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पाठशाला से हटा लिया गया और दुकान पर बैठने के लिए मजबूर किया गया। .
बालक छगन का वैरागी मन इन झंझटों में कब फँसने वाला था ? आपने दुकान पर रहकर भी दान, साधु समागम
और मननशीलता न छोड़ी। अब तो एक ही प्रश्नथा जो बार बार तंग करता था। बाल हृदय में द्वंद्व मचा हुआ था कि "वास्तविक सुख क्या है, और वह कैसे प्राप्त हो सकता है ?"
संवत् १९४० को बात है। आपकी आयु अभी १३ वर्ष की थी। मुनि महाराज श्री चन्द्रविजयनी का बड़ौदे में चातुर्मास था। साधु महाराज के उपदेशों के फल स्वरूप आपके हृदय में वैराग्य की भावना जागृत हुई। उस समय आप दीक्षा के लिए प्रस्तुत भी हो चुके थे। किन्तु श्री चन्द्रविजयजी महाराज के परलोक गमन से उस समय दीक्षा न ले सके। खीमचन्द भाई तभी से आपकी ओर से सशंकित रहते थे। अपनी बांह को छोड़ देना वे कब पसन्द कर सकते थे? होनहार लोगों से सब को बड़ी२ आशाएँ रहती हैं, और इसी लिए आपको पाठशाला से छुड़ा कर दुकान पर बैठाया था। नियम है, सच्ची लगन होने पर निश्चित साधन प्राप्त हो ही जाते हैं । * संवत् १६४२ में आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज का बड़ौदे में आगमन हुआ। नित्य व्याख्यान हुआ
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