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आपने फरमाया - - " बेशक ! परन्तु तुम खुद ही विचार हो । अभी तो पंजाब में आये ही हैं । तत्काल उधर को कैसे जा सकते हैं ? हां, यदि तुम हिम्मत करके पहुँचो तो उधर का काम भी सुधर जाय । ”
आपकी आज्ञा को शिरोधार्य करके श्री विजय ललित सूरिजी महाराज संवत् १६८० मागसर वदि २ ( कार्त्तिक वदि २ गुज़राती ) को होशियारपुर से रवाना हुए । निरन्तर लम्बा विहार करके वे लगभग ग्यारह सौ मील की पैदल यात्रा करते हुए ज्येष्ठ शुद्धि में बंबई पहुँचे ।
आपने महा जैन विद्यालय के ट्रस्टियों को पत्र भेजा और लिखा कि “ तुम्हारी प्रार्थना को मान देकर ललितविजयजी को भेजा है, मुझे पूरा २ विश्वास है कि जैसा उस विद्यालय के साथ मेरा हार्दिक प्रेम है, वैसा ही उनका है ।"
श्री ललितविजयजी महा० बंबई पधारे। बंबई के श्रीसंघ ने उनका खूब स्वागत किया। बैंड बाजे और कई जुलूस के उपकरणों द्वारा उनका नगर प्रवेश हुआ। श्री ललिन विजयजी महाराज आपके आदेश को ईश्वरीय आदेश समझ कर बंबई पधारे थे । अतः इष्ट कार्य प्रारम्भ हुआ ।
इधर हमारे चरित्रनायक ने कई दिनों से एक अभिग्रह ( प्रण ) ले रक्खा था । वह यह था कि "गुरु महाराज ( श्री आत्मारामजी ) के नाम पर एक संस्था
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