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आचार्यश्री भ्रातचन्द्रमूरिग्रन्थमाला पुस्तक ३२ थी ३९
श्रीजैनराससंग्रहः
प्रथमभागः ॥
संग्राहकःप्रातःस्मरणीय पू० आचार्यदेव
जं० यु०प्र० भ० ज० भ०श्रीभ्रातचन्द्रसूरीश्वरजी साहेबना शिष्यमुनिश्री सागरचन्द्रजी.
की. १-०-०
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आचार्य श्रीभ्रातृचन्द्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक-३२ थी ३९. गपुरीयवृहत्तपागच्छाधिराजश्रीपार्श्वचन्द्रसूरि
सद्गुरुभ्यो नमः ॥ . श्रीजैनरास-संग्रहः प्रथमभागः॥
संग्राहक तथा संशोधक :मुनिराज श्रीसागरचन्द्रजी महाराज.
प्रकाशक :श्रीपार्श्वचंद्रसूरिगच्छीयश्रीजैनहठीसिंगसरस्वतिसभा तरफथी शाह गोकलदास मंगलदास.
लुहारनी पोळ-अमदावाद.
आ पुस्तक श्री 'उत्कृष्ट ' मूद्रणालयमां पा. पुरसोत्तम शंकरदासे
छाप्यु. रीचीरोड-अमदावाद.
वि. सं. १९८७.
प्रथमावृत्तिः प्रत २५०. सन १९३०.
मूल्य रु. १-०-० पोस्टेज अळग.
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॥ श्रीभ्रातृचन्द्रसूरिषट्पदी ॥ "ब्रजराज आज साँवरो बंसी वजा गयो” इत्यनेन रागेण गीयते. श्रीभ्रातृचन्द्रसूरिराजमर्थदायकं । भजस्व हे सखे ! गुरुं विरागिनायकम् ॥टेर॥ संसारमेतमुज्झितुं समीहसे यदा । मुक्तिं च यातुमिच्छसि प्रमोदतस्तदा॥श्रीभ्रातृ०॥१ प्रवेशमीहसे यदा धियो निवेशने । तदा मनः प्रसारयेममोपदेशने॥श्रीभ्रातृचंद्र॥२॥ करालकाल एष संनिधौ समागतः । किमीक्षसे विनश्वरं फलं हि रागतः॥श्रीभ्रातृचंद्र॥३ विहाय कर्म शास्त्रमर्म धर्मकर्मणे। ग्रहीतुमीहसे यदा तदा सुशर्मणे ॥श्रीभ्रातृचंद्र॥४॥ श्रीपार्श्वचन्द्रसूरिराजवंशदीपकं । सुमुक्तिराजधानिकाध्वनःसमीपकम्॥श्रीभ्रातृ०॥५ तपःप्रकर्षनिर्जितोरुपञ्चसायकं । महानिदेशनासुधारसप्रपायकम् ॥श्रीभ्रातृचंद्र ॥६॥ नित्यानन्देन रचिता भाईलालेन गापिता । आचार्यभ्रातृचन्द्रस्य षट्पद्यास्तां मुखाम्बुजे ॥७॥ १ समीपयतीति समीपकस्त-मुक्तिराजधान्याः सामीप्यदर्शकम्.
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॥ श्रीभ्रातृचन्द्रसूरीश्वरस्तुतिः ॥ श्रीपार्श्वचंद्रसूरीन्द्र नागपुरीन्द्र तपगण नभमणी, तस पट्टपरंपर गणधुरंधर हेमचंद्रमूरि गुणी । निग्रंथ गुरु तस पाटराजे आज गाजे मुनिवरा, भवि भक्तिभावे नमो निशदिन भ्रातृचंद्र सूरीश्वरा. १ छे शांत दांत महंत किरियापात्र समता सागरु, पंडितप्रवर विद्वान् बुद्धिनिधान विद्या आगरु । अघ ओघवारक महाप्रभावक धर्मधोरी धुरंधरा, भवि भक्तिभावे नमो निशदिन भ्रातृचंद्र सूरीश्वरा. २ छे भव्य आकृति धर्ममूर्ति प्रभुतुल्य मनोवृत्ति, तप तेज दीपे कदि न छीपे भाग्यनी चढती रती। वली शरद शशिसम सौम्यकांति शांतिवान शुभंकरा, भवि भक्तिभावे नमो निशिदिन भ्रातृचंद्र सूरीश्वरा. ३ गुरु गच्छनायक ज्ञानदायक संघमां लायक मुदा, गत रागरोष न दोष जरिए तोष सुखदुःखमां सदा । छत्रीस गुणगण युक्त सूरीश्वर चरण गुणथी अलंकर्या, भवि भक्तिभावे नमो निशदिन भ्रातृचंद्र सूरीश्वरा. ४ जिण भाण अस्त थतां सूरीश्वर ज्ञानदीप प्रकाशता, मिथ्यांधकार विकार टाळी भविकजन प्रतिबोधता । शुभच्छंद सांकळचंद कहे पावनकरी भारतधरा, भवि भक्तिभावे नमो निशदिन भ्रातृचंद्र सूरीश्वरा. ५
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समर्पणपत्रिका.
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जगतश्रेष्ठिगुरु पूज्यपादश्रीहर्षचंद्रसूरीश्वरचरणानुचर
__पंडितप्रवरश्रीमुक्तिचंद्रगणिसुशिष्यश्रीमन्नागपुरीय-बृहत्तपगच्छाधिराज-युगप्रवराचार्य जंगमतीर्थराजतुल्य-सहस्राष्टश्रीयुत-परमपूज्य सद्गुरु-भट्टारक-श्रीभ्रातृवंद्रसूरीश्वर महाराज !
आप श्रीमान् सेवक जनमनवांछितपूरक कल्पवृक्षसदृश हता, सत्यप्रवचनोपदेष्टा होवाथी भविजीवोद्धारक -भविजनतारकप्रवहणरूप हता, प्राचीन जैनशैली मुजब विधिपरंपरा पदधारक शुद्धक्रियानुष्ठानवंत हता, शांत रसना समुद्र, सुरूपगुणाकर, वचनातिशयवंत, चारित्रपात्रचूडामणि, कुमतांधकारनभोमणि हता, अने मुनिजन मनमानसहंस होइ उग्रविहार युक्त भारतभूमंडलमां विचरी स्वपरनुं सदा कल्याण कर्या करता हता. इत्यादि प्रातःस्मरणीय सद्गुणोथी लोभाइ आकर्षायला मनोभावसह, आप परमोपकारी गुरुराजना सद्गुणोनुं
सदैव स्मरण रहेवा हितार्थ आ "श्रीजैनरास संग्रहः । प्रथमभागः" नामक परम लाभदायि पुस्तक समर्पण
करी अत्यानंद पामुं हुं ते आप सेवक श्रेयकारी मा स्वीकारी लइ आभारी करशोजी ! SaE93:CENSE:GOJAE
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जगत्प्रेष्ठिगुरु श्रीहर्षचंद्रसूरीश्वरचरणानुचरपंडितप्रवर महर्षि श्रीमुक्तिचंद्रगणिसुशिष्य
श्रीमनागपुरीयवृहत्तपागजाधिराजधानातचन्द्रमरिसहरूम्यानमा युगप्रवर भट्टारकोत्तम भ० पूज्यपाद जैनाचार्यवर्यश्रीभातृचंद्रसूरीश्वरजी महाराज.
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उपकार.
श्रीजगत् श्रेष्ठिगुरुपूज्यपादशास्त्रविशारद श्रीहर्षचंद्र - सूरीश्वरचरणोपाशकविनेयपंडितप्रवरमहर्षि
श्रीमुक्तिचंद्रगणिसुशिष्यपरमपूज्य प्रातःस्मरणीय परमगुणान्वित स्वच्छ मति गति रति (भाग्य) यशवंत गच्छपति श्रीमान् भट्टारक श्री भ्रातृचंद्रसूरीश्वरजी महाराजना सुविनयी सुशिष्य साक्षर परमोपकारी चारित्र पात्र चूडामणी शांतदांतादि मुनिगुणगणयुक्त पू० मुनिराज श्री सागरचंद्रजी महाराज जेओ साहेब आ परम लाभकारी पुस्तकने प्रसिद्धिमा लाववा हितार्थ अलग अलग स्थळेथी परमोपयोगी रासाओनो संग्रह एकत्र करी लखावी सुधारी आपवामां अवर्णनीय काळजीपूर्वक ध्यान आपी पोताना पठन पाठन क्रियानुष्ठानादि करवाना महान् कीमती समयनो भोग आप्यो छे अने भव्यजीवोना आत्मकल्याणनो मार्ग खुल्लो करवा खंत राखी छे, ते माटे शुद्धांत:करण पुरःसर तेओश्रीनो उपकार मानी अत्यानंद पासुं छु !
ली. प्रकाशक.
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अनुक्रमणिका.
मुनिराज श्रीविमलचारित्रगणिकृत - १ - श्री अंजनासुंदरी चरित्र - रास.
महर्षिश्रीब्रह्ममुनिकृत
२- श्रीचारप्रत्येकबुद्ध चरित्र - रास.
पृष्ट १ थी ४२ शुधीमां
पृष्ठ ४३ थी ७८ ss
वाचकवर श्रीकर्मचंद्रगणिकृत -
३ - मोहचरित्रगर्भित - अढारनात्रा चोपाई. पृष्ट ७९ थी ९५ SS महोपाध्याय श्री कर्मचंद्रगणिकृत
४- श्रीरोहिणीनो चोपाई बद्ध - रास. पृष्ट ९६ थो १४७ SS पंडितप्रवर श्री महर्षि निहालचंद्र कविवरकृत -
जगत शेठाणी श्रीमाणिकदेवी रास. पृष्ट १४८ थी १६० पर्यन्त
कविवर ऋषिश्रीदलभकृत
(६- महातपस्वि श्रीपूंजामुनिनो रास. पृष्ट १६१ थी १६३ पर्यन्त
वाचनाचार्यश्रीसमयसुंदरगणिकृत -
(७)महातपस्वि श्रीपूंजामुनिनो रास. पृष्ट १६४ थी १६७ पर्यन्त आचार्यवर्यश्रीसमर चंद्रसूरीश्वरजी महाराजकृत
८- असाधुगुणरससमुच्चय - रास. पृष्ट १६८ थी २२३ पर्यन्त
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प्रस्तावना.
श्रीजैनरास संग्रह; प्रथम भागमां आठ रास आवेला छे. ते संबंधी अवश्य जाणवा जोग्य लेसमात्र अत्रे जणाववा इच्छा छे विशेष तो ते ते ग्रन्थो वांचवाथी वाचक पोते स्व बुद्धि अनुसारे जाणसे.
१-श्रीअंजनासुंदरी चरित्र-रास. पृष्ट १ थी ४२ शुधीमां आवेल छे. तेना कर्ता-श्रीमन्नागपुरीयवृहत्तपागच्छीय महामहोपाध्याय श्रीरत्नचारित्रगणिजीना शिष्यरत्न साक्षर मुनिराज श्रीविमलचारित्रजी छे. आ चोपाई-रासनी रचना तेमणे सात जिनालयथी शोभतु प्रगोर नगर 'नगीना सट्टेर' मां विक्रम संवत् १६६३ ना मागसर मासना बीज दिन गुरुवारे करी छे. तेनी सर्व गाथा ४०४ छे. पूर्व भवनों श्री (जिन प्रतिमाजीनी आशातना करवाथी केवा प्रकारना कर्म -बंधाय छे अने तेथी केवी रीतना दुःखो जीवात्माने भोगववा पडे, छे ! तेनो चितार हाबेहुब कविवरे आलेखेलो छे. वली पवित्र अने दुर्गति नाशकरनार शीलवत् पालन करवाथी सर्व दुःखोनो नाश तथा सर्व सुखोनी प्राप्ति थाय छे, तेनुं वर्णन ग्रन्थकारे अदभुत करेल छे. कविता घणी सुंदर अने सरल छे, तेनी साथे उत्तम भाववाही पण छे. कविवरे गुजराती भाषामां काव्यबद्ध रास रूपे रचना करी पोतानुं पांडित्य
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प्रगटरूपे जणावी आपेल छे. आ ग्रन्थकारे बीजा पण ग्रन्थ रत्नो रच्या हशे ? पण ते मने उपलब्ध थया नथी, किंतु तेमना रचेला स्तवन, सज्झाय, गुरुपद महोत्सवगुणभास विगेरे जोवामां आवे छे. तेमनी जन्मभूमी विगेरेनो ईतीहास जाणवामां आवेल नथी. आ रासनी रचना करनार मुनिराज चारित्रपात्र आत्मार्थी हता.
२ - श्रीचारप्रत्येकबुद्धचरित्र - रास. पृष्ट ४३ थी ७८ शुधीमां छे. तेना कर्ता श्रीमन्नागपुरीय बृहत्तपागच्छीय युग(मवर क्रियाउद्धारकरी शुद्ध मुनिपणुं प्रवर्तावनार सिथिलाचारने दूर करनार श्रीजैन सिद्धान्तानुसारक्रिया मार्गनो निखालश हृदये उपदेश करनार बालब्रह्मचारी परमपूज्य श्रीपार्श्व चंद्र सूरीश्वरजी महाराजना शिष्य शास्त्रविशारद महर्षि श्रीब्रह्ममुनि छे, तेमणे विक्रम संवत १५९४ वर्षे आ रासनी रचना करी छे. श्री उत्तराध्ययन सूत्र तथा वृत्तिथी आ चोपाई ) रासने रच्यो छे / आचारे प्रत्येकबुद्ध समान आयुष्यवाला 'साथे दीक्षा तथा साथै केवलज्ञान तथा साथे मोक्ष गएला छे. गुजराती भाषामा काव्यबंध आ चोपाईनी रचना करेलछे. कविता सरल सादी अने भावाही छे. एमणे ग्रन्थो घणा कर्या छे. जेवा के - १ - श्रीजंबूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्तिः, १ - दशाश्रुतस्कंध सूत्रवृत्तिः, ३ - श्रीपाक्षिकसूत्रवृत्तिः, ४ - प्रतिमास्थापनप्रबंध, ५ - श्री सुमति नागिनो रास, ६ - सैद्धांतिक विचार, ७ - चोपर्वीव्याख्या, ८ सुधर्मागच्छ परीक्षा, ९- उत्तराध्ययन सूत्रनी स्वाध्यायो १०
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अढार पापस्थानवर्जननी सझायो. ११-परमेश्वरप्राघूर्णक स्तवन, १२-श्रीनेमनाथजी विवाहलो, १३-श्रीपार्श्वनाथजी विवाहलो, १४-साधुवंदना, १५-श्रीनेमिनाथ प्रबंध, १६मृगापुत्रचरित्र, १७-श्रीनेमिधवल, इत्यादिक ग्रन्थो तथा स्तवनो,स्तुतियो, नमस्कारो, पदो तथा सज्झायो विगेरे घj कर्यु छे. तेमनी जन्मभूमि मालवा देशमां आंजणोट नगरमां सोलंकी क्षत्रीयवीर पद्मदेवराय पीता तथा सीतादेवी माताने त्यां जन्म थयो हतो. अने जेमणे किशोरवयमांज पूर्वसंचित पुन्यप्रकृति संयोग वश पोताना भाइ साथे माता पितानी रजा 'मेलव्या. शिवाय द्वारकाजीनी यात्रा करवा माटे प्रयाण कयु हतुं "शुभात् शुभं जायते" एवं थयु के मार्गे चालतां गिरनार तीर्थना प्रदेशमा पूर्व पुन्योदयना प्रभावे परमपूज्य जैनाचार्य श्रीपार्थचंद्र सूरीश्वरजी महाराजनी भेट थइ मूरिजीने वंदना करी पोते तेनी अगाडी बेठा, एटले मूरिवर्ये हलकी योग्य जीव जाणीने शुद्ध धर्मोपदेशनो लाभ आप्यो एथी ते वचनामृत पान करतां मनमां वैराग्यभावने जन्म मल्यो, एटलुज नहीं ते वैराग्ये सत्य वैराग्यनी दीक्षा लेवानी तेमने फरज पाडी के तेमणे पण द्वारका जवातुं द्वार बंध करी जन्मोद्धार करवानुं द्वार खोलवा मन दीg. धार्यु हतुं शुं अने थयुं शुं. “ वाह ! भवितव्यता ? तारी प्रबलता ?' एटले के धार्यो हतो द्वारका दर्शननो लाभ अने शुद्ध चारित्रनो लाभ थयो. गुरुश्रीए नाम राख्यु ब्रह्ममुनि त्यारपछी मुनि
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धर्म योग्य किया अनुष्ठानना सूत्रोनो अभ्यास कराव्यो अनुक्रमे विद्वान् थया, अने घणा ग्रन्थो तेमणे लख्या, पछीथी शिद्धामा फरक पडयो तेथी सुधर्मागच्छनी स्थापना करी, 'सूरीश्वर गुरुराजे तेमने बहु समजाया पण स्व आग्रह तेमणे छोडयो नहीं. जीवने मोहराजा अनेक फंदोमां फसाववा सदा सावचेत रह्या करे छे, तेना सकंजामांथी बचq सहेलु नथी, अप्रमादी सुगुरु वचनानुयायी श्री जिन प्रवचनानुरागी आत्मार्थी विरल कोइ सदा सावधानतावालो स्वश्रेय साधी शके छे. आ चरित्रना कर्ता वैरागी निरंतर उद्योगी मूरवीरता पूर्वक जीवन जीवनारा हता. पोताना गुरुराज पासे सर्व सिद्धांतोनो अभ्यास को इतो, तेथी प्रखर विद्वानोनी, पंक्तिना विद्वान् हता. सिद्धांतोनी टीकाओ जेवा महान्कार्यमां पण तेमणे प्रयत्न करेल छे. श्रेष्ठ कविता शक्तिने धारण करनार हता, ऐतीहासिक ज्ञानमां विशारद हता. केटलाकोए एमने श्रीविजयदेवमूरिजीना शिष्य मान्यां छे अने विद्यागुरु तरिके श्रीपार्धचंद्रसूरीश्वरजी हता, एम जणावे छे. पण पोते तो पोताना गुरू तरीके श्रीपाश्र्धचंद्रसूरीश्वरजी छे एमज ग्रन्थोमां लखे छे.
३-मोहचरित्र गर्भित अढार नात्रा चोपाई. पृष्ट ७९थी९५ शुधीमां छे. तेना कर्ता-श्रीमन्नागपुरीयवृहत्तपागच्छाधिराज श्रीपार्श्वचंद्रमूरिपरंपरानुगत श्रीराजचंद्रसरि शिष्य उपाध्याय श्रीहीरानंदचंद्रगणिनाप्रशिष्य महामहोपाध्याय श्रीधर्मसिंहगणिना शिष्य वाचकवर श्रीकर्मचन्द्रगुणी छे. आ चोपाई-रासनी
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रचना तेमणे पटणानगर मध्ये स्वपर कल्याणना कारणे विक्रम संवत १७६२ ना वर्षे मागसर वदी पंचमी गुरुवार सिद्धियोगमां करेल छे, पोताना हाथनी लखेल प्रतिमां ते प्रमाणे अंतमां लखेल छे. आ चरित्रनी सर्व गाथा १७० छे. श्रीजिनेश्वर परमात्माओए कर्मनी गति बहु विशमी बतावेल छे तेनो स्फोट करता कुबेरदत्त अने कुबेरदत्तानो जीवनवृतांत वर्णवता कविवरे घणीज असरकारक शैलीथी गुजराती भाषामां पद्यबंध भाववाही कवितामां गुंथेल छे. तेनी मझाह तो वांचनारज जाणी शके. मोहनीय कर्मनी स्वरूप विशेषता पूर्वक वर्णव्यो छे. आ रासना कर्ता संस्कृत, पाकृत भाषामां सारा विद्वान् हता. तेमणे प्राकृत गाथा बद्ध सदोपदेशनामा ग्रन्थ तथा प्राकृत गाथाबद्ध कलिकालस्वरूपकथनशतक नामा ग्रन्थ रच्यो छे. ए बे ग्रन्थो तो मारी पासे मोजुद छ.. ते शिवाय पण तेमणे सारा सारा ग्रन्थो रच्या हशे ? आध्यात्मिक पदो-स्तवनो सज्झायो पण तेमना करेला जोवामां आवे छे. तेमज घणा ग्रन्थो तेमणे लख्या छे, तेथी सारा लेखक पण हता, तेमनो जीवन वैराग्य वासित आध्यात्मिक हतुं. तेओ मारवाड, पूर्व, बंगाल विगेरे देशोमां विशेष विचर्या छे. तेमनो जीवन ईतीहास विशेष जाणवामां आवेल नथी.
४-श्रीरोहिणीनो चोपाई बद्ध-रास. पृष्ट ९६थी१४७ शुधीमां आवेल छे. तेना कर्ता-श्रीनागपुरीयवृहत्तपागच्छ गगनांगणनभोमणी श्रीपार्श्वचंद्रसूरीश्वर परंपरामां श्रीजयचंद्र
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सूरीश्वर शिष्य वाचकवर श्रीपद्मचंद्रगणिना शिष्यरत्न वाचक श्रीकर्मचन्द्रगणी छे. बीजी प्रतमां लखाण छे के श्रीजयचंद्रसूरीश्वरजी महाराजना शिष्य वाचकवर श्रीप्रमोदचंद्रगणिजीना शिष्य महोपाध्याय श्रीकर्मचंद्रगपनि छे. आबन्ने लेखमां सत्य शुं छे ? ते तपासतां श्रीगौडीपार्श्वजिन स्तवन, गाथा १५नुं छे तेमां पण मुनिराज श्रीपद्मचंद्रगणिशिष्य मुनिकर्मचंद्र ए प्रमाणे बतावेल छे.आ चोपाई-रासनी रचना तेमणे श्रीजालोर नगरमां सोवनगिरि श्रीपार्श्वनाथ जिनेश्वरना प्रसादे-कृपाथी विक्रम संवत् १७३०ना कर्तिक शुदी पंचमी (ज्ञानपंचमी) रविवारना दिवसे श्रीजैनाचार्य पद्मचंद्रसूरीश्वरजीना पटधर ज्ञान तप तेजथी दीपता आचार्यवर्य श्रीमुनिचंद्रसूरीश्वरजीना विजय राज्यमां करेल छे. आ चोपाई--रासनी ढालो २९ छे अने सर्व गाथा ५५५ छे. आ सर्व बीना रासना अंतमां कर्ता पोते लावेला छे. आ रोहिणी चोपाई.-रास ग्रन्थनी रचना " श्रीगौतम पृच्छागन्थ" मां अडतालिश पुन्य पापना फल पूच्छया छे तेमां २९मो पुन्य पाप फलनुं प्रश्न छे-श्री गौतमस्वामी गणधर श्रीवीर परमात्माने बे हाथ जोडीअंजली करी पूच्छयु के हे भगवन् ! श्या कर्मे करीने जीवने खाधुं पीधुं पचे नहि ? जरे नही ? तेना उत्तरमां शासनपति श्रीवीरवर्धमानस्वामि परमात्माए फरमाव्यु के हे गौतम ! श्रमण मुनिमहात्मा अणगारने एवो अहार आपे के जे आहारने कोई खावा पीवा इच्छे नही, वांछे नही, जेनो नाम पण कोइ ले नही-एवो
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अनिष्ट, असार, उच्छिष्ट, छांडवा योग्य आहार आपे ते जीव आभव परभवमां भमतां कृतदुष्टकर्मना प्रतापे दुःखोने ओगवतां दुःखोनो अंत छेह तप धर्म विना पामे नही, रोहिणी नो जीव दुर्गधानी माफक, ए स्वरूपने वर्णवता रासकारे आ ग्रन्थनी उत्पत्तिना मूल श्रीगौतमपृच्छा ग्रन्थ जणावेल छे. विषय कषायमां राचीमाची रहेल जीवात्मा केवा माला कर्म, बांधे छे तेनो चितार आकर्षक भाषामां चोपाई कर्ताए बहु श्रेष्ठ वर्णन करेल छे. आ चोपाईनी कविता सरल रागरागणी देशीमां गुजराती भाषामां कचित् मरुधर भाषामां काव्य बद्ध रूपे रची छे. ते ते भाव लाववामां अदभुत पोतानी कविता शक्ति बतावी आपेल छे, आ कविनी कवितामां प्रसादभाववाही पणुं जल्की रहेल छे. आकविवरे बीजा ग्रन्थो बनाव्या हशे ? पण तेनी प्राप्ति हजु शुधी थइ नथी. एमना करेला स्तवन पदादि जोवामां आवे छे. आ कविवर गुजरात, मारवाड, पूर्व, बंगाल, मेवाड, मालवा विगेरे देशोमां विचर्या छे. शुद्ध मुनिपणुं पालन करेल छे. तेमनी जन्मभूमि वगेरेन ईतीहास उपलब्ध थएल नथी, तेथी लखवामां लाचार छु.
V -जगत शेठाणी श्रीमाणेकदेवी-रासः ' पृष्ट १४८थी पृष्ट १६० पर्यन्त छे. तेना कर्ता-नागपुरीयकृहत्तपागच्छना अग्रगण्य आचार्य महाराज श्रीपार्श्वचंद्रसूरीश्वरजीनी परंपरामा थएल परमपूज्य वाचकशेखर श्रीहर्षचंद्रजी महाराजना लघु गुरुबांधव पंडित प्रवर मुनिवर श्रीनिहालचंद्र कविवर छे. आर
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रासनी रचना तेमणे वि. सं. १७९८ ना पोषवदि १३ से मकसूदावाद मध्ये करेल छे. आ रासमां सर्वगाथानी संख्या १२८ नी छे. आ रासना रचनारे सतीशिरोमणी (श्रीमाणेकदेवीने प्रत्यक्ष तप. ज्ञप दानादिक विशिष्ठ गुण गणालंकृत जोईने पोतानी जीभने पवित्र करवानी खातर अने तेमनो पवित्र यश शांभली मनमां बहु आनंद थयो तेथी आ रासनी रचना करी छे. आमां छता गुणोनो वर्णन करवामां आवेल छे. पण भाट चारणनी माफक रजनो गज करवामां आवेल नथी. गुणिजनोना गुणने वर्णववा तेथी स्वआत्मामां अपूर्व जागृति थाए छे. आ रासनी कविता सुंदर सरल अने भाववाही छे. भाषामां काव्यबद्ध तेनी रचना करेली छे. जगतशेठनो ईतीहास बतावी ईतीहासेच्छुओने मोटो उपकार करेल छे. गेलागोत्रीय जगतशेठना वंशजो नागपुरीय वृहत्तपागच्छीय श्रीपार्श्वचंद्रमूरिना चरणोपासक श्रावक तरिके
ओलखाय छे. अने तेमनेज परमगुरु तरिके मानी श्रीजैन धर्मनी उपासना करे छे. तेओए श्रीजैन धर्मनी बहु जाहोजलाली करी छे//आ ग्रन्थकारे बीजा पण ग्रन्थो:रच्या छे. तेमा पहेलो ग्रन्थः-ब्रह्मवावनी-ओंकारवावनीना नामे पण ओलखाय छे. तेनी रचना वि. सं. १८०१ ना कार्तिक शुदी २ ना दिवसे बंगदेशमां आवेल मकमदावादमां करेल छे. सवैया रूपे बावन नी संख्यामां छे. अने ते सुरदीपिकादिप्रकरणसंग्रहमां छपाइ गएल छे. जाणवानी इच्छावालाए त्यांथी जोइ लेवू.
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बीजो ग्रन्थ-'जीववीचार भाषा' नामनो छे. तेनी रचना वि. सं. १८०६ना चैत्र शुदी बीजने बुधवारे मकसूदावाद
नगरमां करी छे. अने तेनी सर्व गाथा १८६ नी संख्यामां छे. ‘त्रीजो ग्रन्थः- श्रीनवतत्व भाषा' नामनो छे. तेनी रचना वि. सं. १८०७ ना माघसुदी ५ शुभवार ग्रहलग्नमां ममदावाद मध्ये करेल छे. चोथो ग्रन्थ 'बंगालादेशकी गज़ल' नामनोछे. जेनी गाथा ५५ छे. रच्यानी संवत् जणाववामां आवेल नथी. ___आ ग्रन्थकारे विजापण ग्रन्थ रत्नो रच्या हशे ? पण जोवामां आव्या नथी. तेमनी जन्म भूमि विगेरेनो ईतीहास जाणवामां आवेल नथी. तेमनो विहार विशेषे करी पूर्व, बंगालामां थएल जणाय छे. VG-महातपस्वी श्रीपूंजामुनिनो रास,--पृष्ट १६१थी१६३ शुधीमां आवेल छे. तेना कर्ता-श्रीनागपुरीयवृहत्तपागच्छ गगनांगणनभोमणिश्रीपार्श्वचंद्रसूरीश्वरसंतानीय मुनिमबर श्री हीरराज विनेय शिष्य ऋषि दलभट्ट छे. तेनी सर्व गाथा २१. छे. कविता सूरल, मधुर भाववाही पद्यबंध गुजराती भाषामां बनावी छे. आ ग्रन्थकारे बीजा पण ग्रन्थो बनाव्या हशे ? पण जोवामां आवेल नथी. ग्रन्थकर्तानो जीवन ईतीहास ते पण जाणवामां आवेल नथी.
Viमहातपस्वी श्रीपूजामुनिनो-राश पृष्ट १६४ थी १६७ पर्यन्तमां आवेल छे. तेना कर्ता-श्रीखरतरगच्छीय पंडितप्रवर मुनिगुणगणालंकृत वाचनाचार्य श्रीसमयमंदरगणीछे.
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आ रासनी रचना कविवरे वि. सं. १६९८ मां श्रावण सुदी पंचमीये करले छे. आ रासनी सर्वगाथा ३६ छे. मध्यस्थ वृत्तिवाला पूज्य कविवरे आ रास रचवामां पोताना हृदयनी विशालता, गुणग्राहिता, उपबृंहता विगेरे गुणोने प्रगट रूपे बतावी आपेल छे. आजनी माफक मताग्रही ए आत्मा नहता, परंतु गुणग्राही - गुणी प्रते नमस्कार करनारा एवा | उच्चकोटीना आत्मा हता आ रासना रचनार पूज्य वाचनाचार्ये संस्कृत, प्राकृत, गुजराती भाषामां घणा ग्रन्थो लख्या छे. तेमज स्तवन, स्तुति, सज्झाय, विनति, पदो, छंदो विगेरे पण घणा रच्या छे. आ रास तेमणे गुजराती भाषामां काव्यबंध रचेल छे. कविता सरल, मीठी, घणी सुंदर अने भावाही छे. आ रासना रचयिता कविवरनो ईतीहास 'श्रीयुत साक्षर मोहनलाल द. देशाइए "समय सुंदर" नामना निबंधमां, विस्तारथी आपेल छे. जाणवानी इच्छावालाओए त्यांथी वांची जोj. अत्रे एक बीना अवश्य उपयोगी होवाथी जणाववानी जरुर छे: - आरामशोभा चरित्र - चोपाईना कर्ता पूंजाऋषि अने महाप्रभावक तपस्वी पंजाऋषि ए बन्ने मुनियो जुदा जुदा छे, कारण के जुदा जुदा कालमां थएला छे. तेमना गुरुओ पण जुदा जुदा छे, आरामशोभा चोपाईंना कर्ता पूंजा ऋषि वाचकवर श्रीहंस चंद्रगणिना शिष्य छे। अने महाप्रभावक तपस्वी पूजाऋषि श्रीविमलचंदसूरीश्वरजीना शिष्य छे. प्रथमना पूजाऋषि आरामशोभाचरित्र - चोपाईना कर्ता छे. तेमणे
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ते चोपाई वि. सं. १६५२ मां रची छे. अने ज्यारे महा प्रभावक तपस्वी पूंजाऋषि बीजानी दीक्षा विक्रम सं. १६७० मां थएल छे. आवी जुदी जुदी वीना खुलाशाथी जणाती छता पं. लालचंदभाइ भगवानदासे आरामशोभाचरित्रनी प्रस्तावनामां वन्ने पूंजाऋषिओने एक गणी अनेक कल्पनाओ करी छे. भ्रांतिकारक कल्पनाओ करवामां कारण श्रीमन्नागपुरीयवृहत्तपागच्छनी पट्टावलीमा उपाध्याय श्रीमेघराजगणिनी बीना एकना बदले बीजाना पाटमां लेखके लखेल होवाथी, एटला मात्रथी पट्टावलीपर तथा श्रीयुत साक्षर मोहनलाल (द. देशाइए लखेल — समयसुंदर' निबंधना पर अविश्वास धारण करीने महाप्रभावक तपस्वी पूंजामुनिवरनो संबंध कल्पितमानी लेवो ए कोइ रीते ईतीहास वेत्ताओने बंध बेसतु थइ शके नही, अनाभोगथी कोइपण बीना लेखके आगल पाछल लखी होय एटला मात्रथी सचोट पुरावावाली बीजी बीनाओ कल्पित मानी लेवी अने तेना उपर अनेक तर्क वितर्को करवा ते सुज्ञ ईतीहासवेत्ताओने शोभास्पद नथी. टुंकामां | एटलं जणावी पं. लालचंदभाइ भगवानदासने हु भलामण करं छु के समय परत्वे आ बीनाने तमो शुधारी लेवा प्रयत्न करशो. वली आ लेख उपयोगी होवाथी अत्रे आपवामां । आवेल छे. राजनगर-अमदावाद शामलानी पोळमां शासन) पति श्रीमहावीर स्वामिजीनो देरासरजी छे तेमां 'महाप्रभा-1 4क तपस्वीजी श्रीपूंजामुनिवरनी पादुका छे. तेमा लेख,
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आ प्रमाणे छे ' ॥ ६० ॥ संवत १७०८ वर्षे कार्त्तिक सुदि १ शनौ निर्वाण पाम्या | श्रीपार्श्व चंद्रसूरिगच्छे श्रीविमलचंदसू रिशिष्यं ऋषिश्रीपंजाना पादुका कारापितं । मलिक रायमल्ल, तत्सूत मलिक इंद्रजी, तत्सूत मलिक सूरचंद, तत्सूत शभाचंद श्राविका धना कारापितं || ऋषि पूंजानो निर्वाण वरोडा मध्ये ॥ तपनी संख्या ११३२९ उपवास कीधा तप परिसह अभिग्रह कीधा । साहाजिचंदे कीधा । ' ते पादुका हाल पण प्रतिदिन पूजाय छे. भव्यात्माओ प्रेमथी तेनी उपासना करे छे.
८ - श्री साधुगुणरससमुच्चय - रास. पृष्ट १६८ थी २२३ पर्यन्तमां आवेल छे. तेना कर्ता - श्रीनागपूरी यह हत्तपागच्छ नायक युगप्रधान वीरुधारक श्रीपार्श्व चंद्रसूरीश्वरजी महाराजना मुख्य पट्टधर वैराग्यरंगतरंगितात्मा बालब्रह्मचारी श्रीसमरचंद्रसूरीश्वरजी छे. तेनी सर्वगाथा ४३४ छे. आ ग्रन्थमां पद्मबंध गुजराती भाषामां सरल भाववादी कविता रची छे, अनेक मुनियोना भेद बताव्या छे तेमज मुनियोना अनेक गुणोनो वर्णन करेल छे. बार उपांग सूत्रोमां प्रथम उपांगसूत्र श्रीबुवाई सूत्र छे तेमांथी संक्षेप रूपे तेनो उद्धार करेल छे. पूज्यसूरीश्वरे वीजा पण ग्रन्थो बनाव्या छे. उपदेशसार रत्नकोश, ब्रह्मचर्यद्विपंचासिका. सत्तरभेदी पूजा आराधना. पूजाचोविशी. विगेरे स्तवन, स्तुतियो नमस्कारो, सज्झायो, पदो घणा रचेला तेमना जोवामां आवे छे. एमनो संक्षिप्त जीवन इतीहास आ प्रमाणे छे एमनो जन्म अणहिलपुर
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पाटणमा श्रीमालीज्ञातिय दोशी भीमाशापीता, व्हालादे माता तेणीनी कूखथी सं. १५६० ना मागसर सुदि ११दिने थयो हतो, अने दीक्षा सं. १५७५ना मागर सुदि ५ दिने थइ हती. वि. सं. १५९९ मां उपाध्याय पद आपवामां आव्यो हतो, अने सूरिपद सं. १६०४मां आपवामां आव्यो हतो, सं. १६२६मां खंभातबंदर नगरमां स्वर्गवासी थया हता. आ . पूज्य आचार्यवर्थ आत्मार्थी हता. निर्ग्रन्थोमां चूडामणीनुं बीरुद धारण करनार हता. आ ग्रन्थ तेमणे वि. सं. १५९५ ना कार्तिकमासमां रच्यो हतो. एम ग्रन्थना अंतमां पोतेज जणावेल छे. उपरना आठ ग्रन्थमांथी १ लो-श्रीअंजनासुंदरी चरित्र-रास, २ जो-श्रीचार प्रत्येकबुद्ध चरित्र-रास, ३ जो मोहचरित्रगर्भित-अढारनात्रा चोपाई, ४ थो-जगतशेठाणी श्रीमाणेकदेवी-रास, आ चार ग्रन्थो विकानेर निवासी पुन्यास्मा सुदेवगुरुभक्तिकारक सुश्रावक बाबु बादरमलजी जसकरणजी रामपुरीयाए पोताना द्रव्य व्ययथी लखाव्या हता. अने श्रीरोहिणीनो चोपाई बद्ध-रास, तथा श्रीसाधुगुणरस समुच्चय, आ बे ग्रन्थो पंडित पूर्णचंद्रसाए लख्या हता, अने तेमणे श्रीरोहिणी चरित्र चोपाई बद्ध रासनी प्रस्तावना लखी हती, तेमज " श्रीसाधुगुणरस समुच्चय" नुं निवेदन पण लख्युं हतुं, ते आ नीचे प्रमाणे जाणवू–उपयोगी होवाथी आपेल छे. ___"तपश्चर्या, तमाम प्रकारनां दुष्कर्मो आधि--व्याधि-उपाधि अने दुर्गतिनो नाश करवा सर्वोत्तम उपाय छे. तपश्चर्या,
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भवभयने नाश करवानो महान् बीजमंत्र छे. तपश्चर्या, कठिन ( कर्मोनी निर्जरा करावानुं सबळ साधन छे. तपश्चर्या, अजरामर पद आपनारो सच्चोट गुरुबोध छे. अने तपश्चर्या, देवदानवर
आदिने स्वाधीन करवामां प्रशंसनीय आकर्षण प्रयोग छ। टुंकामां कहिये तो प्राणिमात्र पोतानी धारेली धारणामा फतेहनो विजय वावटो फरकाववामां फक्त तप एज उत्तमोत्तम तात्कालिक सिद्धिदाता तंत्र छे !
रोहिणीसुंदरी रोहिणीतपना प्रभावथी आवी पडेलां असह्य दुःखोनो अंत आणी महान् सुख संपदानी भोक्ता थइ, एटलंज नहीं पण जेने संसारना संतापोनुज भान थएवं न हतुं जेथी तेना पतिये तेणिने कह्यां करतां करी बताववानोज अख्तरो अखत्यार को हतो. तथापि तपनी सानिध्यताथी कशी पण अडचण न नडतां आनंद मंगल वायो हतो.
रोहिणी तपना महात्म्यांतर्गत साधु मुनिराजनी हेलना करवाथी, दुगंछा धरवाथी, दुष्टको आचरवाथी, गर्व करवाथी अने जैनदीक्षा अंगीकार करवाथी कृत्यानुसार मळतां फलोनी फलश्रुति आदिनु सारिपेठे स्पष्टिकरण कविवरें करेलु छे ते खास ध्यानमां लेवा योग्य छे. तेमज कवितामां रसालंकार आदि सरस रीते वर्णवी भाविकश्रोताओनु लक्ष खींचवा ग्रंथकारे अच्छी खंत धरावेल छे, अने तप महात्म्यने एके अवाजे श्रोतागण कबूल करे तेवीज खुबी दर्शावी ग्रंथनी पूर्णाहुति करी छे. जेथी आ लघु ग्रंथ खास जोवा लायक
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होवाथी प्रसिद्धिमा आणेल छे. आशा छे के प्रेमीपाठको प्रेमपूर्वक ग्रंथने वांची विचारी मनन करी ग्रंथकार, शोधक, मुद्रितकार विगेरे सर्वनो श्रम सफळ करवा उद्युक्त रहेशेज ! ( हमेशां सोनानी कीमत कसोटी, वक्तानी कीमत श्रोतागण,) पुस्तकनी परीक्षा दक्ष परीक्षक अने गुणनी कीमत कदरदान महाशयोज करी शके छे. माटेज आ उत्तम प्राचीन कविता के जेनी छटाभरी रचना वडे मुज्ञ समूहने आनंद मळे तेवी सुद्ध करावी प्रसिद्ध करवा यत्न अमलमा आण्यो छे ते कदरदान साहेबो ध्यानमां लइ तपमहात्म्यमां अने जिनराज प्ररूपित तारक वाणिमा तल्लीन बनी अपूर्व भानंद मेळवशेज !
ली० धर्मोन्नतिचाहक पंडित पूर्णचंद्र शर्मा, "आ साधुगुणरससमुच्चयनी अंदर अरिहंत-आचार्य-उपाध्याय-साधु आदिने शुं शुं व्रत तप, जप आदि करवू जोइये ? अने ते पण केवा विधान सह करवां जोइये ? इत्यादि इत्यादि पुष्कळ बाबतो जैनागमोना दोहन पूर्वक एकत्र करी परमोपकारी श्रीपाचचंद्र सूरीश्वरजीना पटोधर श्रीसमरचंद्र सूरीश्वरजीए भविजीवोना हित माटे प्रकाश करेल छे. . आ पद्यबंध लघु ग्रंथमां महान् ग्रंथोन रहस्यै एटलं बधुं समावी दीधुं छे के तेनुं विवेचन क्या शब्दोमां स्पष्टतापूर्वक करवू ते बाणभट्टनी कादंबरी अवलोकतां पण योग्य शब्दो अथ लागी शकता नथी. मतलब के एवं आ ग्रंथमां गुह्यो
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बाबतोतुं विवेचन छे, अने ते गुरुगम वगर जिनागमनां शुद्ध वचनो भाग्येज पूर्णपणे समजवामां आवी शके तेम छे.
वांच अति हेल छे, पण बांची विचारी मनन करी ते वाक्योमा रहेलं गुप्त तत्वों हाथ करवु ए अत्यंत दुष्कर छे. आ ग्रंथमांनी बाबतो अति उत्तम, महान् उपयोगी, परमोपकारी अने दरेक सुज्ञ साधु समुदायने खास जाणवा योग्य छे माटे गुरु समीप ए पाठवें अवलोकन करी अत्यानंद प्राप्त करवो एज. निवेदक-पं. पूर्णचंद शर्मा."
श्री जगतशेठाणी माणेकदेवी रासनी प्रत तथा साधुगुणरससमुच्चयनीमत पू० आचार्यदेव श्री भ्रातृचंद्रमरीश्वरजी महाराज आश्रित ज्ञान भंडारमाथी मली हती तेना उपरथी लखावी मुद्रित करावेल छे. अने ते शिवायना ग्रन्थोनी प्रतो मारी पासे हती ते उपरथी उतारो करावेल छे. बनता शुधी जुनी भाषा फेरववामां आवेल नथी अने शुधारवामां संपूर्ण कालजी राखवामां आवेल छे छतां पण दृष्टि दोषथी अथवा छापना दोषथी कोइ भूल रहेल होय तो ते सुज्ञ महानुभावोए शुधारी वांचवा अने शूचना करवा प्रयत्नवान थq के जेथी द्वितीय आवृत्तिमां शुधारो थइ शके// ग्रन्थमां विरमगाम निवासी धर्मप्रेमी शेठ खेमचंदभाइ मोतीचंद तरफथी रु. ५० नी सहाय थएल छे, तेमज रु. १० नी सहाय राजनगर सामलानी पोळ निवासी शा. लालभाई जोईताराम तरफथीं अने रु. १० नी सहाय ध्रांगधरा निवासी गांधी जीवणभाई नानजी तरफथी थएल छे. आ ग्रन्थ छपाववामां आर्थिक
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सहाय संपूर्ण न मलवाथी तेनी कींमत कार्यकर्ताओ तरफथी खरच पूर्तिज राखवामां आवे छे.
ली. पंडित प्रवर महर्षि श्रीमुक्तिचन्द्रगणिवरना सुशिष्यप्रातः स्मरणीयविश्ववंद्य पू० आचार्यदेव श्री भ्रातृचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहेबना शिष्य मुनिसागरचन्द्र. वि. सं. १९८७ ना वैशाख वद ११ बुधे सामलानी पोळ अमदावाद.
जाहेर खबर .
१ - " षट्द्रव्यनयस्वभावादिप्रकरण संग्रहः " नाम ग्रन्थ, जेनी अंदर छ द्रव्य सात नय सप्तभंगी विगेरेनुं स्वरूप अत्यंत मनोहर टुंकामां सरलताथी बतावेल छे, अने जेनी अंदर धर्म संबंधीना व्याख्यानो खाश वांचवा लायक छे बीजा पण घणा प्रकरणो जेमां छे. ४० फारमनो सुपरोयल कदमां सारा कागल पर शास्त्रि टाईपमां छपावेल छे. कीमत नामनी रु. १ छे. पोस्ट खर्चना आना छ अलग.
२ – “ सुरदीपिकादिप्रकरण संग्रहः" नामग्रन्थ, जेमां जैन सिद्धांतोनं रहस्यज वतावेल छे. ३५ फारमनो दलदार शाखि टाईपमां पाका पुंठाथी बंधावेल कींमत नामनी मात्र रु. १ छे. पोस्ट चार्जना आना पांच अलग समजवा.
उपरना बन्ने ग्रन्थ खरीदनारने नीचेना ७ पुस्तको भेट आपवामां आवशेः-१ सुधर्मागच्छपरीक्षा. २ शत्रुंजयती. र्थादिस्तवन संग्रह. ३ श्रीजैननमस्कारादिसंग्रह ४ पूजा संग्रह . ५ पोसहविधि. ६ बारभावना. ७ बारव्रतनी टीप. ठे. शा. मणिलाल वाडीलाल शामळानी पोळ अमदावाद.
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पंक्ति.
शुद्धिपत्र.
अशुद्ध. लोप्या वियोग का चोर आबे भणा सिशेष संलेणेना लोफपाल
शुद्ध. लोप्यो वियोग को चोर आवे भणी विशेष संलेखना लोकपाल
१६
१३४
सुणा
सुणो
१३८ १३८
नमा
१३८
१८
हाय भगतां
नमो होय भमतां धणुह धर्या चरितः
१४२ १४३ . १५६ .. १८७ २००
घणुह
धर्था चारित
अनाण
नाण
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आचार्यश्रीभ्रातृचन्द्रसूरिग्रन्थमाला पुस्तक-३२. महामहोपाध्यायश्रीरत्नचारित्रशिष्यश्रीमुनिराजश्रीविमलचारित्रगणीकृत
श्रीअंजनामुंदरीचरित्र-रास.
संशोधकः-मुनिसागरचंद्रः
(श्रीशांतिनाथ प्रभुने नमस्काररूप मंगल करे छे. )
शांतिकरण जग जाणिये, विश्वमेन कुलचंद; भाद्रवपद ) वदि सातमें, चवीआ जगदानंदः-आनंद अचिरा हुओ अति ) घणो जेठवदि तेरस दिने, जनम पाम्या इंद्र ओच्छव कीध सुरगिरि शुभमने । गर्भथी जेणे गरी टाली . शांति थइ आणंदिया, स्वजन देखत ताति रंगें शांति जिने नामज दिया ॥१॥ मंडलपति पदवी लही, पहिलं भोगवि भोग; चक्रवर्तिपद पामिया, मिलीयो सहु संयोगः-संयोग मिलियो साधि षटखंड रतन सवि नवनिधि लह्या, मुगटबद्ध बत्रीस भूपति सहस सेवे गहगह्या । जेठमासिई कसिण चौदसे इंद्र चोसठ आविया, कीध ओच्छा दीख लीधी वर्णवे गुण भाविया ॥२॥ पोसमुकिल नवमी. दिने, पाम्यो केवल नाण; जेठबहुल तेरस तिथे, प्रभु पाम्यौं निर्वाणः-निर्वाण पाम्यो शांति जिणवर सिद्रिपद सुख संपदा, पामिया तमु चरण प्रणमो भगतिस्युं
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भवियण मुदा । तेह स्वामी सेवता सही रोग नावे तनि कदा, मनह मनोरथ सर्वपूरण सिद्धि लहिये सर्वदा ||३||
दूहा:
सुह गुरुचरण कमल सदा, बंदुं धरि आनंद | अविय कमल पडिबोहवा, उदयो तेजि दिनंद ||४|| चिह्न प्रकार धर्म वर्णव्यो, तिहुयण जन आधार । दानशील तप भावनों, करि
ये संसार ॥ ५ ॥ धर्मेण कण संपजे, धर्मे मोदिमराज । धर्मे जश महिमा घणो, धर्मे सीझे काज ॥ ६॥ धन सुबाहु धन्नो सुणो, शालिभद्गु कॅयवन्न । श्रीश्रेयांस कुमरे दीयो, दान लहियो फल पुन | सेठ सुदंसण नैमिजिण, धूलभद्र नागिल्ल । शील लील साधी खरी, फल पाम्यो आगल ॥८॥ ऋषभ वीर धन्नोयती, तपीयो तप उदार । 'भरत अनाथी हरिणले, भावी भावना सार ॥९॥ // अंजना सुंदरी भली, पाल्यो शील उदार । शीलबलें सुख संपदा, पामी निज परिवार ॥१०॥ अंजना सुंदरी कवण, किम पाल्यो तिण शील। गाम ठाम केणे हवि, किम पामी सुख लील ॥११॥
ढाल - चंद्रायन अथवा चोप्राइ:
एक लख जोयणनो विस्तार, जंबुद्वीप ते अति उदार । भरत क्षेत्र दक्षिण दिसि लहीये, भरत विचें वैतान्यज कहीये ॥ १२ वैतान्यगिरि मेखला सुवखाणुं, तिहां प्रल्हादन पुरवर जाणुं । - गढ़ मह मंदिर पोलि पगार, सप्त भूमि उंचा आगार || १३ || चोरासी चहटां चो साल, वणिजो वणिज करे सुविशाल |
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व्यवहारीयां कोटीधज, लाख, लाखीणा मुखि मधुरी भाख ॥१४॥ परोपगारी दीनदयाल, ढकच्छी शुभचित्त मयाल । अमूर सवार भोजन अनिवार, जाचक पंथी जन आधार ॥१५॥ यती व्रती अभ्यागत सार, आव्या पामे आहार अपार । वाडी न करे गुण अवदात, नहु जाणे चोरीनी वात ॥१६॥ आपथुइ परनिंद्रा दाले, जिनधर्म आतम हित प्रति पाले । देवधर्म गुरु भगति साच, व्यवहारियानी वसे गुण जाच ॥१७॥ वाव कूआ सरोवर विश्राम, पुरपाखलियां बहु आराम । लविंग पूंग पुबाग मियंग, अरजुन खजूर साग नारंग ॥१८॥ शालूर बीजपूर कृवसाल, सव सहकार अशोक प्रियाल । नकूमाल मागधी श्रीताल, चंपक अगर तगर ताल ॥१९॥ खदिर बदिर जंबू जंबीर, वड पीपल पीपरि वानीर । कणवीर रुद्राख द्राख मचकुंद, चारोली नागवल्ली कंद ॥२०॥ अखोड पटोल उंबर अंकोल्ल, वेतस सल्लकी वंश किंकोल्ल । कर्णिकार पलास मंदार, सिंदुवार देवदार कल्हार ॥२१॥ उपनस दाडिम रायणि वारणा, वीजोरी आबलीने करणा। ओढव कोठ सिसमनें गुंदी, कडाहिया नालेरी नंदी॥२२॥ मरि डोडा टोंबरणि पारिजात, आंबली पाडल बकुल विख्यात । केतक सेवंत्री जूही जाइ, पदम तिलक मालति गुण थाइ ॥२३॥ फूल्या फल्या मंजरि मन मोहे, शीतल छाया बहु गुण सोहे । एहवा वृक्ष) सणो वनखंड, जिहां सुख पामे जीव अखंड ॥२४॥ सुकुलिणी सुंदरि सुविचार, नसणी खमणी घर घर नार । सहदेशी
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परदेशी आवे, वंछित लाभ जेणे पुर पावे ॥२५॥
दूहाःतिण नगरि राजा अछे, प्रल्हादनामें भूप । सूर वीर महा साहसी, दीसे अद्भुत रूप ॥२६॥
ढाल-(लाल मोहन मेरे जीउ वसे:-) त्याग्रे लोक पाले सदा, दुजण जण खय कालोरे, दानें, जलधरनी परें,वरसे अतिहिं दयालोरे॥२७॥ धर्म कीरति विस्तरे, धर्म करो सहु कोइरे, जंबूस्वामी तणी परें, रिद्धि द्धि मुख होइरे ॥२८॥ धर्मे० आंकणी०॥ बंधव पर नारी तणो, विनय विवेक विचारोरे । वैरी टाल्या देशथी, पुण्यें जग जयकारोरे ॥२९॥ धम० प्रतापे अति घणु तपें, जिम उगतो भाणोरे । मित्र वर्ग आणंदणो, जिम चंदन सुखठाणोरे ॥३०॥ धर्मे० पात्रापात्र विचारवा, बुद्धिए सुरगुरु सरिखोरे । न्याय मार्ग ज्वलाववा, रामचंद्र सम परिखोरे ॥३१॥ ध० सत्यें युधिष्ठिर समो, रिद्धियें श्रीपति जाणोरे । लक्षण व्यंजन गुण भर्यो प्रल्हाद नरिंद्र वखाणोरे ॥३२॥ ध#० तमु राणी. पदमावती, रूपें रंभ शमाणीरे। अमृतवाणी उचरे, जेहवी हुइ हंद्राणीरे ॥३३॥ धर्मे० प्रियस्युं प्रेम धरे घणो, पहिरे बहु सिणगारोरे। चाले गजगति मलपती, नाणे मन अहंकारोरे ॥३४॥ धर्मे० केलवे चोसठकला, अंग उवंग सुप्रमाणोरे । नयण अमीरस वरसती, लावण्य गुण अहिठाणोरे ॥३५॥ धम० नमणी खमणी बहु गुणी, बिहु पखे वंश विशुद्धरे। सरजी लाभे सूरीया, रणि.
