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अच्छा हो।" श्री हंसविजयजी महाराज की सूचना पाकर आप मियां गाँव से तत्काल रवाना हुए और प्रतापनगर में आपके साथ उनकी भेंट हुई। नांदोद दरबार के दीवान वहीं आपके स्वागतार्थ आये थे।
वहाँ से मुनिराज श्री हंसविजयजी, पंन्यासजी श्री संपतविजयजी और आप नांदोद के लिए रवाना हुए। आपके सम्मानार्थ डभोई का संघ व भजनमण्डली भी शामिल थी। जुलूस के साथ आपका प्रवेश हुआ।
नांदोद महाराजा ने व्याख्यान के लिए एक सुन्दर मण्डप तैयार करवाया था। दरबार ने आप तीनों मुनिराजों को सादर वन्दना की और उच्च आसन पर विराजमान किया। महाराजा अन्य श्रोताओं के साथ दरी पर ही विराज गये। जब कुर्सी पर बैठने के लिए कहा गया तो दरवार ने फरमाया-"सन्तों के दरबार में सभी समान हैं। यहाँ बड़े छोटे का कोई भेद नहीं।"
आपने लगातार आठ दिन तक "मनुष्यता क्या है, और कैसे प्राप्त होती है ?” आदि पर व्याख्यान दिये। व्याख्यान को सुनकर महाराजा नांदोद ने कहा-"गुरुदेव ! मेरी उम्र में यह पहला ही अवसर है कि मैंने इतनी देर तक बैठ कर व्याख्यान सुना है। मैंने अनेक व्याख्यान मुने हैं परन्तु आज तक इतने मधुर, गंभीर और
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