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अ० ।। २७८ || अच्यंत बाल दुरबल ने गिलान्, वृद्ध क्षपक प्रवर्त्तक जान । अ० आचारिज उवझाय ने सीस, साधम्मिक तपसि गत रीस अ० ।। २७९ ।। कुल गण संघ चेईनें अर्थ, वेयावच्च करत स समर्थ । अ० कुल गण संघ अरथ पुव्वुत्त, चैत्य ते जिन प्रतिमा ये जुत्त अ० ।। २८० ॥ जिन प्रतिमा आगल श्री साधु, थव थुई मंगल करतां काध | अ० थव कहतां शक्रस्तव होइ, थुति एकादि सत्त लगि जोइ अ० || २८१ ॥ ण वेचावच्चि दोष न कोइ, जेय करें तसु बहु फल होइ अ० अनाण दंसण चारितनो लाह, जाणी मनस्युं करो उच्छाह अ० ॥ २८२ ॥ उत्तर झयण अछे छत्रीस, एह विचार छे ओगुणत्रीस । अ० सझाय वायण पुच्छण परियण, अणुप्पेह धर्म्मका गुण वट्टण अ० ॥ २८३ ॥ सझाय कह्यो जे पंच प्रकार, करे निरंतर श्रीअणगार । अ० श्रीपासचंद सूरीसर सीस, श्रीसमरचंद तसु नामे सीस
अ० ।। २८४ ॥
( दूहा० )
ध्यान आरत ने रौद्र बळी, धरम मुकल ए च्यार । तेहना भेद विचारीये, गुरु मुख निरता धार ।। २८५ ॥ प्रथम आरतना भेद चड, अण गमतानो योग । कइयें थास्यें एहनो, आतमथकी वियोग || २८६ ॥ गमतानो संयोग तमु, वंछे नही वियोग | शब्दादिक पंचयतणो, अणि इट्ठ काम भोग || २८७ || रोगाइय आवें कदा, चिंते हुयें विच्छेद |