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धणु हाथरि मुद्धरे ॥३६॥ धर्मे० सेजें सुता एक दिने, दीठी सिंह सुपनेरे । राणी जागी हरखीयां, जाग्यो पूरव पुण्णरे ॥३७॥ धर्मे०
दूहाः___ चिंतें पुण्यज प्रगटीयो, दीठो सुपनें सीह । होस्ये मुज सुख संपदा, आव्या उत्तम दीह ॥ ३८ ॥ गजगति सुंदरि चालती, आवी राजा पास । जगाडी संभलावीयो, शुभ सुपन्न उल्हास ॥ ३९ ॥ निसुणी राजा चमकीयो, भाषे सुपन विचार । रावरिद्धि संपत्ति भली, हुस्ये पुत्र उदार ॥ ४० ॥ सुपन एक पूछी लह्यो, तेहज अर्थ विशाल । डोहुला रुयडा उपजे, पहुचाले ( पूर्ण करे) ततकाल ॥४१॥ . ॥ ढाल-सोभागी सुंदर जनमीयोए-एदेशीः- ॥
शुभवेला सुत जनमीयो, वाजा वाजे तूर । भोछव सबलो मंडीयो, विस्तरे जस भरपूर ॥४२॥ गुणाकर कुंवर कुलतिलोए, अवतों हरख अपार । गुणाकर० ए आंकणी०॥ भाट छंद छंदे भणे, गाए गंधर्वगान । धवळ मंगल गावे गोरडि, दान दिये बहुमान ॥४३॥ गुणा० वधावा आवे घणा, सय) सहसने लाख । वलता अधिका ते दीये, मुखे भणे मधुरी भाख ॥४४॥ गुणा० बंदिवान छोडावीया, वाजे पडह अमार । दसदिन दंड मुकावीया, धन खरचे धरबार ॥४५॥ गुणा० मापां तोल वधारियां, सणगार्या सवि हाट । ठाम ठामे नाटक रचे, जोवे मली जण घाट ॥४६॥ गुणा० कुटुंब न्याति सवि
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नहुंतरी. दिवस बारमे चंग । निमाडी मंडप वडे, पहिरावे अति रंग ॥४७॥ गुणा० न्याति सहुको देखता, अवनंजय मत नाम । थाप्युं रूपि हरावीया, कामदेव गुणधाम ॥४८॥ गुणा० चंपकतरु जिम गिरिवरे, वाधे कुंवर तेम । लक्षण व्यंजन शोभतो धर्म ऊपरे बहु प्रेम ॥ ४९ ॥ गुणा० कलाचार्यपासें मुदा, पाठवीयो ग्रंथ अनेक । कलाबहत्तर केलवे, जाणे विनय विवेक ॥५०॥ गुणा० कुसंगति न करे कदा, व्यसन सात नही लेश । विषय कपाय न व्यापीयो, कोयस्युं न करे क्लेश ॥५१॥ गुणा० भूण्यो गुण्यो प्रौढये थयो, विद्यावंत अपार । नवां कवित जोडे घणां, समस्यानो भंडार ॥५२॥ गुणा०
(दूहाः - ) बालपणाथी आदरी, न भणाव्यो संतान । माता पिता ते (जाणज्यो, निश्चे सत्रु समान ॥५३॥ हंसमाहि जिम बगलडो, निहु शोभे निरवाण। पंडित गोठे मूढनर, तिम नहु शोभे जाण A५४॥ पंचवरस मृत लालीये, ताडे दस नहु भोल। मित्र समो सुत जाणीये, वरस थयां जब सोल ॥५६॥ पहिले वय न भण्यो कला, बीजे धन न कमाय । त्रीजे धर्म न संचीयो, चोथे किस्युं कराय ॥५६॥ छांवंधन विद्या गणो, कुरूपतणों पण रूप। चोरे नक्रि जाये हर्या, विद्या अकल सरूप ॥२७॥ रूपहीण जी पिण हुवे, वस्त्र विभूषण रहित । तो पण सजन सभा मिल्यो, शोभे विद्या सहित ॥५८॥ सहदेशे नृप मानीये, नह परदेश विशेष । पंडित सघले मानीये, सहदेशे परदेश ॥५९॥ तिण
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पवनंजय बहुकला, सीख्यो गुणा भंडार । सूरो बलीयो साहसी, उपग्रारी उदार ॥६०॥ सप्पुरिस कंगह उवमिये, भण! कज्जे कवणेण । जिम जिम वढ्त्तण लहे, तिमतिम तमे सिरेण ॥६१।। नर नरिंदा ऋषि कुलां, वर कामिनी कमलांह । एतां आद्रिन जोइये, गुण जोइ जे तांह ॥६२।।
( ढाल-उत्तराध्ययने बोल्या सोलमेजीः-ए देशी. )
वैताब्यगिरिनी पहिली मेखलाजी, दक्षिण श्रेणियें जाणि । अंजनपुर श्रीनगर वखाणियेजी, जिनमंदिर मंडाणि ॥६३॥ पुण्यतणा फल परतख देखियेजी, जिहां छे मुखिया लोग । धण कण कंचण गढ मढ मालियांजी, पुण्ये सह संयोग ॥६४॥ पुण्य० आंकणी०॥ पापनिकंदन कुलमंडण वडोजी, धीरम मेरु गिरिंद । राज धुरंधर राज करे तिहांजी, अंजनकेतु नरिंद॥६५॥ पुण्य० साम दाम विधि भेदज दंडग्युंजी, जाणे (वार उपाय । भुजबले वेरी आण मनावीयाजी, सेवक प्रणमे पाय ॥६६॥ पुण्य० जेहनें राणी छे अंजनावटीजी, शीलें शीता : जाणि । लखमी गंगा जेहवी सरस्वतीजी, अनोपम गुणनी खाणि ॥६७। पुण्य० सुहणे देखे शुभ अंजनलताजी, राणी सेज मझार! पूरे मासे थ्ये पुत्री जिणीजी, रोगरहित अवधार ॥६८॥ पुण्य
( दूहाः ) पुत्री जाई गुणभरी, कमल गरभ सुकुमाल। जोतां त्रिपति न पामिये, दीसे रूप विशाल ॥६९।। दिवस बारमे आवीये, .. सजन जिमाड्या ताम । अंजनासुंदरी एहवो. दीधुं कुंवरी जाम
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( ढाल-चोपाइ:-) कन्या नाम अंजनामुंदरी, लक्षण व्यंजन लावण्य भरी। कन्याना पख बे निर्मलां, चंद्रकला जिम चडती कला ॥७१॥ नवजोवन ते थइ रमणीक, जाणे अमृतनदीनी नोंक । कुमली कणयर कंबा जिसी, अंगे कोमल दीपे तिसी ॥७२॥ सीस शिखर उन्नत आकार, सोल कला ससीहर सुखसार । सरली खिली कंठे उछाह, गंग यमुन सरसति प्रवाह ॥७३॥ नेत्र कमलदल सोहे चंग, नासा गरुड चांच जिम तुंग । अधर विद्रुमना रंगसमाण, जाणे हर्या मृग लोयण बाण ॥७४॥ कुंडल पहेर्या काने अखंड, वीसिगतनु सम वेणीदंड । भमहि दंडनो वक्राकार, जाणे इंद्र धनुष अवतार ॥७॥ निलवट दीपे आधांचंद, मांसल उन्नत खंध, अमंद ।दंतु श्रेणी दाडमनी कली, पदम पत्र जिव्हा पातली ।।७६॥ हृदय विशाल उन्नत उदार, ठविया शुभ मोतीना हार । कनक, कुंभ पयोधरनवा, जाणे लावण्य रस पूरवा ॥७७।। वाह जुगल लांबा सुकुमाल, कोमल कुसमतणी जिम माल । कनक चूडि बिहुं कर सोहिये, देखत तरुणी मनमोहीये ॥७८॥ सोहे कर पल्लव अंगुली, कटिलंक सीहनी परे वली । नाभी मंडल जेहवो कूप, साथल कदली थंभ सरूप ॥७९॥ पुष्टां जानु जिस्यो डाबडो, जंघ जुगल वर्तुल गुण वडो । कूर्म-पृष्ट जिम उन्नत पाय, कन्या
एक वणि काय ॥८०॥ पाताल कन्या विद्याधरी, के इंद्राणी एह अवतरी । एहवी कुमरी हुइ सुजात, चित्त विचारे माता)
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तात् ॥८१॥ एह कन्या न घटे राखवी, परणावी जोइये वर कवी। कन्या, वरनी सरखी जोड, जो हुवे तो पहुचे कोड ॥८२॥ अतिगलो निरधन अतिशूर, दीख्या लेवा वछि क्रूर। मूरख व्यसनी वरने सुता, डाहे नवि देवी जोवता ॥८३॥ कन्या वर जोवे धन मात्र, पिता जोवे पंडित वरधात। बंधव ते
हवाये थोक, सरस जिमण बीजा सवि लोक ॥८४॥ प्रभुता विद्या शील शरीर, लखमी कुल जोवन वयधीर । कन्या दीजे. एह गुण जोइ, पछे निलाडडे लख्युं ते होइ ॥८५॥ अंजनकेतु तणी कुंवरी, कन्या वात सघले विस्तरी । कुंमरीनुं छे अदभुत रूप, को कही न सके तास सरूप ॥८६॥ कुमरी वर, जोवे सुकुमाल, दानी मानी गुण सुविशाल । आप समाणो नहु आकुलो,धर्म जाण नहु ओछांछलो ॥८७|| ठाम ठामनरवर जू जूआ, उपाउ चित्ते चीतवता हुआ । कन्या केम पामीसुं एह, साची लखमी नहुं संदेह ॥८८॥ माय बाप गुरु माने गणे, देव धर्म उत्तम गुण थुणे । दीनदयाल वर्ते उपगारि, ते जर पामे उत्तम नारि ॥८९॥
दूहाःकुमरीना गुण विस्तर्या, रंज्या राजकुमार । कुमरी परणवातणा, उपक्रम करे अपार ॥१०॥
ढालः-वेलीनीःदेशदेशना राय विचारे कन्यारूप अपार, उपाय करीने जो परणीजे तो सफल अवतार । आलेखावी पोता केरुं रूप निरुपम
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पद, ते लेई निज सुभट पठावे जेहनां वचन मुघट ॥११॥ राजा राणी रूप निरखे चित्रपट आलेख्या, कुलबल विद्याशील रिद्धि गुण नयणे निरखी परख्यां । एक एकथी रूपज अधिकां पट जोतां मनरंग, पवनंजय भविष्यदत्त विहुंना पट अति चंग, ॥९२।। मंत्रीसर देखाडिया ते गुण देखीने धार्या, (तेहिज वे चित्रपट्ट अनुपम बीजा पट सहु वार्या । पवनंजय भविष्यदत्त बे सरखा वर जाणी, पूछया रायें प्रधान कहो वर अधिको कवण विनाणी ॥९३।। पवनंजयथी सही अधिकेरो, भविष्यदत्त विचारो, पुण कारण भूमीपति निसुणो मनमांहि अवधारो । अढारम वरसें दीख्या लेइ जास्ये मुगति मझार, एह वचन ज्ञानीए कहियों संभलराय तिवार॥९४॥ भविस्यदत्त कुंवरस्युं वीवाहू राजाए नवि कीधो, अलप आउ जाणीने ततखण तेहनें उत्तर दीधो । इण अवसर मोटे मंडाणे राय विद्याधर मात्र, नंदीसरनी यात्रा कानें तिहां पहुता शुभ गात्र ॥९८॥ अंजनकेति प्रल्हादरायनो नंदन तिहां ते दीठो,पवनंजय कुंवर अति सुंदर रायतणे मन बेठो । जोग जाणता तें कुमरीनो तिहां मेल्यो विवाह, जोसी पूछी लगन तणो दिन लीधो अति उच्छाह ॥९६॥ आपणडे घर आव्या कुशले यात्रा करि परसीध, वीवाहनी सामग्री उत्तम अति विस्तारें कीध । अंजनकेतु नरिंद आणंदें तिहां पुत्री वीवाह, करवा ओछव मंड्यो अतिघणो आणी अति ऊमाह ॥९॥ पुरबाहर श्रीमानस सरवर जोइ उत्तमठाम, तिहां मंडप ऊतारा दीधा दीसे अति अभिराम । लगन लेख
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लेई मोकलिया सेवक पोता केरा, प्रल्हादराय तेडाव्या हियडे आणी हरख घणेरा ॥ ९८ ॥ प्रल्हादरायें निज सेवक साथे कंकोतरीना लेख, मंकी तेड्या सगा सजन सहु ते आव्या शुभ वेष | सेनास्युं रथ पाएक घोड़ा मोटा बहु मातंग, पुत्र भणो परप्पा चाल्या राजा आणी रंग ॥ ९९ ॥ बाहिर अंजनपुरि मानससर आविनें उत्तरिया, अंजनकेति प्रल्हाद भणी बहु अति आदर तव करिया | अंजनकेतु मंडे अति झाझी जिमणवार आटोप, असन पान खादिमने सादिम नानापरे आरोप ॥। १०० ।। भोजन करि बेठाच्या सहुको अधिक छांटणा कीध, चंदन केसर बास गुलाले तिहां बहुलो जस लीध । कपूर पूर मुखवास सुरंगा दीधा बहु तंबोल, फूलमालज बांधि अनोपम देइ कर्या रंग रोल ॥ १०२ ॥ इण परे मलता हलता बहुपरे महाओछव सुविशाल, वीवाहें साजण जण मिलिया मनमांहि हरख रसाल । बालमित्र पवनंजयकेरो ऋषभदत्त सुजात, अंतरंग प्रीति कुंवरस्युं आणे प्रेम विख्यात ॥१०२॥
दूहा:
मित्रडा सो मित्र करि, जेहवा फोफल भंग । आप करावे कटकडा, पर हरखावे रंग ॥ १०३ ॥ मित्रज इकक दोइ करि, बहुले चडे कुनाम । धोवी केरा कुंड जिम, सुंदिम सारूं गाम ॥ १०४॥ साजण सूरा च्यार करि, परिहर कायर सहि । वांके विसमे दीहडे, ते च्यारे चोसहि ॥ १०५ ॥ किं किजे तिण सज्जणें, भीड न भज्जे जेण । अजा कंठ पुर्याोहरा, दुध न पाणी तेण |
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॥१०६॥बह मीता बहु बोलणां, घर घर भमे जिम श्वान । ते /माणस नहु धारीये, जुहुइ हियडे सान ॥१०७॥ लालच देखाडी करी, ल्ये पर मनकी वात । कुलवंत तेहस्यु नहु मिले, तनु मन साते धात ॥१०८॥ हंसाने सरवर घणां, पुष्प घणां भमराह । साजणनें सप्पुरिस घणां, देस विदेस गयांह ॥१०९॥ जे मन तुझ मिलेइ, ते मन बिजाहि मिलेइ । कांहु कण खूटे, बीझ न खाजे बांधरा ।।११०॥ भूईऊपर भमतेहि, मिलीइ जु मरीये नही। नागडा नवखंड नेह, सगपण संधि न त्रोडीये ॥११॥ जे जड जडीसज्जने, रेहि नेहि अपार। ते जड किमे न ऊखडे, जो लक्ष मिले लोहार ॥११२॥ हियडुं दाडिम कुलीय जिम, भरीयुं तुम्ह गुणेण । अवगुण एक न सांभरे, वीसारी जे जेण ॥११३॥ संगम चुदने सज्जनां. ए त्रिहुं एक स्वभाओ । जिहां जिहां करे निवासडो, तिहां तिहां परिमल ठाओ॥ ११४ ॥
(ढाल-मानवतुं भव पामोयेए ए देशीमाः-) तिण खिण कहे ऋषभद्रत्त, पवनंजय सुणतुं मित, एक चित्त वात हियानी संभलोए । परण्या पछे तुम्ह प्रेम, मुझस्युं नही हुए एम, पूर्वजेम हियडा भितरें अटकलोए ॥ नरराचे नारी वयों, रमणी जगमोहे नयणे, तिहयणे रामा मोहन वेलडीए । नर तें वस आणे नवी, भावभगती बहु साचवी, अभीनवी करति आगल गेलडीए. ॥११५।। कहे कुंवर तुमथी कोई, बीजो मुझ मनि मम जोई, सह कोई छे पुण तुम्हस्युं प्रीतडीए। दिन २ चडती जाणिज्यो, एह वात मन आणिज्यो, माणिज्यो संसय रेह
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कनके जडीए ॥ कहे कुंवर आवो तिहां, जोइ कन्या छे जिहां, तिण इहां विलंब न कीजीए अध घडीए । जोईये कन्या कहेवी, कांने सुणी छे जेहवी, तेहवी दीसे निजदृष्टिए चडीए ॥ ११६ ॥ जेम कोई जाणे नही, मित्र बिहे छाना सही, सामही विमानें बेसी करीए । चाल्या रातें अंधारी, वस्त्रधर्या नीलांभारी, संगारी कन्या गुण हियडे धरीए । सखी सहेली परिवरी, ते अंजना सुंदरी, गुणभरी दीठी अमरी जेहवीए । मित्र बिहे अतिहरखीयां, कन्याना गुण निरखीया, सरखीआ जेहवी निसुणी तेहवी ॥ ११७ ॥
दूहाः -
प्रासाद राज शुंडा जिसी, वेणी दंड समान । अधम पुरुप पीडी, ही था नि ॥ ११८ ॥ ) ससवलां, वृक्ष नदी सम जाण । उत्तम नरस्युं प्रीतडी, वाधे इण अहिना ॥ ११९ ॥
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ढाल - उपरनीः
अंजनास्युं तव अवदात, कहे साचीवात, समधात पहिलो तुज काजें लहीए । राजें विचार्यो जे वर, अहारम वरसें सुंदर, मुनिवर गइ जासे मृगतें सहीए | ते वरनो केहो काम, नवि ( लीजे तेहनो नाम, अभिराम पण एह अवगुण धारीओए ।। आउ अलप सुख संयोग, अधूरा नरना भोग, ए. योग जाणीरायें वायोए । १२० ॥ कन्या कहे निसुणो सखी, अमृत थोडुं ओलखी, सारखी लीजे जेहथी गुण घणोए । किहां रतन किहां
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पाषण, किहां मूर्खनें किहां जापा, सविनाण आगर जे बहु गुणतणोए ॥ एहयो वर पुण्य मिले, शिवगामि अफलां फले, दिनवले जेहथी भवदूख नामीग्रेए। चंदनका कटकासार, न भला काठतणा भार, उद्धार तेहथी शिवमुख पामियेए ॥१२१॥
दूहाः- चंदनकी कुटकी भली, नह काठका भारा। सप्पुरिसकी घड़ी भली, मूरखस्युं जमारा ॥१२२॥ अगरतणे अहिनाणि, पीडतां परिमल धरे। ते साजण संसार, जोया पण जडीया नही ॥१२३॥ जलें२ कमल न नीपजे, वने२ अगर न होय । रूपे को राचे नहीं, गुणराचे सह कोय ॥१२४॥
ढाल-उपरनीः___एम संभली कुंवर कोप्यो, हणवा खडगज आराप्यो, गुणलोप्यो प्रह नारीने मारिस्युंए । मुज उपरे नाणे नेह, बीजास्यु आणे तेह, तिणे एह नारी नाद उतारिस्युंए /ऋषभद्रत्ते कुंवर धायो स्वीहत्यापातक वायो, संभायो न्याय पंथ नवि खंडियेए। वीअणपरणी पारकी, हणतां थइए नारकी, खारकी अधमत्रणी मति छंडिग्रेए ॥१२५॥ रंगभंग करि नव जइये, छाना किम प्रगटा थइये, निज हइये विचारणा कीजे खरीए । म कर अविचायु काज, विचारतां वाधे लाज, तिण आज राखि माम गुण आदरीए ॥ अछे बोलो गारणा, नहु कोइ चिरंजीवणा, सवितणा तरुछाया जिम दिन फिरेए । माणस निज पाणी राखि, ग्युं नावे दीधे लाखि, फलसाखि नालेरीना जल
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भरेए ॥ १२६ ॥
दूहाः___अछे बोल ऊगारणा, चिरजीवणा न कोइ । जिम रुंखां तिम माणसां, छांह फिरंती जोइ ॥१२७॥ माणस माणी आपणुं, राखि सकें तो राख । पेके पाणी ऊतरे, बहुडि न आवे लाख ॥ १२८ ॥
गाहाःमिरिनालेरसमाणउ, तिहूयणम्जंमि तरुवरो नथ्थिा निय नीर खणहा, तिन्नि विवाडी कया जेण ॥१२९॥
ढाल-उपरनीःपाछो खडग घतावीयो, पडीयारियें थिरठावीयो, आवीयो थानकी मित्रे प्रेरीयोए। प्रभाते उगीयो मूर, गाजीया मंगलतूर, भरपुर हरख तरुवर अंकुरीयोए। सुहासिणि मिलि न्हवरावे, भूषणवरने पहिरावे, मनभावे मित्रभणी कुंवर कहे ए। छंड्यो कन्यानो राग, फोकट नहु ओछव लाग, वडभाग सहुको मर्मज नहु लहेए ॥१३०॥
दूहा:ए कन्या परण्यूं नही, कुंमर इम कहे जाम । सुहासिणी जईने कहे, मातपिताने ताम ॥१३१॥
ढाल-थावच्चा कुंवरनी:( माय अम्हे लेस्युं संजमभार-एदेशी ) पद्मावती माता एम बोले, सुण पवनंजय सार। कुंव
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तुछे जगमांहि सूरो, अम्ह आशा पूरि अपार ॥१३२॥ कुंवरजी मानो कहण अम्हारो, जिम सीझे काज तुम्हारो । कदाग्रहनी मविवारो, उत्तम गुण हियडे धारो॥१३३॥ कुंवरजी० (आंकणी)
अंगीकार करी मम छंडो, कन्या परणो जाइ । सायर कहिये 'लीह न लोपे, सींह तूणां नवि खाइ॥१३४॥ कुंवरजी० पिता सुणी आवे सुत पासे, कुंवरने समजावे । नहि पर| ए वात कहतां, अधिको अपजस आवे ॥१३५॥ कुं० फोकट उतकट हछ न कीजे, अवश्य करो एह काज । अम्ह जीवतां अवर कुण राणो, कन्या परणे आज ॥१३६॥ कुं० अमृतनरे रस कोण नवी चाखे,धन आवतो कोण ठेले। रतन हाथथकी कुण नाखे, तिम कन्या कुण बेल्हे ॥१३णा कुं० बहुराजा कन्याएं मोह्यां, परणो हरख लहंत । वडातणां वचन कुलवंत, नवि लोपे एकंत ॥१३८।। कुं० एम भाषिकुंवर समजाव्यो, न्हवराव्यो शुभनीर। वस्त्र विलेपन मंडन सोभे, जेहवो गवन वोर ॥१३९।। कुं० वरघोडे ते जोरे चाव्यो, पाखलि बहु असवार । सुहासिणी सिणगारी गावे, धवल मंगल उदार ॥१४०॥ कुं० मुगद भर्यो वर मस्तक सोहे, अंगे विभूषण होइ । मस्तक उपरे छत्र धराइ, चिहुं दिसि चामर जोइ ॥१४१॥ कुं० भट्ट चट्ट जय जय एम बोले, वर सुरूपति सम चंग । बहुपरे वाजां वाजे आगाल, मुख तंबोल सुरंग ॥१४२।। कुं० वरनें सामहिओ अति सबलो, आवे बुद्धि निधान । दान मान गुणगान अनोपम, कीजे बहु सनमान ॥१४३।। कुं० वरराजा आव्या ते तोरण, सासू मुंखई आदि ।
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कर मेलावो कीधो हरखे, माय रहे थीर ठावि ॥१४४॥ कुं० वरकन्या बेवइ सणगार्या, आण्यां चोरी माहि । रूडे दिवसें रूडे मुहूर्ते, परिणाव्यां उछाहि ॥१४५॥ कुं० वरकन्या बे सोभागी, दीसे सरखी जोड । सहु वखाणे वरकन्यानां, पहुतां मननां कोड॥१४६॥कुं० इंद्र इंद्राणीनी परे शोभा, पामे वर वहु दोइ । अंजनकेतियें मान्या अतिघण, सतकार्या सहु कोइ ॥१४७॥ कुं० वोलाव्या एल्हाद नरेसर, अंजनकेतिएं जाम । सगा सणीजास्युं निज मंदिरे, कुशले आव्या ताम ॥१४८॥ कुं० सगा सहु सनमानी वाल्या, रायपल्झादे तेह । विनय वहे सासरियां केरा, कन्या ते गुणगेह ॥१४९॥ कुं० शीलवती, वहु सहुने लागे, अति वल्लभ ससनेह। प्रियभणी ते न गमे दीठी, चंडाली जिम एह ॥१५०॥ कुं० ते अंतराने पूर्वभव केरां, आव्या उदये कठोर । पापतणा फल एहवा लहीये, कांइ न चाले जोर ॥१५१॥ कुं० कोपे, चडियो पवनंजय कुंवर, न लीये नारी बाम । पण अंजना जे धर्म त मूके, मर्यादानां काम ॥१५२॥ कुं०
-दूहाःइण अवसर लंकाधणी, रावण राजा हेव । वरुण रायनें जीपवा, बांळे ते ततखेव ॥१५३॥ ततखिण सेवक मोकल्या, तेड्यो रायमल्हाद । जुद्ध सहायने कारणे, आणी मन आल्हाद ॥१५४॥ रणढक्का देवाडि करि, सेवकस्युं ततकाल। सज कीधी सेना सबल, सनध बद्ध नरमाल ॥१५॥ पूरनंजय कुंवर
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तदा, रण चडता निज तात । वारी कहे स्वामी तुम्हे, बेठा रहो अवदात ॥१८६॥ मुझ छतां तुम्हनें सही, चडवो न घटे स्वाम । बीडं दियो मुझनें इहां, रण चडस्युं तुम्ह ठाम ॥१५७।। इछ, करतां बीई दियु, जइने प्रणसे माय । अंजनासुंदरि प्रेमस्यु आगल उभी थाय ॥१५८॥ जाणे सीख मुझनें दीये, सामुं जोवे नहे। कहण कहावण कांइ कहे, तो हुँ थाउं सनाइ ॥१५९॥ स्त्रीसामु जोवे नही, लेइ मात आसीस । मानस सर जइ उतयों, प्रथम प्रयाण जगीस ॥१६०॥ पुरबाहिर डेरे रह्यो, कुंवर सरनी पाल । नारी विरतो पित्रस्युं, गोठ करे सुखसाल ॥१६१।। पाछल चिंते अंजना, पुण्य न कीधा भूरी। सो किम वंछित पामीये,फोकट जीव म जूरी ॥१६२।। आसन्ना दूरठिय, जे चित्तें उवरिठ । चिहुं अंगुलने आंतरें, नयणे कन्न 'न दिठ ॥१६३॥ मन मालीयां म जोइ, ऊंचे पण आंबिस नही।
आप समाणा जोय, विहि विराडे जे लिख्यां ॥१६४॥ विहि रुठी ग्रह वंकडा, दुजण पूरे आस । आवि दुहेला खंधि चडि, जिम सो तिम पंचास ॥१६॥ चित्तविणठे रसगये, आदर करे अयाण । गुण तुट्टे सुर संधीये, ते किम लग्गे बाण ॥१६६॥ दुज्जण केरे बोलडे, सज्जण नेह मोड । कातणहारी सूत्र "जिउं, जिम त्रुटे तिम जोड ॥१६७॥ सजन तेहु सज्जन, जे
से सोवार । अंब न हुवे लोंबडो, जे जातिय सहकार॥१६८॥ अंजनामुंदरी रोवती, आंसू झरे अपार । हूई आमण दुमणी, रहे दुखभर निरधार ॥१६९॥
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ढाल-विषय न गंजीयेः( तिणि सरि गते सांभले, कुंवर शब्द अपार। पंखी कोलाहल करे, कवण काज बहुवाररे ॥१७०॥अररिज पामिये, एहनें स्यु दुख लागेरे। निद्रा नहु करे, आखि रातें जागेरे। अचरिज पामिये (आंकणी०) कुंवर पूछे मित्रनें, कहो कुण पंखी एह । कोलाहल (कंदन करे, दीसे कोमल देहरे ॥१७१॥ अ० मित्रमणे कुंवर सुणों, ए चक्रवाकविहंगे। धणी,धणीयाणी एकठां, दिवसे पामे रिंगरे । १७॥ अ० ल्हे वियोग रातें सदा, मन पाम बहा दुख। तिण आक्रंदन बहु करे, प्राणी वांछे सुखरे ॥१७३॥ अ०| कुंवर कहे एक रातनो, विरह दुख इम होइ । प्रणी नारी परिहरी, बार बरस थयां जोइरे ॥१७४॥अ० आपण रणे चालू अछु, जुद्धे जय संदेह । ते नारीनी गति किसी, होस्ये जाणो एहरे ॥१७५।। अ० मिल्या पखे मुज चालतां, होइ मन संताप । मली हलीने चालस्युं, जीम हुइ सुखनो व्यापरे ॥१७६॥ अ० मित्रं मान्युं आवीया, नारीना घरबार । झुरंती ते महासती, दीठी भवणमझार ॥१७७॥ अ० क्रमाड उघाडो इम कहे । न ऊघाडे घरबार । हं सती प्रति चालीयो, माविस इहां गमाररे ॥१७८॥ अ. अहिताण कही ऊघडावीयो, घरभीतर भरतार । ऋतुनाही स्त्रीस्यु मिल्यो, गरभ रह्यो तिण वाररे ॥१७९॥ अ० पियनें जातां स्त्रीकहे, होस्ये गरम किवार । सास ससुर न . मानस्ये, थास्ये दुख तिवाररे ॥१८०॥ अ० देई अहिनाण निज मद्रिकार मिय चाल्यो परदेश। पतिमानी ते कामिनी,
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पामे हरख विसेसरे ॥ १८१॥ अ० दुख गयुं सवि वीसरी, पाम्यं मुख अपार । आशा पहुती मन तणी, आशा जगदाधाररे ॥१८२॥ अचरिज०
-दूहाः। आस म छंडिस रे ! हिया, जा जीवें तां सीम । वली खलेस्ये दीहडा, नाऊं जास्ये ईम ॥ १८३ ॥ दीहडा दैव(हितणा, जिम जाये तिम पूर । हीयडा हीराणंद भणे, रहि रे, शंक : म झूर ।।१८४॥
( ढाल-प्रभु पदमप्रभ ! वीन:-) __जीजे मासे अंजना तणो, सरभ प्रगट्यो एह । सासू ससुरे जाणीयो, पूछे बहुने तेह ॥१८५।। समरे प्रियनें अंजना, जिम खंद चकोर । चक्रवाक दिनकर भणी, जिम जरूधर मोरसमरे० आंणणी० ए गरभ किहांथी ऊपनो, अम्ह कुले कलंक । आण्यो सामू पूछतां, वहू बोले निकलंक ॥१८६।। समरे० तुम्हचो नंदन आवीयो, अधराति मझारि । तिहांथी गरम मुझनें हूवो, हुं अछु आचारि ॥१८७॥ समरे० नहु माने साम् कहे, कुंवर दृष्टिये सोय । तुज साहमुं जोतो नहीं, मलवु किम होय ॥१८८॥ समरे० तिण खिण देखाडे बहू, मुद्रिका अहिजाण । तोये सहू माने नही, जोवो कर्मविनाणा ॥१८९॥ समरे० कूडो कलंक चडावीयो, घरथी काढे वहू । वहू भणे तुम्ह सुत भणी, पूछावो सहू ॥१९०॥ समरे० कुंड शाच परखो मुदा, एह माहरूं कहण । जइ जूटुं होये किमे, मुझनें नही रहण
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॥१९१ समरे० सासू सूसरो कोपीया, घरथी करी वेग । वहूनें काढे एकली, आणे उदवेग ॥१९२।। कमतणी गति अभिनवी, संभारे कंत। कहे अंजना प्रियडा विना, नारी नहु बलवंत ॥१९३।। कर्मतणी० आंकणी० विसन पडये कोइ नहु करे, तेहनो पक्षपात । एक सखी साथे थई, परच पुण्याविख्यात ॥१९४।। कर्मतणी० बे निरधारां चालियां, आव्या पीहरबार । माय बापु जाणी करी, नवि राख्याधार ॥१९५॥ कर्मतणी०
( दूहाः - ) । मुखायां सवि सासरे, पीहरि रलियां मान। कंत विहूणी | कामिनी, जिहां जाये तिहां रान ॥१९६॥ जिहां दीह हूंता पाधरा, तिहां नमतुं सहु कोइ । रावण भणे मंदोदरी, लंक-8 लंती जोइ ॥१९७॥ जिण दिनि वित्त न आपणे, तिण दिनि (मिने न कोइ। कमलां कईम बाहिरां, दिणयर वेरी होइ ॥१९८॥ कादव सूको वित्त गयो, मूकि गयां कमलांह । जाणो सूरस, नेहको, दिवे वकसावे तांह ॥१९९॥
( ढाल-उपरनीः- ) अनादर मायबापनो, पामी निरधार । लाजी दुखिणी जाणती, संसार असार ।।२००॥ कर्म० एक सखी साथें अछे, आंसू झरती जोय। एक तीर्थकर ध्यावती, आधी चाली सोय ॥१॥ कर्म० गाम नगर पुरवर मझे, न रहे लाजंत । शीलवती) बनमां रहे. शर्मगुणि राजंत ॥२॥ कर्म० नदी सरोवर जलपीइं, फल फूल आहार । पूरे मासे जनमीयो, लंदन आधार ॥३॥
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कर्म० खाणथकी जेम ऊपजे, बहुरतन निधान । तिम अंजनाइं जाइयो, अंगजे इंद्रसमान ॥४॥ कर्म० सूरजनी परे दीपतो, नीरज मुख सूर। माता नयणे निरखती, लहे आनंद पूर ।।५।। कर्म० नाघ, सिंघ गज रीछना, श्य, नही, का चोर । शीले संकट सवि.टले, कोई न करे जोर ॥६॥ कर्म० वनि वनि थानक थानकिई, रेहतां अरिहंत । समरे जल फल बहु मिले, ए पुण्य महंत ॥७॥ कर्मतणी०
दूदाः - )
एक दिन जल जोवामणी, सखी पहुंती वनमांह। काओअसग्गे गिरिसिर रहियो, (मुनि दीठो उछांह ।।८॥ कर्म०
on ( ढाल-फागः- ) भूखत्रिषा सवि वीसरी, पामी हरख अपार । आवि कहे अंजनाभणी, मे मुनि दीठो सार ।। पुत्रसखीस्युं गिरिचडी, अंजनासुंदरी साध। वांद्या भग काउसग्ग,पारी,मुनि निरबाध ॥९ भूमिकां पुंजि बेठा, भाखे मुनि उपदेशे। महानुभाव, संसार इं, एणे नही सुखलेश ॥ बहादुख) सागर चंचल, ए संसार असार। जीवनें धर्मविना नहीं, कोई शरण आधार ॥१०॥ करमे आरति (मनतणी, चिंता कठिण अगाध । रोग सोग जरकर्मिइं, काया शिथिल साबाध ॥ कर मुंगा बोबडा, बहिरा कायर हीण करमें (टुंटा पांगुला, कुबड वामण खीण ॥११॥ करमें मरगतणी गति, मारक दुख सहंत । कर तिरियंच वधबंध, तरिखा भूखलहंत ॥ करमें मानव निधन, धनवंत मंदिरवास । (करमें प्राणी भोगवे,
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देवना भोग विलास ॥१२॥
(दूहाः - ) ( पुण्य प्रबल छे जेहनें, तेहनें सहु संयोग । पुण्ये लहीये संपदा, पुणे सुरनर भोग ॥१३॥
(चोपाइ:- ) करम करइ ते सहीये सहू, करमें दुख पामिजे बहू । करमें मनवंछित संयोग,शुभकर्मे विलसीजे भोग ॥१४॥करमे पांडव ते रडवड्या, रतिसुंदरिने अति दुख पड्या । नल दवदंतीयें दुखसहयां, सीता रावणनें घरे रहयां ॥१५॥ करमें भाण भमे नहु संक, करमे दीसे चंद्र कलंक । भीख मंगाव्यो मुंजनरेश, नाच्यो नारी कहण महेश ॥१६॥ वनभमिया लखमण ने राम, मणिरथनें जाग्यो बहु काम । करमें) संतापियो हरिचंद, खय पाम्यो रावण तरचंद ॥१७॥ करमें कोरव, खय पामीया, चक्रवर्ति खटेखंड सामिया। वेद्या विण नवि छूटे कर्म, करमटले मन धरता धर्म ॥१८॥ श्रावके साधु इस्या बे भेद,धर्म करखों टालीने खेद। अंजनासुंदरी सुणि मर्म, आदरीयो शावकनो धर्म ॥१९॥ ते मुनिवर ज्ञानी अटकली, वलि अंजना पूछे मनरली । भाखो भगवन में कुण कर्म, कीधां दुख पाम्या नहु शर्म ॥२०॥ दूषण विण किम चड्यो कलंक, केहा कम तणो ए वंक । प्रियतणो मुझ हूओ वियोगे, मिलतो नहु दीसे संयोग ॥२१॥ मुनि कहे हिवे माहरु मुणो, परवभव कर्तव्य आपणो। जे जे जेहवां कर्तव्य करे, तेहने तेहवां फल विस्तरे ॥२२॥
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(दूहा:-) मांडी पूरवभवत्रणो, मुनिभाखे वृत्तंत । अंजनासुंदरी सुणे, हियडे हरख धरंत ॥२३॥
( ढाल-सीलसुहावोरे साजण सेवीये-ए देशीमां )
वसंतपुरनामेरे नगर प्रगटभणुं, राजा जितशत्रुनामोरे । तिहां व्यवहारीरे गुणसागर वसे, दान मान गुणधामोरे ॥२४॥ मानव मनमारे मच्छर नाणीये,परिहरि मने अहंकारीरे। अवगुण छंडीरे समता) आणीये, तो सफलो अवतारोरे मानव०॥ आंकणी० तसु घर घरणीरे दोय वखाणीये, वृद्ध मिथ्यामती नारीरे। लहुडी नारीरे समक्ति धारिणी, शीलवनी अवधारिरे मानव० ॥२५|| जिनवर आणारे श्रावक व्रत धरे, देवगुरु भगति अपारोरे । सांझ विहाणेरे पडिकमणुं करे, दान पुण्य । भंडारोरे ॥२६॥ मानव० श्रीजिन प्रविमारे सूज्या विण सही, न जिमे दिन दिन एहरे। निर्मल भगतिएं जिनगुणगावती चिनय विवेक गुणगेहरे ॥२७॥ मानव०
( दूहाः- ) स्वामी सुणीए अतुलबल, पुण जाणीस्ये हेव । हियडा भीतर में ग्रह्यो, सके तुं नीसरि ? देव ! ॥२८॥ जिणवर केरे दंसणे, जेहिं न नामी कोटि, ते नर परभवे दुखिया, माथे वहिस्ये मोटि ॥२९॥
( ढाल-उपरनीः-) पहीली नारीरे अतिमिथ्यामती, धर्मतणी नह धातरे ।
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चिंते प्रतिमारे सांतु इणी परें, जिम को न लहे वातरे ॥ ३० ॥ मानव० खोटी थाबुरे दिन दिननुं टले । नवि विणसे घरकाजरे । एम विमासीरे को घडहडी, लेई प्रतिमा जिनराजरे ॥ ३१॥ मानव० जई भंडारीरे ऊकरडे सही, हरखी कीधुं कामरे । वेला आवीरे जिन पूजातणी, ते ताहरी सोक तामरे ॥ ३२ ॥ मानव० आवी जोवेरेजिनप्रतिमा नही, सहू पूछया लयलाइरे । भोजन न करेरे जिनपूज्या पखे, वार घडी एम थाइरे ॥३३।। मानव० फर्म अतरोयरे तेहगें जब टले, वले सेकनु चित्तरे । श्रीजिनप्रतिमारे काढी तव दीये, लहुडी थई हरखीत्तरे ॥३४॥ मानव० पूजे प्रतिमारे भगति घणी धरी, बार घडी अंतरायरे । कीधो; तेहनोरे कर्म तुझ प्राडूओ, उदय आव्यो इण ठायरे ॥३५॥ मानव० कर्म हसंतारे बंधे जीवडो, नहु छूटे विलवंतरे । नारी) हसतीरे गर्भधरे सदा,प्रसवे जिम रोवंतरे ॥३६॥मानव पातग-है संचेरे कर्तव्य पाडूए, जिण पाडें अंतरायरे । बारवरसनुरे विरद्र तुझ हूवो, वेद्या विण केम जायरे ॥३७॥ मानव०जे भोगवतारे कर्मजू उगयु, तुजने पीडे तेहरे। तेहिव भोईरे छे तुज थाकतुं, माणिस मन संदेहरे ॥३८॥ मानव० थोडे दिहाडेरे दिन वलसे सही, उदय, आव्यो शुभकर्मरे । ज्ञाने लहीनेरे में तुझनें कह्यु, एम गणी तुं कर धर्मरे ॥३९॥ मानव०
( दहाः - ) वली पूछे ते अंजना, मुनिवर कहो विचार । एह दासी
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करमें किसें, पामे दुख अपार ॥४०॥ ज्ञाने जाणी मुनि कहे, वझ मित्राणी एह। एखसव में करी, रहती एकठ तेह ॥४१॥ तें सांती प्रतिमा जिके, ऊकरडामांहि जाम । सखीयें तुझनें कड्यु, ततखिण आवी ताम ॥४२॥ जिनप्रतिमा दीसे अछे, ऊघाडी अंतराल । तें गाढी ढांकी जिहां, आपण संभाल ॥४३॥ दासी इण कर्मे करी, दुखपामे भवमांहि । बंधावे ने छोडवे, जीभ जीवनें पांहि ॥४४॥ गंगदत्ता कडइ वचन, विगुती भवबंध । मंतिामुक्त दुखियां थयां, जिहा दोष संबंध ॥ ४५ ॥ नेउर प्रडिय लखणां, स्पीराय नमालि। रजांसती दुख पामियां, कूडवचन तिण टालि ॥४६॥ अवसर जोई बोलिये, एकज अख्खर सार । अवसर विण बहु बोलणा, जण जण म भणे रामार ॥ ४७ ॥ बोले तास्युं बोलीये, वयणां एतो सार । ज्यु ओल्हाणो फूकीये,तो मुह भराये छार ॥४८॥साजणीयां संसार, मोहडे मीटुं बोलीये। आपां एह ऊगार, कुडि दाझे कीरति रहे ॥४९॥ बोलाव्यो बोले नही, माणस्युं मंडे प्राण । ते आणस तिम छांडिये, जिम भाद्रवानो छाण ॥५०॥ वचनें रूसे मानवी, वचनें तूसे) जाण । वचन विचारी बोलिये, सुख लहीये निखाण ॥५१॥
( ढाल-उपरनीः ) मुनिने पूछेरे वली वली अंजना, हुं पामिस सुखसाररे । पीयडो मलस्त्रे अथवा नही मिले, मिलस्ये मुज परिवाररे ॥५२॥ मानव० मुनि कहे अशुभांरे ताहरां कर्म खप्यां, दुख
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सवि जासे दूररे । मामो मलस्पेरे इण वने तुंहने, सुख पामिस भरपूररे ॥५३॥ मानव० लेई जास्येरे तुंहनें निज घरे, मामाघर भरताररे ! मिलसे तुंहनेरे एम सुणि बंजना, मन हरखी सविचाररे ॥५४।। मानव०
(दूहा:- ) ॥ इण अवसर अंजनातणो, सामो मुरिजकेत। नंदीसर जात्रा)) करी, घर चाल्यो शुभचेत ॥५०॥ चारणमुनि महिमाथकी, थंभ्यो तिहां विमान । तीरथ नवि ओलंघवु, देवु बहु सनमान ॥५६॥ शिरिसर हेठो उतों, वंदे मुनिवर पाय । आपण पुं) धन मानतुं, पामे धर्म पसाय, ॥५७॥ साहम्मीवंदण अववरें, शबदरूप आकार। भाणेजी तिहां ओलखी,उपनो हरख तिवार
(राग-मारुणी, कोई राखोरे मुज घरे नारि-एदेसी)
मामो पूछे इंहा तुमे, किम आव्यां कहो साचरे, अंजनाएं मांडि कडं, धुरथी कारण वाचरे ॥५९|| घरे आवोरे अम्हारे आज,मननी चिंता टालोरे। विलंब निवारो एणीवातें,सगपणरिति संभालोरे ॥६०॥ घरेआवोरे०-आंकणी० अंजनकेत, प्रेमें करी, भाणेश्री तेडी साथरे । चाल्यो पंथ रमाडतो, भाणेजो लेई हाथरे ॥घरेआवोरे० ॥६॥ विमान आकाशे चालतां, घूघरिना टंकाररे। रणके सोना पानडी, मोती झुंबका साररे ॥६२॥ घरेआवोरे० घूघरि शब्दे मोहियो, बालक निमुणे नादरे। ध्यान रहिओ जोगी जिस्यु, धरतो मन आहलादरे ॥३३॥ घरेआवोरे० मासाना खोला थकी, उतरीयो ततखिण
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बालरे। चपलपणे छेहडे गयो, ताणे मोतीमालरे ॥६४॥ घरेआवोरे० ताणंतो वली घूघरी, भूमि पड्यो ते बालरे । अंजनासुंदरी वलवलें, पामी, दुख असरालरे ॥ ६५ ॥ घरे० जीवाडोरे पुत्र रतन, हृदयानंद जीवाडोरे। राखो भूमि पडतो बालक, नयन कमल उघाडोरे ॥ जीवाडोरे० आंकणी० एवडो दुख देइ करी, देव न त्रिपतो हेवरे। नंदन मुख जोवातणुं, सुख न खम्युं ततखेवरे॥६६॥ जीवाडोरेवदैवें हं मारीखरी, माहरी हणी सुख आसरे । कइ में बाल विछोहियां, कई कोईने कर्या निरासरे।६७॥ जीवाडोरे० में अंतमय घणां कर्या, केहनें कीध संतापरे । कइ में आल कूडा दीयां, में कीधां बहुलां पापरे ॥६८॥ जीवाडोरे० खातां पितां पहेरतां, अदेखाई अति कीधोरे । वियोग दीयो में केयनें, जूठी साख में दीधीरे ॥६९॥ जीवाडोरे० थापण मोसा में कीया, छोडी गांठ पीयारीरे । के धन चोया पारकां, निंदा करी अविचारीरे ॥७०॥ जीवाडोरे० सज्जनस्युं द्रोह चिंतव्यो, धर्मि धर्म विछोड्यारे । श्राप दीया में केहने, लोधे करडका मोड्यारे ॥७१॥ जीवाडोरे० बाल विछोहियों धावणा, भांजी तरुवर शाखारे । सरवरपाल फोडी घणी, के समराव्यां आखारे ॥७२॥ जीवाडोरे० नोल कोल उंदरतणां, बिल पूर्या अधिकरांरे । हया कीधी सोटकी, के में कीधा हेरांरे ॥७३॥ जीवाडोरे० के में माला पाड़ियां, के. विलूरी वेलिरे। के काचां फल तोडियां, कोइ सिर दीधी हेलिरे ॥७४॥ जीवाडोरे० गोरुछोरू सती खत्री, संताप्या सुकुमालरे।
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शिलापाषाणें चूरियो, तिण पडतो मुज बालरे ॥७५॥ जीवाडोरे ० एम वलवलती अंजना, देखी सुरजकेतोरे । विमान थकी ते उत, बाल समिप तुरंतोरे ॥ ७६ ॥ जीवाडोरे० पडतां बाल अंगें करि, थइ शिला चूकचूररे । बालकने वांगुं नही, रमतो दीठो सूररे ॥७७॥ जीवाडोरे० फूंक देई रज झाटकी, आलिंग्यो ससनेहरे | पंकथी मणि जिम कर लीयो, अंजना करे दोधो एहरे || ७८ || जीवाडोरे० निराबाध सुत पेखीयो, हरखी ततखिण मातरे । उलांसे निधि नीपरें, वार वार निज जातरे || ७९ ॥ जीवाडोरे • मुजदिधोरे पुण्ये पुत्र, मामें आणी दीधोरे । एह कीधोरे उत्तम काम, मुज मन हरखित कीधोरे ॥ मुज द्रीधोरे० आंकणी० इणबालके चूरी शिला, तिण दिधो तसु नामरे । शिलाचरण एहवो मुदा, वाधे गुणमणिधामरे ॥ ८० ॥ मुजदि० भाणेजी घरलावीया, सूरजकेतु भूपालरे । सजन सहू हरख्या घणा, वधामणां सुविशालरे ||८१ || मुजदी० दीन अनाथ यती भणी, देती दान रसालरे । दिन वोले ते अंजना, धर्म कर्म धुरि ढाल ||८२|| मुजदिधो०
( दूहा : - )
शिलाचूर मामा घरे, वसतो हाथोहाथ । बीजतणो जिमचंद्रमा वाधे साजण साथ ||८३ || शिलाचूर अंजनातणी, पसरी वात विशुद्ध । कस्तूरिना गंध जिम, उत्तम हुइ प्रसिद्ध ॥ ८४ ॥ | पवनंजय इण अवसरें, जीपी वरुण राजान । ओछव शुं घरे आपणे, आव्यो पुरुष प्रधान ॥ ८५ ॥
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( ढाल-कुमरसुवाहु वखाणियेजी-ए देशीमां )
प्रणम्या चरण पिता तणाजी, लीधी.मात आसीस । मंगल दीये सुहासणीजी, करतो सजन जगीस ॥८६॥ कुंवरजी आव्यो उलट आणि, उत्तम गुण मन आणतोजी । महिमा मेरुसमाणि. कुंवरजी० आंकणी० ॥८७||सुंदर मंदिर आपणेजी, पहोतो मन उल्हास । नारी घर दीसे नहीजी, पूछे जण जण पास ॥८८।। कुंवरजी० वाहलो जे हुई आपणोजी, तिण विण नहु रहेवाय। भूख त्रिसा सहु वीसरेजी, अति उतावल थाय ।।८९॥ कुंवरजी न रुचे मंदिर मालीयाजी, धूण कंचण भंडार। ते सवित्रण सम लेखवेजी, मात पिता परिवार ॥९०॥ कुंवरजी० खारेवरस) में नादरजी, कीधो अवगुण दोस । प्रेम एणीयें आणीयोजी, कदापि न कीधो रोस ॥९१॥ कुंवरजी० दिवस घणा मुझ में थयाजी, दुहवाणी तिणि भावि । अथवा पीहरे प्रेमस्युंजी, तेडी गई निज धावि ॥९२॥ कुंवरजी० समाचार नारी तणोजी, जाण्यो सर्वप्रकार । पीताने पूछी करीजी, हियडे धरे विचार ॥१३॥ कुं० विचारी,कीजे जुगतुं काज । गुणादरि अवगुण तजेजी, तेहनी वाधे लाज॥ कुं० विचारी० आंकणी० माय बाप माहरांथयांजी, हियडे अति घणघोर। दूषण विण वहू आपणीजी,काढी करी बहू जोर ॥९४॥ विचारि०कुं० अविचार्यु कारज करेजी, पछतावो तसु थाय । चकूलघात जिम बंभणीजीं, अब छेद जिम राय॥९५॥ कुं०विचारी० काज परखी जे करेजी, तेहने दुख नहु होय। रखिया रोहिणिनी परेंजी, पामे बहु
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सुख सोय ॥९६॥ कुं विचारी०सगासणीजा किहां गयांजी,को नवि आव्या काम । जाती नारी वारी नहीजी, बेसि रह्या निज ठाम ॥९७॥ कुं० विचारी० आदर आथि भणी करेजी, सहको इण संसार । वांके दिन थोडा मिलेजी, उपगारी संभार ॥९८॥ विचारी० बाघ सिंह होस्ये भखीजी, मुइ हुस्ये वनमांह । नारि रतन भाग विनाजी, किम लहीये उछाह ॥९९॥ विचारी० ओसींकल किम थाईयेजी, ताहरा गुण संभार । कुलवंती लक्षण भरीजी, साले रिदय मझार ॥३००॥ विचारी० तुझनें दुख देवा भणीजी, राति एकनो संग। हियडे हरख हुतो घणोजी, रंगे हुओ विरंग ॥१॥ विचारी० चीतवीए अनेरडोजी, थाय अनेरो काज । कर्मगति विसमी अछेजी, ते जाणे जिनराज ॥२॥ विचारी०
दूहाःमात पिता सहुको कहे, कुंवर तुं हठ छंड । नारि अनेरि परणवा, रंगें आदर मंड ॥३॥ कहे कुंवर सुणजो हवे, भोग तणी सी आस । अवर नारिनही एहवी,तेहस्युं स्यु घरवास ॥४॥ मात पिता सीखज दीये, कुंवर आणो नेह । मानो कहण अम्हारडु, अम्हने म दियो छेह ॥५॥ रद्ध वचन करवू सदा, झहे. पुरुष विसेस । वृद्ध वचने छूटा सवे, बांध्या हंस असेस ॥६॥ वायु केहनु नहु करे, लागे दुःख अत्यंत । हिवे हुँ जीवं नही, सहुने कहे एकंत ॥७॥ शोकातुर एम विलवतो, पवनंजय कुमार । चंदन अगर तणी चिता, रचावे तिणवार ॥८॥
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चेह मांहि पेसे जिसें, ऋषभदत्त तिहां आव । त्रण दिवस लगे जीवतो, हवि राख्यो समजाव ॥९॥ शील प्रभाव जीवती, होस्ये दुःख निवार । नारी सोधी आणस्यु, मान्युं कुंवर तिवार ॥१०॥
ढालः-केदारानीःबोल बोली मित्र चालीयोरे, चड्यो विमान आकाश । वन गिरि कंदर जोवतोरे, गाम नगर आवासरे ॥११॥ सूरी मित्रे करो सविचार, उत्तम काज करे सदारे । आणे हेज अपाररे, सूरा मित्र० ए आंकणी० मही मंडल वेगे भमेरे, पूरव पच्छिम देश । दख्खिण उत्तर जोवतोरे, ऊवसव सत प्रदेशरे ॥१२।। मूरा० भमी भमी में थाकीयोरे, त्रीजे दिवस आराम । मूरिजपुरने सरवरें, बेठो सरवर ठामरे ॥१३॥ सूरा० वात करे नारी इसीरे, अंजनासुंदरी नंद । शिलाचूर मामा घरेरे, वृद्धि लहे आणंदरे ॥१४|| सूरा० ऋषभदत्त मन हरखीयोरे, निमुणी सूधीवात । मूरिजकेतु राजा सभारे, आव्यो मुगुण विख्यातरे ॥१५॥ सूरा० दीठी पुत्र रमाइतीरे, अंजना तेणे ठाइ । आंखें अमृत सांचरिओरे, ताप गयो ओहलाइरे ॥१६॥ मूरा० मनवंछित फल पामीयोरे, हियडे हरख न माय। अंजना आदर आदरीरे, ततखिण उभी थायरे ॥१७॥ सूरा०
. दूहाः- . - सती कहे मामा भणी, समाचार विशाल । एह मित्र भरतारनो, ऋषभदत्त सुकुमाल ॥ १८॥ जीव थकी अधिको
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अछे, प्रियनें जिम एक जीव । किसे काजे आव्यो अछे, आदर करो सदीव ॥१९।। सरिजकेत आदर करे, तंबोलासन पान । खादिम सादिम अति घणां, मंडे बहु सनमान ॥२०॥
( चोपाइ:- ) . ऋषभद्रत्त कहे राजा सुणो, वेला न खमे कारण गणो। में दीठी अंजनासुंदरी, गयो किलेश थयो सुख फरी ॥२१॥ तुम्हे सामग्री मांडी घणी, भगति करेवा भोजन तणी । थाए निलंब मुज मन आकुलो, हुं तो छ अति उतावलो ॥२२॥ आवी हुती रावणनी आण, तुड़े चडवानी सपराण । पवनंजय संग्रामें चड्यो, जई वरुण राजास्युं भिड्यो ॥२३॥ जुद्धे करतां जय पाम्यो जिसें, मान महुत बहु पाम्यो ति। जीपी कुंवर आव्यो घरे, मिल्या सगा सोदर मुदभरे ॥२४॥
गाहाःपुण्यवंत नर जिहां गछइ, तिहां तिहां सुंदर रुयडउं अछइ । पूण्य हीन नर जाउ जिहां भावइ, तिहां पुण गयओ निफल आवइ ॥ २५॥
( दूहाः ) सीह न जोवे चंद बल, नवि जोवे धन रिद्ध । एकल्लओ सहसां भिडे, जिहां सासह तिहां सिद्ध ॥२६।। सींहणी तेहवा पुत जणे, जे छप्परि मंडाल। दूध विणासण का पुरिस, बहुआ जणे सीआल ॥२७॥
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( चोपाइ:-) मायबापनें प्रणमी करी, नारी घरे आव्यो रंग धरी । नारी विण घर सूनुं देख, समाचार लहियो सुविशेष ॥२८॥ हियडे दुःख भराणुं जाम, बलवा खेह रचावी ताम । चेह मांहे पेसे जेटले, सायबाप वारे तेटले ॥३०॥ केहy वायु न करे जाम, तिहां वेगे हुं आव्यो ताम । हठे करि मे माग्या त्रिण दीस, मुजने मित्र दीध जगीस ॥३१॥ आज दिवस ते चीजो हुस्ये, जई न सकुं तो वेह/पेसिस्थे । मित्र मिल्यो जोई ते आज, विलंब निवारो तिण महाराज ॥३२॥ तुम्हनें तेहनें हुज्यो कुशल, तुम्ह ओपगार अछे अति विमल । अंजनावनथी आणी तुम्हे, ते उपगार मार्नु छ अम्हे ॥३३॥ मूरिजकेत विचारी करी, वोलावी अंजनासुंदरी । वस्त्र विभूषण महिमा सहित, ऋषभदत्त लेई चाल्यो विहित ॥३४॥ विमानें बेठा आकाश, वेगें चाले मन उल्हास । नंदन सखी सहित अंजना, रूप सबल रंभा गंजना ॥३५॥ प्रल्हादन पुरखर उद्यान, आवी उतरिया सनमान । ऋषभदत्त आगले आवीयो, प्रल्हाद भूमिपति वधावीयो ॥३६॥ नंदन सखी सहित अंजना, वनि आण्या छे दुःख भंजना । सुणी अचंभ्या हरख्या बहू, तुम्हे अम्हे जीवाड्या सहूं ॥३७॥
__ दूहाः। भन धन ऋषभदत्त तु, धन, धन ताहरी बुद्ध । भल :जम ताहरो सफल, कीधा कारज सुद्ध ॥३८॥
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( ढाल-कनक कमल पगलां भरे-ए देशीमाः-)
आणंद अति घणा उपनाए, हरिख्या सह परिवार । ऋषभुदत्त आवियोए, लाव्यो अंजना साथ. ऋषभ० आंकणी० शिलाचूर लक्षण भर्योए,नंदन सुगुण (सजाण) भंडार ॥३९॥ नहु वीसारे गुण कर्या ए, जे छे गुणना जाण । ऋषभ० काजगरा तर जे हुवे ए, काज करे मंडाण ॥४०॥ ऋषभ० नगर सकल सणगारीयुं ए, फूलपगर बहु माल । ऋषभ० तोरण धज आरोपियाए, अष्टमंगळे सुविशाल ।। ४१ ॥ ऋषभ० धवल मंगल मुहासणीए, गाइये गीत रसाल । ऋषभ० मोतिय चोक पूरावियाए, मिलिया बालगोपाल ॥४२।। ऋषभ० घर घर हुंइ वधामणीए, नाचे पात्र सुचंग। ऋषभ० भाट भणे बिरुदावलोए, दान मान बहुरंग. ऋषभ० ॥४३॥ नगरलोक साहमा मिलीए, पहुता वनखंडि द्वंद । ऋषभ० दोल ददामा' गडगडेए, वाजा वाजे पडि छंड ॥४४॥ ऋषभ० मुहते कीधु वहु तणोए, ससुर नगर प्रवेश । ऋषभ० सासु ससुरो उचरेए, धन धन वहु मुविसेस ॥४५॥ ऋषभ०
दूहाः• सगा सणीजा एम कहे, कुल खहु तुं धन-धन्छ । कुल अजूआल्यो आपणो, राख्यु शील रतन्न ॥४६॥ पामी संपद शील बले, लोक भणे जस वाद । फल्या मनोरथ मन तणा, एछे पुण्य) प्रसाद ॥४७॥
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॥ पुण्य तणे
लाटा, पुण्यो ओर पल्हाणीए तुरंग
(चोपाइ:-) पुण्ये) पृथ्वी पिठ प्रसिद्ध, पुण्ये मनवंछितफल सिद्ध । पुण्ये हियडे निर्मल बुद्धि, पुण्य रिद्धि तणी बहु वृद्धि ॥४८॥ पुण्य लहिये बहु परिवार, लोक सवि सेवे अनिवार । पुण्ये हुइ काया नीरोग, पुण्य मनमानीता भोग ॥४९॥ (पुण्ये तणे बल नव नव रंग, (पुण्ये पल्हाणीए तुरंग । (पुण्ये घर लाभे राजण्या, पुण्य) ओछव चंदन छटा ॥५०॥ पुण्य सेवक लाभे वडा, पुण्य लाभे छीना-घड्य। (पुण्ये, पहेरण कोमल चीर, पुण्ये सहुस्युं वाधे हीर ॥५१॥ पुण्य) अंगि सुरंगां रूप, पुण्ये लहिये अकल सरूप । पुण्ये वसवा घर आवास, पुण्य पहुचे मननी आस ॥५२॥ पुण्ये भोजन सरस आहार, पुण्ये लहिये बहु सणगार । पुण्य लहिये जस बहु मान, पुण्य लहिये केवल ज्ञान ॥ ५३॥ नारी ते अंजनासुंदरी, पुत्र जणि आवी गुणभरी। एकज कलपलता में फली, तिम सोहे परिवारे मिलि ॥५४॥ संभारती पूर्वभव कर्म, करे अंजना जिणवरनो धर्म । शिलाचूरनो हनुमंत नाम, साजण मिलि दिधो अभिराम ॥५५॥ प्रल्हादरायनें चिंता टली, राजजोगि सुत आव्यो वली। चिंत्ते राजा वेरागीयो, धर्म, करवा हियडे जागीयो ॥५६॥ गुरु समीपे मुण्यो जिन धर्म, वांछे सदगति लहवा 'शर्म । पवनंजय मुत थाप्यो राज, पोते दीख्या लीध समाज ॥५७॥ प्रल्हाद मुनिवर संयम पाल, सद्गति पाम्यो सवि दुःख टाल । पवनंजयराय पाले राज, प्रजा पीहर सारे काज
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॥५८॥ पृथ्वी मंडल साध्यो खरो, महिमा पसर्यो अति आ. करो। सीमाडाराय प्रणमे पाय, देश देशना साध्या राय ॥६९।। रामचंद्र ने सीता सेम, इंद्र अने इंद्राणी जेम । पवनंजयरायें प्रेमे करी. पटराणी अंजनासुंदरी ॥६०॥ अंजनाने 'अति माने राय, जाणे पामी पुण्य पसाय । वयण कहण न लोपे कदा, भोग जोग अनोपम सदा ॥६१॥ जोबन वय पाम्यो हनुमंत, प्रौढो अंग थयो बलवंत । उदार धीर अने गंभीर, पर उपयारी बावनवीर ॥६२।।
(दूहाः -) जाणो जिनवर वीसमा, श्रीमुनिसवत स्वामि । तास पाट परंपरा, पट्टोधर इण नामि ॥६३।। धर्मघोष सूरीसरु, आव्या अति अभिराम । प्रल्हादन पुरवर तणे, वनखंडि बहु गुणधाम ॥६४॥ वनपाले वधावीया, पवनंजय राजान । वांछिता गुरु आवीया, भाष्यो वचन प्रधान ॥६६॥ राजा राणी हरखीयां, हरखदान तमु दीध । मंडाणे गुरु वांदिया, जनम सफल तव कीध ॥६६॥
(ढाल-मन भमरारे:-) धर्मदेसग श्रीगुरु दीये, प्रति झोरे। काने सुणो सहु सार, जीव प्रति बूझोरे । मढिया मादलनी परें, प्रति० एह संसार असार ॥६७॥ जीव० दस दृष्टांतें दुहिलो, प्रति० मानजनो अवतार । जीव० तिहां पुण लहतां दुहिलो, प्रति० गुरु संजोग उदार. जीव० ॥६८॥ सांभलवो सिद्धांतनो, प्रति.
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३८
लहतां दुःकर जाण । जीव० पांचे इंद्रिय पडवडां, प्रतिक दुर्लभ छे मन आण ॥ जीव० ॥ ६९ । चीव मिथ्याती छे पणा प्रति० थोड्य समकित धार । जीव० समकित पाखे जीवनें, प्रति दुहिलो भवनो पार ॥ जीव० ॥७०॥ देव, सुगुरु धर्म साचला, प्रति० ए समकितनो मर्म ॥ जीव० तीर्थकरनो भाखीयो, प्रति० दुहिलो, लहीये धर्म ॥ जीव० ॥७॥ विषय त्यजता दुहिला, प्रति० इंद्रिय तणा विकार ॥ जीव० छांड्या जोइये जीवने, प्रति० चारकषाय प्रकार ॥ जीव० ॥७२॥ अंग नीरोग पामी करी, प्रति० छंडो पंच प्रमाद ।। जीव० नदी तरंग जिम चंचलो, प्रति जोबन वय उनमाद ।। जीव० ॥७३॥ संध्यावान कुंजर कान. प्रति० अथिर आभानी छांह । जीव० पीपल पान जिम वीज़ली, प्रति० अथिर कायरनी बांह ॥ जीव० ॥७४॥ तेम अथिर छे आउखं, प्रति बूटयुं नहुँ संधाय । जीव० आरंभे जीव भव भवें, प्रति० 'खिण खिण पापे बंधाय ।। जीव० ॥ ७५ ।। सांझ समे जिम पिंखीया, प्रति० एकठ मिले सुठाण । जीव० विहाणे जाइ
जूजूआ, प्रति० जूजूई दिसि जाण ॥ जीव० ॥७६।। मात पिता बंधव सुता, प्रति० तिम ए. सहू परिवार । जीव० कर्म वशें एकळं मिल्यु, प्रति० वीछडता नहुं वार ।। जीव०॥७७॥ अनंत काय छंडो वली, प्रति० बाविस तजो अभूख्य । जीव० अणगल जल नवि झीलीये, प्रति० हींचोले हींचे म दख्य !॥ जीव० ॥ ७८ ।। दीवे पड़े पतंगीया, प्रति० अजयणा तिहां
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३९
टाल । जीव० धानेंधण सवि साचवी, प्रति० जीव दया संभाल || जीव० || ७९ ॥ सोल पहोर वोल्या पछी, प्रति० दही व कल्पे आम । जीव० कांजी वडां जे नवि चल्यां, प्रति० कल्पे चोवीस जाम || जीव० ॥८०॥ बासी कठोल तह छासस्युं प्रति० कदापि न कल्पे जोइ । जीव० आगासे अंधारडे, प्रति० डाह्यो न जिमे कोइ || जीव० ॥ ८१ ॥ जिमतां नीति करंतडा, प्रति० वचनम बोलो जाण । जीव० क्रिया सकल विधि साचवो, प्रति पालो जिणवर आण || जीव० ॥८२॥ विघटे मात तथा पिता, प्रति विघटे बंधव जोड । जीव० सुत विघटे विघटे सुता, प्रति० स्वघडे बहिनि विखोड || जीव० || ८३ ॥ विघटे मित्र विघटे सगा, प्रति० कुटुंब अनें परिवार । जीव० दासी दास विघटे कदा, प्रति० दुपद चौपद सार || जीव० ||८४॥ विघटे मुगताफल धरा, प्रति० विघटे धन भंडार । जीव० कनक रतन रजत सही, प्रति० विघटे सिविचार || जीव० ।। ८५ ।। अविचल मेरु तणी परें, प्रति नहू विघटे धर्म एक । जीव० आश्रव संवर ओलखो, प्रति० जाणो विनय विवेक || जीव० ||८६|| निश्चल एकज आदरो, प्रति० जिन धर्म सुख दातार । जीव एकसना आराधतां प्रति० लहीये भवनो पांर || जीव० ||८७||
॥
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दूहा:
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श्रावके साधु तणा सही, बिहे भेदें जिन धर्म | बार बत भाविक घरे, मुनि महाव्रत ए मर्म ॥ ८८ ॥
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४०
( चोपाई :- ) सुणी धर्म अंजनासुंदरी, भरतार भणी पूछे मति खरी । स्वामि तुम्हे मुझनें दियो आण, जिम हुं दोख्या लेउ सुजाण ॥ ८९ ॥ भरतारें नारीनें भ्रूणो, आग्रह किधो रहिवा तणो । वेरागें भावी सुंदरी, वारी न रहे दृढ मति करी ॥ ९० ॥ पवनंजय चिंतें राजान, राणी दीख्या लीए निदान । तो हिव हुं रहीनें स्युं करूं, धर्म सखाईयुं ते आदरुं ॥ ९१ ॥ घर आवी सामग्री की, हनुमंतनें राजा पद दीघ । राणी सहित संयमे) आदरे, तप संयम बहुली खप करे ||९२ || निरतीचार पाली चारित्र, बेत्रे पहुता सराणि पवित्र । भवनां दुख सघलां टालस्ये, अनुक्रमे शिव यति सुख पाये || १३ ||
ढाल:- साहेब सांभलोरे - ए देशी.
