Book Title: Jain Nyaya ka Vikas
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Nathmal Muni
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ બેન ન્યાય વા તાલે प्रवक्ता मुनि नयमल सपादक મુનિ દુજરાન प्रकाशक નૈન વિદ્યા અનુશીલન વેન્દ્ર રાજસ્થાન વિશ્ર્વવિદ્યાલય નયપુર Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ માવાન મહાવીર ! ઘગ્રીવ નિર્વાણ રાતાદ્દી के अवसर पर રાનસ્થાન વિશ્વવિદ્યાર્થી નાપુર સ્થાપિત નન વિદ્યા અનુશીલન ” प्रथम पुष्प Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना राजस्थान विश्वविद्यालय के तत्वावधान में "जैन विद्या अनुशीलन केन्द्र" को विशिष्ट अनुदान द्वारा प्रतिष्ठित करने का श्रेय राजस्थान सरकार को है। सर्वप्रथम केन्द्र के कार्य को गति देने के लिए उसके तत्कालीन अधिष्ठाता डा० दयाकृ०॥ ने गण्यमान्य विद्वानो के भाषण की व्यवस्था करने की योजना बनायी। सौभाग्य से श्रादरणीय मुनिवर नयमलजी ने इस भाषणमाला का श्रीगणेश करने की स्वीकृति प्रदान की। फलत मुनिजी के चार भाषण करवाये गये। इनको लिपिवद्ध किया गया और उनका केन्द्र के द्वारा प्रकाशन आपके समक्ष है। जैन न्याय का प्राणभूत सिद्धान्त स्थाद्वाद है और उसका सकेत प्राचीनतम जैन न थो मे स्पष्ट मिलता है। परवर्तीकाल मे बौद्ध और ब्राह्मण नैयायिकी के साथ परस्पर विचार एव शास्त्रार्थ के द्वारा जन न्याय का विकास हुआ। समन्तभद्र और सिद्धमेन ने जिस न्याय शास्त्र का बीजारोपण किया उसे अकलक ने एके सूक्ष्म शास्त्र के रूप में परिवर्षित किया और विद्यानन्द एवं प्रभाचन्द्र ने इस शास्त्र को बृहत् श्राकार प्रदान किया। न्याय के सूक्ष्म और जटिल प्रकरणों से मूल तत्वो का सरल और मौलिक प्रतिपादन मुनि नयमलजी ने अपने व्याख्यानो मे किया है । उनके प्रतिपादन मे गभीरता के साथ-साथ प्रसादगुण अद्भुत रूप से विद्यमान है जोकि उनकी तलस्पर्शी विद्या का घोतक है । हमे आशा है कि प्रस्तुत न थ विद्वानो तथा जैन न्याय की जानकारी के जिज्ञासुओ के लिए उपयोगी सिद्ध होगा। मैं विश्वविद्यालय की ओर से विद्वान् मुनि श्री के प्रति आभार प्रकट करता है और पा०को से अनुरोध करता हूँ कि न थ के सारगर्भित विषय से लाभ उ०ावें । केन्द्र के वर्तमान अधिष्ठाता डा० गोपीनाथजी शर्मा बधाई के पात्र हैं कि उनके प्रयत्नो से यह प्रकाशन पूरा हो सका है। વિન્ય વન્દ્ર પાડે कुलपति राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर। मार्च 12, 19771 Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुति जैन दर्शन आध्यात्मिक परम्परा का दर्शन है । सब दर्शनो को दो श्रेणियो मे विभक्त किया जा सकता है-श्राव्यात्मिक और बौद्धिक । आध्यात्मिक दर्शन स्व और वस्तु के साक्षात्कार या प्रत्यक्षीकरण की दिशा मे गतिशील रहे हैं। बौद्धिक दर्शन स्व और वस्तु से सवधित समस्याओ को बुद्धि से सुलझाते रहे हैं । आध्यात्मिक दर्शनो ने देखने पर अधिक बल दिया, इसलिए वे तर्क-परम्परा का सूत्रपात नही कर सके । बौद्धिक दर्शनो का अध्यात्म के प्रति अपेक्षाकृत कम आकर्षण रहा, इसलिए उनका ध्यान तकशास्त्र के विकास की और अधिक आकर्षित हुआ। તરસ્ત્રીય વિકાસને વેંદ્ધ, નૈયાયિ-વશેષિૌર મીમાસ અગ્રણી રહે हैं । मीमासक मनुष्य के अतीन्द्रियज्ञान को मान्य नहीं करते। न्याय और शेषिक दर्शन की पृष्ठभूमी मे अध्यात्म का वह विकसित रूप नहीं है जो साख्यदर्शन की पृष्ठभूमी मे है । वौद्ध दर्शन की पृष्ठभूमी पूरी की पूरी आध्यात्मिक है। जब तक भगवान बुद्ध और उनकी परम्परा के प्रत्यक्षदर्शी भिक्षु रहे तब तक बौद्ध परम्परा तर्कशास्त्र की ओर आकर्षित नहीं हुई । साधना का बल कम होता गया, प्रत्यक्षदर्शी भिक्षु कम होते गए, तब तकशास्त्र के प्रति झुकाव होता गया। जैन परम्परा मे तर्कशास्त्र का विकास बौद्धो के बाद हुआ । इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि बौद्धो की अपेक्षा जैन श्राचार्य अधिक समय तक प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं। प्रत्यक्षदर्शन की साधना कम होने पर ही हेतु या तर्क के प्रयोग की अधिक अपेक्षा होती है । मैं यह स्थापना नही कर रहा हूँ कि प्रत्यक्ष-द्रष्टा मुनियो की उपस्थिति मे हेतु या तर्क का कोई उपयोग नही होता, किन्तु यह कहना मुझे इष्ट है कि उसका उपयोग बहुत ही नगण्य होता है जैन दर्शन तक-परम्परा मे प्रवेश कर वाद और न्याय-वैशेषिक दर्शनो की कोटि मे आ गया, किन्तु वह अपनी आध्यात्मिक परम्परा को विस्मृत किए बिना नही रह सका। बौद्धो मे ध्यान-सम्प्रदाय की परम्परा तर्क से दूर रहकर अध्यात्म की दिशा मे चलती रही। जनो मे ऐसी कोई स्वतन्त्र परम्परा स्थापित नही हो सकी, फलत अध्यात्म और तक का मिलाजुला प्रयत्न चलता रहा। इस भूमिका मे जन दर्शन के तर्कशास्त्रीय सूत्रपात और विकास का मूल्याकन किया जा सकता है । भने इसी भूमिका को ध्यान मे रखकर उसका मूल्याकन किया है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 11 ) શ્રાવાય શ્રી તુલસી સન્ 1975 ા વાતુર્માસ નયપુર મૈં વતા રહે છે ! રાખયાન વિશ્વવિદ્યાલય કે નતિ શ્રી ગોવિવન્દ્ર પાડે પ્રૌર ના સંાય છે ઢીન શ્રી વયા આવાર્યશ્રી છે પામ શ્રાપ્ । હન્હોંને રાજ્યાન વિવિદ્યાલય મે મદ્ય સ્થાપિત ‘જૈન વિદ્યા. અનુશીલન કેન્દ્ર' છે અન્તયંત ‘નૈન ન્યાય' વિષય પર ભાષામાતા આયોનિત ને ા સુાવ પ્રસ્તુત યિા । આવાર્યશ્રી ને હસે સ્વીકૃતિ વી છૌર ખાવા તેને જે નિષ્પ મુમૈ નિર્દેશ વિયા, મૈં અપની તૈયારી મે ના થયા ! માસ ી તૈયારી છે વાવે ભાષામાતા છો ને પ્રારમ હૈ યા પ્રતિ શુક્ષ્વાર જૈનન્યાય પર ભાષા તેને વિધ્ મૈં શ્રપને સહ્યોની મુનિયો (મુનિ શ્રીન્દ્રી, મુનિ વ્રુતજ્ઞાનની ઔર મુનિ મહેન્દ્રકુમારની) કે સાય વિશ્વવિદ્યાલય મેં ખાતાં ઔર ભાષણ વા મનાતા । લતિ શ્રી પાડે, ફ્ન્છા હોતે દ્રુ ભી, સમી ભાષણો કે ચિત્ત નહી રહ સ 1 પ્રો. વયાńા પ્રાય સમી ભાષણો મૈં સ્થિત રહેઔર ઉન્હોંને વદ્યુત વિત્તવપી ની 1 વિવવિદ્યાલય છે અન્ય પ્રને પ્રાધ્યાપ, પ્રવhા શ્રૌર ગોયવિદ્યાર્થી વિદ્યાર્થી કપસ્થિત રહતે । મુમૈ પ્રસન્નતા