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करता था। व्याख्यान में आप भी गए। जिज्ञासु को ज्ञान का सागर मिल गया। आप प्रति दिन व्याख्यान में जाते और उपदेशामृत पान करते । वैराग्य की भावना दृढ़ हो गई। वैराग्य का सच्चा दर्शन हो गया। अब तक तो आपके हृदय में विचार मंथन ही होता रहता था, अब सुन्दर नवनीत प्राप्त हो गया। "संसार मिथ्या है । इससे छुट्टी लेकर आत्म कल्याण ही परम लक्ष्य है।" यह निश्चय हो गया। - एक दिन की बात है। व्याख्यान की समाप्ति पर सभा विसर्जित हुई। श्रोतागण चलने लगे, परन्तु आप वहीं ठहरे रहे। सब के जाने के पश्चात् आपने आत्मारामजी महाराज के पैर पकड़ लिए। आंखों में अश्रधारा थी, और वाणी गद गद थी। "शिष्यस्तेऽहं, शाधिमा स्वां प्रपन्नम्" "त्राहिमांत्राहिमाम्" आप की प्रार्थना थी। आपके आर्तनाद ने गुरु महाराज का हृदय मोम कर दिया। महाराजजी ने सोचा कोई गरीब होगा कुछ सहायता चाहता होगा, यह जान कर आश्वासन देते हुए कहा। "भाई! मेरे पास क्या है ? यदि कुछ मदद चाहते हो तो किसी गृहस्थ को आने दो।"
छ०-गुरुदेव ! आ०-क्यों भाई ?
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