैन गुरुकुल, पंजाब' की स्थापना हुई। वहां 'श्री आत्मानन्द जैन गुरुकुल के वास्ते अन्य ग्रामों से २६५००) रुपयों का फंड हुआ। ४००००) रुपयों की रकम गुजरांवाला श्रीसंघ ने पहले ही एकत्र कर ली थी। उधर बंबई में आपके शिष्यरत्न पंन्यासजी श्री ललित विजयजी ने पहली आत्मानन्द जयन्ती विलेपारले में मनाई। बंबई से आये हुए दानवीरों की सहायता से रु० २७५००) की विद्यालय को रकम प्राप्त हुई। दूसरे वर्ष की जयन्ती तक श्री महावीर जैन विद्यालय की बिल्डिंग के लिए लगभग दो ढाई लाख रुपये विद्यालय को प्राप्त होगए थे। . दैवयोग से वहां पंन्यासजी बीमार होगए । निमोनिया से तो वे किसी तरह ठीक होगए किन्तु निमोनिया की शान्ति के लिए डाक्टरों ने उनकी बाई भुजा पर जो इञ्जेक्शन लगाया था, वह पक गया। होते २ पौन इञ्च जितना घाव भी होगया। : वे हवा बदलने के वास्ते विलेपारला पधारे। वहां उनका स्वास्थ्य कुछ ठीक होने लगा। : इन दो वर्षों के बंबई निवास से कई एक धनाढ्य (उनकी सेवा में आकर उनके सदुपदेश से अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग करते रहे। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) श्रीयुत् सेठ विट्ठलदास ठाकुरदास जो पक्के, वैष्णव धर्मानुयायी थे, वे उनके पक्के भक्त हो गए। न मालूम पूर्व जन्म का इनका कोई संबन्ध था ? पंन्यासजी महाराज. पर उनका इतना विश्वास हो गया कि जो आज्ञा हो, उसे पालने के लिए वे सदा तत्पर रहते थे । चातुर्मास के अन्दर सेठ विट्ठलदासजी ने केवल ३ दिनों को छोड़ बाकी २७ दिन तक ब्रह्मचर्य पालन करने का प्रण ले लिया था । एक दिन वे पंन्यासजी महाराज की सेवा में बिलापारला आये । वार्त्तालाप करते २ उन्होंने प्रार्थना की"गुरुदेव ! मेरी इच्छा है कुछ रुपया सत्कार्य में लगा कर अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग करूँ । आप कोई अच्छा क्षेत्र बतावें । जहाँ बोया हुआ बीज कालान्तर में भी फल देता रहे ।” “शिक्षा क्षेत्र के बराबर दूसरा कौनसा हो सकता है ?” पंन्यासजी ने कहा । उन्होंने मन में यह विचार किया कि बहुत अच्छा हो यदि इस सेठ का पैसा अच्छे क्षेत्र में लगे और श्री गुरु महाराज साहब का अभिग्रह भी पूरा हो जाय । अतः मिल कर दोनों ने श्री गुरुदेव की सेवा में अपने हगतभाव लिखे और श्री गुरुदेव की आज्ञा से सेठ ने ३२०००) की रकम एक साथ 'श्री आत्मानन्द जैन गुरुकुल, पंजाब Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) के वास्ते देकर श्री गुरु महाराज के अभिग्रह की पूर्ति कराई और महान् पुण्य का उपार्जन किया। गुरुकुल स्थापित होगया किन्तु मकान की परम आवश्यकता थी। अतः श्री गुरुदेव ने पंन्यासजी महाराज को बंबई लिखा और उन्होंने गुरुकुल के मकान के लिये २०००० रु० बंबई से भिजवाये। , गुजरांवाला के चातुर्मास के पश्चात् सेठ विट्ठलदास ठाकुरदास आपकी सेवा में आये, तब ५०००) रुपये आपकी भेंट में रखने लगे। किन्तु जैन साधु रुपये पैसे तो लेते रखते नहीं, अतः वह ५०००) रु० भी दानवीर सेठ की तर्फ से 'श्री आत्मानन्द जैन गुरुकुल' को दे दिये गए। आपके गुजरांवाले के चातुर्मास में उपाध्याय श्री सोहनविजयजी महाराज का स्वर्गवास हुआ। पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने महासभा और गुरुकुल की स्थापना के लिये बड़ा परिश्रम किया था। अतः ऐसे महात्मा की स्मृति को ताज़ा रखने के लिये उनके नाम पर वहां गुरुदुल में वाचनालय खोला गया। इसमें पंन्यासजी श्री ललितविजयेजी ने पर्याप्त आर्थिक सहायता दिलाई थी। आप इस प्रकार शिक्षा प्रचार करते हुए बिनौली जिला मेरठं पधारे। वहां प्रतिष्ठा तथा मुनिरान श्री विशुद्धविजयनी, विकाशविजयजी तथा साध्वी श्री चारित्र Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजी का दीक्षा महोत्सव बड़ी धूमधाम से ,हुआ। बिनौली से कुछ फासले पर 'बड़ौत' में कुछ दिगम्बर भाई श्वेताम्बर संप्रदाय में सम्मिलित हुये। आपने उन श्रावकों की विनती पर बड़ौत गांव में ही चौमासा किया और श्वेताम्बर जैन मन्दिर की नींव रखवाई। उस मन्दिर के बनवाने के लिए लगभग २००००) रुपये की सहायता भी दिलाई जिसका प्रतिष्ठा महोत्सव अब आपके हाथों से होने वाला है। बड़ौत से विहार करके आप दिल्ली पहुंचे और वहां 'श्री आत्मानन्द जैन गुरुकुल पंजाब' की मीटिङ्ग हुई। इस मीटिङ्ग में प्रमुख स्थान राय बहादुर बाबू बद्रीदासजी मुकीम के सुपुत्र राय साहेब राय कुमारसिंहजी को दिया गया। इस मीटिंग में भी बंबई से 'दानवीर' सेठ विट्ठलदासजी साहेब आये और पाँच वर्ष तक मकान के किराये के लिए १००००) रुपये देगए। यहां से ग्रामानुग्राम विहार करते हुए आप अलवर पधारे। यहां पर भी आपने जैन श्वेताम्बर मन्दिर को; बड़ी धूम धाम से प्रतिष्ठा करवाई। इसके बाद आप वरकाणा पधारे। कुछ अर्से पहले आपके उपदेश से यहाँ विद्यालय स्थापित करने का जो विचार स्थिर हुआ था तदनुसार आपके शिष्यों में से Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) पंन्यासजी श्री ललितविजयजी ने यहां श्री पार्श्वनाथ जैन विद्यालय स्थापित किया था, उसकी उन्नति के लिए आपने यहीं चातुर्मास किया। इस चौमासे में अनेक ग्राम व नगरों से सैकड़ों नरनारी आये। इसलिए इस विद्यालय की fia पुख्ता हो गई। इस समय आपके दर्शनार्थ पंजाब का श्रीसंघ, पंजाब जैन गुरुकुल, मारवाड़ का संघ और वरकाणा विद्यालय, श्री महावीर जैन विद्यालय तथा पालनपुर विद्यालय और गुजरात के अनेक शहरों के सद्गृहस्थ भी हाजिर हुए थे । पाटन के श्री संघ ने मेहमानों की जो सेवा सुश्रूषा की वह चिरस्मरणीय रहेगी । चौमासे के बाद आपने पंन्यासजी श्री ललितविजयजी आदि शिष्य परिवार के साथ पाटन की तर्फ विहार किया । राणी स्टेशन पर गोड़वाड़ के पंच श्रावक मिले। आप श्री जी खीमेल की तर्फ पधार रहे थे । 'मंगलिक' सुनाने का समय आया । सकल संघ विनीत भाव से प्रार्थना करता रहा कि " पाटन पधार कर एक वार इधर अवश्य पधारें ।” आपने फरमाया हमारे पूजनीय प्रवर्त्तकजी श्री कान्तिविजयजी महाराज एवं श्री शान्तमूर्ति हंसविजयजी महाराज वहां विराजमान हैं, उनको हम पूछेंगे | अगर Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) वे खुशी से सहमत हुए तो हम आजायेंगे। मगर हमें आशा नहीं, वे हमें फिर तत्काल मारवाड़ आने दें। गोड़वाड़ के पंचों ने फिर विनीत भाव से प्रार्थना की कि गुरुदेव ! एक वर्ष के लिये भी आप श्रीजी मारवाड़ की ओर पधार आयें तो हमारा अहोभाग्य है, किन्तु वृद्ध महापुरुषों की सहमति के अभाव से आप इस चौमासे में नहीं पधार सकें तो पंन्यासजी श्री ललितविजयजी महाराज को अवश्य भेजने की कृपा करें। आप श्रीजो ने प्रसन्नता-पूर्वक फरमाया- "हां, भाई ! यह ठीक है। हम ललितविजयजी को भेजने का प्रयत्न करेंगे। किन्तु शर्त उसमें यह है कि तुपको इसी चातुर्मास में विद्यालय का चंदा कराने के लिए बाहर जाना होगा। इस बात की तुम दृढ़ प्रतिज्ञा करो तो ललितविजयजी को यहां भेजने का प्रयत्न करें। "सबने सहर्ष हाथ जोड़कर प्रतिज्ञा की।" इस आदेश को सुनकर मारवाड़ वासियों के दिल बाग बाग होगए। आप श्री जी शिवगंज, सिरोही होते हुए आबू पधारे। यहां की यात्रा करते हुए पालनपुर होकर आप पाटन पधारे। पाटन में आपका शानदार जुलूस निकला जो सैकड़ों वर्षों में लोगों ने नहीं देखा था। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६९ ) लेखन और व्याख्यान आपकी लेखन शैली व व्याख्यान शैली बड़ी उत्तम और सारगर्भित हुआ करती है। इसके उदाहरण पहले कई बार आ चुके हैं। आपने जहां जहां व्याख्यान दिये, जनता ने मुक्तकण्ठ से आपकी भूरि भूरि प्रशंसा की। जब आप व्याख्यान की छटा बाँचते हैं, तब श्रोता लोग मन्त्र मुग्ध को तरह झूमने लग जाते हैं। क्या जैन और क्या अजैन ! आपको वाणी जिन्होंने सुन ली, आप ही के हो जाते हैं। एक दिन का जिक्र है कि आप पपनखा (पंजाब) में विराजमान थे। वहाँ की पाठशाला के एक मास्टर का यह स्वभाव था कि उस गाँव में कोई भी साधु, पंडित क्यों न आवे, वह अपनी शंकाएँ सामने रख ही दिया करता था। आज दिन तक किसी ने उनके मन का समाधान नहीं किया था। आपके पास भी वे आये। एक घण्टे तक आपसे वार्तालाप करके संतुष्ट हुए। अन्त में हाथ जोड़ कर मास्टरजी ने कहा:... "कृपानाथ ! आज मैं शङ्काओं के भूत से रिहा हुआ हूँ, मुझे आज शान्ति मिली है।" रामनगर में आपके व्याख्यानों की धूम सी मच गई थी। आपके व्याख्यान से प्रभावान्वित होकर एक सिख Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरदार कर्तारसिंहजी (जो कि वहां के पोस्ट और तार मास्टर थे) ने आपको एक महीने तक वहीं विराज कर धर्मोपदेश देने की प्रार्थना की। आपने उसके उत्तर में कुछ आनाकानी की, तब कर्तारसिंहजी ने अपने पोस्ट ऑफिस की चाबियाँ आपके पैरों में रख दी और कहा:। “जब तक आप स्वीकृति न देंगे, तब तक मैं इन पोस्ट आफिस की चाबियों को नहीं उठाऊँगा; चाहे सरकार मुझे कुछ भी दण्ड दे, चाहे मेरे बाल बच्चे भूखों ही क्यों न मरें।” श्रद्धा इसे कहते हैं। आखिर आपने वहीं रहना स्वीकार किया। पपनखा के पास किला दीदारसिंह है। वहाँ सौवर्णिक सरदार को आपके व्याख्यान सुनने की ऐसी चाट पड़ गई कि जब तक आपके श्रीमुख से कुछ उपदेश नहीं सुन लेते तव तक उन्हें चैन नहीं पड़ती। साधारण जन आपकी वाणी से मुग्ध हों इसमें तो कहना ही क्या ? किन्तु जो विशेष पुरुष कहलाते हैं वे भी आपकी वाणी के कायल हो जाते हैं। एक वक्त जब कि आप गुजरांवाला में विराजमान थे। आचार्य महाराज श्रीमद्विजय कमलमूरिजी ने आपकी पीठ पर स्नेह पूर्ण हाथ फेरा और कहा-“यदि सच्चे गुरुभक्त हों तो तुम्हारे जैसे ही हों। तुमने स्वर्गवासी Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) गुरुदेव के इस कथन को 'पंजाब की संभाल वल्लभ करेगा सत्य करके दिखाया। जाओ ! स्वर्गीय गुरु महाराज के व्याख्यान पट्ट पर बैठ कर श्री संघ को थोड़ा सा व्याख्यान सुना आओ। कई दिन से श्रावकों को तुम्हारी जवान से जिन-वचनामृत पान करने का अवसर नहीं मिला है आज उन्हें धन्य बनाओ।" आपने उनके कथनानुसार व्याख्यान पाट पर विराज कर व्याख्यान किया। hषण पर्व में आप कल्पसूत्र का व्याख्यान सुनाने लगे, आपकी वाणी सब को संतुष्ट करने लगी। यहां तक कि मुनि श्री लब्धिविजयजी ( वर्तमान में श्री विजयलब्धि मुरिजी) महाराज भी चकित होकर कहने लगे "आपका कल्पसूत्र सुनाने का ढंग बहुत ही बढ़िया है। मैं भी आगे से इसी ढंग से बाँचा करूँगा। मेरा उद्देश्य आपकी व्याख्यान शैली देखने का था। वह उद्देश्य पूरा हुआ।" _संसार में अनेकों दीक्षाएँ होती हैं। कई आचार्य अपने शिष्यों को दीक्षित करते हैं। किन्तु आपने जब कभी जिसे जिस जगह भव्य जीवों को दीक्षाएँ दी हैं; वहां एक अद्भुत दृश्य उपस्थित हो जाया करता था। बड़े २ प्रतिष्ठित आदमियों ने दीक्षा महोत्सव को देख कर प्रशंसा की है। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के शिष्य होमियता केवल लिए आये थे - संवत् १९६६ के आषाढ़ मास में जब मुनि विचक्षण विजयजी की दीक्षा पालनपुर में हुई तब वहां के नवाब साहब भी दीक्षा महोत्सव देखने के लिए आये थे। . __ आपकी लोक-प्रियता केवल श्रीमद्विजयानन्द सरीश्वरजी के शिष्य होने से ही नहीं, किन्तु अपने लोकातिशायी गुणों के कारण भी हुई है। आपके व्याख्यानों में सार्वजनिक धर्म को ही मुख्यता मिली है। आप सब धर्मों को समान दृष्टि से देखते हैं। इसीलिए अन्य धर्मावलम्बियों की दृष्टि में भी आप पूज्य समझे जाते हैं। संवत् १९६६ में आप संघ के साथ लींबड़ी (स्टेट) पधारने वाले थे, तो आपकी यशोगाथा को सुनकर लींबड़ी दरबार ने कहला भेजा था कि “मुझे दर्शन दिये बिना आप यहां से पधारें नहीं। विशेष, आपका व्याख्यान कितने वजे और कहां होगा ?" इत्यादि। ... यद्यपि संघ वहाँ एक ही दिन ठहरने वाला था, किन्तु दरबार के आग्रह से उसे एक दिन अधिक ठहरना पड़ा। वहाँ डेढ घण्टे तक आपने उपदेश दिया। व्याख्यान में राजा साहिब सपरिवार पधारे थे। व्याख्यान की समाप्ति पर उन्होंने हाथ जोड़ कर कहा : "आपका व्याख्यान सुन कर मुझे बड़ा हो आनन्द प्राप्त हुआ। मैंने सुना था कि Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आप स्वर्गवासी आत्मारामजी महाराज के सहबास में रह कर उत्तीर्ण हुए हैं। आज मैंने जैसा श्री आत्मारामजी महाराज को सुना था, वैसे ही, बल्कि उससे भी बढ़ कर आपको पाया। आपके वचनामृत पान करने की मेरी अधिक इच्छा थी, परन्तु आप इस समय संघ के साथ हैं इसलिए कुछ विशेष अर्ज नहीं कर सकता। मगर जब आप वापिस पधारें तब ८-१० दिन तक यहां विराज कर अवश्यमेव हमें लाभ पहुँचायें।" स्वर्गीय आचार्य श्रीमद् विजयानन्द सूरिजी महाराज की उपस्थिति में जितना भी लिखना और कॉपी करने का काम था, वह सब आप करते थे। 'तत्वनिर्णयप्रासाद' की प्रेस कॉपी आपने की थी तथा 'चिकागो प्रश्नोत्तर' की कॉपी भी आप ही के हाथों हुई। व्यक्तित्व संवत् १९६६ का चातुर्मास डभोई में समाप्त करके आप मियां गाँव पधारे। वहां १०८ श्री हंसविजयजी महाराज का पत्र आपके पास आया, उसमें लिखा था कि "नांदोद महाराज की तर्फ से विनती करने के लिए बक्षी वकील नामक एक सज्जन आये हैं। यदि आप पधारें तो | Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) अच्छा हो।" श्री हंसविजयजी महाराज की सूचना पाकर आप मियां गाँव से तत्काल रवाना हुए और प्रतापनगर में आपके साथ उनकी भेंट हुई। नांदोद दरबार के दीवान वहीं आपके स्वागतार्थ आये थे। वहाँ से मुनिराज श्री हंसविजयजी, पंन्यासजी श्री संपतविजयजी और आप नांदोद के लिए रवाना हुए। आपके सम्मानार्थ डभोई का संघ व भजनमण्डली भी शामिल थी। जुलूस के साथ आपका प्रवेश हुआ। नांदोद महाराजा ने व्याख्यान के लिए एक सुन्दर मण्डप तैयार करवाया था। दरबार ने आप तीनों मुनिराजों को सादर वन्दना की और उच्च आसन पर विराजमान किया। महाराजा अन्य श्रोताओं के साथ दरी पर ही विराज गये। जब कुर्सी पर बैठने के लिए कहा गया तो दरवार ने फरमाया-"सन्तों के दरबार में सभी समान हैं। यहाँ बड़े छोटे का कोई भेद नहीं।" आपने लगातार आठ दिन तक "मनुष्यता क्या है, और कैसे प्राप्त होती है ?” आदि पर व्याख्यान दिये। व्याख्यान को सुनकर महाराजा नांदोद ने कहा-"गुरुदेव ! मेरी उम्र में यह पहला ही अवसर है कि मैंने इतनी देर तक बैठ कर व्याख्यान सुना है। मैंने अनेक व्याख्यान मुने हैं परन्तु आज तक इतने मधुर, गंभीर और Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५ ) हृदयग्राही व्याख्यान नहीं सुने थे। मैं आज कृतकृत्य हुआ ।" इसी प्रकार आप जब बड़ौदे पधारे तो बड़ौदा नरेश ने भी आपका सम्मान करने के लिए डाक्टर वालाभाई मगनलाल की मारफत आमंत्रण दिया। बड़े समारोह से आपका बड़ौदे में प्रवेश हुआ । 