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विजयजीमहाराज, जिन्होंने पंजाब के जैनों को गाढ निद्रा से जमाने के लिये अपनी सारी शक्ति लगा दी थी, कुछ दिन बीमार रहकर मार्गशीर्ष कृष्णा १४, सं० १९८२ को असार संसार को सदा के लिये छोड़ गये।।
चातुर्मास के बाद रामनगर, खानगाहडोगरां आदि नगरों में विचरते हुये आप पुनः गुजरांवाले पधारे। दानवीर सेठ विट्ठलदासजी, श्री मोतीचन्द गिरधरजी कापडिया सॉलिसीटर और श्री मकनजी झूठाभाई बैरिस्टर, सेठ देवकरन मूलजी की धर्मपत्नी इत्यादि बंबई से आपके दर्शनार्थ आये।
अब आपका विचार गुजरात की ओर जाने का हुआ। लाहौर, अमृतसर, कमर, पट्टी, जंडियाला, वैरौवाल, नकोदर, जालन्धर, लुधियाना, मालेर कोटला, नाभा, सामाना, अंबाला होते हुये, सर्वत्र अपने उपदेशामृत से भव्य जीवों का उपकार करते हुये आप साढौरा में पधारे। हिन्द स्कूल में आपने विश्राम किया। वहां तोन चार सार्वजनिक व्याख्यान भी दिये। इस अवसर पर साढौरा निवासी भाइयों ने साढौरा में जिन मंदिर बनवाने की इच्छा प्रकट की। एक भाई ने योग्य जमीन देने की उदारता दिखाई परन्तु आपके वहां अधिक दिन न ठहर सकने के कारण तामीर का काम आरंभ न हो सका।
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