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(३४) आपने कथावाचकजी को बुलाया। पंडितजी पहले तो चिड़े हुए आये किन्तु जब इन महापुरुषों के निकट पहुँचे उनका क्रोध काफर होगया। उन्होंने पूछा आप कौन हैं। कहां से आये हो ?
"भाई ! हम जैन साधु हैं। विचरते हुए यहाँ आ निकले हैं।"
___ "आप यहां नहीं ठहर सकते। आजकल साधुओं के वेष में कई लफंगे फिरते हैं। हम यहां किसी साधु को ठ.रने नहीं देते।" कथा वाचकजी ने उत्तर दिया। - आपने अपनी मीठी भाषा में ( गीर्वाण भाषा का उपयोग करते हुए ) अनेक जैन जैनेतर शास्त्रों के प्रमाण युक्त उपदेश दिये। आपकी गंभीर और अमृतमयी वाणी को सुनकर उनका बाहरी क्रोध भी शान्त हो गया। यही नहीं कथा वाचकजी मुग्ध होगए। हाथ जोड़ कर बोले । "महाराज क्षमा करें मैं ढोंगी साधुओं से इतना तंग आगया हूँ कि अच्छे साधु की कल्पना तक नहीं कर सकता। आज्ञा दें आप के लिए भोजन का प्रबन्ध करूँ।” नौकर को बुला कर बत्ती लाने के लिए भी पंडितजी ने कहा। - आप मुस्कराये और बोले "पंडितजी! हम एक घर का आहार नहीं लेते और रात में तो आहार का स्पर्श तक नहीं करते। रात में हम चिराग भी नहीं जलवा सकते।"
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