'आत्मानन्द प्रकाश' ने लिखा है कि "उस समय श्रीमान् महाराज हंसविजयजी तथा विद्वान् मुनिराज श्री वल्लभविजयजी का आगमन ख़ास गायकवाड़ सरकार के निमंत्रण से हुआ था । अतः श्रीमान् महाराजा साहिब की तबियत ठीक न होने पर भी श्रोमन्त सरकार राजमहल में इन मुनिराजों से मिले थे । आपके उपदेश से प्रसन्न होकर सरकार ने आपसे सार्वजनिक व्याख्यान देने की प्रार्थना की थी।" वहाँ आपके 'धर्मतत्व' व' सार्वजनिक धर्म' इन विषयों पर २ मनोहर व्याख्यान हुए। ये व्याख्यान ता० ६ और १६ मार्च सन् १६१३ रविवार को शाम के समय न्याय मन्दिर में हुए थे। दोनों व्याख्यान 'आदर्श जीवन' के उत्तरार्द्ध में छपे हुए हैं । आप जब विहार करते करते जयपुर पहुँचे तब एक मज़ेदार घटना हुई। आप निशियाँ - जिन मन्दिर के दर्शन करके पधार रहे थे। आपके साथ श्रीमान् गुलाबचन्दजी ढड्डा एम० ए० के बड़े भाई लक्ष्मीचन्दजी भी थे। उन Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) दिनों लार्ड करजन ने बंगाल को २ भागों में विभक्त कर दिया था। अतः बंगाली लोग साधु सन्तों के वेष में क्रान्ति फैला रहे थे। पुलिस के ऑफिसर ने आपको नंगे पैर, नंगे शिर, साधु वेष में देखकर संदेह किया कि शायद ये बंगाली हों! और लोगों को भड़काते हों। उन्होंने पता लगाया, तो मालूम हुआ कि ये जैनी साधु कंचन कामिनी के त्यागी हैं। ये तो केवल धर्मोपदेश देने के लिये हो विचरा करते हैं। इन बातों से वाकिफ़ होते हुए भी पुलिस ऑफिसर ने आपके व्याख्यान में गुप्तचर लगा ही दिये। पं. दोनदयालजी तिवारी मुन्सिफ साहेब ने उन गुप्तचरों को सब के समक्ष समझाया कि "तुम आराम से बैठो, यहां तुम्हारी दाल न गलेगी। क्योंकि मैं यहां हमेशा व्याख्यान सुनता हूँ। आपमें किसी प्रकार का दोष नहीं है, किसी किस्म का लालच नहीं है। केवल परोपकार के लिये ही आपने यह बाना धारण किया है। तुम इस छिद्रान्वेषण को छोड़ धर्मोपदेश सुनने के लिए बैठो तो तुम्हारा कल्याण हो जाय।" गुप्तचरों ने स्वीकार किया और आपकी मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करके रवाना हुए। ... संवत् १९६५ वैशाख सुदी ६ को गुजराँवाला में आचार्य श्री विजयकमलमूरिजी महाराज की उपस्थिति में Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) स्वर्गीय आचार्य श्रीमद् विजयानन्द मूरिजी महाराज की बेदी-प्रतिष्ठा हुई। आप उस वक्त बिनौली में विराजते थे, किन्तु वेदी-प्रतिष्ठा के उपलक्ष्य में आपने एक स्तवन बना कर भेजा था। उसमें गुरु महिमा वर्णित थी। _ संवत् १९६६ में जब आप पालनपुर में विराजते थे, उस वक्त राधनपुर निवासी दानवीर सेठ मोतीलाल मूलजी आपके पास आये। आपने उन्हें सिद्धाचलजी का संघ निकालने के लिए प्रोत्साहित किया। स्वयं संघ के साथ सिद्धाचलजी की यात्रा कर और श्रावकों को धर्मोपदेश देकर कृतार्थ किया। आपके ही उपदेश से सेठ मोतीलाल मूलजी संघवी ने २००००) रुपये इसलिए निकाले कि यदि कोई जैन विद्यार्थी मैट्रिक पास करके आगे अभ्यास करना चाहे तो उसे स्कॉलर-शिप दिया जाय। उसो समय वह रकम इन्होंने चार ट्रस्टियों को सौंप दी। अनेक विद्यार्थी इस रकम से स्कॉलर-शिप पाकर ग्रेज्युएट हुए हैं। ___ उदयपुर मेवाड़ में संवत् १९७७ की वैशाख वदि ३ को 'श्री वर्द्धमान ज्ञान मन्दिर' नामक पुस्तकालय खोला गया। उसके उद्घाटन का श्रेय भी आप ही को है। वहाँ पर श्री विजयनेमिमूरिजी महाराज साहेब के साथ आपकी मुलाकात हुई । उन्होंने कहा-“वल्लभ विजयजी! मैं नहीं समझता था कि तुम इस प्रकार की सज्जनता दिखलाओगे Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) और शिष्टाचार करोगे। मेरे मनमें तुम्हारे लिए बहुत कुछ सन्देह था । आज सारा सन्देह दूर हुआ ।" आप सुनकर कुछ मुस्कराये । र संवत् १६७८ में आप बीकानेर में विराजते थे। यहां उपाश्रय के पास पण्डित मंगलचन्दजी भादाणी लखपति ब्राह्मण रहते थे। आपके उपदेश से उन्होंने 'सप्तव्यमनों' और रात्रि भोजन के त्याग की प्रतिज्ञा ली। वहीं चांदमलजी ढड़ा के साथ एक बङ्गाली सज्जन दर्शनार्थ आये थे । उन्होंने आपके व्याख्यान से सन्तुष्ट होकर आपका शिष्य मण्डली सहित फोटो लिया और कहा कि "मैं किसी बंगाली समाचार पत्र में इसे जैन धर्म और जैन साधुओं के आचरणों के विवेचन के साथ छपवा कर प्रकाशित करवाऊँगा ।" आपका असीम विद्या-प्रेम किसी से छिपा नहीं है । बंबई में श्री महावीर जैन विद्यालय, गुजरात ( पालनपुर ) में जैन एज्युकेशनल फण्ड और पंजाब की कई संस्थाएँ आपकी शिक्षाभिरुचि की जीती जागती मिसालें हैं । वहाँ आपने उपदेश देकर पंजाब में भी आत्मानन्द जैन कॉलेज के लिए चन्दा लिखवाना आरम्भ किया । परन्तु फिर यहाँ कॉलेज से पहले गुरुकुल खोलने का विचार हो गया और यह चंदा गुरुकुल के उपयोग में आया । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७९ ) आपने अपने दिल में यह प्रतिज्ञा ली कि “जब तक पूरा १ लाख रुपया जमा नहीं हो जायगा तब तक मैं मिष्टान्न नहीं खाऊँगा ।" आपने उसी प्रतिज्ञा को कार्य-पूर्ति पर्यन्त बराबर निभाया । आपमें त्याग-वृत्ति बड़ी जबर्दस्त है । जो धार लेते हैं पूरा करके ही छोड़ते हैं, चाहे उसमें कितनी ही कठिनाइयाँ क्यों न आवें । आपने जब मिष्ठान्न छोड़ा था ता आपको कभी स्वम में भी ऐसा ख़याल नहीं आता था कि मैंने मिष्ठान्न छोड़ दिया । जब साधुओं के साथ आप भोजन करने बैठते तब साधु महाराज आपसे कहते - "गुरुदेव ! हम मिष्ठान्न खा रहे हैं और आप केवल सादा भोजन (दाल रोटो ) ही ग्रहण कर रहे हैं ।" उस वक्त के आपके वचन स्वर्णाक्षरों में अङ्कित करने योग्य हैं । आपने कहा - " भाई ! द्वीपान्तरों में पैदा होने वाली चीज हमने आज दिन तक खाई नहीं और न उसकी हमें कभी लालसा ही रहती है, एवमेव जब तक यह काम पूरा न होवे तब तक हम इन मिष्ठान्न को द्वीपान्तरीय ही समझे बैठे हैं ।" कितना त्याग और कितना धैर्य ? इतनी बड़ी प्रतिज्ञा ली किन्तु किसो को पता तक नहीं दिया कि यह प्रतिज्ञा इस कारण से ली है । धन्य है ऐसे त्यागी महात्माओं को ! Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत सरकार की तर्फ से पुरातत्त्व की खोज करने वाले श्रीयुत् हीरानन्दजी शास्त्री ने फर्नहिल-नीलगिरि से लिखा था कि "भागमल्लजी ने उवाई सूत्र की प्रति और त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र ८, 8 और १० पर्व आपकी आज्ञानुसार भेज दिये हैं। बड़ी कृपा है। धन्यवाद करता हूँ। उवाई सूत्र पढ़ कर भेज दूंगा। मेरा विचार है, कुछ समय आपके पास व्यतीत करूँ। जब संभव होगा लिखूगा । मैं चाहता हूँ जैन धर्म के ग्रन्थ पढ़ कर उनको छपवाऊँ और टीका टिप्पणी भी उनपर लिखू, जैसा कि योरुप में याकोबी साहब करते हैं। देखें, कब विचारपूर्ण होता है। यदि इतना दूर न होता तो कुछ न कुछ अब तक लिख लेता। कभी कभी कृपापत्र भेजियेगा।" । - ये महाशय बड़े विद्वान होते हुए भी निरभिमानी हैं। आप ( चरित्रनायक) से कई बार मिले हैं। - धर्म प्रभाव - (क) आपके प्रयत्न से लुधियाने में "श्री हर्ष विजयजी ज्ञान भण्डार" नामक एक पुस्तकालय स्थापित हुआ। जो पीछे से आचार्य श्री जी की इच्छानुसार जंडियालागुरु में पहुँचा दिया गया। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । (ख) जीरा में संवत् १६४८ के मार्गशीर्ष शु० ११ के दिन श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिष्ठा और भरूच निवासी सेठ अनूपचन्द मलूकचन्द के लाये हुए रिफटक जिन बिम्बों की अञ्जनशलाका का कार्य स्वर्गीय भाचार्य श्रीमद्विजयानन्द मूरिजी महाराज के कर कमलों से सम्पन्न हुआ। उसमें आपका सहयोग भी अच्छा रहा। ... (ग) होशियारपुर में भी उसी साल आपके कर कमलों से श्री वासुपूज्य भगवान के बिम्ब की प्रतिष्ठा हुई। . (घ) नाभा से विहार करके आप होशियारपुर पधारे। वहाँ पर श्री स्व. आचार्य श्रीमद् १००८ श्री विजयानन्द सूरीश्वरजी महाराज की प्रतिमा की प्रतिष्ठा संवत् १६५७ के वैशाख मुदि ६ को सम्पन्न हुई। (ङ) संवत् १६५७ की माघ सुदि १३ को जंडियाले में आपकी उपस्थिति में प्रतिष्ठा और अञ्जनशलाका की गई। संवत् १६६३ का चातुर्मास करके आप जब नकोदर पधारे। वहाँ आपको ज्वर ने घेर लिया था। उन दिनों आपके शिष्य रत्न श्री ललितविजयजी महाराज बीकानेर में विराजते थे। वे गुरु महाराज की बीमारी के समाचार पाकर बीकानेर से लम्बी२ सफरें करके आपके चरणों में पहुंचे। जीरे के हकीम हरदयालजी आपकी सेवा में इलाज करने के लिये उपस्थित हुए। आपका इलाज चालू हुआ; Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२ ) किन्तु आप तो वीतराग भगवान् के सच्चे कृपा पात्र थे। भगवद्भक्ति करना ही आपका परम लक्ष्य रहा। आपको यह निश्चय था कि कितना भी उपाय क्यों न किया जाय, कर्मों का फल तो भोगे बिना छुटकारा है ही नहीं। अत: इस चिकित्सा के साथ ही साथ यदि ईश्वर चिन्तन किया जाय तो जो बीमारी महीने से जाने वाली है वह शीघ्र ही चली जायगी। अतः आपने ऐसी रुग्णावस्था में श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान् की छत्र छाया में रह कर माघ महीने में श्री पार्श्वनाथ स्वामी की हिन्दी भाषा में 'पञ्च कल्याणक' पूजा बनाई। संवत् १९९१ से १९९५ तक ... यह बात तो पहले ही मालूम हो चुकी होगी कि लाहौर में आचार्य पदवी-महोत्सव हो चुकने के कुछ दिन बाद आपने लाहौर से गुजरांवाला की ओर विहार किया। ___बहुत वर्षों के पश्चात् और अब 'जैनाचार्य और पंजाब के जैनों के सिरताज होने के कारण आपका गुजरावाला में जाना हुआ। ऐसे अवसर पर लोगों के उत्साह का अनुमान करना कुछ कठिन नहीं। जैसे दीन-हीन निर्धन को अनायास लक्ष्मी की प्राप्ति पर अपूर्व प्रसन्नता Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ ) होती है वैसे ही गुजरांवाला के श्री संघ को आचार्य महाराज के पधारने पर प्रसन्नता हुई। शहर में स्थान २ पर सुन्दर दरवाजे बनाये गये और जैन अजैनों की हजारों की संख्या ने आपके प्रवेश के समय आपका अपूर्व स्वागत किया। ___आपने अपने गुजरांवाला में विश्राम के दिनों में अपनी (गुरुकुल फंड में) एक लाख की प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर शुभ मुहूर्त में गुरुकुल की स्थापना की और अपने तब तक मीठा ग्रहण न करने के व्रत को पूरा किया। कहना होगा कि इस शुभ कार्य की पूर्ति में पंन्यासजी ललितविजयजी महाराज के प्रयास ने बहुत काम किया और आपकी ही प्रेरणा से सेठ विट्ठलदास ठाकुरदासजी (बंबई) ने अपनी लक्ष्मो का सदुपयोग करके यशोपार्जन किया। ... आपकी इस अनूठी भक्ति के उपलक्ष्य में श्री संघ के पास भेंट करने के लिये क्या था ? संघ ने विनीत भाव से आपके उपकारों से किञ्चित् मात्र उऋण होने के अभिप्राय से, आपको 'गुरु भक्त' की और सेठ विट्ठलदासजी को 'दानवीर' की पदवी प्रदान की और चातुर्मास में अनेक श्रावक श्राविकाओं ने उद्यापन कार्य भी किये। ... आपके इस चातुर्मास में जैन संसार को एक महान् हानि भी हुई अर्थात् उपाध्यायजी महाराज श्री सोहन Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयजीमहाराज, जिन्होंने पंजाब के जैनों को गाढ निद्रा से जमाने के लिये अपनी सारी शक्ति लगा दी थी, कुछ दिन बीमार रहकर मार्गशीर्ष कृष्णा १४, सं० १९८२ को असार संसार को सदा के लिये छोड़ गये।। चातुर्मास के बाद रामनगर, खानगाहडोगरां आदि नगरों में विचरते हुये आप पुनः गुजरांवाले पधारे। दानवीर सेठ विट्ठलदासजी, श्री मोतीचन्द गिरधरजी कापडिया सॉलिसीटर और श्री मकनजी झूठाभाई बैरिस्टर, सेठ देवकरन मूलजी की धर्मपत्नी इत्यादि बंबई से आपके दर्शनार्थ आये। अब आपका विचार गुजरात की ओर जाने का हुआ। लाहौर, अमृतसर, कमर, पट्टी, जंडियाला, वैरौवाल, नकोदर, जालन्धर, लुधियाना, मालेर कोटला, नाभा, सामाना, अंबाला होते हुये, सर्वत्र अपने उपदेशामृत से भव्य जीवों का उपकार करते हुये आप साढौरा में पधारे। हिन्द स्कूल में आपने विश्राम किया। वहां तोन चार सार्वजनिक व्याख्यान भी दिये। इस अवसर पर साढौरा निवासी भाइयों ने साढौरा में जिन मंदिर बनवाने की इच्छा प्रकट की। एक भाई ने योग्य जमीन देने की उदारता दिखाई परन्तु आपके वहां अधिक दिन न ठहर सकने के कारण तामीर का काम आरंभ न हो सका। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 23 ) अब वह अति सुंदर मंदिर बन कर तैयार हो चुका है और उसकी प्रतिष्ठा भी आप ही के कर कमलों से मार्ग शीर्ष सुदि १०, सं० १६६५ के शुभ दिन होने वाली है । साढौरा से विहार करके आप बिनौली (जिला मेरठ) में पधारे जहां, ज्येष्ठ सुदी ६ को शुभ मुहूर्त में श्री जिन मंदिर की प्रतिष्ठा - अंजनशलाका का शुभ कार्य्य हुआ। तीन दिन पहले (ज्येष्ठ सुदि ३) को जंडियाला निवासी श्रीयुत् लाला खजांचीलाल ओसवाल लोढा गोत्रीय और राधनपुर farmer श्रीयुत् सेठ भोगीलाल केसरीचंदजी बीसा श्रीमाली की दीक्षा का महोत्सव हुआ था। इनके नाम क्रमशः 'विशुद्ध विजयजी' और 'विकाशविजयजी' रक्खे गये थे । ये दोनों मुनिराज आपही के शिष्य हुये। इसी अवसर पर गुजरांवाला की श्राविका श्रीमती रलीबाई ने भी दीक्षा ली। आपका नाम 'श्री चारित्र श्रीजी' रक्खा गया । श्रीमती चित श्री जी की शिष्या बनाई गई । बिनौली के पास ही 'बड़ौत' नामक एक अच्छा कसबा है जहां दिगम्बर आम्नाय की अधिक बस्ती है। आप बिनौली से बड़ौत पधारे। आपका मनोहर उपदेश होने लगा जिसके प्रभाव से ३५ घर श्वेताम्बर संप्रदाय के अनुपायी हो गये। वहाँ एक सुन्दर जिन मन्दिर भी बन चुका है और उसकी प्रतिष्ठा भी आपही के हाथों माघ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मास में होने वाली है। देहली के मुखिया लोग देहली में चातुर्मास करने के लिये विनती के निमित्त आये और आग्रह भरी विनती की, परन्तु बड़ौत निवासियों की भक्ति और शासन की प्रभावना को विचार कर आपने बड़ौत में ही चातुर्मास करना ठीक समझा। यद्यपि चौमासे में आपका शरीर कुछ नरम रहा तथापि बड़ौत श्री संघ को अच्छा लाभ मिला और उनके उत्साह में बड़ी वृद्धि हुई ।। ____बड़ौत से विहार करके आप देहलो पहुँचे। भारतवर्ष को राजधानी होने के कारण नगर की शोभा अपार है। जैनों की भी अच्छी बस्ती है और सबके सब अच्छे समृद्धिशाली और धर्म की वासना से वासित हैं। आचार्य महाराज के वहां पहुंचने से उनकी प्रसन्नता का पारावार न रहा । आपके प्रवेश के समय अजीब चहल पहल थी। देखने वालों को यह दृश्य भी चिरकाल तक याद रहेगा। आप डेढ़ मास वहां ठहरे। व्याख्यान में खूब भीड़ रहती थी। आपके व्याख्यान का विषय भी 'ओम्' की रोचक और विद्वत्तापूर्ण व्याख्या था। इन्हीं दिनों में श्री आत्मानन्द जैन गुरुकुल, गुजरांवाला के सम्बन्ध में ४, ५, ६ दिसम्बर, १९२६ को सर्व साधारण सभा का वार्षिक अधिवेशन हुआ। पंजाब के प्रतिनिधिगण व अन्य स्त्री-पुरुष अच्छी संख्या में एकत्रित हुये। सभापति का Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान कलकत्ता निवासी बाबू गयकुमारसिंहजी मुकीम ने स्वीकार किया। ता० ५ दिसम्बर के शाम की बैठक में सेठ विट्ठलदासजी भी बंबई से अधिवेशन में शरीक होने के लिये आ पहुँचे । ता०६ को प्रातःकाल व्याख्यान के समय सर्व साधारण सभा की बैठक हुई। इस प्रसंग पर आचार्य श्री ने गुरुकुल के सम्बन्ध में सुन्दर उपदेश दिया। दानवीर सेठ विट्ठलदासजी ने ५ वर्ष के गुरुकुल के मकान के किराये के लिये दस हजार रुपये प्रदान करने की उदारता दिखलाई और साथ ही गुरुकुल के लिये स्थान निश्चित होने पर मकान फंड में उचित रकम देने की भावना प्रगट की, जिससे सभा में धन्य-धन्य की आवाज गूंजने लगी। ता० ७ दिसम्बर को व्याख्यान के समय लाला मंगतरामजी (अंबाला) ने पंजाबी भाइयों की ओर से आचार्य श्री से उनके पंजाब से मारवाड़, गुजरात को यात्रा पर विहार करने के कारण पुनः शीघ्र वापिस पंजाब पधारने, पंजाबियों को न भूलने, गुरु महाराज के वचन 'पंजाब को वल्लभ संभालेगा' को ध्यान में रखने तथा बंबई जैसे शहर में श्रीमानों और दानवीरों के प्रलोभन में पंजाब को न भूल जाने की प्रार्थना की और 'हमारी नाव पार करना आपके हाथ है' इन दिल हिला देने वाले शब्दों में विनती Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८८ ) की, जिसे सुन कर सारी सभा की आँखों से अश्रुधारा बह चली। आचार्य महाराज ने पंजाब को हृदयस्थ रखने और शीघ्र वापिस आने के लिये योग्य उत्तर दिया। . देहली से आपने गुजरात की ओर प्रस्थान किया। अनेक ग्रामों में विचरते हुये आप अलवर पधारे। वहां भी एक भव्य जिन मंदिर में माघ सुदि ५ को प्रतिष्ठा कराई गई और श्री पार्श्वनाथ भगवान् गद्दी पर विराजमान हुये। पंजाब और मारवाड़ के लोगों की आपमें अनूठी श्रद्धा और भक्ति है। उसके कारण उनका मन सदा आपके दर्शनों के लिये लालायित रहता है। अभी आपको पंजाब छोड़े थोड़े ही दिन हुये थे और मारवाड़ में आपका विहार आरंभ होने वाला था। दोनों प्रदेशों के भक्तजन आपके दर्शनार्थ अलवर पहुँचे और मारवाड़ी संघ ने आपसे मारवाड़ में पधारने को विनती की। । .. आपने जयपुर, अजमेर, ब्यावर होकर बीजोबा को तरफ विहार किया। आपके पूर्ण भक्त पंन्यासजी महाराज श्री ललितविजयजी महाराज श्रीवरकाणा-बीजोवा से दाँता ग्राम तक आपको लिवाने आये। बिजोवा में पधारने के बाद आपको घाणेराव वाले श्रीयुत् जसराजजो सिंघी की बीमारी का समाचार मिला। वे वरकाणा में बीमार थे। वरकाणा वहां से १ मील के अन्तर पर है। श्रीयुत् जसराजजी सिंधी Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९ ) : बड़े विद्या प्रेमी थे । आपने वरकाणा के श्री पार्श्वनाथ जैन विद्यालय की स्थापना में अमूल्य सहायता दी थी और श्री आचार्य महाराज के दर्शनों के लिये उत्कंठित हो रहे थे। बीजोवा तक आने की शक्ति भी आपमें न रह गई थी । अतः श्री आचार्य महाराज ने उनकी उक्त दर्शन पिपासा को शांत करने के लिये वरकाणाजी ही पधारने का कष्ट उठाया । अपने अंतिम समय में सिंघीजी आचार्य महाराज के दर्शन करके अपने जीवन को धन्य समझने लगे और थोड़े ही समय पश्चात् उसी रोज उनका यह नश्वर शरीर छूट गया । आपका चातुर्मास बीजोवा में ही हुआ । मारवाड़ी भाइयों ने आपके विश्राम का पूर्ण लाभ लिया और थोड़े समय पहले स्थापित श्री पार्श्वनाथ जैन विद्यालय, वरकाणा - संस्था को पुष्ट करने में योग्य सहायता प्रदान की, जिसके फल स्वरूप अब वह संस्था मारवाड़ में बड़ी अच्छी संस्थाओं में से एक समझी जाती है और प्रति दिन उन्नत दशा को प्राप्त हो रही है । वैशाख सुदि ३ को मुनि श्रो विशुद्ध विजयजी, श्री विकाशविजयजी तथा श्री विक्रम विजयजी की बड़ी दीक्षा आपकी अध्यक्षता में पंन्यासजी महाराज श्री ललितविजयजी के हाथ से बीजोवा में हुई । पश्चात् रानी गाँव, खीमेल, सांडेराव होकर आप खुडाला में पधारे । ज्येष्ठ सुदि ८ को सदा की भांति गुरु Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९०) महाराज श्री आत्मारामजी की जयन्ती बड़ी धूम-धाम से वहीं मनाई गई। तत्पश्चात् बाली, सेसली