હૈ હનળી રપતિ શ્રૌર ગિનાસાત્રો ને નવા મુ કુછ નયા ષ્ટિનો પ્રસ્તુત રને જૈનિ પ્રેરિત જિયા ! વર્શન ી નર્વ સમાવના જે વિષય મેં મૈં જુજી પ્રાગ નહી ચાલતા વિપ્રો યાદ્ભા ડ્સ પ્રશ્ન જો નપસ્થિત નહી રતે । સમય, સ્યાન શ્રાવિ શ્રી વ્યવસ્યા મે પ્રવhા મુન્દ્ તાન ને વડી તત્પરતા સે અપના વાયિત્વ નિમાયા ઔર ભાષામાતા ા ક્ર્મ સમીવીન રૂપ સે સમ્પન્ન દુઆ 1 ભાષાનાના વા પ્રારમ્ભ ‘નૈન વિદ્યા બ્રનુશીલન ન્દ્ર' કે દ્વાન के रूप मे દુમા 1 प्रो दयाकृष्ण ने વત મામિ શબ્દો મેં શ્રાવાર્યશ્રી તુલસી જે પ્રતિ નૃતજ્ઞતા વ્યò છી । ભાષામાતા શ્રાવાર્યશ્રી તુલસી છે સાન્નિધ્ય મે સમ્પન્ન હુઈ । ઝસ સમય ઝુલપતિ પાડે તયા વિશ્વવિદ્યાલય કે અન્ય વિદ્વાન્ કર્ષાયત થે દ્દી, સયોાવશ ૐ વોનસિહ જોઠારી ની વત્તા આ નાણું થે । રસ સમય પ્રાણિ TE તારો સે મેંને અનુભવ શિયાળિ પારશ્વાત્ય તશાસ્ત્ર હૈ અવ્યયન મે રહનેવાલે વિદ્યાનું મારતીય તશાસ્ત્ર જ પરમ્પરાઓ જે પ્રતિ નાવળ હોતે ના રહે હૈં । સ માળામાતા જ હસે. નાાવતા ી ડી જે રૂપ મેં હી અન યિા થયા । મુદ્દે ચહ્ન વત્ત ગુમ ના 1 મૈં પ્રવાર્યશ્રી તુનસી કે પ્રત્તિ સર્વાત્મમાવેન બ્રહ્માનત દૂ, ર્િ↑ પ્રસ્તુત સત્ત્વમેં મેં રનવે પરણો મે અપની વિનત્ર શ્રદ્ધા સર્પિતરતા હૂઁ । વિવવિદ્યાતય હૈ ગુલતિ તયા શ્રન્ય વિદ્વાનો ને નિસ વિ ઔર સદ્ભાવ સે ાર્યક્ર્મ જો સમ્પન્ન જરને મે યોગ વિદ્યા, ૭મા યવીર્ય મૂલ્યાન ર્ મૈં હન્નાસ ા અનુમવતા હૂઁ I મુનિનનો ૉ સદ્યોની સ્મરણીય હૈ કિ ભાષા વેને જે તિવાર માર્શી ખાનેશ્રાને મે ના યોા મિલતા રહા । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી જેરારીવન્દ્ર જુનિયા, રાધેશ્યામ ર ન પુત્ર યામ ને માવો જે ટેપ ले उन्हे सुरक्षित कर लिए । मुनि दुलह राजजी ने उन्हें सपादित किया और परिशिष्ट भी तैयार किए । प्रति-मेलन मे मुनि राजेन्द्रकुमारजी ने सहयोग दिया। वे भाषण अब तक एक पुस्तक के रूप मे प्रस्तुत हैं । राजस्थान विश्वविद्यालय 'जन विद्या अनुशीलन केन्द्र' के प्रथम पुष्प के रूप मे इसे प्रकाशित कर पाठको के सामने प्रस्तुत कर रहा है यह भगवान महावीर की पचीसवी निवारण शताब्दी के अवसर पर राजस्थान विश्वविद्यालय तथा हम सबकी भगवान महावीर के प्रति श्रद्धापूर्ण भावाजलि होगी। जैन विश्व भारती, लाडनू (राजस्थान) 10-5-76 मुनि नयमल Page #12 --------------------------------------------------------------------------  Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . વિષયાનુક્ષ્મ આપન યુન ા નૈન ન્યાય प्रमेय की सिद्धि प्रमाराधीन प्रमाण संख्या પાવાન છે નાનાત્ત્વ તે પ્રમાણ 7 નાનાત્ત્વ ન્યાય ની પરિમાષા જૈન ન્યાય છે તીન ચુમ આયુર્વે વા ઝૈન ન્યાય ज्ञान का स्वरूप જ્ઞાન TM મૂળ સ્રોત ઔર ઉત્પત્તિ રાની સીમા ન્દ્રિયજ્ઞાન શ્નૌર પ્રમાણુશાસ્ત્ર प्रश्न और उत्तर વર્શનયુદ્ધ ા જૈન ન્યાય શ્રામ પ્રો હેતુ TM સમન્વય અહેતુામ્ય પવાર્થ હેતુામ્ય પવાર્થ ज्ञान का प्रमाणीकरण પ્રત્યક્ષ પ્રમાણ દ્દી સળસૂત્રીય પરિમાષા અનેળાન્ત-વ્યવસ્થા પ્રૌર વર્ણન-સમન્વય સમન્વય છે શ્રાયામ પ્રરન શ્રૌર ઉત્તર अनेकान्त व्यवस्था के સૂત્ર સામાન્ય શ્નૌર વિશેષ 7 વિનામાવ નિત્ય સૌર શ્રનિત્ય । વિનામાવ અસ્તિત્ત્વ ઔર નાસ્તિત્વ ા ધ્રુવિનામાવ વાજ્ય શ્રૌર શ્રવાન્ય 7 અવિનામાવ અનેાન્ત ા વ્યાપળ યોગ .... .... .... ::: .... : : .... .... ૐ ૐ .... : .... 30.0 पृ० 1 2 2 6 7 8 20=23 10 10 12 13 17 18 21 21 22 23 26 223 28 31 છેદ છ ર 36 43 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ५ ६. अस्ति नास्ति का श्रविनाभाव નિત્ય ઔર ક્રનિત્ય ળા અવિનામાવ द्रव्य और पर्याय के भेदाभेद का अविनाभाव एक और अनेक का अविनाभाव अनेकान्त फलित और समस्याए नयवाद अनन्त पर्याय, अनन्त दृष्टिकोण संग्रह और व्यवहार नय સૈામનય ऋजुसूत्रतय शब्दनय સર્નામતનય एवमुतनय नय की मर्यादा निक्षेप नय और निक्षेप प्रश्न और उत्तर (v) स्याद्वाद और सप्तभंगी न्याय स्याद्वाद के फलित प्रश्न और उत्तर प्रमारण-व्यवस्था प्रमाण की परिभाषा પ્રામાણ્ય ઔર અબ્રામાખ્ય प्रसारण का फल प्रसारण का विभाग સ્મૃતિ प्रत्यभिज्ञा तर्क श्रागम प्रश्न और उत्तर अनुमान हेतु हेतु के प्रकार અવયવ-પ્રયોગ 140 ... • 100 ... + 4 = 50 44 45 46 47 48 50 50 51 53 55 56 58 58 59 61 63 6 37 66 73 77 81 81 85 87 88 96 97 99 100 102 104 106 107 107 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અવિનામાવ 113 અવિનાભાવ (વ્યાપ્તિ) જે નાનને લઈ ઉપાય • • 115 બરન ર ૩ત્તર • - 121 મારતીય પ્રમાશાસ્ત્ર છે વિશાલ રેં નન પ૨૫૨ ૧ યોહાન " 123 દર્શન બૌર પ્રમાણ-શાસ્ત્ર ન સભાવના હ 121 પરિશિe 1 પ્રમાણો # વિમર્શ બહાર - - 133 2 વ્યક્સિ, સમય ઔર ન્યાય રનના • • 139 3 ન્યાય-ન્ય છે પ્રોતાઓ વ સલિપ્ત નીવન-પરિવય “ 145 4 પારિભાષિરાદ્ધ-વિવાર 161 5 પ્રયુpખે સૂવી 113. Page #16 --------------------------------------------------------------------------  Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 1: प्रागमयुग का जैन न्याय "यस्मिन् विज्ञानमानन्द, ब्रह्म चकात्मता गतम् । स श्रद्धय स च ध्येय , प्रपद्य शरण च तत् ॥" प्रमेय की सिद्धि प्रमाणाधीन भारतीय दर्शन में सर्वप्रथम प्रमाण की चर्चा की जाती है। प्रमेय की चर्चा उसके पश्चात् आती है । प्रमाण और प्रमेय ये दो न्यायशास्त्र के मूलभूत अंग हैं । प्रमेय की स्थापना प्रमाण के द्वारा होती है । 