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( ढाल-दोढी.) एक द्रव्याश्रित जेय, उतपातादिक, पराया या जूअ जूअ करीए । भेदें करें विकल्प, पूरवगतश्रुत, आलंबन नय अणुसरीए । तेय पृथक्त्ववितर्क, तह सविचारीय, अस्थथकी-व्यंजन विषे ए । व्यंजनथी वली अस्थ, मणवई काईय, फरतो फरतो एक परखेंए ॥ ३१३ ॥ तह एकत्व विर्तक, अविचारी बीय, भेद विना जे चिंतवें ए। उतपादादिक एक, मांहि अनेरो, पराया आलंबन तवें ए। तेहनो जेय वितर्क, पूरवगत श्रुत, आश्रित व्यंजन अरथनोए । बेहुंमांहि लेवु एक, ते अविचारत, अरथ व्यंजन मझ एकनोए ॥ ३१४ ॥ व्यंजनथी नहु अत्थ, अत्थ न व्यंजन, मन आदिक एकनो कह्योए । निरुद्ध वचन मन योग, अरध निरुद्ध काय, योगपणाथी क्रमि लह्योए । सहुम किरिय ते जोइ, अप्रतिपातीय, पडे नही ते भावथीए । प्रथम द्वितीय दोइ भेद, श्रुत केवलिने ए, त्रीजो जाणो इरियथीए । ३१५ ।। मुगति गमनने कालें, वधतें परिणामें, केवलिने ए जाणिय ए । कायादिक क्रिय छेद, सेलेसीकरणे, समुछिन्नकिरिय वखाणीयें ए॥ पाछो पडे न कोइ, चउथा भेदथी, केवल नाणी इह रहें ए। ध्यानतणो प्रारंभ, चउदमा थानथी, सिद्ध अनंता ए लहेए ॥ ३१६ ॥ एहना लक्षण च्यार विवेग विउसग्ग, अव्वह अस्संमोहया ए। विवेग देहथी जीव, जीवथी संयोगा, बाह्म अभ्यंतर करे जूआए ॥ विउसग्ग उपधि शरीर, त्याग करे सदा, नही अभि