अंजनासुंदरी ये खरोरे, पाल्यो शील आचार | भवियण जण तिम पालो भावस्युंरे, जिम लहो कीरति सार ॥९४|| सील समाचरोरे, दुर्गति दुख न कोइ । शीले संकट सघलां उपसमेरे, सद्गतिनां मुख होइ ॥ ९५ ॥ शील० मल्लि जिणेसर जंबू मुनिवरुरे, भद्रबाहु बँकचूल । श्रेष्टि जिनदत्त वर विरागियारे, शीलवंत अनुकूल ॥ ९६ || शील० ब्राह्मी सीता शीलवती सतीरे, राजमती सुकुमाल । कमला खुलसा चंदन बालिकारे, पाल्यां शील रसाल || ९७|| शील० शीले पावक जल यल सागरुरे, सरप कुसुमनी माल । रिपु सुहृद सानिध कर देवतारे, वारण थाये सीयाल ॥ ९८ ॥ शील० (नागोर नगीने
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साते जिणहरुने, भादि शांति जिण पास वीर जिणेसर ते प्रणमी करीरे, चोपइ कीध उल्लास ॥ ९९ ॥ शील० श्रीवीर पट्टोधर अनुक्रमे प्रगटीआरे, श्रीवादिदेवसूरींद । वादि न्यायचक्रचूडामणी समोरे, समता सायर धीर गीरींद ॥ ॥ ४०० ॥ शील० नागपुरीवडतपगच्छपति जग जाणिएरे, श्रीपासचंदमूरीस । तास पटोधर गरुअडि गाजतारे, समरचंदसूरि जगीस ॥१॥ शील. राजचंदमूरि गणधर गाइयेरे, वाचक रतनचारित्र । तास पसाये चोपइ एह रचीरे, सेवक विमलचारित्र ॥२॥ शील० संवत सोलह वरसें त्रिसठियेरे, मागशिर मास विकास। चोपइ जोडि रीजे गुरु दिनेरे, भणतां ज्ञान प्रकाश ॥३॥ शील० एह चोपइ सुणीने पालीयेरे, शील प्रमुख जिनधर्म । इह भव पर भव सुखनी संपदारे, लहीयें शिव गति शर्म)।४॥ शील समाचरोरे ॥
__ इति श्रीगुर्जरभाषायां पद्यमयनिबद्धं शीलविषये श्रीअंजनासुंदरीचरित्रं श्रीमन्नागपुरीयवृहत्तपागच्छनायकश्रीवादिदेवसूरिपुरंदरपरंपरायां युगप्रवरक्रियोद्धारकारकसिद्धांतमहोदधिश्रीपार्श्वचंद्रसूरीश्वरपट्टप्रभाकरश्रीसमरचंद्रसूरिवरशिष्यश्रीराजचंद्रसरिराजचरणानुचरवाचकवर-श्रीरत्नचारित्रगणिशिष्यपंडितप्रवरमुनिवरश्रीवमलचारित्रकृतं सकलागमरहस्यवेदिजैनाचार्यवर्यश्रीभ्रातृचंद्रसूरीश्वरशिष्यमुनिसागरचंद्रेण संशोधितं च संपूर्णम् ॥
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॥ आ रासनी अंदर आवेला कठण शब्दोना अर्थः॥
पृष्टांक, गाथांक, ४ ३४
७५
१४ १५
१२५ १२८
SS
फेर.
१४८
१६३
१६४
ले० मुनिसागरचंद्र:मूल शब्द, तेनो अर्थअहिठाणो अधिष्ठान, भाजन. विसीगत सर्प. खारकी
चंडाल. पेके
जोके. बहुडि सणी
स्नेही, संबंधीओ. उवरिठ
उपराठा. विराडे
लिलाडे. अहिनाण अंधाण, निशानी. सांतु
संताडं, गोपुं. सांती
संताडी, गोपी. विछोहियां जुदा पाडी अंतराय कर्या.
कलंक, आरोप. आथि
पैशो, द्रव्य. आम
काचुं.
पहोर. नीति
झाडो, पेशाब विखोड तिरस्कार पामेल.
१८१
हेलि
जाम
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आचार्यश्रीभ्रातृचन्द्रसूरिग्रन्थमाला पुस्तक-३३.
श्रीमन्नागपुरीय वृहत्तपागच्छाधिराज श्रीपावचंद्रसूरीश्वरजीना शिष्य
शास्त्रविशारद महर्षि श्रीब्रह्माजी कृतःश्रीचारप्रत्येकबुद्धचरित्र-रास.
संशोधकः-श्रीभ्रातृचंद्रसूरि शिष्य मुनिसागरचंद्रः॥
जिणचोवीसह पयकमल, मनधरि हर्ष नमेसु । सुगुरु वचन सुभमंत्र जिम,हियडामाहि धरेसु ॥१॥ मुनिवर जे जग जाणिये, प्रत्यय देखी बुद्ध । मन आणंदें वंदि करि, कहिस्युं तासु प्रबंध ॥२॥ जे असंख इणि परे थया, तो पुण ए मुनि चार) चवण दीख केवल मुगति, साथ लहे सुविचार ॥३॥
( गाथा ) ( करकंडु कलिंगेसु', पंचालेसू अ दुम्मुहो' । नमीराय विदेहेस, गंधारेस अ नग्गइ ॥१॥ वसभेज इंदकेऊ', वल अंबेअ पुष्फीए बोही। करकडु दुम्मुंहस्सअ, नमिस्स रंधाररनोअ ॥२॥५॥चोपइ॥ जंबूदीप भरत नरठाण, चंपानगरी महाप्रमाण । णुकणकंचण मणि ते भरी, परतख दीसे जिम सुरपुरी ॥६॥ तिहां दधिवाहण नामें नरिंद, सोहे सुर जिस्यो गोविंद । तसु घरे घरणी पद्मावती, सीलवंत जग मोटी सती
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४४
॥७॥ चेडारायतणी अंगजात, जेहनुं नाम जगत्र विख्यात । तासु दोहिलो थ्यो एकवार, जाणे पहिरं नृप शीणगार ॥८॥ मस्तके छत्रधरी ते राय, गयवरखंधचडी वन जाय । कुसुम फलें वनरति मनरमे, पण न मनोरथ पूगे किमे ॥९॥ तिण आरति तनु दुर्बल थाइ, पूछ\ कारण तेहनो राइ । कह्यो भाव नृपराणी बेव, जयराज बेठा छत्र धरेव ॥१०॥ जाइ जाम इणि अवसरे मेह, वूठो थ्या सुसीतल देह । रुंखराय उल्लसी
आहार, पुहवी चिहंदिसि पूरी वार ॥११॥ चिहुँदिसि चातक प्रिय प्रिय लवे, डेरडा बोले सरि नवे । घन आगम वलि जाणी शिखी, नाचे चित्त न थाइ दुखी ॥१२॥ सीतल सुरभि धरणिनो गंध,बेठा ल्ये गयवरनो खंध । वन.सनमुख तो चाल्यो करी, जाणि के राउ राणी अपहरी ॥१३॥ पुहची न सके सेना लार, अटवी माहि ते जाई तेवार । वडतरु देखी राजा भणे, प्रिय साख साहे बलपूणे ॥१४॥ नृप भाषित राणी मनग्रह्यो, बडतरुतले जेतले करि गयो । राइ साख गाढी दृढ धरी, उतरियो मन चिंता खरी ॥१५॥ कीजे सुं ते नहु संभरे, राय नयरि चूंपा अणुसरे। राणी साख ग्रह तलह बही, तो जाइ गज अटवी वही ॥१६।। माणुस कोई न दीसे जिहां, महासरोवर देखी तिहां । करिवर पेठो उंडे वार, चिहुं दिसि रमे उलाले वार ॥१७॥ राणी मोडे स्युं उतरे, दिसि भूली चित्त महिबरे। भयबीहे चिहं दिशि जोवती, भमे वनें कर्मगति 'चिंतती ।।१८।। जाइसु किहां किसी गति हवें, खिण करि
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४५
रूदन आप धीरवे । चिंते वने वनचर संचरे, रखे प्राण मुझ कोइ हरे ||१९|| तिण कारण थाई अप्रमत्त, पडीवज्जि वार सरण एक चित्त । निंदे पाप खमी जीवराश, अणसण लेइ सागार विमास ||२०|| वली आहार उपधनें देह, इण अवसरेघोरा एह । हियडे जंपे पंच नवकार, आगम पू माहिज सार ॥ २१ ॥ हरि करि विसहर नें संग्राम, तसु भयनासे तां नाम । डाइण साइण नें वेताल, मारि न पुचे तसु कोइ काल ||२२|| हियें बसे जेहनें नवकार, तासु न कोई करे विकार | एम चिंती आवेरी गई, वापस देखी हरषित थइ ॥ २३ ॥ जाइ समीप नमे जेतले, तापस तमु पूछे तेतले । कहो मात आव्या किहां हुती, कहे तिहां परमावर सती ||२४|| चेडानुप धू करि अपहरी, इंह आवी करिथी उतरी । तापस ते संभलि एम कहे, रखे वृछि ! तुं हवें भय लहे ||२५|| वनफुले करी करे पारशुं तापस तो दिए आदर घणुं । वसति ठांम लेइ मेलहइ, तापस एहनुं वचन एक कहइ ||२६|| अम्हे इहांथी आघा नावीये, नयर दंतपुर दाखी दिये। दंतचक्क इह अछे नरेश, तुं करज्ये इण पुरें प्रवेश ||२७|| एम कही तापस पाछोजाइ, परमावइ पुरि पुहती थाइ । महासतीनो देखी ठाम, जइ गुरणी पूगे लागे ताम ॥ २८ ॥ कही यथास्थित पूरव कथा, जे वीतीछे न हु अन्यथा । ते संभलि साहूणि एम
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भणे, बछ ! म दुखकर मन आपणे ॥ २९ ॥
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(ढालः-छाहुली, जेम कोइ नर पोसए-ए देशीमां)
संपद आपद कर्म बसें, काल प्रमाणे उल्लसें, मनरसें भोगविये तेहज सहीए । खिणमाहि सुख संयोग, दीसे खिण माहें सवियोग, ल्यो जोग समझावी एहवू कहीए ॥३०॥ चिंते हिव संजम लाग, हियडे आणी वैराग, भवराग टाले संजम
आदरीए । गरभ न भाष्यो भयाकरी, मनमाहें माया करी, ||अवसरे प्रसव सुत प्रच्छन करीए ॥३२।। कंबल रयण ढंकिय,
करि मुद्रा नामंकिय, संक्रिय मूने मसाणे बालक धरेए । देखी रक्षक चंडाल, निजनारीने ये बाल, सुखसाल अवकनिष नामें करेए. ॥३२॥ महासती तसु जाइ घरें, ते बालक सुं सुख करे, मन ठरे देखी सुत रमतो घणुए। पूछे महासति गर्भवात, ते मूओ एम कहे वात, ते मृत लोक कहे मातंगतणोए ॥३३॥ बालक बहु मिले एम भणे, हूं राजा छु तुम्हतणे, बहु बणे जो धो कर मुझ सवि मिलीए । तो तमु कानें छे कंड, तेह जनो ल्ये करकंड, करकंडु नाम कह्यो बहुजण मिलीए ॥ ३६॥
(ढाल:-) ते महासतिस्थु वरते रागें, महासति जे कोइ भिक्षा मागें । सरस लहि ते तिहनें आपे, मातंग नायक जे तमु थापे ॥३५॥ तेय कुमरमु मसाण सुरख्खे, तिहां दोय मुणिवर आव्या पिरुखे । वंसरन उभा जोवंत, मांहो माहें एम कहंत ॥३६॥ एक दंड एह माहें एह, लक्षणे पूरो नहु संदेह । अंगुलचार
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४७
जोम वाधस्ये, तेतलें पूरे लक्षण हुस्ये ॥३७॥ तो जे कोइ ए दंड आहेइ, ते नि ,मुं नरपति होइ । हरिकेशी सुत वयण बधारे, एक वलि ब्राह्मण सुणे तिवारे ॥३८॥ अंगुल, चार खणी द्विज कापे, तो मातंग न लेवा आपे । ब्राह्मण कहे दंड लेवा दें, ते नहु धे,एम पडया विवादें ॥३९॥ मातंग सुतनें तो द्विज पूछे, कहे किण कारण ए तुझ रुच्चे। वलतो भणे एहनें पाण, राजरिद्धि सिरि मुझ घरेजाण ॥४०॥ बीजा द्विज कहे जइ तुं राय, हुवे तो एहने करे पसाय। एक गाम देजे ते माने, झगडो टाली कीधा काने ॥४१॥ तो पुण कहे द्विज एह विणासी, लीजे दंड एक परि विमासी। ते मातंग तात सुणि वाणी. नासि गया कंचणपुरि जाणी॥४२॥ राय अपुत्र मरण तेह पामे, सवे मिली चिंते परिणामें । हय सिणगार्यो बाहिर जाइ, देइ प्रदक्षण) उभो ठाइ॥४३॥
( वस्तुः - ) करिय आदर२ लोकजोवंत, राज चिन्ह देखी कूमर, जय ज्ञयारव तूरवाजे । दह दिसि गायें गीत घणा, जिसो मेह अंबर गाजे। निद्राभर उठी कुमर, लिये ते खिण विश्राम । हयडेसी जन परिवों, पहुतो रुप घर ठाम ॥४४॥
( दूहाः- ) विप्र मिली आड़ा थया, नवि द्ये नयरि प्रवेस । ए मातंग अछे सही, मनधरि रोस विसेस ॥४५॥ दंडारयण कुमरें ग्रह्यो,) जलवा लागो जाम । विप्र सहु बीा घj, ले न सके कोइ नाम
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॥४६॥ वाटधान वासी सयल, विप्र किया हरिकेशि । करकंड दधिवाहण सुतें, मने अभिमान निवेश ॥४७॥ ताम विम ते. आवियो, मागे गामज वुत्त । राय भणे ल्ये तेय तुं, जे माने तुझ चित्त॥४८॥मुझ घर चंपा नयरिछे, तिणे प्रदेश ये गाम । दधिवाहणपति लेख घे, एहनें देज्ये गाम ॥४९॥ नगर जेय तुझनें रुचे, ते माहरो तुं लेइ । एम दधिवाहण संभली, वलतो वचन भणेइ ॥५०॥ जे हुइ निज आदेसकर, कहतां तसु सोहेइ । पुण रे न लहे अधम ! तुं, आपणपुं ते कहेइ ॥५१॥ दूत लेख वलतो दिए, करकंडु आण्यो कोप । कटक मेलि चंपा गयो, को जुद्ध आरोप ॥५२॥
( चोपड:- ) इणि अवसरे संभल महासती, रखे लोक विणसे बीहती। पूछी महत्तरि चंपा गइ, सहू वात करकंडुने कही॥५३॥ सुत!
तात ताहरो होइ, जाणे वात जिसीछे सोइ । पुण अभिमानी न. पाछु वले, दधिवाहननें तो जइ मिले ॥५४॥ परिजन ओलखे लागे पाय, वंदी विधिसुं पूछे राय। कहे गर्भनी परि किम.किद्ध, तिण करकंडु दिखाली दिद्ध ॥५५॥ पोल उघाडी दल सनमुख सर्यो, सुत पण, कटकमाहे निसयों। वेगे पिताने लागे पाय, मुझ अपराध खमिजो ताय ॥५६॥ दधिवाहन मन धरि संवेगे, आर्किमिले सुतने अतिवेग। दधिवाहन घे मुतनें राज, दीक्षा लेइ साधे सिवराज ॥५७॥ बन्हे राज पाले करकंडु, महाराय थ्यो अतिहिं प्रचंड । तसु गोवल अतिवल्लभ घणा, तेह तणी तमु नहु
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भरतखेत्र उज्जेणी ठाम, नयर सुदंसणपुर इण नाम ॥८१॥ मणिरथराय करे तिहां राज, तमु लघु बंधव छे युवराज । नामें जुबाहु गुणवंत, मयणरेद्र वरनारी कंत ॥८२॥ सहजें मयणरेह सुकुमाल, सती शिरोमणि शशि सम गाल । बारह व्रतधर, ते श्राविका, जिनशासननी सुप्रभाविक्रा ॥८३॥ तासु पुत्र, गुणनो भंडार, चंदजस नामें अतिहिं उदार । अनादिवसे मणिहाणे दिठ, मणिरथ हियडे एदन पइठ ॥८४॥ मयणरेह रूपें मोहियो, । आकुलव्याकुल थ्यो नृप हियो । भाइ भत्रीजनी न धरे संक,h लाज लोपवें थयो निसंक ॥८५॥ चिंतातुर चिंते संभोग, किणिपरे मिलस्ये ए संजोग । पहिलं मंडं एहसुं प्रीत, जाणिसुं पछे जिसो छे चीत ॥८६॥ राय संतोष करवा भणी, कुंकुम कुसुम दिये भेटणी। अलंकार वस्त्र तंबोल, वलिय सराग कहावे बोल ॥८७॥ मयूणरेह ल्ये मनें न कूड, पण तरपति मिथ्यामति मढ। अन्न दिवसे ते नरवइ भणे, था सुंदरि! अम्ह नारीपणे ॥४८॥ जो तुं मानिस माहरी वाच, तो तुझने मे दीधी वाच । करिसुं सयलराज सामिणी, महारिद्धि आपीसुं तुझ घणी ॥८९॥ मयणरेह तो वलतुं कहे, एम सुपुरुस रेख किम रहे । माहरो सामिपणो कुण हरे, तुझ भाइ मुझ उपर करें ॥९०॥ तव जेसो सुपुरुष माहरे रेह, ते वलि तजे आपणु देह । पण विरुओ ज करे आचार, इह पर लोक जिणे धिक्कार ॥११॥
( गाथा:-) जीवाणं हिंसाएं, अलिएणं तह पदबहरणेण । पर
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५४ इथ्यि कामेणं, जीवा नारयमि वुच्चंति ॥९२॥ परणि कुलवति नारीतजे, परनारीने जे नर भजे । तेय नीच वायस जिस जोइ, तजि तलाव घट चंचु डबोइ ॥९३॥ महाराय ए मति पाडुइ, कहेनें तुज किसी परे हुइ । हिव तुं म झंखिस आलपंपाल, राजा करे बदन विकराल ॥९४॥ बोले नही हिये परजले, तेसुं मनें सुरत अटकले । जीवें जां जुगबाहु भाइ,तां ए बीजा पाशे न जाइ॥९५॥ किणही परे तव धरि विश्वास, बंधव केरो करूं विणास । प्रछे भोगवू पाणेकरी, अवर उपायने मे चित्तधरी
___ ( दूहाः-सोरठाः-) मयणरेह एकवार, सुपने ससिहर पेखि करि । जइ कहे भरतार, बुद्धि विमासी फल लहे ॥९७॥ त्रिभुवन माहे विख्यात, होस्ये सुत एम जाणज्यो। ए मुणि साची वात, मात हरख हियड़े धरे ॥९८॥ पुत्रथयो गर्भवास, तासु प्रभावें दोहिको। हुओ त्रीजे मास, मनोरथ रूडा करे ॥९९॥ पूजु जिणवरदेव, कुसुम धूप चंदणे करी। कीजे मुणिवर सेव, सुणी श्रवणे धर्मनी कथा १०० पुत्यहतणे प्रभाव, पूरो पूरे दोहलो । एम एकण प्रस्ताव, मास वसंत सुआवियो ॥१०१॥
(फाग-ढालः- ) चिहुं दिसि मंजरि परिमल महके साल रसाल, फूल फले वणराइ सोहे झाक झमाल । कोइल करे टहूकडा मंथर वाये नाउ, मयणरेह साथें करि जाय वने जुवराउ ॥२॥ जोवे वन वन फलल्ये राजा कुसुम सुवास, कदली गेह करावे जाण के
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सुर आवास । अन्न पान सरसईभला भोजन करे विसाल, क्रीडा चिहु दिसि करे फिर २ रंग रसाल ॥३॥ इणि अवसरे रविकर आथम्यो पुहवि अंधारो होइ, निज निज ठामे अपर सहूकोइ पहुता लोइ । कुमर रहे. केलीघरि निसी मराणरेहसाथ, अवसर जाणी मणिरथ आवे असिधर हाथ ॥४॥ फल्यो मनोरथा माहरो विणासु हिव जुगबाहू, मयणासं भोगविस्युं सुख विचित्र उछाहू। सुरतकेलिकरि सुता बेवइस्त्री भरतार, चिहुं पासे रखवाला फिरे करे खंखार ॥५॥ जुगवाहू मणिरथ पूछे कहो सुवेग, में जाण्यो कोइ राने वेरी करे उदेग । इण कारण इहां आव्यो मंडप करे प्रवेस, उठे संभ्रमसु जुराबाहू नहिय विसेस ॥६॥ मणिरथ कहे चालो जइये नयर मझार, आपणनें इहा रहिवो जुगत नही चित्त विचार । कुमर सजाइ करीने अथ परिवारे जाम, करिधरि खडग विणास्यो मर्म प्रदेसें ताम ॥७॥
दूहाः- मयणरेह मने दुखधरी, रोवे करे पुकार । एम निसुणि एकठ मिल्यो, जुगवाहू परिवार ॥८॥
( ढाल-बलभद्र लेइ आव्यो नीर-ए देशीमां )
परिवार सहुको जंपे, तुं कांइरे कायर कंपे। कह वात जिसी तें कीधी, जगमाहि अकीरति लीधी ॥ तव राय कहें भय डरतो, मनमाहेमाया करतो। मुझ हाथथकी असि पडियो, तिण एह कूलंक सिरचडियो ॥९॥ राउ बोलतो परखियो, जाण्यो हियडे कूड़। जाइ कडे चंद्रजसनें, गोडो मोहें मूढ॥ मन
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मूढपणुं अतिधरतो, करुणे सरे बहु रोवंतो। बहु वैद साथि लेइ आवे, चंद्जस मुत तात बुलावे॥१०॥ जोइनें वैध विचारे, तो
औषध अफल विचारे । सर्व अंग थया निकलाप, लोचन दोय मीचे आप। सीतअंग्र सघलो थयो, जाणी मरण अवथ्थ । कोमल वचन करी कहे, मयणरेह परमथ्थ ॥११॥ परमथ्थ एहछे साचो, तुम्हे समताचे रस) राचो । केहिं उपरे म धरो रीम, पडिवजि चउ सरण जगीस ॥ पूरवकृत निंदो पाप, जेहनो रहवणां थयो व्याप । सुभ असुभ जेहवा कीजे, कल परभवतासु लहीजे॥१२॥
(गाथा ) जं जेण कयं कम्म, अन्न भवे इह भवे वसंतेणं । तं तेण विडयव्यं, निमित्तमित्तं परो होइ ॥१॥ तिण कारण तुं साथें ल्ये, संबल सयल. सुजाण । अरिहंतदेव मुसाधगुरु श्रीजिनवचन प्रमाण ॥१३।। सुप्रमाण पंचाविकार, करि पाप ठाम परिहार। वोसिराम्रो परिगह संग, जिम हुवे शिवरमणीरंग ॥ एके सरप जिणंदह धम्म,जिणटले मरण जर जन्म। बे करजोडी सविमाने, करे काल अपूरवध्याने ॥१४॥ श्यो देव, सुरलोके जइ, करे चंदजन सोक । राते सरीर रखवालता,रहे सहुकोइ लोक ॥१५॥ सर्वलोक सोकभर देखी, चितरागरंग उवेखी। धरि मुयणरेह धेयगे, निंदे निजरूपविभाग॥ हिवं इहां जे की रहिये, तो सील अंग्रे फल लहिये । परदेसि ते गमन विमासे, नहीं तो नृप पुत्र , विणासे ॥१६॥ एम चिंतवि चल्ली निसें, महादुख्खि संतत्त ।
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प्रयत्न कामणा ॥५८॥ सरदकाले एकण प्रस्ताव, सेत वच्छ जायो एक गाव । देखि कहे नृप एहनी माइ, रखे कोइ दूहवे नित जाइ ॥१९॥ दूध न दीये जिवारें छेह, अपर धेनु पये पोसो एह । तिण करि गोप ते थ्यो मयमत्त, हूओ खीरपानि अतिरत्त ॥६०॥ दीठो राय केतले काल, आवी जरा तासु तिण काल । महाकाय हाड पंजरे, पाइरुआं ते पराभव करे॥६१॥ चिहं दिसि
आवी चंटे काग, झरे नयण जिम पाणी माग। उठी बेसी नसके 'किमे, जाइ खीजावे बालक रमे ॥६२॥ एक अवसरे तेह आवे भूप,देखी धुरंधरतणो सरूप । अहो किसीपरे ए सोभतो, जइये जोवन वये दीपत्रो ॥६३।। हिव वायस पाडा परिभवे, कहो इसीपरे ए किम हवे । पण छे ए संसार असार, जे विणसतां न लागे वार ॥६४॥ इंद्र धनुष जेहवी वीजुली, अति
चलअरे तसु अटकली । तिम ए धन बहु जन सम भाइ, एक कून्हे नहं निश्चल थाइ ॥६५॥ (सांश समे तरु आवी मिले। थये प्रभाते जूआ टले । जिम पखौ तिम ए परिवार, वीछडतार नवि लावे वार ॥६६॥ जिण तनि जोअण सय संचरे, तिण जर आव्ये चरण न भरे । खिण संगुर ए.जाण सरीस एह उपरि किम राचे धीर ॥६७।। एवमादि सघला संबंध,चीतवतो करकंदु" पतिबुद्ध । पंचमष्टि आपें करे लोच, विषयकषाय कियो संकोचे ॥६८॥ सासण देव ते आपेलिंग, संजय पाले रुषि मनरंग । ते मुशिवरनो मनधरि नाम, हरषे ब्रह्मो करे प्रणाम ॥६९॥
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( गोथाः-) । सेयं सुजायं सुविभत्तिसिगं, जो पासि वसहं गुहमज्जे। रिद्धि अरिद्धिं समुपेहिआणं, कलिंगराया विसमिख्ख धम्म ॥७०॥ इति श्रीकरकंडुचरितं ॥१॥ अथ द्विमुखचरितं प्रारंभः
( जंबूस्वामिगीताछंदो-ए ढाल:-) धुरि वृंदोरे सुगुरुचलण रलियामणु, हिव बोलिमरे चरित दुमुखे मुणिवरतणो। कंपिलपुररे नयर भरते जग जाणिये, तिहां नरपतिरे सदुहरिवंश, वखाणिये:-वखाणिये गुणमाल नामें तासु रमणी तेहसुं, सुख भोगवंतो एक दिवसें दूत प्रते पूछे इमुं। कहो अपर राजा राजाजोतां किसो मुझ उणो सही, तो दूत जंपे मने न कंपे नाथ ! चित्र सभा नहीं ॥७१॥ तव नरपतिरे सेवक नरपते एम भणे, लह कीजेरे सभा मंडाणे अतिघणे। धरा खणतारे पंचवन्नमणि दीपतो, सिरमंडनरे मुकुट निकल्यो दीपतो:दीपतो मूरिज दीपनी परे रायनें जइ वर कहे, वधामणी तमु प्रबल आपी राउ हियडे गहगहे । वजावि तूर करेवि ओछव भूमिथी बाहिर लीये, थोडले काले सभा मंडपे निपने राय हरषिये ॥७२॥ सुभ दिवसेंरे मुकुटसिरे आरोपियो, तव दीपेरे मगट प्रभावे दुमुख थयो । तब बेसेरे चित्र सभामाहे सोहतो, ते मुकुटेरे अचरिज जनमन मोहतो:-तसु अछे सात सुपुत्र गुणवंत रूप तेज लख्खणधरा, एक नहीं बेटी एह मोटी चित्त
आरति कंधरा । अन्यदा मंजरि सुपन सुचित हूइ मदनमंजरी, नारी कला करि तनु सुसोभित रूपे जिम सुरसुंदरी ॥७३॥
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इण अवसरेरे चंडप्रद्योत धरणि धणी, उजेणीरे नयर निवासी
अतिगुणी । कहे आवीरे दूत) दुमुख नृपयदु थयो, एम बोलेरे (संभलि अणखें गहबह्योः-गहबह्यो मुकुट विचार संभलि दूतमुखे एहर्बु भणे, ए मुकुट रत्नज अति अपूरव जोइये घर अम्ह तणे । मूकज्यो शीघ्र नहीं ते अथवा जुद्ध सजाइ करो, एम मुणी दोमुह कहे वलतो कह्यो अम्हारो जइ करो ॥७४॥
( गाथा:-) देहि अनलगिरि हत्थी',अग्गी भीरुतहा रहवरोय। जाया य (शिवादेवी', लेहारिअ लोह जघो॥१॥ ए च्याने द्यो साढ़े मुकुटह तणे, एम संभलरिरे चंडद्योत रोसे घणें । जद उपरिरे चतुरंग बल सज्जी करी, धरि आगलेरे लक्षद्वनि ममत्त करी:दोय सहस रथ हय, अयुत पंचे कोडि सग पायक तणी, नहु पार लहिये अवर रिद्धिहि चाल्यो उज्जेणी धणी । पंचाल देसह संधि पुहतो दुमुख बल सजि आवियो, संग्राम करतां दुमुख जीतो सबल वलि चित्त भावियो ॥७५|| कठपंजरेरे चंप्रद्योत नृप चालियो, दधिवाहणरे नयर आवि जस ध्वज लियो। एक दिवसेरे रायसुता.भा जिसी, प्रद्योतेरे दीठी तेहज मनवसीःमनवसी मंडपे सभा भूपति सपरिवार बेठो, मुख छाय विलखि जुहार करतो राय दोमुहि दिठो । पूछियो सयल समाधि वलतो न घे उत्तर ते सही, हसि पड्यो राजा वली पूछे वात जिम थी तिम कही ॥७६॥ तुझ पुत्रीरे मुझसुं पाणि ग्रहण करे, तो निश्चेरै जीवित माहरो ऊगरे । एम निरतोरे जाणि प्रद्योत
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छोडावियो, निजपुत्रीरे मदनमंजरी वरकियो । बहुदियो सार्थे कटक तेहसुं नयरि उज्जेणी गयो, आवियो जाणी. इंद्र महुच्छव चिते दुमुह हरषियो । एक थंभ मोटो बहु महोच्छवे सुद्ध भूमि रोपाचियो, बहु हार सुकुसुम माल घंटा ध्वज पताके अलंकीयो || ७७ || विह पासेरे नाचे गावे बहु हसे, एक एकधीरे अधिकें आणंदे उल्लसें । जन नाटकरे नाचे दान दिये घणा, बहु कुंकुमरे अगर कपूरे छांटणं:-छांटणकुसुम तंबोल करतां सात दिन पूरा यमा, सर्वलोक जे जिथकी आव्या तेय तेणी दिशि गया । से थंभ ठूंठ समान पडियो देखि नरपति चिंतवे, बहुमूत्र मल (तेह करत देखी राय संवेगी हवे ॥ ७८ ॥ तव जाणेरे घिरा २ रिद्धि अधिरपणो, खिण माहेरे दीठो ए अमुहामणो । एम चिंततरे मत्यय बुद्धथयो वली, पंचमुष्टियेंरे लोच कियो मननि रली :बली २ सामणदेवि वंदे बेस आणी तेह दिये, सद मोह मच्छर दालि मुणिवर भावसुं संयम' लिये । ग्रामानुग्राम विहार करतां पापकंद निकंदए, करजोडी मनि आणंद आणी (ब्रो तसु पय वंदए ।। ७९ ।।
( गाथा: - )
इंदजं समलंकितं, दक्षं पंडतं पविलुप्पमाणं, रद्धिं अरिद्धिं समुपेहिणं, पंचालराया विसमेरूख धम्मं ॥ ८० ॥ (इति द्विमुखेचरितं संपूर्ण ||२|| अथ श्रीममिरायेचरितम्( चोपा - )
श्रीगुरूचरणकमल अणुसरी,बोलीषु लमि सुनिवरनो (वरी
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क्षणा करी उच्छाह, मयणरेहा पय वंदे भाय ॥४०॥ पछे नमें मुनिने कर जोडि, जेणे टाली भव भमवा खोडि । सुर अविनय बहु देष, विद्याधर पुछे सविशेष ||४१ || अमरनरिंद्र परूपे न्याय, अनुजे चालें तेह अन्याय तो दूषण दीजे 'केहनें, कांइ नम्यो पहिलं एहनें ||४२ || चारकषाय पणिदिअ चोर, मनमद निग्गह कीधो घोर । रतनुत्रय संयम धुर धार, ते मुनि प्रथम नमत आचार ॥४३॥
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( गाथा: - )
अमरेहिं नरवरेहिं परूविया हुंति रायनीइयो । लुप्पंति जभ्य वं च्चिय, को दोसो तथ्थ इयराणं ॥ १ ॥ कौहाई दोस रहिअं, पंचिंदिअ मुंडणं पणटमयं । वरेनासेण, तब संजमे संजुअं धीरं ॥२॥ मुत्तूण समणमेअं, दंसण मित्ते नासिभ तमोहं । पणउसि कीस पढमं, इमा इंतं अवि वुच्छामि ॥ ३ ॥ नेचरपति तुम्ह साचो कलो, ते भावारथ में पुण ह्यो । एह छे कारण ते संभलो, पछे विचार हिये अटकलो ॥ ४४ ॥ सुदंसणपुर मणिरथराय, भाइ जुगबाहु जुवराय । मधुमासें वनमा बस्यो, वैर पाछलो तमु उल्हस्यो ॥ ४५ ॥ भाइ वडे इण्यो हुं जिस्ये, प्राण कंठ गत हुआ तिस्ये । मयणरेहा संभाव्यो धर्म, जिणथी लहिये शिवे राति शर्म ॥ ४६ ॥ ( चैर भावथी मन वालियो, सुद्ध भावे में समकित लियो । काल करी पंचम सुरलोइ, सामानिक सुर हूओ जोइ ||४७|| पूरो दस सागर मझ आउ, धर्म तणो इण कह्यो उपाउ ।
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धर्माचारि ए माहरे, तिण पहिलो नमतां मन ठरे ॥ ४८ ॥ ( गाथा: - )
जो जेण सुद्धम्मंमि, ठाविओ संजएण गिहिणा वा । सोचैव तस्स जायइ, धम्मगुरु धम्मदाणाओ || १ ॥ सम्मत्त दायगाणं, दुप्पडियारं भवेसु बहुसु । सव्व गुण मीलियाहिं, उवूयार सहस्स कोडीहिं || २ || खचर निस्रुणि हवो विचार, चिंते जिने धरम समरथ सार । तां लगि पाडे दुख्खे रीव, जां लगे न करे जिण धर्म जीव ॥ ४९ ॥
( गाथा: - )
संसारंमि अणूंते, जीवा पावंति ताव दुख्खाई । जाव न करेंति धम्मं, जिणवर भणियं पयत्तेणं ॥ ५० ॥ भण साह - मिणि ! हिव जे तुझ गमे, ते सहु अज्ज संपजावुं हि मे । सती कहे मुझ शिव राति ठाम, रुचे ते तम्हे न सीझे काम || ५१|| तो पुण मिथला नगरि दिखाल, संजम ल्युं सुत वयण निहाल | सुर लेइ मिथलापुरि जाइ, मल्लिनाथ जिण जनमह ठा || ५२ ।। उत्तरि दृढ भगतें जिनरूप, प्रतिमा पूजें लाभ सरूप । महासति तणे उपाश्रये जाइ, धर्म सांभलें मननें भाइ ।। ५३ ।।
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( गाथा: - )
लघुण माणुसंत्तं, धस्माधम्म फुलं च नाडणं । सयल सह साहणी, जत्तो धम्मंमि काययो ॥५४॥ मयणरेह प्रति प्रमणे देव, पुत्रतणो करे दरिसण हेव । तो ते वलतो उत्तर कहे, पुत्र राग मुज मन नवि रहे ॥ ५५ ॥
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( ढाल-माहरो बालुडोः- ) संभलि अमर विचार जीव सह कोई सग्पण भावें अवतर्याए, तो स्यो.मोह विकार एकण उपरे धन ते मुनि जे भव तय,ए । अम्हे हिव देस्युं दीख सुर साहुणि नमी पहुतो मन हरणे हिवेए, मयणरेह लहि सीख पाले संयम नमिच. रित्र कहिये हवे ए ॥५६॥ पदसरथ घरे बाल वाघे मुखे) भयो तमु प्रभावे नमिया वैरीए, सुत प्रभाव सुविसाल मात-- पिता जाणी हरणे तमि नामें करीए । कला बहत्तरे जाण> आठम रिसे हिं हूओ क्रमे जोवन लहेए, रूपचंति अति जाण सहस अट्टोत्तर नमरी परण्यो गहगहे ए ॥५७।। मधुकर कुसुमें जेम तिण परे भोगवे भोग तेहसं मन रलीए, सहू जीवने खेम संजम आदरे पदमरथ राजा वलीए । पाली चारित्र भावे मुनि मुगा गयो, नमि हूओ तेह राजियोए, पुन्यह तणे प्रभावे दीन२ चडतो महिमा पडहो वाजियो ए ॥५८॥ मंशिरथ तेणी रात सपै इस्यो सरी चोथे नरकें उपनोए; जाणी उत्तम जाति राजा चंद्रजस नाम प्रमाणे नीपनोए। कीधो उरधकाज सोग निवारीय मन आनंदे पूरियोए, चंद्रजसाले राज एम अनुक्रमे , द्रव्यत अरिगण चूरियोए (॥ ५९॥ नमि नृप तणो गयद एकणे अवसरे बंधन जोडी चालियो ए, आडे जइय नरिंद बहु बले उपक्रमें चंदजसे ते झालियो ए। सुणिय वात नमिराय दूत तिहां कणे पाठवि गज मंगावियोए, दूत तिहाथी जाइ जोडी
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करकमल चंद्रजस भूप वधावियोए ॥६०॥ कहे जेतले वात गयवर केरीय तो चित चंद्रूजस कोपियोए, भणे कोह उपघात राज सयल कहो केहनें में आरोपियोए । हुस्ये जे जगे सूर ते निज भुजबले साधि धरा करे आपणीए, दूत निभरछयो दूर जइ नमिनें कहे वात माने करि अति घणीए ।
( ढाल-जीव अने अजीव प्रकारए-ए देशीमां ) - मुणि वयण चंद्रजस कोपेरे, बहु बलें कटक आरोपे । हय गय पायक कोडीरे, चाल्यो नृप सेना जोडी ॥६२॥ वाजे वाजिन ढोल नासापरे, तूर सरणाई सपराण । बहू सूर साथै परिवरिपोरे, जब देस संधि उतरियो ॥६३॥ नमि संभलि चंद्रजस आयोरे, निय कटक सहू सुसजायो । सनमुख
आइवा नींसरियोरे, तो अपशुकने चित्तें डरियो ।। ६४ ॥ तव सिंधिकहे धरि रंगरे, सामी साह्मो जातां भंग । तव दुरग मजाई मंड्योरे, भीरपणु सत्त म छंड्यो । ६५ ॥ सजो करो
कलीयंत्ररे, आराधो सुरफि मंत्र । ए वयण सुणी राय बलियोरे, सवि सर मंत्रीसर मिलियो ॥६६॥ चिहुं दिसि पुर
रुधे आवीरे, नसिराय कोप मन भावी। महासती सुणी ए -मातरै हुवे रखे लोकनो घात ॥ ६७ ॥ रख्खे मुत कुगति
जाइरे, एम चित्त विमासण थाइ । गुरुणी आदेसें भमतीरे, ते नयर सुदंसणे पहती ॥६८॥ महासती देखि नमि वंदेरे। माइ कहें मन आणंदे । साहुणी धर्म समझावेरे, पण नृप मने समता नावे ।।६९।। ए परिगह सवि दुख दाइरे, अनें एह
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पूरव दिशि जातां तिणे, सहाअडविसंपत्त॥१७॥ संपत्त दीवाकर तेज, संभरती पूरव हेज । विहुं पहुरे सरवरें जाइ, जलप्पीने वनफल खाइ ॥ थाकी मारग चालंति, एक तरुने मूलें सूती। सणसणे आदरे सागोर, चिंते पाछलो प्रकार ॥१८॥ रात हुइ जां तेतले, घरके वाघ अपार। सूअरचिहुंदिसि घुरहरें, सिंह करे गुजार ॥१९॥ फेकारी फेफे बोले, जे संभलि कायर डोले । धीत्राने रीछ संतावे, पुण सती समीप न आवे ॥ एम जपत पंचमवकार जाय रयणी दुइ पहर। तो बहु वेदनि सुते जायों, सर्वलक्षणशोभित कायो ॥२०॥ नामांकित मुद्रासहित, कंबलसुं वीटेव । सुप्रभाते सवरे गइ, सुत एकंते ठवेव ॥२१॥ अंबरने सरीर पखाले,उभी रहि सरवरपाले। तोजलंगजमुख किरालें, संडें धरि गयणि उलालें ॥ इण अवसर एक विद्याधर, वाटें जातां नंदीसर । पड़ती देखी करझाले, खेचर विमानमांहे घाले. 44|२२॥ रोयंती वेयगिरि, लेइ गयो खचरिंद । मयणरेह एम वीनवे, सुण तुं सामि ! अमंद ॥२३॥ सुभचंदन सरस सुत राने, मे मूक्यो पापनिदानें। तेहनी गति कहे किम होस्ये, आहार विना ते मरस्ये ।। तिण कारण मुपुरुस जाउ, मुत आणो करो पसाउ । तो भणे विद्याधरराय, मुझसुं करि भोगो
पाय ॥२४॥पाव्हपुरराजियो, देस गंधार प्रसिद्ध खिचरनामे 'मणिचूड़े तमुः सुत इं विद्याम्रिद्ध ॥२६॥ कमलावती माहरी
मात, हुं मणिप्रभ नामे विख्यात । बिहुं श्रेणि धणियपण पाल्यो, मुजताते कुल उजूआल्यो ॥ वैरागें लीधी दीख, मुझ
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दिद्धि राजपद सीख । ते मुनि इहां आव्यो हुँतो, नंदीसर दीपे पहूतो ॥२६॥ प्रतिमा श्वीजिणवरतणी, ते वंदेवा काज ।
तेह जातां देखी करी, तुं आणी इह आज ॥२७॥ हिव करिस - मुझ भरवार तो तुझ आपिसुं भंडार। तुझ भाषित वयण करेस्यु, मृत वेगे आणी देस्यं ॥ विद्याकरि मे वलि जाण्यो, तुझ मुक्त वनमांहिथी थाण्यो। मिथलापति सुत करि पाल्यो। मे ज्ञानें करी निहाल्यो ॥२८॥
( ढालः-आदिजिणेसर० ए देशोमां ) __तो हिव बोले धरि विवेकथीरपणो आदरि, मुझसुं भोगवि कामभोग अनुभव जुवणसिरि । एम सुणि चिंखे मयणरेह सवि कर्मजपाइ,किम छुटिसु हिव इहां नही कोइ बाप न भाइ। मदन बसें जे जगे पुरुष, ते न विमासे काज । पण उपाय काइ करूं, जिण करि छुटुं आज ॥२९॥ नंदीसरवर दीव मुझने लेइ (जाय, तो मनवंछित तुम्ह अम्ह सवि सफलो थाय । करि विमान तसु खचरराय बेसाडी चाल्यो, नंद्रीसर दंसणे सहु दुख भवनो टाल्यो॥ दधि मुख अंजण भूधरें, रतिकर ठाम विचारि। बावनजिणहर तेह कर्या, आगमनें अनुसारि ॥३०॥
(गाथाः-) 1, अंजणगिरीसु चउम्र, सोलस दहिरहेसु सेलेसु । बत्तीस) रइकरेसु, नंदीसरदीवमजंमि ॥१॥ जोअणसय दीहाइं, पन्नास विच्छडाइं विमलाइं। बावतरु सियाई, बाखवं हुंति जिणा भूवणा ॥२॥ वंदइ चेईय खयर नाह तिम पुण मणिरेह, पूजा
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भगति करेवि भावे थइ निर्मल देह । वंदिअ मुणि मणिचंड) तास पासे बे बेठा, चउनाणी चारण मुणिंदे ऊपयोगें दीया ॥ मयणरेहने जाण कर,धर्म कहे रिषिराय। विद्याधर मन वालियो, खामे लागी पाय ॥३१॥ आज पछे तुं बहिन माहरी खेचर बोलइ, ताहरूं कहि सुं करुं काज सुविनीतह तोलइ। कहे सती तें सर्व कियो नंदीसर दाख्यो, पूछी पुत्रह वात साचि ते निरतो भाख्यो । जंबूद्दीव मुणि सुंदरीय पूवविदेह मझार, विजयपुख्खल मणितोरणा नयरि तथ्य संभार ॥३२॥ (महावीदेह क्षेत्रे पुष्कलावती विजये अमीततेज चक्रवर्तिना पुत्रर. पुष्पशिखर रत्नसीखर हुआ,तिहां चारित्रपाली बारमेदेवलोके, २२सागरोपमने आउखे देवता हुआ तिहाथकी धातकी खंडद्वीपे हरिषेण वासुदेवने घरे पुत्रहुआ सागरदेव १ सागरदत्तर तिहां चारित्रपाली महाशुक्र देवलोके ११. सागरोपम आउ पाली मिथिला नगरी पद्मरथ राजा हुओ, बीजो सुदर्शन पुरे जुग पाहुने घरे मिहुओ) अमियुजसाभिह चक्कवट्टी पुष्पवती नारी, रयणसीहने पुष्फसीह तमु सुत संभारी। चोरासी लखपुव्वराजपदवि ते पालि, एक अवसरे संजमधारवि आश्रवसवि टालि ॥ पूवलक्षसोलहलगे, चारित्र-पाले भाइ । अच्चुयकप्पें चविय करि, इंद्र सामानिक थाइ ॥३३॥ सागरदोयनें वीस अमर मुख तेह भोगविया, धाइय खंडें भरत अर्धे ते तिहथीचविया । चक्रीसर हरषेण घरे ते सुत अवतरिया, बहु दिन पाली राज अंते संजमसिरि वरिया। वीजघाति त्रीजे दिवसें,
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अमर सुख्ख पामेव । साते सागर आउ तमु, जाई तिहांथी
॥ ३४ ॥ केवलि महिमा नेमिनाह पूछयो अलवेसर, अम्हे इहथी किहां हुस्युं चवी भाषे तिथ्थेसर । भरते मिथला नयरे एक जयसेन नरिंदह, हुस्यें पुत्र सुभ तासु गुणवंत बीजो कहिये तेह || मयणरेह जुगबाहु सुत, हुस्ये सुदंसण ठाम । परमारथे पि पुत्त पण, हुये कह्यो म सामि ||३५|| एम सुणी पुहता - देवलोके मिथलानयरि, वणमाला उरे जनम लह्यो नृप जयसेनघरि । पदमर्थ्य तमु नाम पत्त जोवण वय जाम, देइ राज जयसेन भूप दीक्षा ल्यें वाम । पदमरथ्य राजा थयो ए, पुप्फमाल तसु नारि । बीजो तेहथी चविय करि, तुज सुत हुआ संभारि ||३६|| एक अवसरे हय पदमरथनें अवी आणे, भमतो तेह ते तुज पुत्र देखी चित जाणे । पूर्व भव नेहे करेव सुत लेइ चाल्यो, कटक सहित निय जयर जाइ पुप्फमालह आल्यो || कर्यो महोच्छव अति घणो, वाज्या मंगल तूर । कुमर तिहां लीला करत, वाघे दिने गुण पूर ।। ३७ ।।
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( चोपाइ :- )
भगवन भाषे एह विचार, देखे सुर विमाण अवतार । सुत्ताहल माला मणिथंभ, महारूपे सोहे सुररंभ ||३८|| वाजे तूर सह सुविशाल, रुणझुणंत बहु घूघरमाल | चिहुँ दिसि करें अमर जयकार, सुखरताम करें अवतार || ३९ ॥ चंचल मणि कुंडल लहलहे, हार हृदय सोभा गहगहे । दिये प्रद
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राय तुझ भाइ । सहु पूछयो तिण विरतंतरे, अभिमाने न नृष उपसंत ॥ ७० ॥ तत्र जाइ नयर मझाररे, महासती निजें परिवारे | रायगणि पहुती जामरे, परिवारे ओलखी ताम् ॥ ७१ ॥ चंद्रजस नृप लागें पाएंरे, मनमाहें हरष न माइ पगे लागे मदगद वयणेंरे, अंतेउर गलते नयणे ॥७२॥ ( चोपाइ :- )
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पूछे नृप चारित्र निदान कहे महासती न करें मान । जाणी परिपूछें गर्भवात, कहो तासु परे मुझने मात ॥७३॥ कड़े मात आव्यो झझवा, ते तुम्ह लघु बंधव जाणिवा । तत्र राजा मन हरषें भय, भाइ सनमुख जोवा नीसये ॥ ७४ ॥ देखि सहोदर नमि आवतो, तसु सनमुख चाल्यो मलपतो । करि प्रणाम बंधव पय लग्ग, एकठ थयो कुटुंबह वग्ग ||७५ || चंद्रजसे दियो नमिनें राज, नमि पालें बिहुं द्वेसह राज । चंद्रजसनप चारित्र आदरे, तपकरतो चिहुंदिसि संचरे ॥७६॥ नरपति देहिथयो एकवार, जास न कोइ पामे पार । दाघज्वर छम्मास प्रमाण, फुरे नउ सहु मंत्र विनाण || ७७|| चंदन घसे मिली सविनार, माहें शीतलद्रव्य सुवार । हेमचूड घसतां खलकंत, राय श्रवणे तेन सुहावंत || ७८ || एम गिणि एक चूड करधरे, चंदन से उपक्रमे खरे | पूछे नृप नहु खलकें चूड, कांइ ते नारि न बोले कूड ॥ ७९ ॥ वलय एक अम्ह हाथ रहे, बीजी उतारी एम कहे । ए सुणि दुखभर चिंते भूप, सहि संसारह एह सरूप ॥८०॥ जां बहू परिवारें परिवर्यो, तां थांसे घणा
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दुख्खे भर्यो । होइ एक तो सवि सुखलहे, नारी वलयतणी परे कहे ॥८१॥ तो जइए दुखथी छुटिस्युं, आरंभ परिग्रह तो {किस्युं । एम चिंती निसि मृतो जाम, निद्रा खरी उपनी ताम
८२॥ कातिक पूनिम अछे तिवार, सुपने एक देखे नृपसार । मेरुउपरे करिखंधे रुढ,नंदितूररवे पडिबुद्ध ॥८॥ रात विहाणी नाठोरोग महिणानो मने ये उपयोग। कइये मेरु इस्यो में दिठ, एम चिंतवि संवेगे पइठ ॥८४॥ रूडे ध्याने जातिसंभरी, पूरवभवसंजमेसिरिवरी । पुप्फोत्तरसुरकप्पें गयो, रिद्धिवंत बूंदारक थ्यो ॥८५। जिनमहिमा करवा आवियो, तब ..मंदर दीठो भावियो। थ्यो संबुद्ध संवेगें खरे, संयम लेवाने अणुसरें ॥८६॥ इसे थयो कोलाहलतणो, जाणवो जोग राय नमितणो । नारि कुटुंब सह झुरंत, नमि एकंत भावन भावंत ।। नमिनो मन परखेवा वली, विप्ररूपे इंद आवे रली। वचन कहीस्ये आगले जेय, मिनेंसूरपति पूछे.तेय ।।८८॥ मिथला नयरि कोलाहल आज, कहो कांइ सुणिये रिषिराज । विलवे लोभकरे आनंद, चोक चाचरे मिलि जनद्वंद ॥८९॥ एय वचन मुणिवरे संभल्यो, कारण हेत करि संकल्यो। तदनंतर बोले रिषिराइ, इंद्रप्रतें धरि समता भाइ ॥९०॥ मिथला नयरि महीधररिद्ध, तेह एक वृक्ष मुगुणे समृद्ध । चैत्यसहितकृत पूजो पाय, मणहर मुगुण मुसीतलछाय॥११॥ महावाय ते कांपें जिसें,पंखी तो नासे दहदिसें। अशरण अनें सही अत्राण,तिण आक्रंद करे सपराण ॥९२ सजनकोलाहल पंखी साद, तरु समान जगे नमि जसवाद ।
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नियति थइ पूरी हिव जाइ, तिणकारण कोलाहल थाइ ॥१३॥ एय वचन सुरमति संभल्यो, कारण हेत करी संकल्यो। तदनंतर बोले सुरराइ, नमिरिषिराज प्रतें समभाइ ॥९४॥ पानिजलेंने वाजे वाउ, ए तुझ मंदिर दाझे.राउ । भगवन अंतेउर ताहरो, कांई विमासी सार न करो ॥९५॥ एय वचनमुणि० ॥१६॥ जीवू सुखें सुखें निरवहुं, हवो अवर न कांइ लहुं । मिथलानयूरी द्राझे जोइ, माहरो इहां न दाझे कोई ॥९७॥ पूत्र कलत्र छांड्या व्यापार, मुनिने प्रिय अप्रिय परिहार। सदाकालरिषिने कल्याण, निपरिग्रह एकाकीजाण ॥९८॥ एयवचन सुरपति० . ॥९९॥ पोल सहित मोटो प्राकार, बुरज जिहांकणे रहे झूझार। खाइ खणी ढंकली मंडाइ, पछे जाइं तु खत्रीराइ ॥२०॥ एय वचनमुणि० ।।२०१ ।। सुद्ध सहहणा पुर वासियो, सम संवेग बारणो कियो । तप.संबर कीधा आगले, खिमा रूप गढ चिहुं पाखलें ॥२॥ गुपति यंत्र नहु कोइ परभवे, धनुषपराक्रम कीधो हवे। ईर्या पण छके तनथी रता, बिहुंपासे बंधन सत्यता ॥३॥ अभिंतर तप चाढ्यो बाण, कर्म वेरी भेद्या सपराण । मुनिवर जीपें करि संग्राम, पाम्यो शिवगति अविन चलठाम ॥४॥ एय वचन सुरपति० ॥५॥ वासतिक शास्त्रना जाण बुलावे, वर्द्धमान घर एक करावे । वलभी तमु चिहुं दिसें कराइ, पछे जाय तू खत्रीराइ ॥६॥ एय वचनमुणि०॥७॥ संसय जावानो ते करे, मारग माथे जे घर करे । जाइवां हीडे निचे जिहां, जाइं करी घर मंडे तिहां ॥८॥ ए गति मारग
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तणो पयाण, एह नहु निचे अम्ह अहिठाण | मुगति नयर जिहां जावाभाव, तिहां कीधो छे निश्चलठाव ॥९॥ एय वचन सुर० ||१०|| चोरलो महर नरनें हणे, छोडे गंठिनें खात्र जे खणे । देसे नगरें कुसल कराइ, पछे जाइ तुं खत्रीराइ ॥ ११ ॥ वारंवारं करे जे दंड, पुण न लहे अपराधीचंड । न्यायी लोक जगत्र बंधाय, अन्याइ प्रति कांई न थाय ॥ १२ ॥ गिदोष के मोटा चोर, तेहनो निग्रह करतां घोर । अवर न वैरि को संसार, जेहनें कीजे दंडविचार ||१३|| एयवचन० ||१४|| महा मांन जेहना घटमाहि, ठुज्ज न नमे जे नृप उच्छाहि । आपणडे वस तेहनें ठाइ, पछे जाय तुं खत्री राई || १५ || एयवचन० ॥१६॥ दुसलख दुर्जय जीपे रणे, एकवस करें जीव आपणे । एह परमजय पंडित कहेड, बाहिर झूझे स्युं फूल लहेइ ॥ १७॥ इण कारण जीवस्युं झुझिये, विषय कृषाय पण चड बुझिये । दुर्जय जीतो जिणे आत्मा, ते जयवंत जती महातमा ॥ १८ ॥ एयवचन० ॥ १९ ॥ जगन करी ब्राह्मण जिमाड, दे दक्षिणा जगजीवाड । भोगवि भोग जगन करि भाइ, पछे जाय तं खत्रीराइ ॥२०॥ एयवचन० ||२१|| मासमास दसलख गाय, तसु पण संजमे बहुफल थाय । जिण कारणे आश्रव भवहेतु, संयम बोल्यो शिवगति सेतु ||२२|| एयवचनसु० ||२३|| दुःकर छंडे छे गृहवास चारित्रनो वंछे अभ्यास । ते तुझ जुगत न पोसहसाल, घर आश्रमरत आरविटाल ||२४|| एयवचनसु० ॥ २५ ॥ मासमास पतपें अज्ञान, डाभ अग्रे जे जिमे धान । ते पुण जिनभाषित
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संजमें, कलासोलमी तुले न किमे ॥२६॥ एयवचनसु० ॥२७॥ सोवन मणि मोती धण धन्न, कंस दूस वलि बहुल रतन्न । तेणे करी भंडार भराय, पछे जाय तूं खत्रीराय ॥२८॥ एयवचनमुणि० ॥२९॥ सोवन धननी राशि प्रमाण, करे असंख जे मेरु समांन । तो मुण लोभी तृपति.न लहे, तृष्णा हिये अनंती बहे ॥३०॥ वसुधा सालि अने जव चणा, पसुधन करिये एकठ घणा । पुण ते एकनें त्रिपति न होइ, एम जाणी संयम ल्ये सोइ ॥३१॥ एयवचनसुर० ॥३२॥r अचरिज मुझ मन मोटो एह, अदभुत भोग तजे छे जेह । अछता भोग मन ईच्छेस, पछे तासु अभिलाष वहेस ॥३३॥ एयवचन० ॥३४॥ काम भोग विषसल्ये समा, आसीविष जसु) उपमा । काम भोग अभिलाष जे करे, ते दुर्गतें गमन अणुसरे। J॥३८॥ 'क्रोधे अधमगति मानेहीण,माया मुगति विणासे दीण ।। लोभयकी भय उभय प्रकार, सुरपति ए संभल्यो विचार॥३६॥
( दूहाः - ) विप्ररूप सुरपति तजे, करे इंद्रनो रूप, वंदे गुण कीरति करे, दारखी सुगुण सरूप ॥३७॥ छंड्या चार कषाय ते, पाल्यो दसविध धर्म । इहां पुण उत्तम तुं अछे, पामिस सिब गति सर्म ॥३८॥ एम थुणि करी प्रदक्षणा, सुरपति गयो नियठाण । संयम समिरिषि आदरे, मने समता रस आण ॥३९।। सुर आपे) सवि उपगरण, मुनिवर करें विहार । तमु पय ब्रह्मो हर्ष धरि, वंदे चारंवार॥४०॥
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(गाथा:- ) बहुआण सद्दयं सोचा, एगस्सअ असदयं । वलयाण णमीराया, निख्खेतो महिलाहिवो ॥१॥
॥ इति श्रीनमिरिपिराज चरितं ।। ॥ अथ श्रीनगतिप्रत्येकबुद्धचरितं प्रारंभ:
दूहाःचरित कहुंअ नग्गर तणो, गुरुनो लही पसाव । देसनधारें जाणिये, पांडबर्धन पुरठाव ॥४१।। सिंहस्थ नृपति तिहां (वसे, तेहनें दुन्नि तुरंग,। उत्तर दिसिथी भेटणे, आण्या 'किणहिं सुचंग ॥४२॥ घोडा फेरववा भणी, एकें नृपआरूढ । 3बीजे नृपमुत, तुरग ते, विपरीत शिख्यित गृढ ॥४३॥ राजा )तुरंगें अपहर्यो, खंच्यो नरहे वाग । दाडि अटवी माहि गयो, ढोल्यो धर्यो तुरंग ॥४४॥ तुरंग एक तरु बंधिने, वनफल करे आहार । पेखे नृप घर सत मालो, भमतो वनह मझार ॥४५॥ घरमाहि पेसे जेतले, पेखे जुव्वण नार । रूप गुणे सुर जुई 'सम, छेल तरूण मणहार ॥४६॥
(ढाल:-) ॥ तव उठी कुमरी रायने थे सनमान, बेठो नृप माहो माहें राग समान । कहे तुंगले कांई एकली वनह मझार, तो धीरपणुं धरि उतर दो सा नार । सामि वेदिका पासें आवी मुझK करो विवाह, कहिस्युं पछे वृतंत माहरो नृप मुणि धरे उच्छाह । घरमाहि ते जाइ जेतले पेखे जिणहर ताम, जिअणवर प्रतिमा पूजि धूप ये भावे करें प्रणाम ॥४७॥ नुप पर
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ण्यो राते वास घरे सूअंत, सुप्रभातें जिनपतिमानें बेव मंत। नृप बेठो कुमारी भाषे/पुवचरित, मुण खितिपईठ पुरे राजा थ्यो जितशत्रु । तो तेरे चित्रसभां संडावे राज वेहची ो. समभाग, चीतराने राय नहि जोयो निबल सबलनो लाग । एक चित्रंगद नामें चीतरो करें चित्र अतिफार, तेहने कनकमंजरी बेटी जुव्वणवय अवतार ॥४८॥ दिनप्रति ते ल्यावे. भात एकण प्रस्तावे, लेइ भात पिताने राजपंथे सा आवे । जणसंकुल मारग पुरुष एक असवार, घोडो दोडावें उरें परें बहुवारः।। कुमरी दुखे भातलेइ जाय तात आवती देखी, देह चिंता करवाने चाल्यो आव्यो भात उवेखी । कौतिग मोर पंख आलेखे नृप आवि तिहां जोय, सुंदर पीछेसुं कहि नरपति लेवा नींचो होय ॥४९॥ ( पांडुवर्धन नगर सिंहरथ राजा, चित्रकर पुत्री कनकमंजरी, वैताढ्य पर्वते, तोरणपुर नगरे दृदशक्ति विद्याधनी पुत्री कनकमाला कतकतेज भाइ, वासव विद्याधरे अपहरी, ११ योजन प्रमाण अटवी तिहा पर्वत सिखरे सप्तभूमिक आवासे राखी ते सिंहरथ राजा परणी वारंवार पर्वते आवे जाय तेह भणी नगाती राजानो नामहुवो) सहसातकारे नख' धरणी लागी भाजे, नृप विलखोथइ चित्त जोवे मनमाहे लाजे । कुमरी इसि बोले डगे खाट त्रिहुं पायें, चोथो मूरख मिलियो हिव निश्चल थाये । पूछी राय हसी कहे कुमरी एक माहरो तात, तनु चिंताएं जाय तिवारें शीतल थायें भात । बीजो राजपंथे हय दोडे न गिणे बाल गिलाण, नारी नर
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असमर्थ जे देखे तेहना पडे पराण ॥५०॥ बीजो मुरल हिव बीजो मूरख पुर राय, जिणे चित्र सभा आपी सबि हुंते समभाय, बीजा बहु परिवारे एकलो माहरो तान, जर जीरण निर्धन दुर्बल जेहनो गात । जुगताजुगतो जिणे न विचार्यो त्रीज़ो मूरख एह, चौथो तुं जे लेवा बंछे मोरपीछ सम रेह। संभली तेहनी बचन चातुरी देखी लावन रूप, प्रेमराग रंजित मन वंछे, परिणवा तसु भूप्र॥५१॥ तातने जिमाडी कुमारी निय घरे जाय. संत्रीसर सनमुख चित्रंगद पूछ्यो राय, परणाचो कनकमंजरी वलतो बोले, अम्हे चित्रक निर्द्धन/तुम्हे नरपति किम तोले, राजभार झाली न सकीनें नृप धने गेह भरावें, रूडें मुहरते महा महोछवे नृपनें ते परणावे । तेहने छ आवास रायनें बहु राणी परिवार, वारे एक दिवस एक पासे भोगवे भोग उदार ॥५२।। बारो तिणि दिवस क्नकमंजरिने दीधो, पहिर्या तनु मंडण अलंकार सवि कीधो । इण अवसरे जित्शत्रु नरूपति आव्यो तिणे ठाम, पल्यंकें बेटो सुखदायक अभिराम । राणीए मयण सीखवी आवें राय जिवारें, नरपतिने संभलावा पूछे जे मुझनें कथा तिवारे । भणे मेणिया नृप जापोटें कहो तां एक कहाणी, निद्रा दे रायने आववा कहिम्युं पछि कहे राणी ॥५३॥
( चोपाइ:- ) कपट नींद्र भरि पोडे राय, मयूणा भणे कथा कहो माय । सुण वसंतपुरि वरूण गिहथ्थ, देहरी तिण कारी छ
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एक हथ्थ ॥५४॥ चारहाथनो ते माहें देव, थाप्यो तेहनी सारे सेव । मयणा भणे एम किम होय, जुगता जुगति विचारिजोय ॥५५॥ कहिमुं प्रभातें राणी कहे, हिवं अवसर निद्रा तुं वहें । बीजे दिन नृप तिहां आवेइ, मयणा वली कथा पूछेइ ॥५६॥ चार हाथ तमु देवह तणे, पूण न लंब पणे राणी भणे। पूछे वली कहो काइ वात, जांलगि उठे पृथवी तात ॥५७॥ अइविमाहि तरू मोटो एक, पान फूलफल. साख अनेक । सण तम छाया किमे न होइ,मयणा कहे कां भाषो सोइ ॥५८॥ प्रकाहिसं प्रभातेइं राणि कहे० ॥१९॥ ते तरू हुँतो खाड मझार, रतिह रवि किरणह नहु पेसार । तिण कारण तेह छाया नहीं, एह बात कोइ समझे नही ॥६०॥ तव मयणा मन अचरिज धरे, वारंवार प्रसंसा करे। पूछे कहो वली कांइ वात, जां लगी उठे पृथ्यीतात ॥ ६१ ॥ एक उंट जइ अटवी चरे, आघो पाछो चिहुं दिसि फिरें। तिकां एक बोउलरूख पखेइ, तिहनें खावा काजे अपेखेइ ॥३२॥ विहुंदिसि तेय प्रसारे खंध, पुणन लहें], तेहनो संबंध । करे मूत्रमल तमु सिरि सोइ, मयणा भणे एम किम होइ ॥ ६३ ।। कहिमुं प्रभाते० ॥६४॥ हुँतो बाऊल ते), कूआमाहि, मुख नहु तिण तिहां पुहतो थाइ। एम करतां बोल्या छमास, राजा मोह्यो बुद्धि विलास ॥६५॥ तब तमु सोक एकठी मिले, तमु विणासपरे मन अटकले। कहे अहो राजा वस को, जिणसुं अंतेउर परिहयो ॥६६।। राचे राउ कमीण जात, गुणदूषणनी न लहे भात । राज काज किणवार न करें,
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एक इणी उपरे मन धरे ॥६७॥
( ढाळ - हिव बोले सहुहरि अंतेउर-ए देसीमां ) कनकमंजरी एणे अवसरे, चडी मध्यानें नीज घर उपरे, गर्भघरे पेसे । तिहां एकली टुंके बार, उतारे नृपना सिणगार, गाव सने न धरे || ६८ || पिहरतणा वस्त्र ते पिहरी, मनरूडे परिणामें अतिधरि करि सीखामण जीव । आपणडी परे हिये संभारे, रखे केहि वैर विचारे, धारे सीख सदीव ॥ ६९ ॥ रहिसे एणि परिणामे नियवसे, तो तुं किमे न थाइंस परवसे, रसे रातो सुखदेखि । एम संभलि अवसर लहि राणी, एक एक सनमुख उज्जाणी, वाणी कहे विशेखि ॥ ७० ॥ एहनी परे सघली हिव लाधी, जिम नृपप्रीति एहसुं वाधी । साधी इणि वसे करणी, राज प्रतें सवि राणी बोले, तुं तो अम्हथी विरतो भोले, डोलें नहीं सुकलीणी ॥ ७१ ॥
( दूहा:- )
कुसल अम्हे तुझ चींत, जिणे तुं अम्ह भरतार | पण ते मांनी घं, ते तुझ मारणहार || ७२ || तुझ उपरे कामण करे, जपे मंत्र बहुवार । परिपूछे नरपति सयल, राणी कहेतिवार ||७३ || नृप आवे चेजें रहे, जाण्यो तासु सरूप । हिये वखाणे तसु वचन, हरष्यो अतिघण भूप ॥ ७४ ॥ गुणफेडि अवगुण करे, विरतो माणुस जोइ । राज सयलनी स्वामिनी, करे तेहने सोइ ॥ ७५ ॥ विमलचंद मुणिवर कन्हे, बेवे श्रावक | थाय । कनकमंजरी अवसरें, चवि करि देवी थाय ॥ ७६ ॥
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( ढालः-छप्पय छंद जेवी. ) तेहथी चवि वेयगिरें तोर्णपुर नयरे, कनकमाल पुत्री थइय, दृढसत्त खचर घरे। जोवणवई वासवें खचरे तेहथी अपहरिय, इहां एकरे प्रासादें एकली. तिणे धरिय । वेदी रची विवाह, भणी इण अवसरे मुझभाइ । आवि झूझवा वास व सहित, कर्यो मरे बेठाइ ॥७७॥ तेह दुख्खे रहि कनकमाल इणि अवसरे वितर, आवें तुं मुझ सुता एम आसासें सुरवर । तिसे तात माहरो भाइनी वाहरे आव्यो, सुरपति माहरो रूप सर्व अन्यथा कराव्यो। वासव' भाइ वहिनी ना, एमड त्रिणे दाखेइ तात संसार असार ग्रिणि, तेहथी दीक्षा लेइ ॥७८॥ अपहरि सुर साया सरूप मुझरूप सुदाखे, पूछे मुनि कहे किसुं. एह तव वितर भाषे । पुत्री ए ताहरी पुत्रनो हूओ काल, तुझ प्रतिबोधह काज कियो, ए माया जाल । मुझ विवाह 'कारणतणीय, कही पुभव वात । जांलगे तुं इह आवियो, मिली संजोगह धात ॥७९॥ नरपति निमुणे इसें तेय सुरवर तिहि आव्यो, राजा लाग्यो पाय अमर तरपति वधाव्यो । आपवीत कह्यो कनकमाले मुणि नरपति हरख्यो, जातिसमरण पुन्वभवह आचार सुनिरख्यो। तेह आहार अमृतलियेए, रहे सुखे एकमास । घरसामो नृप सा मोहयो, आणी चित्तें उल्हास ॥८०॥ कनकमंजरी गयण गमण विद्या तव आले, तिहथी नृप मोकलावे अमर जिम उच्छुक चालइ, महामहोछवे नयरि जाइ निय कहि वृत्तंत, सुणि करि अचरिज चित्त धरत बोले सामंत । पुन्यवंत जे जाइ जिहां, तिहार सुखियो थाय । इसुं.