'प्रमेयसिद्धि प्रमाणाद्धि' प्रमेय की सिद्धि प्रमाण से होती है, यह ईश्वरकृष्ण का अभिमत है ।' प्राचार्य अकलक का भी यही मत है । प्रमेय का अस्तित्व स्वतत्र है, किन्तु उसकी सिद्धि प्रमाण के अधीन है। जब तक प्रमाण का निर्णय नही होता तब तक प्रमेय की स्थापना नही की जा सकती। इसीलिए दर्शन के प्रारम्भ मे प्रमाण-विद्या [तर्क-विद्या, भान्वीक्षिकी या न्याय-विद्या ] की चर्चा की जाती है। आगम सूत्रो मे पहले ज्ञान का फिर ज्ञय का निर्देश मिलता है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार मे ज्ञानखड के पश्चात् ज्ञयखड का प्रतिपादन किया है। अनुयोगद्वार तथा नदीसूत्र का प्रारम्भ शान-सूत्र से ही होता है। सत्य ज्ञय है । उसको जानने का साधन ज्ञान है । सत्य का अस्तित्व अपने आपमे है। वह ज्ञाता के ज्ञान पर निर्भर नहीं है और उससे उत्पन्न भी नही है । पैतन्य का अस्तित्व भी स्वतंत्र है। वह शेय पर निर्भर नहीं है और उससे उत्पन्न भी नही है। पैतन्य के द्वारा कुछ जाना जाता है तब वह ज्ञान बनता है और जो जाना जाता है वह ज्ञेय बनता है । पैतन्य मे जानने की क्षमता है इसलिए वह शान बनता है और पदार्थ मे ज्ञान का विषय बनने की क्षमता है इसलिए वह ज्ञय बनता है। इसीलिए जन दार्शनिको ने ज्ञय से पूर्व शान की मीमासा की है। 1 साख्यकारिका, 4 2 तत्वार्थ राजवात्तिक 1/10 प्रमेयसिद्धि प्रमाणाधीना । 3 उत्तरायणाणि, 28/4-14 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 ) प्रमेय के विषय मे दो मत हैं । कुछ दर्शन प्रमेय की वास्तविता को स्वीकार करते हैं और कुछ नकारते हैं, किन्नु प्रमाण के विषय मे दो मत नहीं है। प्रमेय की पास्तविकता और अवास्तविकता-दोनो ही प्रमाण के द्वारा सिद्ध की जाती हैं। इमलिए सर्वप्रथम प्रमाण की चर्चा करना आवश्यक है। प्रमाण संस्था प्रमाणो की सस्या के विषय मे मव दर्शन एकमत नहीं हैं। चार्वाक दर्शन ने एक प्रत्यक्ष प्रमाण को स्वीकृति दी है। पाद और वैशेषिक दर्शन में दो प्रमार॥ सम्मत हैं-प्रत्यक्ष और अनुमान । जनदर्शन भी दो प्रमाणो को स्वीकार करता है प्रत्यक्ष और परोक्ष । माख्य दर्शन मे तीन प्रमाण स्वीकृत है प्रत्यक्ष, अनुमान और बागम । नैयायिक दर्शन प्रमाण-चतुष्टयी को मान्यता देता है प्रत्यन, अनुमान, आगम और उपमान । मीमामक दर्शन में प्रभाकर ने 'अपित्ति को जोडकर पाच और कुमारिल ने 'प्रभाव के साथ छह प्रमाण स्वीकृत किए है । महर्षि चरक ने 'युक्ति' महित मात और पौराणिको ने 'ऐतिह्य के माय पा० प्रमाण मान है। प्रमाणो की सस्या का और भी विस्तार किया जा सकता है । प्रामाणिको ने प्रमाणसंख्या के संदर्भ मे एकमति क्यो नही प्रदशित की ? नाना मतिया क्यो स्वीकृत है ? इसके हेतु की खोज आवश्यक है। उपादान के नानात्व से प्रमाण का नानात्व प्रमाण के उपादान पार हैं। 1 इन्द्रिय-जान । 2 मानसिक-ज्ञान। प्रना। 4 अतीन्द्रिय-जान । जिन दार्शनिको ने केवल इन्द्रिय-जान को ही निर्णायक माना उनके सामने केवल प्रत्यक्ष को प्रमाण मानने के अतिरिक्त कोई विकल्प शेष नही रहा । भारतीय दर्शनो मे चार्वाक दर्शन ने इन्द्रिय-जान को ही सत्य की शोध का साधन माना था। उसका अभ्युपगम है कि जो इन्द्रिय के द्वारा जाना जाता है वह यथार्थ है, शेष अयथार्थ । इन्द्रियातीत नान कल्पना के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जब जानने की मर्यादा केवल इन्द्रिय-जान है तब प्रत्यक्ष के सिवाय कोई प्रमाण हो नहीं सकता। एक प्रत्यक्ष प्रभास की स्वीकृति के कारण पाकि दर्शन के अनुयायियों को व्यावहारिक कठिनाइयो का सामना करना पड़ा। उनके समाधान के लिए उन्होंने 'अनुमान' की उपादेयता स्वीकृत की। यह स्वीकृति मात्र श्रीपचारिक है, व्यवहारमिद्धि के लिए है, किन्तु वास्तविक नही है । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईसा की सोलहवी गती के सुप्रसिद्ध दार्शनिक फासिस बेकन (Francis Bacon) ने इन्द्रियानुभव के सिद्धान्त को सर्वोपरि महत्व दिया और अतीन्द्रिय परमार्थ को असत्य एव काल्पनिक बतलाया। उनके मतानुसार जो इन्द्रियानुभूत नही है वह ययार्य नहीं है, जो इन्द्रिय-प्रत्यक्ष नही है वह सत्य नही है । इन्द्रियवादी दार्शनिको ने भी प्रज्ञा को स्वीकृति दी है। वेकन के अनुसार केवल इन्द्रियानुभव पर्याप्त नहीं है, आगमनात्मक तर्क भी श्रावश्यक है। सर्वप्रथम हम इन्द्रियानुभव के द्वारा घटनाप्रो और तथ्यो का सकलन करें, फिर उनका विश्लेषण करें । विश्लेषण मे प्राप्त तुलना और विरोध के आधार पर सामान्य नियम (व्याप्ति) या हेतु की खोज करें। इस प्रकार वेकन ने प्रत्यक्षवाद और प्रज्ञावाद का समन्वय किया है। इन्द्रिय-जान, मानसिक-जान और प्रज्ञा ये तीनो गरी राधिष्ठान की सीमा मे आते हैं । इन्द्रिय-जान का उपकरण मस्तिक तथा शरीरगत इन्द्रिय अधिष्ठान है। मन और प्रजा का उपकरण मस्तिष्क है। भारतीय चिन्तको ने इस शरीरनिमित्तक ज्ञान से भागे भी प्रस्थान किया। उनके प्रस्थान का सार यह है इन्द्रिय, मन और प्रजा से परे भी जान है । वह प्रस्थान न बौद्धिक था और न ताकिक । उसका अनुभव योगिक अभ्यास के द्वारा प्राप्त था । उन्होने निविकल्प सावना का अभ्यास किया, जहा इन्द्रिय समाप्त, मन समाप्त, बुद्धि और तर्क समाप्त, विकल्पमात्र समाप्त हो जाते हैं । उस निर्विकल्प भूमिका मे उन्हे साक्षात् अनुभव हुआ, तब उन्होने अतीन्द्रिय-ज्ञान को स्वीकृति दी। वह मान इन्द्रियातीत, मनातीत और प्रजातीत है। उसमे शरीर का कोई उपकरण सहयोग नही करता या शरीर के किसी भी उपकरण की सहायता अपेक्षित नहीं होती। इस अतीन्द्रिय-ज्ञान की स्वीकृति ने आगम प्रमाण की स्वीकृति दी। प्रागम का अर्थ है अतीन्द्रियमान की स्वीकृति । यदि अतीन्द्रियज्ञान की स्वीकृति नहीं होती तो श्रागम का प्रामाण्य प्रमाण की शृखला मे नही जुडता । प्राचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार जिसे इन्द्रियातीत-ज्ञान प्राप्त होता है वह सम्पूर्ण सत्य को जान लेता है, देख लेता है । भारतीय दर्शनो ने अतीन्द्रियशान को किसी-न-किसी रूप में मान्यता दी है। जैन और वौद्ध दार्शनिको ने पुरुष मे अतीन्द्रियज्ञान को स्वीकार किया है । ईश्वरवादी दार्शनिको ने ईश्वर को अतीन्द्रियजानी माना है। साख्य, नैयायिक, वैशेपिक और मीमासक ये सभी दर्शन 'श्रागम' को प्रमाण मानते हैं । जैन दर्शन के अनुसार परोक्ष प्रमाण के पाच प्रकार हैं। उनमे 4 प्रवचनसार, 29 , जागादि पस्सदि णियद, अक्खातीदो जगमसेस । