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था कि "गुरुदेव ! १० साल हुए जब से यह विद्यालय खुला है, आपकी कृपा से सुचारु रूप से चल रहा है, किन्तु अभी तक पूर्णतया पनपने नहीं पाया है। इसका कारण यह है कि अभी तक इसके लिए निज का मकान नहीं है। स्वकीय मकान के न होने से सालाना १८०००) रु. की रकम किराये में विद्यालय को देनी पड़ती है। आप जब तक इस ओर दृष्टि न देंगे यही दशा बनी रहेगी। आपके शिष्यों में यदि कोई ऐसा पक्की लगन का साधु हो जो हमारी नाव को पार लगादे तो कृपाकर ऐसे किसो साधु को यहाँ भेजें।" ।
पत्र को पढ़ते ही आप विचार समुद्र में निमग्न होगये। आपके परम शिष्य श्रीमद् ललितविजयजो आपके सन्मुख आ करके बोले- "गुरु-देव ! आज मालूम होता है आप किसी गहन विचार में हैं, क्या मैं अज्ञ उसको नहीं जान सकता ? जैसा भी हो कृपा करके मुझे फरमावें ।"
आपने गम्भीर व ओजस्विनी वाणी में कहा-'बंबई से श्री महावीर जैन विद्यालय के ट्रस्टियों का पत्र आया है । लो पढ़ो और हिम्मत हो तो यथा शक्ति हाथ बटाओ।”
आपके शिष्यरन ने पत्र पढ़ा और निवेदन किया कि "पधारिए, यह सेवक हर तरह से आपकी सेवा में रह कर यथा शक्ति भक्ति करने को तैयार है।"
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