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जाणि करिये सदा, पुण्य चित्त धरि माय ॥८॥
( चोपाइ:-) ___एम पंचमि२ दिनराय, कनकमाल पासे नगि जाइ । लोक मिली ये नगाइ नाम, एक दिवस नृप वन गयो ताम ॥८२।। विनयसहित राजा पूछियो, विंतर ते निजठामें गयो । कन्कमालने तूप तिहां रहे, एक दिवसे नरपति पते कहे ॥८३॥ नाथ एकलां इहां न रहाइ, तुं तो नयरि वली वलि जाइ, तत्र तिहां राय वसाव्यो गाम, बहुघर जिणहर करि अभिराम ॥८४॥ रइवाडी राजा नींकले, सोहे अधिको फूले फले । दीठो इसो राय सहकार, नरपति ल्ये मंजर एकबार ॥८५।। पाछलथी चाल्यो खंधार, पान फूल फल ल्ये तिणिवार । टुंठ सरीसो कीधो जिसे, नृप ते वलतो आवे तिसे ॥८६॥ पूछे तेय किहां सहकार,ते देखा. मंत्रि तिवार । एहनें इसी अवस्था काइ,कहे मंत्रि निर्धन एम थांइ ॥८७|| राजा चित्त विमासे घj, अथिरपणुं निज रिद्धितणुं । तां सोहे जां हुवे धन रिदि, तां जगि मान सयल तां सिद्धि ।।८८॥ धनविहूण सो नवि लहें, जिसुं ठंठ सहकारह रहे। लातीसमरणे बूझे यि, मुनिवर मारग आदरि भाय ||८९॥ वेस दिये ततखिण देवता, इहां न कांइ पाडे खता। तासु प्रसंसाकरि मनभाइ, बलि(ब्रह्मो तसु लागे पाइ ॥९०॥
काइ पापा ॥९०" ( गाम, समजविसमेत
जो चूयरुख्खं तु मणाभिरामं, समंजरीपल्लवपुप्फचित्तं । रिद्धिं अरिद्धिं समुपेहिआणं, गंधारण्या विसमेख्ख धम्म
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॥९१।। चारे मुणिवर गुणसंडार, पाले समति सुपति आचार। विधिसुं करता साधु विहार, खितिप्रतिष्ट पुरे आव्या चार ॥९२॥ तिहा एक देवल छे चोबार, करकंड पेसें पुखद्वार । दक्षिण बारें दुमुह, मुणिंद, नमि पश्चिमदिसि सुभगुणचंद ॥९३॥ उत्तरदिसि नग्गा नरेस, इर्यासमिते करे प्रवेस । मुनिने देतो सुर बहुमान, करे चिहुं दिसि रूप विज्ञान ॥९४॥ खरजवसे करकंड तृण बहे, दुमुखराजरिषि तमु प्रते कहे। राजरिद्धि पुर अंतेउरी, जइ ते तइ सघली परिहरी ॥९५॥ तुं तृणनो स्युं संचय करे. ए चोयण हियडे संभरे। उत्तर कोई न करे कंडु भणे,तो नमि, बोले उलट घणे ॥१६॥ सेवक वर्ग सहु ते तज्यो, संजममारग सूधो भज्यो । तो ते सघलो छांड्यो काज, मुनिने काजे किसुं तुझ आज ॥९॥ एम सूणि भणे गंधारह भूप, जो तुम्ह वंछो राज सरूप । आतमहित कानें संचरो, तो कांइ परनी निंदा करो ॥९८॥ हिव कहें करकंडु मनरली, रिषिजी तुम्हे सुं बोलो वली। मुगति मान मुनि जे आदरे, ब्रह्मचर्यनी बह खप करे ॥१९॥ तेहनो देखि असुभ आचार,मांहोमाहें करे विचार। तासु दोष तुं कहे किण चीत, चोयण पडिचोयण मुनि रीत ।। ३०० ॥ कूरकंडे शिख्या इम कही, सहू किणे साची सद्दही। सपश्रेणिय मंड्यो सुभध्यान, चारे पामे केवलझान ॥ १ ॥ पाले केवलनो पर्याय,भोगवि चारें सरिख आय। पुहता मगति ना समकाल, कालिम कर्मतणी सविटाल ॥२॥ ए मुणिवर (चारे गुणवंत,
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७८ दसण नाणि अतुल बलवंत । चारे, वंदं मनने भाय, जिम मनवंछित संपद थाय ॥३॥ रतनाकर ग्रह संखवरीस,
समिति चंद (१५९४ ) संवतें जगीस । प्रत्यय बुद्धतणो ए (चरी) भाष्यो मन आणंदें करी ॥४॥ सुधासिंधु जस जगत्र विख्यात, वेलतात विमलादे मात । श्रीपासचंद्रमरि सुगुण प्रधान, तसु पय सेव करुं तजि मान ॥६॥ उतराध्ययनें संखेपें कयो, वृत्तिमाहिथी विस्तर लह्यो। तिहांथी बोल्यो ए उद्धार, भणतां लाभे सुद्ध विचार ॥६) जिनभाषितथी कह्यो विरुद्ध, पंडितजन ते करज्यो सुद्ध, आगम मिलतो करो प्रमाण, करजोडी बीनवु सुजाण ! ॥७॥ मेरु महीमंडल थिर रहे, मूरिज ससि गयणें वहें । चिहुंदिसि रतनाकर जलभर्या, बिहुं पासें जगती परिवर्या ॥८॥ जां जगे जिणसासण थिर थाइ, तां ए भणतां चित्त सुहाइ । पामीजें सवि सुख संपदा, पासनाह) मुपसायें सदा ॥३०९॥ । इति श्रीचतुःप्रत्येकबुद्धररित्रं गुर्जरभाषायां पद्यबंधनिबद्धं समाप्तं / कृतं चानवद्यविद्याविशारदन्यायपारावारपारीणप्रवरजैनाचार्यचकचक्रवर्तिप्रवादिदेवमरिपुरंदरपरंपरायां श्रीमन्नागपुरीयवृहत्तपागच्छोययुगप्रधानपदधारकामे यमहिमानिधानसंवेगरंगतरंगिताऽहत्लिद्धान्तपारदृष्जैनाचार्याग्रणिश्रीपार्श्वचन्द्रसूरीश्वरचरणसरसिरुहमधुकरशास्त्रविशारदप्रवरमहर्षिब्रह्मर्षिणा संशोधितं च श्रीजैनश्वेताम्बराचार्यवर्यसकलागमरहस्यवेदिपूज्यपादप्रातःस्मरणीयश्रीश्रीश्रीभ्रातृचंद्र( सूरिवरशिष्यमुनिसागरचंद्रेण स्वपरकल्याणाय॥ ओं हे नमः॥
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आचार्यश्री भ्रातृचन्द्रसूरिग्रन्थमाला पुस्तक - ३४.
महामहोपाध्यायश्रीधर्मचंद्रगणिशिष्यवाचकवर श्रीकर्मचंद्रगणि कृताः
संबंधा
सोहचरित्रगर्भित अदारनात्राचोपाई.
नात सा
संशोधकः - श्री भ्रातृचंद्रसूरि शिष्य मुनिसागरचंद्रः ॥
( दुहा:-)
संगण
श्री गौतम गणधर नमी, पामी मुगुरू पाऊ । अष्टाद गणतणी कथा कहुं धरिभाऊ ||१|| भविक लोक सहु सांभलो, सरस चरित छे एह । करम संयोग जे थयुं, कहुं यथारथ तेह ||२||
( ढाल: - आदर जीव क्षमागुण आदर-ए देशीमां . ) गोयम राणहर पाय नमी, वलि समरी सरसति मायारे । जियो नातां कुबेरतातणां, कहुं प्रणमी श्रीगुरु पायारे ॥ १ ॥ मुगुण अविक तुम्हें सांभलों, कर्मतणी गति एहोरे । अति विसप्री/ जिणवर कही, तिहां नही कोई संदेहोरे ॥२॥ सुगुण भविक तुम्हें सांभलो ||आंकणी०॥ कुवेरदत्ताने जे थया, सगपण ते निजमुख गायारे । ते सदगुरु मुख सांभली, भविक लोक -मन भायारे ॥ सुगुण० ॥ ३ ॥ जंबुद्वीपें जांणीए, भरतक्षेत्र अभिरामोरे । अमरपुरी सम सोमती, तिहां नयरी मिथुला
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नामोरे || सुगुण० ||४|| तिण नगरी गणिका वसे, कुबेरसेना इण नामेरे । रूपें देखी रतिसमी, तेह वरी निज कामेरे
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॥ सुगुण ० ॥ ५॥ नवनवे संगें भोगवे, रंगें भोग विलासारे । झावे बहु लोकने, करि अति नृत्ये तमासारे ॥ सुगुण० ||६|| गर्भधरे ते एकदा, या एम विमासेंरे । जो धवरासुं एहनें तो यौवन घटि जास्येरे || सुगुण ० ||७|| युगलेपणें प्रसवे मुदा पुत्र पुत्री एक वाररे । जनमथ की ते युगलने, पाल्या दिवस इग्याररे ॥ सुगुण० ||८|| नामांकित लखि मुंद्रडी, जुगल (पेटी में घारे । मुनो में मेल्ही गई, ते नीर प्रवाहें चालेरे । सुगु० || ९ || बिहुं पहुरे सोरीपुरें, ते पेटी वहती आवेरे । कर्म योगे विवहारीया, दोइ मिली विहचावेरे ॥ सुगुण ० ॥१०॥ भरयोवन ते बे थयां, तास सिता पुरणावेरे। मांहो मांहि ते पिरणीया, सुखस्युं काल गमावेरे ॥ सुगुण ० ॥ ११ ॥ एक दिवस रमतां थकां बिहुँ नाम सुंद्री रांचीरे । पूछया बे व्यवहारी - या, वात लही तब साचीरे ॥ सुगुण० ||१२|| असमंजस मन ऊमनो, अचरिज कारण जाणीरे । कुबेरद्वत्ता साधवी थई, मन बैरागे आणीरे || सुगुण० ॥ १३ ॥ | सून वच काया वसकरी, सृधुं चारित्र पालेरे । जिन वाणी पाणी करी, पूरव पाप परवालेरे || सुगुण ० || १४ || गामागर नगरें सदा, सुविहित गुरुणी संगेरे । विचरे आतम साधती, धर्म करे मनरंगेरे ॥ सुगुण - ॥ १५ ॥ तदनंतर ते तिहां थकी, कुबेरदत्त वित्रारीरे ॥ मिथुला नयरी आवीयो, सायें ले व्यापारीरे ॥ सुगुण ० ॥ १६ ॥
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दूहा:
व्यापारी सहु साथना, मिलि एकठ मनरंग । राजानें मिलवा भणी, लीधी भेट सुचंग || १|| भेट मेल्हि मिलिया सहू रा आदर दीध । हुकम लही राजातणो, वसवानें घर की १) ॥ २ ॥ व्यामारी परदेशना, जांणें गणिका जाम । रीझववा परिवारस्युं, सजि करि आवे ताम || ३ ||
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( ढाल:- कहियें संयम लेसुं प देशीमां. ) कुबेर सेना परिवाररे, लेई आपणो, मिलवा आवे तेहनें ए । नृत्य करे अतिसार, सुरपति सारिखा, जोवा आवे जेहनें ए ॥ १ ॥ चातुरता तसु देखिरे, आतुरता अति, कुबेर तिहां थई ए । अघटित पहली वातरे, छंडी जाणिनें, फिर मंडी करमें नई ए || २ || साच ऊखाणो एहरे, सीह मिल्यो जिम, जंबुक भयथी नासतां ए । कुबेरदत्तने तेमरे, कारिज ए थयुं, लोकलाजथी त्रासतां ||३|| कुबेरसेना निज मातरे, घरणी ते करी, जूओ काम विटंबनाए । भोगवतां सुख (भोगरे, करमवसे एक, पुत्र जण ते अंगनाए ॥४॥ पाले हित धरि तासरे, सांभलो हिव, अधिकार हुवे जिसो ए । साधवी ए संबंध, सई मुखे जे कह्यो, कवियण भाव कहे तिसोए ॥५॥ ( दूहा :- )
तिण अवसर ते साधवी करतां विधिएं विहार । धर्म ध्यांन धरतां थकां अवधिज्ञान लहे सार || १ || अवधिज्ञान बळे साधवी, देखे तेह विचार । गुरुणीनी आणा लही, तिण
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दिसि करे विहार ॥२॥ मिथिलानगरी जिहां अछे, विचरत भावे सांह । मासुक जाचि उपासरो, रहे गणिका छे जांह ॥३।। गमणागमण करे सदा, गणिका घर नितमेव । खेलाये नालफ भणी, जांणे पडी इह टेव ॥४॥हुलरावण मिसि एकदा कहे साधवी ताम । मुण नान्हडीया तुझस्थु, सगफ्ण छे मुझे आम ॥६॥
(हाल:- )
__ आपणे छे एक सगाई, बालूडा तूं छे भाई। एक गर्भ तुम मुझ नाम, तिण सगपण ए उल्लास ॥१॥ तात, भात भणी कहुं तुझ, पीतरीओछे तूं मुझ । पति भात भणी देवरायो, करमें सगपण अणुसरायो॥२॥ भाई सत, तिण भतीज़ो, समपण इम जांणि पतीजो। मुत सौक तणां तुझ गाऊं, बेटो कहीने - हुलराऊं ॥३॥ सगपण तुझस्युं अदभूत, सुन सौक तणांनो पूत। हिवे आपण डी जे मात, तेहस्यु सगपणनी वात ॥४॥ कहुं तेह मुणो चितलाई, करमें जे थइय सगाई। पहेली हूंती ए मात, बीजो मुणज्यो अवदात ।।५।। मुझ भ्रात तणें घर आइ, ते माटें ए भोजाइ । मुझ कंत तणी ए घरणी, तिण सौक कहीने वरणी ॥६॥ मुझ कंत तणी ए माय, तिण ए मम सरिफ थाय । मुझ-सुतस्युं भोगवेभोग,वहुआरु तिण. संयोग ॥७॥ पितरीयानी ए माय, तिणस्युं दादी कहवाय । बालूडा जे तुम्ह तात, अम्हस्यु तेहनी सुण वात ॥ ८॥ एक मात भणी ए.भ्रात, मातपति तिण ए तात । वलि सोकरणो सुत एह, तिण कारणा
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तेह ॥९॥ मुझनें परण्यो तिण कँत, सासूपति सुसर एकंत । खादो पण ए. मुझ कहीये, सगपण करमें इम लहीये ॥ १० ॥ अचरिज इणपरें अतीव, लहे कर्मतणें वस जीव । बहुवार लहे इण संच, सगपण इहां नही खलखंच || ११ || अनवस्थित ए संसार, भाखे जगदीस असार । इहां किंपि न दीसे नित्य, इण कारण को अनित्य || १२ || गामागर नगरनिवास,
मढ मंदिर आवास । वनवाडी बाग निवाण, घटपट इम बहुल मंडाण ||१३|| उपजे विणषे बहुवार, गिणतां जसृ अंत न पार। सुणि प्राणीरे इम जाणी, जिनधर्म करो मनआणी ||१४|| जिनधर्म विना ए जीव, सगपण लहे एम सदीव | स्वामी मरि सेवक थाय, सेवक फिर स्वामि कहा ||१५|| सूत्री माता सुत राप, घरणी हुइ इंतज आप । भ्राता मरि पुत्र सयाइ, फिर पुत्र हुवे ते भाई ||१६|| इम सगुणतणां विवेक, कहीए केटला छे अनेक। दृष्टांत सुणो हिव एक, श्रोताजन ! मन धरि टेक || १७ || इक पुत्रीनें तमु माय, मिलि मारग चाली जाय । पुत्रीना पग छे मोटा, मायना पग अति छोटा ||१८|| तिण मारग बेटो बाप, परादेखि करे इम थाप । जाणी जे विश्वावसे, ए. पग नारीना दीसे ||१९|| जलपे इम मांहोमांहि, बेहुं जण मन ऊछांहि । बेटो कहे चरण लहूनी, वरिसुं करि साख सहुनी ॥२०॥ कहे बापु वडापगं सार, वरस्यूं हुं ए निरधार । ते तुरत पहुंता आइ, निज मननी बात समाई ॥२१॥ मांहो मांहे चित्तलाई, तेणींपर कीषु सगाई । तेहना
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थया जे संतान, सगपण कहो जे मतिमान ॥२२॥ इम चरित। हुआ छे जेह, कहतां नवि लाभे छेह । जे पाकतणी विधि जाणें, देखी कण एक वखाणें ॥२३॥ a
( दूहाः ) । अन्जामुखथी सांभली, सगपणना विरतंत । कुबेरदचे वैरागीयो, चारित्र ले एकंत ॥१॥ मोहरायगति वंकडी, जांणे जे हुइ जाण । श्रवणे श्रुत संगम विना, स्युं जाणे अजाण
सा करम तणी छे अकलगति, सांभलज्यो सहु कोइ । (संवेगें चित्त आणज्यो, सरस चरित ए जोइ ॥३॥ ( ढालः-मिथिलानयरि जाणोयें, जुगबाहु नररायरे-एदेशी) ___ कुबेरदत्त इम सांभली, हियडामांहि विमासेरे । अचरिज कारी करमतणी गति, कहेतां एम तमासेरे ॥१॥ भविकजन एक मन थई, निज चरित संभालोरे। श्रीजिनआगम हृदय धरीनें। चेतनरूप निहालोरे । भवि० ॥ आंकणी० ॥ २ ॥ मोहतणो नाटक अपरंपर, स्व र्वारूप रमावरे । रामति रमता जीव संसारी, कालअनंत गसावेरे ॥ भवि० ॥३॥ खेलो तणो इक वृद्ध अखाडो, सुहेमसिंगोद वखाण्योरे । मादिरहित वलि अंतविवर्जित, केवलधर तिण जाण्योरे ॥भवि०॥४॥ काललबधिवस कोइक प्राणी, तेह अखाडो छोडेरे । काल अनंतो पंचथावरमें, बादररूपें दोडेरे भवि०॥५॥ समयंतर तिहाथी नीसरीनें, विकल अखाडे आवेरे । बहुभव तिहां बितिचौरेंद्री मांहि, वलि२ मोह नचावेरे । भवि० ॥६॥ पूरणथिति करि
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तिहाथी नीसरि, करमतणे सुपस्राएंरे । पांचे इंद्री पूरा पामें, गलित बंधन तूंब न्यायेरे ॥ भवि० ॥७॥ जलचर थलचर खेचरभेदें, उपरि भुजपरि नामोरे । संमूर्छम-गर्भज इण भेदें (वेसें), पूर्या पंचे ठामोरे ।। भवि० ॥८॥ पहिलो अघथानक आदरिने, हिंसक जीव कहाणोरे । देखी नाच अपूरव तेहनो, राजासोहरीझाणोरे॥भवि०॥९॥ अतिघण दानदीयो आदरस्युं, अघरूपी किरियाणोरे । मोट लेई फिर पूठो चाल्यो, मारग लीध पुराणोरे ॥ भवि० ॥१०॥ पुनरपी आवण जावणतणी अति, कहीए कवण कहा (नीसां) णीरे । उलट पुलट गति लोटणनी पर, वार अनंत वखाणीरे ।। भवि० ॥११॥
दूहाःइणपर मोहें प्रेरीयो, बहु विधि नाच करंत । कर्मतणी अनुकूलता,लहि नरभेष धरंत ॥१॥ तिण अवसर चित्त चिंतवे, इणपर मोह नरेने। चारिज धमनणो कदा, रखे लहे उपदेश ॥२।। इम चिंतवि तिण जीवनें, निवडपणे वस की धूतादिक साने सुभद्री तांह भलावी दीध ॥३॥
( ढाल:-) साते निज निज अखाडेरे, रामति लब नवीय रमाडे । साते विच ते एक प्राणीरे, अति खांचाताण मंडाणी ॥ १ ॥ एक एक ते वार अनेकरे, रमाडे मनधरि टेक। फल देखाडी ते थाकारे, पहुंचाया रायनें वाका ॥२॥ जिम२ ते नरभवे आवेरे, भड मेल्ही मोह) फिरावे । हिंसाद्रिक पाप अढारे,
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एफथी एक अधिक झंझार ॥३॥ पंचवीस क्रिया अतिभारीरे, सकाय नही तेह निवारी । वलि पचा समाव अकूणारे, वारंतां थाए दूणा ॥४॥ काठीयडा तेर संतापेरे, शुभ करणी करता व्यापे । पदीयष्टीकरे अतिजोरोरे, मनमांहे राखे तोरो ॥५॥ सांचे इंद्री अतिझूठारे, मनोहारि करत रहे रूठा। वलि पंचप्रकार मिथ्यातरे, तेहनो छे अति अवदात ॥६॥ रहे सोलकसान सजोरेरे, नर्व मोकषायै बलफोरे । लेश्या तीन अपसत्थरे, जे नरकतणो छे सथ्य ॥७॥गारवतीनों छे मोटारे,आदरतां फलदे खोटा । (तिह) सल्यतणो हिए वासरे, मति करज्यो कोइ वेसास ॥८॥ संतराक भेदगिणि चिरे, बलफुरण न दे एक रंच । वलि तृष्णो तारि संताबेरे कहीएं संतोष न आवे ।९।। आस्या योगणि बिख्यातरे, छोडे नही ते खिणमात । चिंता माणि विकरालरे, निरखे अन्नाणी बाल ॥१०॥ भारतेने रुद्र सध्यानरे,ध्याया ये दुरगतिदान । अवरति दासी जे गरोरे, सेवी चे बहुल संसार ॥११॥ इम सेनतणा बहु वृंदरे, जमु नायक मोहेनरिंद । जेहनें जेहq फरमांवेरे, तेहवीपरे तेह रमावे ॥१२॥
. दूहाः
मोहतणा सुभद, कहतां नावे पार। सर्व विश्वव्यापक थई, पूरि रह्या संसार ॥१॥ मोहसरिस वलि सात नृप) अतुल प्राक्रम तास, समरथ कुण कहेवा भणी, विणु केवल बल जास ॥२॥
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( ढाल-संभलि प्राणिया पह विचार-पदेशी )
ज्ञानावरण प्रथम नृपजाणो,पटसम तेहनो रूप बखाणो॥१॥ संभलो भविजन कर्म विचार, ओलखि लेज्यो आतमसार ॥संभ०॥२॥ पांचमुभट एहना छे जेह, निजनिज फल देखाडे तेह ॥ संभ०॥३॥ पांचेनी थिति सागर त्रीस, कोडाकोडि कहे मादीस ॥ संभ०॥४॥ दजो छे प्रतिहारसमाणो, नाम दरसनारणकहाणो ॥ संभ० ॥५॥ चेतनदरसतणो अंतराय, करे कहे इम श्रीजिनराय ।। संभ० ॥६॥ नवमभटे परवरीयोराय, जीस कोडाकोडि थितिकवाय।।संभ०॥७॥प्रकृति असाता सातादोय, अदनीकर्म इणीपर होय ॥ संभ० ॥ ८ ॥ मधु खरडित जेहवी
वडगधार, तेह सरिस वेदनी सविचार ।। संभ० ॥९॥ श्रीस 'कोटाकोडि सागर मान, स्थिति एहनी जाणे मतिमान
॥ संभ०॥१०॥ भायुकरम चिहुं भेद्रे जाणो, गति नामें करि तेह वखांणो ॥ संभ० ॥११॥ तारक सुर सागर तेत्रीस, गुरु स्थिति जाणो विश्वावीस । संभ०॥१२॥ तिरिनर, तीन पल्योपम सार, आयु गुरु स्थिति ए निरधार ।। संभ० ॥ १३ ॥ इडिसरिसो ए जाणो जोध, मुक्ति गमननो करे निरोध ॥ संभ०॥१४॥ नाम करम चित्रकार समाणो, नीन अधिकसत सभटवखाणो ॥ संभ० ॥१५॥ एहतणां संखेपे नाम, जांणि सलूझो चेतनराम ॥ संभ०॥१६॥ नारक तिरि तर देव विचार, इगबितिचर पंचेंद्रीसार ॥ संभ० ॥१७॥ पनरबंधन वलि पंच सरीर, संघातन संघयण सधीर ॥संभ०॥१८॥डसंठाण वरण
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वलि पंच, दुविधरांध रूसपण प्रपंच ।। संभ० ॥१९।। सफरस आणुपुवीचार, दुविध विहायोगति सुविचार ॥ संभ०॥२०॥ उपघातादिक प्रकृति सुजाण, ओलखि लेज्यो वलि निर्माण ॥ संभ० ॥२१॥ सदस दसथावर पराघात, नाम करमनी इणपर वात ॥ संभ० ॥ २२ ॥ उद्योतने आताप ऊसास, अगुरुलघु तीथंकर सुविलास संभ०॥२३।। प्रकृति नाम समरूप लेवावे, रूपसरिस सही नाच तचावे ॥संभ०॥२४॥ वीस कोडाकोडिसागर कहीए, थिति उतकृष्टी एहनी लहीए ॥ संभ० ॥२५॥ नीच ऊंच दोय प्रकृति वखाणी, गोत्रकरमनी ए जिनवाणी ॥संभ०॥२६॥ रूपकुलाल सरीसोधारे, नीच ऊंच गोत्रे अवतारे ॥संभ०॥२७॥ सागर वीसकोडाकोडि सीम, स्थिति उतकृष्टि जाणोनीम ॥संभ०॥२८॥दानादिकपांचे स्वतराय, करतां तेहज नाम कहाय ॥संभ०॥२९॥ भंडारी सम कहीए तेह, नाम सरिस फल आपे एह ॥संभ०॥३०॥
( दृहाः- ) ए साते राजा कह्या, मोह सरिस बलवान । निजर चरित देखावता, चित्त अतिधरे गुमान ॥१॥ मनछंदे आपापणे, नवर स्वांग धराय । नाच नचावे जीवनें, ते. विणु केवल न कहाय ॥२॥ अकर्म जिणवर कह्या, तिणमें मोहे विशेष । टीकायत करि थप्पीयो, बल अपारसंपेख ॥३॥ अष्टमांहि चोथो अछे, पण टीकायत जाण । कवियण जूओ वर्णवे, निजर बुद्धि प्रमाण ॥४॥ बीज भूत सातातणो, मूआ जिवावे
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जेह । पोषक प्रकृति प्रजातणो अदभुते राजो एह ॥६॥ ( ढालः-श्रीशत्रुजय तीरथसार, गिरिवर० ए देशीमां.)
ए मोहराजा अधिक प्रतापी, अंतरगति सघले रह्यो व्यापी, पापी अधिक संतावे। छांह तणीपर के. आवे, चोरासीलख जोनि भरावे, ख्याल अनंत खिलावे ॥१॥ कब राजा कब रंक निसंक, कब सरलो कब वंकत्रिवंक, कबही वियोग संयोग। निरधन कदा कदाधनवंत, कब भोगी कब योगी संत, रोगी कदा निरोग ॥२॥ दुरखीयो कदी कदी मुखसार, सेव, कस्वामीनो व्यवहार, दे इम वारंवार । दीन कदा कदा मानी मछराल, सुंदर, कदी कदी विकराल, निरद्रय सदय विचार ॥३॥ कायर कदा कदा अतिसूर, चोर कदा कब साइ सनूर, कब ठालो कब पूर । ससनेही निसनेही कर, बालो तरुणो चढते नूर, बूढो वलि जर जूर ॥४॥ कृपण कदा कवही दातार, संकोचितचित्त कदा उदार, खिण हलूओ खिणभार। खिणभंगुर एहनी गति कहीये, एह तजी जिनसरणें रहीये, लहीये जिम सुखसार ॥५॥ साचो खिण खिणमांहि अलीक, भूययुत खिण खिणमें निरभीक, मोह चरित तहकीक । जाणि भविक एहस्यु मतिराचो,जो चाहो आतममुख साचो, काचो नही ए ठीक ॥६॥ जांण, कदा फिर कदा अयाण, ए सवि पोतणां विनाण, जांणो चतुरसुजाण । जाणी एहनो संग निवारो, चित्तवृत्ति पसरंतो वारो, धारो श्रीजिनआण ॥७॥ गरी पुरुष नपुंसक वेद, भोग मिसि करि दे अति खेद, भेद सुणो वलि एम ।
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श्रुतसंगम समकितनो घाती, देसविरति सर्व विद्याली, साती अरियण जेम ॥८॥ ज़ायभिडे एकादसठाणे. जासु अपकथित होय तसु ताणे, आपणडे वस आणे । थापे आंण पढम गुण ठाणे, केवलनांणो एम वखाणे, खेले आपणपाणे ॥९॥ मदिरापान जिम मतवावाला, मोहतणा तिम अतिघण चाला, कहत न लहीए पार। आपापरनी विगत न जांणे, कुकवि जेम विपरीत वखाणे, नांणे सोचलगार ॥१०॥ चंचलमण करि आगेवाण, जीते जगत धरे बहुमाण, न करे केहनी काण । त्रिभुवन माहि मनावे आण, जीततणां आगें नीसाण, राजा इण अहिंनाण "॥११॥ सागर सित्तर कोडाकोडि, उतकृष्टी थिति इहां नही खोडि, होडें फल देखाडे। सिद्धविनां सह जीव रमाडे, चोरासी लख जोनि भमाडे, लोकाकाश अखाडे ॥१२॥ हिव एहना जे जीपणहार, ते. कहीए जे छे जगसार, त्रिभुषमना आधार ! पहिला जीपक श्रीजिनदेव, जेहनी सारे सुरनर सेव, सेव्यां दे सुखसार ॥१३॥ बीजा जीपक श्रीगणधार, श्रीजा जे चारण अणग्रार, प्रत्येकबुद्ध झंझार । थविरकल्प जिनकल्पाधार, जे छह काय अभ्यदातार, धर्मक्रिया करतार ॥१४॥ जेह करे तप वारंवार, नव कल्पी जे करे विहार, करि परिग्रह परिहार।
ओलखे शुद्ध निश्चये व्यवहार, मन वच काया करे इकतार, मंडे श्रुत व्यापार ॥१५।। पूरा व्रत संयम प्रतिपाले, जे सहुनें मपदृष्टिनिहाले, निज व्रति दूषण टाले । ए सवि पोइतणो मंदेगाले, नित माल्हे सिवमुख , मुविसाले, निज आवम
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अजुआले ॥१६॥ जे वलि देस विरति व्रतधारी, समकितवंत जिके सागारी, जिन मारग अनुसारी। सोहरायस्यु पासासारी,
खेलंता ले सार उगारी, जीतण डाव विचारी ॥१७॥ ते पण सिमबल वृद्धिनें योगे, शुद्धातम अनुभव उपयोगें, साधमुगुरु र संयोगें। मोहरायनो मान ऊतारे, सिद्ध तणा गुण हियडे धारे, चित्तसिवरमणी भोगें ॥१८॥ हिव एहनी जे जीपणहारी, होस्ये हुई छे जे जगनारी, ते कहीये संभारी । प्रथम कही साहुणी गुणखाणी, संयमनें गुणि साहु, समाणी, विचरे मोह, निवारी ॥१९॥ जे श्राविका बारव्रतधारे, जीवादिक नवतत्व विचारे, ते पूण मोह निवारे। पुनरपि जे जिन सेवा सारे, गुरु पहिलाभी जेय आहारे, चौद नियमसंभारे ॥ २० ॥ पडिक्कमणां पोसा पच्चख्खाण, तित्य मुणे गुरुतणा वखाण, माने जिनवर आणजे वरते खोथे गुणठाण, पंचमना साधे अणुठाण,तारे मोह माण॥२१॥ शीलवती वली सती कहीजे,जेहनी महिमा जगमां लहीजे, थुणतां सुख लहीजे । बे करजोडी तास नसीजे नितति, अनुमोदन तमु कीजे, नरभव लाहो लीजे ॥२२।। दाणव देव मिथ्याती जेह, शील परीखण आवे तेह, पावे नही तमु छेह । तपजप करि सोसे निज देह, शील ऊपर धरि अतिघण नेह, स्त्रीमांहि राखे रेह ॥२३॥ कर्मवसें. मुखदुःख अनेक, उपजे तोपण न तजे टेक, शीलतणा सुविवेक। चाली न चले सुरनरकेरी, वात कहीजे कवण अनेरी, हेरी लहीए एक ॥२४॥ एहवी शीलवती दृढ नारी, मोह सुभटनो.
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मान उतारी, आपतरे परतारे । सुरनर तेहनी सेका सारे, आसायण उपजती वारे, जगमहिमा विस्तारे ॥२५॥
( दूहाः- ) धर्मवंत हुआ जिके,नरनारीना छंद । वंछित सुख ते भोगवे, सोहतणो तजि फंद॥ १॥ पुनरपि जे जगदेवता, निरमल अमकितवंत । ते पुण जीपे मोहनें, सुणो तांह विरतंत ॥२॥
( ढालः-चालती अने त्रुटक-ए देशीमां.) जगमाहिरें समकितदृष्टी देवता, ते सुणीएंरे श्रीजिनवपाय सेवता । तीत्थंकररे जिण२ भूमि समोसरे, तिण भूम्यैरे समवसरण रचना करे । करे रे अशुचि पुग्गल सरसकुसुम एगरभरे, सोभायमान जिणंद्र उपर तीन छत्र सदा धरे । वीजंत चामर बीहुं, पासें सुरभी दृष्टि करे घणी, करजोडि उभा रहे आगे करे सेवा जिनतणी ॥ १॥ ओगणीसजरे सुरकज अनिसय श्रुत कह्या, निजकरणीरे जाणी साचा सद्दह्या। ते अतिशयरे अवसर जाणि समाचरे, मन भगते रे समकित गुण निर्मलकरे:-जे करे निर्मल नाणदंसण सुद्धभावनभावए, नवनवे छंदे मन आनंदें सदा जिनगुण गावए। बत्तीस बद्ध जिणंद आगे करे नाटक छवि करि, ते अल्पभवमांहि सिद्धि पामें हेले भव सायरतरी ॥ २॥ जिणवरनारे पंचकल्याणक हुवे यदा. इंद्र चोसठरे एकठमिलि आवे तदा। समदिट्ठीरे कोडि असंखमिले तिहां, जिणवरनारे कल्याणिक हुवे जिहां जिहां:-तिहां तिहां सुरनी कोडि आवे गीत
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गावे जिनतणा, देवांगना अति नृत्य करति लाभ ल्ये तिहां अतिणा । जिनतणां पहिलां पारणां तिहां दृष्टि सोनईसातणी, सुर करे साठी कोडिबारह, जय, जयारख मुख भणी
|| अठ्ठाईरे चार जिके छे सासती, ते आवेरे श्रीसंघ मन उल्हासती । तिण अवसर रे नंदीसर सुर बहु मिले, करि ओछवरे कहे जन श्रुतधर्मे भले :- भले श्रुतधर्मै तिके सुर जिके सुभकरणी करे, जिनराजभक्ति की सुखें संसादुत्तर ते तरे । जे हरे आसायण सुभगतें देव गुरु जिनधर्मनी, जिनचैत्य संघ स तणी एभणी वात सुमर्मनी ||४|| बली पूजारे शत्तरभेदी जिननी कही, करे विधिस्युंरे पुव्व देव मुखथी लही । जिनप्रतिमारे तिहां सासती छे जिके, हित सुखनोरे कारण जांणि पूजे तिके:- तिके सुर श्रुतधर्मनें वल सोहमान उतारए, तिरजंच पुण जे देसविरती सुद्ध समकित धारए । भवितव्यता बल लही अनुक्रमें मोहपसर निवारए, बलि तरे एम अनेक जे होय, गुणतणा भंडार ||५ ॥
( दूहाः - )
समदम उपशम विनयगुण, दयाद्वानसुविवेक । सुश्रुषा गुणवंती, इम गुण का अनेक || १|| जे जे गुण ते गुण करे, इह परभव सुविशेष । भवियणगुणधरज्यो सदा, उत्तम फल संपेख ॥२॥ इत्यादिक उपदेश बहु, आतम पर हितकाज। दीघां विचरत भविकनें, कुबेरदत्त मुनिराज ॥ ३ ॥ पाली चारित्र निर्मलो, हिए धरी सुभध्यान । सद्गति पायें साधुजी, निर्मल करि
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निजज्ञान ॥४॥ कुबेरसेना पण तरी, धरी सुचारित्र अंग । धर्मभावना भावतां, सुगति लही उछरंग ॥८॥ कुबेदत्तासाधवी, सू● चरित्रपालि, उत्तमगति सुख भोगवे, निज आतम अजुआलि ।४॥ चरित्र पिछाणी मोहना, जे जन थया विरत्त । ते अविहड सुख भोगवे, सिवरमणीस्युं रत्त ॥७॥ (ढालः-समकितनुं मूल जाणिएंजीरे, सत्यवच० ए देशीमाः) __ श्रीजिणवर जिम उपदिस्यारे, मोह्रतणा परपंच । भवियण साचा सदहोरे, नही इणमें खलखंचरे ॥१॥ पाणी धर्म करो मनरंग, हियडे धरि अति उछरंग । सूधा साधुप्रसंगरे, प्राणी,धर्म,करो मनरंग ॥ (आंकणी०) धर्मथकी सुखपामीएं रे, धर्मे वंछित सिद्ध । धर्मे जगजस विस्तरेरे, धर्मे अधिकी रुधिरे प्राणी. ध० ॥२॥ चक्रीपद धर्मे, लहेरे, धर्मे देव विमान । इंद्रादिकपद पामीएंरे, धर्म, अति सनमानरे ॥प्राणी ध०॥३॥ धर्मश्रकी वली पामीएरे, तीर्थकर पदसार । श्रुतकेवल केवल लहेरे, धमे पद गणधाररे ॥प्राणी ध०॥४॥ धर्मकरो भविभावस्युरे, धर्मे शिवसुखसार । श्रीजिणवरकही धर्मनीरे, महिमा अगम अपाररे ॥ प्राणी ध०॥५॥ नागोरीघडतपगच्छारे, तास परंपर जाण । श्रीपार्श्वचंद्रसरि गछपतीरे, शुद्धक्रिया गुणखाणरे
पाणी ध०॥६॥ प्रगट को जिणे आचरीरे, मनिनो धर्म प्रधान । श्रीसमरचंद्रमरि तेहनेंरे, पाटे अतिहिं सुज्ञानरे ॥पाणी ध०॥॥ तास पटोधर जाणज्योरे, श्रीराजचंद्र मुरिंद्र। तास शिष्य उवझायजीरे, श्रीहीरानंदचंद्ररे पाण ध॥४॥
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तसु विनयी शिष्य अतिभलारे, ठाकुरसिंहजी नाम । धर्मसिंह शिष्य तेहनारे, पंडित तास प्रणामरे प्राणी ध०॥९॥ तसु विनयी मुनि कर्मसिंहरे, पाणां नयर मोझार । चरित्र रच्यो ए मोहनोरे, सरपुणमिस अवधाररे ॥पाणी ध०॥१०॥द्धीप (ससी संवत सहीरे, वरसयुगल रसजाणि । (१७६२) पर
आपण हित कारणेरे,एकही कथा वखांणिरे ॥पाणी धर्म०॥११॥ । इति मोहचरित्रगर्भितअढारनात्रा चोपाई समाप्ता ॥ संवत १७६२ वर्षे मार्गशीर्षमासे वदिपक्षे पंचमीदिने गुरुवासरे सिद्धियोगे मुनिकर्मसिंहेनालेखि खपरहिताय शुभं भवतु कल्याणमस्तु पठनपाठनयोः ॥श्री॥
इति विक्रमसंवत् १७६२ वर्षे मोहचरित्रगर्भित-अष्टादशनात्रा चोपाई समाप्ता कृता च श्रीमन्नागपुरीयवृहत्तपागच्छाधिराजयुगप्रधानक्रियोद्धारकारकसिद्धान्ततत्वमहोदधिजैनाचार्यप्रवरश्रीपार्श्वचंद्रसूरिपुरंदरपट्टधुरंधर-श्रीसमरचंद्रसरिवरशिष्यप्रवरश्रीराजचंद्रसूरिराजशिष्योपाध्याय श्रीहीरासंदचंदगणिचरणानुचरठाकुरसिंहमुनिप्रवरविनेय श्रीमहामहोपाध्यायश्रीधर्मसिंहगणिशिष्याणुवाचकवरश्रीकर्मसिंहगणिनासंशोधिताश्रीजैनश्वेताम्बराचार्यवर्यपूज्यपादपरमोपकारिप्रातःस्मरणीयसुगृहितनामधेयविश्ववंद्यश्रीश्रीश्रीभ्रातृचंद्रसूरीश्वरचरणकिंकरमुनिसागरचंद्रेण स्वपरकल्याणाय॥श्रियेऽस्तु॥
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आचार्यश्री भ्रातृचन्द्रसूरिग्रन्थमाला पुस्तक - ३५. मुनिवरश्रीप्रमोद चंद्रवाचक वर शिष्यमहोपाध्यायश्री कर्म सिंहगणिकृत - श्रीरोहिणी तपमहात्म्यगर्भित
श्रीरोहिणीनो चोपाईबद्ध - रास.
संशोधकः - श्री भ्रातृचंद्रसूरिशिष्यमुनिसागरचंद्रः ॥
( दूहा:- )
श्रीजिन पय युग प्रणमिये, वासुपूज्य अभिधान । सोवनगिरि श्री पास जिन, महिमा मेरु समान ॥ १ ॥ वर्द्धमानस्वामी सधर, शासन नायक सार । तस गणधर गौतम नमुं, लब्धितणा भंडार || २ || श्रीसद्गुरु सानिध लही, पामी सघळा थोक । तास चरण परसादथी, कथा कहिश भविलोक ! || ३ || दाने शीले तपे भावना, चिहुँ करि शिवपुर जाय । वलि विशेषें तप करे, ते दुःकर कहेवाय || ४ || चउद सहस अणगारमां, तर्फे धन्नो अणगार । वीरजिणंद वखाणीयो, ढूंढण नेम कुमार ॥ ५ ॥ देतां सोहिलो जे हुवे, शीलेसुंदृढ मन साख । तप काया कसवटि लहे, त्रिकरण भाव सुंभारख || ६ || तप करि काया निर्मली, तपथी रूप प्रधान। जगमा तपना फल सवे, तप, लहिये शिवठाण ॥७॥ / तप करी किण सुख पामिया, सुणजो ते सावधान । रोहिणी
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रोहिणी तप थकी, वलि अशोक राजान ||८|| गौतमपृच्छा ग्रंथथी पामी ए अधिकार । पुन्य प्राप फल पूछिया, जिन पासे गणधार ||९|| अठ्ठ उपर चालिश वली, वीरजिणेसर पास । तिणमें एगुणतीसमी, कहिये मन उल्हास ॥ १० ॥
( ढाल - पहेली -चोपाईनी . )
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“उच्छिठ्ठमसुंदरयं॰भत्तं तह पाणियं च जो देई । साहूण जाणमाणो, भत्तंपि नजिज्जए तस्स ||१|| " जंबूद्वीप भरत वा॥१॥ सामि, आरजदेश मग इण नामि । राजगृही सुरनगर समान, अनोपम गुण शैल उद्यान ॥ ११॥ समवसरण रचना करि देव, वीरजिणेसर सारे सेव । चहुविह संघ परषदा मिली, वाणि सुधारस पीवा रली || १२ || गुणगिरुवा गौतम गणधार, पूखधर चडनाणी सार | जाणथका पण परउपकार, अबोह जिव बोहदातार ||१३|| अतर सो भेद विचार, उत्कृष्टा अडायल उदार । नारय गति वलि शिव जई रहे, तेहज जीव किण करमे लहे ||१४|| इणिपरे सघला पूछे जेह, अरथ सहित जिन भाखे तेह | कहिये जेहनो इहां विचार, परणे ते गावे संसार ||१५|| अंजलि करी पूछे मन भाव, स्वामि पासे लही प्रस्ताव । जे जग प्राणी कोइक जेह, खाधो पीधो नजरे तेह ||१६|| किण कर ते भाखो हेव, स्वामि कहे सांभल संखेव । असार वस्तु जाणी धरबार, अति कडुओ खारो अविचार ॥१७॥ खावा किणरे नावे भोग, वाल वृद्धने यौवन जोग । अति उच्छिष्ट जे छंडे सही, जेहनो नाम न ल्ये को गृही
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॥१८।। एहवो जाणी जे नरनार, दिये साधुने तेह असार । इह भव परभव दुख वशि तेह, पामे भवभमतां नहीं छेह ।।१९।। जिम श्रीवासुपूज्य जगनाह, तस अंगज मघवा तरनाह । रोहिणी तस पुत्रीनो जीव, बहु भव पुंठे कीधी रीव ॥२०॥ कुष्टरोग दुर्गधे करी, दुर्गधा परे पामे खरी । बहुभव पूंठे दीधो जेण, जाणी मुनि कडु तुंबड तेण ॥२१॥ वलि द्रौपदिपरे पामे दुःख, बहु भव भमतां थाय न सुख । दुर्गध कुमरतणी परे जाण, दुख सहतां बहुभवे निर्वाण ॥२२॥ एहवो जाणी जे नरनार, अरस विरस अयोग आझर । करता भुगता जगमां जाण, पण तपथी लहिये शिव ठाण ॥२३॥ करजोडी पूछे गणधार रोहिणी गणीतणो विचार। दुर्गधा किण विध तप करी, जगना नाथ ! "कहो हित धरी ॥२४॥ पूछया अंतर जिणवर भणे, आगल गौतम उभा मुणे । अरध मागधि वाणि रसाल, करमसिंह मुणतां सुविशाल ॥ २५ ॥
(दाल-बीजी-सीखन सीखन चेलणा, ए देशि.)।
जंबुद्वीप सोहामणो, द्वीपां विच जाण । मेरु बिराजे बीचमें, शिरमुकुट समाण ॥२६।। चंपा, चावी चिहुदिशें, दक्षिण भरत मझार । अंगदेश धणकण भरी, रहे लीला नार ॥चंपा० ॥२७॥ गढमढ मंदिर मालिया, पोशाल ल्हे शाल । चावां चहुटां चीहु दिशे, शोभे सुविसाल ॥ चंपा०॥२८॥ धनवंत घरमी जन घणा, परकाज सकज । विविध व्यापारी वाणिया, गुणवंत सलज्ज ॥ चंपा० ॥२९॥ क्षीरोदक सम लूघडां, रेशमी पटकूल । गाधी
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पसारी फल हटी, माली ऊभाले फूल ||चंपा०॥३०॥सोती हीरा परखता, बहु बुद्धिनिधान । वरण अढार वसे तिहा, सहुको सावधान ॥ चं० ॥३१॥ परम करम के साचवे,मन वांछित भोग। दुख दोहग दीसे नही, नगरीना लोग॥चंपा०॥३२॥ नगरनिकट चिहुदिशि भला, वापी कूप तडाग । वनखंड वृक्ष घणा तिहां, वाडी ने बाग ।। चंपा०॥ ३३ ॥ वासुपूज्यजिन बारमा, अंगज, नरराज । राजा राज करे तिहां, मघवा महाराज ॥ चंपा०॥३४॥ तेज प्रतापें आकरो, सहु माने आण। सीमाडा भूपाल जे, सेवे राणोराण ॥ चंपा०॥३५॥ देवलने ध्वजदंड छे, स्त्री.कबरी बंध।) मार सारपासे कहे, छिद्र मोती संध ॥ चंपा० ॥३६।। व्यायी समजणी परे, हरिचंद्र जिमबार । विक्रमनी परि साहस्री, कर्ण जिम दातार ॥ चंपा०॥३७॥ इणिपरि राज करे भलो, पुहवीपरसिद्ध । करमसिंह करमे करी, मन वांछित रिद्ध।। चंपा०॥३८॥
( दूहाः- ) श्रीमघवा महाराजने, लखमी राणी जाणि । पतिभक्ति रुप वल्लभा, गुणगण केरी खाणि ॥३९।। गजगति चाले सुंदरी, सिंह समी कटिलंक । चंद्रवदनि मृगलोचनी, अंग नहीं को वंक ॥४०॥ शील सुदृढ सीता समी, रूपे रंभ सरीष । कोकिलकंठ मनोहरु,वाणी अमृत ईष ॥४१॥ महिला गुण चोसठ कला; कुशल घणुं परवीण । अवसर सघला साचवे, दान पुन्य दाक्षीण ॥४२॥ पटराणी पदमिनी सहित,सुख विलसे महाराय। देव दुगंदुकनी परे, लीला मे दिन जाय ॥४३॥ रतिवंती
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राणीलणे, आठ पुत्र अभिराम । जनम्या नाळे सामटे, दीपे रूपे काम ॥४४॥ एक एकथी सुंदरु, कळा बहुत्तर जाण । रायराणी मन उल्लसे, देखि गुणमणि खाण ॥४५॥
(ढाल-त्रीजी-क्षेत्रपाळना गीतनी) हिवराणी हिवराणी मनमांही चिंतवे, पुत्रीविण सूत्रीविण, प्रमदा न शोभहे। गुणवंता (२) बेटा जनमिया,एक पुत्री (२) नो मुजलोभ हे ॥हिव०॥४६॥ जिणघरमां(२) पुत्री नवी होवे,ते घर किम (२) होवे पाकहे । कन्या दान (२) कहिये परगडो, कवडिने (२) जे वलि लाख हे।। हिव०॥४७॥ बाळापण (२) लाडकोड पूरती, पितुमाता (२) भाइ गावे गीतहे। दुलडीआं (२) रमती रंगशु, सहि पामे (२) धरती प्रीतहे ।। हिव०॥४८॥ सिणगारी (२) गौरी सोहामणि, पूगेमन (२) केरी खंत हे। मन मान्यु (२) थाजो माहरे, गोरो गुण (२) वंतो कंतहे । ॥ हिव० ॥४९॥ इण अवसर (२) मावित्र चिंतवे, जोइजइ (२) जसाइ.चंग हे। परणाई (२) पूरा प्रेमशुं, इमकीजे (२) बहुरंग जंग हे ॥ हिव०॥५०॥ मुकलावो(२) दीजे दिल खुसी, आघरणी (२) कीजे शुभाव हे। मोशाळे (२) मनरंजे घj, पीहरनो (२) कह्यो प्रस्ताव हे ॥ हिव०॥५१॥ बांधवने (२) बांधे राखडी, भाइबीजे (२) करे सुजगीसहे । जीमाडी (२) वीरा आपणा, वळि आपे (२) बहु आशीषहे ॥ हिव०॥५२॥ एक बेटी (२) विण एहवा सही, मनोरथ (२) रहे मनमांहि हे। विलवाणी (२) आमण दमणी, अंगमांहि (२) नहि उमाह
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१०१ हे॥ हि०॥५३॥ राजापिण (२) जाणी वातडी,रहेराणी (२) रहे आधान है। मनोरथ (२) फळशे मनतणा, इमजाणी (२) कहे राजान है। हिव०॥५४॥ तिण दिनथी () उत्सव अति घणा, वळि कीजे (२) रंगमंडाणहे। रायराणी (२) मन आणंदिया, कर्मसिंह कहे (२) पुन्य प्रमाण हे । हिव० ॥५५॥
-दहाःशुभ मुहूरत शुभ वासरे, उच्च प्रहर अभिराम । लखमीराणी लीलमें, पुत्री प्रसवे ताम ॥२६॥ राजा दीध वधामणी, चेडी दोडी जाय । सांभळी मनमां हरखीओ, आनंद अंग न माय ॥१७॥ दीधी बहुत वधामणी, दासिपणो करि दूर । जन्य अवसर साचवे, वाजे मंगळतूर ॥५८॥ बंदीजन जय उच्चरे, याचक जय जय कार । हुवे दशोठण जयां लगी, खरचे गरथ अपार ॥ ५९॥ पहिले बीजे तीसरे, दिन वळि छही-रात । दशमे सूतक टालीने, बारसमे विख्यात ॥ ६०॥ जीमाडी साजन सवे, वस्त्राभरण प्रधान; फळ फोफळ देईकरी, बोले इम राजान ॥६१॥ ए पुत्री अम व्हालडी, कुमुद्र रोहिणी जामः तिणे कारण देस्यां सही, रोहिणी) कुमरी नाम ॥६२।। नाम तणी करी थापना, संतोषी सहु साज । राजारणी रंजिया, हवे सहु सरियां काज ॥६३॥ ( ढाल ४ थो-शियाळो हे भलां आवियो, ए देशी.)