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 4 ) પાવવા પ્રકાર પ્રાયમ” હૈ કપાવાન તત્ત્વ જી મન્નતા જે છારા પ્રમાણ-શિ પર fબન્ન-મિસ મર્યાદા સ્વીકૃત દુર હૈ પ્રમાણ છે નાનાવું તે પ્રમેય થવા નાનાવ પ્રમાણ વી નાના સ્વીøતિયા હૈં, પ્રત પ્રમેય થી નાનાં સ્વીકૃતિયા દર્ફે વિશ્વ વન ને તત્વો જે વિભિન્નતા સ્વીકાર કી હૈ. બંને વન મે ઘ દ્રવ્ય મીર નૌ તત્ત્વ સમ્મત હૈં સાલ્ય વન જે પબ્લીસ, વૈદ્ધ વન બે વાર પ્રાર્ય સત્ય, નૈયા િવન સોના શ્રી વૈરોબિન વન ને સાત તત્ત્વ માન્ય ૐ વરિ પ્રમાણે પાપ હોતા તો પ્રમેય ની સ્વીકૃતિ બ પ હોતી વદ પ નહી હૈ ક્ષતિ, પ્રમેય વી વ્યવસ્થા બી પરૂપ નહી હૈ ! વિષય ફી સ્પષ્ટતા છે તિર કુછ હાહરા પ્રસ્તુત હૈ (1) ન્દ્રિયવાવી વન પ્રમેય જે મૂર્ત શ્રી ધૂન માનતે હૈ અતીન્દ્રિયવાહી વર્શન અમૂર્ત ગ્રૌર સૂક્ષ્મ તત્ત્વ ન સ્વીાર ફરતે હૈં માત્મા છે વિષય છે મનાત્મવા, કાત્મવાદ મીર અને ત્મિવાત જે તીન સ્વીતિયા મિનતી હૈ ફન્દ્રિયવાહી વન અનાત્મવાદી હૈં આત્મા ફન્દ્રિયમા નહી હૈ ફન ફન્દ્રિયવાહી વસે સ્વીકૃતિ નહી કે તે અતીન્દ્રિયવાહી માત્મા છે સ્વીકૃતિ હેતે હૈં હનમે પી તો સ્વીતિયા હૈં. વેદાન્ત શોર ગ્રાહદષ્ટિ વારે વાનિ ને શાત્મવાદ નો સ્વીકૃતિ કી હૈ નન વન ને અનેકાત્મવાદ ને સ્વીકૃતિ હી હૈ તૈયાયિક શ્રી વોલિવ વન બી અને છાત્મવાવી છે. (2) અનિત્ય ઔર નિત્ય . વિષય જે બી અને સ્વીતિયા હૈ, નં અનિત્યવાવ, નિત્યવાદ ઔર નિત્યાનિત્યવાદ | વૌદ્ધ વન ને સવ વીવો છે ઍનિત્ય માના હૈ. સાલ્ય વન નિત્યવાહી હૈ તૈયાયિક નિત્યનિત્યવાહી હૈં વે પ્રારા મીર માત્મા તો નિત્ય માનતે હૈં તથા વપરાવા આવિ છે નિત્ય માનતે હૈં ન તન ની નિત્યનિત્યવાહી હૈ હિન્દુ રસ નિત્યાનિત્યત્વ સિદ્ધાન્ત તૈયાયિક વન નૈસા નહી હૈ. નૈન વન વે અનુસાર પ્રારા ૨ વપરાવા તરુ જે સમી પવાર્ય નિત્યનિત્ય હૈં પ્રારા જેવા નિત્ય હી નહીં હૈ ઔર વીપરિશલા વન અનિત્ય હીં નદી છે. પ્રારા સ્વમાવત પરિશમન હોતા હૈ ફલતિ વહ ઝનિત્ય મ હૈ કૌર વિપરિાવા છે પરમાણુ ઘર હું ફલતિફ વહુ નિત્ય ભી હૈ. સ્થાવાવ શી મર્યાદા રે. અનુસાર ફોર્ડ દ્રવ્ય જેવા નિત્ય ચા વન અનિત્ય નહી હોતા હૈ” 5 6 પ્રમાણનયતત્ત્વાનો, 3/2. સ્મરામત્યમિજ્ઞાનતનુમાનામામેવતસ્તર પખ્યપ્રારા અન્ય વ્યવ છેવત્રશિ, રતો 5 આવીપમાવ્યોમસમસ્વમાવ, ચાવાવમુદ્રાનતિ મેડિ વસ્તુ / તન્નિત્યમેવમનિત્યમજ્યહિતિ વવાનાદિષતા અનાપા Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 5 ) (3) असत्कार्यवाद, मत्कार्यवाद और सदसत्कार्यवाद ये भी प्रमेय-व्यवस्था के भेद की स्वीकृतिया हैं । सात्य दर्शन सत्कार्यवादी या परिणामवादी है । उसके अनुसार कारण मे कार्य की सत्ता होती है। सर्वथा असत्कार्य की उत्पत्ति नही हो सकती । उपादान मे कार्य का सद्भाव होता है। सब कारणो से सब कार्य उत्पन्न नही होते । समर्थ कारण भी शक्य कार्य को ही उत्पन्न करता है, अत कारण मे कार्य की सत्ता अविवाद है।' कार्य कारण मे शक्तिरूप से रहता है। वैशेषिक दर्शन असत्कार्यवादी (प्रारमवादी) है । उसके अनुसार परमाणुओ के सयोग से एक-अवयवी द्रव्य उत्पन्न होता है । उत्पत्ति से पूर्व उसकी सत्ता नही होती। बौद्ध दर्शन भी असत्कार्यवादी है। उसके अनुसार पूर्व और उत्तर क्षण के साय वर्तमान क्षण का वास्तविक सबंध नहीं होता। जन दर्शन सदसत्कार्यवादी (परिणामिनित्यत्ववादी) है। द्रव्याथिक न4 की दृष्टि से सत् नष्ट नहीं होता और असत् उत्पन्न नहीं होता, इसलिए सत्कार्यवाद सगत है। पर्यायाथिक नय की दृष्टि से सत् विनष्ट और असत् उत्पन्न होता रहता है, इसलिए असत्कार्यवाद भी संगत है। जीव चैतन्य गुण से कभी च्युत नहीं होता, इसलिए कहा जा सकता है कि सत् का विनाश नही होता और असत् का उत्पाद नही होता। जीव निरतर विविध अवस्याओ मे परिमन करता रहता है, इसलिए कहा जा सकता है कि सत् का विनाश होता है और असत् का उत्पाद होता है 110 ___ सत्कार्यवाद के अनुसार दही दूध का परिणमन मात्र है, इसलिए उन दोनो मे कोई भेद नहीं है। असत्कार्यवाद के अनुसार वस्त्र धागो से निष्पन्न एक कार्य है, इसलिए वह कारण से भिन्न है । सदसत्कार्यवाद के अनुसार मिट्टी के परमाणुगो मे घट और ५८०५ मे परिणमन करने की योग्यता है, पर मिट्टी के पिंडरूप पर्याय मे पटरूप में परिणत होने की साक्षात् योग्यता नही है। उसमे घटरूप मे 7 सांख्यकारिका, 9 असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भावाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥ 8 ५चास्तिकाय, 15 भावस्स परिय पासी, पत्थि अभावस्स उप्पादो। 9 पचास्तिकाय, 19 ઇવ સો વાતો પ્રસવો નીવર્સી ત્યિ ૩ખાવો ! 10 ५चास्तिकाय, 60 एव सदा विरणासो असदो जीवस्स होई उत्पादो। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणत होने की साक्षात् योग्यता है। भिन्न-भिन्न कार्य भिन्न-भिन्न उपादानो से उत्पन्न होते हैं । सबका उपादान एक नही है। द्रव्य-योग्यता और पर्याय-योग्यता -दोनो का समन्वय करने पर ही सत् और असत् की व्याख्या की जा सकती है। दूध के परमाणुत्रो मे दही०५ मे परिणत होने की योग्यता साक्षात् पर्याय की दृष्टि से है, व्यवहित पर्यायो की टि से दूध के परमाणु कपास के परमाणुओ मे बदल सकते हैं । दूध स्वयं परमाणुश्री का एक पर्याय है। और कोई भी पर्याय चिरतन नहीं होता । चिरतन परमाणु हैं। दूध, दही, मिट्टी, कपास ये सब उनके पर्याय हैं, इसलिए परमाणुओ के किसी एक पर्याय से साक्षात् उत्पन्न होने वाले पर्याय को सत् और व्यवहितरूप से उत्पन्न होने वाले पर्याय को असत् कहा जाता है । इस प्रकार सत् और असत् पर्याय के आधार पर भी मदसत्कार्यवाद की व्याख्या की जा सकती है। (4) दर्शन के क्षेत्र मे दो धाराए हैं पस्तुवादी और अवस्तुवादी या श्रादर्शवादी । इन्द्रियवादी दार्शनिको का यह अभ्युपगम है कि दृष्टिगोचर पदार्थ ही वास्तविक है । जैन, नैयायिक, वरोपिक और मास्य दर्शन के अनुसार भी इन्द्रियगम्य पदार्थ अवास्तविक नही हैं। वौद्ध दर्शन की दो शाखाए -हीनयान और વિનાનવાવી–ફન્દ્રિય પદાર્થો જે વાસ્તવિ નહી માનતી ડન અનુસાર मवेदन के अतिरिक्त जो सवेद्य है वह वास्तविक नही है। वह काल्पनिक है, स्वप्नीपम है या मृगमरीचिका की भाति भ्रान्त है। प्राचार्य शकर के वेदान्त की भी यही स्वीकृति है । पश्चिमी दार्गनिक ह्य म और वर्कले ने भी सवेदन-प्रवाह के अतिरिक्त सर्वच का कोई वास्तविक अस्तित्व स्वीकार नहीं किया। जितने भी નાનવાવી વાર્ગનિ હૈ ન સવને વસ્તુઓ જે વાસ્તવિક અસ્તિત્વ શી અસ્વીકૃતિ की है। न्याय की परिभाषा वस्तु का अस्तित्व स्वत सिद्ध है । नाता उसे जाने या न जाने, इसमे उसके अस्तित्व मे कोई अन्तर नहीं पाता। वह माता के द्वारा जानी जाती है तव प्रमेय वन जाती है और जाता जिससे जानता है वह जान यदि मन्या या निर्णायक होता है तो प्रमाण बन जाता है। इसी आधार पर न्यायशास्त्र की परिभाषा निर्धारित की गई। न्याय-भाप्यकार वात्स्यायन के अनुसार प्रमाण के द्वारा अर्थ का परीक्षण 'न्याय कहलाता है। उमास्वाति के अनुमा• अर्थ का अधिगम प्रमाण और नय के द्वारा होता है ।