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भए, वंदि जिनचरण महिमा वधाई चल्यो० ॥७२॥ तीन दिनरात गिरिसिखर ऊपर रह्या, भाव भगते करी तीर्थ भेट्यो । सुकृत बहुलो थयो जनम सफलो भयो, दुःकृत दोहग तणो मान मेट्यो चल्यो० ॥ ७३ ॥ जात्र करी आवीया सिखरगिरि तलहटी, संघी भक्ति कीन्ही सवाई | पोषिया संघसहु विविध पकवान करि, मुहर मुहरतणी हणलाई चल्यो० ॥ ७४ ॥ खास जवाफपटकूल पहराईया, संघपद्रवीतणी माल लोधी । लोक | धन्य धन्य कहे जय जय उच्चरे, एह करतूत अतिसबल कीधी, चल्यो० ||७५ || संघ उच्छंग निज घरे आविया, नगर में बहुत उत्साह कीन्हों | धन्य धन्य पुन्य माणिकदेवी सती, तुमे संपतितणों लाभ लीन्हो चल्यो० ॥ ७६ ॥
( दूहा :- )
माता माणिकद्रे तणो, जस फेल्यो संसार | संघ चलायो सिखरकों, खरच्यो द्रव्य अपार || ७७ || जवतें जात्र पधारिया, माताजी धर प्रेम । तवहीतें मन दृढ करी, अभिग्रह लीन्हा एम || ७८ || जिनमंदिर रूपातणा, गृहमें सरस बनाय । प्रतिमा सोनां रजतनी, थापी श्रीजिनराय || ७९ || पहर एक पूजाकरे जपे मंत्र नवकार । दान देहि जब हाथस्युं, तबहीं करे आहार ||८०|| छठ्ठ छठु अरु पारणों, जो कहूं तिथ बढजाय । तव तेला निहचें करे, एह टेक न सिद्राय ॥ ८१ ॥ दोय पहोर शास्त्रसुणे, संध्या करे त्रिकाल । पोसह अष्टमी चौदसी, पडिकपणा बिहुं काल ||८२ ॥ सचित वस्तु छूवें नही, दीन हीनप्रति दान |