कलपवेली जिम वापती,जल पख हे बीजथी जिमचंद मायताय मनमोहती, जिम देखी हे मधुकर अरविद ॥ रोहिणी
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टि देखी केसरी, बने
हे रूपे रूअडी, आंबा डाळे हो सोहे मुडी जेम || रो० ॥६४॥ बरष हुई जब सातनी, तिण अवसर हे वाधे शोभ शरीर । भूणी गुणी चोसठकळा, गुण लक्षणहे पूरण साहस धीर ॥ - रो० ॥ ६५ ॥ मुख मटको देखी करी, चंद क्षीणो हे थाये इणिभेद । कट्टि वसियो हे धरतो मन खेद || रो० ॥ ६६ ॥ मुग बीहे निज नयणथी, मति लेसी हे काइ तेण । वनवासे भमतो रहे, नवि आवे हे अविसासत- एण || रो० ॥६७॥ हंस चरण आवी रह्यो, जाणी सारद हे वेणी मिसि व्याल | अधर प्रवाला लाजवी, बांहडली हे कमळांरी नाळ || रो० ॥ ६८ ॥ दांतडला दाडमकळी, मुंगफळियां हे अंगुळियां सार । कठिन पयोधर दीपतां, कुंभस्थल हे मयंगल आकार || रो० ॥ ६९ ॥ नयणकमळनी पांखडी, अणियाली हे अंजी गजगेल | दीपशिखा सम नासिका, जंघायुग हे दीपे जिम केळ || रो० ॥ ७० ॥ रूपें रंभा शीळे सती, शारदपिणहे हिडे विश्राम | लीलावे वासो वसे, नित अचरिज हे किम एक ठाम || रो० ॥ ७१ ॥ अंगण ऊभी लीलमें, कलकंठीहे बोलती वेण । यौवनवय जोरे चडी, जगडावे हे नव अंग सुमयण || रो० ॥७२॥ चंपकवर्ण सुहावती, ललकंती हे वळि वेत्र समान । कामविराम छीपाडती, चालती हे जोती सावधान || रो० ॥ ७३ ॥ | रोहिणी कुमरी रंगशुं, मन मेलं हे सहियासुं वात । करे करमसिंह इम कहे, जोवनवयनी हे जगमें विख्यात || रो० || ७४ ॥
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( दूहाः-सोरठा:-) एहवे अवसर राय, राणीसुं वातां करे । चिंत धरी मन भाय, कुमरी थई वर योग्यता ॥७॥ राणी जपे स्वामि ! सरिखो वर को जोइये । रूपगुणें अभिराम, सारीखे राचेसहु ॥७६।। संत्री बुद्धि निधान, पूछीजे प्राणेशजी!। साम काम सावधान, मरम सहू वातां लहे ॥७७॥ मंत्रि प्रति महाराय, पछे मन उत्सुक थई । वरजोवो वरराय, कुमरी वर प्राप्ति थई ॥७८॥ चिंत किसीइ लईश,पुत्यवंतीरी थे करो। करमे की जगदीश, जे वर तुम्ह मन मानियो ।। ७९ ॥ पिण नवि दीजे बाप, इण जुगमे सहुको कहे। वरसी जोई आप, तेडावो बहु राजवी ।। ८० ॥ हरख्यो मन महाराय, एह वात युगति कही । राणी पासे जाय, प्रकम्नां सहु सिद्धि हुई ॥ ८१ ॥ तेडावे राजान । देशदेशचा भूपती । आवे इंद्र समान । शूरवीर सकजा सही।।८२॥ एक म्हेलीओ दूत, बीतशोक राजा-)भणी । पुर नागोर पहूत, करजोडी सहू भाखियो ॥८३।। सघवा राजा रंग, रोहिणी स्वयंवर कारण । संघळा भूप सुचंग, तेड्या तिहकण आवशे ।।८४॥ तिण कारण महाराय, बंपापुरि पवधारिये । सांभळि हर्ष न माय, अशोक कुमरसाथे करी ॥८॥ हयगयरथ परिवार, नागोरथी राजाचढे । कुंमर देखी नरनार, वरराजा एहज सही ॥८६॥ शकुनह आं श्रीकार, देखी राजा रंजियां । हीअडे हर्ष अपार, सफळ मनोरथ माहरा ॥८७॥ सुखप्रयाण सताब, नगरी पासे आवि
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१०४ या। डेरा करे सुफाब, देखी मनरंजे घणुं ॥४८॥ चंपापुरीने पास, नगर नवेरा वासिया । उंचा लगी आकाश, डेरा तंबू ताणिया ॥८९॥ नोबत घुरे निसाण, के ऊतरिया बागमें । मोटा करे मुंडांण, भादरवाना मेहज्युं ॥९० ॥ केई सरवर कंठ, के चउडा चउगानमें । केई महा अठंठ, मनगमती योजां दिये ।।९१॥ श्रीमघवा महाराय, आगति सागति बहु परें। डेरे डेरे जाय, मंत्री मनुहारां करे॥९२॥ इणि परे हर्ष अपार, सह राजा संतोषिया । स्वयंवर मंडप सार, कहे करमसिंह सांभळो ॥ ९३ ॥ सर्व गाथा ॥९३॥
( ढाल ५ मी-चुंनडोनी देशीभां.) चंपापुरी राजा चुंपशुं, स्वयंवर मंडप करे साररे लाल । सारीखी धरती राखी, जाणे थाळ तणे आकाररे लाल ॥९४॥ स्वयंवर अति सोहे भलो, दीठां आवे दायरे लाल । इंद्र सभा मान अवतरी, देखी संसय भ्रम थायरे लाल । स्व० ॥१५॥ निरमळनीर छंटावीने, वळि फूल पगर पथरंतरे लाल । अगर उखेवे अतिभलो, ते सुरभि रही महकंतरे लाल ॥ स्व० ॥ ९६ ॥ तसु परि तंबू ताणिया, जाणे नभशुं मंडे वादरे लाल । पाखलि फरति कनात छे, ते दीपे वादोवादरे लाल ।। स्व० ॥ ९७ ॥ जाजिम अवल विछावीजे, तस ऊपर गिलम अनूंपरे लाल । पग देतांपि तळे सही, जाणे एतो कूपरे लाल ।। स्व० ॥ ९८॥ चिहुंदिश दीपे चंद्रूआ, मुखमल वलि जरबाफरे लाल । जरकस नीलकना घणा,
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कतिपादिक साफरे लाल || स्व० ॥९९॥ पटांबर पटोलियां, करणाठी मछली छींटरे लाल । स्वयंवर मंडप छाईयो, देखतां जनमन ईटरे लाल || स्व० ॥ १०० ॥ पोळ बणावी चिहुँ दिशे, ऊपरें झाक झमाळरेलाल । आरीसां करी शोभती, महकंती फूलमालरे लाल || स्व० || १०१ || मोत्यांरी जाळी झिगमिगे, बिच परवाळि सिरदाररे लाल | पंचरंग फूंदा फावता, जाणे आफूं खेत उदाररे लाल || स्व० ॥२॥ पोया झाबे सोनावणे, लहकंता वाय सचेत रे लाळ । थांभे दीपे पूतळी, हिवडां बोलसी
तेरे लाल || स्व० ||३|| स्वर्ण सिंहासन मांडिया, मणि माणिक जडया सुजाणरे लाल । स्वयंवरमांहि बिहुं गमा, सरखा सरीखे मंडारे लाल || स्व० || ४ || तिहां आवे भूपति हरखता, स्नान मज्जन करी शरीररे लाळ | वस्त्र अनोपम शोभता, पचरंगी पाग सधीररे लाल || स्व० ॥ ५ ॥ छत्र सहित चामरढळे, काने कुंडळ तिलक विसाळरे लाल । वीर वलयने बेरखा, गळे व लख मोतिमाळरे लाल || स्व० ||६|| सोळ शंगार सजी करी, दीसंतां इंदू समानरे लाल । आवी बैठा मंडपें, मन हरख घणे राजानरे लाल || स्व० ॥ ७ ॥ वीतशोक राजा तिहां, साथे कुमर शिरमोडरे लाल । बेठा आवी मंडपें, बीजो नावे को जोड रे लाल ।। स्व० ।। ८ ।। अंग देश चंपापुरी, शिणगारे बहु भातरे लाल । मघवा राजा मन खुसी, मानु इंद्रपुरी हुई मातरे लाल || स्व० ॥९॥ इंद्र मूरति महा राजवी, दीसे स्वर्गा लोयरे लाल । करमसिंह
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करमे करी, परणसे बाळा सोयरे लाल ॥ स्व० ॥१०॥
(दूहाः -) हवे कुंवरी प्रति विनवे, सखी साहेली आय । पीठी प्रमुख सहु करे, रंगे मंगळ गाय ॥११॥ मज्जन स्नान करी तिहां, तनु चंदन लेपंत । मंगळडा करी कामनी, मनमांहि हरखंत ॥१२॥ हवे शणगार सजे भला, कवि ओपम आखति । सवि चतुराई केळवी, स्वयंवर मंडप जंति ॥१३॥
(ढाल ६ वी-देशी यतीनी.) सजी सोळ शंगार उदार, अमोलक जेह अपार । नारी कुंजर दक्षिण चीर, सोभीता पहिरे शरीर ॥१४॥ आंखडियां काजल नीको, भल भाल विराजित टीको। शेषनाग समी शिरवेणी, राखडी मणि ओपम देणी ॥१५॥ झबके बे कांने कुंडळ, जाणे शसि सूरज मंडल । नाके सोनारी वाळी, मोटा मोति वीच परवाळी ॥१६॥ मुख सोहे जिम अरविंद, अथवा पूनिमनो चंद। हियडे मोतीना हार, नववंक सरा अढार ।।१७।। मणि माणिक मोती जडियो, कंचू आप विधाता घडियो। बहेरखा ने बाजुबंध, घूघर घमके कटि संघ ॥१८॥ मुख रातो रंग तंबोले, सखियांरे झूलर डोले । चकडोळ चढी सुकुमाल, हाथे लेई वरमाल ॥१९॥ कवि ओपम केही आखे, इंद्राणी पाछि राखे । जो रूप करीजे जोड, तो नावे इणरी होड ॥२०॥ इम स्वयंवर मंडप आवे, सहियां शुं हसती भावे । धरती पग
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मंके ठमके, पायें नेउर घूघर घमके ॥ २१॥ गज गतिशु केलि करती, साजण दुरजन परखंती। निरखंती वांके लोयण, जिम निरखे भूख्या भोयण ॥२२॥ हवे चिंते मन राजान, जाणे वीज खवी असमान । विद्याधरी किन्नरी राही, के इंद्र लोकथी आई ॥ २३ ॥ सवि नरपति देखी हरखे, रति रूप सही इम परखे। एहवी नही नारी काई, राव राणारे मन भाई ॥२४॥ बरशे हिव जेहने एह, धन जनम गिणेशा तेह । कर्मसिंहकहे करमसखाई, परणसे तेहने आई ॥ २५ ॥
दूहाःराजा मन मांहि चिंतवे, इहां कुण इणरी जोड । वर वरसे जे एहने, ते शिर वधियो मोड ॥२६॥ सहुको चाहे एहने, इणरो जिणशुं मन्न । इम चिंते सहु राजवी, ते जगमांहे धन्न ॥ २७ ॥ श्रीकंठ उमिया कारणे, कमळा) काज गोविंद्र । रतिने, कारणे कामगिणी, रोहिणी पति श्रीचंद्र ॥ २८ ॥ तिम इण रोहिणी कारणे, स्कूण छे चंद समान । निकमी राणीनी परे, बेठा कहे राजान ॥ २९ ॥' केई कहे ऊतावळा, इण वेळा कांइ आज। आरीसे शुं काम छे, कर कंकणरे काज ॥ ३० ॥ केई कहे निरखां निपुण, आपणशुं नहीं मंड । नारी पराइ निरखतां, डोळां ही को दंड ॥३१।। इण परे मन मोजां करे, जाणे समुद्र लहरि। परणीजण पुन्ये हुसी, जिणशुं साहिब महरि ॥ ३२ ॥ चतुर चेडी आगे कहे, कनक छड़ी जस हाथ । रूप रिद्धि
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१०८ वंशावळी, देश नगरना नाथ ॥३३॥
(ढाल ७ मो-कोइलो पर्वत धूंधलोरेलो ए देशी.)
आगळ चाले वेत्रिणी रेलो, पूंठे कुमरी अनूपरे बाईजी। चूंघट ओट आरी समेरे लो, जोति मन करी भूपरे ॥ बा०॥ ॥३४॥ वर वालम मन मानियोरे लो, जे आवे तुज दायरे ॥ बा०॥ महि मंडलना महिपतिरे लो, वात कहुं समझायरे ॥ बा० ॥ वर० ॥ ३५ ॥ ए. कुरु देशतणो धणीरे लो, गजपुर कौतुकवंतरे ॥ बा० ॥ वैरी वंश निकंदनोरे लो, रूप कला गुणवंतरे ॥ बा० ॥ वर० ॥ ३६॥ कोशल देश कृपानिलोरे लो, मोटो महिपति जाणरे ॥ बा० ॥ हय गय रथ पायक घणारे लो, बोले अमृत वाणरे । बा० ॥ २० ॥३७॥ मेदपाट माने सहुरे लो, आवे भेट अमोलरे । बा० ॥ रू. रतिपत्रि सारिखोरे लो, अवर नहीं इण तोलरे ॥ बा. ॥ ३० ॥ ३८ ॥ कंबोज देस कला घणीरेलो, अश्वरतनरी खांणरे बाईजी। ए राजा तिण देशनोरेलो, तेजें दीपे भागरे बाईजी ॥ वर०॥३९॥ वच्छ देशनो वाल्होरे लो, जाणे सकल जहानरे।। बा०॥ साल सुगंधी निपजेरे लो, देवां दुर्लभ मानरे ॥ बा० ॥ ३० ॥४०॥ काशमीरका | कहुंरे लो, जीभ एक गुण कोडरे । बा०॥ केसर रयण कंबळ हवेरे लो, ते राजारी कुण जोडरे ॥ वा० ॥ ३० ॥४१॥ काशी देश वाराणसोरे लो, पुरनो पृथिवीपाळरे ॥बा०॥ तिहां गंगा स्नाने करीरे लो, पातिक जाय पयालरे । बा०॥व०॥
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॥४२॥ मल्याचल, चंदन जिहांरे लो, तपति छ मासी जायरे । बा० ॥ खल सुपति तिण देशनोरेलो, रमणि रही लपटायरे । बा०॥ वर० ॥ ४३ ॥लाट कर्णाटतणो धणीरे लो, गौड चौड, नेपालरे । बा०॥ लाड कुंकण रुछ देशनारेलो, बेठा ए भूपालरे, बाईजी । व० ॥ ४४ ॥ इंद्र शोभा जिणे अवगणीरे लो, सागोरनो ए नाथरे ॥ बा० ॥ रूप कला गुण आगलोरे लो,अशोक कुमर वलि साथरे ॥बा०॥०॥४५ रोहिणी रूप निहाळीयोरें लो, होइ रही लय लीनरे ।। बा० कर्ता दिसे छे सहीरे लो, अशोक कुमर आधीनरे ।। बा० ॥ । ब० ॥४६॥ जिम गयवर रेवा नदीरे लो, चूनीने बलि हेमरे ।। वा० ॥ जिम चकोरने चन्द्रमारे लो, कुमरने कुमरी तेमरे ।। बा० ॥ व० ॥४७॥ चमक लोह जिम आविने लो, कंठ ठवे वरमालरे ॥ बा०॥ हरषे हियडो कुंवरनोरे लो, देखी अति सुकुमाळरे ॥ बा०॥ व०॥४८॥ हाले) हूई ए सातमीरे लो, कुमरी हरष अपाररे । बा०॥ कर्मसिंह करमें करीरे लो, सुख संपति श्रीकाररे ॥ बा०॥ व०॥४९॥
-दूहाःविद अनोपम देखीने, पुगी सब जन खांति; मघवा महाराजा हवे, भोजन नवली भांति ॥५०॥ अवर सहु राजा प्रते, वस्त्रदान सनमान । संतोषी संप्रेडिया, सघळाई राजान ॥५१॥ हवे राजा वीवाहतणो, मोटो करे मंडाण। खरचे धन उत्सुक थई, अवसर जाणे जाण ॥५२॥
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( ढाल ८ मी-देशी लाखां फुलांणीना गीतनी )
हवे तिहांथी वराय, निमां आवे नृपशुं । कुमरी वेश बनाय, पाखल आवी बेसे हर्षशुं ॥५३॥ आरिम कारिम जेह, सघळा करीने मंगळ गाईयें । चतुर सोहागण नार, लाडो लाडी हर्षे बधाईये ॥५४॥ वाजे मंगळ तूर, जांनी मांनी मनमांहे हरखिया। जोशी मेलावे हाथ, राजा राणी तिहकण आविया ॥५५॥ हाथ म्हेलावण हुंश, दीधा हो हयवर जडित पलाणशृं। मदझरता मातंग, दीसे ऐरावण सोवन रासशुं ॥५६॥ बिहुंना छेहडा बंधि, इण मिसें प्रीति बंधी जग जीतियो । कन्या फिरी वर के., चोथो मंगळ कहे सह वरतियो ॥५७॥ खरच्या गरथ अपार, दीधी हो राजाने लखमी अति घणी । याचक हरष अपार, पीते मुंह माग्यो ये ते भणी ॥५८॥ विहं राजा रंग रास, मांहो मांहे हो प्रीत वधी घणी। मांगे शीख सनेह, चालण सझाई करीने घर भणा ॥१९॥ दायजो दीधो सार, संपेडण साथे राय राणी चले । सूखरी शीख सनेह, देता कुमरीने सहू साजन मिले ॥६०॥ करतार के भरतार, सामने सुसरो घणुं संतोषजे । पीहर पनोती नार, जण जण मुखथी एहवं कहावजे ॥६१॥ हिळी मिळीने मन भाय, रोती साजन सहु रोवाडिया । तुरत तुरीसुं राय, चढीने हो मारग हालण मांडिया ॥६२॥ आया नगर नजीक, जाइने वधाऊ परणी आईया । रोहिणी राज कुमार, सांभळी हरष घणे वधाईया
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१११ ॥६३॥ उत्सव मांडे सार, करि जे कौतुक कोडि वधामणा। याचक जय जयकार, जण जण मुख मुख नूर चढे घणा ॥६४॥ शिणगारे बाजार, गलिये गलिये फूल विखेरिया। ताता तेजी तुरंग, मदगरता मयंगल शिणगारिया ॥६५॥ आरी सांरी पोळ, नाचे गटिक बद्ध बत्रिशजे । ग्डि धुंधूं घुरेरे नीसाण, भेरी नफेरी ताल कंसालजे ॥६६॥ पंचरंग नेजा हाथ, चाले आगळ पायक दोडता। इणिपरे गाणिक चोक, गहमह आवे हो सोहला गावता ॥६७॥ कुमरी सहित कुमार, हाथीनी अंबाडी हो बेठा सज करी । मेघाडंबर छत्र, चामर ढलकतां हो शोभा बहु परि ॥६८॥ दीसे देव कुमार इंद्र इंद्राणी हो ए आगळ किशुं। नर नारी निरखंत, रूपें न कोई जगजाण्यो इशुं ॥६९॥ आवे हरख अपार, राज आवासे आपण महेलमें । सात पिता नमी पाय, हरखे कुमरी जइ सामने नमें ॥७०॥ राणी । आशीष, सदा सोहागणी सुजस लहो सही । लखमी लील विलास, करम प्रसादे सघले करमसिहि ॥७॥
दूहाःअशोक कुंवर युवराजवी, काम भोग विलसंत । छह ऋतु बारे मासना, माणे मननी खंत ॥७२।। अपत्सरथी मानी अधिक, रोहिणी रंग रसेण । प्राणपियारी पदमिणी, (तप सपिया फल) तेण ॥७३॥ तिण अवसर आवे तिहां, सूधारे साधु, निग्रंथ । चरण करण तारण, तरण, मुक्ति साधता
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११२ संथ ।। ७४ ।। सांभळी राजा हरष वश, वंदे भाव विशुद्ध । वाणी अमीरस वरसता, मीठी साकर दूध ॥७॥ देशण सुणि वैरागियो, ए संसार असार । तन धन यौबन सजन सुख, तण जिम, तजे संसार । ॥७६॥ शुभ मुहूरत वेळा सखर, कुंवर ठवी निज राज । बीतशोक विकसित वदन, सारे आतम काज ॥७७। तप जप-संयम पालिने, छेदे करम विराम। मरण समाधि करी लहे, सद ग्रति शुभ परिणाम ॥७८॥
(ढाल ९ मी-देशी विंछीआनी) पाळे राज्य प्रतापशुं, शोक, अनोपम रायरे लाल । मन मोहिनी राणी रोहिणी, राजा रह्यो लय लायरे लाल ॥७९॥ प्राण पियारी रोहिणी, सदा सोहागिणी नाररे लाल । तन धन यौवन चातुरी , सफळ जे वश भरताररे लाल ॥मा०॥८०॥ रात दिवस रंगें रमे । नव नव करत विनोदरे लाल । एक जीव तनु जूजूवा, जाणे उमिया इश्वरगोदरे लाल
प्रा०॥८१॥ चंदन वन देखी करी, जिम नाग रहे लपटायरे लाल । गयंवर रेवा रति करे, जिम हंस. मानसर पायरे लाल ॥मा० ॥ ८२ ॥ कबही कहे हीआलियां कबहीक पासासाररे लाल । काम कुतूहल केळवे, हरखें वारोवाररे लाल ॥ प्रा० ॥८३॥ नरनारी राग हुवे सदा, ससनेही सघळी जातरे लाल । जोतां एण पटतरे । अवर सहु तिल मातरे लाल ॥ पा० ॥८४ ॥ इणिपरें सुख विलसे सदा, रोहिणी राणी भूपरे लाल । सानपुत्र जाया सती, एक एकथी अनूपरे लाल
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११३ ॥मा०॥४५॥ बेटी चार हूई भली, रूपें सुंदर जातरे लाल । लोकपाल पुत्र आठनो, लघुवये पाळे मातरे लाल ॥ प्रा० ॥ ॥८६॥ आठ) पुत्र) गुण आगला । चारे कन्या चंगरे लाल । रोहिणी उरसर हंसला, ए ए सुन्य प्रसंगरे लाल प्रा०॥८७॥ इण प्रस्तावे एकदा, राजा राणी पासरे लाल । सात भूमि मंदिर सही, सुख बेठा करे विलासरे लाल ॥मा०॥८८॥ खोळे लेई पुत्रने । राणी रंगे रमायरे लाल । कहे करमसिंह हवे कहुं, सांभळजो मन लायरे लाल ।। प्रा०॥८९॥
(दूहाः- ) राजाराणी बे जणा, देखे नगरी ख्याल । वलि विशेष राणीतिहां, निरखे नजर निहाळ ॥१०॥
( ढाल १० मी-हरिमां मन लागो-ए देशी. )
कोईक नारी तिण समे, धरती शोक अपाररे, पुत्र विरहे करी । रोवे रींखे आरडे, धीर न धरे लगाररे, मुत्र विरहे करी ॥९१॥ हियडो आहणे हाथरों, विच विच करे विलापरे। पु० खिण ऊठे धरती पडे, मूर्छ जिम विष सापरे ॥ पु० ॥ ९२ ॥ पुत्र तणा गुण संभरे, एस्तक कूटे, तेमरे । पु० हीमाले दाधी जिसी, सुंदर वेली जेमरे ॥ पु० ॥९३ ॥ पुत्र पखे केम जीविये, आलंबन आधाररे । पु० एकण जाया बाहिरो, शूनो सकळ संसाररे ॥ पु० ॥९४॥ न हुआंरो दुःख एक छे, हूवां होय अपाररे । पु० पण जाई परणी मरे । दुःख जाणे करताररे ॥ पु० ॥९५॥पाप चितारे आपणा,
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११४ थापण-मोषो कीधरे । पु० गाडी खाधी चुपशुं, कूडा आळज दीधरे ॥पु०॥९६ ॥ विष मार्या काम किया, शोक्यां दीध शरापरे । पु० चोरी विद्या बहु करी, लै बत् भाग्य आपरे ॥ पु० ॥९७॥ सरवर पाळ परीकरी, मोडी तरुवर डाळरे । पु० काचा फळ तोड्या घणा, के जळ घाली जाळरे ।। पु० ॥९८॥ पंजर पंखी घालिया, इंडां परहा नाखरे । पु० यंकरम कीधा घणा, दीधी कूडी शाखरे ॥४०॥९९।। दान देतां वाल्या सही, दे पछतावो कीधरे। पु०के अणगळजळ, वावर्या, साधु संतापण दीधरे ॥ पु० ॥२००॥ इण परें (पाप) चीतारती, इह भव परभव जेहरे । पु० आप कमाया भोगबु, किणरो दोष न तेहरे । पु०॥२०१॥ दुःखभर रोती विलविले। दोहिलो जगमांहि पेटरे। पु० विहडे जे लागी सही, अंगूठाथी थेटरे ॥ पु०॥२॥ जाणे जे वीती अछे, जाया जामणी वातरे । पु० कहे करमसिंह पूछज्यो, पुत्र, विरहणी मातरे ॥ पु० ॥३॥
( दूहाः -) चिंते, राणी रोहिणी, ए मार्टिक कुण जात । बीजा दीठा बहु परें, एह नवेरी भात !॥ ४ ॥ रोहिणी पूछे रंगशुं, मनमें धरी इल्लोल । कहो स्वामी ए केहवो. नाटिक तणो कल्लोल ? ॥५॥ राय कहे व्हाली प्रिये !, नवि कीजे अहंकार । धन यौवन सुत सुख करी, मनवांछित भ्रतार ॥ ६॥ एह गुमान न कीजिये, हांसारी नहि ठाम । रीस करी राजा
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को । मारी बोले बाम ॥७॥ स्वामि! न जाणुं ए सही, कांह घरो मम कोप । रह पात कहेवी सही, नबी राखषी गोष ८) राय कहे रोखे, अछे, पुत्र विरहणी मान । रोबो ए सीरवी किहां, १ ते शुज कहो विख्यात ॥९॥ देखाई राजा (कहे, बाळक लै बरनाथ । खोलाशें लइ नांखियो, राय करी निजहाथ ॥१०॥ लोक करे हाहा तिहां, रोहिणी नाणइ दुःख। जिगर देवता बाल ले, आणे ते सनमुख ॥११॥ सिंहासन
खाडियो, निराधाष ते देव । राय प्रमुख हरख्या सवे, पुन्य(जणा (फळ) हेव ॥१२॥ नरपति मनमा चितवे, राणी पुन्स
अपार । नवि जाणे दुखबातडी, इणि तपतपिया सार ॥१३॥ पण अबसर आव्या तिहां, साधु जेह मन भाय । आदर करिने सांभळो, दरिशण दुरित पुलाय ॥१४॥
(ढाल ११ मी-देशो पंथीडानी ) श्रीवासपज्य जिणेसर बारमारे, तेहतणा बे शिष्यसु जाणरे। रूपकुंभने सुवर्णकुंभ नामें भलारे, दीपे वरनाणे करी भाणरे ॥१५॥ साधुशिरोमणि आवि समोसर्यारे, नागारमा वनखंडमांहिरे । तंप जप काया कसवटणी करेरे, पारण आंबिल छठ उछांहिरे ॥ साधु० ॥ १६॥ गाम नगरपुर विधिशुं विचरतारे, पाळे चार, महावतचंगरे । भवियण सूधो मारग उपदीसेरे, टाळे मिथ्यामतिनो संगरे । सा० ॥१७॥ सत्याविश गुणे करी शोभतारे, पंचे आश्रवटाळे दररे । छ काय पाले पूरा प्रेमथुरे, साधे किरिया परिसह सूररे ॥सा०॥१८॥
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सुमतियें सुमता गुपति धरे सदारे, साधे सूधो यतिनो धर्मरे। पाप अढारे आठमद टाळतारे, जाणे एहना विरूआ कर्मरे ॥सा०॥१९॥ चार कषाय अने विकथा नहींरे, दुःकर नवविध ब्रह्म धरंतरे । चरण करण गुणे करी शोभतारे, धरे शीलंग अठदश मनखंतरे ॥सा०॥२०॥ भावन भावे बारे साधुजीरे, आरंभ परिग्रहनो परिहाररे। सावधप्राणांते बोले नहींरे, डोले नहीं सुरवचने लगाररे ॥ सा० ॥२१॥ दोष बेतालीश टाले भातनारे, वलि ल्ये अरसविरस आहाररे । इंद्री पंचे वश कीधी जेणेरे, गोपवि कच्छपनी परे साररे । सा० ॥ २२॥ पंचाचाररत्नत्रय साधतारे, मनमथगंजण महिमावंतरे । शांतदांत कृपाना सागरूरे, मंदरनी परे धीर धरंतरे ॥ सा० ॥२३॥ नाम लियंतां नवनिधि संपजेरे, दरसण आपद जाये दूररे । गुणगावंतारे गुणज होवे सहीरे, वाधे कीरती जगभरपूररे ॥ सा० ॥ २४ ॥ कुमतिकदाग्रह राखे तिल नहीरे, समता शमदम संयम साररे । धरता ध्यान सदा धवळं सहीरे, करता भवियणनो उपगाररे । सा० ॥ २५ ।। एहवा साधुगुणे करी दीपतारे,भावे वंदो वारंवाररे। करम पसाये मिळशे करमसिंहरे। तेहना नामथकी निस्ताररे ॥सा० ॥२६॥
( दूहाः- ) वनपालक आवी कहे, राजाने तिणवार । इण नगरें आव्या अछे, वनमांहे अणगार ॥२७॥ सांभळी राजा हरखीओ, धन्य दीह मुज आज । वनपाळक संतोषीने, मनरंगें
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महाराज ॥२८॥ सेवक तेडीने कहे, हय गय रथ परिवार । करो सजाइ बहुपरे, वंदन हरख अपार ॥२९॥ तहत्ति करी चरपुरुष ते, शीघ्र कीओ ते काम । राय प्रते कर जोडीने, कहे कीओ सह स्वाम ! ॥३०॥ राजाराणी भावधरी, पुत्री) पुत्रज साथ। मिली परिवारे परवर्या,आवी नमे नरनाथ ॥३१॥ त्रण प्रदक्षिणा दै करी, बांदे त्रिकरण शुद्ध । देशना वाणी वरसता, मीठी साकर दूध ॥३२॥
( ढाल १२ मी-मेघमने कांइ डमडोलेरे एदेशी. )
(इडी आंबा आंबलीरे, छरदाडिम द्राख ए रागमां.) । दशदृष्टांते दोहिलोजी, लहेतां नरभवसार । श्रुत सांभळण सदहणाजी, तप संयम धरण उदार-साधुजी बोले अमृतवाणी। भवियणने हित जाणी ॥ सा०॥३३॥ बार अंगजिणवर कह्याजी, (मोक्षेत्रणा दातार । भव भव भमतां दोहिलाजी, पामी जे निरधार ।। सा० ॥ ३४ ॥ जीवदया जिनधर्मनोजी, (मूळे संदार) जाण । तिणविण कष्टक्रिया करेजी, ते फळ अलप वखाण ।। सा०॥३५॥ दनि शील तप भावनाजी, शिवपुरीमार्ग ए चार । तद भवभवने अंतरेजी, शिवसुख पामे सार सा०॥ ३६॥ काया माया कारमीजी, संध्या राग समाण । स्वारथy सिहको सगुजी, बोले जिनवरवाण ॥ सा० ॥३७॥ पाता पिता 'जाया सहीजी, पुत्र बांधव (सहोदर) संभाल । मित्र सयण,
आवी मिल्याजी, पंखी जिम तरुडाल ॥सा०॥३८॥ विषय मुखे सरसव समाजी, दुःखतो मेरु सरीख । दुरगति पामे
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जेहथीजी, जाणी पाळो शीख ॥ सा० ॥ ३९ ॥ सात व्यसम अति पाडुआजी, तर घरमेना चोर । निशि - भोजन अभशनाजी, अनंतकाय दुःख घोर ॥ सा० ॥ ४० ॥ इम जाणी बूझो सहीजी, एह अधिर संसार । परभव जातां जीवनेजी, संबल लेजो सार ॥ सा० ॥ ४१ ॥ श्रावना व्रत आदरीजी, कीजे तास जन्न । दोष रहितनिग्रंथनेजी, पडिलाभे ते धन्न ॥ सा० ॥ ४२ ॥ महाव्रत धरी मुगतें गयाजी, आवागमन निबार । तृण जिम सकळ तजी करीजी, पाम्या भवनो पार ॥ सा० ॥ ४३ ॥ इंद्रिय पंचतणे ब्रशेजी, पंचप्रमादसिशेष । निद्रा विकथा जीवनेजी, आपे दुःख अलेष || सा० ॥ ४४ ॥ आयु अविर सह जीवनेजी, दे नवि संधाय । म्हाना मोटा "रामप्रेजी, सदा सुखे दाय ॥ सा० ॥ ४५ ॥ रायराणी देश सुणीजी, पामे हरष विशाळ । कर्मसिंह कहे ते सहीजी, वर्षे मंगलशास्त्र || सा० ।। ४६ ।।
( बूहा:- )
अशोकराय उत्सुक थइ, प्रश्न करे करजोड | भांखो भगवन ! भाव करि, मुज मन वांछित कोड ॥ ४७ ॥ रोहिणी (राणी तप किशों ?, कीधें भाखो तेह । सुपनंतर पण इष जनम, दुःख न जाणे जेह ||४८ ॥ स्नेह घणो वलि माहरो, एक जीव तनु दोय । राणी ऊपर ते किशुं ? सांभळतां सुख होय || ४९ ॥ सातपुत्र सुगुणा सही, लोकपाल अम्र जेह । गोखथकी ले नाखियो, देव संवाह्यो तेह ॥ ५० ॥ चारे पुत्री
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अति चतुर, सुंदर सघळा थोक । किण करमे करी पामिया, संप्रतिये इह लोक ॥५१॥ (ढाल १३ मी-देशी मनहरनी अथवा बलीहारी तुम नामनी.)
पूछयानंतर प्रेमशुं, रूपकुंभ कहे एम नरवर । रोहिणी राणी परभवें, सुण तप) कीधो तेम नरवर॥५२॥ सांभळ भिकाणी तणा, कर्मतणाः फल जेह न० । भोगवणा भव भव सही, आप कमाया तेह ॥न० ॥ सां० ॥ ५३॥ एहज चंपापुरी भली, धणकण कंचण रिद्ध न० । धूनमित्र शेठ वसे तीहां, सघळी वाते समृद्ध ।। न० ॥ सां० ॥५४॥ धनमित्रा तस रोहनी, चाले कुळ आचार न० । पति भगति. गुणें आगली, मनमोहे भरतार ॥ न० ॥ सां० ॥५५॥ अनुक्रमे सुख विलसें सदा, मनमानीता भोग न० । धनमित्रा उरें धी हुई, जायां हूवो शोग ॥न० ॥ सां० ॥ ५६ ॥ रूप कुरूष दोभागिणी, डीले टुर्गप्रवास न० । करीने सही, को नवि आवे पास ॥ न० ॥ सां० ॥ ५७॥ अहिगो मड तिण सारखी, सनिष्टगंध, अपार न० । देखी सहुको इम कहे, दुःख देखे संसार ॥न०॥ सा० ॥ ५८ ॥ सौवन वय पहोती जिशे, मनमें चिंते बाप न० । पुत्री परणाव्या विना, लागे बहलो पाप ॥ न० ॥ सा० ॥ ५९ । इम जाणी बहु विनवे, को नवि माने वात न० । सहुको अनिष्ट गणे सही, देखी डीलनी धात ॥ न०॥ सा० ॥६०॥ कोडी दान घे रंकने, बोहि नर परणे कोय न० । एम उपाय करे घणा, वांछित सिद्धि न
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होय ।। न० ॥ सा० ॥६१ ॥ इण अवसर तिण नगरमें, सारे चोर सरोष न० । बहु धन देई शेठजी, आणे घर वर सोस ") न० । सा० ॥ ६२॥ श्रेषण घण संतोकिने, भोजन वस्त्र सनान, न० । विंदतणी परे करे सही, परणायो बहु मान ॥ न० ॥ सा० ।। ६३ ।। दुर्गधा गंधे करी, चिंते मनमें चोर । न० जस पलास जीव नी, रहेतां दुःख अघोर ॥न०॥सा०॥६४॥ इम जाणी मूकी गयो, रातें अवसर पाम न० । कर्मतणी गति वांकडी, शेठ विचारे ताम ॥ न० ॥ स०॥६५॥ सहुको दुगंधा कहे, राम तिसो परिणाम न० । भोगवणा कहे करमसिंह, आप कमाया काम ॥ न०॥सा० ॥६६॥
( दूहाः -) "शेठ कहे मुंण पुझिा , कठिन करम तुज जाण । समजी मन संतोष कर, धरम चिंत चित्त आण ॥६॥ सुख संसारी इण भवें, दीसे छे अंतराय । दान शील तप भाव धरी, काया निर्मळ थाय ॥६८॥ दुर्गधा गंधे करी, दान न झाले कोय । मनमें चिंते बापडी, लणीजे वायो सोय ॥६९॥ तिण अवसर आव्या तिहां, (ज्ञानी सूधा साध । तप जप संयम खप करे, निराखाध निरुप्राध ॥७०॥ दुगंधां वंदी करी, पूछे दुःख धरी भाय । किण करमे करी साधुजी, एह अवस्था थाय ॥७१॥ सांभळ ! ज्ञानी गुरु कहे, सूखला कृत कर्म । राव रंक छटे नहीं, भोगवणा ए मर्म ॥७२॥ सर्वगाथा ॥ २७३ ॥
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( ढाल १४ मा - देशी जीहोजीनी- राग मल्हार. >
जिहो जंबूद्वीप सोहामणो, जिहो भरतक्षेत्रमझार । जिहो गिरनार पर्वत पावती, जिहो नगर अनोपम सार । भविक जन, परतख पेखो पाए । जिहो इह भव प्रभव दुःख सहे, जिहो सिधूमतीनी परे आप || भ० ॥ ७३ ॥ जिहो पृथिवीपाळ राजा तिहां, जिहो द्राता भूकता शुरू । जिहो तेज प्रतापे आकरो, जिहो दुस्मन नाठा दूर ॥ भ० ॥ प० ॥ ७४ ॥ जिहो सुखे राजपाले तिहां, जिहो जिनधरमी जशवंत । जिहो अरिहंत साधु दया भली, जिहोणे तत्त्व जाणंत ॥ भ० ॥ ७५ ॥ जिहो सिद्धमति राणी तेहने, जिहो जीवनप्राण समान । जिहो सुखे रहेतां एकणसमे, जिहाँ चिंते मन राजान ॥ भ० || ७६ ॥ जिहो आज अपूरवछे सही, जिहो परिमल वनही वसंत । जिहो वनक्रीडा जो कीजिये, जिहो तो तनु मन विकसंत ॥ भ० ॥ ७७ ॥ जिहो राजाराणी हरखशुं, जिहो ये गय रथ परिवार । जिहो साथे सामग्री सहू, जिहो क्रीडा विविधप्रकार ॥ भ० ॥ ७८ ॥ जिहो तिण समे गुणसामर युती, जिहो जाय नगरमझार । जिहो राजां देखी रंगभुं, जिहो भावना भावे सार ॥ भ० ॥ ७९ ॥ जिहो धन्य दीह मुज आजनो, जिहो जो पडिलाभुं एह । जिहो इहांथी इम किम जाइजे, जिहो राणी मुकुं गेह ॥ भ० ॥ ८० ॥ जिहो प्राण पीयारी पदमिणी, जिहो सांभळी वयण विशेष । जिहो महलें पधारो मन खुसी, जिहो लाभ अनंतो देष ॥ भ० ॥ ८१ ॥
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जिहो साधुभणी पडिलाभिजो, जिहो निरदूषण आहार । जिहो साधु सामग्री दोहिली, जिहो नरभवनो ए सार ॥ भ० ॥८२॥ जिहो (मनविण राणी घर गई, जिहो धरती मन विषवाद । जिहो रंग भंग इणि मुज कियो, जिहो इस जाणी उनमाद ॥ भ० ॥८३॥ जिहो प्रछन्न पणे इम जाणीने, जिहो कड़ओ तुंबो आणि । जिहो पाचन करिने म्हेलियो, जिहो जो आवे इण ठाणि ॥ भ० ॥८४॥ जिहो तो आपु ए साधुने, जिहोचिंतवी रहे निःशंक। जिहो जा गति सामति ऊपजे, जिहो राज न लाभे रंक ॥ भ० ॥ ८५ ॥ जिहो सापखमणने पारणे, जिहो आयो मनिकर जाम । जिहों द्वेष वशे जाणी तिहां, जिहो तुंबो दीधो दान । भ० ॥ ८६ ॥ जिहो कडुवो तूंबो जाणीने, जिहो पातिक वधुतो देख । जिहो साधु आहार करे तिहां, जहो समय मनमा लेख ॥भ० ।। ८७॥ जिहो काळवशे परभव लहे, जिहो शुभध्याने श्रीसाध । जिहो शमदम करि संलेखणा, जिहो सुरवी पदवी लाध ।। भ०॥८८॥ जिहो इम जाणी वळी जे सही, जिहो अरस विरस अन्नपान । जिहो कहे करमसिंह ते दुःख लहे, जिहो त्रिय सिद्धमतिय समान ॥ भ० ॥८९॥
( दूहाः- ) हवे राजा घर आवीने, पूछे साधु वृत्तांत । आयाथा जंगम जती, विहरण इहां महंन ॥९०॥ करजोडी राणी कहे, पुन्यपणे परताप । आया आपण अंगणे, मनमां धरतां जाप
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१२३ ॥९१॥ हरष धरी में हाय करी, दीयो दान जगसार । तिण अपसर भूपति भणी, सुरुष एक निरधार ॥९२॥ आवी गदगद स्वर करी, कहेला लाग्यो वात । कडु तूंबा आहारथी, साधुतणो इओ घात ॥९॥राजा मन चिंता थई, कुण अपराधी एह । दुष्ट दुरातम जाणीने, तूंबो दीघो तेह ॥९४॥ प्राप छिपायो। नवि रहे, बलि करी देखो कोय । इह भव परभव दुख लहे, सिद्धमतिनी परे सोय॥९॥ खरी खबर राजा लही,राणी केंरां काम । धममियो धूमाळ जिम, राते नयणे ताम ॥१६॥
आखि कडावे महिपति, करता भुगता जाण । तुरत न मारे। मणीने, इह परिभवदुःख खाण ।९७॥ सात दिवसमे तेहने) सुधादिक शोल जोर । आरतरौढ़े मरी करी, पामे दुःख अघोर.
( ढाल १५-प्रभु पदमप्रभ ! चीनबुं-एदेशी.)
हवे तिहाथी नरभव तजी, सिद्धमतिनो जीव । छठी सरके ऊपनो, तिहां छे दुःख अतीव ॥९९।। करम किया ते भोगधे, मन म कर अंदोह । नरभव हार्यो जिण सही, परवंच्या द्रोह ।। कर० ॥३००॥ आश्रवपंच समाचरे, पंचेद्रीय घात। आरंभ परिग्रह बहु करी, लहे नरक विख्यात ॥कर०॥१॥ बाळ त्रिया ऋषि णयनी, जिनवरनी वाण । चार पाप मोटा वह्या, ऋषि अनंत वखाण ॥ कर० ।। ३०२ ॥ अवर पाफ बहू छे घणा, ऋषिघात विशेष । सिद्धिमति नागसिरी कीयो, तेहना फळ देख ।। कर० ॥३॥ नारय छट्टी जिन कहे, बहु वेदन सार। कभी करीत शूलियां, वैतरणी बार ॥ कर
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१२४ ॥४॥ तप्त पूतळी तरु सामळी, असिवणने कुहाड । कातरणी करि छेद्रिये, ग्रही मांडोमांड ॥ कर० ॥ ५॥ सीन ताप नरलोकथी, अनंतगुणेह । पन्नर भेद वेदन कही, तिहां सहे अछेह ॥ कर० ॥ ६॥ उत्कृष्टो आऊ तिहां, सागर बावीश । भोगवीने तिहाथी चवे, सिद्धमतिनो जीव । कर० ॥ ७ ॥ तिरिय योनि पामी करी, वलि वलि तिहां जाय । साते नरके इम भमे, कृत करम पसाय ।। कर० ॥८॥ थावर विकलपणो लहे, इम काळ असंख । दुर्गति दुःख देखे सहू, सुख. नहिय निमिष ॥ कर० ॥ ९॥ सापणि उंटडी कूकडी, श्यरणी शियाली । गिरोली जलोका रुंदरी, रासभि गणिय चंडालि ॥कर०॥१०॥गाइ हूइ श्रावक घरे, नवकार प्रभाव । सुणीने मन संतोषियो, काळने प्रस्ताव ॥ कर०॥११॥ आवी शेठ घरे हूई, पुत्री इंण संच । दुर्गधा नामे सही, करमतणे प्रपंच ॥कर० ॥१२। साधुतणी वाणीसुणी, फळ कर्म विपाक । दुर्गधा जाणे सही, अकडोडी आक ॥ कर० ॥ १३ ॥ इणपरें आपो निंदती, दुर्गधा नार । कर्मतणां फळ सह कहे, कर्मसिंह संसार ॥क०॥१४
दूहाःकरमनिकाचित थाकते, थोडे तिण प्रस्ताव । दुरगंधानारी भणी, मन आवे शुद्ध भाव ॥१८॥ इहापो करतां थकां, जातिसमरणे ज्ञान । पूरवभव देखे सहू, ज्ञानी वचन समान ॥१६।। दुरगंधा करजोडीने, पूछे मुनिवर एम । ए दुःखथी किम
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छूटिये, भाखो भगवन तेम ॥१७॥ गुरु कहे दुर्गधमेटणो, परभव थाये सुख । रोहिणी व्रत कर भावधर, जिम जाए सहु दुःख ॥१८॥ दाखो पूज्य प्रसाद करी, रोहिणीवन जिम होय । आरतिभंजन मुखकरण, विधि करी साधु सोय ॥१९॥
( ढाल १६ मी-देशी हंसलानी. ) विधि सांभळ सुहगुरु कहे, सात वरष सातमासनारे । श्रीवासुपूज्य प्रजा की, मनमां धरीअ उल्हासनारे ॥२०॥ रोहिणी तप विधि सांभळो, त्टे करम असंखनारे। ध्यान भलो धरतां थकां, बीजी कोय न कंखनारे ॥रोहि० ॥ २१ । दिन शुद्ध रोहिणी जोइने, चोथ-भगत उपवासनारे । उविहार करतां थकां, इम सुख होवे आसनारे ॥रो० ॥ २२ ॥ इण तपथी तुजने सही, ए दुःख इण भव जायनारे । परभव मन गमता सदा, सघळा सुख भल थायनारे॥ रो० ॥२३॥ जनम आवते भरतमें, प्राणपीयारी नारनारे । अशोक नाम राजानने, थाइश रोहिणी नामनारे ॥ रो० ॥२४॥ सुख विलसी संसारना, वासपूज्य जिणग्रयनारे । सइ हथ चारित आदरी, तूं तिहांथी शिव, जायनारे ॥रो० ॥ २५॥ तप पूरे हूये सही, वासुपूज्यजिणराजनारे । बिंब भरावे रयणमें, रोहिणी. रिख दिन वाजनारे॥रो०॥ २६।। अशोक तले थापि करी, पहेरावी आभरणनारे। हार्टक रतन जडित भला, जेह अमोलक जाणनारे ॥रो० ॥२७॥ अंग विलेपन कीजिये, कुंकुम मृगमद मेलनारे । थवथूई जिन आगळ करे, सूधी भावे भावनारे रो०॥२८॥
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साहमीवत्सल साधुने, निरद्रषण आहारनारे । दया दान दे दीनने, साते क्षेत्रे जाणनारे ॥रो० ॥२९॥ एम ए सप फरतां सही, दुःख नाशी सवि दूरनारे । सुगंधराजतणी परे, इस हीज भवमुख पूरनारे । रो० ॥ ३० ॥ दुर्गधा पूछे कहो, सुमंधराय अधिकारनारे । किण दुःख किम सुख प्रामियो, मुणवा हरख अपारनारे । रो० ॥ ३१ ॥ ए.तप इण विधि भाखियो, सोळमी ढाल रसालनारे । हंसला देशी करमसिंह, कहेतां मंगळ मालनारे ॥रो० ॥३२॥
(दूहाः-) साधु कहे सुण वातडी, सुगंधग्रय धरि भाव । तेय कहुं तुज आगले, हूई जिण प्रस्ताव ॥३३॥
( ढाल १७ मी-चरणालो चामुंडा रणचडे-एदेशी. )
इणहीज जंबूद्वीपमें, दक्षिण भरत मझाररे । सिंहपुर नगर सोहामणो, इंद्रपुरी जिम साररे ॥३४॥ सांभळ कर्म फळे जिशो, सुखदुःख करमदातारोरें । अहनिशि जेहवा जे करे, तेह फळे विस्तारोरे ॥सां॥३५॥ सिंहसेन राजा तिहां, कनकप्रभां पटराणीरे । रूपकला शोभे सती, बोले अमृत वाणीरे ॥ सां० ॥ ३६॥ रतिवंती राणी तणे, उदरे वस्यो सुत जामरे । राजाराणी हरखिया, जनम्ये दुःखनो ठामरे ॥सां०॥३७।। महादुर्गधपणे करी, नावे पास कोयरे । राजाराणी चिंतवें, ए दुःख इणने होयरे॥सां०॥३८॥ अनुक्रमें तिण पुर आविया, गुणअनंत भगवंतरे। सुखीमा सुत
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साहीलो, नामे पातिक जंतरे ॥ सां० ॥३९॥ श्रीपदमश्रा खामीने, पूछे देकर जोडीरे । दुर्गध कुंवर भणी कहे, कर्मतणी ए खोडीरे ॥सां०॥४०॥ इण दुखथी किम नीसरं, किण करमे करि एहोरे । केवळज्ञान दिवाकरू, शंसय मंजो तेहोरे । सां॥४१॥ परमेश्वर पूछया कहे, सांभळ राजकुमारोरे । आप कमाया भोगवे, पाप करे अविचारोरे ॥ सां ॥ ४२ ॥ बार जोयण नागोरथी, पर्वतनील सुठाणरे । तिण ऊपरि अतिसुंदरू, एक शिला तिहां जाणरे ॥ सां० ॥४३॥ मासखमण पारण करे, ते शिला ऊपर आवेरे । ध्यान धरे बेठा तिहां, ते रिषिने परभावेरे ॥ सां० ॥४४॥
आहेडी) नीष्फळ सदा, जाए दुःख बहु देखीरे । इम करतां बहु दिन हूवा, रिषि देखी हुवो द्वेषीरे ॥ सां० ॥४५॥ मासखमण पारण दिने, नगरमांहे पवधारेरे । पामी अवसर पापीये, शिल तले आग संचारेरे ॥सां०॥४३॥ बेठा मुनि तिहां आवीने, ध्यांन साधवा काजरे । तप्तशिला परिसह सहे, मील्या करम क्षय साजरे ॥ सां० ॥ ४७॥ केवळ पामी सिद्धि गया, सासय सुख अपारोरे । करमसिंह कर जोडीने, ते मुनिने करे जुह्यरोरे । सां० ॥४८॥ .
( दृहाः - ) ते आहेडी तिण भवे, रिषि इत्या करि जाण । कृष्ठरोग दुःख बहु सहे, नरभव कीधी हाण ॥४९॥ अहनिशि दुःख धरतो रहे, अट्ट दुइट्ट वसेण । कृत कर्मकीधा भोगवे, निजनिज
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१२८ कर्म वसेण ।। ५० ॥ मरण लहे. बहु दुःख सही, पामे दुरगति वास । परभव जातां जीवने, पुन्य पाप हुए पास ॥ १॥ ( ढाल १८ मी-मुनीसर जय जय गुणभंडार-एदेशी. ) __ हवे पापी तिहांथी मरीजी, पारधियानो जीव । नरक सातमी ऊपनोजी, दुःखंधरि करतो रीव । जिनेसर. बोले एहवी वाणी । दुर्गध कुमर सुणे सहजी, धरतो अमीय समाणी ॥जिने ॥५२॥ दुःखनो पार न पामियेजी, दुःसह जेय सुरंग । सिद्धमतिनी परे भोगवेजी, तिहांथी चविय दुःखंग ॥ जि० ॥ ५३ ॥ तियेचादिक गति सहुजी, पामी वार अनेक । दरिद्र हवो गोवाळियोजी, भवनो करतो छेक ॥ जि० ॥५४ ॥ नागोरना श्रावक कनेजी, सीने श्री नवकार । अन्यदिवस दावानळेजी, बळतां मंत्र उचार ॥ जि० ॥ ५५ ॥ महामंत्र महिमा करीजी, इणपुरे राजकुमार । कर्मनिकाचित शकतेजी, एह अवस्था सार ॥ जि० ॥५६॥ सांभळनां दुरगंधनेजी, जातिसमरण होय । भव दीठा पोतें सहूजी, श्रीजिनवाणी जोय ॥ जि० ॥ ५७ ॥ बीहनो भय देखी करीजी, कहे सभु साहस धीर । ए भवदुःखना अंतनेजी, दाखो सुरगिरिधीर ॥ जि० ॥ ५८ ॥ भगवंत कहे भव भंजणोजी, रोहिणी व्रत आराधि । सात वरस सात मासनोजी,
भावे करी ते साधि ॥जि०॥९॥ श्रीजिनवाणी सांभ: लीजी, हियडे हर्ष, अपार । विधिकरी तप आराधियोजी, हओ शुगंध कुमार।। जि० ॥६० ॥ ए व्रत महिमा मोटकीजी,
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जिनवाणिश्री जाणि । कर्मसिंह भावे करीजी, हियडामाथि भाणि ॥ जि० ॥ ६१ ॥
( दहा:-) तिम तुंही का एह बत, दुःख जाशी सहू डील । विधिपूर्वक आराधतां, इहव परभवलील ॥६२॥ साधुतणी वाणी मुणी, धरती हर्ष अपार । दुर्गधा रोहिणी वरत, भावे साधे सारः॥ ६३ ॥ सुंगंधपणो पामी करी, अंतकाळ मन शुद्ध काल करी पामे भली, देव, भवे बहु रिद ॥६४॥ तिहाथी नवी चंपापुरी, मघवा नाम नरिंद । लखमी राणी तेहनी, खि वसी-आणंद ॥६५॥ रूप पात्र भर यौवने, रोहिणी नामे सार । परणी राय अशोक ते, पन्यतणे परकार ॥६६॥ दुःख बात जाणे नहीं, रोहिणीवत परभाव । तपतपियाना फल सह, जाणे सकळ संसार ॥ ६७ ॥ वळि पूछयु राजेश तें, राणी ऊपर नेह । रूपकुंभ कहे सांभळो, कहिये वातज एह॥६८
( ढाल १९ मी-देशी अलबेलानी. ) सांभळी बोले साधुजीरे लाल, मीति तणो परकार, मुण राजारे । रोहिणी राणी-ऊपरेरे लाल, कहिये तेह विचार ।मु० ॥६९॥ पूरव ध्वनी प्रीतडीरे लाल, होइ गइ जिणवातमु । तेह पर सांभळी इहां कणेरे लाल, जिम होवे सुख सात ॥१०॥ ॥पू० ॥७० ॥ सिंहसेन राजा तिहां कणेरे लाल, देखि अथिर संसार मु० । राज्य सुगंध समर्पियोरे लाल, आप लियो व्रत भार मु० पू० ॥७१।। सुगंधराय श्रावकतणारेलाल,
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१३० पाळे खत असिधार सु० । वैमानिक सुर सुख लहेरे लाल, तिहाथी चत्रि अवतार सु० पू० ॥७२॥ जंबद्वीप विदेहमेरे छाल, पुष्कळ, विजय नाम सु० । पुंडी किणि नगरी भलीरे लाल, लच्छि रहे तिण ठाम सु० पू० ॥ ७३ ॥ विमलकीर्ति वड राजवीरे लाल, विलसे पुण्य पंडूर सु० । अर्ककीरत मृत जनमथीरे लाल, दिन दिन वधते नूर मु० पू० ॥७४ ॥ राजठवी निज मुतभणीरे लाल, विमळ विमळ परिणाम मु० । तप जप संयम साधिनेरे लाल, जाए सद्गति ठाम सु० पू० ॥ ७५ ॥ सुगंधजीवराजा तिहारे लाल, अर्ककीरत मनोहार सु० । चक्रवर्ति पद, भोगवेरे लाल, ष्ट खंड पृथिवी सार । सू० ।। पू० ॥ ७६ ॥ रयण निधान अंतेउरीरे लाल, छांडे सकळ सराग सु० । जितशत्रु साधु संयोगथीरे लाल, साधे संयम माग । सु० ॥ पू० ॥ ७७ ।। दुष्कर तप किरिया करीरे लाल, लाख चोराशी पूच्च मुं० । आयुपाली परगडोरे लाल, देवतणो लहे भव्य ।। सु०॥पू० ॥ ७८ ॥ बारम स्वर्गतणो धणीरे लाल, इंद्र अच्युत अभिधान मु० । अयर बावीशनो आउखोरे लाल, पाळे पूरे मान ।मु०॥७९॥ चवि अनुक्रमे इहा ऊपनोरे लाल, अशोक नाम राजान सु० । रोहिणी राणो वालहोरे लाल, नेह मुणो सावधान ॥ सु० ॥ पू० ॥ ८० ॥ तप बिहुं एकमना कियोरे लाल, व्रत पुण एकूम सार सु०। तिण कारण इहांकण सदारे लाल, परतख प्रीति अपार ।। सु० पू० ।।८१॥
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दहा:
सांभळी साधु तणे मुखेरे लाल, परघळ वाधी प्रीत सु० । कहे करमसिंह इम सदारे लाल, नेह हुवे इण रीत ॥ सु० ॥पू० ॥ ८२॥
. ... . . -दूहा:
राय कहे. रिषिराजने, शंसय भंजनहार । ज्ञानी गुरु मिलियां पछी, कीजे किशो विचार ॥ ८३ ॥ वार वार कहेतां थकां, मनमां आवे लाज। मुज मन पूछण अळजयो, भूख्यां भोजन साज ॥ ८४ ॥ शोभागी विकसित वदन, सुंदर पुत्र सुजाण । किशी कमाइ करि हुवा ? वांचो एह चखाण ।। ८५॥ (ढाल. २०. मी ललनानी । श्रीसुपार्श्वजिन बंदिये, एदेशी.)
सांभळी बोले साधुजी, कुमरां केरी वात ललनां । ह भव परभव करमथी, शमे शात अशात ललनां ॥ ८६ ॥ अछत अपुन्ये करी हुवे, जिणरा जेवा कर्म ललनां । मुख दुःख भुगता जीवनु, भव भव धर्म अधर्म ललनां ॥ ॥८७॥ मथुरा नयरीमहि वसे, अग्निशम एक विन ललना। जनम थकी घरमां हुवो, लखमी जीवण खीम ललनां । अ० ॥८८ ॥ नारी सुंदर तेहने, बेहुंना करम करून ललनां । धांन धीणो अवरां घरां, बीजं सकल सनूर ललनां ॥ अ० (॥ ८९ ॥ धन गुण रूप वसे सदा, चतुराई पण चंग ललनां । आदर आसन बेसणो, धन विण ईयारो भंग ललनां ॥ १०॥ २०॥स्थ सदा समरथ कहे, पुरुषाभरण प्रधान ललनां ।
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देश विदेश अन्य आपणा, गरथ राज सनमान ललन ॥ अ० ॥ ९१ ॥ ऊंच नीच न्हाना मोटा, कुळ अकुलीन सभाउ चलनां । निरधन पुरुषज बोलियो, जाणे वाग्यो घाउ ललनां ॥ अ० ॥ ९२ ॥ मनमांहे ऊणो रहे, निसनेही निस्तेज ललना | वन विण आश किशी फळे, संसारी बहुजेज ललनां ॥ अ० ॥ ९३ ॥ पाप तथा परतापथी, शोचे अहनिशि दीण ललनां । जाणे ब्राह्मण ब्राह्मणी, के वळी धनरा हीण ललनां ॥ अ० ॥ ९४ ॥ बेटा जाया ब्राह्मणी, सात सनूरो प्रेम ललनां । पुन्य विना दीसे जिशा, दव दाधो वन जेम ललनां ॥ अ० ॥ ९५ ॥ सेवे रीं आरडे, खावा पीवा काज ललनां । रांक राव वातां करे, मिळियां सहु शिरताज ललनां ॥ अ० ॥ ॥ ९६ ॥ योवन वय पहुता जिशे, वेल तिशा फळ जाण aati | दालिद्र भांत बीबे पडी, सरखा सरखी वाण ललनां ॥ अ० ॥ ९७ ॥ सात मिळी शोचां करे, लखमी खाटण जांह ललनां । भीख जिणारे भूखशी, धरता मनह उछाह ललनां ॥ अ० ॥ ९८ ॥ चाले साते एकठा, मारग मोटा मांड ललनां । प्रकट नाम पुर पाडली, लोक वसे धन जाड ललनां ॥ अ० ॥ ९९ ।। ततखिण आवी ते तिहां, धरता मन उल्हास ललनां । करमसिंह करमें करी, विलसे लील विलास ललनां ॥
अ० ।। ४०० ।।
( दूहा:- )
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नगर समीपे आविया, बाग अनोपम देखि | जाए मांद्रे
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... १३३ ते सहु, सुंदर सहजे पेखि ॥ १॥ (दाल २१ मी-तिवरी पासे पडलो गाम ए-देशी)
तिण वाडी सांहे वृक्ष अनोप, मुरतरुनी परे पामे ओप । अशोक आंबा जांबू तिहां सोहे, जाइ मचकुंद मालति मन मोहे ॥२॥ मोगर केतकी चंपा डाळ, परिमळ महके वन सुविशाळ । वड पीपर ने द्राख बिजोरा, दाडिम निंबू जाण घणेरा ।। ३ ।। जंबीरी शेलडी सदाफळ, नागरवेल सोपारी श्रीफळ । नारंगी खजूरी रायण, ताल तमाल केळ नींब बकायण ॥ ४ ॥ छह ऋतु तिण वन कीधो वासो, मुरवर देखो धरे तमासो । महेल अनूपम बाग विचाळ,. मन मोहे देखी चित्रशाळ ।। ५ ।। विण वन राजकुमर विलसंता, देखे ब्राह्मण बाल रमंता । शिवशर्म विम अछे वइ,भाई, वात विचार करे तिहां जाई ॥६॥ राजकुमर देखी रंग रमता, सइं हथ आप बणाया करता । काने कुंडळ हियडे हार, मोड अनूपम सवि शिणगार ॥ ७॥ वस्त्र शोभिता दक्षणी चीर, कथिपादिक पहिर शरीर । कटि मेखळ मुद्रा आंगळीयां, हीरा जडित बहेरखा रळियां ॥ ८॥ आगे ऊभा सेवक कोड, अहरनिशि सेव करे कर जोड । मनवंछित मुख पूरे सघळा, खमा खम्रा करे भरतां पगला ॥९॥ एहवा देखी विप्र विचारे, कांइ सरीखा न किया करतारें । वड बांधव कहे आप कमाइ, कहता किणने न दिये आइ ॥१०॥ मन वंछित मुख विलसे एह, आंपे सुपन न जाणां तेह । छहऋतु
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१३.