12 इस सूत्र के आधार पर जैन तर्क-पर-परा मे 11 12 न्यायभाष्य, 11111 प्रमागीरथपरीक्षण न्याय । तत्वार्य मृत्र, 1/6 __प्रमागान रविराम । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 7 ) न्याय की परिभाषा इस प्रकार होगी 'प्रमाणनये रर्याधिगमो न्याय -प्रमाण और नय के द्वारा अर्थ का अधिगम ( निर्णय या परीक्षण) करना 'न्याय' है । उद्योतकर ने प्रमाण-व्यापार के द्वारा किये जाने वाले अधिगम को 'न्याय' माना है । 13 जैन परम्परा मे 'न्याय' की अपेक्षा 'युक्ति' शब्द अधिक प्रचलित रहा है । यतिवृषभ का अभिमत है कि जो व्यक्ति प्रमाण, नय और निक्षेप के द्वारा अर्थ का निरीक्षण नहीं करता, उसे युक्त प्रयुक्त और प्रयुक्त युक्त प्रतीत होता है । 14 प्रमाण का अर्थ है सम्यग् ज्ञान । नय का अर्थ है वस्तु के एक धर्म को जानने वाला ज्ञाता का अभिप्राय । निक्षेप का अर्थ है - - प्रस्तुत अर्थ को जानने का उपाय । प्रमारण, नय और निक्षेप की युक्ति के द्वारा होने वाला अर्थ का अधिगम 'न्याय' है । यतिवृषभ के शब्दो मे यह न्याय आचार्य परम्परा से चला ना रहा है 115 आचार्य समन्तभद्र के श्रभिमत मे जैन-न्याय का प्रतिनिधि शब्द 'स्यात् ' है । वह सर्वथा विधि श्रोर सर्वथा निषेध को स्वीकार नहीं करता । उसके अनुसार विधि और निषेध दोनो सापेक्ष है 116 जैन परम्परा के अनुसार समूचा प्रमाणशास्त्र या न्यायशास्त्र स्यादवाद की मर्यादा का अतिक्रमण नही करता । उक्त तथ्यों के आधार पर जैन तर्क-परम्परा के अनुसार न्याय की परिभाषा यह होगी प्रमाण, नय और निक्षेप के द्वारा किया जाने वाला वस्तु का सापेक्ष अधिगम 'न्याय' है । जैन न्याय के तीन युग 13 15 जैन न्याय तीन युगो मे विभक्त होता है 1, आगमयुग का जैन-न्याय | न्यायवार्तिक, 14 तिलोयपण्णत्ती, 1/82 16 समस्तप्रमाणव्यापारादर्थाधिगतिर्व्याय । जोग मायेहि क्खिवेण रिक्खदे प्रत्य । तस्साजुत्त जुत्त जुजु च पडिहादि ॥ तिलोयपण्णत्ती, 1/ 83,84 होदि प्रमाणो वि गादुस्स हिदयभावत्यो । रिणम्खेवो वि उवाश्रो जुत्तीए प्रत्थपडिगहण ॥ इस गाय अवहारिय श्रइरियपरपरागद मरणसा पुण्वाइरियाश्रारणास रणन तिररणयरिणमित्तं ॥ स्वयंभू स्तोत्र 102 1 सर्वथा नियमत्यागी यथादृष्टमपेक्षक । स्याच्छन्दस्तावके न्याये नान्येषामात्मविद्विषाम् ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 8 ) 2 दर्शनयुग का जैन-न्याय । 3 प्रमाण-व्यवस्थायुग का जैन-न्याय । महावीर का अस्तित्व काल ई० पू० 599-527 है। उस समय से ईसा की पहली राती तक का युग आगमयुग है। ईसा की दूसरी शती से दर्शनयुग का प्रारम्भ होता है । ईसा की प्रा०वी-नीती राती से प्रमाण-व्यवस्यायुग का प्रारम्भ होता है। प्रागमयुग का जन न्याय भागमयुग के न्याय मे ज्ञान और दर्शन की विशद चर्चा प्राप्त है। श्रावृत चेतना के दो रूप होते है लब्धि और उपयोग । ज्ञेय को जानने की क्षमता का विकास लान है और जानने की प्रवृति का नाम उपयोग है । उपयोग दो प्रकार का होता है साकार और अनाकार । आकार का अर्थ है विकल्प 17 आकार सहित चेतना का व्यापार 'साकार' (सविकल्प) उपयोग कहलाता है। इसे ज्ञान कहा जाता है । प्राकार रहित चेतना का व्यापार 'अनाकार' उपयोग कहलाता है। इसे दर्शन कहा जाता है। जन भागमो मे सविकल्प और निविकल्प शदी का प्रयोग नहीं मिलता। साकार और अनाकार का प्रयोग बहुत प्राचीन है । साकार और सविकल्प तया अनाकार और निविकल्प मे अर्थ-भेद नही है । दर्शन घेतना निविकल्प और नानचेतना सविकल्प होती है । जिसके द्वारा जाना जाता है वह ज्ञान है । प्रात्मा ज्ञाता है । वह ज्ञान के द्वारा ज्ञय को जानता है । ज्ञान उसका गुण है । आत्मा और शान मे गुणी और गुण का सम्बन्ध है। पुरा गुरपी से सर्वथा अभिन्न नही होता और सर्वथा भिन्न भी नहीं होता । श्रात्मा गुणी है और ज्ञान उसका गुण है इस विवक्षा से वह आत्मा से कचिद् भिन्न है। ज्ञान प्रात्मा के ही होता है इस विवक्षा से वह आत्मा से कथाचिद् अभिन्न है। ज्ञान के पाच प्रकार है। 1. मति 2 श्रुत 3 अवधि 4 मन पर्यव 5 केवल मति और श्रत ये दो इन्द्रियज्ञान और शेष तीन अतीन्द्रियज्ञान है। ___17 तत्वार्यवात्तिक, 1/12 __ आकारी विकल्प । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 9 ) चार ज्ञान केवल स्वार्थ रववोध के लिए है। श्रुतशान स्वार्थ और परार्थ दोनो है।18 सान स्व-प्रत्यायक ही होता है । पर-प्रत्यायक होता है शब्द । श्रुतज्ञान भी पर-प्रत्यायक नही है । शब्द का उससे सम्बन्ध है। इस सम्बन्धोपचार के कारण श्रुतज्ञान को ५२-प्रत्यायक माना गया है । ज्ञान के इस वकिरण मे प्रत्यक्ष और परोक्ष का विभाग मुख्य नही है ।20 दूसरे वर्गीकरण मे प्रत्यक्ष श्रीर परीक्ष का विभाग मुख्य है1 इन्द्रियजान परोक्ष और अतीन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष । प्राचार्य कुन्दकुन्द का तर्क है कि इन्द्रिया आत्मिक नही है । वे पर-द्रव्य है । जो पर है वह श्रात्मा का स्वभाव से हो सकता है ? जो आत्मा का स्वभाव नही है, उसके द्वारा उपलब्ध ज्ञान आत्मा के प्रत्यक्ष कसे हो सकता है ? इसलिए ५२ के द्वारा होने वाला जो शान है, वह परोक्ष है 122 प्रत्यक्ष ज्ञान वही है जो केवल आत्मा से होता है, जिसमें इन्द्रिय, मन और प्रज्ञा की सहायता अपेक्षित नही होती 123 जिस शान के द्वारा अमूर्त द्रव्य और अतीन्द्रिय भूत द्रव्य तथा प्रच्छन्न द्रव्य जाने जा सकते हैं वह ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है ।