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( १९ ) सर्व साधारण जनता ही नहीं, समाज के बड़े २ मनुष्य आपकी प्रतिभा के आगे झुक चुके थे। श्री सोहनलालजी महाराज भी इस प्रभाव से अज्ञात न थे फिर भी, 'नहीं' कहना उन्हें ठीक न अँचा । बोले
"अच्छा शास्त्रार्थ तो पीछे होगा। पहले जाकर उनसे कहो कि आत्मारामजी महाराज ने 'तत्वनिर्णयप्रासाद' में जो मूर्ति पूजा का विधान लिखा है--वह 'महानिशीथ सूत्र' में कहां है ?"
श्रावकों ने आकर आपसे निवेदन किया। आपने फरमाया "अवश्य लिखा है, यदि शंका हो तो शास्त्र देख लो।"
दिन नियत हुआ। सभाजन एकत्रित हुए किन्तु सोहनलालजी महाराज न आये, न आने ही थे। तब तक आप जैन धर्म की महत्ता, स्थानकवासी तथा श्वेताम्बर संप्रदाय में विभिन्नता आदि बातें लोगों को समझाते रहे। अन्त में श्री सोहनलालजी के शिष्य मुनि श्री कर्मचन्दजी 'महानिशीथ सूत्र' लेकर पधारे और एक कोने में खड़े हो गये । व्यासपीठ तक तो आप (कर्मचंदजी) न आये किन्तु पुस्तक दिखला कर पूजा विधायक पंक्ति को अँगूठे से दवा कर वह स्थान दिखलाने के लिये बोले। श्री बख्शीऋषिजी मध्यस्थ थे। उन्होंने श्री कर्मचंदजी के हाथ
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