तीर्थ, लुणावा, सेवाड़ी, राता महावीरजी की यात्रा करके आप बीजापुर पघारे। आपकी प्रशंसा सुनकर बीजापुर के ठाकुर साहिब आपके दर्शनार्थ आपकी सेवा में पधारे और आपसे बात चीत करके बड़े आनंदित हुये। फिर बीजापुर से लुणावा होकर लाठारे, राणकपुरजी आदि की यात्रा करके सादड़ी, घाणेराव. देसूरी, सुमेर, बागोल, नाडलाई होते हुए आप नाडोल पधारे। वरकाणा से श्रीपंन्यासजी ललितविजयजी महाराज वहां आकर मिले। वरकाणा के विद्यार्थीगण तथा उनके अध्यापक भी वहां दर्शनार्थ आये। आपकी कृपा से गोड़वाड़ प्रॉन्त में उन्नति के साधन रूप इस विद्यालय के स्थापित होने से आपका वहां चातुर्मास कराने की गोड़वाड़ संघ की इच्छा दिन प्रति दिन बलवती होने लगी। संघ ने आपकी सेवा में भक्ति भाव से प्रार्थना की। आपने भी अधिक धर्म लाभ होने की आशा से उनकी प्रार्थना को स्वीकार करना ही योग्य समझा। अतः आप का चौमासा बिजोवा में ही हुआ। इससे विद्यालय को बहुत पुष्टि मिली और गोड़वाड़ संघ में शिक्षा का अधिक से अधिक प्रचार होने लगा। चातुर्मास के निर्विघ्नतया समाप्त होने पर आप शिवगंज होकर श्री Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्बुदाचल ( आबूजी) यात्रा के लिये पधारे। यात्रा करके पालणपुर के मार्ग से आप पाटण पधारे। . आपको प्रवर्तकजी श्रीकान्तिविजयजी महाराज के दर्शनों की बहुत आकांक्षा थी। उनके दर्शन करके आपने अपनी इच्छा सफल की। आपके पाटण पधारने पर वहीं एक महोत्सव हुआ। दूर दूर से श्रावक श्राविकाओं का संमुदाय उत्सव में शामिल हुआ। श्री आत्मानंद जैन गुरुकुल पंजाब (गुजरांवाला) और पालणपुर जैन बोर्डिङ्ग हाऊस के अध्यापक और विद्यार्थी भी उपस्थित हुये । पंचासरे के सहन में उत्सव का प्रबंध किया गया। गुजरांवाला और पालणपुर के विद्यार्थियों ने व्यायाम के खेल, स्काऊटिङ्ग के करतब दिखाये। रात को गुजरांवाला के विद्यार्थियों ने नाटक करके जनता का मनोरंजन किया । श्री विजयसिद्धिमूरिजी महाराज भी उन दिनों वहीं पाटण में विराजमान थे। पंचासरे के उत्सव में वे भी पधारे थे। - इस प्रकार सब मुनिराजों के सम्मिलित होने से उत्सव की रौनक तो बढ़ी ही, प्रत्युत जनता पर भी इसका अपूर्व प्रभाव पड़ा। तदनन्तर भीलड़ियाजी तीर्थ की यात्रा करके पालणपुर आदि पधार कर आप फिर पाटण वापिस आये। अहमदाबाद से श्री हंसविजयजी महाराज Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९२ ) भी सपरिवार पाटण में पधारे। आपका प्रवेश भी श्री आचार्य महाराज के साथ ही हुआ। पालणपुर वालों की चातुर्मास के लिये विनंति होरही थी। उनकी प्रार्थना को मान देते हुये आपने वहां वृद्ध मुनिराज पन्यासजो श्री सुंदरविजयजी आदि ६ मुनिराजों को चौमासा के लिए भेजा। और आपका चातुर्मास १०८ श्री प्रवर्तकजी महाराज श्री कांतिविजयजी तथा १०८ श्रीहंसविजयजी महाराज के साथ ही पाटण में हुआ। । सं० १९८५ में आपके पाटण के चातुर्मास में करचेलिया ग्राम से मुख्य श्रावक सेठ दुल्लभजी भाई आदि आये और प्रार्थना की कि आप वहां अवश्य पधारने की कृपा करें। करचेलिया सूरत जिले में नवसारी के पास एक ग्राम है। वहां आचार्य महाराज के ही उपदेश से एक जिन मंदिर बना था। उसकी प्रतिष्ठा का काम अभी होना था। इसी अभिप्राय से उनका विशेष आग्रह होरहा था। आपने करचेलिया संघ को योग्य शब्दों में आश्वासन दिलाया और चौमासे के पश्चात रहां पधारने का संकल्प प्रदर्शित किया । । चौमासा पूरा हुआ। आप मेहसाणा होकर अहमदाबाद पधारे। आपके इस जैन-नगर में प्रवेश का दृश्य दर्शनीय था। जुलूस में १० हजार के करीब मनुष्यों की Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९३ ) धूम धाम थी। पालणपुर से विहार कर समुद्रविजयजी, सागरविजयजी आदि मुनिराज भी आप की सेवा में अहमदाबाद आगये। कुछ दिन विश्राम करके बड़ौदा, झगड़िया आदि स्थानों में विचरते और धर्मोपदेश देते हुये आप करचेलिया पधारे। माघ सुदी १३ को श्री जिन मंदिर की प्रतिष्ठा बड़ी धूम धाम से हुई और करचेलिया श्रीसंघ. की वर्षों की आशा सफल हुई। आचार्य पहाराज ने वहां से बुहारी की ओर प्रस्थान किया। बंबई श्रीसंघ के ४०, ५० मुखिया श्रावक बुहारी में आपकी सेवा में उपस्थित हुए और चौमासा बंबई में करने के लिये प्रार्थना की। आपने उनकी प्रार्थना स्वीकार की और विहार करके करचेलिया वापिस पधारे । उस वक्त ३०, ४० नवसारी के श्रावकगण विनंति के लिये आये और खूब जोर दिया। आखिर उनकी विनंति को मान देकर आपने करचेलिया से विहार किया और क्रमशः आप नोगाम में पधारे। इससे पहले टांकल से ही आपने श्रीमुनि समुद्रविजयजी, श्री चरणविजयजी और श्री विकासविजयजी को बंबई की ओर भेज दिया था। आप नवसारी पधारे। मार्ग में सिसोदरा गाँव में कुछ सूरत के भाई विनंति करने आये। विनती स्वीकार हुई और आप नवसारी पधारे। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९४ ) वहां श्रीसंघ में कुछ झगड़ा चल रहा था और परस्पर वैमनस्य के कारण धार्मिक कार्यों में रुकावट होरही थी। आपने चैत्रो पूर्णिमा को व्याख्यान में ही उस झगड़े का निपटारा करके संघ में शान्ति स्थापित करादी। कुछ दिन बाद वहां श्री मंदिरजी के जीर्णोद्धार की नींव रक्खो गई। सूरत जाने का आपका विचार बिलकुल नहीं था तथापि संघ के आग्रह से आपको सूरत जाना ही पड़ा। प्रत्येक उपाश्रय के कार्यकर्ता चाहते थे कि आप उनके उपाश्रय में विराजमान हों। यह तो कठिन था फिर भी आपने उनकी प्रबल इच्छा को पूर्ण कर ही दिया। आप प्रत्येक उपाश्रय में पधारे और व्याख्यान किया। संघ संतुष्ट हुआ। सूरत में विश्राम करने के बाद आप नवसारी, बिल्लीमोरा, बलसाड़ आदि नगरों को पावन करते हुये गोलवड़ में पधारे। वरकाणा से विहार करके आते हुये गुरुभक्त पंन्यासजी श्री ललितविजयजी, मुनि श्री उत्तमविजयजी महाराज आदि आपसे यहां आकर मिले । आगे अगासी जाने पर बंबई के हज़ारों नर-नारी आपके स्वागत के लिये आये। - यहां से मलाड होकर आप शांता क्रझ (Santa Qruz) में पधारे। यहां आपका सार्वजनिक व्याख्यान हुआ। ज्येष्ठ मुदि ५ के दिन आप बंबई में गोवालिया टैंक रोड Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूम धाम के साथ आपका बंबई शहनाया गया। (९५) पर श्रीमहावीर जैन विद्यालय के विशाल भवन में पधारे। तीन दिन बाद ज्येष्ट सुदि ८ को श्री गुरु महाराज श्री आत्मारामजी का जयन्ती उत्सव होने वाला था। अतः आप विद्यालय में ही ठहरे। वहीं बड़ी धूम धाम के साथ जयन्ती महोत्सव मनाया गया। ज्येष्ठ सुदि १० को आपका बंबई शहर में बड़ी धूम-धाम के साथ प्रवेश हुआ। पंजाब से भी भजन मंडलियां आई थीं। श्री आत्मानन्द जैन गुरुकुल के कार्यकर्ता भी उपस्थित हुये थे । बंबई जैसे रमणोक शहर में आपका प्रवेश महोत्सव निराली शान वाला था। बंबई के श्रीमंतों ने अपने अद्वितीय उत्साह का परिचय देते हुए अधिक से अधिक रौनक की। संवत् १९८६ का चातुर्मास भी वहीं हुआ। इस चातुर्मास में भी श्री महावीर विद्यालय बंबई और श्री आत्मानंद जैन गुरुकुल, गुजरांवाला को अच्छी सहायता मिली। चौमासे के बाद आपने पूना की ओर विहार किया। यह प्रदेश आपके लिये नया था। परन्तु उधर के संघ की विनंति बड़ी प्रबल थी। रास्ते में हजारों नर नारी 'ठाणा' में दर्शनार्थ आये। इधर बंबई से पूना जाते हुये रास्ते में आप श्रीजी के पुण्य प्रताप से जो जो उत्तम कार्य हुये उनका बोधक श्री आचार्य महाराज का ही एक पत्र वाचकों की तृप्ति के लिये नीचे दिया Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है। यह पत्र पंन्यासजी श्री ललिनविजयजी के नाम लिखा गया थाः तलेगाँव, (पूना डिस्ट्रिक्ट)२४-१-३० वंदनानुवंदना सुखसाता। आज यहाँ आनन्द से प्रवेश हुआ है, सारा गाँव सजाया गया है। इस वक्त प्रभु के मंदिर में पूजा हो रही है । कल का दिन यहां रहना होगा। दूज ३१ जनवरी को पूना पहुँचने का भाव है । यहाँ से पूना १६ माईल है। इसलिये पत्र सोधा पूना ही देना है। मुंबई से चल कर यहां सुधी ( तक) में जो २ आनन्द और अनुभव हुआ है, ज्ञानी ही जानते हैं। थाना तक तो तुम को खुद ही अनुभव हो चुका है। वहां से यानी थाना से बीस मील 'पनवेल' में क्रमशः यानी तीज की शाम को थाना से चल कर छठ को पहुँचे, आठम दुपहर को 'पनवेल' से चलकर दशम को 'पेन' बीस मील पहुँचे। वहां असाता वेदनी उदय में आने से दादर से गिरे, वह असाता वेदनीय कर्म अभी तक चलता है। हम भी चलते २ यहां तक पहुँचे। ऊँचे ऊँचे घाट भी चढ़ते ही आये। प्रदेश बड़ा ही रमणीय है। पहाड़ ज़रूर है परंतु सजीव हरियाली वाले। सड़क पर पंजाब जैसो प्रायः छाया। हां, अब जो पहाड़ का हिस्सा आ रहा है वह प्राय: मारवाड़ जैसा सूखा बिना हरियाली का दीखता है । मॅमसर मुदि Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९७ ) 'पेन' में खतम हो गई। पौष वदि एकादशी दुपहर में 'पेन' से विहार करके त्रयोदशी शाम को बीस माईल खयोली पहुँचे। पेन में तड़ पड़े हुये थे, मिट गये। प्रभु के मंदिर के जीर्णोद्धार का काम प्रारंभ हुआ। दो वरघोड़े (रथयात्रा) और दो स्वामीवत्सल हुये। खयोली में टाटा के तालाब का कारखाना है जहां से बिजली पैदा होकर बंबई और पूना जाती है। प्रभु ने जड़ और चेतन में अनंत शक्ति वर्णन की है जिसका यह नजारा है। देखते अकल हैरान-परेशान होती है। - चतुर्दशी खयोली में हुई। यहां से खंडाले के घाट की चढ़ाई शुरु होतो है। बस इस घाट जैसी पंचगिनी के घाट के सिवाय अन्य किसी घाट की चढ़ाई न होगी, ऐसा कईयों का कहना है। पहाड़ों को फोड़ कर अंदर ही अंदर बुगदे ( सुरंगे ) बना कर रेल ले गये हैं। कहीं २ तो एक एक माईल का लंबा बुगदा (एक प्रकार की सुरंग ) होता है जिसमें से होकर रेल जाती है। आदमी के चलने की सड़क अलग है; वहां बुगदा नहीं आता है किन्तु पहाड़ की चढ़ाई आती है। खयोली से खंडाला पांच माईल का मुकाम है जिसमें लगभग तीन माइल की छातो भरे ही चढ़ाई चढ़नी पड़ती है, परंतु सड़क होने से ऐसो कठिन चढ़ाई मालूम नहीं देती। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९८ ) अमावश को खंडाला, एकम को लानोली (लुनावला) पहुँचे जो तीन माइल लगभग है। यहां हवा पानी दवा आदि की अनुकूलता है। ज्ञानी ने फरसना देखी, थी, पंद्रह दिन रहना हुआ। मार्ग में प्रायः सभी ग्रामों में मारवाड़ी श्रावकों की बस्ती है। पनवेल, पेन, खयोली, खंडाला और लानोली, यहां सब जगह मंदिर भी हैं। माघ वदि एकम को लानोली से विहार करके लगभग डेढ़ माइल पर ओलवण ग्राम में आये। यहां भी प्रभु का मंदिर है। यहां दो दिन रहे। पूजा प्रभावना स्वामी वत्सल हुआ। लानोली और ओलवण ग्राम का कुछ कुसंप था वह मिट गया। ओलवण से चार मील लगभग कारला ग्राम में आये। इस ग्राम में भी कुसंप था सो मिट गया। मंदिरजी नहीं है, परन्तु ओलवण से प्रभुजी लाये गये और पूजा पढ़ाई गई, स्वामीवत्सल भी हुआ। आस पास के ग्रामों के लोग आजाने से सब जगह सैंकड़ों की तादाद में श्रावक ही श्रावक दिखते रहे। यहां तीन दिन रहना हुआ। कारला व भाजा इन नामों से उत्तर और दक्षिण में दो गुफाएँ हैं, सा देखी गई। भाजा की गुफा से कारला की गुफा बड़ी और दर्शनीक मालूम देती है। कारला की गुफा में बौद्ध और जैन मूर्तियें देखने में आती हैं परंतु अधिकतर भाग बौद्ध का देखने में आता है। हमारी समझ-मुजब किसी Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९९ ) समय में राजाओं ने अपने छिपने के लिये पहाड़ों में गुप्त जगह बनाई होंगी। वह कालान्तर में अन्य उपयोगों में ले ली गई होवें और राजाओं की सहायता से तदनुरूप बनाई गई होवें तो ताज्जुब नहीं। परन्त हिन्दुस्तान की स्थापत्य कला का नमूना तो ज़रूर है। ___कारला से छठ को विहार करके खटकाला आये। यहां एक दो बातें खास लिखने की रह गई सो लिख कर आगे का समाचार लिखा जायगा। लानोली में मुंबई से चीमन को बुलाया गया था और चारित्र पूजा पढ़ाई गईथी। ओलवण में टाटा तालाब है जहां तीन तरफ पहाड़ और एक तरफ लगभग एक मील की दीवार बना कर पानी इकट्ठा किया है जहां से नहर के जरिये पानी आगे को बढ़ाकर छः विभागों में बाँट कर नल के जरिये खयोली में पहुँचाया जाता है। देखने योग्य दृश्य है । ओलवण में ही एक योगाभ्यास सीखने की संस्था है जिसके अध्यक्ष का परिश्रम श्लाघनीय एवं संस्था का कार्य देखने योग्य बल्कि अनुकरणीय है। खटकाला में भी ओलवण से प्रभु-मूर्ति लाये थे। कई गाँवों के श्रावक इकठे हुये थे। पूजा और स्वामी-वत्सल हुआ था। खटकाला से लगभग ५ मील एक तरफ कोने में पहाड़ के साथ लगता टाकवा गाँव है। इस गाँव में कभी किसी Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) साधु का जाना नहीं हुआ था। बहुत विनंति होने से जाना पड़ा। साथ में ही ओलवण से प्रभु-मूर्ति लाई गई और आजु बाजु के कई गाँवों के श्रावक भी आये। (प्रभ पूजा और स्वामी-वत्सल हुआ। उपरांत 'श्री आत्मानन्द जैन गुरुकुल' के विद्यार्थियों के लिये एक बारी के साठ रुपये भेजने की इच्छा दरशाई। टाकवा से छः माइल वडग्राम आये। यहां भी प्रभु पधारे। श्रावक समुदाय भी आ मिला। एक बाई ने पूजा और स्वामी-वत्सल किया तथा एक बारी गुरुकुल को देने का निश्चय किया। बड़गाम से कल रोज यहां तलेगाँव दाभड़ा आना हुआ। ग्रामानुग्राम विचरते हुये आप पूना से ५ मील के अंतर पर खड़की पधारे। पूना के श्रावक आपको जल्दी पूना पधारने के लिये विनंति करने आये। आपको मालूम हो गया था कि पूना की बिरादरो में १७ तड़ (धड़े) पड़े हुये हैं। आपने ऐसी अवस्था में वहां जाने से इन्कार कर दिया। आपका पुण्य और तेज अद्वितीय और आपका प्रभाव अवर्णनीय है ही, जब बिरादरी ने अपने मनो मालिन्य को दूर करके, सबने एक भाव होकर आपसे पूना पधारने की विनंति की, तो आपने उनकी विनंति सहर्ष मानली और पूना में पधारे। ऐसी अवस्था में Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१ ) आपके प्रवेश में बड़ी धूम धाम का होना स्वाभाविक ही था। चैत्र मुदि त्रयोदशो को श्रीमहावीर प्रभु की जयंती (जन्म) के दिन आपने सब तडों को इकहे कर दिये जिसकी खुशी में सब तड़वालों ने मिल कर सब की इकट्ठी ही जवकारसी की। आठ वर्षों के बाद पूना शहर में संप और नवकारसी के होने से कुल श्रीसंघ और शहर में आनंद ही आनंद होरहा था। इस अपूर्व आनंद से श्रीसंघ पूना ने चौमासे के लिए खूब विनती को, श्रीसंघ का उत्साह देख कर आपने विनतो मानली और १९८७ का चौमासा पूना में किया। चातुर्मास में भी वहां के श्रीसंघ ने अच्छा लाभ लिया। आप बेतालपेठ के उपाश्रय में ठहरे हुये थे। आपके सदुपदेश से वहां 'श्री आत्मानन्द जैन लाईब्रेरी' स्थापित हुई। चातुर्मास में उपधान आदि अनेक धर्म कार्य भी हुये। इस प्रकार सं० १९८७ का चौमासा निर्विघ्नतया व्यतीत हुआ। .. चौमासे के बाद आपने श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथजी के दर्शनार्थ जाने का विचार किया। फिर तलेगांव, अहमदनगर होते हुये ईवला पधारे। वहां की श्रीमती मणिबाई ने ईवला जिन मंदिर की प्रतिष्ठा में पधारने के लिये आपसे अत्यंत आग्रह पूर्ण विनंति की थी। प्रतिष्ठा कार्य के पूर्ण होने Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२ ) के पश्चात् दौलताबाद आदि स्थानों में विचरते, हुये आप इलोरा पहुँचे। वहां की गुफाओं को देख कर भारतवर्ष की पुरानी कला के संबन्ध में आपको अच्छा अनुभव हुआ। इलोरा से श्री अंतरिक्षजी की यात्रा के लिये गये ।। बालापुर के नेता सेठ लालचंद, खुशालचंद, सुखलाल आदि विनंति के लिये आये। चैत्र की ओली यहां ही हुई, और सेठ लालचंद ने इस संबंध में खर्च का भार उठा कर अपनी लक्ष्मी का सदुपयोद किया। यहां एक जैन धर्मशाला की बड़ी आवश्यक्ता थी। धर्मशाला बनवाना श्रीसंघ ने निश्चित किया। यहां से आप बालापुर पधारे। कुछ दिन वहां ठहर कर अकोला संघकी विनंति के कारण आप अकोला गये। वहां भी एक जिन मंदिर की प्रतिष्ठा होने वाली थी। आपके पधारने पर बड़ी धूम धाम से प्रतिष्ठा हुई। श्री गुरुदेव की जयन्ती यहां ही मनाई गई। संघ ने चातुर्मास के लिये बड़ा आग्रह किया। आपने उनकी प्रार्थना स्वीकार करके वह चातुर्मास वहीं व्यतीत किया। आपके साथ मुनि श्री चरणविजयजी, श्री शिवविजयजी और श्री विक्रमविजयजी महाराज थे। आपके वहां विराजमान होने से श्रीसंघ के उत्साह में बड़ो वृद्धि हुई। अकेले ही सेट लालचंदजी में वहां अति सुंदर उपाश्रय बनवाया जिसका नाम 'श्री Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) आत्मानन्द जैन भवन' रक्खा गया । अकोला वाले भी चातुर्मास के लिये आग्रह करते थे, वहां श्री समुद्रविजयजी, सागरविजयजी तथा श्री विशुद्ध विजयजी महाराज का चातुर्मास हुआ । चौमासे के उपरांत विहार करके आप मांडवगढ़ पधारे । इंदौर से सेठ नथमलजी कन्हैयालालजो रांका आदि इंदौर पधारने के लिये प्रार्थना करने आये । शीयोर से लगभग १०० भाई दर्शनार्थ पधारे। लाला माणकचंदजी