24 अविद्यमान पर्याय को इन्द्रिय-ज्ञान के द्वारा नही जाना जा सकता किन्तु प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा जाना जा सकता है । स्थूल पर्याय मे अन्तलीन सूक्ष्म पर्याय इन्द्रिय ज्ञान के द्वारा नही जाना जा सकता किन्तु प्रत्यक्ष शान 18 अणुप्रोगदा॥३, 2 तत्य पत्तारि नागाइ पाई वणिज्जाइ, "सुयनास उद्दसो, समुह सो अणुण्णा अणुअोगो य पवत्त । 19 विशेषावश्यकमाय, 172,173 ण परप्वोधयाइ ज दो वि सरूवतो मतिसुताइ । त+कारणाई दोण्ह वि वोधन्ति ततो रण भेतो सिं॥ ५०वसुत्तमसाधारणकारतो परविवोधक होज्जा। 20 भगवती, 8, 2317 21 डारण, 2, 1 103 . 22 प्रवचनसार, 57,58 . परद० ते अक्सा व सहावो ति अप्पणो भगिदा । उपलक्ष हि कध पचख अप्पयो होदि ।। ज परदो विणाय त तु परोक्ख ति मणिदमसु । 23 प्रवचनसार, 58 1 जहि केवलेण पाद हदि हि जीवेण ५च्चस ।। 24 प्रवचनसार, 54 ज पेच्छदो प्रमुत्त मुत्त सु अदिदिय च पच्छण्णा । सयल सग च ३८२ त गार हवदि पच्चक्ख ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 10 ) के द्वारा जाना सकता है । अत इन्द्रिय और मन से होने वाला जान परोक्ष तथा केवल श्रात्मा के द्वारा होने वाला जान प्रत्यक्ष कहलाता है। इन्द्रिय-जान को परोक्ष मानने का दूसरा कारण यह है कि उसमे माय और विपर्यय का अवकाश रहता है । जिनभद्रगरणी ने इसके समर्थन मे लिखा है राजय और विपर्यय की सभावना के कारण इन्द्रिय-ज्ञान और मनोजान परोक्ष होता है। प्रत्यक्ष ज्ञान मे सशय, विपर्यय और अनध्यवसाय ये नहीं होते ।25 ज्ञान का स्वरूप श्रात्मा की चेतना एक और अखण्ड है। वह सूर्य को भाति सहज प्रदीप्त है। उसके दो रूप होते है अनावृत और श्रावृत । पूर्णतया अनावृत चेतना का नाम केवल जान है । यह स्वभाव-जान है । इसे निरुपाधिक-जान भी कहा जाता है । अनावृत चेतना की अवस्था में जानने का प्रयत्न नही करना होता, इसलिए वह जान सहज होता है । श्रावृत अवस्था मे भी चेतना सर्वथा श्रावृत नही होती। वह कुछ न कुछ अनावृत रहती ही है । सूर्य को आवृत करने वाले बादल सधन होते हैं तो प्रकाश मदतर होता है। पर दिन-रात का विभाग हो सके इतना प्रकाश अवश्य रहता है । चेतना पर आपरख सघन होता है तो मान मद होता है । वह सघनतर होता है तो जान मन्दतर होता है। फिर भी जीव-अजीव का विभाग हो सके इतना चैतन्य निश्चित ही अनावृत रहता है। यह जान विभावज्ञान या सोपाधिकमान है ।26 ज्ञान केवल इन्द्रियानुभव से होने वाला प्रत्यय या विमान ही नही है, वह श्रात्मा का स्वर५ है । वह श्रात्मा के साथ निरन्तर रहता है । हम जान को जन्म के साथ लाते हैं और मत्यु के साथ उसे ले जाते हैं । आत्मा के साथ उसका सम्बन्ध इस पोद्गलिक शरीर जसा नही है जो जन्म के साथ वने और मृत्यु के साथ छूट जाए । आत्मा उस कोरे कागज जैसा नही है जिस पर अनुभव अपने सवेदन और स्व-सवेदनरूपी अगुलियो से जानरूपी अक्षर लिखता रहे। शान का मूल स्रोत और उत्पत्ति मान आत्मा का स्वाभाविक गुण है और वह न्यूनाधिक मात्रा मे अनावृत रहता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि ज्ञान का मूल स्रोत पैतन्य की 25 विशेषावश्यकभाष्य, 93 ૬ વિમોનિમિત્ત પરોક્લનિહ સાયાડમાવાઝો ! तककारण परीक्ख जोह मामासमणुमार ।। 26 नियमसार, 11 केवलमिदियरहिय असहाय त सहावरणारा ति । मण्णागिरवियप्पे बिहावरणाग हवे दुविह ।। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 11 । अनावृत अवस्था है । इसके अतिरिक्त तीन स्रोत और है- इन्द्रिय, मन और श्रात्मा। हमारा इन्द्रिय-विकास चैतन्य-विकास के आधार पर होता है। मान-विकास की तरतमता के आधार पर शारीरिक इन्द्रियो की रचना मे भी तरतमता होती है । मानसिक विकास भी तन्य-विकास पर निर्भर है। इन्द्रिय और मन की सहायता के विना होने वाला मान केवल प्रात्मा पर निर्भर होता है । इस प्रकार पतन्यविकास की दृष्टि से ज्ञान के मूल स्रोत तीन हैं इद्रिय, मन और आत्मा । ___ज्ञान की उत्पत्ति अन्तरग और बहिरंग दोनो कारणों से होती है । बाहरी पदार्थों का उचित सामीप्य होने पर जान उत्पन्न होता है तो आन्तरिक मनन के द्वारा भी जान उत्पन्न होता है। ज्ञान की सीमा इन्द्रिया पाच है स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और श्रोत्र । प्रत्येक इन्द्रिय मे एक-एक विषय को जानने की क्षमता होती है 127 1 स्पर्शन - स्पर्श । 2 रसन - रस । 3 प्राण - गन्ध 4 चक्षु - २५ । 5 श्रोत्र - शब्द । ये विषय इन्द्रिय-ज्ञान को उत्पन्न नहीं करते किन्तु इनका उचित सामीप्य होने पर शाता अपने प्रयत्न से इन्द्रियो के द्वारा उन्हे जान लेता है। इन्द्रिया द्रव्य को साक्षात् नही जानती। एक गुण या पर्याय के माध्यम से उसे जान सकती है, इसलिए इन्द्रियो का पर्याय-ज्ञान प्रत्यक्ष होता है और द्र०य-ज्ञान परोक्ष । वे केवल वर्तमान को जानती हैं। अतीत और भविष्य को जानने की क्षमता उनमे नही है। अनुभववादी दार्शनिक केवल इन्द्रियानुभव को ही वास्तविक ज्ञान मानते हैं, किन्तु इन्द्रियो के विखरे हुए जान का सकलन करने वाला कोई ज्ञान न हो तो हम किसी भी सामान्य नियमनिर्धारण नहीं कर सकते । मन स्पर्श अादि विषयों को साक्षात् नहीं जानता, इन्द्रियो के माध्यम से ही जानता है। अत वह वस्तु-स्पर्शी नही है पर उसमे इन्द्रियो द्वारा गृहीत सब विषयो का मकलन और त्रैकालिक पर्यालोचन करने 27 जैनसिद्धान्त दीपिका, 2/27 प्रतिनियतार्यग्रहणमिन्द्रियम । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 12 ) की क्षमता है 128 इस ष्टि से इन्द्रिय-जान की अपेक्षा मानसिक-ज्ञान अधिक विकसित है । इन्द्रियो के द्वारा जो अनुभव अजित होते है, वे प्रत्यय या विमान कहलाते है। हम केवल विज्ञानो को ही नही जानते किन्तु ऐसे नियमो श्रीर संबंधो को भी जान लेते है जो पहले ज्ञात नहीं होते। ज्ञान की इस क्षमता का नाम प्रजा या पुद्धि है ।