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जेह । पोषक प्रकृति प्रजातणो अदभुते राजो एह ॥६॥ ( ढालः-श्रीशत्रुजय तीरथसार, गिरिवर० ए देशीमां.)
ए मोहराजा अधिक प्रतापी, अंतरगति सघले रह्यो व्यापी, पापी अधिक संतावे। छांह तणीपर के. आवे, चोरासीलख जोनि भरावे, ख्याल अनंत खिलावे ॥१॥ कब राजा कब रंक निसंक, कब सरलो कब वंकत्रिवंक, कबही वियोग संयोग। निरधन कदा कदाधनवंत, कब भोगी कब योगी संत, रोगी कदा निरोग ॥२॥ दुरखीयो कदी कदी मुखसार, सेव, कस्वामीनो व्यवहार, दे इम वारंवार । दीन कदा कदा मानी मछराल, सुंदर, कदी कदी विकराल, निरद्रय सदय विचार ॥३॥ कायर कदा कदा अतिसूर, चोर कदा कब साइ सनूर, कब ठालो कब पूर । ससनेही निसनेही कर, बालो तरुणो चढते नूर, बूढो वलि जर जूर ॥४॥ कृपण कदा कवही दातार, संकोचितचित्त कदा उदार, खिण हलूओ खिणभार। खिणभंगुर एहनी गति कहीये, एह तजी जिनसरणें रहीये, लहीये जिम सुखसार ॥५॥ साचो खिण खिणमांहि अलीक, भूययुत खिण खिणमें निरभीक, मोह चरित तहकीक । जाणि भविक एहस्यु मतिराचो,जो चाहो आतममुख साचो, काचो नही ए ठीक ॥६॥ जांण, कदा फिर कदा अयाण, ए सवि पोतणां विनाण, जांणो चतुरसुजाण । जाणी एहनो संग निवारो, चित्तवृत्ति पसरंतो वारो, धारो श्रीजिनआण ॥७॥ गरी पुरुष नपुंसक वेद, भोग मिसि करि दे अति खेद, भेद सुणो वलि एम ।