दूगड़ व सुंदरदासजो बरड भी गुजरांवाला से दर्शनार्थ आये थे । बुरहानपुर के एक माता-पुत्र का झगड़ा चल रहा था । आपके उपदेश से वह क्लेश भी शान्त हो गया । मांडवगढ़ से चल कर आप धार पहुँचे। यहां आसपुर के सेठ तारावत चंपालालजी निहालचंदजी कचरूलालजी आदि बहुत से भाई आये और आप से आसपुर पधारने के लिये आग्रहभरी विनती करने लगे। आप आसपुर लेजाना चाहते थे। आप श्री केसरियाजी की यात्रा के लिये जाना चाहते थे । आसपुर रास्ते में आता था । परंतु मार्ग में रतलाम के भाई आ पहुँचे और आग्रह पूर्वक विनती करके रतलाम ले गये । आपके रतलाम प्रवेश के समय अश्रुत - पूर्व रौनक थी । चार दिन तक वहां विश्राम किया । व्याख्यान में जैन Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) और जैनेतर सभी लोग आया करते थे। दीवान साहब तथा अन्य अधिकारी वर्ग भी आते थे । पर्युषणों में भी ऐसी रौनक न हुई थी । प्रभु पूजा भी पढ़ाई गई। यहां से आप सैलाना गये | व्याख्यान में सैलाना के दीवान साहिब और अन्य अहलकार वर्ग भी आये और उनके विशेष आग्रह से एक दिन अधिक ठहरना पड़ा। यहां पर प्रतापगढ़ से श्रीमान् सेठ लक्ष्मीचंदजी घीया विनंति करने के लिये आये परन्तु आप उनकी विनंति को स्वीकार न कर सके । यह से आप बांसवाड़ा गये । इस ग्राम के नाम से ऐसा प्रतीत होता है कि यहां किसी समय में बांस ही बांस होते होंगे परन्तु अब तो वहां चारों ओर आम ही के पेड़ दृष्टि में आते हैं। यहां से आप आसपुर पधारे। उधर गुजरात से विहार कर श्री आबू तीर्थ की यात्रा करके विद्वान् मुनि श्री पुण्यविजयजी, श्री प्रभाविजयजी, श्री रमणीकविजयजी आपको मिले। पं० महेन्द्रविमलजी तथा पुण्यविमलजी मुनिराज भी यहां मिले। ऐसे विद्वान् साधु मुनि महाराजों के समुदाय के पधारने से आसपुर की बहुत वर्षों की आशा पूर्ण हुई । बंकोड़ा होते हुए आप आसपुर से विहार कर बड़ोदा पहुँचे । यह ग्राम अब उन्नत दशा में नहीं है। प्रायः भग्नावशेष सा है । श्री केसरियानाथजी की प्रभाविक # , Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) मूर्ति पहले यहां थी। कुछ दिनों तक आप आसंपुर के आस पास के गांवों में विचरते रहे। आपके इस विहार से लोगों को अपूर्व लाभ हुआ। फिर आप ३००, ३५० श्रावक श्राविकाओं सहित श्री केसरियानाथजी की यात्रा के लिये पधारे। यात्रा करके अति आनंदित हुये। आपके श्री केसरियानाथजी पधारने का समाचार शीघ्र ही इधर उधर फैल गया। उदयपुर के मुख्य २ बंधु विनंति के लिये श्री केसरियानाथजी आये। वहां आहोरके ठाकुर साहिब के राजकुमार भी आये हुये थे। श्री आचार्य महाराज के दर्शन कर आप बड़े प्रसन्न हुये और वात चीत करके अपने आपको कृतकृत्य समझने लगे। आपके सदुपदेश से श्री ठाकुर साहिब के कुमार ने माँस मदिरा आदि का त्याग कर दिया। - यात्रा करके श्री आचार्य महाराज उदयपुर पधारे। चाहा बाई की धर्मशाला में आपने विश्राम किया। व्याख्यान में बड़ी धूम धाम रही। आपका नाम तो प्रख्यात था ही। उदयपुर नरेश श्रीमान् महाराणा भूपालसिंहनी को भी आपके दर्शनों की उत्सुकता हुई। गुलाब बाग में मुलाकात का प्रबंध हुआ। एक घंटा तक 'पुण्य-पाप' के विषय में उपदेश होता रहा। विवेचन को स्पष्ट करने के अभिप्राय से आपने महाराणा साहिब का ही उदाहरण प्रस्तुत किया। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री महाराणा साहिब की रांगों में कोई दोष है। आपने समझाया कि यह किसी पूर्वकृत पाप का ही परिणाम हो सकता है। महाराणा साहिब इस बात को सुनकर संतुष्ट हुए और कहने लगे-"सच है, अपने किये शुभाशुभ कर्मों का फल सब को भोगना ही पड़ता है। अतः प्राणी को भूलकर भी पाप-मार्ग का अनुसरण न करना चाहिये।" :. उदयपुर से भानपुर की नाल ( घाटा ) में से होकर अक्षय तृतिया ( वैशाख सुदि ३) को राणकपुर पधारे । भगवान् के दर्शन कर आनंदित हुये। यहां सादड़ी का श्री संघ भी आया। पूजा, स्वामीवत्सल तथा प्रभावना आदि धर्म के शुभ कार्य हुये और आपसे सादड़ी पधारने की प्रार्थना की। कई वर्ष पीछे आप सादड़ी पधारे, सादड़ी वालों ने अपूर्व उत्साह और अकथनीय हर्ष का परिचय दिया। फिर सादड़ी से देसूरी, घाणेराव, नाडलाई, नाडोल होकर वरकाणाजी पधारे। पंन्यासजी श्री ललितविजयजी महाराज, श्री मित्रविजयजी, श्री वसंतविजयजी तथा श्री विक्रमविजयजी, उम्मेदपुर से विहार करके यहां मिले। फिर आप बीजोवा, खीमेल, तखतगढ़ होकर उमेदपुर पधारे। वहां जाने से और कुछ दिन वहां विश्राम लेने से श्री पं०. ललितविजयजी महाराज के सदुपदेश और प्रयास से स्थापित श्री पार्श्वनाथ उम्मेद जैन बालाश्रम को, जिसके कारण Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०७ ) जंगल में मंगल हो रहा है और मारवाडीभाईयों में भी शिक्षा प्रचार होने लगा है, अच्छी पुष्टी मिली। वापसी पर पादरली, थूबा से वरकाणा गये। वहां से बीजोवा पधारना हुआ। नाडोल संघ के आग्रह से वहां जिन बिंब की प्रतिष्ठा के उत्सव में सम्मिलित हुये। सादड़ी संघ के आग्रह से पुनः सादड़ी पहुँचे। संवत् १९८८ का चातुर्मास आपने सादड़ी में ही व्यतीत किया। आपके इस चातुर्मास में शासन की अच्छी उन्नति हुई। शिक्षा प्रचार का कार्य भी हुआ। श्री आत्मानन्द जैन विद्यालय जिसका काम कुछ समय से बंद पड़ा था, फिर से जारी हुआ । एक जैन उपाश्रय भी तैयार हुआ जो 'नाती के नौहरा' के नाम से प्रसिद्ध है। सादड़ी संघ में कुछ कुसंप सा था । आपके सदुपदेश से वह भेद भाव भी मिट गया। फलौधी से श्रीयुत् राजमलजी वैद, चंपालालजी वैद और संपतलालजी कोचर आदि सज्जन विनती के लिये आये। वे कहने लगे कि श्रीयुत् पांचुलालजी वैद को फलौधी से जैसलमेर का संघ निकालना है। आप इसमें पधार कर अनुगृहीत करें। चौमासे के बाद वरकाणा होकर आप पाली पधारे । व्याख्यान में धूम धाम होती थी। वहां एक कन्या पाठशाला की बड़ी आवश्यक्ता थी। आपने उसके लिये उपदेश दिया। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ ) 'S यहां से विहार करके आप जोधपुर पधारे। वहां पूर्व - परिचित आहोर वाले ठाकुर साहिब की हवेली में ठहरे। ८ दिन तक वहां विश्राम किया । हज़ारों जैन जैनेतर और अधिकारी वर्ग भी व्याख्यान सुनने का लाभ लेते थे । सच है - " संत समागम हरि कथा तुलसी दुर्लभ दोय ।" जोधपुर से आप ओसिया पधारे। कहते हैं कि भारतवर्ष में जितने भी ओसवाल जैन हैं, उन सब का आदि निवास स्थान ओसियां नगरी में ही था। अब भी " वर्द्धमान जैन विद्यालय, जैन बोर्डिङ्ग और स्कूल" जैन धर्म की उन्नति के लिये वहां अच्छा कार्य कर रहे हैं। वहां से फलोधी पधारना हुआ । श्री मंगलविजयजी गणि और साहित्य प्रेमी मुनि श्री ज्ञानसुंदरजी वहां पहले से विराजमान थे। संघ के साथ मुनिराज भी आपके स्वागत के लिये आये। जो संघ जैसलमेर के लिये रवाना हुआ उसमें ५ हज़ार यात्री इकट्ठे हुये थे । फाल्गुण सुदि ३ को जैसलमेर पहुँचे । वहां के जैन भंडार दर्शनीय हैं । वहां बहुत से अमूल्य ग्रंथ छिपे पड़े हैं। विद्वानों से प्रार्थना है कि उनको प्रकाश में लाकर प्राचीन विद्वानों के परिश्रम को सफल करें । जैसलमेर में विश्राम के अंतर में वहां के महाराजा श्री जवाहरसिंहजी के साथ राजमहल में मुलाकात हुई । आपने Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०९ ) उन्हें धर्मोपदेश दिया। जैसलमेर से लोधरवा तीर्थ पर गये और संघ-पति को माला पहनाई गई। • आगे चल कर आप बाड़मेर पधारे। नाकोडाजी तीर्थ की यात्रा कर, जालोर, आहोर होकर आप उम्मेदपुर पधारे। शिवगंज में कुछ कुसंप था। आप वहां पधारे और संघ को परस्पर भेद भाव मिटा कर एक होने का उपदेश दिया। सब ने आपकी आज्ञा को शिरोधार्य किया और संघ में शांति हुई। पास ही बामणवाड़जी में नवपदजी की ओली के दिनों में एक महोत्सव होने वाला था, जिसमें पधारने के लिये आपसे भी प्रार्थना की गई थी। उधर से प्रसिद्ध योगीराज श्री विजयशांतिमूरिजी महाराज जो प्रायः आबू के योगिराज के नाम से प्रख्यात हैं, लुणावा के संघ के साथ और पं० श्री ललितविजयजी, श्री मुनि मित्रविजयजी, श्री समुद्रविजयजी, श्री प्रभाविजयजी इत्यादि मुनि महाराज भी बामणवाड़जी पधारे। ओली महोत्सव में बड़ी रौनक रही। जैन धर्म के प्रचार में जितना परिश्रम आपने किया है, तथा जैन समाज पर जो जो उपकार आपने किये हैं और जिनसे समाज का प्रत्येक व्यक्ति अच्छी तरह अनुभव कर रहा है। उसके उपलक्ष्य में एक अभिनंदन पत्र आपकी सेवा में भेंट किया गया जिसकी नकल पाठकों के विनोद के लिये नीचे दी जाती है:-. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११० ) * * * पूज्यपाद शासन-प्रभावक पंजाब-वीर केसरी पश्चनद मरुदेशोद्धारक विद्या प्रेमी प्रातः स्मरणीय बाल ब्रह्मचारी आचार्य महाराज श्री १००८ श्री विजयवल्लभसूरीश्वरजी की पवित्र सेवा सेवा में अभिनंदन पत्र एवं उपाधि समर्पण आचार्य श्री! ___ श्री नवपद चैत्री ओली तथा श्री अखिल भारतवर्षीय पोरवाल महासम्मेलन के अवसर पर भारतवर्ष के भिन्न २ प्रॉन्तों से बामणवाड़जी तीर्थ में एकत्र हुआ यह समस्त जैन संघ आपके विद्या व्यासंग, धर्म और समाज की प्रगति के लिये आपके भगीरथ प्रयास और अज्ञान दशा में पड़े हुये हमारे अनेक भाईयों के उद्धारार्थ आपके द्वारा की हुई महान् सेवाओं का स्मरण करके आपके प्रति अपना हार्दिक पूज्य भाव व्यक्त करता है। स्वर्गीय न्यायाम्भोनिधि जैनाचार्य श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वरजी (प्रसिद्ध नाम श्री आत्माराममी) महाराज ने अपने अंतिम अवस्था के समय पंजाब के जैनों के हृदय का ददें पहचान कर उनको आपके सुपुर्द किया था। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११ ) तदनुसार आप श्री गुरुदेव के ध्येय की पूर्ति के लिये अपने जीवन में महान् परिश्रम उठा कर पंजाब में जैनत्त्व कायम रखने में सफल हुये हो । तदुपरांत श्री महावीर विद्यालय की स्थापना करके तथा श्री आत्मारामजी महाराज के पट्टधर की पदवी को सुशोभित करने की जैन जनता की आग्रहयुक्त विनती को मान कर पंजाब में ज्ञान का झंडा फहरा कर आपने सद्गत् गुरु महाराज की आंतरिक अभिलाषा को पूर्ण किया। आपने गुजरानवाला, वरकाणा, उम्मेदपुर तथा गुजरात, काठियावाड़, वगैरह स्थलों में ज्ञान प्रचार की महान् संस्थाओं को स्थापित कर और जगह २ पर जैन समाज में फैले हुये वैमनस्य एवं परस्पर मत - भिन्नता आदि को मिटा कर जैन जनता पर भारी उपकार किया है । इतना ही नहीं, किन्तु अज्ञानान्धकार में भटकते हुये जैन बंधुओं को धर्म का मार्ग बता कर तथा उनमें ज्ञान का संचार करके उनको सच्चे जैन बनाने में जो भगीरथ परिश्रम उठाया है, उसकी हम जितनी क़दर करें वह कम है । आपके इन सब महान् उपकारों से तो जैन जनता किसी भी प्रकार उऋण नहीं हो सकती, फिर भी फूल के स्थान पर पत्ती के रूप में आपको 'अज्ञानतिमिरतरणि कलिकाल कल्पतरु' विरुद अर्पण करने को हम विनयपूर्वक Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) तत्पर हुए हैं सो आप इसको स्वीकार करके हमारी हार्दिक अभिलाषा अवश्य पूरी करेंगे और हमारे उल्लास की वृद्धि करेंगे, ऐसी आशा है। श्रीसंघ की आज्ञा से, विनीत चरणोपासक सेवकगण श्री बामणवाड़जी तीर्थ । बभतमल चतराजी, दलोचंद वीरचंद, (सिरोही राज्य ), मिती डावाजी देवीचंद, रणछोड़ भाई रायवैशाख बदी ३ गुरुवार चन्द्र मोतीचंद. गलाबचंद ढड़ा सं० १९९०, ता. १३ श्रीसंघ के सेवक अप्रेल सन् १९३३ ईस्वी। , . इसी अवसर पर योगीराज श्री विजयशान्तिमूरिजी को अनंत जीवदया प्रतिपालक. नर नरेश प्रतिबोधक पदवी दो गई और पंन्यासजी महाराज श्री ललितविजयजो को मरुधर देशोद्धारक और प्रखर शिक्षा प्रचारक की पदवी दी गई। एवं इन महात्माओं को भी मान पत्र दिये गये। बामणवाड़ महोत्सव के पश्चात् श्री आबूजी को यात्रा करके आचार्य श्री पालणपुर पधारे। वहां से पाटण गये और प्रवर्तकजी महाराज श्री कान्तिविजयजी और शान्त मूर्ति श्री हंसविजयजी महाराज से मिले। इस वर्ष का गुरुदेव का जयन्तो महोत्सव यहीं मनाया गया। परमोपकारी श्रीमद् विजयानंदमूरि महाराज का जन्म हुये ७० साल होने वाले थे। गुरु भक्ति से प्रेरित हुये आपके मन में यह विचार आया कि स्वर्गवासी श्री गुरुदेव Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की जन्म-शताब्दि का महोत्सव करके, उनके गुणों को याद कर, उनके उपकार को स्मरण करना चाहिये । आपने श्री प्रवर्तकजी महाराज और श्री हंसविजयजी.महाराज से सलाह की। उन्होंने सहज ही में इस उच्च विचार की अनुमोदना की। ... यहां से आप चातुर्मास के लिये पालणपुर पधारे और संवत् १९८६ का चातुर्मास वहीं हुआ। इस चातुर्मास में उपधान आदि अनेक धर्म काये हुये। पालणपुर के गुणअाही नवाब साहिब मेजर सर तालेमुहम्मद खान भी दो चार बार उपाश्रय में श्री आचार्य महाराज के दर्शनार्थ पधारे और बात चीत करके अति प्रसन्न हुये। इन दिनों श्री आचार्य महाराज के बायें नेत्र से पानी निकलने लग गया था, जिसके कारण आँख की ज्योति कम हो जाने की संभावना प्रतीत होती थी। बंबई के श्रावक प्रसिद्ध डाक्टर शरॉफ बंबई से आये और देखकर आपरेशन की सम्मति दी। आपरेशन के लिये बंबई में ही मुगमता हो सकती थी। अतः आपने बंबई जाने का संकल्प किया। यहां तक के लिये डाक्टर शरॉफ ने दवाई आदि का प्रबन्ध कर दिया। ... चौमासे के बाद श्री समुद्रविजयजी तथा चरणविजयजी आदि के साथ पालीताणा जाते हुये, रास्ते में, आपको Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११४ ) पाटण में विराजमान श्री हंसविजयजी महाराज की बीमारी का समाचार मिला। अतः आपने पूर्व निश्चित प्रोग्राम को स्थगित कर पाटण जाना ही उचित समझा। आपको अचानक पाटण गये देख कर और आने का कारण जान कर लोगों के मन को बड़ी प्रसन्नता हुई। श्री हंसविजयजी महाराज के दर्शन करके आपने पालीताणा की ओर विहार किया। पालीताणा में ८ रोज विश्राम करके आपने श्री परम पवित्र तीर्थराज श्री शत्रुजय की यात्रा की। पालीनाणा के ठाकुर साहिब श्रीयुत् बहादुरसिंहजी से भी राजमहल में मुलाकात हुई। पाटण से मुनि श्री कपूरविजयजी, श्री चंदनविजयजी तथा श्री दर्शनविजयजी भी आपके साथ ही पालीताणा गये थे। पालणपुर से विहार करके मुनि श्री मित्रविजयजी, श्री सागरविजयजी, श्री प्रभाविजयजी और श्री शिवविजयजी महाराज तथा उम्मेदपुर ( मारवाड़) से मुनि श्री विशुद्धविजयजी, विक्रमविजयजी भी पालीताणा आकर मिल गये। भावनगर से सेठ कुंवरचंद आनन्दजी, सेठ झूठाभाई, श्री वल्लभदास त्रिभुवनदास गाँधी इत्यादि ३०-४० सद्गृहस्थ विनती करने आये और उनके आग्रह के कारण आप भावनगर पधारे। धूमधाम का तो कहना ही क्या। जहां कहीं आपका प्रवेश होता था वहाँ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) दर्शनीय धूमधाम तो होती ही थी । आपके व्याख्यान में भावनगर के दीवान साहिब श्री प्रभाशंकर पट्टणी तथा अन्य अधिकारी लोग भी आया करते थे । आपकी विद्वता और आपके उपदेशों की उत्तमता के कारण साधारण जनता भी आपका मधुर भाषण सुनने के लिये उत्कण्ठित हो उठी । अतः मुख्य श्रावकों ने पब्लिक लैक्चरों का प्रबंध कराया । आपके समयोचित और मुक्ति-मार्ग-दर्शक भाषणों से भावनगर की जनता तृप्त हुई । भावनगर से विहार करके बढ़वान आदि स्थानों से होते हुये आप बोटाद पधारे। आगे लाठीधर के स्थान पर अहमदाबाद के नगर सेठ, श्रीयुत् कस्तूरभाई मणिभाई आदि मुखिया आये और अहमदाबाद में होने वाले मुनि सम्मेलन में पधारने के लिये आप से विनती करने लगे । आपने उनकी प्रार्थना स्वीकार की । उस पालणपुर में श्रीयुत् सेठ डाह्याभाई नगीनदास झवेरी उजमणा करने वाले थे । उन्होंने भी आपसे अति विनीत भाव से पालणपुर में पधारने के लिये प्रार्थना की। श्रावक की अभिलाषा को सफल करने के लिये आप पालणपुर गये । उजमणा ( उद्यापन ) की क्रिया बड़ी धूमधाम से हुई । इस महोत्सव में भी श्रीमान् नवाब साहिब आये थे । शान्तिस्नात्र का दिन था उस समय Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) आचार्य महाराज ने शान्तिस्नात्र का महत्व और भावार्थ विस्तार से समझाया। नवाब साहिब पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ा। यहां से ही शताब्दि महोत्सव की उद्घोषणा हुई और उसके लिये फंड भी जमा होने लगा। . पालणपुर से आप पाटण गये। प्रवर्तकजी श्री कान्तिविजयजी और श्री हंसविजयजी महाराज से एक बार फिर मिलाप हुआ। अहमदाबाद में होने वाले मुनि सम्मेलन में जाने का विचार था परन्तु श्री हंसविजयजी की बीमारी को देख कर मन कुछ आना कानी कर रहा था। श्री हंसविजयजी महाराज को जब समाचार मिला तो आप अपने शान्ति स्वभाव से कहने लगे-'आप मुनि सम्मेलन में अवश्य जावें। उससे धर्म की प्रभावना और शासन की उन्नति होगी। मेरी बीमारी का आप खयाल न करें। देवगुरु की कृपा से सब अच्छा ही होगा। उनके इन शब्दों का आप पर विचित्र प्रभाव पड़ा। उनकी रुग्णावस्था को देख कर उनको छोड़ने को जी नहीं चाहता था तथापि उनकी प्रेरणा से आपने अहमदाबाद जाने का विचार किया। अभी आप बहुत दूर नहीं गये थे कि रांधेज में ही आपको श्री हंसविजयजी महाराज के स्वर्गवास का समाचार मिल गया। ... आगे देह गाम में एक प्राइवेट परामर्श हुआ, जिसमें जैनाचार्य श्रीमद्विजय नीतिसूरिजी महाराज, स्वर्गवासी Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्य श्री विजयधर्मसूरि महाराज के शिष्य श्री मुनि विद्याविजयजी महाराज, इत्यादि श्री मूलचंदजी तथा श्री बुद्धिसागरजी महाराज के समुदाय के साधु-मुनिराज सम्मिलित हुये। मुनि धर्म की मर्यादा की रक्षा के संबंध में विचार होता रहा। आचार्य श्री विजय वल्लभमूरिजी महाराज देर से पहुँचने के कारण इस छोटे सम्मेलन में शामिल न हो सके थे। आपके पहुंचने से पहले ही श्री विजयनीति सूरिजी महाराज देह ग्राम से विहार कर डभोड़ा गाम चले गये थे और वहीं ठहरे हुये थे। इतने में विहार करके आप भी डभोड़ा पहुँच गये और श्री विजयनीतिमूरिजी से मिलाप हो गया। वहीं अहमदनगर के नगर सेठ श्रीयुत् विमलभाई मायाभाई तथा सेठ कस्तूरभाई लालभाई आये और अहमदाबाद में ऊजप बाई की धर्मशाला में पधारने के लिये आप से प्रार्थना की। वहां से सारा मुनि मंडल नरोड़ा पहुँचा। अहमदाबाद के ५०० श्रावक दर्शनार्थ नरोड़ा आये। यहां स्वामी वत्सल भी हुआ।