बारे मास सरीखा, फिरता घर घर नांगां भिख्या ॥११॥ तो पण प्रेट भरावे न चले, फाटा तूटा कपडा न मिले । देव न दीजे काइ दोष, आपकमाइ फळ शो ? शोस ॥१२॥ पुन्य विहुणा दलिद्री सदाई, मांहो मांहे विचारे भाई । पुन्य खखे नहीं शोभा कांई, कर्मसिंह कहे कर्म सखाई ॥ १३ ॥
-दहा:इण अनुक्रमें एकण समे, मुनिवर महिमावंत । ब्राह्मण वांदे भाव धरी, सात्तेई गुणवंत ॥ १४॥ श्री जिनवर भाषित Jधर्म, श्रमणोपाशक साध । प्रांणी भव भमतां थकां, ए घणो दुहेलो लाध ।। १८ ॥ ए.दोय धर्म विधे करी, जांणी अथीर. संसार । मुर मुख शिव मुख पामिये, दुस्तर भवनो पार ॥ १६ ॥ देशन मुणी संयम लिये, पाळे शुद्धाचार। सुमते मुमता गुपति धर, दुःकर व्रत असि धार ॥ १७।। अंत समय संलेणेना, मरण समाधे साध । शुक्र सातमे देव सुख, इंद्र समाणां लाध ॥ १८॥ सत्तर अयर आयु तिहां, पूरी नभन होय । सातेइ सौभाग्य निधि; गुणपालादिक सोय ।। १९ ॥ ए तुज अंगज दीपता, इण पुन्ये अभिराम । अहम मुतनो (सांभळो, पूरव भव शुभ काम ॥२०॥
( दाल २२ मी-हमिरियानी देशी. कोपाळ सुत आठम्रो, सुण तमु पुण्यप्रकाश नरेसर । | गोखथी लइने नाखियो, देवग्रहे उल्हास नरेसर ॥२१॥ पन्यतणां फळ एहवा, सांभळि कीजे सोय न० । सहभत्र
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परभव मुखभणी, अनुक्रमें शिव मुख होय न०॥पुन्य०॥२२॥ जंबद्वीप सोहामणो, लाख योजन परीमाण न० । विस्खंभ अने आयाम छे, केवळीवाणी वखाण न०॥०॥२३॥ सात क्षेत्र तस विच भला, करम अकरमी भूम न० । दीन चार जाणो सदा, दीपे जिहां सरम न०॥पु०॥२४॥ मेरुथक्री दक्षिण ण्या, भरहकास अभिराम न० । करमभूमिका ते कही, गंगा सिधुनो ठाम न०॥पु०॥२५॥ सत पण छावीश जोयणं, छकळा मान सभाव । न० विच वेसढगिरि सेडो, कांतिरूपारो साव न०॥पु०॥२६॥ पचीश पचाश उंच पहळमा, कीयो सरत विभाग न० । तसं पर विद्याधर रहे, नगर निरखवा काग न०॥ पु० ॥२७॥ साठ पचाश सोहामणा, उत्तर दक्षिण, श्रेण न० । विद्याधर तिहाँकण वसे, भूलक इण ब्रामेण न०॥पु० ॥२८॥ चारणश्रमण दीदारथी, पामे समकितसार न० । नंदीश्वरवरे दीप्रता, शाश्वत चैत्य उदार न०॥पु०॥२९॥ सासय पडिमा जिनतणी, ऋषभ चंद्रानन जेह न० । वारिषेण भर्द्धमाननी, राम शाश्वता तेह न०॥पु०॥३०॥ शुलपूज्य दिनप्रति करे, सत्तर भेद सुविशाळ न० । मनशुद्ध भावना भावतो, जे फळ तेह संभाळ न०॥पु०॥३१॥ सो उपवास पमज्जीया, सहस्स बिलेवण जाण न० लाख फूल पूजा थकी, नृत्य अनंत वखाण न०॥पु०॥३२॥ श्रीजिनवर पूजातणा, फूळ जिनवरनी भाख न० । इण पूज्ये जिण पूजिया, रायपसेणी साख न०॥पु०॥३३॥ अंग पांग्र
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प्रमुख वळी, श्रीजिनवचने जोय न० । जे फळे छे पूजातो, क्षुळक विद्याधर होय || न० ॥ पुं० ॥ ३४ ॥ धर्म जिणेश्वर भाखियो, देव गुरु धर्म स्वरूप न० । कहे कर्मसिंह जे करे, तेहनो जनम अनूप ||२०|| ० ||३५||
दूहाः -
विद्याधर जिणवर धरम, पाके पूरे भंग । आपुरि परभव लहे, सुर सौधर्मः सुरंग || ३६ || स्वर्गतणा सुख भोगवी, | सागर आयु दोय । चवि इहां आवी ऊपनो, लोकपाळ, ए जोय || ३७ ॥ नंदन आठे गुण निपुण, देवकुमर अणुहार । + हवे पुत्रीना भवणो, किष्ण पुन्य इह अवतार ||३८|| ( ढाल २३ मी- देशी मोरीआनी - रे माडी अनुमति ० )
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बने भरख वैतान्य छे जी, तिण वच नगर सुरंग । अलग अलकापूरी दीसतीजी, नित नित नवनवा रंग || जंबु ३९ | दोय विद्याधर तेहनेजी, द्रोय द्रीय दीकरी सार । रूपगुणे करी शोभतीजी, इसे रमे सुविचार || जंबु० ||४०|| चार सहेलीआं सुख, घणोजी, यौवन वय थइ जाम । इण अवसर मिली एकठीजी, वन रमवा गई ताम ॥ जं० ॥ ४१ ॥ फ़रहर फुंदडीए नाचतीजी, गावती गीत रसाळ । हाथ तालोद इलावतीजी, घम घम रिमझिम बाळ ॥ जं० ॥। ४२ ।। सान शिणगार सोना तणाजी, भींभळ नयण मृदु वयण । काम कुतूइळ खेलतीजी, सर्व सुख चाहती लयण ॥ जं ॥ ४३ ॥ तिण वन साधु दीठी तिसेजी, ज्ञानघर गुणह भंडार । अलप आयु
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तस पेखनेजी, तारण तरण संसार ॥ जं० ॥ ४४ ॥ साधु कहे तुमे सांभळोजी, धर्म हो कांई (मर्म । विनय धरी कहे ते सहुजी, कांइ न होय शुभ कर्म ॥ जं० ॥ ४५ ॥ वायु परे चंचळ आयु छेजी, डाभ अणी जळ जेम । अंजळीना जळनी परेजी, सांभळीने कहे एम || जं ॥ ४६ ॥ कहो करुणाकरी अम तणोजी, आयु केतलो छे एक । मुनि कहें विकट सहनो अछेजी, मन धरो तेण विवेक ॥ जं० ॥ ४७ ॥ एक दिन आयुखो तुम तणोजी, सांभळी सवि कहे वेग । आग लागे खणे कूपनेजी, कहो किम आवेजी नेग ॥ जं० ४८ ॥ जळधर वरसते घण घणेजी, किणविध बांधीजे यकण दिन तणे आऊखेजी, किम पुन्य होय विशाळ ॥ जं० ॥ ॥ ४९ ॥ इम मन आसण दूमणीजी, दीसती वदन विछाय । कर्मसिंहमुनि करुणाकरीजी, धरमेकहे चित्तलाय जं० ॥ ५०॥ (geli-)
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पाल ।
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एकूण दिन अनेक सुख, पाम्या पाणी जीव । पुंडरीक़ मुनिवर प्रमुख, जसुकमाळ रिखीव ॥ ५१ ॥ मरुदेवी माता विमळ, गति पाये तिण वार । तिरिय योनि डेडर तजी, सुरगति पामे सार ॥ ५२ ॥ रथकारादिक दानथी, संगम खाल विशेष | अनेक तुर्या एकण दिने, एह बानगी देख ॥ ५३ ॥ दान शीळ तप भावथी, दया, क्षमा व्रत धार। सद्गति शिष गति पामिया, एक दिवस करी सार ॥ ५४ ॥ करजोडी चारे
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चतुर, बोले मन घर मेंम । दाखो दीमदया करी, जिणे भम थाए खेम ॥५५॥
(ढाल २४ मी-भलेरे पधार्या तुमे साधुजीरे-ए देशी.) . आज अछे दिन (पंचमीरे, अजुआली परधानरे । इण (तपथी तरशो तुमेरे, ते विधि मुणों सावधानरे ॥५६॥ पंचमी गति पंचमी तप थकीरे, अनुक्रमे पामे साररे । इह भव पर भव मुख संपदारे, तिण कहिये संभाररे ॥ पंच० ॥५७॥ वैशाख जेठ आसाढनीरे, मगसिर फागुण माहरे । ए शुद्ध मास मोई करीरे, कीजे मन उच्छाहरे ॥ पंच ५८ ।। शुभ दिन पंचमी चांदणीरे, जोइ रिख वार शुद्धरे। मुह गुरुनी सानिध लहीरे, उपवास करे विशुद्धरे ॥ पंच० ॥ ५९॥ भाण पंचमी तप ए कह्योरे, पुस्तक भक्ति विशेषरे । स्वस्तिक कर गुण संस्तवेरे, इण दिन जनम मुलेखरे ॥ पंच० ॥६० ॥ पंच बरस पंच मासनीरे, उत्कष्टि जावजीवरे । नाण नमो गुणवो सहीरे, मासोपवास सदीवरें ।। पं०॥ ११॥ मन बच काया त्रिधा करीरे, भाव भले परिणामरे । इणि परे तप पूरो करेरे, महियळ वाधे मामरे ॥ ५० ॥ ६२ ॥ सुख संपद एन धाननोरे, मति बुद्धि हाय प्रकाशरे, । स्वजन त्रिया मुख मुत तणोरे, भव भव दाम अपाररे ॥ पं० ।। ६३ ॥ तप पूरो होवे तदारे, सार्मिक संतोषरे । वस्त्र दान सनमानीएरे, वळि असूनादिक पोषरे ॥ ५० ॥ ६४ ॥ पंच पंच पच्चीशजारे, नानोपगरण जाणरे । दीजे ज्ञान भणी सहीरे, गिणतां सफळ
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विहाणरे ॥५०॥ ६५ ।। इम संचमी तप तुम भणीरे, होशे लाभ अनंतरे । करी उपवास घरे गईरे, वांदी साधु महंतरे ॥ पं०॥६६॥ माय, तायने विनवेरे, सहु विगतावी वातरे । जिन पूजा विधि करेरे, सफळ जनम विख्यातरे ॥ ५० ॥ ६७॥ दिन सफळो गिणती कहेरे, साधु संयोगे आजरे। भावजीव करस्यां सहीरे, ए तप सवि शिरताजरे ॥५०॥ ६८ ॥ करतां एम विचारणारे, धरतां धर्म अभ्यासरे। कर्मसिंह भावे फळेरे, मनरी वंछित आशरे ॥ ५० ॥१९॥
दूहाःअकस्मात आकाशथी, बेठी कुमरी ज्यांह । धर्म ध्यान चारे धरत, वीज पडे जइ त्यांह ॥७०॥ ओल्हावे आकुळ थई, दीवो वाय.विसेष । तिम कुवरी संचलपण, होय गई अनि मेष ॥ ७१॥ पंचमी तप, परभावथी, लहे अनोषम ठाम । स्था कल्प पुन्ये करी, देव सुधां नाम ॥ ७२ ॥ देवतणा सुख भोगवी, चत्रि करी पुन्य प्रमाण । विशुद्ध राय कुळ अवतरे, चारे, चतुर सुजाण ॥७३॥ सांभळीने सघळा जणा, पूरव भवनी वात। राय सणी सुत पुत्रिका, मन चिंते विख्यात ।।७४॥ (दाळ २५ मी-देशी नीवइयानी आदरजीव क्षमागुण आदर.)
जातिसमरण राजादिक सहु, पामे कहेतां वारोजी। सूरख भव सवि साधु, मुखे सुणी, देखे संप्रति सारोजी ॥७॥ श्रावकना व्रत सुधा सरदहे, तप जप, गुणह भंडारोजी । पाळे
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१४० मुहगुरु संगते जीवडो, ते पामे भव पारोजी ॥ श्रा० ॥७६॥ प्रति बोधी इम पाय नमी सहु, तारण तरण जिहाजोजी। साधु महाव्रत दुःकर अम्हांवते, न पळे इण समे आजोजी ॥ श्रा० ॥७७॥ श्रमणोपाशकना व्रत दाखवो, करी करुणा अम सारोजी । साधु कहे पडिबंध न कीजिये, धर्म सदा सुख कारोजी ॥ श्रा० ॥७८॥ पंच अणुवने प्राणातिपातादि, (गुण बत गुणना कारोजी । तीन शिक्षा व्रत चार मिलि.करी, ए बारह, मन धारोजी ॥ श्रा० ॥ ७९ ॥ अतिचार हवे कहिये एहना, पंच, पंच, मिलिने साठोजी । नाण दंशण ने चरणाचारनां, ए इक इकना आगजी ॥ श्रा० ॥८०॥ समकित सूळ सहु वरतां तणो, अतिचार तस पंचोजी । संलेहण तव विरयायारना, बीश तणो छे संचोजी ॥ श्रा०॥ ८१ ॥ पंनर कर्मादानतणा वळी, टाळे ते निशिदिशोजी। अतिचार ए श्रावक वरतना, एम इक सो चोवीशोज़ी ।। श्रा० ॥ ८२ ॥ ए अतिचार जाणेवा गुरु मुखे, आचरवा नही योगोजी । भव भव भमतां प्राणी जीवने, जिन धर्म दुर्लभ लोगोजी ॥ आ० ॥ ८३ ॥ इणी परे सूधा व्रत गुरु साखy, धारे निरति चारोजी । देव गुरु धर्म स्वरूप हिये धरे, क्षणातत्व ए सारोजी ॥श्रा० ॥८४ ॥ आठम चौदश कल्याणक दिने, पूनम त्रण चोमासोजी । पर्व पोषह श्रावक विधि कही, वळि करे शक्ति उल्हासोजी ॥ श्रा० ॥८६॥ रूपकुंभ गुरुने पासे सही, व्रत भारे निरधारोजी । अर्थ सहित बली साचाइसहि, पूछीप्रश्न
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१४१ विचारोजी ॥श्रा० ८६।। धर्माचारज पाय नमी करी,भावन भावे सारोजी । धर्म सदा हीत कारी जीवने, इण असार संसारोजी ॥ श्रा० ॥ ८७ ॥ इम जे मुहगुरु संगति पामीने, घरे धरमना काजोजी । कर्मसिंह गुण गावे तेहना, नाम जपे नित आजीजी ॥ श्रा० ॥ ८८॥ ..
दहाः___घर आवे महाराजवी, विलसे पुन्य पंडूर । धरम करम ये साचवे, दिन दिन वधते नूर ॥८९॥राजाराणी पत्र वळी, श्रावक ना व्रत चंगे। लोगो मन तिणं परं सही, पाशा ऊपर रंग ॥९० ॥ इमे करतां बहु दिन हूवा, श्रमणोपाशक धर्म । पाळतां प्रगटपणे, जाणी उदय शुभ कर्म ॥९॥ तिण अवसर आवे तिहां, ते सांभळो जगीश । तरण तोरण भव भय हरण, जगजीवन जगदीश ॥९२।।
(ढाल २६ मी-देशी-मेंदी रंग लाग्यो, नी.) तिण 'अवसर तीरथधणी हो, वासपूज्य जगनाह । चरणे चित लागो। भवियण जन आवी नमे हो, धरता अधिक उच्छाह ॥चर०॥९३॥ चंद चकोर तणी परे हो, मान सरोवर इंस॥०॥ कोक चिंते वासर वसे हो, अमर केतकी वंस ॥ च०॥९४॥ जिम रायवर रेवा नदी हो, कुळवंती भरतार ॥०॥ चातक जळधर मानतो हो, तिम भवियण सुखकार ॥च०॥९॥ मूरति मोहन वेलडी हो, दिठां दोलति होय ॥१०॥ ज्ञान वधे गुण गावतां हो, सुयश चवे सहु लोय ।।च०।९६॥ तुम दंसण
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१४२ विण जीवनें हो, भमतां नायो पार ॥१०॥ काळ असंख अनंत जाहो, थावर-काय मझार ॥ च०॥९७|| असंख सपि उव सूर्पिणी हो, धरणि दगागणी वाय ॥०॥ वनस्पति वसतां थकां हो, काळ अनंतो जाय ॥च०॥९८॥ विकलेंद्री तिरियोनमें हो, कर्म वशे पायाळ ॥ च० ॥ सर गति पामी शुभ उदय हो, तुम विण सहु विसराळ ॥ च० ॥ ९९ ॥ इम भव भगतां आवियो हो, मानबने भवसार ॥च०॥ बहु जन ऊभा ओळगे हो,आवागमन निवार ॥१०॥५००॥ चिंतामणि मुरतरु समो हो, कामधेनु कर लाध ॥च०॥ इम मन चाहे मानवी हो, सफळ जनम श्री साध ॥ च०॥१॥ गुण गावे जिनवरतणा हो, नाम ठाम विस्तार ॥०॥ चंपा जनम्या जगपत्रिहो, रूप वसपूजय मल्हार ॥१०॥२॥ जयानंद जग दीपतो हो, पहेले संघयण संठाण ॥०॥ लाख बहत्तर आउखो हो, सित्तर धनु तनु माण ॥०॥३॥ प्रत्तोपल सम वान के हो, महीप लंछन निराबाध ॥१०॥ छासठ गणधर गह गहे हो, सहस बहोत्तर साध ॥ च०॥४॥ इणपरे बहुविह (संघमें हो, वाणि सुधारस रेल ॥०॥ जिहां विचरे धन सामही हो, बधती भवियण वेल ॥१०॥५॥ संप्रति देखे जे जगें हो, ते धन मानव सार ॥०॥ आज अछे इण जायगा हो, नाम उवण आधार ॥च०।६। जिन प्रतिमा जिणवर समी हो, माने समकित धार ॥१०॥ करमसिंह मुनिवर मही हो, भवियण कहे विचार ॥०॥७॥
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. (दूहाः- ) .., गाम नगर महि मंडळे, करता उग्र विहार । मुखमांहे मुख माणता,. जगजीबन हितकार ॥ ८॥ गाम एक वासो चसे, नगर पंच दिन सार । पुष्कर मेघ तणी परे, नागपुरें मुखकार ॥९॥ वन खंड आवी समोसरे, साधु सहित परि. वार । समोसरण परषद मिळे, कहिये तेह विचार ॥१०॥ (दाल २७ मी-पियु चाल्या परदेश सवे गुण ले चले. ए देशी.)
. समोवसरण सुर आवी रचे तिण अवसरे, जोयण लगी मुर वायु धरणि कयवर हरे । लघु जल धारे सेघमाली वरसे सुदा, अगनि कुमार उखेवे धूप तिहां सदा ॥११॥ वाणव्यंतर सुर आवि पीठ मणिमय करे. भवणपति सुर आवि पीठपरे गढ धरे । साव रुपानो सार कोशिशां सोवना, जोईश पंच मकार सोवन गढ एकमना ॥१२॥ यण कांगरा करे वैमाणिक आविया, मणि कविसीसा सारे रयण गढ भाविया। इण परे त्रिण प्राकार मुरासुर मिली करे, चार बार सिंह पोल चिहं दिशि मन हरे ॥१३॥ गढ गढ तणो विचाळ तेरसय धनुषनो, पण सय पणह प्रमाण उंचपण भीतनो। अंगुल, बारे खीश धनुष तेत्रीशनो, विस्तर भींत वखाणि लहे जे इक मनो ॥१४॥ पोल एकेके तोरण त्रिण वखाणिये, विच मणि पीठ चिहुंदिशि आसण जाणिये। त्रिहुं आसन पडिरूव अशोक तळे भला, उत्रविहां त्रिणत्रिण चामर युग निरमळा ॥१५॥ धर्म चक्र दिशि चार, तेज अहनिशि करे, ध्वज इक जोयण सहस ऊंचपण
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१४४
तिह धरे । पूर्व आसण वासुपूज्य जिणवर करे, पदमासण धरि ध्यान भवियजण मणहरे || १६ || आवे परखुद बार प्रभावे "स्वामिने, जोयण बारे सीम पलकमें जाणीने । साधु, साधवी रंभ वैमानिकनी सही, पूरव आवी कुण अगनि रहे गह गही ||१७|| जोइस भवण व्यंतरनी देवी अति घणी, दक्षिण पोळ प्रवेश चैरख रहे सुणी । जोइस भवण वाणवंतर सुरराजीया, पश्चिम आवी कूण वायव निज कांजिया || १८ || वेमाणिय नरराय नारि वळि नरतणी, आवे उत्तर पोळे ईशांण रहे धणी । इण परि परख बार सहू आवे मिळी, अरघ मागधी वाणि सुवा मनरळी ॥ १९ ॥ जळचर थळचर खयचर (पंच प्रकाइना, देशविरति पाळंत तिरिय जे एक मना । इण परे सयळ जिणंद तणी वाणी सुणे, इह भव परभवे लील (जोयणवाणिवखाणि ) करमसिंह मुनि भणे ॥२०॥
( दूहा:-)
दडवड दोडी जाइने, वन पाळक तिणवार । आवी दीध वधामणी, नरपति हरख अपार ||२१|| सांभलीने राजा तणो, मन विकसे सुविशाळ । सादी बारे लाख धन, द्ये तेहने ततकाळ ।। २२ ।। अशोकराय आणंद घरे, रोहिणी राणी रंग । जिन आगम सवि हरखिया, धरता मन उच्छरंग ॥२३॥ कोणिकनी परे संचरे, अधिक सजाई मेळ । हय गय रह वर पायके, जिम रयणावर वेल ||२४|| नगर घणी शोभासझी, प्रणमे जाइ उच्छाह । पंचे अभिगम साचवी, बेसे परखद
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माइ ।। २५ ॥ सर्वगाथा ५२५ ।। (ढाल २८ मी-तूंगीया गिरि शिखरे सोहे ए देशी.)
परखदा प्रते कहे जिणवर, अरध मागधि भासरे । मधुर ध्वनि जिम मेघनी परे, धरे सयल उल्हासरे ॥२६॥ जिन तणी वाणी मुणे प्राणी, सफळ तेह संसाररे । वचनना गुण पचेश्रीश, एकोण अतिशय धाररे ॥ जि० ॥२७॥ चोर अतिशय जनम साथे, केवल लो इग्याररे । सुरकृत वली उगुणीसजाणो, एह सयळ संभाररे जि० ॥२८॥संच आश्रव त्याग करणा, धरणा पंचाचाररे । अवर भव संबळा करणा, अंत मरणा.साररे ।जि०॥२९॥ सदा मेरो रहे मनमें, तनमे धरे उल्हासरे। विषय वाह्यो रंग रातो, मातो दुर्गति वासरे। जि०॥३०॥ स्वास्थ विण कोई नहीं अपणा, करणा कहा गुज्जरे । जाणने अजाण थाये, पतंग जेम अबूज्जरे ॥जि०॥ ३१॥ आवे कमाई अंत साथे, पुण्य पाप सखाइरे । करे श्रुतने धरम चारित,ते सदा सुखदाइरे ॥जि०॥३२॥ सर्विजीव अपणी लहे भाषा, समजता मनमांहरे। टालि शंसय धरे संवर, वचन श्री जगनाहरे ॥जि०॥३३॥ राय राणी देशणा मुणि, अथिर जाणे सर्वरे । संसार सागर दुःख आगर, टाळिये मन गर्वरे ॥जि०॥३४॥ करी अंजळी एम बोले, साधु मारग साररे । तुम समीफे ग्रही संयम, लहु भवनिधि पाररे |जिनतणीवा० ॥३५॥ घरे जाई करी सझाई, राज काज समापरे । कहे जिन पडिबंध म करो, वंदि वळीयो थापरे ॥ जि०॥३६॥
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प्रातः सूत बैराग साथै, लोकपाळदेई राजरे । राये राणी पुत्र पुत्री, साधे आतम काजरे || जि० ||३७|| दीक्षा महोत्सव करे अति घण, तेह सकळ प्रसिद्धरे । थावच्चादिक मेघ रिषिवर, जमालिनी परे लिखरे ॥ जि० ||३८|| चार महाव्रत चंग पाले, विशुद्ध तप जप कायरे । सुमति सुमता गुपति गुपता, घरे मनने भारे ॥ ज० ॥३९॥ पाळी संयम लहे केवळ, टाले भवनो व्यापरे । एकसो अन्न पर्यडी, करम अडनी कापरे || जि० ||४०|| सकल सुख सासता पाम्या, अशोक रिषि राजानरे । संयमने परभाव सघळा, तर्या आप समानरे ॥ जि ॥४१ मन शुद्ध संयम जेह पाळे, टाले सयळ कषायरे । कर्मसह 1 मुनि साधु केरा, भावे वंदे पारे || जि० ॥ ४२ ॥
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כי
दूहा:
मन शुद्ध इम जे तप तपे, धरतां निर्मळ ध्यान । पंचमि रोहिणी प्रगट तप फळ पामे निरखाण ||४३|| जिम अशोक रिषि रायजी, रोहिणी राणी तेम । कन्या कुंवर तपथी तय, पाया वांछित खेम ॥४४॥ गौतम पृच्छा ग्रन्थसुणि, वळि मुज े प्रथम अभ्यास । अधिको ओछो जे कह्यो, सिच्छा दुकडे तास ॥४८ ( ढाल २९ मी - राग धन्याश्री . )
साधु शिरोमणिना गुण गाया, ध्यान धरी मन भायाजी । अचळ अनोपम नाम कहाया, नित नित प्रणमुं पायाजी ॥ ४६ ॥ एहवा साधु तणा गुण गाया, पुन्य योग ते पायाजी । दिन दिन घरमां अधिकी माया, होवे सुयश सवायाजी ॥० ॥
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४७il दुःख दालिद्र सवि दूरे जाए, नामे शिव सुख थायजी । अशोक राय रिषि मन भाया, रोहिणीना गुण गायाजी ॥ ९० ॥ ४८ ॥ संवत्सर सतरे सेतीसें, काती मास जगीसेजी | शुदि दशमी सूरजने दिवसे, कीधी चउपई हरषेजी ॥० ॥ ४९ ॥ (श्री) पार्श्व चंद्र गच्छ प्रगट प्रतापी, जगमां कीरति व्यापीजी । पंचम काळ सुमारंग थापी, भवियणने हित आपीजी ॥ ९० ॥ ५० ॥ अनुक्रमें पाट पटोधर जाणो, श्रीजयचंद्रसूरि वखाणोजी "पाट पद्मचंद्रसूरि सुहाणो, युगप्रधान जग टाणोजी ॥ ९० ॥ ५१ || आचारिज मुनिचंद सूरींदा, प्रतपे तेजें दिणंदाजी । सेव करे सुरनर आणंदा, नित नित भाव धरिंदाजी ॥ ए ॥ ५२ || श्रीजयचंद्रमूरि शिष्य विराजे, चढता सुयश दिवाजेजी। श्री प्रमोद चंद्रवाचकवर गाजे, साधु शिरोमणि ताजेजी ।। ए० ।। ५३ ।। तास शिष्य करमसिंह इम भाखे, पुरजालोर प्रकाशजी | पास जिनेसरने वेसासे, कीधी जोड उल्हासेजी | ० || ५४ || ए अधिकार जग भणे भणावे, ते घर मंगळ आवेजी। संघ चतुर्विध सदा सोहावे, कर्मसिंह गुण गावेजी ।। ए० ॥ ५५ ॥
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इतिश्रीरोहिणीत महात्म्यगर्भितश्री रोहिणीनोचोपाई बद्धराससंपूर्णः॥ संवत १७३२ रा फाल्गुण शुदि १ भृगुदिने लिपी - चक्रे सुनकर्मसिंहकेन ॥ सर्व ढाल २९ सर्व गाथा ५५५ शुभं भवतु. श्रीरस्तु . कल्याणमस्तु . लेखकपाठकयोः ॥ संशोधितश्च जैनाचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरिशिष्यमुनिसागरचंद्रेण ॥
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरिग्रन्थमाला पुस्तक - ३६० वाचकवरश्रीहर्ष चंद्रानुजमुनिवरश्रीनिहाल चंद्रकृतः
॥ जगतशेठाणी श्रीमाणकदेवी - रासः ॥
संशोधक - जैनाचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरिशिष्यमुनिसागरचंद्रः
श्रीदानशीलतपभावनाधिकारे- बंगालदेशोत्पन्ना जगतशेठाणी सतीशिरोमणी श्रीमाणेकदेवीरासः प्रारंभ:
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( ढाल - मोघं मुज मन तुम गुणे, श्रीशांतिनाथ० पदेशी. ) श्रीगुरु गौतम पयनमी, सारदमात मनाबुंरे । जेथकी बुद्धि ऊपजे, गुणपुण्यवंतना गाउँरे ॥ १ ॥ पुन्यवंत नर साभलो, निरमल सतीय चरित्रोरे । पापपंकज जिंह तें मिटे, होवे श्रवण पवित्रोरे / पुन्य० आंकणी० ॥ २॥ श्रीमुख श्री जिन भाखीया, धर्मना चार प्रकारोरे । जे प्राणी नित आदरे, ते पावे अवपारोरे / पुन्य० ॥३॥ सतजुग सोलसती हुइ, साधवी साधु rait | कलिजुग में मोटी सती, माणीकदे सुविवेकोरे पुन्य० १० || ४ || जो पेजप करणी करी, व्रत कीधा पचखाणोरे तेनी कुण गिणती करे, गिणत न आवे ज्ञानोरे / पुन्य० ॥५॥ तासतणा गुणगाववा, मनमें हुवो उच्छाहोरे । कहतां जीभ
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पवित्र हुवे, लीजे भवनो लाहोरे पुन्य० ॥६॥ कुण कुल जनम लहयो सती, कोण नगर कोण देसोरे । कुण कुलमें माता व्याहीया, सो सव कहुं विसेसोरे/पुन्य० ॥७॥ भरतखेत्र शोभे भळो, जंबद्वीप मझारोरे । मध्यमेरु नवखंडमुं, लाख जोजन विस्तारोरे/पुन्य० ॥८॥ मध्यदेशमें दीपतो, वछ देश अति। चंगारे । नगरी कौसांबी भली, नदी वहे जहां गंगारे पुन्य. ॥९॥ चंदनबाला जहां भइ, सतीयां में सिरदारोरे । नाम जयंती श्राविका, मृगावती सुखकारोरे/पुन्य ॥१०॥ साधु अनाथि जीहां हुवा, श्रावक साध पवित्रोरे। पद्मप्रभ जिहां जनमीया, कहां लगे कहुं चरित्रोरे/पुन्य ०॥११॥ तस नगरी 'पासे भलो, साहिजादपुरसारोरे। निकट वहे गंगा नदी, वासै वरन अढारोरे/पुन्य० ॥१२॥ मुरपुरवरकी ओपमा, नगर निरुपम देखारे । न्यातचौरासी जिहां वसे, ओसवाळ सुविसेपारे पुन्य० ॥१३॥ पूरणमल्ल पुन्यातमा, श्रावक परम सुज्ञानीरे, गोत्र वीराणी परगडा, धर्मवंत अतिदानीरे पुन्य० ॥१४॥ तस घरणी वरणी सति,गुलो वह इति नामेरे। जैन भगति दोय आदरे दिनदिन चढत प्रणामेरे पुन्य० ॥१५॥ तास कूखमे ऊपनी, स्वर्गलोकथी आइरे । मातपिताना घर विषे, ऋद्धि वृद्धि अधिकाइरे पुन्य० ॥१६॥ संवत सतरसैं तीसमे, श्रावन मास उदारोरे । कृष्ण पक्ष एकादसी, जनमभयो मुखकारोरे पुन्य० ॥१७॥ नाम किसोर कुमुरोधर्यो, अनो कही बतलावेरे। ज्युं ज्यों वाधे बालिका, मातपिता सुख पावेरे पुन्य० ॥१८॥
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सवगुन सव लछनभर्या, विनय विवेक उदारोरे। जो गुण तिय उत्तमतणां, ते प्रगटया तिणवारोरे पुन्य० ॥१९॥ मातपिता मन सोचीयो, कीजे एहनो विवाहोरे । जो इण सरिखो वर मिले, तो लीजे लच्छमी लाहोरे पुन्य० ॥२०॥ देसप्रदेस विचारतां, वात ठीक ठहराईरे। पटणे मे कोठी करी, भेज सहोदर भाईरे पुन्य० ॥२१॥
दूहाःनगर सुवस एटणे, वसे, ओसवंस. सिरदार । गोत गहे. लडा जगप्रगट, दोलतवंत दातार ॥२२॥ हीरानंद नरिंदसम, मानै सहुकोइ आण । सातपुत्र तेहने प्रगट, अदभुत गुणमणिखाण ॥२३॥ माणीकचंद्र नरिंदसम, चौद विद्या भंडार । लंछन अंग बत्तीस तसु, कामतणो अवतार ॥२४॥ वर देखता हरषित भए, किनो तिलक तेवार । करी सजाई त्याहनी, रची बरात विस्तार ॥२५॥ हय गय रथ पायक प्रबल, जनसज्जन परिवार । ले बरात व्याहन चले, पहुते नगर मझार ॥२६॥ आगत भगत युगतै करी, पूरणमल्ल प्रवीन । सुभदिन सुभग्रह सुभलगन, व्याह रलीसों कीन ॥२॥ दान दहेज दीए बहुत, जनसज्जन संतोष । विदाकीए वरकुन्यका, भांतिभात संतोष ॥२८॥
( ढाल-चोपाइ. ) अनुक्रमे पुर पटणे आवीया, जाय अगाहु वधाइ दीया। हरख्या मातपिता परिवार, कीन महोच्छव बहु विस्तार ॥२९॥
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गृह प्रवेस वरकन्या कीया, दांनघणा जाचिककुं दीया ।देखी बदन कुलवंती वहुं, हरख्या जन परिजन मिल सहु ||३०|| दुलहनी पावघरे धरजिसे, ऋद्धि सिद्धि घरआई ति से । मणिमाणिक मोती भंडार, सोनारूपानो नही पार ||३१|| हाथी घोड़ानें पालखी, वहल सुखासणनें नालखी । दासीदास सहेली लोक, दिन दिन बाधे थकाथोक ||३२|| पुन्यवंतने पग परवेस, कीरति बाधी देसोदेस । वाधे पुत्र पौत्र परिवार, वाधी लछमी बहुतभंडार ||३३|| नरदेही घरआई वहु प्रस्तुक्ष लछमी भाखे सहु । माणिकदेवी दीनो नांम, अदभुत रूपवंत अभिरांम ||३४|| पूर्वन्यतणे परमाण, सुख भोगवे सुरेंद्रसमांण । नाटक गीत संगीतरसाल, नाचै नाटक अति सुकुमाल ||३५|| स्वर्गसमाणा सुखभोगवे, धर्म कर्म दोऊं जोगवे । प्रतिपतिती दोऊं अधिकसनेह, ज्युं चातिक सारदऋतुमेह || ३६ || देस बंगाळे उत्तम देस, आए माणिकचंद नरेस । नांम नगर मक्सूद्रावाद, करि कोठी कीनो आवाद ||३७|| राजा परजा अरु उमराव, फोजदार सुबाऽरु नबाव । सहुकोई माने हुकम प्रमाण, दिल्लीपति दे अतिसनमांन ||३८|| बादशाह श्रीफरुकसाह, सेठ पद्स्थ कीयो उच्छाह । माणिकचंद शेटभए नांम, फिरी दुहाई ठमोठा ||३९|| देस बंगाला केरे धनी, दिनदिन संतति संपति
नी। जाके पुत्र सुरेंद्रसमान, प्रगटं फतेचंद सुज्ञान ॥ ४० ॥ दिल्लि जाय दिलिपती भेट, नांम किताब भयो जगसेठ । जगत सेठ जगपति अवतार, कुलमंडण थंभन परिवार ॥४१॥
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ताकी पटंतर कहो कुण करे, दुखीयाना दुखदालिद्र हरे । पुत्र लंगम तिण के घर भए, सूर्यचंद्रविधिना निरमए । सेठमुज्ञानि आणंदचंद, दयाचंद्र प्रगटे ज्यु इंद्र ॥४२॥ पुत्रपौत्र भए राजकुमार, दोउं कामदेव अवतार । जुगजुग जीवो महतावराय, सेठ सरूपचंद्र दीर्घाय ॥४३॥ धन धन माणिकदेवी पुन, बेटा पोता पुत्ररतन्न । सत साखा वाधो परिवार, एक एकसुं अधिक उदार ॥४४॥ भाई, भतीजे लायक सहु, बेटी पोती अरु कुल वहू । इंद्रसभा सम जसु परिवार, दिन दिन वाधो हरख अपार ॥ ४५ ॥ प्रातःसमे पूजे जिनदेव, नितप्रति सारे सदगुरुसेव । मुणे जिनेसर वचन वखाण, नित नित साधे व्रत पचखाण ॥४६॥ सातखेत्रमें वित्तवावरे, दुखीयाजनना दालिद्र हरे । जो जो करणी श्रावकतणी, माताजीने कीन्ही अतिघणी ॥४७॥ लडकपणासों जो टेकग्रही, आदिअंतशों सो निरवही। दोलतवंत अरु चित्त उदार, दान देत मन हरख अपार ॥४८।। संवत सतरे इकतरसार, माघमास दसमी गुरुवार । माणिकचंद्र स्वर्गगति लही, जिनकी कीरति जगमें रही ॥४९॥ तिण दिनसों मात कुलवती,जपतपदानकीया महासती। तिणकी गिणती कहो कुण करे, धन्य धन्य सब जग उच्चरे ॥५०॥
( दूहाः - ) रातमनोरथ यों कीयो, वंदशुं वीसजिणंद । संघ ससेतसिखरतणो, कीजै मन आणंद ॥५१॥ मनसूबा मातातणा, जांण्या श्रीजगसेठ । करी सजाई संघनी, भेजे लोक पचेट
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||५२ || घाटवाट सब सझ कर्यो, संघ आवे जिस राह । हुकम -सुणत सब भूपति, लागे करन उच्छाह || ५३ || देसविदेसे पाठई, पुत्री परम हुलास । चौविह संघ बुलाईया, खरची भेजी खास ॥ ५४ ॥ असवारी वाहन दीए, जिहां जिहां मांगे तेम । डेरा तंबू पाल भले, दीन्हा सबकों जेम ॥ ५५ ॥ संघ सहू एकठा थया, मुलक मुलकना आय । तुरत बोलाया जोतिषि, मुहरत दीया बताय ॥ ५६ ॥ शुभदिन सुभग्रह, सुलगन, सुभमुहूरत सुभयोग । जात करणकौं नीसर्या, जहां तहां सौं लोक ॥५७॥ आनंदचंद्र नरेंद्र तव, संघपति तिलक वणाय । करि असवारी इंद्रसम, संग दयाचंद भाग ॥५८॥
( ढाल - खडकानी. )
चल्यो संघ उच्छंगधर जात्र जिनवरतणी, अतिघणी ऋद्धि विस्तार कीन्हा । सरस जरवाफ कीमखाब मखमलतणा । तंबू डेरां तहां जायदीन्हा चल्यो० ॥ ५९ || लालबनात करणाटकी छींटका, नवनवीभांतिना पालताया । देखि सुरलोक इंद्रलोक गृह सारिखा, मानहुं आप सुरनाथ आण्या / चल्यो० ||६० || विकट पहाडसम प्रबळमद पूरीया, इंद्रराजसारिखा साजि आंण्या । मेघडंबर अंबाड होदां कर्या, हाथीयां जात किण पैं वखाण्यां चल्यो० ॥ ६१ ॥ अवल ऐराक कंबोज खुरसांणरा, आरबी अव जे जातिवंता । रतनसुवर्ण रूपातणे साजसुं, संगलीना तुरी तेजवंता चल्यो ० ||३२|| वहिलथ- पालखी नालकी अति घणी, तेहती कोंण गिणती वखाणे । ऋद्धि विस्तार इहभांत
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१५४ सोभासरस, देखि नांहि कहूं रावरांणे चल्यो० ॥६३॥ ढलकती ढाल सन्नाह सबसाजिया, तीर तरवार नेजा विराजे । सरस सामंत्र अणी कोज फावे घणी, सुस्टभर सूरमा संग साजे चल्यो० ॥६४॥ रंग प्रचरंग निसाण गज पीठपर, नवनवे नाद नौबत्त वाजे । सखर जासोल हारोल आगेचले, देखिदल प्रबल भूपाल भाजे चल्यो० ॥६५॥ साधुअरु साधवी स्वेतप्रटा दिग्पटा, आयरिया और उवझाय के ते । भेख खटदर्शनी भाद भोजक गुनी, कोंण गिणती करें संग जे ते चल्यो० ॥६६॥ अवल ओसवाल श्रीमाल पोरवाड़ अति, न्यात चोरासीया संगलीन्हां । वडावडासाह नरनाह संग चालीया, तेहतणा मांन सनमांन कीन्हां चल्यो० ॥६७॥ प्रथम चोमास श्रीवीरजिन जिहां कों, नगर वधमान नयणे निहार्यो । पृष्टिचंपा पुरी देखी आणंदभरी, जीर्ण जिनराज मंदिर जुहार्यो चल्यो० ॥६८॥ नगर पचेट रघुनाथजी भेटीया, सतीय सीता रहे जिहां वासें । देखि पाहाड वनझाड लंगरदल, संघना लोक सब रह्या तमासे चल्यो० ॥३९॥ तिहाथकी नगर विंदापुरी आवीया, पूज जिनराज भयो अतिउच्छाहो । तिहाथकी आविया. सिखरगिरि तलहटी,देखिगिरिराज लीयो जनम लाहो चल्यो० ॥७०॥ हरखउल्लाससों सिखरऊपर चन्या, जाय जिनराजनो दर्शकीधो। स्नात्र पूजा प्रतिष्ठा करि भावसों, मातजी जनमनो लाभ लीधो चल्यो० ॥७१॥ स्तनसौवर्णनी विविध आंगीरची, सातदशभेद पूजा रचाई। वीस हूं टंक जिहां वीसजिन सिद्ध
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भए, वंदि जिनचरण महिमा वधाई चल्यो० ॥७२॥ तीन दिनरात गिरिसिखर ऊपर रह्या, भाव भगते करी तीर्थ भेट्यो । सुकृत बहुलो थयो जनम सफलो भयो, दुःकृत दोहग तणो मान मेट्यो चल्यो० ॥ ७३ ॥ जात्र करी आवीया सिखरगिरि तलहटी, संघी भक्ति कीन्ही सवाई | पोषिया संघसहु विविध पकवान करि, मुहर मुहरतणी हणलाई चल्यो० ॥ ७४ ॥ खास जवाफपटकूल पहराईया, संघपद्रवीतणी माल लोधी । लोक | धन्य धन्य कहे जय जय उच्चरे, एह करतूत अतिसबल कीधी, चल्यो० ||७५ || संघ उच्छंग निज घरे आविया, नगर में बहुत उत्साह कीन्हों | धन्य धन्य पुन्य माणिकदेवी सती, तुमे संपतितणों लाभ लीन्हो चल्यो० ॥ ७६ ॥
( दूहा :- )
माता माणिकद्रे तणो, जस फेल्यो संसार | संघ चलायो सिखरकों, खरच्यो द्रव्य अपार || ७७ || जवतें जात्र पधारिया, माताजी धर प्रेम । तवहीतें मन दृढ करी, अभिग्रह लीन्हा एम || ७८ || जिनमंदिर रूपातणा, गृहमें सरस बनाय । प्रतिमा सोनां रजतनी, थापी श्रीजिनराय || ७९ || पहर एक पूजाकरे जपे मंत्र नवकार । दान देहि जब हाथस्युं, तबहीं करे आहार ||८०|| छठ्ठ छठु अरु पारणों, जो कहूं तिथ बढजाय । तव तेला निहचें करे, एह टेक न सिद्राय ॥ ८१ ॥ दोय पहोर शास्त्रसुणे, संध्या करे त्रिकाल । पोसह अष्टमी चौदसी, पडिकपणा बिहुं काल ||८२ ॥ सचित वस्तु छूवें नही, दीन हीनप्रति दान |
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१५६ कुण सरभर तेहनी करे, सकें न राजा राण ॥८३।। देसबंगाले नहु हता. देहरा अरु पोसाल पुन्यप्रसाद मातातणे, घर घर "या विसाल ॥८४॥ जैनी होते नग्रमें, आगे घर दोयचार । सो प्रसादमातातणे, श्रावक भये हजार ॥८॥ जो नर आएं द्वेसके, अन धन बस्त्र विहीन । तिणकुं माताजी तुरत, सहस्रपती करदीन ॥८६॥ रजत कनकनी मुद्रिका, पहिरी नही जिणनार। सो प्रसाद मातातणे, लदी कनकके भार ॥ ८७ ॥ कर्ण मोज. विक्रम) भए, सत जगमे दातार । कलिजुगमे माणिकद्रे, जिसी, देखी नही संसार ॥८८॥ चरण धर्था जव मातजी, जबसों इह पुर आइ । तबसों यह पुरकी दसा, दिवस दिवस अधिकाइ ।।८९॥
( ढालः कोइल्यो परवत धूंधलोरे लाल-एदेशी. )
जो तप)माणिकदे कीयोरे लाल, सो सब करूं वखाणरे सुज्ञानी । पंडित सुणी मन सरदहेरे लाल, मूरख होये हैराणरे सुज्ञानी ॥९०॥ सुण तप. माणेकदेतणारे लाल, सुणतां पातिक जायरे सुज्ञानी । इण जुगमें कुण करसकेरेलाल, सुणतां अचरिज थायरे सु० सुण० आंकणी ॥९१॥ प्रथम वीसथानिक कर्यारे लाल, बेला चारसे वीसरे सुज्ञानी । उज्मणो तेहनो कोरे लाल, खरच्या द्रव्य सुजगीसरे सु० सुण० ॥९२॥ विना| सेजातणारे लाल, छकिया भलभायरे सुज्ञानी। छठ छमासि धन्नातणीरे लाल, कीन्हा मन वच कायरे सु० मुण० ॥९॥ गुण परमेष्टी पंचनारे लाल, कहीये एकसो आउरे सुज्ञानी।
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सु० जाप. जप्या तेला करीरे लाल, जाल्या कर्म कुकाठरे मु० सुण० ॥ ९४ ॥ चौवीसी तिहूं कालनीरे लाल, बहोत्तेर छ? थायरे सुज्ञानी । करिव्रत ऊजमणों कीयोरे लाल, श्रीमाणिकदे मायरे सु० सुण ॥९॥ वीसोवीस विहरमाननारे लाल, सिवकुमार पचीसरे सुज्ञानी। इग्यारे गणधर तणारेलाल, छट्ट. कीधा मुजगीसरे सु० सुण ॥१६॥ कर्म प्रकृतिना पिण कीयारेलाल, छठ एकसो अठतालरे सु० । कर्मरहित सिद्ध तेहनारे लाल, जपकीना तिहुं कालरे सु० गुण ॥९७॥ कल्याणक चोवीसनारे लाल व्रत वीसा सोथायरे सु० ते तप तेलाथी कर्यारे लाल, जाप जप्या धरिभायरे सु० सुण. ॥९८॥ इणविध छ? छठ पारणारे लाल,कीन्हा वरस छवीसरे सु० । मोह न आण्यो देहनोरे लाल, सगतिदे जगदीसरे मु० मुण० ॥९९॥ जो होवे कहुं पारणोरे लाल, जीमे अलप आहाररे सु० । गिणती राखे अन्ननीरे लाल, तिनहूं मांहि विचाररे सु० सुण ॥१००॥ दुःकर व्रत करतां थकारेलाल,
न रह्यो अस्थि समानरे सु०। तबही न छंड्या मातजीरे लाल, अपना वत. पच्चख्खाणरे सु० सुण० ॥१॥ लाखो दान दीया सतीरे लाल, लाख कीया उपगाररे सु०। लाखो जीव प्रतिपालीयारे लाल, लाखो मे जस साररे सु० सुण ॥२॥ मोह नही ममता नहीरे लाल, राग नही कहूं रोसरे सु० । क्षमा दया समता भरीरे लाल, हरष नही अपसोसरे सु० मुण० ॥३॥ दान सील तप भावनारे लाल,धर्मना चार
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१५८ प्रकाररे सु० । माताजीनी देहमेरे लाल, पूरा देख्या चाररे मु० सुण ॥४॥ इंद्राणी सम मुखीयारे लाल, सो राजा सम राजरे सु० । तेहतणी ममता तजीरे लाल, जपीया श्रीजिनराजरे मु. सुण ॥५॥ नामवडो नांतोवडोरे लाल, वडो सुजस परिवाररे सु० । भागवडो मातातणोरे लाल, मुत जगसेट. .उदाररे सु० सुज० ॥६॥
(दूहाः-) हुकम कबहूं मेटें नही, माततणो जगसेठ । तीनवार दिनप्रति करें,चरण कमलकी भेट ॥णासत पां तव सहस्रदीये सहस कहे दे लक्ष । माताने माने. सदा, परमेसर परतक्ष ॥८॥ दानपुन्यतो मातजी, करता हता हमेस । वरस रह्यो जब काळकें, लाग्या करन विसेस ॥९॥ वस पात्र अन्नदान दिय, जो जेह मांग्या जास। वरस एकलग वरसीया, सोनैया सुप्रकास ॥१०॥ मुहर मुहर लाइण करी, जगत वडो जस लीन । ऐसी करणी आज लगे,दूजे किणही न कीन ॥११॥ पुत्र पौत्र परिवारसों, हितसों करि आसीस । राज ऋद्धि परिवार युत, जीवो लाख वरीस ॥१२॥ श्रीमुख अणसण उच्चर्या, सुद्धभाव सुभ ध्यान । दान पुन्य करतां थकां, सुणतां सुगुरु वखाण ॥१३॥ सबसों कीन्हा खापणा, करी प्रभुजीनों ध्यांन । माणिकदे माता. सती, पहुंती अमर विमान ॥ १४ ॥ संवत सतर अठाणवे, पोष कृष्ण रविवार । पडवा पुष्प नक्षत्रमें, पहुता स्वर्ग मझार ॥१५॥
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( ढालः - अलबेलानी )
फेडू मलय
धन धन माणिकदे सतीरे लाल, धन धन तुम अवतार रे महासती । जन्म सुधार्या आपणारे लाल, करि तप दान उदाररे || महा० ॥ धन० || १६ || ओस वंस धन जाणीएरे लाल, गोत गहेलडा साररे महा० । धन माणिकचंद शेठजीरे लाल, तास धरणी सुखकाररे महा० । धन० ॥ १७ ॥ धन धन पूरणमल्ल पितारे लाल, धन माता सुखकाररे महा० । तेहनी कूखें ऊपनीरे लाल, पुत्री पुन्य भंडाररे ॥ महा० ॥ धन० ॥ १८ ॥ चोथे कालें ऊपनीरे लाल, श्रात्रिका जयंती साररे महा० | चंदनबाला मृगावतीरे लाल, सती सुभद्रा साररे महा० । धन० ।। १९ ॥ तास पटंतर जाणज्योरे लाल, इण पंचम कलिकालरे महा० । जैन धरम थिर थापद्वारे लाल, लीनो ए अवताररे महा० । धन० | २० | शास्त्र मह सुणता हतारे लाल, साधु सतीनी वातरे महा० । परतक्ष देखी आंखसुंरे लाल, माणिकदेवी मातुरे महा० । धन० ॥ २१ ॥ सतीतणा जस सांभलीरे लाल, मन हरखे मन भा वरे महा० । सुख ऊपजे संसारनेरे लाल, कुसती घरे कुभावरे महा० । धन० ॥ २२ ॥ वीरपरंपर पटोरुरे लाल, सूरि श्रीवादिदेवरे महा० । नागपुरी वडतपगच्छारे लाल, सुरनर सारे सेवरे महा० । धन० || २३ || श्रीपासचंद्र सूरि संतानीयारे लाल, वाचक श्रीहर्षचंद्ररे महा० । तास अनुज जस ऊच्चरेरे लाल, नाम मुनि निहालचंद्ररे /
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१६० महा०॥धन० ॥ २४ ॥ संवत सतर अठाप्रवेरे लाल, पोष कृष्णपख साररे महा० । तिथ तेरस जस जंपीयोरे लाल, मकसूदाबाद मझाररे महा० । धन० ॥ २५ ।। पढे गुणे जे सांभलेरे लाल, सुणि मन धरहि आनंदरे महा० । तमु घर धरम प्रसादथीरे लाल, दिन दिन होइ आनंदरे। महा० ॥ धन० ॥ २५ ॥
॥ इति महासती जगतशेठाणी श्रीमाणेकदेवी रासः ॥ विरचितश्च श्रीमन्नागपुरीयवृहत्तपागच्छीय-पंडितप्रवरमहामहोपाध्यायश्रीहर्षचंद्रगणिलघुबांधवकविवरगुणगुणालंकृतविद्धवर्यमुनिश्रीनिहालचंद्रेण/ संशोधितश्च श्रीजैनश्वेतांबराचार्यवर्यविश्ववंद्यानवद्यविद्यापारावारपारीणयुगप्रवर-सकलागमरहस्यवेदिबालब्रह्मचारिमहर्षिश्राभ्रातृचंद्रसूरीश्वरशिष्यमुनिसागरचंद्रेण स्वपरकल्याणाय ॥ ओं शांतिः ॥
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरिग्रन्थमाला. पुस्तक ३७. ऋषिवरश्रीहीरराजसुप्र सादप्राप्तशिष्यश्रीयुतऋषिद्लभहुकृत
महातपस्वी श्रीपुंजामुनिनो रास.
संशोधकः–पूज्यपादश्रीभ्रातृचंद्रखरिशिष्यमुनिसागरचंद्रः
(ढाल १ ली - सेजइ वसइरे पारेवडा - ए देशी.) सरसति सामिणी विनवुं, प्रणमी सहगुरु पाय लालरे । क्षमासमण गुण आगलो, ए गिरुओ ऋषिराम लालरे ॥ १ ॥ पंजराज गुण गाइए । ए आंकणी० गोरा पटिलको लाडिलो, धनुवाइ उयरि मल्हार लालरे । हलपति वंस सोहामणो, (रांतिज नगरे अवतार लालरे ॥ पूं० ॥ २ ॥ संवत सोलज सीतरे, आसाद वदि नोमि दिन लालरे । श्रीविमलचंदसुरि सुपस्टाउले, दीक्षा ग्रहण कीयो धन्न लालरे || पूं० ॥ ३ ॥ श्रीराजनगर सोहामणे, महूच्छव दीक्षा ऊदार लालरे । अभयदान दिओ भलो, षट्जीवां हितकार लालरे ॥ पूं० ॥ ४ ॥ साधु क्रिया पाले खरी, पंच महाव्रतधार लालरे । मास, खमण दस आगला, पचख्या एकण वार लालरे ॥ पूं० ५ ॥ मास खमण दोई भला, मुनिवरमांहि ईश लालरे । वीस वीस कीया सामद्रा, प्राष, खमण, चुंआलीश लालरे ॥
स
घर
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पूं०॥६॥ सोल वार सोले कीया, चउद किया चद् वार लालरे । भविक जीव तुमे सांभलो, तेर तेर तेर कार लालरे ॥j० ॥ ७॥ द्वादस द्वादस तप कीया, सत चुआल विचार लालरे । चउवीस वार दस दस कीया, पारणे नीरस, आहार लालरे ॥j० ॥ ८॥ सित्तर दिन लगे सांभळो, छछने पारणे छास, लालरे । ससट दिन बीजा क्ली, कारणे तक अभ्यास ( लालरे ।। पूं० ॥९॥
(ढाल बीजी-भमरानी ए देशीम्मं.) श्रीसेज गिरि जातरा सोहागीरे, अंगे हुओ आणंद लाल सोहागीरे । एकादस उपवासमे सोहागीरे, भेटया ऋषअजिणंद लाल सोहागीरे ॥१०॥ बार वरस ऋषिराजने सोहागीरे, प्रांच विगइ पञ्चखाण लाल सोहागीरे। पांच वरस लगे रजनी ए सोहागीरे, वस्त्र, न ओढयो जाण लाल सोहागीरे ॥११॥ पांच वरस लगे मुनीवरे सोहागीरे, आगला षट, गस लाल सोहागीरे । नहू मुता नींद्रा नही सोहागीरे, पूरण धर्म प्रकास लाल सोहागीरे ॥ १२ ॥ अवग्रह कीधो धृतनों सोहागीरे, जिन पूजा नारि च्यार लाल सोहागीरे। विहरावे तो विहरसुं सोहागीरे, नहींतर अगड निरधार लाल सोहागीरे ॥ २३ ॥ वरस तिनी अविग्रह रह्यो सोहागीरे, धन्य नरोडे पास लाल सोहागीरे । राजनगरथी संघ चल्यो सोहागीरे, पहंचे मननी आश लाल सोहागीरे ॥१४॥ गमताहे गुण आगली सोहागीरे, फुलां बुद्धि निधान लाल सोहागीरे । राजलदे
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जीवी भली सोहागीरे, जिन पूजा. वृत दान, लाल सोहागीरे १५॥ अविग्रह पूर्यो घृत तणुं सोहागीरे, (पुण्यखणुं प्रतिपाल लाल सोहागीरे। दलभट्ट इणि परे कचरे सोहागीरे, ए भमरानी हाल छाल सौहामीरें ।॥ १६ ॥
(ढाल त्रीजी-राग मल्हार अथवा धनाश्री.), __धन धन्न तप (पंजराजनोरे, सहाई दोस एकासी। अष्ठम, पनर साठी आगलारे, साचो एह मुनीश ॥धन्न० ॥ १७॥ श्रीजयचन्द्रमरिजी सानिधेरे, तपे धनो अणगार । आविल छछने पारणेरे, नवे मास निरधार ॥ धन ॥१८॥ पट्यास गे अविग्रहरे, देवे अचिंत दान । नहिंतर पांच सात पखवासरे, रखता सतर निदान ॥धन०॥१९॥ संवत मवाणुंआ फागण सुदिरे, मोटो मान जगीश । नव हजार बा| आगलारे, वधे नरनारी आसीश ॥ धन० ॥ २० ॥ ऋषि हिरराज सुपसावलेरे, ऋषि श्रीपंजराज गुण साररे । दल। भट्ट सुख संपत्ति लहेरे, भणजो सहू नरनाररे ॥धन्न०॥२१॥
इति श्रीमहातपस्विपूंजामुनिराससंपूर्णः कृतश्च श्रीमन्नागपुरीयवृहत्तपागच्छीययुगप्रधानपदबिरुद्धारकश्रीपार्श्वचंद्रसूरिपुरंदरसंतानीयऋषिप्रवर -श्रीहीरराजचरणसरसिरुहमुनिवरश्रीदलभट्टेन संशोधितश्च श्रीजैनाचार्यवर्यप्रातःस्मरणीयपरमपूज्यसकलागमरहस्यवेदिशांतरसपयोनिधिपरमोपकारिश्रीभ्रातृचंद्रसूरीश्वरशिष्यमुनिसागरचंद्रेण स्वपरकल्याणाय ॥
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आचार्यश्री भ्रातृचन्द्रसूरिग्रन्थमाला पुस्तक - ३८.
वाचनाचार्यश्रीसमग्र सुंदरग्रणिकृत -
/ महातपस्वी श्रीपूंजामुनिनो रास.