29 इन्द्रिय-ज्ञान, मानसिक-शान और प्रज्ञा-यह मतिज्ञान की सीमा है । हम सकेतो और शब्दो के माध्यम से भी ज्ञेय विषय को जान लेते हैं। हम अनि नामक पदार्थ को देखकर उसके पाचक शब्द को जानने का प्रयत्न करते हैं, अथवा अग्नि शब्द का अर्थवोध कर उसके वाच्य-अर्थ को जानने का प्रयत्न करते हैं । यह प्रज्वलित पदार्य अग्नि शब्द का वाच्य है, इस प्रकार वाच्य-वाचक सवध की योजना से होने वाले शान, अध्ययन से प्राप्त ज्ञान और प्रायोगिक जान की निरचायकता श्रुतज्ञान की सीमा है। भूत्त द्रव्यो का साक्षात् शान करना अवधि जान की सीमा है । मन का साक्षात् शान करना मन पर्यव-ज्ञान की सीमा है। केवल ज्ञान सर्वथा अनावृत जान है, इसलिए उसमे सब द्रव्यो और पर्याय) को साक्षात् जानने की क्षमता है । यही उसकी सीमा है। इन्द्रिय-ज्ञान और प्रमाणशास्त्र अतीन्द्रिय शान एक विशिष्ट उपलब्धि है। वह मार्वजनिक नहीं है, इसलिए वह न्याय-शास्त्र का बहुचर्चित भाग नही है। उसका बहुचर्चित भाग इन्द्रिय-ज्ञान (मति-श्रु त ज्ञान) है । मतिज्ञान क्रमिक होता है । उसका क्रम यह है 1 વિજય ર વિષયી જા સન્નિપાત ! 2. दर्शन निविकल्प बोष, सत्तामात्र का बोध । 3 अवग्रह 'कुछ है' की प्रतीति । 4 ईहा 'यह होना चाहिए' इस आकार का जान । 5 अवाय 'यही है' इस प्रकार का निर्णय । 28 29 जनसिद्धान्त दीपिका, 2133 सवर्थिवाहि कालिक मन ।। नदीसूत्र (37) मे मतिनान के दो प्रकार बतलाए गए हैं श्रुतनिश्रित मति श्रीर अश्रतनिश्रित मति । विज्ञानी को जानने वाली मति को श्रुतनिश्रित और प्रज्ञा द्वारा अज्ञात विधि-निषेध के नियमो और सवधो को जानने वाली मति को अश्रुतनिश्रित कहा जाता है । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 7 8 9 ( 13 ) धारणा निर्णीत विषय की स्थिरता, वासना, संस्कार । स्मृति संस्कार के जागरण से होने वाला 'वह' - इस आकार का बोध | सज्ञा स्मृति और प्रत्यक्ष से होने वाला 'यह वह है' इस श्राकार का बोध चिन्ता 'घूम अग्नि के होने पर ही होता है' इस प्रकार के नियमो का निर्णायक वोध, तर्क या अह । श्रभिनिबोध हेतु से होने वाला साध्य का ज्ञान, अनुमान 10 हेतु चार प्रकार का होता है विधि-सायक विधि हेतु 2 विधि-सायक निषेव हेतु 3 નિષેધસાવ વિધિ હેતુ निषेव-साधक निषेध हेतु 4 विषय-विषयी के सन्निपात और दर्शन के बिना अवग्रह नही होता । श्रवग्रह के बिना ईहा, ईहा के बिना अवाय, अवाय के विना धारणा, धारणा के बिना स्मृति, स्मृति के विना सज्ञा, सजा के विना चिन्ता और चिन्ता के बिना श्रभिनिबोध नही हो सकता । श्रुतज्ञान का विस्तार दो रूपो मे हुआ है एक स्यादवाद और दूसरा नय | जैन तार्किको ने प्रमेय की व्यवस्था श्रुतज्ञान ( आगम) के आधार पर की, स्याद्वाद और नय के द्वारा की । प्रामाणिक की परिषद् मे श्रुतज्ञान का ही आलवन लिया गया और उसी के आधार पर न्याय का विकास हुआ । उसे इस भाषा मे प्रस्तुत किया जा सकता है -- ' जावइया वयरणपहा तावइया हुति सुर्यावगप्पा' जितने वचन के प्रकार है उतने ही श्रुतज्ञान के विकल्प हैं। वे असख्य है । प्रमाण भी असख्य हो सकते हैं । हम सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो यह प्राप्त होगा कि देखने, सोचने और कहने के जितने निर्णायक प्रकार हैं उतने प्रमाण हैं । नय के विषय मे यही बात कही गई है 'जावइया वयरणपहा तावइया हुति नयवाया' जितने बोलने के प्रकार उतने ही नय । जितने आशय जितनी स्वीकृतिया उतने ही नय । इसका अर्थ यह हुआ कि जैन न्याय के अनुसार प्रमाणो का सख्याकरण सापेक्ष है । X X X 1 क्या श्रागम से अतीन्द्रियज्ञान प्राप्त होता है ? क्या अतीन्द्रियज्ञानी वारणी का प्रयोग नही करता ? क्या उसके विकल्प नही होते ? आगम से अतीन्द्रिय तत्वों का ज्ञान प्राप्त हो सकता है ज्ञान की उपलब्धि का साधन नही है । उसका साधन है किन्तु वह अतीन्द्रियध्यान का सूक्ष्मतम Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 14 ) अभ्यास | वह शब्द की भावना से नहीं किन्तु निर्विकल्प श्रवस्या की अनुभूति से होता है | उसमे शब्द समाप्त, विकल्प समाप्त और इन्द्रिय समाप्त | बाहर का भत्र कुछ समाप्त हो जाता है | श्रागम मे प्रतीन्द्रियज्ञान नही होता किन्तु जिन्हें अतीन्द्रियज्ञान प्राप्त होता है उनकी वाणी आगम हो जाती है । शब्द समाप्त होने का अर्थ यह नहीं कि अतीन्द्रियज्ञानी कुछ बोलता ही नही | विकल्प समाप्त होने का अर्थ यह नहीं कि અતીન્દ્રિયનાની कुछ सोचता ही नहीं । नि शव्दता और निर्विकल्पता श्रतीन्द्रियज्ञान के काल मे ही होती है, क्रियाकाल मे नही । 2 क्या प्रमेय प्रकारणपरतंत्र है ? प्रमेय की व्यवस्था प्रमारण के अधीन है- इसका अर्थ यह नहीं कि प्रमेय का अस्तित्व प्रमारण के प्रवीन है । प्रमेय भी स्वतन्त्र है और प्रमाण भी स्वतन्त्र है । दोनो का अपना-अपना अस्तित्व है । प्रमाण का काम प्रमेय को उत्पन्न करना नही है, किन्तु उसकी व्याख्या, विश्लेषण और वर्गीकरण करना है | यह व्यवस्था नान के द्वारा ही हो सकती है । इसलिए प्रमेय की व्यवस्था को प्रमाणाधीन मानने मे कोई कठिनाई प्रतीत नहीं होती । पानी है, और हजारो वर्षों से वह है । ५२ पानी की व्याख्या ज्ञान के द्वारा ही की जा सकती है । पानी क्या है ? वह मूल द्रव्य है या यौगिक द्रव्य ? यह व्यवस्था ज्ञान के द्वारा होती है | जहाँ व्यवस्था का प्रश्न है वहा प्रमारण की प्राथमिकता होगी और प्रमेय की गांरणता । 