:: - वहां से सब मुनिराज इकडे ही अहमदाबाद पधारे। प्रवेश के समय जनता की भीड़ का क्या कहना ! कुछ दिनों से श्री केशरियानाथजी का झगड़ा चल रहा था। अभी तक उसका कुछ निर्णय न हुआ था। श्री आचार्य महाराज ने इस प्रकार का निर्णय कर रक्खा था कि जब Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) तक श्री केशरियानाथजी के झगड़े का फैसला न हो किसी भी नगर में बाजे के साथ प्रवेश न करेंगे, अतः अहमदाबाद जैसे मुख्य नगर में बिना बाजे के ही प्रवेश किया । इसका जनता पर बहुत ही अच्छा प्रभाव पड़ा। जैनाचार्य श्री विजयनीतिसूरिजी, श्री ऋद्धिसागरजी, श्री जयसूरिजी तथा श्री विद्याविजयजी आदि सभी महात्मा साथ में थे । इस परस्पर के प्रेम का प्रभाव पड़े बिना कैसे रह सकता था । चैत्र वदि ३ से मुनि सम्मेलन का कार्य प्रारंभ हुआ । इस सम्मेलन में ४५० साधु महाराज पधारे और ७०० साध्वियां पधारी थीं। नौ साधुओं की एक समिति बनाई गई जिसका निर्णय सब को स्वीकृत और मान्य होना निश्चित हुआ । इस समिति में हमारे चरित्र नायक भी थे । इस सम्मेलन में प्रस्ताव पास हुये । सब साधुओं में ६ अच्छा मेल रहा । सम्मेलन के बाद श्री विजयनेमिसूरिजी महाराज को सेरीसा होकर मारवाड़ की तरफ जाना था । सद्गत सेठ साराभाई डाह्याभाई आदि सद्गृहस्थों के आग्रह से आप भी सेरीसा तक साथ में पधारे । सेरोसा में पानसर के कार्य्य-वाहकों ने पानसर पधारने के लिये आप से विनती की और श्री विजय नेमिसूरिजी के आग्रह से आप पानसर पधारे । डभोई के श्री संघ की तरफ से Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११९ ) लोढण पार्श्वनाथजी की प्रतिष्ठा कराने के लिये विनती हुइ जो श्री विजयनेमि मूरिजी की सम्मति से स्वीकृत हुई। यहां से श्री विजयनेमि मूरिजी महाराज ने मारवाड़ की ओर विहार किया। हमारे पूज्यपाद आचार्य महाराज अहमदाबाद पधारे, वहां चातुर्मास करने के लिये विनती हुई । आपने उचित जान कर वहां चातुर्मास करने का भाव स्थिर किया। वहां से आप डभोई गये। वहां वैशाख सुदि ६ के शुभ दिन धूमधाम से प्रतिष्ठा हुई। पुनः चौमासे के लिये अहमदाबाद आना हुआ। श्री गुरु महाराज की जयन्ती का महोत्सव यहां ही मनाया गया। चातुर्मास में श्री आत्मानन्द जन्म शताब्दि फंड तथा अम्बाला में श्री आत्मानन्द जैन कॉलेज स्थापित होने की सूचना देते हुये उसके लिये पर्याप्त फंड इकट्ठा करने का उपदेश दिया। इसके अतिरिक्त और भी अनेक धर्म कार्य हुये। यहां श्रावण वदि १४ को आपके प्रशिष्य मुनि सागरविजयजी का स्वर्गवास हुआ। . चौमासे बाद यहाँ कपड़वंज से एक दीक्षा लेने वाली श्राविका प्रधानबाई तथा उसके सगे सम्बन्धी विनती के लिये आये। अहमदाबाद से कपड़वंज जाते हुये रास्ते में बारेजड़ी में बंबई के सेठ रणछोड़भाई, श्री मोतीचंदजी गिरधर कापड़िया आदि भाई बंबई में चातुर्मास करने की Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) विनती करने आये । कारण वहाँ श्री महावीर जैन विद्यालय के श्री जिन मंदिर की प्रतिष्ठा होने की आवश्यकता थी । उसके कारण तथा अपनी आँख का आपरेशन कराने के अभिप्राय से बंबई जाने का विचार हुआ । कपेड़वंज में मुनि श्री हिम्मतविजयजी, पंन्यासजी श्री नेमविजयजी, श्री उत्तमविजयजी, श्री चंदन विजयजी बड़ौदे से और पाटण से मुनि श्री पुण्यविजयजी, श्री रमणीकविजयजी आदि आकर मिले। कपड़वंज में उस अवसर पर ३ श्राविकाओं ने दीक्षा ली। दीक्षा के पश्चात् मुनि श्री विद्याविजयजी हिमांशुविजयजी आदि भी आये । कपड़वंज से विहार कर बड़ौदा पधारे। जहां २ भी आप भ्रमण करते थे, शताब्दि महोत्सव के लिये लोगों को तैयार करते जाते थे। लोगों ने भी दिल खोल कर इस फंड में चंदा दिया। बड़ौदे में श्री मूलचंदजी महाराज की जयन्ती मनाई गई । शताब्दि महोत्सव मनाने के दिन निकट आ रहे थे। यद्यपि आप यह अनुभव करते थे कि यह महोत्सव श्री गुरु महाराज के जन्म स्थान लेहरा ( पंजाब ) में होना चाहिये, तथापि यह विचार करके कि उस समय तक पंजाब में न पधार सकेंगे और अन्य मुनिराजों के लिये भी वहां पहुँचना असंभव है, आपने श्रीमद् प्रवर्त्तकजी श्री कान्तिविजयजी Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) महाराज के पास पाटण में यह महोत्सव मनाने का विचार स्थिर किया। परन्तु बड़ौदा श्रीसंघ ने जो सदा से धार्मिक कार्यों में अग्रगण्य रहा है, यह आग्रह किया कि यह महोत्सव उन्हीं के नगर में हो तो उन पर बड़ा उपकार होगा। अभी कोई निर्णय न हुआ था। __ . आप वहां से विहार कर मियांगांव पधारे। आपके प्रशिष्य मुनि श्री चरणविजयजी की तबीयत्त कुछ नरम हो गई। अतः आपको कुछ काल वहीं रुकना पड़ा। यहां से 'पालेज होते हुवे भरुच पधारे जहां बीसा श्रीमाली जैनों की बस्ती है। पास ही बेजलपुर में लाडवा श्रीमाली जैनों के घर हैं। इन दोनों स्थानों के जैनों में परस्पर वैमनस्य था। वे एक दूसरे के धर्म कार्यो-स्वामी-वत्सल तक में भी शामिल न होते थे। आपके सदुपदेश से वैमनस्य दूर होगया। परस्पर मेल होने के पश्चात् लाड़वा श्रीमाली भाइयों ने स्वामी-वत्सल किया जिसमें सब के सब बीसा श्रीमाली भी बड़े आनंद से सम्मिलित हुये। यहां से आप सूरत पधारे। प्रत्येक उपाश्रय में आपका व्याख्यान हुआ। विशेष विनती करके आपको नेमभाई की काड़ी में भी ले गये। वहां भी आपका व्याख्यान हुआ। नवसारी, बिल्लीमोरा, बलसाड़ होकर आप बंबई गये। माघ सुदि १० को आपके कर कमलों से आप ही Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२ ) के द्वारा संस्थापित 'श्री महावीर जैन विद्यालय के जिन मंदिर की प्रतिष्ठा हुई। शताब्दि फंड और तत्संबन्धी कार्यों के प्रबंध के लिये एक समिति बनाई गई जिसके सदस्य निम्न लिखित महानुभाव बनाये गयेः- . श्रीयुत् सेठ मगनलाल मूलचंद शाह-मानद मंत्री। .:.., सेठ डाह्याभाई नगीनदास ऑनरेरी खजाञ्ची। ...., सेठ सकरचंद मोतीलाल मूलजी , इत्यादि । ' शताब्दि नायक के जीवन और कार्यों के विषय में विद्वानों से लेख लिखवा कर एक शताब्दि स्मारक ग्रंथ प्रकाशित करने का भी निश्चय किया गया। इस ग्रंथ के संपादन का भार विद्वद्वर श्री मोहनलाल दलीचंदजी देसाई बी. ए., एल-एल. बी., सोलिसीटर, बंबई को सौंपा गया । . पंन्यासजी श्रीसमुद्रविजयजी और श्री विशुद्धविजयजी महाराज तो गौड़ीजी के उपाश्रय में रहे और आचार्य श्री. स्वयं बंबई के आस पास विचरते रहे। ज्येष्ठ शुदि ८ को स्वर्गवासी गुरु महाराज श्री आत्मारामजी का जयन्ती महोत्सव राधनपुर निवासी दानवीर सेठ कांतिलाल ईश्वरलालजी मोरखिया के भक्ति-पूर्ण आग्रह से उनके बंगले में विलेपारले में मनाया गया। हजारों नर नारियों ने सम्मिलित होकर उत्सव की शोभा बढ़ाई और स्वर्गवासी गुरु महाराज का गुणानुवाद करके अपना जन्म सफल Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२३) किया। दानवीरजी की तर्फ से स्वामी-वत्सल किया गया। इस अवसर पर भी शताब्दि फंड में चंदा जमा हुआ। .... आषाढ़ मुदि ३ को आप चातुर्मास के लिये बंबई शहर में पधारे। बाई आँख से पानी बहने के कारण उसका आपरेशन कराना अत्यावश्यक हो गया। अत: सुश्रावक डाक्टर शरॉफ ने ऑपरेशन कर दिया, जिसमें उन्हें अच्छी सफलता हुई। थोड़े दिनों में पानी बहने का रोग शान्त हो गया। .... अब बंबई श्रीसंघ भी यह आग्रह करने लगा कि श्री आत्मानंद जन्म शताब्दि महोत्सव मनाने का लाभ उनको मिलना चाहिये। परन्तु आपने पूर्व निर्धारित विचार उनके समक्ष प्रस्तुत किया। बंबई संघ को यह बात माननी पड़ी। ....चौमासे के बाद विहार करके आप बिल्लीमोरा पधारे। आमोद के मुख्य श्रावक यहां आपकी सेवा में उपस्थित हुये और आमोद में जिन मंदिरजी की प्रतिष्ठा कराने के लिये वहां पधारने को विनती करने लगे। वे करचेलिया तक आपके साथ भी गये। आपको पाटण पधारने की जन्दी थी। अतः आप स्वयं आमोद न जा सके। ऐसी भक्ति पूर्ण विनती का भी तिरस्कार करना उचित न समझ कर आपने पंन्यासजी श्री समुद्रविजयजी महाराज Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) आदि को आमोद भेजने की कृपा की। आप सूरत में पधारे। सूरत से भरुच होकर आपने सीनोर की ओर 'विहार किया। रास्ते में झगडियाजी की यात्रा का सुअवसर प्राप्त हुआ। आनन्द पूर्वक यात्रा करके आप सीनोर पधारे। . यहां आपका श्री आत्मारामजी महाराज के शिष्य वयोवृद्ध श्री अमरविजयजी से मिलाप हुआ। यहां आपके लैक्चर भी हुये। यहां से डभोई के रास्ते से आप बड़ौदे पधारे। बड़ौदा श्री संघ ने वहीं शताब्दि उत्सव मनाने के लिये फिर विनती की। आपने उत्तर दिया कि 'हमारा भाव तो पाटण में श्रीप्रवर्तकजी श्री कान्तिविजयजी महाराज के पास हो यह उत्सव मनाने का है। यदि वे यहां पधारें अथवा उनकी सम्मति हो तो बड़ौदे में ही उत्सव करने का विचार किया जायगा।' ग्रामानुग्राम विचरते हुए आप अहमदाबाद पधारे। पंन्यासजी श्री समुद्रविजयजी तथा श्री मुनि विशुद्धविजयजी महाराज भी आमोद में प्रतिष्ठा कराके आपसे आकर मिल गये। । यहां से आप साबरमती में पधारे। कारण वशात् और बड़ौदा के श्रीसंघ के विशेष आग्रह से आप शताब्दि उत्सव निमित्त बड़ौदा पधारे। मारवाड़ी श्रावक श्रीयुत् पुखराजजी की विनती से आप आकुंतपुरा (बड़ौदा शहर Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) का एक भाग) में पधारे। वहां अहाई महोत्सव हुआ। यहां से आप शहर में पधारे। शताब्दि का काय्ये आरंभ हुआ। आपके प्रशिष्य रत्न श्री चरणविजयजी महाराज ने आपका अच्छा हाथ बटाया। शताब्दि फंड में चन्दा देने, लेख लिखने, व्याख्यानों का प्रबन्ध करने और अन्य भांति २ के काम करने में आपने जो परिश्रम किया उससे उनकी प्रगाढ़ गुरु भक्ति का तो परिचय मिलता ही है परन्तु उनकी कार्यदक्षता, विद्वता और उनके अथक परिश्रम का भी पूरा पूरा अनुभव होता है। - उनको जिव्हा में माधुर्य था। उनकी आत्मा में बल था। गुरुओं की उन पर कृपा दृष्टि थो। सेठों की उन पर श्रद्धाथी। उनके वचन में वशीकरण मंत्र जैसो प्रतिभा थी। जिन सजनों ने शताब्दि उत्सव देखा है, वे यह कहे बिना नहीं रह सकते कि उत्सव की सफलता का बहुत सा श्रेय श्री चरणविजयजी महाराज को ही है। शताब्दि उत्सव में क्या हुआ, इसके विषय में एक प्रखर विद्वान् भूगर्भ विद्या-विशारद माननीय श्रीमान् ज्ञानरत्न डाक्टर हीरानंदजी शास्त्री, एम. ए., एम. ओ. एल. डी. लिट., डायरेक्टर ऑफ आयोलोजी, बड़ौदा स्टेट की ही सम्मति जो शताब्दि स्मारक ग्रंथ में पृष्ठ १८८ से १६० तक में छपी है, अनुवाद का देना ही पर्याप्त है: Sain Education International Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६) .."मार्च सन् १९३६ के तीसरे सप्ताह में बड़ौदा शहर में एक अप्रतिम उत्सव बड़ी धूम धाम से हुआ। मुझे भी इसमें सम्मिलित होने का अवसर प्राप्त हुआ। यह उत्सव २१ मार्च से २५ मार्च तक प्रातः काल से रात्रि पर्यंत हुआ करता था। इस उत्सव के नियन्ता प्रसिद्ध जैन मुनि श्री वल्लभविजयजी महाराज और उनके परिश्रमी शिष्य मुनि चरणविजयजी थे। इस उत्सव का प्रबन्ध करने के लिये बड़ौदा की एक समिति भी बनाई गई और इस उत्सर को सफल बनाने के लिये इस समिति ने भरसक प्रयत्न किया। इस महोत्सव पर रु० १०,०००) से अधिक खर्च हुआ। बड़े २ जैन विद्वान् और प्रतिष्ठित लोगों ने इस उत्सव में भाग लिया जिनमें श्रीमान् मणिलाल नानावटीजी, बड़ौदा के नायब दीवान साहिब भी एक थे। मैंने सुना है कि श्री महाराजा सा० बड़ौदा नरेश को भी इच्छा थी परन्तु उत्सव से पहले ही वे यूरोप को प्रस्थान कर गये थे। उत्सव में शामिल होने वालों में पंजाबियों की बाहुल्यता थी। पंडाल में पुरुष और स्त्रियों के नाना प्रकाराके रङ्ग बिरंगे वस्त्र शोभा दे रहे थे। इनमें बहुत से नवयुवक थे जिनमें से कई अच्छे २ गाने वाले थे जो महान् श्वेताम्बराचार्य की, इस अवसरोचित स्तुतियों से, अपनी प्रगाढ़ भक्ति को प्रदर्शित करने के लिये आये थे। उनकी Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७ ) श्रद्धा और भक्ति छलक रही थी और उनके इस प्रकार के भावों के प्रदर्शन के लिये प्रत्येक व्यक्ति उनकी श्लाघा किये बिना नहीं रह सकता। - पूजनीय जैनाचार्य जिनका शताब्दि महोत्सव इन दिनों में मनाया गया, पंजाब में उत्पन्न हुये थे। उनके जीवन का मुख्य भाग गुजरात में बीता, जहां उन्होंने जैनों के उत्थान के लिये भांति २ की संस्थायें और सुधारक समाज कायम करके एक बड़ा ही शानदार काम किया। - गुजरात के जैनों का भाव था कि ऐसे महात्मा का शताब्दि महोत्सव मनाना उनका कर्त्तव्य ही है और इस कार्य के लिये गायकवाड़ राज्य की राजधानी बड़ौदा को ही उपयुक्त समझा गया। इस अवसर पर बहुत से विद्वत्तापूर्ण व्याख्यान हुये। यह उत्सव बड़ौदा के लक्ष्मी प्रताप थियेटर में हुआ। पंडाल जैन मुनिराजों के चित्रों और रंग बिरंग की झंडियों और पताकाओं से सजाया गया था। . श्री वल्लभविजयजी, श्री कान्तिविजयजी और श्री हंसविजयजी महाराज और अन्य साधु महाराजों के फोटो लग रहे थे। पंजाब जैन गुरुकुल की मण्डली के संगीत से उत्सव कार्य प्रारंभ हुआ। यह उत्सव पंजाब में होना था। मगर पूज्य प्रवर्तकजी श्री कान्तिविजयजी महाराज के कारण . Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२८ ) से इसे पाटण में मनाने का फैसला हुआ। परन्तु अन्त में बड़ौदा में ही यह उत्सव किया जाना निश्चित हुआ। यह सारा प्रबंध १५ दिन में किया गया। इतने थोड़े समय में इतनी सफलता प्राप्त कर लेने पर प्रबन्धकर्ता प्रशंसा के पात्र हैं। ऐसे महान् उत्सवों में छोटी छोटी ऋटियों का रह जाना भी अनिवार्य ही होता है परन्तु उनकी तरफ विशेष ध्यान नहीं देना चाहिये। व्यायाम के भी बहुत से करतब दिखाये गये थे। एक लड़के ने ३३ मन का बोझ दाँतों से उठाया, फिर २५ मन बोझ से लदी बैल गाड़ी अपनी छाती पर से गुज़ारी। ज्ञान मंदिर में प्राचीन जैन कला कौशल की भी प्रदर्शिनी की गई। महान् जैनाचार्यों की उत्तम उत्तम रचनाओं पर व्याख्यान हुये। जनता यह देख कर और भी चकित हुई जब दो मुसलमान-करीमबख्श और उनका पुत्र खड़े हुये और कहने लगे कि हम शुद्ध हृदय से कहते हैं कि हम पूर्णतया जैन हैं और उनका पुत्र अपने मुसलमानी नाम की बजाय ज्ञानदास कहलाना अधिक पसंद करता है। उसने जैन मुनियों की प्रशंसा और स्तुति में भजन भी गाये। ... इस उत्सव की बड़ी विशेषता यह थी कि 'अर्धमागधी भाषा' का ज्ञान प्राप्त करने पर विशेष जोर दिया गया। जैन धार्मिक ग्रंथ इसी भाषा में लिखे हुये हैं और २४ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२९ ) तीर्थङ्कर भगवान महावीर स्वामी अपना उपदेश इसी भाषा में दिया करते थे। श्री आत्मारामजी महाराज के शुभ कार्यों की गणना करते हुये मुनि श्री चरणविजयजी ने जनता को बतलाया कि शताब्दि उत्सव की स्मृति में पुस्तक और ग्रंथ तैयार कराये जायेंगे और ७ ग्रंथ तो तैयार हो भी चुके हैं। जैनाचार्य श्री विजयवल्लभमूरिजी महाराज के इस शुभ महोत्सव की पूर्णाहुति रूप, व्याख्यान से उत्सव की सपाप्ति हुई। शताब्दि की सफलता में उनकी शुभ कामना और उनका प्रोत्साहन ही कारण रूप हैं। ऐसे उत्सवों से जागृति उत्पन्न होती है। अतः ऐसे उत्सव अधिक से अधिक बार होते रहने चाहियें।" [बड़ौदा २४ जौलाई सन् १९३६ ] - इस उत्सव की सफलता प्राप्ति में पंन्यासजी महाराज श्री ललितविजयजी ने भी श्री आचार्य महाराज श्री विजयवल्लभ सूरिजी महाराज का हाथ बटाया था। आपकी गुरु-भक्ति तो अनुकरणीय और दूसरों के लिये आदर्श रूप है ही, प्रत्युत थोड़ा सा भी आपके सम्पर्क में आने वाला व्यक्ति आपकी विद्वत्ता और कार्य-कुशलता की मुग्ध कण्ठ से प्रशंसा किये बिना नहीं रहता। आप बड़े अनुभवी और दूरदर्शी हैं, शान्ति और परोपकार की मूर्ति हैं । शताब्दि Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३०) के अवसर पर आपका व्याख्यान आपके उपरोक्त गुणों का परिचायिक था। शताब्दि उत्सव की समाप्ति पर बड़ौदा संघ चातुर्मास के लिये आग्रह करने लगा। आपने उनकी इच्छा को उचित और सर्वथा उपयुक्त जान कर मान लिया। चातुर्मास में अभी देर थी। अतः आप आस पास के गाँवों में विचरते रहे। मियां गाँव में वैसाख वदि ६ को एक उत्सव हुआ जिस अवसर पर आपने उपाध्याय श्री पंन्यासजी ललितविजयजी महाराज और पंन्यासजी श्री कस्तूरविजयजी महाराज को आचार्य पदवी से विभूषित किया। इसी प्रकार आपने पंन्यासजी श्री उमंगविजयजी महाराज (जो उस समय बलाद में थे) और पंन्यासजी श्रीविद्याविजयजी महाराज (जो गुजरांवाला में थे) योग्य जान कर 'आचार्य पदवी प्रदान की और इसकी सूचना उनको तार द्वारा दे दी गई। मियांगाँव में दरापुरा का श्री संघ विनती के लिये आया, अतः आप दरापुरा पधारे। वहां जेठ मुदि ५ को अहमदाबाद के संघ की विनती से पंन्यासजी श्री लाभविजयजी महाराज को आचार्य पद से विभूषित किया और उनके शिष्य पंन्यासजी श्री प्रेमविजयजी को उपाध्याय पद से प्रतिष्ठित किया। इस अवसर पर मुनिराज श्री कपूर Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३१ ) विजयजी, श्री मित्रविजयजी, श्री प्रभाविजयजी, श्री चरणविजयजी प्रभृति बहुत से मुनिराज विराजमान थे । अहमदाबाद के कुछ सेठ महानुभाव भी जो पदवी प्रदान के समय वहां आये हुए थे, आचार्य महाराज श्री विजयललित सूरिजी तथा श्री विजयलाभसूरिजी महाराज से चातुर्मास के लिये प्रार्थना करने लगे । उनकी प्रार्थना स्वीकृत हुई । यहां से श्री आचार्य प्रवर बड़ौदे पधारे। जेठ सुदि को आत्म- जयन्ती वहां बड़ौदे में ही मनाई गई । तदनन्तर आचार्य श्री विजयललितसूरिजी, श्री समुद्रविजयजी तथा श्री प्रभाविजयजी, सोमविजयजी को अहमदाबाद जाने के लिये आज्ञा प्रदान की । बड़ौदा शहर का जानीफोरी का उपाश्रय जीर्ण प्रायः हो चुका था । चातुर्मास में श्री आचार्य महाराज ने उपाश्रय के लिये उपदेश दिया। श्रीसंघ ने नया उपाश्रय बनवाने का संकल्प कर लिया। उन दिनों में वहां उपधान तप भी हुआ। उस तप के उद्यापन में 'माला' के समय उपाश्रय के लिये अपील हुई जिसमें अंबाला निवासी लाला गंगारामजी के सुपुत्र लाला बनारसीदासजी ने उपाश्रय के लिये ५००) रुपये दान दिये, और भी भाईयों ने दिल खोल कर चंदा दिया । शनैः २ उपाश्रय के लिये २० हज़ार की राशि हो गई । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२) भाद्रवा मुदि ११ को न्याय मंदिर में, जगद्गुरु श्री हीरविजयजी महाराज की जयन्ती बड़े समारोह से मनाई गई। यहां एक घटना विशेष उल्लेखनीय है। यहां एक स्थानकवासी जैन साधु विराजमान थे। आपने १॥ मास के लिये उपवास का पच्चक्खान किया था। ४० के लगभग पवास हो चुके थे। आचार्य महाराज के दर्शन करने की उनकी बड़ी इच्छा थी। उनकी विनती पर श्री आचार्य महाराज उनके वहां पधारे। इस समय स्थानकवासी श्रावक समुदाय भी एकत्रित हुआ था। अतः आपने उपदेश भी दिया। खंभात श्रीसंघ की आग्रह पूर्वक की गई विनती के कारण आपको खंभात जाना पड़ा। ४०-५० सज्जन वहां से विनती करने आये थे, और आपके वहां जाने पर भी खंभात निवासियों ने अपूर्व उत्साह और भक्ति का प्रदर्शन किया। कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि सौ वर्षों में भी ऐसा शानदार स्वागत किसी का हुआ हो, ऐसा याद नहीं आता। शहर के लोगों की तो बात ही क्या, खंभात की म्युनिसिपल कमेटी ने भी आपके वहां पधारने के कारण जीव दया आदि के शुभ कार्य करके अपना मनुष्य-कर्तव्य Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३३ ) पालन किया अर्थात् कमेटी ने यह प्रस्ताव पास किया कि श्री आचार्य महाराज के यहां खंभात में ठहरने तक चूहे आदि कोई जीव न मारे जावेंगे। प्रवेश के दिन तो कसाईयों ने भी अपना काम बंद रख कर यशोपार्जन कर लिया। ऐसा पहले तो कभी सुनने में भी न आया था। प्रवेश के दिन ज्ञान मंदिर के उद्धार के लिये उपदेश दिया गया जिसके लिये चंदा होना शुरु हो गया। खंभात में भी जैसलमेर की तरह जैन भण्डार देखने योग्य हैं। वहां भी बहुत सी अमूल्य पुस्तकें भण्डारों में बंद पड़ी हैं । यद्यपि खंभात में बहुत दिन ठहरने का भाव न था तथापि मुनि श्री चरणविजयजी की बीमारी के कारण यहां रुकना पड़ा। श्री चरणविजयजी एक जीर्ण प्रायः जैन भंडार को देखने गये थे। वहां अधिक देर हो जाने के कारण आपके निर्बल स्वास्थ्य को क्षति पहुँची। योग्य उपचार होने लगा, परन्तु रोग दिनों दिन बढ़ता ही गया और शान्ति न हुई, इसलिए अधिक समय खंभात में रहना पड़ा। ' बड़ौदा शताब्दि के पश्चात् आप जहां कहीं पधारे, वहां आपने उचित समय पर शताब्दि महोत्सव की तरह श्री आत्मारामजी महाराज की जन्म तिथि का उत्सव मनाया। खंभात में भी ऐसा ही किया गया। यहां का उत्सव श्री मुनि चरणविजयजी के प्रयन से यहां के दीवान साहिब Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) श्रीयुत् के. के. ठाकुर साहिब की अध्यक्षता में हुआ। आपके व्याख्यानों में अधिकारी वर्ग भी लाभ लिया करता था। इचंद कशलचंद वालों ने मांडवी की पोल में श्री आदिनाथ भगवान के जीर्ण प्रायःमंदिर को जीर्णोद्धार कराना निश्चित किया। यह सब आपके ही सदुपयोग का परिणाम था। उनकी इच्छा इस मंदिर की प्रतिष्ठा भी आप ही के कर कमलों से कराने की हुई। श्रीयुत् सेठ मूलचंद बलाकीदास के उजमणे पर जैनाचार्य श्री विजयनेमिमूरि महाराज आदि भी पधारे थे। उनसे आपका अच्छी तरह मिलाप हुआ। उद्यापन के जुलूस में आप दोनों मूरिवरों का पूर्ण प्रेम से एक साथ चलना खंभात के इतिहास में अपूर्व गिना जाता है। सेठ अम्बालाल पानाचंद की धर्मशाला में जहां आप ठहरे हुये थे, श्री विजयनेमिमूरिजी महाराज, श्री चरणविजयजी की मुखसाता पूछने के लिये पधारे। इस परस्पर मिलन का जैन जनता पर कल्याणकारी प्रभाव पड़ा। - चातुमोस पूरा होने पर अहमदाबाद से आचार्य श्री विजयललितमूरिजी, पंन्यासजी श्री समुद्रविजयजी, श्रीप्रभाविजयजी, विक्रमविजयजी, सत्यविजयजी आदि सुनिराज भी अनेक ग्रामों में विचरने हुए चैत्र मास में खंभात में आ मिले। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३५ ) इस अरसे में श्री आत्मानंद जैन कॉलेज, अंबाला के निमित्त कार्य आरंभ हुआ। सेठ रतिलाल वाडीलाल भाई बंबई से यहां पधारे। उनसे बात चीत हुई तो उन्होंने उत्साह दिखाया। वापिस बंबई जाकर उन्होंने सेठ माणेक लाल चूनीलालजी से परामर्श किया। सेठ रतिलालजी ने १०००)रु० और सेठ माणेकलालजीने ७०००)रु० कॉलेज फंड में चंदा देकर इस शुभ कार्य का श्री गणेश कराया। फिर २१ अगस्त १९२७ को राधनपुर के दानवीर सेठ कांतिलाल ईश्वरलालजी मोरखिया खंभात आये। श्री आचार्य महाराज की प्रेरणा से उन्होंने भी कॉलेज फंड में ११०००) २० देना स्वीकार किया। इस प्रकार परम पवित्र स्तंभन तीर्थ में यह कार्य आरंभ हुआ। श्री कांतिलालजी के वापिस बंबई जाने पर सेठ माणेकलालजी ने अपनी रकम को ७०००) की बजाय ११०००) कर दिया और सेठ रतिलालजी ने भी एक हज़ार की बजाय २०००) कर दिये। अब इस प्रोत्साहन के मिलने पर अन्य गुरु-भक्तों ने भी अपनी उदारता दिखाई और निम्न लिखित दान भास हुआ:५०००) सेठ मोतीलाल मूलजी के सुपुत्र श्रीयुत् सेठ साकरचंदजी। ३०००) सेठ कांतिलाल बकोर। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) २५००) सेठ कीकाभाई प्रेमचंदजी। २०००) सेठ रतिलाल नत्थुभाई। २५००) बाबू भगवानदास पन्नालालजी। १५००) सेठ गिरधरलाल त्रीकमजी। १५००) सेठ जीवाभाई राधनपुर वाले। ७५०) सेठ मोतीलाल निहालचंदजी। ५००) सेठ चन्दूलाल साराभाई मोदी। ५००) सेठ फूलचंद शामजी । इस प्रकार १५ दिन के अरसे में ही आचार्य महाराज के उपदेश से इतनी राशि होगई। यही कॉलेज के संस्था को भावि सफलता का संकेत समझना चाहिये। यह बात पहले कही जा चुकी है कि श्री चरणविजयजी की बीमारी के कारण ही खंभात में अधिक ठहरना हुआ। बड़ौदा राज्य के सब से बड़े डॉक्टर प्राण सुखलालजी खंभात आकर इलाज करते रहे। खंभात के श्रीसंघ ने भी सेवा भक्ति में कोई खामी नहीं रक्खी परन्तु रोग शांत न हुआ। डाक्टर महोदय ने रोगी महात्मा को बड़ौदा लेजाने की सलाह दी। .. इस मौके पर खंभात के श्रीसंघ ने बड़े जोर-शोर से चातुर्मास के लिये विनती की और कहा कि श्री मंदिरजी के जीर्णोद्धार का काम चल रहा है। अतः आप खंभात में Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) ही चातुर्मास की कृपा करें। उचित समझ कर विनती मान ली गई। २७ मई को श्रीचरणविजयजी महाराज, आचार्य श्री विजयकस्तूरसरिजी, श्री मित्रविजयजी और श्री विशुद्धविजयजी के साथ बड़ौदे की ओर रवाना हुये । अगले ही दिन आपने भी विहार किया और वटादरा, जारोला, बोरसद, आसोदर, वासद, रानोली होते हुये ४ जून को आप बड़ौदे पहुँचे। इस समय श्रीयुत् चंदुलाल डाह्याभाई की ओर से प्रवेश महोत्सव हुआ। यहां श्री चरणविजयजी का इलाज अच्छी तरह से होता रहा। . मियांगाँव, जंबूसर, पादरा और बड़ौदा आदि स्थलों के. श्रावकों ने चातुर्मास के लिये बारंबार विनती की परन्तु खंभात की विनती स्वीकृत हो चुकी थी। अतः इन सब को निराश होना पड़ा। पंन्यासजी श्री समुद्रविजयजी, श्रीशिवविजयजी और श्री सत्यविजयजी को तो पहले ही खंभात छोड़ आये थे। जेठ सुदि ५. को श्री विजयलाभ सरिजी के शिष्य उपाध्यायजी श्री प्रेमविजयजी के स्वर्गवास होने का समाचार मिला। इन दिनों में व्याख्यान प्रायः श्री विजयललित सरिजी ही किया करते थे। बाबागांव वाले श्री सरदारमलजी दर्शनार्थ आये। उन्होंने श्री विजयललित सरिजी से प्रार्थना की कि उनकी भाक्ना, स्तवनों (भजनों) की किताब नये सिरे से छपवाने की है। उनकी भावना Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) सफल हुई और पुस्तक पुनः छपी। जेठ सुदि ८ को गुरू महाराज की जयन्ती मनाई गई। बड़ौदा में भी श्री चरणविजयजी महाराज का रोग शान्त न हुआ। खंभात के श्रीसंघ को संदेह हुआ कि आप चातुर्मास के लिये कहीं बड़ौदा में ही न रह जायें। अतः वे पुनः विनती के लिये बड़ौदा आये। श्री चरणविजयजी महाराज को बड़ौदा श्रीसंघ की देख रेख में छोड़ा और आचार्य श्री विजयकस्तूरमूरिजी, श्री मित्रविजयजी तथा श्री विशुद्धविजयजी महाराज को वैयावच्च के लिये उनके पास रहने दिया। आपने खंभात की ओर प्रस्थान किया। वाजवा, वासद, बोरसद, जारोला, वटादरा होकर आप खंभात के पास सकरपुरा के कसबे में पधारे। वहां श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ और श्रीसीमंधर स्वामीजी का एक रमणीक और प्राचीन मंदिर है। खंभात का संघ यहां आया। पूजा पढ़ाई गई और स्वामीवत्सल भी हुआ। इस प्रसंग पर आचार्य श्री विजयनेमिमूरिजी महाराज के शिष्य आचार्य श्री विजयलावण्यमूरिजी खंभात से पधारे। परस्पर मिलन और वार्तालाप से अच्छा लाभ हुआ। आषाढ़ वदि १२ (ता० ५ जुलाई) को आप खंभात में पधारे। श्रीसंघ ने अच्छा सत्कार किया। श्री लावण्यसरिजी के साधु महाराज भी प्रवेश के जुलूस में साथ ही थे। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३९) बोरसद के मुख्य श्रावक जेठालाल कालीदास आदि चातुर्मास के लिये यहां भी विनती करने आये। उनका अति आग्रह होने से और लाभ जानकर पंन्यासजी श्री समुद्रविजयजी और श्री सत्यविजयजीको बोरसद में चातुमास के लिये भेजा। __ खंभात के चातुर्मास में आचार्य श्री के साथ श्री विजय ललितसरिजी महाराज, श्री प्रभाविजयजी, श्री शिवविजयजी, श्री विकासविजयजी, श्री विक्रमविजयजी और श्री वीरविजयजी थे। इस चातुर्मास में प्रायः संवत्सरी के बाबत ऊहापोह होती रही। आखिर बहु सम्मति से निर्णय किया गया। श्री मंदिरजी की नींव वैशाख सुदि २ ता० १२ मई बुधवार को रक्खी गई। काम भी बहुत जन्दी होगया। ताः २६ जुलाई को श्री प्रतिमाजी का नये मंदिर में प्रवेश कराया गया और २ अगस्त को प्रतिष्ठा संबन्धी अहाई महोत्सव शुरू हुआ। ___ ता.३ अगस्त को गुजरांवाला से वृद्ध मुनि श्री स्वामी सुमतिविजयजी के स्वर्गवास का तार मिला । देव वंदन आदि योग्य क्रिया की गई। उनके मिलने की बहुत समय की अभिलाषा मन में ही रह गई। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०) श्रावण सुदि१ ता० ७ अगस्त को प्रतिष्ठा का जुलूस निकलने वाला था परन्तु शहर के एक प्रतिष्ठित अधिकारी के स्वर्गवास के कारण शहर में हड़ताल हो गई। अतः अगले दिन जुलूस निकला। श्री विजय लावण्यमूरिजी आदि भी जुलूस में साथ ही थे। इससे श्रीसंघ के उत्साह में अच्छी वृद्धि हुई। ऐसी रौनक ५० वर्षों में भी पहले किसी ने न देखी थी। मांडवी की पोल में श्रावण मुदि ३ ता. 8 अगस्त को प्रभु विराजमान किये गये। दोपहर को अष्टोत्तरी स्नात्र पढ़ाया गया। इस दिन के स्वामीवत्सल में ओसवाल नात, पाईचंद गच्छ, पोरवाल, ओसवाल, श्रीमाली, तरुणमंडल, स्तंभन तोर्थ जैन मंडल व उनके सहकारी, श्रीमाली, दशा श्रीमाली आदि खंभात के प्रायः सभी जैनियों ने साथ दिया। कुछ थोड़े से भाई शामिल नहीं हुये। खंभात शहर के जैन इतिहास में यह एक अश्रुत-पूर्व प्रसङ्ग आया था। इस प्रकार परस्पर प्रीति भोजन करना श्री आचार्य के ही शांतिमय उपदेश का ही परिणाम था। इस प्रकार प्रतिष्ठा महोत्सव आनंद और शान्ति से समाप्त हुआ। प्रतिष्ठा की खुशी में श्री भाईचंद कसलचंदजी ने ५०० रुपये कॉलेज के लिये दान दिये और विहार के समय इस रकम को १०००) कर दिया। | Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४१) इन दिनों में बंभापोल और जैनशाला में परस्पर अनुचित हैंडबिल बाज़ी होती रही, परन्तु हमारे चरित्र नायक इस झगड़े से सर्वथा शान्त रहे। भादों वदि १२ गुरुवार ता०२ सितंबर को पर्युषण पर्वप्रारंभ हुआ। तीसरे पर्युषण के दिन कोरल, मियांगाँव, करजन, सुखाड़ा इत्यादि गाँवों के श्रावक श्राविका पर्युषण करने को आये। ५ सितंबर को कल्पसूत्र का व्याख्यान शुरु हुआ। शाम को प्रतिक्रमण के समय श्री चरणविजयजी की सख्त बीमारी का तार मिला। अगले दिन १०|| बजे के करीब, तीसरे व्याख्यान की समाप्ति के बाद बड़ौदा से श्री चरणविजयजी के दिवारोहण का समाचार मिला। उसी समय चतुर्विध संघ के समक्ष देववंदन किया गया । ६ सितंबर, दूसरी चौथ, गुरुवार को संवत्सरी पर्व मनाया गया। वर्षा के कारण उस दिन चैत्य परिपाटी न हो सकी। अगले दिन चैत्य परिपाटी और स्वामीवत्सल हुआ। ११ सितंबर को डभोई से विजय देवमूरि गच्छ के श्रीसंघ से पंन्यासजी श्री रंगविजयजी के स्वर्गवास का तार मिला। नियमानुसार देववंदन किया गया। १२ तारीख को पर्युषण पर्व सम्बंधी वरघोड़ा (जुलूस) निकला । इस दिन खूब वर्षा हुई । मांडवी की पोल से चल कर वरघोड़ा अंबालाल पानाचंद Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२) की धर्मशाला में आया । १३ सितम्बर को जैनशाला का वरघोड़ा निकला। अहमदाबाद वाले हरिभाई और श्रीमाली आपस में समाधान के लिये प्रयत्न करने लगे परन्तु प्रयास निष्फल हुआ। भंपोल के उपाश्रय का वरघोड़ा १४ सितंबर को निकला। हमारे चरित्रनायक भी उसमें शामिल हुये। भंपोल वालों की जीमनवार भी हुई। भंपोल वालों को जैनशाला से रथ न मिल सका । अतः उन्होंने अहमदाबाद से सेठ आनंदजी कल्याणजी का रथ मंगवाया। भाद्रपद सुदि ११ के शुभ दिवस को अकबर सम्राट को प्रतिबोध देने वाले जगद्गुरु श्री विजयहीरमूरिजी महाराज की जयन्ती मनाई गई। मांडवी की पोल के श्रीमंदिरजी से पार्श्वनाथ भगवान् की श्यामवर्ण की मूर्ति आभूषणों सहित पट्टी (जि० लाहौर) भेजी गई और श्री नवपल्लव पार्श्वनाथ के मंदिर से श्री शान्तिनाथ स्वामी की धातु की प्रतिमा अंबाला शहर को रथयात्रा उत्सव के लिये भेजी गई। . इस चातुर्मास में भोयरापाड़ा के जीर्ण भंडार की लिस्ट तैयार की गई और उन पुस्तकों की रक्षा का उपाय कराया गया। साथ ही यह व्यवस्था भी कराई गई कि हर साल ज्ञान पंचमी के दिन भंडार खोला जाया करे जिससे जनता को इस भंडार के दर्शनों का लाभ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४३ ) मिल सके । बंबई से डॉक्टर शरॉफ ने आकर श्री विजय ललितसूरिजी महाराज की आँख का मोतिया निकाला | बई से श्री आदीश्वर भगवान् के मंदिर की प्रतिष्ठा के लिये पोरवाल संघ का डेप्युटेशन विनती करने आया परंतु पंजाब में जाने की जल्दी के कारण विनती स्वीकार न हो सकी । २७ अक्टूबर को सायंकाल सन्मित्र मुनि श्री कर्पूरविजयजी के स्वर्गवास का पालीताणा से तार आया, विधि पूर्वक देव वंदन किया। इस चातुर्मास में बड़ौदा, पट्टी और होशियारपुर ( पंजाब ) आदि से भी बहुत से भाई दर्शनार्थ खंभात जाते रहे । कार्त्तिक सुदि १ गुरुवार को श्री गौतमस्वामी के मंदिर में श्री सम्मेद शिखर तीर्थ के पट्ट का उद्घाटन आपके हाथ से हुआ । चतुर्विध संघ के साथ धर्मशाला और भंपोल दोनों उपाश्रयों के आचार्य और साधु महा- राज उपस्थित थे । जामनगर के सेठ पोपटलाल धारसी आप से श्री सिद्धाचलजी के संघ में पधारने के लिये विनंति करने आये परन्तु आप को पंजाब की तरफ जाने की जल्दी थी । अतः आप वहां न जा सके। कार्त्तिक सुदि १५ के दिन चतुर्विध संघ के साथ धर्मशाला से मांडवी की पोल के उपाश्रय में पधारे। वहां श्री सिद्धाचलजी के पट्ट के Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४ ) दर्शन किये। फिर ३ बजे वहीं कलिकाल सर्वज्ञ कुमारपाल के प्रति-बोधक जैनाचार्य श्री हेमचंद्रसूरिजी महाराज की जयन्ती मनाई गई । अगले दिन चतुर्विध संघ और बहुत से बाहर के नगरों से आये हुये भाइयों के साथ नगर यात्रा की । श्रीयुत् भाईचंद कशलचंद की पेढ़ी की तरफ़ से यहां श्री ऋषभदेव भगवान् की चरण पादुका और श्रीमद्विजयानंद सूरिजी महाराज की देहरी तैयार हुई थी । आपने उसकी प्रतिष्ठा कराई । यहां से विहार करके आप शाम को झवेरी दलपत भाई के बंगले में ठहरे । साधु साध्वी और साथ में आये हुये श्रावक श्राविकाओं का बड़ा समुदाय था । आपने धर्म देशना दी और सेठजी की तरफ से प्रभावना हुई । अगले दिन सायमा पहुँचे । खंभात का संघ यहां तक भी साथ ही आया । श्री भाईचंद कशलचंद वालों की तरफ से स्वामीवत्सल हुआ। तारपुर, सोजितरा, ऊ होकर आप मातर पधारे। यहां श्री सुमतिनाथ स्वामी का धाम है । खंभात और अहमदाबाद का संघ यहां भी आया, पूजा पढ़ाई गई और स्वामीवत्सल हुआ । नायका, बोरेजा, नारोल होकर आप अहमदाबाद पधारे । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४५ ) नगर सेठ आदि की विनती से आप ऊजमबाई की धर्मशाला में पधारे। ___आपके शिष्य श्री विवेकविजयजी महाराज और उनके शिष्य आचार्य श्री विजयोमंग सरिजो महाराज आदि वहां मिले। शाम को लुणसावाड़ा के मुखिया भाइयों की विनंति से आप लुणसावाड़ा पधारे। यहां पर भूतपूर्व दोवान साहिब श्रीयुत् के. के. ठाकुर साहिब आपके दर्शनार्थ आये और हिन्दू महासभा के विषय में बात चीत करने लगे। चतुर्दशी के दिन आपका ऊजमबाई की धर्मशाला में व्याख्यान हुआ। इस व्याख्यान में भी दीवान साहिब आये और आपका हिन्दू संगठन के विषय में व्याख्यान भी हुआ। अमावस को आपका लुणसावाड़ा में व्याख्यान हुआ। बंबई से श्रीयुत् कान्तिलाल ईश्वरलालजी राधनपुर पधारने के लिये आपसे विनंति करने आये। अपने स्थान राधनपुर में उन्होंने अपने पिताजी के स्मरणार्थ एक बोर्डिङ्ग हाऊस बनवाया था। उसके उद्घाटन के अवसर पर आप एक बहुत बड़ा उत्सव करना चाहते थे। उसी अवसर पर वहां पधारने के लिये आपने आचार्य श्री से विनंति की, जिसे आपने सहर्ष मान लिया। अगले दिन मसकती मार्केट में आपका विश्वधर्म के विषय में मनोहर व्याख्यान हुआ। यहां से आपको शाहपुर के डॉक्टर चिमनलाल महासुख १. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . (१४६) राम ने अपने यहां पधारने के लिये निवेदन किया। आप जब वहां पधारे तो डॉक्टर महाशय ने अपने मकान पर उत्सव करके अपनी धर्मपत्नी सहित चौथे व्रत (ब्रह्मचर्य) का नियम लिया। आचार्य महाराज ने इस व्रत की व्याख्या करके सब पर अच्छा प्रभाव डाला। आप फिर कीकाभट की पोल वालों की प्रार्थना पर वहां पधारे। वहां सेठ फूलचंद गुलाबचंदजी ने चौथा व्रत लिया और इनके अतिरिक्त और भी श्रावक श्राविकाओं ने व्रत ग्रहण किये। । इस शुभ अवसर पर श्रीमान् सेठ साहिब ने २५० तोले चाँदी की जिन मूर्ति बनवा कर उम्मेदपुर के श्री पार्श्वनाथ उम्मेद जैन बालाश्रम को भेट की। शाहपुर के भाइयों में कुछ वैमनस्य था। आपके उपदेश से वह कलह भी मिट गया। फिर शामला की पोल में आपका पधारना हुआ। वहां पब्लिक व्याख्यान हुआ। . .. ___अहमदावाद से बिहार कर आप श्रीयुत् सेठ मगनलाल ठाकुरसी के बंगले पर पधारे। सेठ कस्तूरचंद लालभाई आदि कई सज्जन दर्शनार्थ पधारे। .. - यहां से वलाद आदि स्थानों को पावन करते हुये आप सेरिसा पहुँचे। अहमदाबाद के भाई यहां भी दर्शन करने आये। यहां से आप राधनपुर जाते A " .. ..... . . . . ..-..-. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४७ ) श्वरजी पधारे। यहां पर राधनपुर से सेठ कांतिलाल ईश्वरलाल और सागर के उपाश्रय के ट्रस्टी महानुभाव, ६०, ७० के लगभग सजन विनतो के लिये आये । यहां से आगे राधनपुर के पास ही श्रीमान् सेठ मोतीलाल मूलजी के बंगले में जाकर ठहरे। पाटण से पधारे हुये मुनि श्री उत्तमविजयजी, विद्वद्वर मुनि श्री पुण्यविजयजी, श्री बसंतविजयजी और श्री रमणीक विजयजी महाराज यहां मिले । . पौष सुदि ५ बुधवार २२ दिसंबर १६३७ को आपका बड़ी धूम धाम से नगर प्रवेश हुआ। सारा राधनपुर नगर अद्भुत ढंग पर सजाया गया था। नवाब साहिब के मकान से लेकर मंडप तक, शहर के एक सिरे से दूसरे सिरे तक, झंडियां लग रही थीं। और ठौर पर दरवाजे बनाये गये थे और जैनाचार्यजी की स्तुति और जैन धर्म के सिद्धांतों के द्योतक मोटो लग रहे थे। मंडप की रचना बोर्डिंग हाऊस के साथ में ही की गई थी। वहां की शोभा अलौकिक थी । ज्यों २ आचार्य महाराज आगे बढ़ते जाते थे, स्थान स्थान पर खरे मोतियों और अशर्फियों से गहुँलियां की जाती थीं। इस धूम धाम में एक यह भी रहस्य था कि आप की दीक्षा भी राधनपुर में ही हुई थी और आप अब कई वर्षों के -पश्चात् यहां पधार रहे थे। अतः लोगों को आपका स्वागत Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४८) करते हुये विचित्र हो आनंद आरहा था। इतने लंबे समय के पश्चात् आपके पुनः दर्शन कर वे सब लोग अपने जीवन को सराह रहे थे। बोर्डिङ्ग हाउस से होकर आप सागर के उपाश्रय में पधारे। श्री विजयवीर सूरिजी के शिष्य पंन्यासजी श्री लाभविजयजी महाराज तथा श्री विजयसिद्धि मूरिजी के शिष्य श्री विजयभक्ति मूरिजी से भी मिलाप हुआ। जुलूस के समय सेठजी की प्रार्थना पर जब आप उनके मकान पर पधारे, सेठजी ने खरे मोतियों और स्वर्ण-मुहरों से गहुली की थी और आपके करकमलों से (आपकी कृपा-सूचक) वासक्षेप को ग्रहण किया था। .. इस उत्सव के अवसर पर राधनपुर निवासी श्री सकरचंद मोतीलाल मूलजी आदि अनेक सेठ महानुभावों के अतिरिक्त और भी अनेक सेठ साहिबान, और विद्वान लोग पधारे थे। उम्मेदपुर बालाश्रम से श्रीमान् सेठ गुलाबचंदजी ढडा और विद्यार्थी भी उत्सव में सम्मिलित हुये। अंबाला शहर (पंजाब)के श्री आत्मानन्द जैन हॉई स्कूल के विद्यार्थो भी अपने अध्यापकों के साथ उत्सव की शोभा बढ़ाने का कारण बने । बालाश्रम को सेठजी की तरफ से छः सात हजार की सहायता भी प्राप्त हुई। 2, पौष सुदि ८ को मंडप में उद्घाटन क्रिया हुई। दोनों सरफ कुर्सियों पर बहुत से श्रीमान् सेठ तथा सेठ काति Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४९) लालजी के संबंधी, मित्र तथा अन्य निमन्त्रित महाशय, रियासत के दीवान साहिब तथा इतर अधिकारो वमे विराजमान थे। पास ही योग्य स्थान पर स्वयं आचार्य महाराज और श्री विजयललितमूरिजी तथा दूसरे मुनि महाराजाओं के साथ शोभायमान थे। सामने मंच पर श्रीमान् नवाब साहिब मुर्तिजाअलीखां साहिब बाबी और उनके भतीजे के लिये सुंदर बहुमूल्य कुर्सियों का प्रबंध किया गया था। . नवाब साहिब के सभापति का आसन ग्रहण करने पर सेठजी ने उस दिन वहां एकत्र होने का कारण बताया। नवाब साहिब यह जान कर बड़े प्रसन्न हुये कि उनकी रियासत में, उनके शहर में, उन्हीं की प्यारी जनता में से एक नव युवक उत्साही धनवान ने जैनजाति के विद्यार्थियों के लिये एक महल सरीखा बोर्डिङ्ग हाऊस ४५००० रुपये की लागत से बनवाया है और उसके खर्च के लिये ७५००० रुपये भी प्रदान किये हैं और इसके अतिरिक्त और भी यथाशक्ति योग्य सेवा करने का वचन दिया है। जब बोर्डिङ्ग हाऊस का, जिसका नाम 'ईश्वरलाल अमुलखदास मोरविया जैन बोर्डिंग हाउस' रखा गया है, श्रीमान् नवाब साहिब उसका उद्घाटम Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५०) करके मंडप में वापिस आये तो आपका और उपस्थित सज्जनों का रिवाज के अनुसार सम्मान किया गया । आपने समयोचित भाषण दिया । आचार्य महाराजजी ने भी अवसर के अनुसार योग्य उपदेश दिया। श्रीफलों की प्रभावना हुई। शाम को सेठ साहिब श्री कांतिलालजी को राधनपुर निवासियों की तरफ से मानपत्र दिया गया। अगले दिन रथयात्रा का जुलूस निकला। पूजा प्रभावना होती रही। पूजा पढ़ाने के लिये प्रसिद्ध गायक श्रीयुत् प्राणमुख भाई को विशेष आग्रह से बुलवाया गया था। इस उत्सव में अंबाला शहर के श्री आत्मानंद जैन हॉई स्कूल के बैंड और विद्यार्थियों ने अच्छी रौनक की। सेठजी ने प्रसन्न होकर इस स्कूल को भी २००० रुपया प्रदान किया। १. राधनपुर से विहार कर जब आचार्य महाराज सनाड पहुँचे वहां सेठजी की तरफ से स्वामीवत्सल किया गया। यहां से आप पाटण पधारे। प्रवेश के समय ही वयोद्ध श्री प्रवर्तकजी श्री कान्तिविजयजी महाराज के दर्शन हुये। पाटण में विश्राम करते हुये आपने प्रभावशाली. व्याख्यान द्वारा एक ज्ञान मंदिर बनवाने के लिये उपदेश दिया। वहां 'श्री हेमचन्द्राचार्य आत्म कान्ति ज्ञान मंदिर' बनाने का निश्चय होगया । श्रीमान् सेठ हेमचंद्र Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) मोहनलालजी ने ज्ञान मंदिर के मकान के लिये ५१०००) रुपये दिये । J पाटण के पास ही चारूप तीर्थ है। आप वहां की अति प्राचीन और प्रभाविक मूर्ति के दर्शन करने के लिये पधारे। वहां भी पूजा- प्रभावना हुई। यहां से कल्याणा होकर मैत्राना पधारे। पाटण का संघ वहां तक आपकी सेवा में उपस्थित रहा । पालनपुर के नगर सेठ श्रीमान् चिमनभाई मंगलभाई आदि कई सज्जन विनती के लिये आये । पाटण से साथ आये हुये पंन्यासजी श्री नेमविजयजी आदि मुनि महाराज वापस पाटण को लौट गये और आचार्य महाराज ने पालनपुर की ओर विहार किया । पालनपुर में विश्राम करके श्रीसंघ को उत्साहित किया । विहार के समय श्रीमान् नवाब साहिब उपाश्रय में दर्शनार्थ पधारे। यहां से आप मालण पधारे, जहां के निवासी बहुत वर्षों से आपके दर्शनों के लिये लालायित होरहे थे । आपके पधारने से उनकी चिरकाल की इच्छा पूर्ण हुई और वहां पूजा प्रभावना आदि धर्म क्रियाओं से उनका उत्साह बढ़ा । संघ के साथ विहार कर आप दाँता, कुंभारियाजी होकर खराड़ी ( माऊंट आबू की तलहटी में गांव है ) पहुँचे। यहां से श्री विजयललित सूरिजी महाराज उमेदपुर Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२ ) की ओर विहार कर गये। श्री विजयोमंग सूरिजी महाराज गुजरात की तरफ लौट गये। आगे मारवाड़ की ओर बढ़ते हुये आप भारजा गांव में पधारे। वहां ११ ग्रामों का परस्पर वैमनस्य दूर करके आगे वासा, धनारी, पिंडवाड़ा, नाना होकर आप बेड़ा ग्राम में पहुँचे। यहां शिवगंज के संघवीजी श्री फतहचंदजी, श्रीमान् गुलाबचंदजी ढड्डा और आस पास के लोग दर्शन करने आये। वरकाणा स्कूल के कार्यकर्ता, अध्यापक तथा विद्यार्थी भी दर्शन करने आये। विजोवा के आगेवान भी आये विजापुर, सेवाड़ी, लाठारा, राणकपुर होकर सादड़ी, वरकाणा, बीजोवा होकर तखतगढ़ के रास्ते आप उमेदपुर में पधारे। पूर्वोक्त गांवों में भी आपका खूब स्वागत हुआ। जहां आपके सदुपदेश से खुला हुआ बालाश्रम अच्छा काम कर रहा है। आचार्य श्री विजयललित सूरिजी तथा बालाश्रम के कार्यकर्ता और विद्यार्थी तथा उमेदपुर का संघ, सभी आपके स्वागत के निमित्त सेवा में उपस्थित हुये। प्रवेश में खूब धूम धाम रही। यहां फाल्गुण सुदि १० को कई जिनबिम्बों की अंजनशलाका-प्रतिष्ठा की क्रिया हुई। गुजरावाला पंजाब का श्रीसंघ, जिसमें २०० स्त्री पुरुष होंगे, श्री सम्मेद् शिखर की यात्रा करके आपके दर्शनार्थ यहां पहुँचा। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उमेदपुर से विहार कर तखतगढ़, पादरली, चांदराई होकर पाली पहुँचे। यहां सार्वजनिक व्याख्यान हुये। आगे खीताब ग्राम में जाने पर एक अच्छा लाभ मिला। वहाँ ते ठाकुर साहिब आपके दर्शन कर प्रसन्न हुये। बात चीत करते हुये उनके मन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने बाकी जीवन भर के लिये माँस मदिरा का सर्वथा त्याग कर दिया। : आगे आपके सोजत में पधारने पर श्रीयुत् सेठ केशरीमलजी हीराचंदजी ने अपने स्वर्गवासी पितामह और पिताजी की स्मृति में अहाई महोत्सव किया। आस पास के बहुत से लोग उस महोत्सव में आये। कुछ सज्जन बड़ौदा तक से भी आये थे। उमेदपुर की भजन मंडली भी यहां आई थी। स्वामीवत्सल भी हुआ। जोधपुर के रेवेन्यु मिनिस्टर श्रीयुत् मुहम्मदीन साहिब ने जैन धर्म पर सुंदर व्याख्यान दिया। भगवान् श्री गौडी पाश्वनाथजी के मंदिर के जीर्णोद्धार के लिये चंदा इकट्ठा हुआ। .. जब आपने प्रसिद्ध ब्यावर नगर में प्रवेश किया तो जनता के हर्ष का पारावार न रहा । प्रवेश में खूब धूम धाम रहो। उन दिनों भगवान् महावीर स्वामी का जन्म दिन मनाये जाने की तैयारी हो रही थी। उत्सव के दिन तीनों संप्रदायों-श्वेताबर, दिगंबर और स्थानक Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) वासी ने मिल कर उत्सव मनाया। अध्यक्ष के पद को श्री आचार्य महाराज ने सुशोभित किया । आपके व्याख्यान में निराली ही छटा थी । रथयात्रा का जलूस भी निकाला गया। आपको जल्दी ही पंजाब पहुँचना था, इस लिये वहां से शीघ्र ही विहार कर अजमेर पधारे । - अजमेर में आप केसरगंज में ठहरे। वहां के पल्लीवाल भाइयों को एक मंदिर की बड़ी आवश्यकता थी । ये भाई पहले आर्यसमाज व दिगम्बराम्नाय आदि को मानते थे परन्तु थोड़े समय पहले श्री दर्शनविजयजी महाराज के सदुपदेश से श्वेतांबर सम्प्रदाय में सम्मिलित हुये थे । हमारे चरित्रनायक के उपदेश से उनके मंदिर निर्माण के लिये द्रव्य संग्रह करने का कार्य्यं प्रारंभ हुवा। दूसरे दिन यहां से धूम धाम के साथ लाखणकोटड़ी के उपाश्रय में पधारे । इस प्रकार जयपुर आदि नगरों को पवित्र करते हुये बैराट पहुँचे । यहां श्वेताम्बर श्रावकों के पहले ३०० घर थे । परन्तु अब केवल ३ घर रह गये हैं। यहां का श्वेताम्बर मंदिर भी अब दिगम्बरों के हाथ में चला गया है। इस तरफ भी समाज के नेताओं को ध्यान देना चाहिये । बैराट से आगे अलवर में यद्यपि श्वेताम्बर संप्रदाय के केवल ३ घर हैं तथापि प्रवेश के समय उन्होंने अच्छे उत्साह का परिचय दिया। उनके प्रयास अथवा उनके Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुव्यवहार के कारण हिन्दु मुसलमान सभी लोग जुलूस में शामिल हुये। यहां देहली के भाई विनती के लिये आये। देहली का प्रवेश तो चिर स्मरणीय हुआ ही करता है। इस बार भो अपूर्व उत्साह दिखाई देता था। यहाँ प्रसिद्ध धर्मात्मा मुनि श्रीदर्शनविजयजी, श्री ज्ञानविजयजी तथा श्रीन्यायविजयजी महाराज जो प्रायः त्रिपुटी के नाम से विख्यात हैं, विराजमान थे। उनसे मिलाप हुआ जिसका जनता पर श्लाघनीय प्रभाव पड़ा। देहली के साहसी और श्रद्धालु श्रावक स्वर्गीय श्रीमान् टीकमचंदजी की धर्मपत्नी श्रीमती भूरीबाई ने उद्यापन किया। उस अवसर पर अजमेर निवासी श्रीयुत् हमीरमलजी लूणियां ने चतुर्थ व्रत (ब्रह्मचर्य का व्रत) अंगीकार किया और सिकन्दराबाद निवासी श्रीयुत् सेठ जवाहरलालजी नाहटा की धर्मपत्नी ने १२ व्रत अंगीकार किये। यहां ज्येष्ठ मुदि ८ को श्री गुरु महाराज की जयन्ती बड़ी धूम धाम से मनाई गई। लोगों को इस अपूर्व अवसर का लाभ बहुत दिन के पश्चात् पिला। परन्तु एक दुर्घटना के होजाने से लोगों का मन तुब्ध होगया। जयन्ती उत्सव पर कस्तला (जि. मेरठ) के जैन कवि श्रीयुत कन्हैयालालजी भी गुरु भक्ति से प्रेरित हो आचार्य महाराज के दर्शनार्थ यहां पधारे। आपकी तबीयत कुछ दिनों Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६) से खराब चली आरही थी। आप गुरु महाराज की भकि में स्वरचित एक नवीन कविता पढ़ कर अपने मनोगत भक्ति भावों को व्यक्त करना चाहते थे। यद्यपि आपकी शारीरिक अवस्था ऐसी न थी कि आप ऊँचे बोल सके तथापि आपने हठ करके कविता पढ़ना शुरु किया। अभी समाप्त न कर पाये थे कि अचानक बेहोश होकर गिर पड़े। सभा में खलबली मच गई। उपचार किया गया परन्तु आपके प्राण पखेरू इस नाशवान शरीर से प्रयाण कर गये थे। यद्यपि ऐसा सुन्दर मरण-गुरु महाराज की उपस्थिति में, मुख से गुरु गुण गान करते हुये शुभ ध्यान में—किसी२ पुण्यवान को ही प्राप्त होता है तथापि सांसा'रिक दृष्टि से सर्वत्र शोक सा छा गया। हमें जैन कवि की इस छोटी अवस्था में ही उनका शरीरान्त होजाने पर भारी खेद है। प्रार्थना है कि उनकी स्वर्गस्थ आत्मा को शान्ति प्राप्त हो। - देहली से विहार कर करनाल शाहबाद होकर अंबाला शहर पधारे। गर्मी के दिनों में इतना लंबा और कठिन विहार कर आप श्री आत्मानंद जैन कॉलेज के उद्घाटन के मुहर्त से दो दिन पहले यहाँ पहुँच ही गये । जैनाचार्य श्री विजय विद्या मूरिजी, श्री विचारविजयजी, उपेन्द्र विजयजी तथा साध्वीजी श्री चित्तश्रीजी आदि गुजरांवाला से Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहार कर ग्रामानुग्राम विचरते हुये थोड़े ही दिन पहले यहां पहुँच गये थे। आचार्य महाराज के १३ वर्ष पश्चात् पंजाब में पुनः पधारने पर पंजाबियों को जो खुशी होरही थी उसका वर्णन करने को लेवनी में शक्ति नहीं। उसका विवरण समाचार पत्रों में छपा था। उसे ही यहां उद्धत कर देना काफी होगाः जैनाचार्य श्रीमद्विजयवल्लभ सूरीश्वरजी __महाराज का पञ्जाब में प्रवेश श्री आस्मानन्द जैन कॉलेज अम्बाला (शहर) का उद्घाटन और वल्लभ-दीक्षा-अर्द्ध शताब्दी महोत्सव - यह बात अब जगत् प्रसिद्ध हो चुकी है कि स्वर्गवासी मुरु महाराज न्यायाम्भोनिधि श्री १००८ श्रीमद्विजयानन्द सूरिजी (आत्मारामजी) महाराज के पश्चात् पंजाब क्षेत्र पर जितना उपकार श्री विजयवल्लभमूरिजी महाराज ने किया है उतना किसी दूसरे व्यक्ति ने नहीं किया। अतः जिस दिन से पंजाब को यह शुभ समाचार मिला कि आचार्य महाराज १३-१४ वर्ष के बाद फिर पंजाब पधारने वाले हैं उसी दिन से पंजाब का जैन बच्चा बच्चा अपने प्रियतम के स्वागत के लिये अपनी शक्ति भर परिश्रम करने लगा। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५८) आचार्य महाराज की बाट अतीव उत्सुकता से देखी जाने लगी। बहुत दिनन की जोवती, बाट तुम्हारी 'राम' । जी चाहे त्तव मिलन को, मन नाहिं विश्राम ॥ __ ताः १८ जून १६३८ को प्रातः काल श्री आचार्य महाराज ने अम्बाला शहर के बाहर एक कोठी में विश्राम किया और चातक की भांति पंजाबी भाईयों के प्यासे नेत्रों को अपने दर्शनामृत से तृप्त किया। दो दिन तक आप वहां ठहरे। इतने में बाहर देश-देशान्तरों से श्रद्धालु श्रावक निरन्तर आते रहे और हजारों की संख्या में गुरु-भक्त एकत्रित हो गये। गुरु महाराज के दर्शन कर सब ने अपना जीवन सफल किया । । ताः २० जून को प्रातः काल सभापति महोदय अहमदाबाद निवासी श्रेष्ठवर्य श्री कस्तूरभाई लालभाई, बंबई निवासी श्रीयुत् सेठ कान्तिलाल ईश्वरलाल, श्री रतिलाल वाड़ीलाल, श्री सकरचन्द मोतीलाल मूलजी आदि सज्जन पधारे। रेल्वे स्टेशन पर उनका अत्यंत सन्मान पूर्वक स्वागत किया गया और जनता बैंड बाजों के साथ एक जुलूस के रूप में बड़े २ बाज़ारों में से होते हुये उस स्थान पर पहुँची, जहां से श्री आचार्य महाराज का जुलूस चलने 'वाला था। उपरोक्त सेठ महानुभाव हाथी से उतर कर Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. ( १५९) सकल श्रीसंघ के साथ आचार्य महाराज की सेवा में उपस्थित हुये और जुलूस वापिस शहर की तरफ बैंड बाजों व भजन मंडलियों के साथ बड़ी धूम धाम से चला।... - आचार्य महाराज के निकटतर रहने के लिये भजन मण्डलियों की स्पर्धा देखने योग्य थी। जिस उत्साह से गुरु महाराज की स्तुति करती हुई भजन मंडलियां अपनी अनुपम गुरुभक्ति का परिचय दे रही थीं, उसे देखकर दर्शकों के मुख से स्वतः “वाह-वाह" की ध्वनि निकल रही थी। 'जैन धर्म, महावीर स्वामी, विजयानन्दमूरि तथा पंजाब केसरी श्री विजयवल्लभ सूरि महाराज की जय' की गूंज आकाश तक पहुँच रही थी। . शहर के बड़े २ बाजारों में से, जो दरवाजों, झंडियों और बंदनवारों से सजे हुये थे, निकल कर जुलूस श्री मन्दिरजी के पास पहुँचा। श्री आचार्य महाराज साधुमण्डल के साथ श्रीमन्दिरजी में भगवान् के दर्शनार्थ पधारे। इतने में जुलूस में शामिल होने वाले विद्यार्थियों और बैंडवालों का मिठाई आदि से सत्कार किया गया। दस बजे के बाद जुलूस कॉलेज ग्राउण्ड के निर्मित मण्डप में पहुँचा। जहां इस भारी मेदिनी के लिये शामियाना लगा हुआ था और लाउड स्पीकरों का भी प्रबन्ध किया गया था। जनता के आराम से बैठ जाने पर भजन और व्याख्यानों Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा आने वाले महानुभावों का अभिनन्दन किया गया। इस बैठक के प्रधान श्रीयुत् कस्तूरभाई लालभाई निर्वाचित हुये। उनके सभापति का आसन ग्रहण करने पर उनकी सेवा में 'अभिनन्दन पत्र' (Address) पेश किया गया। - तत्पश्चात् श्री सभापति महोदय ने अपने कर-कमलों से कॉलेज का उद्घाटन किया। आपने अपने व्याख्यान में समस्त भारतवर्ष में पहले जैन कॉलेज के खुलने पर प्रसन्नता प्रकट की और कार्यकर्ताओं को उनके प्रयास के लिये बधाई देते हुये यह भी अनुरोध किया कि इस कॉलेज में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को स्वावलम्बी बनाने के लिये औद्योगिक शिक्षा का भी समावेश किया जावे। उपस्थित सज्जनों ने आपके विचारों को बहुत पसंद किया । . तदनन्तर श्री आचार्य महाराज का मनोहर उपदेश हआ। आपने संक्षेप से बताया कि धर्माचार्य होते हुये समाज की उन्नति के उपायों में यथोचित योग देना सर्वथा इष्ट ही है। स्वर्गवासी गुरु महाराज को अन्तिम अभिलाषा सरस्वती मंदिर बनाने की थी। उसे आज 'श्री आत्मानंद जैन गुरुकुल गुजरांवाला' और 'श्री आत्मानन्द जैन कॉलेज, अम्बाला शहर' आदि शिक्षण-संस्थाओं के रूप में सफल हुई देख कर उन्होंने समाज को बधाई दी और कहा कि इस महत् कार्य में सबको यथाशक्ति आत्मभोग देना चाहिये। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६१ ) धनीधन से और विद्वान् अपने परामर्श से इन संस्थाओं को उन्नत करने में भरसक प्रयत्न करें। आपने कहा कि इस प्रयास से संबन्धित आर्थिक समस्या का निराकरण भो आसान नहीं। समाज के बालकों की मानसिक, शारीरिक तथा धार्मिक उन्नति के उद्देश्य को लेकर ही यह संस्था खोली जा रही है और इससे केवल पंजाब का हो हित नहीं होगा प्रत्युत अन्य प्रॉन्तों का भी हित अभीष्ट है। अतः इसके लिये कम से कम दो लाख का फंड होना चाहिये जिसमें से ५० हजार के लगभग तो जमा हो चुका है, शेष में से ५० हजार अम्बाला वाले देवें, ५० हजार पंजाब का श्री संघ इकट्ठा करे और शेष ५० हजार भारत के दूसरे प्रान्तों से मिल जाने की आशा की जा सकती है । आपके व्याख्यान का एक एक अक्षर श्रोताओं के हृदय में उतरता गया और इससे कार्यकर्ताओं को खब प्रोत्साहन मिला। सायंकाल को दूसरी बैठक ५ बजे शाम को आरम्भ हुई। कॉलेज के मैनेजर महोदय ने अपनी रिपोर्ट उपस्थित की और बतलाया कि किस प्रकार सन् १९०१ में श्री आचार्य महाराज के सदुपदेश से स्थापित एक साधारण सी पाठशाला आज कॉलेज के उच्च श्रेणी (स्टेण्डर्ड) तक पहुँची है। आपने हृदय से स्वीकृत किया कि यह सब कुछ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२) श्री आचार्य महाराज की असीम कृपा का ही उज्ज्वल परिणाम है। आपने कॉलेज के वर्तमान प्रबन्ध, स्टॉफ झादि की विशेषताओं से उपस्थित जनता को परिचित कराते हुये कॉलेज की आवश्यकताओं की ओर उनका ध्यान आकृष्ट किया और दो लाख रुपयों की स्थायी पूँजी के लिये अपील की। श्री गुलाबचंदजी ढड़ा, एम. ए. ने रिपोर्ट का अनुमोदन किया। फिर कॉलेज के विद्यार्थियों को पारितोषक वितरण करने के पश्चात् प्रधानजी की तरफ से कॉलेज के लिये १००० रुपये के दान की उद्घोषणा की गई, इसके लिये कमेटी प्रधानजी श्री कस्तूर भाई की सर्वथा कृतज्ञ रहेगी। रात की बैठक में बाहर से आने वाली भजन मण्डलियों ने अपने गुरुभक्ति से परिपूर्ण सुरीले और रसीले संगीत से जनता का मनोरञ्जन किया और उत्सव की रौनक को बढ़ाया। ताः२१ जून प्रातः काल ८ बजे तीसरी बैठक प्रारम्भ हई। इसके सभापति कॉलेज के सुपरिचित दानवीर सेठ कान्तिलाल ईश्वरलाल मोरखिया निर्धारित हुये। आपने अपनी छोटी सी आयु में अपने शिक्षा, समाज सेवा संबन्धी और लोकोपयोगी कार्यों द्वारा जो लोकप्रियता प्राप्त की है उसका सब जैन संघ को अभिमान है। आपको अंबाला Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) श्रीसंघ की ओर से मानपत्र अर्पित किया गया। तत्पश्चात् - इस बैठक में ज्ञान की उपयोगिता और जैनधर्म में 'ज्ञान' के उच्चतम स्थान के विषय में व्याख्यान हुये । आपने अपने - करकमलों से कॉलेज की लायब्रेरी का उद्घाटन किया और लायब्रेरी के भवन के लिये अपनी धर्मपत्नी श्री शकुन्तला देवीजी की तरफ से ५००० रुपये प्रदान किये। इसके अतिरिक्त लायब्रेरी हेतु और भी बहुतसा दान प्राप्त हुआ । सायंकाल की बैठक श्री सेठ रतिलाल वाडीलालजी की अध्यक्षता में हुई । आपकी सेवा में भी मानपत्र पेश किया गया । तदनन्तर आपने कॉलेज की व्यायामशाला का उद्घाटन किया और एक सुन्दर व्यायामशाला (Gymnasium) बनाने के लिये १०००१ रुपया प्रदान किया। इसी समय श्रीमान् सेठ सेवंतीलाल हीरा- ब्रोकर बंबई और लाला नन्दलाल तीर्थदासजी ( पट्टी निवासी ) के करकमलों से श्री सद्गत आचार्य महाराज श्री विजयानन्द सूरि तथा उनके वर्त्तमान पट्टधर श्री विजयवल्लभसूरिजी - महाराज के वृहत्काय चित्रों का उद्घाटन हुआ और श्री सेठ गुलाबचन्दजी ढड्डा, एम. ए. ने कॉलेज होस्टल (छात्रावास) का उद्घाटन किया । तत्पश्चात् श्री आत्मानन्द जैन कॉलेज तथा स्कूल के विद्यार्थियों ने और श्री आत्मानन्द जैन गुरुकुल, गुजरांवाला Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६४ ) के विद्यार्थियों ने बैंड के साथ व्यायाम का मनोहर दृश्य दिखाया। गुरुकुल के एक दूसरे विद्यार्थी ने कई प्रकार की कसरतें दिखाई। देर हो जाने से अन्य स्थानों से माये हुये विद्यार्थी अपने २ करतब न दिखा सके। इस समय की छटा भी दर्शनीय थी। रात को भजन मण्डलियों ने संकीर्तन किया। वैसे तो प्रत्येक भजन मण्डली का धर्म-प्रेम तथा गुरुभक्ति सराहनीय थी परन्तु नोरावाल की भजन मण्डली के बालकों के मनोहर संगीत को लोगों ने बहुत पसंद किया। तीसरे दिन २२-६-३८ को श्रीमद् विजयवल्लभसूरिजी महाराज को दोक्षा-अर्द्ध-शताब्दि का उत्सव बड़ी धूम-धाम से मनाया गया। इस सभा के सभापति श्रीयुत् सेठ सकरचन्द मोतीलाल मूलजी, बम्बई निर्वाचित हुये। यह चुनाव भी सर्वथा उचित ही था। श्री सकरचन्द के पिता श्री सेठ मोतीलाल और आचार्य महाराज कभी सहपाटी थे। श्री आचार्य महाराज की दीक्षा का कार्य भी ५२ साल पहले उन्हीं के हाथों संपादित हुआ था। श्री संघ अंबाला की तरफ से आपको आपकी धर्माभिरुचि और आपके शिक्षा सम्बन्धी तथा अन्य लोकोपयोगी कार्यों के उपलक्ष में मानपत्र दिया गया। तत्पश्चात् श्री आचार्य वर्य की सेवा में श्री आत्मानन्द जैन महासभा (पंजाब) Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६५) तथा पंजाब श्रीसंघ की ओर से 'श्रद्धाञ्जलि' रूप मानपत्र अर्पित किया गया । आपने उसके उत्तर में इतना ही कहा कि आप इस बहुमान के योग्य अपने आपको नहीं समझते। अतः उस समय तक आप इस मानपत्र को श्री संघ की अमानत समझ कर श्रीसंघ के पास ही रख देना चाहते हैं, जब तक कॉलेज सम्बन्धी आपकी अपील और गुरु महाराज की भावना सफल न हो। इस समय भारतवर्ष के कोने २ से आपकी दीक्षाअर्द्धशताब्दि के निमित्त सफलता चाहने के, और आपके चिरंजीव होने के लिये तार चिट्टियों से समाचार आये । इस अवसर पर जहां आपके स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य भिन्न २ प्रकार के जैनधर्म की प्रभावना के निमित्त किये गये कार्यों का वर्णन किया गया वहां आपकी अनुपम गुरु-भक्ति की भी मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की गई। वास्तव में आपके सम्बन्ध में इतना कह देना सर्वथा उचित ही है कि आपका जो सन्मान और आपके लिये जो श्रद्धा व भक्ति भारतवर्ष के जैन समाज के हृदय में है उसका मुख्य कारण अन्य उपकारक कार्यों से भी बढ़कर आपकी अद्वितीय गुरुभक्ति हैं। स्वर्गीय महाराज की दिगन्त-व्यापिनी कीर्ति का बहुत कुछ श्रेय आपको भी है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६) इस अवसर पर एक बड़े महत्व की बात हुई जिसका उल्लेख करना आवश्यक है। बहुत वर्ष हुये एक अजैन विद्वान् श्रीस्वामो योगजीवानन्दजी सरस्वती ने स्वर्गीय श्री विजयानन्दमूरिजी महाराज की विद्वत्ता पर मुग्ध होकर एक मालाबद्ध श्लोक उनकी सेवा में अर्पित किया था और लिखा था कि इस चार पंक्ति के श्लोक के ५१ अर्थ हो सकते हैं परन्तु अर्थ करके नहीं भेजे थे। श्री आत्मानन्द जैन महासभा (पंजाब) ने श्री आत्मानन्द शताब्दि पर पूज्यनीय श्री आचार्य महाराज श्री विजय वल्लभ मूरिजी महाराज के उपदेश से भारतवर्ष के विद्वानों का ध्यान इस श्लोक की तरफ आकर्षित किया और उस विद्वान् की सेवा में जो इस श्लोक के ५१ अर्थ अथवा इससे बढ़कर अधिक से अधिक अर्थ करे, २५१) रुपये भेंट करने की घोषणा की। कुछ विद्वानों ने परिश्रम भी किया। अम्बाला शहर के ही एक विद्वान् पं० बैजनाथ शास्त्री ने इस श्लोक के ८० के लगभग अर्थ कर दिये और निरीक्षक महानुभावों ने इन्हीं को इस भेंट को प्राप्त करने का अधिकारी ठहराया। अतः अर्द्ध शताब्दि के दिन सभापति श्री सकरचन्द ने उपरोक्त पुरस्कार की रकम उक्त विद्वान् को भेंट करके आपने अपने विद्या प्रेम का परिचय दिया। इसके अतिरिक्त आपने २५००) रुपये कॉलेज होस्टल के हॉल के Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ ) उपलक्ष में अपने पूज्य पिता श्री मोतीलाल मूलजी की स्मृति में दिये । सायंकाल की अंतिम बैठक में जैन मिडिल स्कूल के विद्यार्थियों को सेठजी ने पारितोषक वितरण किये और इसी समय श्रीमती शकुन्तलादेवीजी, सुधर्मपत्नी सेठकान्तिलाल ईश्वरलाल ने वल्लभ वाटिका का उद्घाटन करते. हुये १०००) रु० इस वाटिका के निमित्त दान दिये । इस उत्सव के अवसर पर भिन्न २ कार्यों के लिये कॉलेज को लगभग बीस हजार रुपया दान प्राप्त हुआ: जिसके लिये श्री संघ अम्बाला तथा कार्य कमेटी, दाताओं का हृदय से आभार मानती है । अम्बाला शहर के इतिहास में ये तीन महोत्सव सर्वदास्मरण रहेंगे । एक बार फिर कह देना, कि यह सब कुछ गुरुकृपा का ही प्रसाद है, अनुचित न होगा । श्री शासनदेव से प्रार्थना है कि श्री आचार्य महाराजश्री विजयवल्लभसूरिजी के हाथों इसी प्रकार और भी जैन धर्म ... तथा जैन समाज के नाम को देदीप्यमान करने वाले अनेकों कार्य्य होते रहें । वल्लभ दीक्षा- अर्द्ध-शताब्दि महोत्सव पंजाब भर में मनाया गया और गुजरात, मारवाड़, मेवाड़, दक्षिणादि देशों में भी मनाया गया । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६८) इसका सब श्रेय पंन्यासजी महाराज श्री. समुद्रविजयजी गणि को है। चातुर्मास शीघ्र ही शुरू होने वाला था। उधर आपने जो महान कार्य करना ठान रक्खा था और जिसके लिये एकदम १००० मील से अधिक लंबा खंभात से अम्बाला शहर तक का विहार किया था, एक दो दिन के विश्राम से पूर्ण होने वाला न था। अतः आपने इस वर्ष (१९६५) का चातुर्मास अम्बाला शहर में ही किया। इस चातुर्मास में आपकी प्रेरणा से कई सत्कार्य हुये। कॉलेज के लिये अम्बाला शहर के भाइयों ने चन्दा दिया और अभी यह काम चल ही रहा है। आशा है कि शीघ्र ही आचार्य महाराज के कथनानुसार यह राशि ५० हजार तक पहुँच जायगी। आपके उपदेश से यहां पहले पहल श्री जगद्गुरु विजयहीरसूरि महाराज की जिन्होंने अकबर बादशाह को उपदेश देकर जैनधर्म और हिन्दूधर्म की उन्नति के अनेक उपाय किये थे, जयन्ती मनाई गई। इसी प्रकार गुर्जराधीश कुमारपाल को प्रतिबोध देने वाले कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यजी का जयन्ती महोत्सव भी पहली बार ही मनाया गया। - अब इस चातुर्मास की समाप्ति पर श्री आत्मानन्द जैन महासभा पंजाब की मीटिंग होने वाली है, जिससे Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६९ ) पंजाब में एक बार फिर जोर शोर के साथ धार्मिक और सामाजिक उन्नति के कार्य होने लगें । अब साढौरा ( जिला अम्बाला ) में आपके उपदेश से निर्मित जिन मंदिर का प्रतिष्ठा महोत्सव मनाया जायगा | यहां साढौरा में और फिर दो मास पश्चात् बड़ौत ( जिला मेरठ ) में आपके हो उपदेश से बने जिन मंदिर का प्रतिष्ठा कार्य भी आप ही के कर-कमलों से होने वाला है । इन दोनों कामों से निमट कर आपका संकल्प पंजाब में विचरने और श्री आत्मानन्द जैन गुरुकुल - गुजरांवाला (पंजाब) के अत्यावश्यक काय्यों को, जो आपके आने तक के लिये स्थगित पड़े थे, करने का है । यह बार बार कहने की आवश्यकता नहीं कि पंजाब का उद्धार वर्त्तमान समय में आप ही के द्वारा हुआ और हो रहा है और आप ही पंजाब केसरी तथा पंजाब देशोद्धारक के विरुद को सफल करके अपने स्वर्गवासी गुरु महाराज श्री आत्मारामजी महाराज के वचनों को सफल करके किंचित् मात्र उऋण होने का सतत् परिश्रम कर रहे हैं । शासनदेव से प्रार्थना है कि आपकी आयु सुदीर्घ हो, आपको जैन समाज पर उपकार करने और इसकी उन्नति के साधन जुटाने के अवसर प्राप्त होते रहें । अस्तु ! Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VaanavalvonnaRRA UauNUNAVUUUUURRRRRURINAM Mere CON MALALALALALNnna annen ALAMA paccocoCacancrocent Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 PRESS, AJMER RE Printed at the DIAMOND JUBILEE