संशोधकः - परमपूज्यश्री भ्रातृचंद्रसूरिशिष्यमुनिसागरचंद्रः
( दूहाः - )
श्रीमहावीरना पय नमी, ध्यान धरूं निसदीस । तीरथ सरते जेहनी, बरस एकैबींस ॥ १ ॥ साधु साधु कहे, पण साधु छे. विरलो कोइ । दुःसम कालें दोहिलं, पबले पुन्ये मिले सोइ ॥ २ ॥ पण तप जपनी खप करे, पाले पंचाचार | सूत्रे बोल्या साध ते, वंदनीक विवहार ॥ ३ ॥ पेला दान शोलने भावना, पूण तप सरीखो नही कोई । दुःख दिजे निज देहनें, वातें वडा न होइ ॥ ४ ॥ मुनिवर चउद् हजारमे, श्रेणिक सभा मझार । वीरजिणंदे वखाणियो, धन 'धन्नो अणगार || ५ || वामुदेव करे वीनती, साथ छे सहस अढार । कुण अधिको जिणवर कहे, ढंढणे ऋषि अणगार ।। ६ ॥ तपसी आगे हुआ, पण हवे कहुं प्रस्ताव | आजने काले ए हुआ, पूज मन भाव || ७ || श्रीपासचंदना गच्छमहि, ए पूंजी ऋषिराज । आप तरे नें तारवे, जिम वड सफर जिहाज ॥ ८ ॥ पुंजे ऋषि प्रीछयो धर्म, संयम लीधो सार ।
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कीधा तप जप आकरा, ते सुणज्यो अधिकार ॥९॥ .
(ढाल १ ली-चोपाईना, सरखी देशीमां.) - गुजरानमांहि तिजे (गीमे, कडुओ (पटिले गोनो नाम । बाप गोरो माता धनवाइ, उत्तम जाति नही खोडज कांइ ॥१०॥ श्रीपासचंदमुरिपाट, समरचंदमूर, श्रीराजमरि विमुळचंद सनूर । तिहना वचन सुणि प्रतिबूधो, असार संसार जाण्यो अतिसूधो ॥११॥ वइरागे आपणो मनवाल्यो, कुटुंबरमाया मोह जंजालज टाल्यो । संवत सोलसें सित्तरां वूष, संयम लीयो सदगुरु परख ॥ १२ । दीक्षा) महोच्छव अहमदाबादें, श्रावके कीधो नवले नादें। पूंजो ऋषि सूधावत पाले, दूषण सघला दूरे टाले ॥ १३ ॥ ऋषि पूंजो मूजतो ल्ये आहार न करे लालच लोभ लगार । ऋषि पूंजो, अति रूडो कहावे, जिनशासनमांहिं सेभ चढावे ॥ १४ ॥ तेहना गुण गातां मनमांहि, आनंद ऊपजे अंग उच्छांहि । जीभ पवित्र होइ जस भणतां, श्रवण पवित्र होय सांभलतां ॥ १५ ॥
(ढाल २-जी.) ऋषि पूंजे कीयो ते कडं, सांभलज्यो सहु कोइरे।आजने काल करे कुण एहवो, पण अत्मोदन होइरे ॥ ऋषि०॥१६॥ चालीस उपवास कीधा पहिला. आठ अंतिम चोवीहाररे। मासखमण कीधा बेमुनिवर, वीसवीसने वाररे । ऋषि०॥ ॥ १७॥ मासूखमण पइतालीस कीधा, सोल कीधा सोल वाररे । चउद्र चउद चउदवारज कीधा, तेर तेर कर्या साररे
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॥ ऋषि० ।। १८ ।। पर बार बारह बार कीधा, दस दस चोवीस वाररे । बसें पंचास अठ्ठाइ कीधी, मनसुं वेगसुं धाररे ॥ ऋषि० । १९ । छठे कीधा वलि सित्तर दिन लगें, पारणे आहार छासरे । बार बरस लगें बिगड़ न लीधी, ऋषि पुनाने साबासरे || ऋषि० ।। २० ॥ वरस पंच लगी वस्त्र न उठ्यो, सह्यो परीसह सीतरे । साडा पंच वरस सीम आडो, सुतो नही स विदीतरे ।। ऋषि० ।। २१ ।। अभिग्रह वेली लीधो एहवो, चीटी लिखि तीहां एमरे । चार जणे पूजा करी पहिलां, घी विहरावे सुप्रेमरे || ऋषि० ।। २२ ।। तो पूंजो ऋषिथी वहो - 'रावे, नहीतर जावजीवनाइ सरे । ते अभिग्रह जे रस फलीउ, श्रीसंघनी पहुंती हुसरे || ऋषि० || २३ || अहमदावादी संघ ( नरोडे, वांदवा गयो परभातरे । गुरुने वांदी संघ सकळते, हृदय थयो रळीआतरे || ऋषि० ॥ २४ ॥ तिज अ
'फूला गमनादे, (जीवी 'रजिलदे च्याररे । पूजा करी वादी विहराव्यो, - सृजतो (घी) सुविचार || ऋषि० ।। २५ ।। मोटो (लाभ) थयो श्राविकाने, टाल्यो तिहां अंतरायरे । इण चिह्नने मनवंछित वस्तुनो, अंतराइ नहीं थायरे ॥ ऋषि० ।। २६ ॥ वली धना अणगार तणो तप कीधो नव मासी सामरे । तेह साहिबार अट्ठाइ उपवास, च्यार अठ्ठम च्यारनीमरे ॥ ऋषि० ॥ २७ ॥ हमासी सीम अभिग्रह कीधा, कोइ फलीउं उपवास च्याररे । उपवास सोले फल्यो, कोइ, ए तपनो अधिकाररे ।। ऋषि० ।। २८ ।। छठ्ठ अट्टम आकरा तप कीधा,
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सापि पेज वली जेहरे। तेह तणी वात कहुं अंते, कहेतां नावेछेहरे ॥ ऋषि० ॥ २९ ॥ २८ अठावीस वरस लगी तप कीधा, ते सुघला कह्या एमरे । आगल वलि करस्य सषि) (पंजो, ते आणस्ये तेमरे ॥ ऋषि० ॥ ३० ॥
(ढाल ३-जो.) कषि पंजरोज मुनिवर वंदूं, मानुभाव मुनिसर सोहेरे । करेत साकरों भवियण, जण प्रतिबूजवे मन मोहेरे ॥ऋषिक ॥३१॥ धन कुली कणबी जाणिये, बाप गोरी ते पण धन्नरे। धन धनबाई कूखमां, ऊपनो एह रतनरे । ऋषिः ॥ ३२॥ धन विगळचंद्रसूरि जिणे, दीक्षा, दीधी निज हाथरे । धन श्रीज्यचंद्र, गच्छधणी, जसु साधु रहे एह साथरे ॥ ऋषि०॥ ३३॥ भान ते तपसी एहवो, पूजा कृषि सरिसो नहीं दीसेरे।। तेहनें वांदतां विहरावतां, हरखे हीयडो हीसेरे ऋषि०॥३४॥ एक वइरागी एहवा, श्रीपासचंद गच्छमांहि सदाइरे । गुरु गिरुआ गछमांहि,श्रीपासचंदररि पून्याइरे॥ऋषि० ॥ ३५ ॥ संवत सोल अठाणुये, श्रवण पंचमी अजुवाइरे । रास) भण्यो रलीयामणो, राणी समयसुदर (गुण गाइरे ॥ ऋषि० ॥३६॥
कुल तप उपवास ११३२३. इति महातपस्वी श्रीपूंजामुनिरासः श्रीखरतरगच्छीयविद्वद्वर्यश्रीसकलचंद्रोपाध्यायविनेयवाचनाचार्यश्रीसमयसुंदरगणिना कृत: संशोधितश्च श्रीमन्नागपुरीयवृहत्तपागच्छाधिराजयुगप्रवरसकलागमरहस्यवेदिविश्ववंद्यानवद्यविद्याविशारदश्रीभ्रातृचंद्रसूरीश्वरशिष्यमुनिसागरचंद्रेण स्वपरकल्याणाय ॥
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसूरिग्रन्थमाला पुस्तक-३९. श्रीमन्नागपुरीयवृहत्तपागच्छीयसकलागमरहस्यवेदिश्रीजैनाचार्यवर्य
श्रीसमरचंद्रसूरीश्वरविरचितःश्रीउववाईप्रथमउपांगसूत्रमाथी उधृतःश्रीसाधुगुणरससमुच्चय-रास.
संशोधकः-जैनाचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसूरिशिष्यमुनिसागरचंद्रः
(वस्तु छंद.) रिसह जिणवर (२) पाय पणमेवि, तित्थनाथ गुण गाइशुं ।अविचळ चित्त पढमे उवंगें। तासु शीष गुण वर्णव्या, उववाई आगम सुचेंगें । जहठियवाई जाति कुल । बल रूवाइ संपुन्न, संभळि गुण जसु मन रमे, नरनारी ते धन्न ॥१॥
(चोपाई-छंद.) तेणे काळे तेणे समें, चोथे आरे दुःसुमसुसमें । वर्ष केतला थाकत जिशे, ए अधिकार जाणजो तिशें ॥२॥ अंग देश मांहि चंपापुरी, रिद्धादिक बहु गुण विस्तरी । श्रेणिक सुत तिहां कोणिकराय, राजतणा लख्खणगुण ठाय ।। ३ ।। सम्यग दृष्टी अति गुणवंत, जसु मन रमे सदा भगवंत । वर्द्धमान जिन तीरथराज, विचरत भवियण सारे काज ॥४॥ कोणिक राय
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तणो छे एक, प्रवृत्तिवादको अति मुविवेक ! भगवंतनी नित कहे प्रवृत्ति, नरपति कीधी तेहनी वृत्ति ॥५॥ एक लाख ने आठ हजार, दिन प्रतें सोनाना दीनार । जिनेवर जेणे थानके रहे, ते थानक आवीनें कहे ॥६॥ मुणी कोणिक तस पासें वाच, जाणे सामी दीठा साच । वेठा ऊठी उभा थाय, सात, आठ पग स्हामा जाय ।। ७॥ पगथी ऊतारी पावडी, विलंबति न करे एका घडी। उत्तरासंग सहित करजोड, शीष चडावी पूरे कोड ॥ ८॥ नमोत्थुणं कहे नित एम, चंपा नगरी आव्या जेम । पूरणभद्र चेईयें रहे, वधामणिओ आवी कहे ॥९॥ नमस्कार पूरव जिम करी, वधामणी आपे मुद धरी । साढा. बार लाख दीनार, मनशुं आणी हर्ष अपार ॥१०॥ चतुरंग दलशुं वंदण जाय, हियडामांहि आनंद थाय । वांदे जिणवर मुणिवर सोय, तमु गुण इणि परे वर्णक होय ॥११॥ श्रमण तपस्वी ने भगवंत, ऐश्वर्यादिक गुण संजुत्त । उपसर्गादिक अचलित जेय, महावीर सुर कहियो तेह ॥ १२ ॥ धर्मतणी जिने कीधी आदि, तित्थंकर संघ चविह सादि । ठवण थई तिह सयंसंबुद्ध, आपणथी शुद्ध मारग लद्ध ॥ १३ ॥ पुरुषोत्तम जे पुरुष प्रधान, पुरुषसिंह मूरि गुणे उपमान । कमळमांहि पुंडरिक महवंत, उज्वल गुणे जिणवर विहरंत ॥ १४ ॥ गंधहस्तिने गंधे न रहें, गयवर अपर जिणेसर कहे । ए ऊपम श्रीवीरजिन लहे, दुर्भिक्षादिक पाछां वहे ॥१५॥ सर्व जीवने अभय दातार, भय सघळा कीधा परिहार । श्रुत ज्ञान
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रूप घे नयण, पंथ दिखाडे सूधो वयण ॥ १६ ॥ मार्ग देखाडी शरणो होय, भावोपद्रव टाले सोय । जीवितव्यदायक श्रीवीर, मरणनिवारे साहसधीर ॥ १७ ॥ बूडत भवजले द्वीप समान, त्राण शरण सुखदायक मान । गति सुखकारण आश्रव ठाम, अने पइ आधार मुठाम ॥१८॥ धर्म चकवइ अतिशय करी, शिव पहुचाडे भव ऊद्धरी । ज्ञान दंसण किही नव खले, लोकालोक देखे निरमले ॥१९॥ राग दोष जीता तिणे जाण, भवजल तर्या तारक गुणठाण । स्वयंबुद्ध प्रतिबोधे अन्न, सर्व जाण सर्व दरसी धन्न ।। २० ॥ ज्ञान विशेषा बोधक जाण, दर्शन सामान्य मन आण । शिक निरुपद्रव अचल स्वभाव, अरुजं रोग रहित मन भाव ॥२१॥ अनंत ज्ञान जिह तेय अनंत, क्षय नव पामे तेहथी जंतु । बाधा रहित अपीडा जोई, वळी पाछो नव आवे कोई ॥२२॥ एहवो सिद्धि गती जसु नाम, पहुचणहारा तेणे ठाम । सप्त हस्त तनु समचोरंस, संठाणं इम लहे प्रसंस ॥ २३ ॥ वयररिसहनाराच संघेण, जल्ल मल कलंक सेद रहिएण। अकठि जल्ल कठिन मल भेद, कलंक दुष्ट तिलकादि प्रसेद ॥ २४ ॥ कृष्ण रत्न अथ कीट विशेष, भ्रमर कजल मसि निद्ध असेस । पयाहिणावतओ वल्या केस, मस्तक दीठे टले किलेस ॥२५॥ केस अंत भूमीके संत, दाडिम कुसुम सरिस सोहंत । पर्वत शिखर सरिस आकार, मस्तक निवड सुलक्षण धार ॥२६॥ मस्तक दीसे छत्राकार, अष्टमि चंद्र ललाट विचार । पूनिम
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१७१ शशि जीतो वयणेय, प्रमाण जुय सोहे सवणेय ॥ २७ ॥ गल्ल सुमांसल अतियें सुचंग, भुमुह धनुष सम कृष्ण सुरंग । नयण पुंडरीय विकसित जेम, कमल दलोपम लोचन तेम २८॥ सरल रत्तंग नासिका कही, अधरें विद्रुम ओपम लही। दंत जीस्या दाडिमनी कली, अविरल अखंड दंत ते वळी ॥ २९ ॥ एक दंत श्रेणि जिम जाण, अंतर रहित अनेक वखाण । कनक तपाव्यु तालुय जीह, रत्तुप्पल दल सरसी लीह ॥३० ।। दाढी मूछ अवस्थित रहें, वृद्धि विना अति शोभा लहे । ग्रीवा चौरंगुला प्रमाण, त्रिवली युत वर शंख समाण ॥३१॥हणुआ भण्या मद्दल सरीस, अतिहि समांशल शोभे ईश । सिंह, सहूल वृषभ जिम खंध, पुर अग्रल भुज दंड सु संध ॥ ३२ ॥ कलाचिका दोई वृत्ताकार, नागराज तनु बाहु विचार । रत्तुष्पल सम प्रभुना पाणि, अतिसुकुमाल समांसछ जाणि ॥ ३३॥ लक्षण सहित अछिद्रत वळी, कोमल लांबी तिह अंगली । नखुआ ताम्रवर्ण पातळा, निद्ध मनोहर अति. वाटुळा ॥ ३४ ॥ चंद्रसूर चामर आकार, छत्र जेहवो भूविविध प्रकार । दशा सत्थि शंख चक्राकार, करे हवी रेखा भंडार ॥३५॥ कनक शिला सम हृदय विशाल, श्रीवच्छांकित गत जंजाल । कंडू रोग रहित प्रभु देह, सहस अट्ठोत्तर लक्षण गेह ॥३६ ॥ नहु दीसे पूठे पांसुली, ऊतरती उतरती वळी । संगत सुंदर पासा कह्या, मात्रा युत भवियण सद्दह्या ।। ३७ ।। रोमराय अतिसरल सुचंग, निद्धा देय मुहुम अलिरंग । पंखी
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इस जिम पूरी कुक्षि, सदा झसोदर जिन प्रत्यक्ष ॥ ३८ ॥ गंगा वर्त्तक ओम गंभीर, नाभियें दीसे साहस धीर । दर्पण मुसल वज्र जिम कडी, त्रिवली सहित मझि संकुडी ॥ ३९ ॥ सिंह तुरय जिम अतिवाटुली, दीसे प्रभुनी कडि पातळी । अश्व पर गुह्य प्रदेश, निरुपलेप अप्पान असेस ॥ ४० ॥ शरीर वायु अनुकूली सदा, गुद मूल नहु लागे एकदा | पंखी तणी परि जरे आहार, उदरादिक पंखि सुभर सुधार ॥ ४१ ॥ ऐरावण गजनी परि गती, चाले संघ चतुर्विध पती । शाथल गज मुंडा जारसी, गूढ जानु जंघ मृग सारसी ॥ ४२ ॥ घूंटी गूढ संठित सुसिलठ्ठ, कर्म्मतणी परि पगसु पट्ट । चडती ऊतरती अंगुली, ओन्नत नख आरक्तावळी || ४३ ॥ पग तल रतुप्पल मृदु जेम, विस्तर गुण कहि सकिये केम । तिणि संखेपि करी गुण कला, गुरु मुख उबवाईथी लह्या ॥ ४४ ॥ नभ कागल सवि सायर मसी, मेरु लेखनि सुरगुरु ओल्हसी। जिन गुण लखतां न लहे पार, श्रीसमरचंद्र इम करे. विचार ॥ ४५ ॥
( ढाल - धन धन स लहीये. )
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अतिशय तमु चोत्रीस हिव, कहीस्युं श्रुत आधार | गृह वासें तह केवळे, सहज सुर कृत विचारीयेरे. जिणवर स लहीये ॥ ४६ ॥ सहजे सोवन वण्णोरे, अतिशय गुण नितु दीपतां | वंदे ते जण धण्णोरे, जिणवर स लहीये ।। (आंचली) मात कुक्षि जब अवर्या, दीख न लोधी ए जाम | अतिशय च्यारि सभावना,
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देहें सोहए तामरे ॥ जिणवर० ॥ ४७॥ देहें रोग न मल नही, मस रुधिर गोखीर । तेह थकी अति ऊजला, नमीये श्री जिन वीरोरे ॥ जिणवर० ॥४८॥ मास ऊसास कमल थकी, अधिको गंधे सुगंध । आहार निहार करे जया न देखे नयणे न गंधोरे । जिणबर०॥४९॥ च्यारि जनम लगि ए कहा, हिव केवलना त्रीस । समथ केस नन अवठिया, न पामे, वृद्धि विस्वा वीसोरे ॥ जिणवर० ॥५०॥ धर्म चक्र झलके पुरा, छन् त्रय आकास । चामर दुनि सिंहासणुं, सपाय पीढ नभ पासेंरे । जिणवर० ।। ५१ ॥ इंद्र ध्वज आगल चलें, अशोके वृक्ष प्रभु पूंठ । मुकुट ठाम भा मंडलं, करम खपावण ऊठेरे ॥ जिणवर० ॥५२॥ भूमि भाग होवे समो, दर्पण चंद्रबिंब जेम । कंटक, विमुख हुए ऋतु, विपरीत सुखकर तेमोरे । जिणवर० ॥ ५३॥ योजन मंडल कुसुम भर, जानु प्रमाण करंत । शब्दादिक रूडा हवे, पाडुआ तेह न करतेरे ॥ जिणवर०॥ ५४॥ पासि द सुर चामर धरे, वाणी योजन सीम । भाषा भाखे प्रभु जया, अद्ध मागद्धी ए नीमोरे ॥ जिणवर० ॥ ५५॥ आपापणी भाषा सहु, पीछे जिणवर ऊत्त । मण विर आरिय णारिया, गणे हित कारण चित्तेरे। जिणवर०॥ ५६ ॥ देव जेय मछर करा, सुणे धम्म उपशंत । नर तिरि वैरति परिहरी, सुणि धर्म उपशमवंतोरे ॥ जिणवर० ॥५७॥ बाद भावे आव्या मती, वांदे मूकी अभिमान । करि अभिमान बंदे नही, वादे भंग निदानोरे । जिणवर० ॥५८ ॥ विचरे
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जिणवर जिह जिहां, साते इति समंति। जोयण पंचवीसे
:
लगे, इत्यादिक नहं हुंतिरे ।। जिणवर० ।। ५९ ।। मिरगी चक दु अप्प परं, अदृष्टि अने अतिदृष्टि । दुरमिक्ष दुःकाल नहु, व्याधिति थाय अष्रे || जिणवर० ।। ६० ।। इम चोत्रीश अतिशय का, चोथा अंग मझार । ते बिवरी ईहां दाखिया, श्रीसमरचंद्र संभाररे ॥ जिणवर० ॥ ६१ ॥
( ढाल - गीता छंदनी. चालती अने त्रुटकमां. ) प्रभु चोत्रीसरे अतिशय सहित सदा परे । भाषा गुणरे पणतीस जेय सवि हित करे । ते कहेस्पुरे सूत्रसाखि शास्त्र - तरें, जे सुणतांरे जंतुतणा भव भय हरें । संस्कृत प्राकृत सौरसेनी, पैशाची नें मागधी अपभ्रंसी गद्य पद्ये, भाखे बारह ए सुधी । ए प्रथम अतिशय केरो, बीजो हीव हीवढे धरो; उदार ऊंचे स्वरें बोले, हंस क्रोंच पन खरो ॥ ६२ ॥ हिवं त्रीजोरे उपचारें युत जे कह्यो, ग्रामीणरे नहिय वचन ते सह्यो । गंभीररे ऊंडो घन जिम गाजतो, अनुनादेरे प्रति स्व करिय विराजतो । दक्षिणं कहतां सरल वचनं, वळी ओपनीत रागता; मालव कौशिक आदि राग, सप्तमं तिणि युक्तता । ए सात अतिशय शब्द आश्रित / अपर अरथ थकी गणो; अडवीस संभलि हिये धरि करी, वीर जिन गुण संथुणो ॥ ६३ || पद अक्षर रे थोडा अर्थ विच्छर घणो, पूरवापररे वचन विरोध ते मन भणो । शिष्टत्वंरे जूअ जूअ अरथ वचन तणो, चतुराईरे प्रभुनी जाणे जण घणो । संदेह टाळी वचन बोले,
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१७५ सुणत संशय नहुं हुवे; अपरवादी वचन दूषण, देईने न परा भवे । हरे श्रोता तणो मानस, अनेथि चित्त न लागए; देश काले उचित वयणं, कहें बहु जण आगए ॥ ६४॥ जीवादि करे वस्तु विचार जया करे, तसु मलतोरे अरथ स्वरूप ति ऊचरे। अतिविस्तररे असंबद्ध नहु वागरें, पद आगलरे पद सापेक्षति चित्त घरे । अहारमो अभिजात वचनं, वात रूप करी कहे; अतिनिद्ध मधुरं सर्पि साकर, जेम मवियण मनि ग्रहें । उपदेश देतां मर्म किहनो, कहे नही जिणवर कया; अरय धर्मे सहित वचनं, सदहें तसु हुइ सया ।। ६५॥ बावीसमरे वस्तु प्रकाशन जब करे, तसु. निरणयरे करतां कहें अति विस्तरें । पर निंदोरे निज उतकरष वचनि नही, मध्यस्थेरे बोलत 'लाघा लहे, सही। शब्द कारक काल लिंगे, शुद्ध वचन समाचरें; श्रोतार प्रभुनो धर्म सुणतां, चित्तमांहि चमत्करें। व्याख्यान अति उतावलं नही, नही अतिहि सासतो; रोगाइ दूषण सर्व रहियत, सुणत भ्रम विणु भासतो ॥६६॥ हिवं त्रीसमरे जेय पदारथ वर्णवें, स्वरूपथीरे तेहज विशेषे संक्रमे। वचनांतररे अपेक्षा उचित विशेषतां, अक्षर पदरे जुय जुय करी प्रभु भाखतां । सत्व साहस सहित वचनं, सदा जिनवर वागरे; धर्म कहेतां श्रम न पामे, हिये अति उच्छाह धरें। जीवादि वस्तु प्रकाश करतां, अविच्छिन्न वचन कहें; पांत्रीस अतिशय सहित वचनं, श्रीसमरचंद्र नितु सरहे ॥ ६७ ॥
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( ढाल-कुमर सुबाहुनी.) सोहम गणहर पंचमोजी, जंबू तेहनो सीस । प्रणमी पंजली जोडी करीजी, पूछे मनह जगीस ॥ ६८॥ जिणे सर किणि परि को विहार, महावीर गणधार जिणेसर । केहवो तमु परिवार जिणेसर०-(ए आंकणी.) ॥६९ ॥ वीर जिणेसर दीपताजी, चउद सहस मुनि साथ । सहस छत्रीसे महासतीजी, शिवपुर कीधो साथ ॥ जिणेसर० ॥ ७० ॥ ग्रामानुग्रामें विहरतांजी, सुखें सुखेंरे विहार । भविक जीव प्रतिबोधताजी, अंगदेशमांहि सार ॥ जिणेसर० ॥ ॥७१॥ चंपा. नगरी बाहीरेंजी, पूर्णभद्र वण ठाण । अशोक वृक्ष पुढवी सिलाजी, तिहां आव्या वर्धमाण ॥ जिणेसर० ॥ ७२ ।। आदि जिणंदे थापियाजी, कोटतणा रखबाल । उग्रकुलीना ते कह्याजी, साधुति गुण सुविशाल ।। जिणेसर० ॥ ७३ ।। पूज्य ठाम ते भोग-कुलजी, मित्र ठाम राजान । (ज्ञाते ते वंश इखागनाजी, अथवा नागे ते मान । जिणेसर० ॥ ७४॥ कौरव कुरु वंशे ऊपनाजी, क्षत्रीय बीज उवण्ण। भट ते चारहडा सुण्याजी, जोधा झूझे रण्ण ॥ जिणेसर० ॥७५ ॥ सेनापति सेना धणीजी, शास्त्र पाठक पसत्थार । इब्भ ते लच्छी जसु धरेंजी, गज सुमतुंग वित्थार । जिणेसर० ॥ ७६॥ शेठ ते लच्छी वाचस्युंजी, जसु घर रहें भंडार। एवमाई उत्तम जणाजी, छांडी अथिर संसार । जिणेसर० ॥ ७७ ॥ उत्तम कुल बल रूवयाजी, विणय विण्णाण संजुत्त । वर्ण सुवर्णेचोरि
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डाजी, कांति सुभागें जुत्त ।। जिणेसर० ॥ ७८ ॥ शिष्य प्रतें सदगुरे कडोजी, इणिपरि को विहार ! श्रीसमरचंद्र इम ऊचरेजी, अरिहंतनो आचार ॥ जिणेसर०॥७९॥
(ढाल-मुनिवर गोचरी वळ्यानी.) बहु धण धन्न परिवार जे, मूंकी संयम ली/रे । निव गुणथी अधिका छता, वीर जिन सरगूं कीधूरे ॥ ८० ॥ एरिस मुनिवर नितु नमो, पाले संयम भारूरे। रिद्धि छती जिणे परिहरी, पाम्यो भवचो पारूरे ॥ एरिस० ॥८१ ॥ *किंपाक फळ सम जाणीया, पंचय इंद्रियना भोगरे । जल बुद्ध बुद केस,पाणियं, चंचल जीवीय जोगरे।। एरिस० ॥ ८२ ॥ पुत्र कलत्र सवि अथिर छे, नहीको सगो संसाररे। आपण स्वारथे सहु मिल्यो, अध्रुव अनित्य परिवारूरे ॥ एरिस०॥ .६३ ॥ संझ समे जीम पंखीया, तरुवर आवी मिलंतरे । प्रह विकसें दिस जूजूई, तिम ए कुटुंब चलंतरे ॥ एरिस० ॥ ८४ ॥ जिम रज लागीय लूगडे, झटकी अलगी करंतरे । सयणादिक सवि परिहरी, धन त्यजी संयम धरंतरे ॥ एरिस० ॥ ८ ॥ नव वैरागी मुनिवरा, दीक्षित पक्षने मासरे । दो मास जाव इबार ए, मास वस्सिऽनेक बासरे । एरिस० ॥ ८६ ॥ संयम तपस्युं संजुया; आतमा भावत विचरेरे । दिवस निसा वेरागस्युं, झीलत कर्म, सवि दीखरेरे ॥ एरिस०॥ ८७ ॥ मति) नाणी श्रुत नाणिया, एक एक वळी मोहीणाणीरे । इक मणः । नाणी केवली, साधु ते उत्तम प्राणीरे ॥ एरिस० ॥ ८८॥
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इक मन तनु बल क्य बली, सरापदान समरथारे । प्रसाद करे ततकाल ते, छूटा मुनिवर घरथारे ॥ एरिस० ॥ ८९ ।। तप बल शंक, ते औषधी, तनु मल औषधी जाणोरे । लघु वडनीति ते औषधी, सोवन धातु वखाणोरे ।। एरिस० ॥ ॥९० ॥ हस्तादिक फरसण करे, रोग दोष सवि जायेंगे। आमोसहि सबओसही, नख रोमादिक थायेरे ।। एरिसः॥ ९१ ॥ अथ मन बलिया जाणीये, मनस्युं किमें न डोलेरे। करिय प्रतिज्ञा निरवहें, वचने कूड न बोलेरे ॥ एरिस० ॥ ९२ ॥ इम वय काय बली हिवं, भूख त्रषाई न लीपेरे। सम्यग जाणे ज्ञान ते, समकितथी नवि छीपेरे ।। एरिस० ॥ ९३॥ चारित्र बल हिव मन धरो, सुमति गुपति सवि पाळेरे । परीसह बलि नहु गंजीये, अतीचार सवि टालेरे ॥ एरिस० ॥९५ ॥ बहु गुणवंता ए मुणिवरू, लोजे अहनिशि नामरे । श्रीपासचंद्रमरिभावस्यु,समरचंद्र करे प्रणामरे॥एरिस० ॥१६॥
(ढाल-गीता छंदनी. चालती तथा त्रुटकनी देशीमां.)
कोठबुद्धिरे धान कुठारें जीम रहें, सूत्रारथरे ज्ञाव जीव. हृदि निरवहें । धारणा गुणरे बीजेबुद्धि तरुनी परें, लघु बीजथीरे मोटो वड जिम विस्तरेंः-विस्तरे वड जिम बुद्धि जेहनी, बीज (प) वड जिम बुद्धियां । वक्तार मुख वनसपति हूंती, कुसुम फल अति सुद्धया । सूत्तत्थ निरमल बुद्धि वस्त्रे, धरे पद अणुसारया । एक पदथी सहस आदिक, करें तसु अनुसारया
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॥९७ ॥ संभिन्नसोयरे एकठ शबद मिल्या सही, ते जुअजुअरे बुद्धि विनाणें कहे लही । एकेकेंरे इंद्रिय पंचे जाणए, रूपादिकरे स्रोत्रादिक सुबखाणए ।।-वख्खाण ए तप योग लब्धियें, इकेकें पंचय कह्या । खीरासवा. ध जेम मधुरा, वचन भवियण सद्दया । मधुआसवा मधु जेम मीठां, सर्व दोष समावए । सप्पि-घृत जिम आप उ.परि, सुणत नेह ऊपावए ॥९८॥ हिव अखीणरे महाणसी लद्धि जाणीयें। आप न जिमेरे तांलगि छेह न पावियें ॥-पाविये छेह न तप विशेषे, ऋजुमती मणनाणिया । सामन्नथी दोइ जलहि द्वीप दु, साढि सन्नी प्राणिगया। तसु मनतणा पर्याय जाणे, विउलमती विशेषथी। अढीय अंगुल न्यून अधिको, भेद जाण्यो मूत्रथी ॥१९॥ वैक्रिय लदिरे रूप करे मन माणिया, दुई चारण रे जंघा विजा जाणिया । अटम तपरे करतां जंघा लद्धि लही, तेरम दीरे इकओतपातें जायें सही॥-सहिय जावे नंदि सरवर, विधाचारण एकणे; ओतपात विद्यापन्नति आदें, भेद छ? कह्यो तिणें। आकाशगामी एक मुनिवर, विद्या अथ लेवादिणा । रत्नादिकनी करे वुट्टी, नमुं तवसी अणुदिणा ॥१०॥
(वस्तु छन्द) आठ ठामें आठ ठामें चेईय जिणबिंब, सासयनामें ते कह्या, चिहुं प्रकार जई तेय वंदे । ऋषभ चंद्राणण धारिखेण, वर्धमान मनने आनंदें । चिटुं ठामें अस्सासई, प्रतिमा वंदे साधु । जंघा विद्याचारणा, भगवति अंगे लाध ॥१०१॥
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दूहा:
लबधि - पात्र ए श्रुति कह्या, तेहना वंदु पाय । श्रीसम - रचंद्र इण परि कहे, लहीये मुगति उपाय || १०२ ॥ ( ढाळ - दोढी )
कणगावलिं तप एक, मुणिवर तप तपे, एक आदि सोलह लगीए; करे ओपवास ते धन्य, पारणे विगईय, पहिली ओली जां लगीए । एक बरस पंच मास, बारह दिवस ए, बीजी ओली निवगतीए; त्रीजी वल्ल चणादि, लेप न लागए, चउथी आंबिल ए विगती ।। १०३॥ चिहुं ओली पंचवास, नव मसवाडाए, दिन अदार सवि मीलताए, इम एकावलि केई, मुनिवर तप करे, कर्म्मराशी ऊवीलताए । सिंहनिकीलत केई, लहुडओ सिंह जीम, चालत पाछो देखीये ए; एक दु एक वळी त्रिण्णि, दो चउ आदें ए, नव ओपवास विशेषिये ए ॥ १०४॥ इम अनुक्रम, उतार, एकणि ओलीएं, मास छ दिन सत्तय भण्या ए; वर्ष. दु दिन अडवीस, च्यारे ओलीए, पाली आराधक सुण्या ए । पारणे विगई सर्व्व, बीजीए, नीवी लेप रहित कहीए; त्रीजी चोथी हेव, आंबिल पारणा, दिन तेत्रीस विगत लही ॥ १०५ ॥ एकसो अधिक बत्रीस, पारण वासर, सेष ते ओपवासें मिल्याए; वडे सिंह ओपवास, सोल लगी चडे, भवना भय सघला टल्याए । पहिली ओली अढार, मास अढार दिन, चिहुं छ वरस दु मासडाए; दिवस बार वडसिंह, लहुअतणि परि, तप पारण करें ते वडाए । १०६ ॥ प्रतिमा
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भद्र, महभद्र, वहे यतीसर, च्यारि पहर काओसग करेंए; पूरव दक्षिण देह, पश्चिम उत्तर, चिहु दिशि जाम चउ ओढ धरेंए । लहुभद्र दो अहोराति, महभद्र चउदिन, चिहुं पासें ऊरध रहे ए; आठ पहर एक पास, इम चउ वासर, छठ दसम करि निरवहे ए ॥१०७॥ सर्वतभद्र दसदीह, दस दिशि काउसग, बावीसम करि पालिये ए; अथवा लघु मह भेद, दिण पण'इत्तरि । भक्त पान लहु टालिये ए । दिण पंचवीस आहार, “पांचे ओलीए, एवं चउगुण लघु गणोंए । एक सो छन्नू दीह, तपदिन पारणा, एगुणपन्नासही जाणो ए॥१०८॥ एकथी सत्त लगी सीम, सातय पंतीये, एहवी चोगुण मुनि करें ए; महभद्र प्रतिमा तेय, तप दिन छन्नूय, एकसो अधिक ते मन धरें ए । ओगुणपन्ना दीह, पारण सह मिली, आठमास पंच वासराए; एटले ओली एक, एह चतुर्गुणी, मास बत्रीस वीस दिन खरा ए ॥१०९॥ तप अंबिल वर्धमान, चउथ प्रथम करी, पारण आंबिल इम हुवें ए: चउथ अंबिल वळी दोई चउथ ति अंबिल, जां सत आंबिल संभवे ए। एकसो तिह उपवास, अंबिल पंच सहस, एहवा तपिया दीयें ए; भिख्खूप्रतिमा बार, श्रुत विधि जे वहे, तसु नामें दुह छंदियें ए॥ ११० ॥ पहिली एकज. मास, दूजी दो त्रीजी, त्रिणि जाव सत्त मासिया ए। मास इक इक दाति, अन्न पान तणी, एवं सत्त सत्त भासिया ए । अट्ठमी सत्त अहोराति, तप चउथ करें, पान रहित बाहिर रहें ए। चिता सूए एक पासि, अथवा
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तप दिनि, बेठा ध्यान सु निरवहें ए ॥१११॥ नवमी सत्त दिन मान, पूरवनी परें, ए विशेष अधिको भण्यो ए.। ऊकडू ऊत्यो काठ, दंड तणी परें. बेसे सूए ति इम सुण्यो ए ।। दसमी इणि परि जाणी, एह विशेष तिहां, गोदोहिकासने बेसीये ए। आंबां गोटी जेम, कूबडो बाजोट, काहें तेम निवेसिये ए ॥११२॥ अग्यारमी अहोराति, छ? ते तप करी, प्रलंब भुज ऊभो रही ए। बारमी ते एक राति, अष्टम तप धरी, रहे बाहिर काउसग्ग ग्रहीए.॥धृति संघयण संजुत्त, प्रतिमा पडिवजे,सुहगुरुनी अनुमति लहीए। सुद्ध आराधे जेय, ओहिमण केवल,मझइक लहे विगती कहीए ॥११३।। रयणावलि तप किद्ध. काली देवीयें, कणगावली सुकालीयें ए। सिंघनिक्रीडीत लहूय, कीधो महाकाली, श्रेणिक नारी संभालिये ए॥ कण्हा राणी सिंह, महानिक्रीडित, कोधो आतम उधों ए। देवसुकण्हा नारि, सत्तम सत्तमिया, प्रतिमाकरि भवजल तो ए ॥११४।। अहम अहमियाय, नवमी नवमीया, दसमी दसमीया करी ए । च्यारे प्रतिमा एह, अंतगड अंगे ए, कीधी कीरति विस्तरी ए ॥ महाकन्हा लघु सर्व, भद्रवडो भद्र, सर्वत वीर कण्हा वह्यो ए। भद्रोत्तरपतिमा जेह, रामकण्हा वही, अष्ठम अंगें इम लह्योए ॥११॥ पिओसेण कण्हा कीध, तप मुगतावली, पूरी इणी परि मन रलीए । महसेण कण्हा किद्ध, अंबिल वद्धमाण, वानी देखाडी वळी ए ॥ भिख्खू पडिमावार, गुणरत्नादिक, संवच्छर खंदिक को ए । एव माइ चरितानु, जाणो जहठिये,
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ग्रंथें वर्णक ईह को ए ॥११६॥ पूजनीक ते साधु, जिन भाखित तप, बारभेद निरतो करेए । संसार समुद्र मझारि, ते प्रवहणसरिखा, पर तारे आपण तरे ए । तप करवा असमत्थ, ते पण धन गिणो, जे एहवा गुण मनधरे ए। श्रीपासचंद्र सूरिंद, तासु पटोधर, श्रीसमरचंद्र इम ऊचरे ए ॥११७॥ " ( ढाल-हिवदुलहो नरभव पामीरे.आदिश्वरनी विनंतीनो राग.)
सत्तम सत्तमिया ओलीरे, ल्ये अन्न उदकस्युं बोली। पहिला सातदिन एक दत्तीरे, अन्न पानतणी ए सत्ती ॥११८।। बीजा सत्तदिन दोइ दोईरे, इम सात सता लगि जोई। दिन ओगुणपन्ना लहियारे, तप करतां जिणवर कहिया ॥११९॥ अहम अट्टमीया ईम ईमरे, चउसठ दिन अंबिल जीम । इम नव नव दिन एकासीरे, दस दस करतां सो थासी ॥१२०॥ भद्रोत्तर प्रतिमा वहतारे, पंच छ सत अह नव करता। उपवास पंति इम पंचरे, उतक्रमि छे नही खलखंच॥१२१॥ तप दिण इक सो पणहत्तरीरे, पारणा दिवस पंचवीस । एहवा मुनिगुण नितु थरतारे, पूगे मनतणीय जगीस ॥१२२।। अथवा पंचादि इग्यारेरे, ओतक्रमि सत पंति विचारें। तप दिन त्रिणसे वळी बाणूरे, ओगुणपन्ना पारणा जाणूं ॥१२३॥ प्रतिमा लघुनीतिह केरीरे, लघु बडी कही न अनेरी । ते द्रव्य भाव विहुं भेदें रे, ए करतां भवदुह छेदे ॥१२४॥ विणुं जीमें जे पडिवजतारे, ते सात दिवस नहु करतां । लघुनीति जिमे छह, दीहारे, न करें लघुपतिमा लीहा ॥१२५ ॥ इम बडी
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. पडीम अट्ठ सातेंरे, अणजिमे जिमें अहोरातें । उपवासें मा न करेरे, ग्राम बाहिर ग्रीषम शशरे ।। १२६ ॥ नरतिरीय देवना कीधारे, उपसर्ग सहीनें सीधा । तमु नामे भवजल तरियेंरे, आठ कर्मतणो खय करीये ॥। १२७ ।। जव मध्य चंद्र हिव प्रतिमारे, जे करे साधु ते नितमा । सुद पडिवाथी प्रारंभीरे, एक कवल आदि आरंभी ॥ १२८ ॥ पूनम दिनि पनरह लीजेरे, किण्ह पडिवे पन्नरह कीजे । अमावस कवलह एकूंरे, एक मास करे नर छेकू ॥ १२९ ॥ वज्र मध्य पमिति धारोरे, किण्ड पडिवे पर विचारो । अम्मावसि पडिवे इकेकोरे, पूनम दिनि पनर विवेको ।। १३० ।। जब मध्यति जव जिम धूलरे, वज्र जाडो विहुं छेहि मूळ । जब बिहु पासे आणि आळोरे, वज्र मध्ये कुशलंकाळो ॥ १३१ ॥ तिणे अवसर जाति संपन्नारे, एक मात पक्षि पडिपुन्ना कुल पिता पक्षि जे पूरारे, बलवंत संघयणे सूरा ॥ १३२ ॥ रूप सुंदर जसु आकारोरे, गुरु भगति विनय गुण धारो । विनाण सप्पि सवि जाणेंरे, दंसण समत्त वखाणे ॥ १३३ ॥ चारित्त समति संजुत्तोरे, लज्जा अपवाद विरत्तो । लाघव द्रव्य भावें जोवोरे, द्रव्य औषधि अल्पगुण होवो ॥ १३४ ॥ भाव गाव त्रिणि विरहीयारे, ए गुण संपुन सवि कहिया । एक ओयंसी मन धीरारे, तेयंसी सुकंति सरीरा ॥ १३५ ॥ सौभाग्य गुणे वच्चंसारे, दिशि विदिशि प्रसिद्ध जसंसा | क्रोध मान माया लोभ जीप्यारे, इंद्रिय विषे नहु लीप्यां ॥
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१३६॥ जीत निद्रा परिसह ठेल्यारे, जीवीत आशा नहु भेल्या । नहु बीहें मरणे आवेरे, भय रहित तेय सुकहावे ॥ १३७.॥ बत्ति महव्वय करीय प्रधानारे, गुण दया आदि शुभ ध्याना । पिंडविशुद्धि आदि गुण करणंरे, महाबतह आदि गुण चरणं ॥ १३८ । हिवं एहना भेद विचारोरे, पिंड तणा भेद चउ धारो। द्रव्य क्षेत्र कालने भारे, पिंड शुद्ध जाणि ते ल्यावे ॥१३९ ।। समिति इरियादिक पंचयरे, बार भावन नही खलखंच । अणिच असरण संसाररे, एकत्व अन्यत्र संभार ॥१४० ॥ असुच्चि) आश्रव वलि संवररे, हृदि भावे नवमी निरजर । हिव लोक सभावो बोहीरे, करे धर्म प्रकासक सोही ॥१४१ ॥ बारह भावन हियडे धरस्येरे, संसार सायर ते तरस्यें । प्रतिमा बारह जे वहस्यरे, ते सकल करम दल दहस्ये ॥ १४२ ॥ पंच इंद्रिय विषया रुंधेरे, पडी लेहण पंचवीश सूधे । चित्त करे गुपत त्रिहुं गुपतारे, अभिग्रह चउपाले जुगता ॥ १४३ ।। व्रत पंच श्रमण धर्मादसविधरे, क्रोध मान माया लोभ चउविध । ए जीता तप बार भेदेंरे, जिण कीधे भव दुह छेदे ॥१४४ ॥ अणसण ईतर जावजीवरे, नयकारसि आदि भव सीमह । नर कवल बत्रीस आहाररे, रमणी अडवीसें सारें ॥ १४५ ॥ एह मांहि ऊण जे लीजेरे, ऊणोद्री एम कहीजे । भिख्खा चरिया अन्न सूधोरे, रस त्याग दही घृत दूध ॥ १४६॥ काय कलेस लुंचादि करीयेंरे, संलीनता तनु संबरिये । ए बाह्य छ भेद अभ्यंतररे, आलोचे
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पाप निरंतर ॥१४७ ॥ गुरु साखे विनय करीजेरे, आयरियादिक लाह लीजे। वेयावच्च ओवलुभ दीजेरे, बालादिक शिव साधीजे ॥ १४८॥ सज्झाय पंच विध साधेरे, वायण पुछण श्रुत वाधे । परिवर्तनने अणुपेहारे, धर्मकथा पंच एहा ॥१४९॥ ध्यान आरत रौद्र ते वरजेरे, धर्म सुक्ल करी कर्म तर्जे। विओसग्ग द्रव्यने भावेरे, तप बार भेद कहावे ॥ १५० ॥ संयम ते सतरह भेदेरे, पंच थावर विगल पणंदि । ए नवनी करुणा पालेरे, आरंभ अजीवनो टाले ॥१५१॥ पेहा उवेहा पमजणरे, पारिठा तणु मण वयणं । ए संयम सत्य ते साचोरे, सुचभाव सौच तिह राचो ॥१५२॥ अकिंचन परिग्रह वरजेरे, ब्रह्मचर्य पाली गुण अरजे । वेयावच दस विध करतारे, दबविध ब्रह्म सुद्धति धरता ॥१५३॥ नाण दंसण चरण आराधेरे, तप बार भेद ते साधे । क्रोधादिक उदए नाणेरे एक सय चाली भेद जाणे ॥ १५४ ॥ निग्रह अनाचार षेधेरे, निश्चय तत निरणय वेदे । अथ अणुहाण अंगीकीधुरे, ते अवश्य करी फळ लीधुं ॥ १८५ ॥ अज्जव मायोदय टालेरे, मद्दव मान पाछो वाले । लाघव क्रिया विषे उद्यमरे, खति मुत्ति क्रोध लोभ निरुद्यम ॥१५६ ॥ पन्नति आदें विद्यारे, मंत्र हरिणेगमेसीना वेद्या। सिद्धांत अहव चउ वेदरे, ब्रह्म मुभ अणुठाण भेद ॥१५७॥ नय न्याय निगम आखडियारे, सत्य सम्यग वादें चडीया । सुच द्रव्य भाव लेप रहियारे, निरवध आचरण सहिया ।।१५८॥
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निग्रह आदि गुण जुगतारे, जस कीरति करे जण भगता। देहि गौरवर्ण सुभ बुद्धिरे, तक्सी पामे लघु सिद्धी ।। १५९ ॥ सोही सवि जिय हितकारीरे, अथ अकलुष हृदयाधारी । नीयाण रहित यम पालेरे, ऊतावल धस मस टाले ॥१६०॥ संयमथी मन नवि टालेरे, अवहिले सपद पाले । अप्रति लेसा मन वित्तीरे, कोई तोली न सके सत्ती ॥ १६१ ॥ शुद्ध, चारित्रस्युं अतिरातारे, दंता गुरु विनये भगता । प्रवचन आगल फरि विचरेरे, मूत्रने अनुसारें संचरें ॥ १६२ ।। बहु जणनें मुनि आयरियारे, अत्थदायक बहु गुण भरीया । उवज्झाया श्रुत दातारूरे, भव जलनिधि पार उतारू ॥ १६३॥ जे सेव करे तसु जीवारे, मोह पडल नाश गुणि दीवा । अह भव सागर जिन द्वीपरे, बूडत राखे नहु छीपे ॥१६४॥ त्राणं अशुमथी राखेरे, शरणं शुभ कारण भाखे । गति सेवा योग पइठारे, आश्रय जाणी पासे बेठा ॥ १६५ ॥ इच्चाइय गुण बहु दीठारे, श्रीसाधुतणा श्रुति मीठा । हिवं ज्ञान तणा गुण कहीयेंरे, विहुं मिल्ये मोक्ष गति लहीयें ॥ १६६॥ जैन सूत्र अरथ मन आणेरे, पर वादिना मत जाणे । परिचय स्व पखस्युं अति घणरे, ते करें कुंजर जिम न लवण ।। १६७ ॥ एम तपनें गुणि जे सूररे, ते नमीये आणंद पूर । एम भणे श्री समरचंद्र सूरिरे, सवि पातक जाये दूरि ॥१६८॥ ( ढाल-धन्यासिरीः-रिसह जिणपमुह चउवीस जिणवंदिये एदेशी
प्रश्न उत्तर नहु कोई छिद्द ग्रहें, रयण करंडनी ओपमा
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मुनि लहे । त्रिभुवन हट्ट जिम सर्व लाभे सहु, ईहित अरथना दायका मुनि बहु ।। १६९ ।। परमत मर्दका वादि अंगंजिया, द्वादश अंगधर गणि पीटिकि रंजीया । एकठा ऊचरे - सर्व अक्षर करी, सर्वजण बूझणी भाष भाखे खरी ॥ १७० ॥ अजिण हुंता जिण सारिखा जाणिवा, जिन जिम वागरे एम मन आणिवा । संयमें तप करी आतमा भावए, हीयडले अह निशें प्रभु चरण ध्यावए ।। १७२ ।। श्रमण भगवंतना सीसनी संपया, समति पण गुपति तिय सहीय इंद्रिय जया । अमम ममता विना अने अकिंचणा, ग्रंथि विण ब्राह्य धन धान सवि वज्जणा ॥ १७३ ॥ सोक संसार अथ जेण मुनि छेदीयो, कर्म्म अहय तणो कंचूओ भेदीयो । कंसने पात्र जिम उदक लागे नही, संख जेम रंग विण मुनिवरा सवि कही ॥१७४॥ जीव जेम अप्रतिहत गति जाणिये, कुतित्थि पडणीय प्रति जुति सुवखाणी । गगन जिम गाम नगरादिके अणिस्सिया, वायु जिम अप्रतिबद्ध प्रसंसिया || १७५ || सरस नव उदक जिम 'हियडले निर्मला, पुख्खर पत्र जिम रहित कदम जला । कूर्म्म जिम गोपव्या पंचय इंदिया, पंखि जिम सजन धन मूंकिया विदिया || १७६ ।। खडगीय जीवना श्रृंग जिम एकला, रागनें दोस जसु उपशम्या तेतला । भारंडपंखि जिम अतिहिं अप मत्तया, गज जिम सूर रागादि बलि नहु जिया ॥। १७७ ॥ वृषभ वलवंत जिम भार निर्वाहया, कर्युय पञ्चखखाण पाळे पंच महव्वया । सिंह जिम हरण आदेहि नहु गंजीये, परी -
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षह आदि मृग साधु नहु भंजीये ॥ १७८ ॥ मिलें उवसग्ग मंदर जिम धीरूए, हर्ष शोकादि बुद्धि जेम गंभीरूए । ताप परिणाम विण शशि जिम सोमए, करें प्रकाश दिनकर जिम व्योमए ॥ १७९ ॥ कनक जिम निरमळ सुंदर रूवए, पुढवि जिम दुह सुहे सरिस सरूवए । सहुत हुतवह जिम तेज देदीपए, ज्ञान बलि करे प्रकाश बहु दीपए ॥ १८० ॥ निर्मलं नयन सुख करें आयंस ए, असह मन लेश्य मुनि उत्तम वंश ए । तेय भगवंतने नहीय प्रतिबंधए, द्रव्य क्षेत्रादिके नहीय संबंधए॥ १८१ ॥ द्रव्य सचिन अचित्तने मीसए, खेत्र ग्रामादिके नहीय जगीसए । काल समयादि ओसप्पिणिस्सप्पिणी, भाव कोहाइसु नहीय आशा घणी ॥ १८२ ॥ नगर पण रात एक रात गामें रहें, वरिषा टाली प्रतिमाधर निरवहें । थेर कप्पोय नव कलपीयें विवहरें, एक चउमासनो आठ एक एक करे ॥ १८३ ॥ वासीय चंदन सम मन तमु रहें, सत्रुने मित्र सम चित्त ते निरवहें । लेष्टुने कंचण लेखवे सम करी, दुख्खने सुख्ख सम वृत्ति हियडे धरी ॥१८४ ॥ नहीय प्रतिबंध हिंसादिन रोइए; रमतने हेत हस्त्यादिक नपोईयें । वस्त्र पडकूल अथ वळीय कप्पासियें, उग्रहोपग्रहे नहिय मन वासियें ॥ १८५ ॥ उग्रह वसति वाजोटने पाटियां, उपग्रहं बहुविधे दंदक आदियां । ममत तमु नहिय इच्छा तणा राजिया, विचरे ए तिहां तिहां गारव वजिया ॥१८६॥ सर्व सिद्धांतना पारगा ते कह्या, पवित्र अंतरंग मन सुद्धिथी में लह्या। वायु जिम
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अप्रति बद्ध विचरे सया, उभय ग्रंथि विना तेय नमुं सया ॥ १८७ ॥ एणि गुणे साधु श्रीवीर जिनवर तणा, अछे छदम, स्थ पण जेह मांहि गुण घणा । भावस्युं श्रीसमरचंद्र तमु पय संथवे, सुणिय भवियण नमो ऊलट नव नवे ॥१८८॥
(ढाल अढईयानी. ) - एहवा वंदो साधु, टाले भव आवाध । दुष्कर तप कर 'ए, बार भेद मन धर ए ॥ १८९॥ अभ्यंतर छह भेद, कर्म करे विच्छेद । समद्रष्टि लहए, बाह्य ते सवि कहए ॥१९० ।।
(फाग. दिन सकल मनोहर. ना जेवी देशीमां.)
अणसण बेहु भेदें कह्यु ईतर जावत जीव, अनेक प्रकार ईतर तणा नवकारसिथी सीम । परेरिस पुरिमढ नीवीय आंबिलने एकठाण, एकासण उपवासथी छम्मासी ईतर जाण ॥ १९१ ॥ पादपगमनति तरु जिम भोजननो पञ्चख्खाण, भेद दु जावत जीवना जाणे जे हुइ जाण । प्रथम भेद दुष्कर अछे कोई करें ति धीर, अंग उपांग न चालवे जेम निर्जीव सरीर ॥ १९२॥ (काव्य. प्रभु पासजो ताहरु नाम मीठं, ना जेवो देशीमां.)
इम पढम संघयणनो धणीय पाले, सुद्ध भावनास्युं सविकरम टालें । व्याघातिमं निर्व्याघाति सींह, दवानल जलंते नहु धरे बीह ॥ १९३॥ कवल त्रीस नरने आहारो, अडवीस तिय कीव चउवीस धारो। अठ्ठ कवल आहार ते अल्प जाणो, सोलें अर्ध चउवीस पोणो वखाणो ॥ १९४ ॥
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( अढईओ . )
एकत्रीस कवलें जोइ, किंचित ऊणो होइ । ऊणोदर कहीए, अतिलोलप नही ।। ९९५ ।। एणि परि वत्थने पत्त, सुद्धग्रहे एकचित्त । प्रीतकरथी लहीए, अलप घरे सहीए || १९६ ।।
( फाग. )
कलह करे नहु कोइस्युं झंझा वादि विशेष, द्रव्य क्षेत्र काल भाव अभिग्रह करेरे अशेष । भिक्षाचरि ते जाणवी द्रव्यत जे द्रव्य लेइ, खेत्रत ग्राम ग्रामांतरि कालत मध्यान्हे देइ ।। १९७ ।। भाव स्त्री अथ नरवर हसत रुत गीतगान, भूषण विण अथ तिणि युत बालक थेर जुवान | ऊपाड्यो भोजन भणी भाजनथी ओखित्त, एहवो अशनादिक ग्रहे ओखििखत्त चर ते उत्त ॥ १९८ ॥
( काव्य . ) हिवं निखित्तचर ते श्रुति कहीजे, जे पाक भाजन थकी अन्न लीजें | ऊपाडीय मूक्यो तेहथकी अनेथि, ओखििखत्त निखित्त ते चरय ग्रंथि ॥ १९९ ॥ हिवं भोजन पात्रथी जे ओपाडवो, ते निख्खित्त उखित्त सूत्रिं चावो । एम गृहस्थि निज अरथें मुनिवर करेवो, अभिग्रह मन धर्म्म ध्याने धरेवो ॥ २०० || (अढइओ) परीसतां दे आहार, दोष न थाये लगार । झिमाण चर ए, लेतां मन ठरए || || २०१ ॥ शीतल करवा काज, गाल्युं पटादि जिनराज वळी भाजन घर ए, साहर माण ऊचरए || २०२ ।।
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( फाग. )
भेटणी आवी अनेrथी ते उपनित कहे ई, ओसार्यो देई द्रव्यथी अपनीत पासे ठवे । उपनित अपनीत ढोवणी थानांतर ते मूंकी, योग मिलें मुनि ते ग्रहे, अभिग्रह न पडे मूक ।। २०३ ।। अथवा ओपनीत दायक करीय प्रसंसा जास, निंदित अपनीत जाणवुं, अन्नादिक तसु आस । ओपनीत अपनीत वे जिहां लख्खण शीतल खार, पाणी अपनीत ओपनीत खार शीतल सुविचार ॥ २०४ ॥
( काव्य. .)
इम अवणीय ओवणीय चरग कहिया, अन्ने खरडीया हत्थ संसठ्ठ गाहया । असंसह हत्थाये नहु लेप लागो, करी अभिग्रहा साधुनें मागि लागो || २०५ || जकाई वस्तु देखें तेणे हुस्यें खरड्यो, हत्थाइ ते लीजस्ये नहु अ खरड्यो । अन्नात चरगा उलखाण पाखें, सजनादिकनें घरें मुगुरु साख || २०६ || एम अभिग्रह पाले साधु जेय, जिन शासन मांहि वंदनीय तेह। मूरीसरपवर श्रीपासचंद, तसु सीस एम भणे श्रीसमरचंद्र ॥ २०७ ॥
( ढाल - मारवणी देसी . )
हिव मुंनचर मुनिवर जे भाख्या, अणबोल्या जिन दाख्यारे । दृष्टि देखी ल्ये आहारू, सूझत करिय विचारूरे | २०८ || वंदो वंदो तिनके पाएरे, साधु सुगुरु एणि गुण नितु समरत ; हीयडे हरख न मारे || बंदु० ॥ २०९ ॥
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(द्रुपद.) दृष्टलाभ दृष्टिये देख आहारू, अथवा पूरव परिचित्तरे । गृहीय तासु घर आहार ग्रहीस्य, अदृष्ट एहथी वितर तरे ।। वंदो वंदो० ॥ २१० ॥ पुट लाभ गृहिय पूछस्य, स्युं लेस्यो ते भाखोरे । तो तमु घर मागीने लेस्यु, अपुट लाभ अणदाख्योरे ॥ वंदो० ॥२११॥ भिक्षा लाभ भीखारीनी परि, तुछ अवज्ञा भावेंरे । देस्य अभिक्षा लाभ मुणो हिव, घणो आदरस्युं आवेरै ॥ वंदो० ॥ २१२ ॥ अन्न ग्लान जे सीतल विहरे, ओदनादिक जे वासीरे । अभिग्रह सहित कठोल विना पण, जोज्यो हिये विमासीरे ॥ वंदो० ॥ २१३ ॥ दायकथकी आसन्नो जे अन्न, ओपनीतं ते कहीयेरे। परिमित पिंड अरध पूपादिक, दायक हाथें लहीयेरे ॥वंदो॥ २१४ ॥ सुद्धेषण शंकादिक रहियत, अथवा व्यंजन पाखेरे। कूरादिक अन्न ते संख्यास्युं, एक दत्ति जिन दाखेरे ॥ वंदो० . ॥२१५॥ नीवी करे मुनिसर केई, विगई सघली तरजेरे। गले बिंदु घृत दूध तणुं जिह, प्रणीत आहार ते वर0 रे ॥ वंदो०॥२१६॥आंबिल ओदन ओडद आदिक जिह, पाणिमांह जमीजेरे। ओसामण गत सीथ जिमे जे, अन्न अवर नहु लीजेरे ॥ वंदो० ॥ २१७॥ अरसाहार हिंगादिक वजित, विरस/ते धान पुराणोरे। अंत ते अल्प मूल वल्लादिक, पंतति भोजनावसाणोरे ॥ वंदो० ॥२१८।। लूहाशर स्वभावें लूखो तुछ ते अलप असारूरे । भिख्खाचरी अनें रसच्चाओ, कर
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पहुतां भव पारूरे ॥वंदो०॥ २१९ ॥ काय कलेश, ते अनेक प्रकारे, काउसग्ग कर रहेतारे । औकडू आसण रात दिवस पण, प्रतिमा बार ते वहतारे ॥ वंदो० ॥ २२० ॥ सिंहासण ऊपर बेसीने, भूमि ऊपर पग ठावेरे । पछे सिंहासण परहु करावे, आपण तेम रहावेंरे ॥ वंदो० ॥२२१ ॥ पाट पीढ भुई ऊपर पहेलं, हुए ते ऊपर बेसेरे । तेय निसेजाऽऽसनिक कहीजे, विण आसण नहु बेसेरे ॥ वंदो०॥ २२२ ।। दंडायतक दंड जिम लांबा, सुए अभिग्रहकारीरे। ऊत्या काष्ट जेम पानहि शिर, भूमि अवर अंग वारीरे ॥ वंदो० ॥ २२३ ॥ आतपन उष्ण अने शीतल, मूतां बेठा ऊभारे। त्रिविध उक्कोस मध्यम जघन्यत, नव विध जघन्य ते उभारे ॥वंदो०॥ २२४ ॥ मूतां अधोमुखी उत्कृष्टी, एक पासु आडे मध्यमरे । उत्तान शायि जघन्न इम बेठा, गोदोहि ओकूडू मध्यमरे ॥ वंदो० ॥ २२५ ।। पर्यकासन जघन्य कहीजें, ऊभां करि जिम सुंडारे । एक पग ऊभां बेहुं पगऊभां, गुरुआ ल्ये गुण उडारे ।। वंदो० ॥ २२६ ॥ अवाओड चीवर विण अहनिश रहे, अंगे खर जिम खणियेरे । थूक न नाखे नख रोमादिक, सोभा वर्जक भणीयेरे ॥ वंदो० ॥ २२७ ॥ सर्व विभूषा तननी दाले, काय कलेस ते भाखेरे। इंद्रिय कसाय जोग विवित्तासण, सेवणा भेद चउ दाखेरे ॥ वंदो० ॥ २२८ ॥ संलीनता एम चिहुं प्रकारें, प्रथम इंद्रियनी जोवोरे । स्रोत्र इंद्रियनो विष रुंधवो, राग दोष विण होवोरे ॥वंदो०॥२२९॥
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एवं घ्राण रसण चख्खु फरसण, संलीनता करे एहनीरे । एवं क्रोध मान माया लोभ, निरोध विफलता तेहनीरे ॥ वंदो० ॥ २३० ।। योग त्रिविध मन वचन कायना, संलीनता तसु करीयेरे । अकुशल मननुं रुंधन करीने, कुशल उदीरणे तरियेरे । वंदो० ॥२३१॥ एवं वचन पाडुआ वरजे, रूडा बोलें साहुरे । सुसमाहित कर पाय कूर्म जिम, काय संलीनता आहुरे ।। वंदो० ॥ २३२ ॥ स्त्री पसु पंढग रहित सझासन, सेवे मुनिवर एसारे । आराम उद्यान सभा देवकुल, प्रव हाट वखारित जेसारे ॥ वंदो० ॥ २३३ ।। एहवें थानके प्रामुक एषणी, बाजोट पाटिओ सिझारे। संथारो पडिहारु मागी, रहेति मुनि नमणिझारे ॥ बंदो० ॥ २३४ ॥ एम छह भेद बाह्य तप निरतो, करे तेय धन धनरे। श्रीसमरचंद्र तसु करे प्रसंसा, प्रणमे मुनि अनुदिन्नरे ॥वंदो०॥२३६॥
( ढाल-श्रीरागः-अरणीक मुनिवर चाल्या गोचरी.) .
