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२१५ माला सहसें सेवियें, मुखमाला सहसें थवतां वेईयें ।-वेईयें कंति सोभाई गुणिनर, नारीसहसें पेखियें। दाहिणे हस्तें अंजलि माला, सहस पडिछत देखीयें ।। सुकमाल शब्दें पूछतो घर, पंति सहस तेअतिक्रमे । नयरि चंपा मूकी पुण्णभद्द चेई सीमा संक्रमें ॥३६८॥ जिह छ भगवन श्रीमहावीरू ए, आसन्न आवे राय सुधीरू ए । छत्रादिक तेह अतिसय देख ए, राजा कूणिक मनस्युं पेख ए॥-पेखीय आ सायणा ऊभो, राखि गजथी ऊतरें । खग्ग छत्रो फेस वाणहि, चामर चिन्ह ते परिहरे। अभि गमण पंच सचित्त छंडे, अचित्त नहु एग साडियं । देखि अंजलि करे मन एगत्त ठामें चाडियं ॥३६९ ॥ भगवन पासे एणि परि आव ए, देखीय जगगुरु लाभ घण भाव ए । त्रण्णि प्रदक्षिण देईय वंद ए, गुणथवि मस्तक नमि भव छिंद ए॥-छिंद ए पातक पर्युपासन, करत त्रिहुं भेदें कही। काईया वाइय माणसीया, सूत्र साखें ए लही ॥ काईया कर पद गोपवीनें, रहे श्रवणति वंछ ए । नमे अभिमुख विणय प्रांजलि पुढे पासें अच्छए ॥ ३७० ॥ वचनें ए इम जे तुह्मि भाखओ, ते तिम अवितथ असंदिद्ध दाखओ । ईछयो वांछयो वचन तुह्मरओ, मननी सेवा एणि परि धारओ ॥धारओ तीव्र संवेग आणी, धर्म ऊपर राग ए। एम त्रिविध सेवा करत कूणिक, राय जाग्यो भाग ए । तेणि अवसर सुभद्र प्रमुखा, देवि घर मझि न्हाईया। बलि कर्म प्राछित अलंकारें, श्री समाण सहाईया ॥ ३७१ ॥ बहुली दासी पासें परिवरी,