SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १५ ) सहयोग प्राप्त हुआ था। यहां तक की आपके ही हाथों से अंजनशलाका, आदि क्रियाएँ भी आचार्य देव ने कराई थीं। आपको प्रत्येक कार्य में सहायता मिले, इसलिये आपको आचार्य भगवान् ने एक शिष्य रत्न भी समर्पण किया। जिनका नाम मुनि श्री विवेकविजयजी रक्खा था। ये बड़े विनीत और वैराग्यवान एकान्त गुरुभक्त थे। ये आपकी शिष्य संतति में सब से प्रथम शिष्य हुए । आपकी शिष्य संतति में दूसरा नंबर मुनि श्री ललितविजयजी का है । इनको आपश्री ने अपने ही वृहद् हाथ से संवत् १६५४ में दीक्षा दी । आप भी आचार्य देव को छोड़ कर अलग रहना प्रायः पसन्द नहीं करते । किन्तु यह अवसर बहुत दिनों तक मिलते रहना कठिन है । आचार्य देव श्री १००८ श्री आत्मारामजी महाराज सं० १६५३ के ज्येष्ठ शु० ७ मंगलवार को सायंकाल की नित्य क्रियाएँ करके आराम करने वाले ही थे कि आचार्य श्री को खास का दौरा हुआ । अनेक बाह्योपचार किये गए किन्तु कुछ भी फरक न पड़ा। आचार्य श्री ने हमारे चरित्र नायक तथा सब छोटे बड़े साधुओं को सम्बोधित करके फरमाया- "लो भाई ! अब हम जाते हैं और सेब की खमाते हैं ।" इतना कह कर 'अर्हत' शब्दोच्चार के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002670
Book TitleKalikal Kalpataru Vijay Vallabhsuriji ka Sankshipta Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParshwanath Ummed Jain Balashram Ummedpur
PublisherParshwanath Ummed Jain Balashram Ummedpur
Publication Year1938
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy