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मान गए और दीक्षा देने की सम्मति दे दी । यह समाचार सुनते ही आपका मनो-मयूर नाचने लगा। आपकी उस समय की प्रसन्नता का वर्णन लेखनी के बाहर की बात है।
दीक्षा की तैयारी होने लगी, आखिर राधनपुर में वैशाख शु० १३ सं० १९४४ को बड़ी धूम धाम के साथ आपने दीक्षा ग्रहण की। आप मुनि श्री हर्षविजयजी महाराज के शिष्य हुए। 'छगन' नाम बदला गया और आपका नाम मुनि श्री वल्लभविजयजी रखा गया। दोक्षा महोत्सव का ठाठ बड़ा अलौकिक और अद्वितीय था ।एक महीने तक लगातार जुलूस निकलते रहे। भाग्यशाली सद् गृहस्थों ने अपने द्रव्य का सदुपयोग किया । आपके बड़े भाई खोमचन्दजी ने भी पारख मोहन टोकरसी को कुछ रकम दी और कहा “दीक्षा महोत्सव पर मैं शायद उपस्थित न हो सकँ तो आप इस रकम को खर्च में शामिल कर लेना।" . अब आपको इच्छित वस्तु की प्राप्ति हो गई थी। अब तो केवल उसको सँभालना थी। वय केवल १७ वर्ष की थी। नये रक्त का जोश था। मन में उत्साह था और हृदय में लगन थी। यही तक नहीं, भविष्य में वक्ताओं ने
आपके सम्बन्ध में जो कुछ कहा था, वे सब बातें सत्य सिद्ध हो ही चुकी थीं।
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