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जड भवजल कह्या । अरति भयह विषाद सोग, मिछत्त पर्वत सद्दया ॥ (पर्वत करी संकडो जलनिधि, उभय पक्षे जाणज्यो।) अनादि कर्म प्रवाह बंधण, राग आदि स चीकणो। तेणे तेय तरतां दोहेलो, चीखल्ल लोय लफसे घणो ॥ ३३१ ॥ नरय तिरि नर सुर गति गमणरे, वांकिय विपुल जल वेल । चिहुं दिशें अंत नहुं गति सरूपरे, दीह नहु पाम ए भेल।-नहु अंत आवें अछे विस्तर, रौद्र दरसण जसुअ छे । ते तरें सुनिवर संयम प्रवहण, लही तुरीय सुभट पछे ॥ धृति रज्जु बंधण सुदृढ निश्चल संवर कूवा थंभ ए । वैराग्य उत्सृत ज्ञान सित, पट जेय शिव घर थंभ ए ॥ ३३२ ॥
(दूहाः -) भवसागर दुत्तर तरे, संयम् प्रवहण साधु । श्रीसमरचंद्र तसु पयनमें, टालें भव आबाध ॥ ३३३॥ ( ढाल-राग धन्यासरो. उज्जलगिरिनभु नेमि० ए देशीमां.)
सीलें सहित प्रसस्त ध्यान तप, वाय पेर्योधर्म प्रवहण चालें। मुनिवर मुगति मंदिर प्रतें पुलिया,(ए आंकणी.)अनालसनें वस्तु निरणय द्रव्यनो । निरजर जयण करयाणयं घाले । मुनि०॥ ३३४॥ उपयोग नाण दंसण वय भरिया,मुनि०समणवर सत्थवाहा जिहां बेठा। हियडलामांहि गुण सिद्धना पेठा ।मुनि०॥ ३३५॥ श्रीजिनवर जे मारग कहियो, अकुडिल सिद्धपुर केरडो लहियो । मुनि० सुश्रुत समुचि शोभना भाख्या, प्रश्न जिन सुरूयडा मुनितणा दाख्या ॥ मुनि० ॥ ३३६ ॥