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कर्म० खाणथकी जेम ऊपजे, बहुरतन निधान । तिम अंजनाइं जाइयो, अंगजे इंद्रसमान ॥४॥ कर्म० सूरजनी परे दीपतो, नीरज मुख सूर। माता नयणे निरखती, लहे आनंद पूर ।।५।। कर्म० नाघ, सिंघ गज रीछना, श्य, नही, का चोर । शीले संकट सवि.टले, कोई न करे जोर ॥६॥ कर्म० वनि वनि थानक थानकिई, रेहतां अरिहंत । समरे जल फल बहु मिले, ए पुण्य महंत ॥७॥ कर्मतणी०
दूदाः - )
एक दिन जल जोवामणी, सखी पहुंती वनमांह। काओअसग्गे गिरिसिर रहियो, (मुनि दीठो उछांह ।।८॥ कर्म०
on ( ढाल-फागः- ) भूखत्रिषा सवि वीसरी, पामी हरख अपार । आवि कहे अंजनाभणी, मे मुनि दीठो सार ।। पुत्रसखीस्युं गिरिचडी, अंजनासुंदरी साध। वांद्या भग काउसग्ग,पारी,मुनि निरबाध ॥९ भूमिकां पुंजि बेठा, भाखे मुनि उपदेशे। महानुभाव, संसार इं, एणे नही सुखलेश ॥ बहादुख) सागर चंचल, ए संसार असार। जीवनें धर्मविना नहीं, कोई शरण आधार ॥१०॥ करमे आरति (मनतणी, चिंता कठिण अगाध । रोग सोग जरकर्मिइं, काया शिथिल साबाध ॥ कर मुंगा बोबडा, बहिरा कायर हीण करमें (टुंटा पांगुला, कुबड वामण खीण ॥११॥ करमें मरगतणी गति, मारक दुख सहंत । कर तिरियंच वधबंध, तरिखा भूखलहंत ॥ करमें मानव निधन, धनवंत मंदिरवास । (करमें प्राणी भोगवे,