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॥९७ ॥ संभिन्नसोयरे एकठ शबद मिल्या सही, ते जुअजुअरे बुद्धि विनाणें कहे लही । एकेकेंरे इंद्रिय पंचे जाणए, रूपादिकरे स्रोत्रादिक सुबखाणए ।।-वख्खाण ए तप योग लब्धियें, इकेकें पंचय कह्या । खीरासवा. ध जेम मधुरा, वचन भवियण सद्दया । मधुआसवा मधु जेम मीठां, सर्व दोष समावए । सप्पि-घृत जिम आप उ.परि, सुणत नेह ऊपावए ॥९८॥ हिव अखीणरे महाणसी लद्धि जाणीयें। आप न जिमेरे तांलगि छेह न पावियें ॥-पाविये छेह न तप विशेषे, ऋजुमती मणनाणिया । सामन्नथी दोइ जलहि द्वीप दु, साढि सन्नी प्राणिगया। तसु मनतणा पर्याय जाणे, विउलमती विशेषथी। अढीय अंगुल न्यून अधिको, भेद जाण्यो मूत्रथी ॥१९॥ वैक्रिय लदिरे रूप करे मन माणिया, दुई चारण रे जंघा विजा जाणिया । अटम तपरे करतां जंघा लद्धि लही, तेरम दीरे इकओतपातें जायें सही॥-सहिय जावे नंदि सरवर, विधाचारण एकणे; ओतपात विद्यापन्नति आदें, भेद छ? कह्यो तिणें। आकाशगामी एक मुनिवर, विद्या अथ लेवादिणा । रत्नादिकनी करे वुट्टी, नमुं तवसी अणुदिणा ॥१०॥
(वस्तु छन्द) आठ ठामें आठ ठामें चेईय जिणबिंब, सासयनामें ते कह्या, चिहुं प्रकार जई तेय वंदे । ऋषभ चंद्राणण धारिखेण, वर्धमान मनने आनंदें । चिटुं ठामें अस्सासई, प्रतिमा वंदे साधु । जंघा विद्याचारणा, भगवति अंगे लाध ॥१०१॥