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सुर आवास । अन्न पान सरसईभला भोजन करे विसाल, क्रीडा चिहु दिसि करे फिर २ रंग रसाल ॥३॥ इणि अवसरे रविकर आथम्यो पुहवि अंधारो होइ, निज निज ठामे अपर सहूकोइ पहुता लोइ । कुमर रहे. केलीघरि निसी मराणरेहसाथ, अवसर जाणी मणिरथ आवे असिधर हाथ ॥४॥ फल्यो मनोरथा माहरो विणासु हिव जुगबाहू, मयणासं भोगविस्युं सुख विचित्र उछाहू। सुरतकेलिकरि सुता बेवइस्त्री भरतार, चिहुं पासे रखवाला फिरे करे खंखार ॥५॥ जुगवाहू मणिरथ पूछे कहो सुवेग, में जाण्यो कोइ राने वेरी करे उदेग । इण कारण इहां आव्यो मंडप करे प्रवेस, उठे संभ्रमसु जुराबाहू नहिय विसेस ॥६॥ मणिरथ कहे चालो जइये नयर मझार, आपणनें इहा रहिवो जुगत नही चित्त विचार । कुमर सजाइ करीने अथ परिवारे जाम, करिधरि खडग विणास्यो मर्म प्रदेसें ताम ॥७॥
दूहाः- मयणरेह मने दुखधरी, रोवे करे पुकार । एम निसुणि एकठ मिल्यो, जुगवाहू परिवार ॥८॥
( ढाल-बलभद्र लेइ आव्यो नीर-ए देशीमां )
परिवार सहुको जंपे, तुं कांइरे कायर कंपे। कह वात जिसी तें कीधी, जगमाहि अकीरति लीधी ॥ तव राय कहें भय डरतो, मनमाहेमाया करतो। मुझ हाथथकी असि पडियो, तिण एह कूलंक सिरचडियो ॥९॥ राउ बोलतो परखियो, जाण्यो हियडे कूड़। जाइ कडे चंद्रजसनें, गोडो मोहें मूढ॥ मन