अभ्यंतर, तप, हवें कहीजें, अतिक्रम आदिक लागारे। गुरु समीप आलोयण लीजे, प्रायच्छित्त पाप ते अलगारे । २३६॥ धन ते मुनिवर करे निरंतर, सूधो भाव ते आणीरे। तेह तणा छह भेद वखाणे, वर्धमान एक नाणीरे ॥ धन० ॥ २३७।। (पूज्य ते ऋषिवर) विनय वेयावच अने सझायं, झाण विओसग्ग एहारे। विचार एहना हवें कहीजे, प्रायश्चित्त दस न संदेहारे ॥ धन० ॥ २३८ । आलोयण पडिकमण तदुभय, विवेग विओसग्ग पंचरे । तब छेदारिह मूल अण
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वडप, पारंचिय न खलखंचरे ॥धन० ॥२३९॥ निज अपराध मुगुरुने साखें, आलोवे शल्य काढीरे । भाव ओलखी गुरु कहें तुझें छूटा, बोले वाचा ताढीरे ॥ धन० ॥ २४० ॥ पडिकमिवाने योगे जाणी, गुरु तमु प्रति ईम भाखेरे। मिथ्यादुःकृत धो तुझे मुनिवर, अरिहंत सिद्धनी साखेंरे । धन० ॥ २४१ ॥ एम आलोवणने पडिकमणं, विवेगारिहति विचारोरे । अमुद्ध अन्नादिक लीधोरे जाणी, परिठवणं तसुधारोरे ॥धन०॥२४२॥ विओसग्ग ते काओसग कहीजे, तप नीवी आदिक दीजेरे। छेदारिह दिन पंच दशादिक, महाव्रत्ति लहुडो कीजेरे ॥धन० ॥२४२॥ मूलारिह ते मूलथकी व्रत, नवी वारे ओचरावेरे । तप व्रत योगथको जे दलिया, अणवठ्ठप्प कहावेरे ॥ धन० ॥२४३॥ अतीचारने पास पहुंचीयें, तप करी तेय विचारोरे । बारह वरस लगी मरयादा, पारंचिय ते धारोरे ॥धन० ॥२४४ ॥ विणय सात विध नाणदंसण वलि, चारित्त मणवईकायारे । लोगुवयारविणय अभ्यंतर, तप साहु मन भायारे । धन० ।। २४५ ॥ नाणं विणयना पंच पयारा, मति सुय ओहि मणनाणोरे । केवल नाण अधीश जे एहना, तेहनो विनय वखाणोरे ॥ धन० २४६॥ सुस्मूसणा अणच्चासायण, 'दसणं बीहुंअ प्रकारेंरे । मुम्रपाना अनेक प्रकारा, कारक आपण तारेरे ॥ धन०॥ २४७ ।। गुर्वादिक आवें आसणथी, ऊठे ते अब्भुठारे। आसनाभिग्रहं गुरु मन केडे,म. आसण सजाणूरे॥धन०॥२४॥
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आसन प्रदानं बेसणों दीजें, सकार वस्त्रादिक कीजेंरे । अभ्युत्थानादिक सम्माणं, कितिकर्म वंदन कहीजेरे ॥ धन० ॥ २४९ ॥ अंजलि ते कर युग जोडीजे, आवत सनमुख जावेंरे । बेसें ता तमु सेवा करियें, जातां तसु पहुचावेरे ॥ धन० ॥ २५० ॥ अणच्चासायण विणय तेहना, भेद पेतालीस भाख्यारे । अणच्चासायण (नर) भत्ति बहुमाणं, वण्ण संजलणा दाख्यारे
धन० ।। २५१ ।। अरिहंत अरिहंतधम्म आयरिया, जब ज्झाया थेर पंचरे । कुल गण संघ किरिय संभोई, मत्याईक नाग पंचरे || धन० ॥ २५२ ॥ एक सामाचारी संभोगी, किरिया किरियाबादीरे । पनर भेद ए पनर भगतिना, पनर वणवणा आदीरे ॥ धन० ।। २५३ सामायिक छेदोपस्थापन, परिहार सुहुमसंपराएरे । यथाख्यात चारित पण भेदें, एहनो विनय कराए || धन० ॥ २५४ ॥ मण विणयाना भेद दु कहिया, अपसत्य अने पसत्थारे । अप्रसस्त निवर्तन द्वारे, प्रवर्तन तेय पसत्यारे ॥ धन० ।। २५५ अप्पसत्थ सावध प्रमुख ते, तेहना अनेक प्रकारारे। सावद्य सक्रिय सककस कडूअं, निटूर फरस विचारारे ॥ धन० ॥ २५६ ॥ अण्हय छेद भेद परितावण, उपद्रव कर वळी जेयरे । भूत प्राण उपघात करंजे, न करे मुनिवर तेयरे || धन० ||२७|| हिंसादिकस्युं जे मन वरतें, सावद्य तेय कहांएरे । कायिकादिक किरिया सहियं सक्रिय एणि परि भाएरे ॥ धन० ॥ ।। २५८ || कर्कशभाव सहित वली कडूउं, आपण पण नहु
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गमतोरे । निष्ठुर मार्दव वर्जित जाणो, फरस ते बहु जन दमतोरे धन ॥ २६९ ॥ असुभ कर्म लागे जे मनथी, हस्तादिक छेदकारीरे । भेद ते नाशादिक भाले करि, तापति परिताप धारीरे धन० ॥ २६० ॥ उपद्रव कर मारणांतिक वेदन, धन हरणादिक अथवारे । भूतोपघाती प्राण घातजे, टाले मनस्युं एहवारे धन० ॥ २६१ ॥ निरवद्यादिक पसत्थ जेय मन, ते करतां भव तरीयरे । एणिपरें वचन तणो बिहु भेदें, सघला भेदति करीयेरे धन० ॥ २६२ ॥ काय विणयना भेद दु भणिये, पसत्थेतर श्रुति कीधारे । अपसत्य काय विणय सत्त भेदें, अनाओत्तादिक लीधारे धन० ॥ २६३ ।। गमण ठाण बेसवो सुएवो, उल्लंघ पल्लंक करेरे । इंद्रिय सर्व काययोग प्रेरण, जयणा रहित ते लेवूरे धन० ॥ २६४ ॥ कादम आदिक जे अतिक्रमीयें, ते ओल्लंघण जाणोरे । वारवार पल्लंघण कहीये, काय व्यापार ते वखाणोरे धन० ॥२६५ ॥ पसत्थतणा सत्त एह पटंतर, जयणा सहित संभालोरे । लोगुपचारित सत्त प्रकारे, संलि अविनय टालोरे धन० ॥ २६६ ।। अभ्यास परछंदाणुवत्तियं, कझ हेतु कय किरियारे। अत्तगवेसण देस कालुण्णया, सघले अपडिलोम धरीयारे धन० ॥ २६७ ॥ अभ्यास वरती गुरु संगे रहीयें, गुरु छंदें चालीजेरे । ज्ञानादिकने काज अन्नादिक, गुरुआदिकने दीजेरे धन० ॥ २६८ ॥ एण गुरु मुझनें बहुश्रुत कीधो, अशनादिक हु आरे । कृतप्रतिकिरिय विनय एणिपरि,
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करें निरजरा थापोरे धन० ॥२६९ ॥ अत्तगवेसणा आरतियानी, आरति टालवी वांछेरे । देसकारुण अवसर ऊचितारथ, संपजावे ते पाछेरे धन० ॥ २७० ॥ अप्रतिलोमता सघले अरथे, आराध्य विषये जाणोरे । अनुकूलपणो विनय एम करतां, पामे उत्तम ठाणोरे धन० ॥२७१।। विनय सुगुरुने सांहमीय केरो, करे जेय मुनि भावेंरे । श्रीपासचंदसूरीसर सीसो, श्रीसमरचंद्र गुण गावेरे. धन० ॥ २७२ ॥
( ढाल-गोडी राग. ) अभ्यंतर तप. बीजो भेय, वेचावच्च करत भव छेय । (ए आकणी.) एसे बोलत श्रीजगदीश, निरजरपद पावत निशदिश अ० ॥ २७३ ॥ त्रीजो व्रत आराधत सोउ, सारथ विणा करत नरजोउं अ० । तप विण मुगति न पावत कोउ, अभ्यंतर विण सुद्धि न होउ॥ अभ्यंतरतप त्रीजोभेय ॥२७४॥
दश विध आयरिया उवझाय, सीस गिलाण तपस्विभाय । अ० थेरे साहाम्मिय कुल गण संघ, वेयावच्च करत साहुं संघ अ० ॥ २७५ ॥ आचारज जिहां पंच आचार, उवझाया ते श्रुतभंडार । अ० सीस ते नवदीक्षित अणगार, तवसी अष्टमादि आधार अ० ॥ २७६ ॥ थिवर त्रिविध श्रुत वय परयाय, साहम्मि साहु साहुणि समभाय । अ० कुल ते गच्छ तणो समुदाय, गण ते कुलकेरो समवाय अ० ॥२७७॥ गण समुदाय संघ बोलाय, अथ कुल चंद्र कौटिक गण आय । अ० दश विध एह पनर दसमंगि, भेदें साधु करत मन रंगि
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अ० ।। २७८ || अच्यंत बाल दुरबल ने गिलान्, वृद्ध क्षपक प्रवर्त्तक जान । अ० आचारिज उवझाय ने सीस, साधम्मिक तपसि गत रीस अ० ।। २७९ ।। कुल गण संघ चेईनें अर्थ, वेयावच्च करत स समर्थ । अ० कुल गण संघ अरथ पुव्वुत्त, चैत्य ते जिन प्रतिमा ये जुत्त अ० ।। २८० ॥ जिन प्रतिमा आगल श्री साधु, थव थुई मंगल करतां काध | अ० थव कहतां शक्रस्तव होइ, थुति एकादि सत्त लगि जोइ अ० || २८१ ॥ ण वेचावच्चि दोष न कोइ, जेय करें तसु बहु फल होइ अ० अनाण दंसण चारितनो लाह, जाणी मनस्युं करो उच्छाह अ० ॥ २८२ ॥ उत्तर झयण अछे छत्रीस, एह विचार छे ओगुणत्रीस । अ० सझाय वायण पुच्छण परियण, अणुप्पेह धर्म्मका गुण वट्टण अ० ॥ २८३ ॥ सझाय कह्यो जे पंच प्रकार, करे निरंतर श्रीअणगार । अ० श्रीपासचंद सूरीसर सीस, श्रीसमरचंद तसु नामे सीस
अ० ।। २८४ ॥
( दूहा० )
ध्यान आरत ने रौद्र बळी, धरम मुकल ए च्यार । तेहना भेद विचारीये, गुरु मुख निरता धार ।। २८५ ॥ प्रथम आरतना भेद चड, अण गमतानो योग । कइयें थास्यें एहनो, आतमथकी वियोग || २८६ ॥ गमतानो संयोग तमु, वंछे नही वियोग | शब्दादिक पंचयतणो, अणि इट्ठ काम भोग || २८७ || रोगाइय आवें कदा, चिंते हुयें विच्छेद |
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सेवित विषयतणो रखे, पामे निजथी भेद ॥ २८८ ।। लक्षण च्यार ते एहनां, कंदण करे आक्रंद । सोयण दीनपणुं करे, तिप्पण रुएति मंद ।। २८९ ॥ विलवणता विललाप कर, रौद्रह च्यार प्रकार । हिंसा मृषा चोरी करें, परिग्रह राग विचार ॥२९०।। लक्षण च्यार इहां सुणो, ओसण्ण बहु अन्नाण । आ मरणंतिक दोसचो, करे जेय अन्नाण ॥२९१ ॥ प्रायें अविरत भावथी, हिंसादिक चिहुं ठाण । वरतें एकण तेहने, उसन्न दोष नियाण ॥ २९२ ॥ हिंसादिक सघले रमे, जसु मन तमु बहु दोस । कुसमय वासित मति थकी, हिंसादिक बहु दोस ॥ २९३ ॥ धर्म बुद्धि अधर्म विषे, यागादिसु प्रवृत्ति । दोस अन्नाण अन्नाणथी, करें अन्नाणी एक चित्त ॥ २९४ ।। आ मरणंतिक दोष ते, करे मरण जां सीम । कालिय सौरिय आइ जिम, न को एके नीम ॥ २९५॥ आरति रौद्र ते छांडवा, हेते कह्या जगनाथ । छंडे मुनि दुई दुई वरे, धरम सुकल शिव साथ । २९६ ॥ भेद लक्षण आलंबणा, अनुप्रेक्षा ए च्यार । एक एक प्रति चउविध गणो, धरम ध्यान मुविचार ॥ २९७ ॥ प्रथम भेद आणाविचय, अवाय विवाग संठाण । विचय ते सघले जाणज्यो, अरथ लहे ते सुजाण ।। २९८ ॥ आणा ते जिन वचन तसु, विचय ते निरणय रूप । आज्ञा गुणनुं चिंतवण, एम त्रिहुं पदे शरूप ॥२९९ ॥ अपाय राग द्वेषादिथी, अनरथ ऊपजे जेय । विपाक कर्म फल चितवण, संठाण
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द्वीपादिक भेय ॥ ३०० ॥ लक्षण च्यार आणा रुई, निसग्ग रुई उवएस । रुचि श्रुतरुचि एणि ओलखें, पंडित धर्म असेस ॥३०१ ॥ नियुक्त्यादिक सद्दहण, आणारुचि ते जोई । निसरग तेय स्वभासथी, तत्वविर्षे मति होई ॥३०२ ।। उपदेसरुचि ते साधुनो, सुणि उपदेश श्रद्धान । सूत्ररुची सिद्धांत विण, हियडे न धरे ध्यान ॥ ३०३ ॥ धर्म ध्यान घर शिखर जे, चडतां लीये आलंब । विगले ते आलंबण, चडतां नहुं विलंब ॥ ३०४ ॥ वायण पुछण श्रुति तणी, परिवर्तन गुणे तेह । तुरियालंबन धरम कह, करतां सुणतां जेह ॥ ३०५ ॥ अनुप्रेक्षा मनि चिंतवण, अनित्य असरण एकत्त । वळी चउथी संसारनी, भावना भावे नित्त ॥३०६ ॥ सर्व अनित्य जगें अछे, खणि दीडं खिण नह । शरणनही को केहनें, मात पितादिक इठ ॥३०७ ॥ एकलो आव्यो जीवडो, जास्ये आपें एक । संसारे सहु सारथी, चिहुनो एह विवेक ।। ३०८ ॥ सुक्ल ध्यानना भेद चउ, अनें चउ प्रत्यवतार । भेद लक्षण आलंबणां, अणुपेहा संभार ॥ ३०९ ॥ पुहुत्त वियक सविचार गण, एगत्त वियक अविचार । सहुम किरीअ पडिवडिय, भेद ते हियडे धार । ३१० ॥ समुछिन्न क्रिया तुरिय, अनियट्टी संजुत्त । एहना भेद ते जाणस्यें, सुणस्य जिणवर उत्त ॥ ३११ ॥ आरत रौद्र दु परिहरी, धरम सुकल ध्यावंत। श्रीसमरचंद्र एणिपरि कहे, शिव मुख ते पावंत ॥ ३१२ ॥
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( ढाल-दोढी.) एक द्रव्याश्रित जेय, उतपातादिक, पराया या जूअ जूअ करीए । भेदें करें विकल्प, पूरवगतश्रुत, आलंबन नय अणुसरीए । तेय पृथक्त्ववितर्क, तह सविचारीय, अस्थथकी-व्यंजन विषे ए । व्यंजनथी वली अस्थ, मणवई काईय, फरतो फरतो एक परखेंए ॥ ३१३ ॥ तह एकत्व विर्तक, अविचारी बीय, भेद विना जे चिंतवें ए। उतपादादिक एक, मांहि अनेरो, पराया आलंबन तवें ए। तेहनो जेय वितर्क, पूरवगत श्रुत, आश्रित व्यंजन अरथनोए । बेहुंमांहि लेवु एक, ते अविचारत, अरथ व्यंजन मझ एकनोए ॥ ३१४ ॥ व्यंजनथी नहु अत्थ, अत्थ न व्यंजन, मन आदिक एकनो कह्योए । निरुद्ध वचन मन योग, अरध निरुद्ध काय, योगपणाथी क्रमि लह्योए । सहुम किरिय ते जोइ, अप्रतिपातीय, पडे नही ते भावथीए । प्रथम द्वितीय दोइ भेद, श्रुत केवलिने ए, त्रीजो जाणो इरियथीए । ३१५ ।। मुगति गमनने कालें, वधतें परिणामें, केवलिने ए जाणिय ए । कायादिक क्रिय छेद, सेलेसीकरणे, समुछिन्नकिरिय वखाणीयें ए॥ पाछो पडे न कोइ, चउथा भेदथी, केवल नाणी इह रहें ए। ध्यानतणो प्रारंभ, चउदमा थानथी, सिद्ध अनंता ए लहेए ॥ ३१६ ॥ एहना लक्षण च्यार विवेग विउसग्ग, अव्वह अस्संमोहया ए। विवेग देहथी जीव, जीवथी संयोगा, बाह्म अभ्यंतर करे जूआए ॥ विउसग्ग उपधि शरीर, त्याग करे सदा, नही अभि
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लाष तमु ऊपरें ए । देवादिक उपसर्ग, आवें भय नही, अव्यथन तिह मन ठरे ए ।। ३१७ || सुहम पदारथ कोइ देवादिक कर्यो, देखी मूढ पणो नही ए । ततखिण जाणे तेय देवादिक तणो, निरमाप्यो एहज सहीए ॥ अथ आलंबन च्यार, खंती मुतीय, अझ मद्दव एहना ए । खमा अनें निरलोभ, सरलपणुं मान, नही एह गुण तेहनाए ॥ ३९८ ॥ अनुप्रेक्षा छे च्यार, अव्वाया असुभा, अणुप्पेहा ये श्रुति भणी ए । अनंतवत्तिया तेय, विष्परिणामाणुप्पेहा, ए अनुक्रम गणीए ॥ पावह ठाण अढार, ते सेव्याथकी, अनरथ आगल ऊपजें ए । ए अपाय चिंतेई, असुभनी अणुपेहा, संसार असुभति जीपजे ए ॥ ३१९ ॥ अनंतवत्तिया एह भव संतति तणो, अंत नही कहें सामियाए । सर्व्व वस्तु जगि जेय, परिणाम पालटे, खण खण विप्परिणामियाए । संखेपें दोई झाण धरमसुकल तणा, भेद कह्या गुरुमुख सुणीए । ए ध्यावे जिन पास, बेठा मुनिवर, ते वंदूं भगतियें घणी ए ॥ ३२० ॥ छठ्ठो हिव विसग्ग, तप अभ्यंतर, द्रव्यभाव मुनिवर करें ए । द्रव्यत चिहुं प्रकार, देह गण ओवहीय, भत्त पाण छेह परिहरें ए ॥ शरीर ऊपर नहु राग, गछ असूधोए, छंडे अथ सूधो त्यजें ए । प्रतिमा प्रतिपन जेय, अथ जिनकल्पीय, एकाकी ते वन भजें ए || ३२१ ।। एणि परि उपधि सदोष, अशनादिक चउ, सदोषजाणीनें परिठवें ए । परीसह सहण समत्थ, अथ एणि भावें ए, उवही भात मरण ठवे ए; भावत त्रिहुं प्रकार, कसाय विउसरग,
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संसार करम ते जाणज्योए ! कसाय कोह माण माय, लोभ ते चोथो ए, छडे तेय वखाणज्यो ए ॥ ३२२॥ संसार ते च्यार प्रकार, नारक तियेच, मणुय देव जिणवर कह्या ए। ए चिहुँ गतिना हेतु, मिच्छत्तादिक, च्यार छंडेवा ऊवह्या ए॥ ज्ञानावरणी ऑदि, कर्म ते आठ ए, बंध हेतु जिण टालीये एं, ज्ञानतणो प्रत्यनीक, निन्हव आदें ए, एणि परि सवि संभालीये ऍ॥ ३२३ ॥ द्रव्य भाव विउसग्ग, एणि परि मुनिवर; बारह भेदें तप तपे ए। श्रीजिनवरने पास, अहंनिश बेठा ए, पूरव संचिय कर्म खपे ए॥ आचारांगी एक, एक द्वितय अंग, जाव इकारसे गणो एं। एक वाचन ये एक, पूछे वलीय, गणे एक अणुपेहिणो ए ॥ ३२४ ॥ कथा आखें वणी एक, एक विखेवणी, संवेयणी णिव्वेयणी ए । तत्वप्रते मन जेण, आणे श्रोतानो, मोहथी वालि आक्षेपणी ए॥ कुंमागथकी श्रोतार, पाछो वालिये, ते कहीये विखेवणों ए। मोक्ष सुख अभिलाष, सुणतां ऊपजे, ते जाणो संवेयणी ए॥ ३२५ ।। सुणतां थायें विरत्त, जेण संसारथी, ते भाखी नीव्वेयणी ए। कथा कहे च्यार कोई, ध्यान करे कोई, शिव सुख आराधन भणीए ॥ ऊरध ढींचण सोस, नीचो पण करी, ध्यान कोठारमा ऊमयाए। संयम' तप करी आत्म, भावत संचरे, रोग दोष विणं एक थया ए ॥ ३२६ । अभ्यंतर छ प्रकार, तप सूधो करें, भवसागर हेले तरे ए.। कथा ते चिह प्रकार,ऑक्षेपणिं आदें,संभलि भवियण संवर घरे ए|श्रीपासचंद्र
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२०६ मूरिंद, तप गच्छ नायक, युग प्रधा गुण नायकू ए। तासु पटोधर सीस, भणे श्रीसमरचंद्र, नमीये मुनि सुखदायकू ए ॥३२७॥
( ढाल-डाहरी. चालती अने त्रुटक जेवी देशीमां.) ____ हवें ए संसार समुद्रजिस्योरे, तरेय जे धीर सुजाण; समकित लहोय निरयामगोरे, संयम पोत समाण ॥:-सम्माण एह संसार सागर, देखी भव भय बीहना । जिह सलिल जम्मण जरा मरणं, प्रचूर दुःख छे एहना। गंभीर ऊंडो खुभित चंचल, जन्म आदिक जल जिहां । संयोग अने वियोग अति घण, अछे वंचित रंग तिहां ॥ ३२८॥ चिंताए सलिल प्रसरो जिहारे, बंध वध महाकल्लोल । करुण विललाप लोभ जिहारे, बहुल कल कलण एय बोल ।।-बोल ते अव्यक्त स्वरझुणि, फेण ते अपमानता। तीन खिसण रोग वेयण पराभव निभर्सता ॥ ज्ञानादि वरण कठोर कर्म ते सबलमांहे पत्थरा । पाणीय पूठो मरणनो, भय तरंग रंग ते दुस्तरा ॥३२९॥ पाताल कलस कसाय जाणोरे, भव लख्ख कलुस जल पुण्ण । अपरिमितइच्छा मति कलुष वायरे, तेहनो वेग अतितुण्ण ॥-वायें ऊपाड्यो नीर ऊंचो, उदक रज अंधकारु ए; वर फेण प्रचुर आशा पिवासा, धवल मोह विकारुए। मोह महावत्त भोग भममाण, गुप्फमाणति जल घणो । प्रमाद पण बहु दुइ स्वापद रख करे बीहामणो ॥ ३३० ॥ अण्णाण दक्ष झस कच्छभारे, अजित इंद्रिय मगर मच्छ । नाचतां तेणि जल खलभल्योरे, चंचल अस्थिर सच्छ, अस्थिर सदा जल समुद्र पक्षे माणस.
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जड भवजल कह्या । अरति भयह विषाद सोग, मिछत्त पर्वत सद्दया ॥ (पर्वत करी संकडो जलनिधि, उभय पक्षे जाणज्यो।) अनादि कर्म प्रवाह बंधण, राग आदि स चीकणो। तेणे तेय तरतां दोहेलो, चीखल्ल लोय लफसे घणो ॥ ३३१ ॥ नरय तिरि नर सुर गति गमणरे, वांकिय विपुल जल वेल । चिहुं दिशें अंत नहुं गति सरूपरे, दीह नहु पाम ए भेल।-नहु अंत आवें अछे विस्तर, रौद्र दरसण जसुअ छे । ते तरें सुनिवर संयम प्रवहण, लही तुरीय सुभट पछे ॥ धृति रज्जु बंधण सुदृढ निश्चल संवर कूवा थंभ ए । वैराग्य उत्सृत ज्ञान सित, पट जेय शिव घर थंभ ए ॥ ३३२ ॥
(दूहाः -) भवसागर दुत्तर तरे, संयम् प्रवहण साधु । श्रीसमरचंद्र तसु पयनमें, टालें भव आबाध ॥ ३३३॥ ( ढाल-राग धन्यासरो. उज्जलगिरिनभु नेमि० ए देशीमां.)
सीलें सहित प्रसस्त ध्यान तप, वाय पेर्योधर्म प्रवहण चालें। मुनिवर मुगति मंदिर प्रतें पुलिया,(ए आंकणी.)अनालसनें वस्तु निरणय द्रव्यनो । निरजर जयण करयाणयं घाले । मुनि०॥ ३३४॥ उपयोग नाण दंसण वय भरिया,मुनि०समणवर सत्थवाहा जिहां बेठा। हियडलामांहि गुण सिद्धना पेठा ।मुनि०॥ ३३५॥ श्रीजिनवर जे मारग कहियो, अकुडिल सिद्धपुर केरडो लहियो । मुनि० सुश्रुत समुचि शोभना भाख्या, प्रश्न जिन सुरूयडा मुनितणा दाख्या ॥ मुनि० ॥ ३३६ ॥
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२०८ शुभ जसु वांछा शुभ जसु सीसा, विधिहि विहारनी करण जगीसा। मुनिक गाम नगर एक पंच दिनमान, रहें ए सूद्धाश्रये जुगप्रधान || मुनि० ॥३३७॥ प्रतिमा प्रतिपन्न अथ जिनकल्पी, थेरकल्पी ते मास कल्पी । मुनि० इंद्रिय पंचना विषय जेणे जीता, सात भय टलिया थया वदीता ॥ मुनि०॥ ॥ ३३८ । सचित्त अचित्तनें मीस जे द्रव्य, राग रहिता ते न करें गर्व । मुनि० संयत संयमवंत जे विरता, हिंसादिकथी जेय निवरत्या ॥ मुनिः॥३३९ ॥ बाह्य अभ्यंतर परिग्रहें रहीया, मुत्ता तेय श्रीजिनवर कहिया। मुनि० अलपोपधि जसु जाणो लहुआ, अभिलाख रहित निरवकंख हुउआ ॥ मुनि० ॥ ३४०॥ साहु ते मोक्ष साधनथकी हुआ, उपशांत वृत्ति ते भाख्या निहुआ। मुनि० एहवा साधु निश्चल धर्म साधे, तमु गुण संभले हर्ष घण वाधे ॥ मुनि०॥ ३४१ ॥ जसु गुण संभलें आनंद पावं, अहनिश भावस्युं तमु गुण गावू । मुनि० श्रीपासचंद मूरिवर सुगुरु पसाइ, श्रीसमरचंद इम भणे बंदीये भाइ । मुनि० ॥ ३४२॥ (ढाल-राग. गोडी. लकडी. चालती तथा त्रुकटमां.)
चंपा वीरजिणेसरू, साधु तणे परिवारें । परिवरिया आव्या जया, चउविह सुर परिवारें ॥-परिवारस्यु परिवर्या आवें, वीर वंदेवा भणी । भवण वण जोयसी नायक, कल्प बारहना धणी ।। चउसठ मुरपति करें सेवा, विनय भाव हिये धरी। एटले चंपा नयरि, माहें, वात पसरी तेह खरी ।।
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३४३ || श्रृंगाटक त्रिक चउकि इहिं, चच्चर चउमुह पर्थे । ठाम ठाम बहुजण मळी, बात करें जिम ग्रंथें ॥ ग्रंथें अच्छे इम श्रमण भगवन महावीर समोसर्या | चंपापुरें पुण्ण भद्दे चेई में मुनिपरिवर्या ॥ संयमतपें आपणो आया, भावतां विचरें सही । महाफल नामें सुणतां, अभिगमणादिक । फल कही || ३४४ ॥ एणिभव परभव सुख होस्यें, मोक्ष तणां फल हिस्यां । एम जाणी उग्रादिका, आव्या ते परि कहिस्या || - परितेय कहीये सूत्र लहीये, केई बंदेवाभणी । पूजा सकार सम्माण भावें, केई कोऊहल गणी ॥ अणसुण्या वचन अह्मे सुणी, सुण्या निःसंकित हुस्यें | चारित्र लेस्यां श्रावक थास्यां, भाव जुअ जुअ मन वस्ये || ३४५ || केई जिन भगतियें करी, केई आचरणा जाणी । स्नानादिक करी नीकल्या, वंदवा उत्तम प्राणी ॥ -उत्तम हय गय केई चडिया, केई रथ शिविकादिकें | केई पाला बहु जणास्युं, परिवर्या गणधर वकें ॥ एम करी चंपा नयरिमांहिथी, नीकळी जिणवर जिहां । आवीय विनय करी बेसें, सांभलवा भावें तिहां ॥ ३४६ ॥ तेटले प्रवृत्तिवादक जई, कूणीय राय वधाव्या । जेहनो दरसण वांछता, तेहज भगवन आव्या ॥ - आव्या सुणी श्रीवीरजिणवर, ऊठी कहे नमोत्थूणं । पूरवनी परि रायकूणिक,
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रखे दीयें धामणं ॥ जगत गुरुस्युं प्रीत आणी, लाख साढावार ए । दीनार सोनातणा आपी, करे वळी सतकार ए ।। ३४७ ।। बलवादक तेडी पछे, सेनाना रखवालो ।
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आदेस उतावळो, थईनें सैन्य संभालो | -संभाल करीनें, पट्टहस्ती, श्रृंगारो हय गय रहा । योद्धार तह सुभद्रादि राणी, काज जूअ जूअ तसु रहा | आणी बाहिर सभा मंडप, जोतसा यात्रा भणी | कागमुह तिणे दिशें करज्यो, वेला नहु भाजे घणी || ३४८ || समरावो चंपापुरी, कचरादिक सवि टालो । मंचा माला घालज्यो, गूडी ध्वजा ऊछालो ॥ - ऊछालज्यो तुझे ध्वजा गयणे, हाट घर रंगावज्यो । घाट त्रिक चरक चच्चर, आदें फूल पगर भरावज्यो । धूप घटिका ठाम ठामे, ऊखेवी आवी कहो । जास्युं वंदवा कारण, वीरजिन मन ऊमयो || ३४९ ।। बलवादक सुणी हरखीओ, अंजलि सिरसि चडावे । आणायें वयणं ग्रही, हस्तिवादक तेडावें ॥ - तेडावे हस्ती तणो वादक, तेहने एम आईसइ । पट्टहस्ती सैन चउब्विह, शृंगारो राय जाइसिहं ॥ वीरजिन वंदवा हेतें, हस्तीवादक सांभली । हरख धरी सुणि वचन प्रभुनो, करे जोडी अंजली ॥ ३५० || गज तुर्यादिक वर्णकं, करतां विस्तर थाएं । तिणि संखेपें जाणिज्यो, चतुरंग दल समवाएं || - समवाएं हस्ती
हे शोभा, सीस मुकुट विराज ए । पट्ट सूत्रकेरां काने फूंबत देह पाखर छाजए । कनक दंतूसले जडिओ, गले भूषण सोह ए । ढाल नेजा छत्र चामर, सहित जण मण मोह ए ॥ ३५१ ॥ अश्वमुखे शिर चामरां, अपूरव ऊपरि पल्हाणं । मुखे आरिसा जलहळे, कंठे आभरण मंडाणं ॥ - मंडाण पाखर अतिअनोपम, रथ सवे घंटा जुआ । छत्र झय हथियार भरिया
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वृषभ धोरी संजुआ || शृंग वृत्ताकार जेहना सुवन खोलि जड्या सही । घूघरा घंटा कमल कंठें, राशि पट सूत्रह कही || ३५२ ।। सुभट सनाह ते पहिरिया, आयुध लीधां हाथें । देहे भूषण धारीया, चालें राजा साथे ॥ - सार्थे चालें भरिय बाणे, पूठे भीडी भाथडी । वाम हार्थे धरीय खांडों, दाहिणे कर भालडी || अंगना रखवाल एहवा, स्वामिना भगता अछे । मल्ल कच्छकरी पधारें, आगल पाखल केई पछे ॥ ३५३ ॥
दूहा:
चडव्विह सैन सिंगार करि, जिणवर वंदण काज़ | श्रीसमरचंद्र कहे जाणज्यो, ए मिश्र पक्ष जिनराज || ३५४ ॥ ( ढाल - जंबू स्वामिना रासनी चालती तथा त्रूटकनी देशीमां०) हस्तिवादक एमकरी आवी कहें, बलवादकने देखी गह गहें । कोटवाल तेडी नयरि समरावए, जह ओत्तर कारी करीनें आए || - आवए बलवादक समिपें, आव आणा सउपए | हरखे बलवादको आवी, कूणिकराय समीपए ॥ कहें तुझ आदेस कीधो, सेना नगरी सज करी । पधारो बंदवा जिणवर, महावीर गुण मन धरी ।। ३५५ || कूणीक राजा तसु वचनं सुणी, मनमाहि हरख्या भगति आणी घणी । स्नानादिक करि भूषण पहिरिया, कांने कुंडल सिरे मुगट ति धारिया ॥ - धारिया हृदयें हार आदें, बांहि बहिरख अति भला । अंगुलें मुद्रा रतन कडियें, कणदोरा ते सांभ -
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ल्या ।। वीरवलया पगें पहेर्या, वस्त्र युगल सुहामणो । बावना चंदन कुसुम आदें, देहें लागो छे घणों ॥ ३५६ ॥ कल्पतरु जिम दीसें दीपतो, रूपें मनमथ सेना जीपतो। कोरंटक सृज संयुत छत्र ए, मस्तक सोहे अतिहि पवित्र ए॥पवित्र च्यारे ढले चामर, उभय पासे सेय ए। शब्द बोले मंगलकारी, मागधादिक तेय ए॥ स्नान मंडप थकी नीकली, राय राणादिक जुओ। अभ्रमाहिथी नीकल्यो शशि, जेम तेम निव परिवुओ ।।३८७॥ बाहिली सभाएं राजा आवीओ, हस्तीय तेणे अवसर पाविओ। अंजणगिरिनो कूट जिस्यो लही, तमु ऊपरि राय चडियो छे सही ।।-सहीय आगल अट्ठह मंगल, आणुपुन्वियें पत्थिया । श्रीवच्छ नंदावर्त भदासणं, वद्रमाण सत्थिया ॥ कलश दर्पण सच्छ युग्मं, आठ आठ लखित कह्या । सूत्रे अछे ए मंगल कारणं, भवियजण सविसदह्या ।। ३८८ ।। कलश भंगारा छत्रने चामरा, ध्वज ते देखत अति आणंद करा । विजय विजयंती वायें ऊडती, नभ तल लखती दीसे चालती ।।-चालती छत्र कोरंट माला, सहित दंड सोवन तणो । चंद्र मंडल सरिस दीसें, हेठलिछे सिंहासणो । मणि रयणमय तिह पादपीठक, पादुकां तसु ऊपरें । ते राज आगल सोभा कारण, झाल्युं छे बहुं किंकरें ॥ ३८९ ॥ लही कुंता धनुषनें चामरां, पासा पुस्तक फलगति चीतर्या । पीठक वीणा तैलह भायणं, कुतपह डष्फो द्रव्यनो गाहणं ॥-ते लेई चाल्या केई आगले, राय पुरो दंडिणो । मुंडणो मस्तक
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२१३ शीखा धारी, जटा धारीय पीछिणो ॥ हासकारक डमर चाटुअ, कारका कंदप्पिया। कोकईय कीट्टा करा चाले, नृपादिकने छ प्रिया ॥३६०॥ वाजिन वांतां गातां गीत ए, नाटक करतां लोक विदीत ए । हासुं करतां भाषा बोलतां, शिख्या देतां पडतां राखतां ॥-रांखतां वचन सुणावता केई, शब्द जयजयकार ए। प्रचुंजता आगले चाले, राय चित्तें धार ए । एकसो अठोत्तर प्रवर घोडा, जलमती किंकरें ग्रह्या । हस्ती अट्ठोत्तरसयं स्थवर, सयमठोत्तर संग्रह्या ॥ ३६१ ॥ रथ सछत्रा सघंटा सज्झया, पताका सहिया तोरण संजूया । बारह तूर वाजे छे तिहां, न्हानी घंटा जालीयारा जिहां ॥-जिहां हेमवंतना तिनिस दारुय, सार पईडे छे जड्यो । वर्तुलाकारे चक्रधारां, निपुण सूतारें घड्यो ॥ वर तुरय जोच्या अंछे सारहि, निपुण ते आयुधे भर्या, छत्रीस ग्रंथ प्रसिद्ध जाणो, राय आगल विस्तर्या ॥ ३६२ ॥ अनुक्रमे आगल पालियार चाल ए, सांगर्ने भाला हाथें वाल ए । तोमर त्रिमूला लोह जडी लाकडी, भिंड माल धणुहं जिहां पणचां चडी ॥-चडिय मूरपणे सेवे ते, सुहडमाहि शिरोमणी। कूणीक राजा राज लच्छी, दीपे जेम चिंतामणी ॥ हस्ति खे) चडयो शोभे, ऐरावण जिम इंद्र ए। सेन चउबिह सहित दीपें तारमाही जिम चंद्र ए ॥ ३६३ ॥ भंभसार नंदन पुण्णभद्द चेईयें, आवें जबही सेवक सेवियें । आगल दीसे आसने आसवरा, उभओ पासे नागा नागवरा ।।-वर पूंठ रथ संगेलि
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चाले, इसी ऋद्धियें नरवरू । भंगार माथे लोकनें करी, ताल वृंतति सुंदरू ॥ मस्तकें धर्या वरछत्र चामर, बेहुं पासें ढाल ए। सर्व रिद्धि द्युति बलें आदियें, राज पदवी पालए । ३६४ ॥ सवि समुदायें सादर करी, सर्व विभूतिय विभूसा देह धरी। सघलें संभ्रम सर्व पुष्प गंध ए, मल्लालंकारें सर्व समिधए ।।-समृद्धि सघळे शब्द नादें, महा रिष्ध्यादियें करी ! वर तुडिय तिह समकालि वाजें, शंख पणव ने जल्लरी ॥ पडह भेरी खरमुहि ने, उडुक मुख मुथंग ए। निर्वाष दुंदहितणो वाजे, देवनी परें चंग ए ॥ ३६५ ॥ नगरी मांहीथी एणीपरि नीसरें, मुख मंगल सुभ कीरति करें। जय जय नंदा जय जय भद्द ए,भद्द तुह्म होज्यो एहवो सदए॥तुमि अजित जीपो, जिता पालो वैरीने वली बंधु ए। जिय मझिव वसज्यो, इंद्रनी परि देव जेम सुबंधु ए॥ असुरमाहि जेम चमरो नागमाहें धरण ए। तारमज्झे जेम चन्दो, भरह जिम नर सरण ए ।। ३६६ ॥ चिरकाल जीवो वरस घणां तुझे, सयनें सहस्सा लाख कई अह्मे । निर्दोष सघलो परिकर तुह्म होज्यो, हठ तु चित्ता परमाउ पालज्यो ।।पालज्यो राज इट्ट जणे सहिया, चंपा नगरी आईए । गाम आगर नगर खेडा, कुडब द्रोणमुख गाईयें ॥ मडंब पट्टण आस मणिगा, संवाहने संनिवेस ए। एहनु प्रभुतापणुं पालो, भोग जाव विशेष ए ॥ ३६७ । नेत्र माला सहसें जोता जाइये, हृदयमाला सहसें लोक वधावियें । मनोरथ
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२१५ माला सहसें सेवियें, मुखमाला सहसें थवतां वेईयें ।-वेईयें कंति सोभाई गुणिनर, नारीसहसें पेखियें। दाहिणे हस्तें अंजलि माला, सहस पडिछत देखीयें ।। सुकमाल शब्दें पूछतो घर, पंति सहस तेअतिक्रमे । नयरि चंपा मूकी पुण्णभद्द चेई सीमा संक्रमें ॥३६८॥ जिह छ भगवन श्रीमहावीरू ए, आसन्न आवे राय सुधीरू ए । छत्रादिक तेह अतिसय देख ए, राजा कूणिक मनस्युं पेख ए॥-पेखीय आ सायणा ऊभो, राखि गजथी ऊतरें । खग्ग छत्रो फेस वाणहि, चामर चिन्ह ते परिहरे। अभि गमण पंच सचित्त छंडे, अचित्त नहु एग साडियं । देखि अंजलि करे मन एगत्त ठामें चाडियं ॥३६९ ॥ भगवन पासे एणि परि आव ए, देखीय जगगुरु लाभ घण भाव ए । त्रण्णि प्रदक्षिण देईय वंद ए, गुणथवि मस्तक नमि भव छिंद ए॥-छिंद ए पातक पर्युपासन, करत त्रिहुं भेदें कही। काईया वाइय माणसीया, सूत्र साखें ए लही ॥ काईया कर पद गोपवीनें, रहे श्रवणति वंछ ए । नमे अभिमुख विणय प्रांजलि पुढे पासें अच्छए ॥ ३७० ॥ वचनें ए इम जे तुह्मि भाखओ, ते तिम अवितथ असंदिद्ध दाखओ । ईछयो वांछयो वचन तुह्मरओ, मननी सेवा एणि परि धारओ ॥धारओ तीव्र संवेग आणी, धर्म ऊपर राग ए। एम त्रिविध सेवा करत कूणिक, राय जाग्यो भाग ए । तेणि अवसर सुभद्र प्रमुखा, देवि घर मझि न्हाईया। बलि कर्म प्राछित अलंकारें, श्री समाण सहाईया ॥ ३७१ ॥ बहुली दासी पासें परिवरी,
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२१६ चिलाती वामणी वडभी बव्वरी। पओसी जोणी पन्हवि ईसणी, लासिय लोसी दमिली वारुणी ।।-सिंहली आरबी पक्कणी, बहली पुलंदी पारसी। सबरी मरुंडी कूबडी बहु, देसनी छे एरिसी। सदेश भूषण सदेस पहिरण, इंगिय चिंतय जाणिया। अभिलाष जाणे, वरसधर कंचूइझ पुरुष वखाणिया ॥३७२।। एम परिवारें राणी परिवरी, अंतेउरथी सघली नीसरी । जिह छे निज निज रथ तिह आव ए, स्थचडि यात्रा सनमुख धाव ए॥-धाव ए जिणवर वंदवाने, हेति चंपामझि थई । नीकली आवे जिहां पूर्ण, भद्र व्यंतरनो चेई ॥ छत्रादि अतिसय देखि कृणिक, रायनी परे बंद ए। उत्तरासंगने ठाम नीचे, सिरें दुःख्व निकंद ए ॥ ३७३॥ देइय प्रदक्षण जिनवर वंदीया, राणी सघली मन आणंदिया। कूणिक राजा पाछळ सवि रहें, औभी सनमुख शिव मारग लहें ।।-लहें मारग धर्म सुणतां, महावीर देसणकरें । राय राणी तेय परिषद, साहु देवादिक ठरें । ओघवल अतिबलो महाबल, अपरिमित बल वीर ए। तेज महिमा कंति सहियो, जगतगुरु महावीर ए ॥ ३७४ ॥
(दूहा.) करजिणेसर एणि परें, वंदें कूणिकराय । श्रीसमरचंद्र इम चितवे, वंदं वीरजिन पाय ॥ ३७५ ॥ (राग-वसंत.-हारे प्रभुपासतुं मुखडं जोवा. जेवी देशीमां.)
वाणी सारद घन मधुर गाजें, गंभीर सुणतां भव भावठ
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भाजें । अरे तुझे सुणोरे भविकजन हियडे जागो। (ए आंकणी.) क्रांच निर्घोष जिसी दुंदुभिस्सरा, हृदयें वित्थर कंठे वाटुली वरा || अरे० || ३७६ || अरे तुमे सुणोरे भविकजन हिडे जागो, सूध संयम तप मारग लागो । अने चउगइ भ्रमणथी जिय ज भागो । सेवकरीनें शिवसख मागो | अरे ० ॥ ३७७ ॥ मस्तकें पसरती अगरलारे, मामणा भाव विष्णु अतिसरला । अरे० संयोगी अक्षर प्रगट बोलें, पूर्ण स्वर कलायें नही कोई तोलें ! अरे० ।। ३७८ ।। रत्तागीतनें रागें सवि सभासा, आपणी आपणी पीछेरे भासा । अरे = योजन लगें प्रभु वाणी सुणीजें, अरध मागधी भासा तेय भणीजें ॥ अरे० ।। ३७९ ।। अरिहंत धर्म्म कहे ते सविहुनें, आरिया णारियानें तेहुंनें । अरे० परिणमे निज निज भाषानुसारें, जहठिय तेय सुणी हियडे धारें || अरे० || ३८० || लोक अलोक जीव अजीव बंध, मुख्ख पुण्ण पाव आश्रव संबंध । अरे० संवर वेदणा निरजरा छे लोए, अरिहंत चकवट्टी बीरे होए || अरे || ३८१ ॥ वासुदेवा नर नरक तिरी, मात पिता ऋषिवर वाणी खरी । अरे० देवलोक देवता सिद्धनें सिद्धा, निरवाण निर्वृत थयारे बुद्धा || अरे || ३८२ ॥ प्राणातिपात आदें मिथ्यातशल्ल, अड्ढार पावठाण ते अति कुटिल्ल | अरे० एहनो विरमण ते पण दाखे, पालक ते भव पडतां आपण राखे || अरे || ३८३ ॥ सर्व्व जे जगे अछे छतूं कहें, अणछतूं नत्थि एम केवलि लहे । अरे ०
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२१८ रूडी करणीय रूडों फल पामी जें, पाडूये पाडूये तिणें वामी जें ॥ अरे० ॥ ३८४ ॥ पुन्यनें पाप फरसे करम रूपें, परभव आवें उदए निज सरूपें । अरे० पुण्यनें पाप तरु सफल अछे, बीज वाव्यो फल लुणीजे पछे ॥ अरे० ॥ ३८५ ॥ निग्रंथ प्रवचन सत्य सुद्ध, अनुत्तर केवल एक संसुद्ध । अरे० प्रतिपुण्ण णयानुसल्लकत्तण, सिद्धि मुत्ति णिव्वाण निझाण गमण ।। अरे० ॥ ३८६ ॥ अवितथ विघटे नही असंदेहरे, सव्व दुःख प्रखीण मग्र गुणनो गेह । अरे० एणेरे मारग रह्या जीव सीझें, करम खपाविय केवल बूझें ॥ अरे० ॥ ३८७ ॥ आठय करमथकी तेय मूंकायें, सर्व दुःख अंतकरी मुगति जायें । अरे. केईय पूरव करम वसे, मुगति न जाएं देव लोक वसें ॥ अरे० ॥ ३८८ ॥ महा रिद्धि आदिक गुणेहि सहिया, कल्प ग्रैवेक अणुत्तर लहिया। अरे० तेहथकी चवी उत्तम कुल ते आवें, संयम पाली केवल मुगति पावें ।। अरे०॥३८९॥ वलीय चिहुं गति तणो बंध कहें, नारक तिरि मणु देव संग्रहें। अरे० महाआरंभे महापरिग्रह रावं, पंचय इंद्रिय वधे मांस भखें ।। अरे० ॥ ३९० ॥ नारकी चिहुं कारण चिहुएं तिरिया, माया अलीक लंच वंचण भरिया । अरे० माणुस पयई भद्र विनीतारे, सदय अमच्छर गुण दीपता ।। अरे० ॥३९१॥ सराग संयम संयमासंयमरे, अकामनिझरा बालतप क्रमरे । अरे० एणिपरि निरय तिरि मणुय देवा, च्यारे कारण माहें एक आदि लेवा ।, अरे० ॥ ३९२ ॥ जेणी परि नरग
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२१९ ऊपजे दुःख वेदेंरे, सारीर मानस दुःख तिर्यंच भेदें। अरे० व्याधि जरा मरणं वेयणा पउरं, अनित्य मणुय भव क्लेश घरं ॥ अरे० ॥ ३९३ देवता देवलोक देवनां सुख, माणुस गतिएं जेम लहीजे मुख । अरे. पुढवी आऊ तेऊ वायु वणसइकाया, जहठीय त्रसकाय कही रखाया ॥ अरे० ॥ ३९४ ॥ जेम जीव बंधन पामे जेम मूकाएं, क्लेश पामे में अंतकर केई थाए । अरे० आरति रौद्र बसें दुःख सागरें, फिरता के जेम वेरागें तरें ॥ अरे० ॥ ३९५ ॥ रागर्ने द्वेष वशे करम कर्या, पाडूआ फलथकी विपाक भर्या । अरे० जेम जेम खीणकर्म जीव थई, शासता सुखलहें मुगति जई ॥ अरे० ॥ ३९६ ॥ जिणवर वाणीतणा एह गुण, सुणे जे मुगुरुपासें एकमन । अरे० भणे श्रीसमरचंद्र सुद्धपालें, संसार अडवीतणो भमण टाले ॥ अरे ।। ३९७ ॥ ( ढाल-राग-गौड मल्हार. सोनारुपाने शोगठे० जेवी देशीमां.)
दुविह जिन धर्म बोले, नही प्रभुने को तोलें । अणगार न अगार, लहीजे भवपार ॥ ३९८ ।। जिणवर वाणी मीठी, अमियथी अधिकी दीठी । भावधर जे आराधे, शिव सुख तेय साधे ॥ जिण० ॥ ३९९ ॥ अक्ष पण चओ कसाय, मण मुंड दस भाय । परिग्रह नवय भेदें, त्यजी कर्मने छेदें ॥ जिण ॥४००॥ सर्व सर्वं करीजें, महाव्रत ऊचरीजें। जीववध मुसावाद, अदत्तनो पयडनाद ॥ जिण ॥४०१॥ मेहुण परिग्रहारे, राई भोयणे रेहा । एहनी विरति जेय,
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महाव्रत इहां तेय ॥ जिण० ॥ ४०२ ।। मुनिनो सामाई एय, साहु साहुणी जेय । धर्म पालवा औठ्या, आणाराधका दीठा ॥ जिण० ॥ ४०३ ॥ श्रावक धरम बार, भेद तासु विचार । अणुवय पंच तिन्नि, गुण सिख्खा चउ मनि ॥ जिण. ॥४०४।। थूल प्राणातिपात, न करे विख्यात । मोटका पंच कूडां, श्रावक न जाणे रूडां ।। जिण० ॥ ४०५ ।। अदत्त जाणि चोर कही जे, ते वस्तुनो लीजे। मैथुन पर जे नारी, तमु संगते वारी ॥ जिण ॥४०६॥ ईच्छा तणो माण, थूल परिग्रह जाण । विरति जेटलीय कीजें, जिणवाणी फल लीजे ।। जिण ॥ ४०७ ।। दिगवत दिशिनो मान, भोग परिभोग मान । अनरथ दंड टाले, जिण आण ते पाले ॥ जिण० ॥ ४०८ ॥ समता भाव आणी, सामाई करे जे प्राणी। अहनिशि अंतराले, पडिकमें बेहुं कालें ॥ जिण० ॥ ४०९॥ आवश्यक तमु नाम, अध्ययन छह गुणधाम । ते छे अनुयोगद्वारे, श्रावक साधु अधिकारें ॥ जिण० ॥ ४१० ।। दसम देसावकास, थोडी जइ वा आस । पोसहव्रत जे पालें, अतिचार तमु टाले ॥ जिण० ॥ ४११ ॥ ओपवास सहित जाणो, चओदसि आदि वखाणो । ब्रह्मचर्यादि सहित, सर्व सावध रहित । जिण० ॥ ४१२ ॥ अतिथी जे संविभाग, शुद्ध आहारने लाग । साधुनें दानदीजें, द्वादशे भव तरीजें ॥ जिण० ॥ ४१३ ॥ संलेखना मरण कालें, अन्नादिकथी मन वालें । गृहिय सामाई एय, पाली अवसरे तेय ॥ जिण० ॥
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२२१ ४१४ ॥ श्रावक श्राविकारे, आणाना आराधका । जे जगें हुवें जेहवो, भगवन कहें तेहवो ।। जिण ॥ ४१५ ॥ धर्म सुणि प्रति बूधा, व्रत पालीय सूधा । भणे श्रीसमरचंद तेय, सुख लहे अमेय ॥ जिण० ॥ ४१६ ॥ (ढाल-राग-धन्यासी. अंतरजामी सुण!० एना जेवी देशीमां.) । दीधी देसण वीर जिणेसर, हर्ष धरें सब लोई । आसणथी ऊठी प्रदक्षिण, त्रिणि दियें सहु कोई ॥ ४१७ ।। जगगुरुने भगति भावें भवि जन वंदें। चिंतामणीथी अधिको जिनधर्म, पापी मन आणंदें ।। जग० ॥ ४१८ ॥
(द्रुपद.) भव आरण्य ज्वलत केई देखी, जरा मरणथी भागा, जिनवर वाणी सीतल पाणी, धारा जसु तनि लागा ॥जग०॥ ४१९ ॥ शीतल भए लोचकरि केई, गृहवास जाणि असारा। छोडी पंच महाव्रत उचरें, भवसागरना तारा ॥जग०॥४२॥ महाव्रत उ.चरवा असमत्था, ऊचरें अणुव्रत तेई । पंच सात सिख्खा व्रत मेली, गृहधर्म बारह भेई ॥ जग० ॥४२१॥ महव्वय अणुवय जे नहु ऊचरें, ते पुण प्रभु पाय लागें। समकित लही वचन ईम बोलें, करजोडी प्रभु आगें ।। जग०।। ४२२ ॥ रूडो कह्यो धर्म स्वामी तुमि, ए समवड नहु कोई । एणि जग हुओ न होस्थे हिवडां, दरसण दीठा जोई ॥जग० ॥ ४२३ ॥ धर्म कहंत कह्यो तुमि जिणवर, उपशम धर्मे सारा । उपशम कही विवेक प्रकाश्यो, कृत्याकृत्य विचारा॥
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जग० ॥ ४२४ ॥ विवेग कहीने वेरमण भाख्यो, पाप करम न करेवो ।। उपशम विवेक संवर उपदेसें, विधिवादें करेवो॥ जग० ॥ ४२८ ॥ कथक श्रमण ब्राह्मण नहु दीसें, तुम सरिस जगमांहें । अपूरव नही ईम सहुएं बोली, वांदे अधिक उच्छाहें ॥जग०॥ ४२६ ॥ जेणि दिशिथी आव्या जे हुतां, तेणि दिशि ते सवि जाए । कूणिक राजा ते पण वंदी, तित्थ नाथना पाए ॥ जग० ॥ ४२७ ॥ बोल कह्या जे पाछल सहुएं, ते तेणी परि दाखें । राणी, सुभद्रा प्रमुख इम उचरी, निरतुं समकित राखें ॥ जग० ॥ ४२८ ॥ श्रेणिकनंदन राणी सुभद्रा, प्रमुख सहुको रंगें । वर्द्धमान जिन पाए लागी, आवे घरें उच्छरंगें ॥ जग० ॥ ४२९ ॥ ए प्रबंध ओववाई ओवंगें, गुरुमुखि जिणपरि जाण्यो। श्रीपासचंदमुरीसरसीसे, श्रीसमरसिंघ सुवखाण्यो ॥ जग० ॥ ४३० ॥ प्रथम चंपापुरी जिणवर, वीर आव्या जिम कह्या । तेय वर्णक शिष्यना गुण, संयम तप आदें ग्रह्या ॥ जग० ॥ ४३१ ॥ अछे विस्तर पुण संखे, वर्णव्या छे इह सही । भविकना उपगार हेतें । तेय दूषण मुझ नही ॥ जग०॥ ४३२ ॥ संवत पनर पंचाणवें, कातिय मास प्रबंध। ओववाई आगम थकी, कीधो साधु संबंध ॥ जग० ॥ ४३३ ॥ साधुतणा गुण समरतां, पातक दुरे जाय । भणो मुणो हियडे धरो, निश्चें शिव मुख थाय ॥ जग० ॥ ४३४ ॥
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इति श्री औपपातिकोपांगादुधृत्य साधुगुणरससमुच्चयः कृतः लिखितः श्रीस्थंभतीर्थे संवत १६४५ वर्षे कार्तिक सुदि ५ गुरौ सुभं भवतु लेखकपाठकयोः ॥ छः ॥
॥ इति श्री औपपातिकोपांगादुधृत्य, साधुगुणरससमुच्चयः समाप्तः ॥ श्रीमन्नागपुरीयवृहत्तपागच्छाधिराजयुगप्रधानक्रियोद्धारकारकसिद्धांत तत्वमहोदधिश्रोजिन प्रवचनप्रचारणैकबद्धकक्षमहाप्रभावकप्रातः स्मरणीय श्रीपार्श्व चंद्र स्ररिपुरंदरपट्टधरसकलागमावबोधधार कजैनाचार्यवर्य श्री समरचंद्रसूरिराजविरचितः संशोधितश्च श्रीजैन श्वेतांबराचार्यवयमेयमहिमानिधा
नानवद्यविद्याविशारदसकलागमपारगामियुगप्रवरशांतरसपयोनिधिविश्ववंद्य महर्षिपूज्यपादपरमोपकारिश्री भ्रातृचंद्रसूरीश्वरचरणसरसिरुहभृङ्गायमानमुनिसागरचं द्रेणः स्वपरहिताय क ल्याणमस्तु ॥ ॐ अर्ह नमः ॥
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इति श्रीजैनराससंग्रहः
प्रथमभागः समाप्तः ॥
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॥ श्लोकः ।।
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(श्वेतपद्मासना देवी, श्वेतपद्मोपशोभिता, a ) श्वेताम्बरधरा देवी, श्वेतगन्धानुलेपना।
अर्चितामुनिभिःसर्वै-ऋषिभिःस्तूयते सदा, (एवं ध्यात्वा सदा देवी,वांछितं लभते नरः॥
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उदयशिखरिचंद्राः सद्वचेभोधिचंद्राः
सुकृतकुमुदचंद्रा ध्वांतविध्वंसचंद्राः व कुमतनलिनचंद्राः कीर्तिविख्यातचंद्राः प्रमदजननचंद्राः श्रेयसे पार्श्वचंद्राः
श्रेयसे भ्रातृचंद्राः ॥१॥
॥ स्रग्धरावृत्तम् ॥ श्रीमद्विद्यावतंसाः शमदमसहिता बालभावाद्विरक्ता, ज्ञानाभ्यासे प्रवृता निखिलजनमनोहर्षदाः स्वैर्गुणौघैः । मध्यस्था मान्यवाक्या दलितमदवला भ्रातृचंद्राभिधानास्तारुण्ये तीर्णमोहा निरुपमचरिताः सरिराजा जयन्तु ॥१॥
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