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१७५ सुणत संशय नहुं हुवे; अपरवादी वचन दूषण, देईने न परा भवे । हरे श्रोता तणो मानस, अनेथि चित्त न लागए; देश काले उचित वयणं, कहें बहु जण आगए ॥ ६४॥ जीवादि करे वस्तु विचार जया करे, तसु मलतोरे अरथ स्वरूप ति ऊचरे। अतिविस्तररे असंबद्ध नहु वागरें, पद आगलरे पद सापेक्षति चित्त घरे । अहारमो अभिजात वचनं, वात रूप करी कहे; अतिनिद्ध मधुरं सर्पि साकर, जेम मवियण मनि ग्रहें । उपदेश देतां मर्म किहनो, कहे नही जिणवर कया; अरय धर्मे सहित वचनं, सदहें तसु हुइ सया ।। ६५॥ बावीसमरे वस्तु प्रकाशन जब करे, तसु. निरणयरे करतां कहें अति विस्तरें । पर निंदोरे निज उतकरष वचनि नही, मध्यस्थेरे बोलत 'लाघा लहे, सही। शब्द कारक काल लिंगे, शुद्ध वचन समाचरें; श्रोतार प्रभुनो धर्म सुणतां, चित्तमांहि चमत्करें। व्याख्यान अति उतावलं नही, नही अतिहि सासतो; रोगाइ दूषण सर्व रहियत, सुणत भ्रम विणु भासतो ॥६६॥ हिवं त्रीसमरे जेय पदारथ वर्णवें, स्वरूपथीरे तेहज विशेषे संक्रमे। वचनांतररे अपेक्षा उचित विशेषतां, अक्षर पदरे जुय जुय करी प्रभु भाखतां । सत्व साहस सहित वचनं, सदा जिनवर वागरे; धर्म कहेतां श्रम न पामे, हिये अति उच्छाह धरें। जीवादि वस्तु प्रकाश करतां, अविच्छिन्न वचन कहें; पांत्रीस अतिशय सहित वचनं, श्रीसमरचंद्र नितु सरहे ॥ ६७ ॥