3 हमारा सामान्य अनुभव यह है कि ज्ञान विकल्पो से होता है । निविकल्प स्थिति मे ध्यान हो सकता है, पर ज्ञान कैसे हो सकता है ? हमारे पास विकल्प के दो माध्यम हैं मन और भाषा | जब हम विकल्प की स्थिति में होते हैं तब उसकी अलग गहराई में छिपा हुआ चैतन्य अनावृत नही હોતા ! હસે અનાવૃત રને જૈનિ હમે વાય, શરીર, ભાષા શ્રઔર મન ળી નવતતા का मवरण करना होता है । यही निर्विकल्प स्थिति है | यही चैतन्य के प्रावरण को तोडने की प्रक्रिया है । जब चैतन्य का प्रावरण टूटता है तव चैतन्य प्रगट हो जाता है, जो महज है । केवल ज्ञान सूर्य की तरह प्रकाशपुज है । सूर्य के आगे बादल आता है तो प्रकाश मे तारतम्य हो जाता है । प्रकाश की मदता और तीव्रता जैसे बादल की सघनता और विरलता पर आवृत है वैसे ही चैतन्य की स्पष्टता और अस्पष्टता श्रावरण की सघनता और विरलता पर आवृत है । निर्विकल्प चैतन्य की अनुभूति के द्वारा चैतन्य का आवरण विरल हो जाता है | यह आवरण जैसे-जैसे विरल होता है, वैसे-वैसे ज्ञान अभिव्यक्त होता है | अस्पष्टता और स्पष्टता से होने वाले ज्ञान के विभाजनो को श्रीमज्जयाचार्य ने एक चौकी के Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 15 ) उदाहरण के द्वारा समझाया है। जैसे एक पौकी २० मे दबी हुई है । उसका एक कोना दिखाई दे रहा है । वह एक स्वतन्त्र वस्तु प्रतीत हो रही है। इसी प्रकार वालू के हटने पर दूसरा, तीसरा और चौथा कोना दिखाई दे तो चार वस्तुए प्रतीत होने लग जाती है। बालू पूरी चौकी पर से हट जाती है तो एक अखड चौकी प्रतीत होती है। इसी प्रकार इन्द्रियो की खिड़की से देखकर हम कहते हैं यह इन्द्रियशान है । मस्तिक के माध्यम से चिन्तन करते है तब हम कह सकते है यह मनोजान है माध्यमो से हम जान को वाट देते हैं। जव पूरा आवरण हट जाता है तव सारे विभाजन समाप्त हो जाते है । तब केवल ज्ञान शेष रहता है, निपाधिकशान, शुद्धमान, सहजनान । केवलमान का एक अर्थ होता है कोरा जान । इस भूमिका मे सवेदन समाप्त हो जाता है। जब तक सवेदन होता है तब तक शुद्ध जान नहीं होता, केवल ज्ञान नही होता । शुद्ध चैतन्य का अनुभव होने की स्थिति मे शान "ध्यान बन जाता है और शुद्ध पतन्य का पूर्ण उदय होने पर ध्यान केवल जान बन जाता है। 4 जन-न्याय मे ज्ञान को पर-प्रकाशी ही माना गया है या स्व-प्रकाशी भी ? जान स्व-पर-प्रकाशी है जो स्व-प्रकाशी नही होता वह पर-प्रकाशी भी नहीं हो सकता, जैसे-घट । जो प्रमेय अचेतन होता है वही दूसरो के द्वारा प्रकाशित होता है । जान यदि पर-प्रकाशी हो और स्व-प्रकाशी न हो तो उसे जानने के लिए दूसरे ज्ञान की अपेक्षा होगी। फिर तीसरे मान की। इस शृखला का कही अन्त नही होगा। अनवस्था कभी नही टूटेगी। सूर्य को देखने के लिए दूसरे सूर्य की अपेक्षा नहीं है क्योकि वह स्व-प्रकाशी भी है इस प्रकार जान को जानने के लिए दूसरे ज्ञान की अपेक्षा नही है क्योकि वह स्व-प्रकाशी भी है। 5 क्या अतीन्द्रिय शान सर्वसम्मत है ? क्या हेतु के द्वारा उसे सिद्ध किया जा सकता है ? जन दर्शन ने अतीन्द्रियज्ञान को स्वीकृति दी है। साख्य, वौद्ध, न्याय, शेषिक, मीमासक श्रादि दर्शनो ने भी उसे मान्यता दी है। इस स्वीकृति मे एक अन्तर है। मीमासक मनुष्य को अतीन्द्रियज्ञानी नही मानते । न्याय और शेषिक दर्शन भी मनुष्य के ज्ञान को ईश्वरीय नान से प्रकाशित मानते हैं । जन दर्शन के अनुसार मनुष्य अतीन्द्रियशानी हो सकता है । अमूर्त पदार्य और अतीन्द्रियज्ञान दोनो हेतु की सीमा मे नही आते । हेतु का प्राधार है व्याप्ति और व्याप्ति का आधार है इन्द्रियज्ञान और मानसशान । जो पुरुष अपने ध्यान-बल से अतीन्द्रियशान प्राप्त कर चुके हैं, उनकी वाणी पर हम विश्वास करते हैं, तभी हम कहते है कि अतीन्द्रियनान होता है । वह शान Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 16 ) મુમૈ મી પ્રાપ્ત નહી હૈ ઔર શ્રાપો ની પ્રાપ્ત નહી હૈ મૈં ભી માન્યતા છે શ્રાધાર પર તારૂ જિ વહ હોતા હૈ ઔર્ શ્રાપ ની માન્યતા ? શ્રાધાર પર હતે હૈં વદ્દ નહી હોતા । નિસને ધ્યાન ળા પ્રખ્યાત યિા હૈ વહ્ સ નમ્બાર્ં છે નિત પન્નુન ખાતા હૈ જિ શ્રતીન્દ્રિયજ્ઞાન ઉપલબ્ધ હોસતા હૈ । પુસા પ્રાથમિ રૂપ હૈ પ્રજ્ઞા । યોા જી બાષા મે પુસે પ્રાતિભનાન તે હૈં। સળી ક્ષમતા હમ સત્ર મે હૈ । નીવન મે कई વાર હસળા અનુમવરતે હૈં । મન મેં શ્રયા મિત્ર આા । વરવાના લોલા ઔર મિત્ર શ્રાવાયા । શ્ત્રો મે ભ્રાતા આમિતિ”ન મેરા મારૂં શ્રોા' ચંદ્ આામાસ હોતા હૈ ઔર દૂસરે વિન ભારે શ્રા મી. નાતા હૈ હમ અપની તિમા જા ૭પયોગ મ તે હૈં જિસસે અરિષિત હૈં । મારી પ્રપેક્ષા પશુ-પક્ષી શ્રપની અતીન્દ્રિયજ્ઞાન ની શોò લાધિ ઙપયોાતે હૈં। પ્રાણીશાસ્ત્રિયો અે અનુસાર અને પશુ-પક્ષી તૂાન, મુવાલ, જ્વાળામુલી વિાતિ પ્રજોપો જો ખાન છેતે हैं और वे वहा से દૂ જે નાતે હૈં। મનુષ્યોને ન્દ્રિયો જા ત્રાધાર બ્રધિળ નિયા સત્તિ" ની પ્રતીન્દ્રિયજ્ઞાન ી ક્ષમતા મ ો ા૨ે I हम જ્ઞાન દ્દો પ્રજાર ા હોતા હૈ પવેશ-નિરપેક્ષ ઔર્ પવેશ-નત । નાતિસ્મૃતિ (પૂર્વનન્મ ા જ્ઞાન) શ્રૌર પ્રાતિમન્નાન પવેશ-નિરપેક્ષ નાન હૈં। નિપ્ ફદ્દે સહનતિજ્ઞા નાતા હૈ । ૭૫વેશનિત જ્ઞાન મે સવે ્ દો સતા હૈ, ન્તુિ નો વ્યક્ત્તિ શ્રપને પૂર્વનન્મ જો સ્વયં વેવ રહા હૈ, ચા શ્રપની પ્રતિમા સે નિન સબ્બાર્ડ જો નાન રહા હૈ, પસે સ વિષય મે સવેહ્સે હોવા ? બાર્ મહાવીર નાતિસ્મૃતિ જી પ્રયા વતતા વેતે થે । સાવળ સપ્રજ્યા સે નાતિસ્મૃતિ જે પનવ દ્દો નાતા, ષ્ઠિર તે પ્રતીન્દ્રિયજ્ઞાન મે સવેહ્ન નહી હોતા હૈં યતિમોનને યોાવર્ગન ળી વૃત્તિ મે નિલા હૈ આવા શ્રમને શિષ્યો જોડ઼ેસા પ્રત્યક્ષ ઋનુભવ રા રે ખિસકે જીસે અપને સાયના-માર્ચ મેં જોઈ સવેહ્ ન દ્દો ! અતીન્દ્રિયજ્ઞાન ા યા તો અનુભવ યિા ના सकता है या उस पर विश्वास किया जा सकता है । किन्तु उसकी स्थापना के लिए જોરે સર્વસમ્મત હેતુ પ્રસ્તુત નહી યિા ST સર્જાતા I Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन युग का जैन न्याय दर्शन की मीमामा ईसा पूर्व आठवी शताब्दी मे प्रारम्भ हो चुकी थी। ईसा की पहली शताब्दी तक उसमें योगीजान या प्रत्यक्ष ज्ञान प्रमुख था और तर्क गौण । उसके बाद दर्शन के क्षेत्र मे प्रमाण भीमासा या न्याय-शास्त्र का विकास हुआ । दर्शन मे प्रमाण का महत्वपूर्ण स्थान है, इसलिए प्रमाण के द्वारा समर्थित दर्शन युग का प्रारम्भ ईसा की दूसरी शताब्दी से होता है। इस युग मे प्रमाणशास्त्र या न्याय-शास्त्र का दर्शनशास्त्र के साथ गठबंधन हो गया। प्रो० जेकोबी के अनुसार ई० 200-450, प्रो० ध्रुव के अनुसार ईसा पूर्व की शताब्दी मे गौतम ऋपि ने न्यायसूत्र की रचना की। ईस) की पहली राती मे कणाद ऋषि ने वैशेषिकसूत्र की रचना की। ईसा की चौथी शती मे बादरायण ने ब्रह्मसूत्र की रचना की। ई० पू० 6-7 वी शती मे कपिलमुनि ने साख्यसूत्र का प्रणयन किया। ईसा की दूसरी से चौथी शती के बीच ईश्वरकृष्ण ने साख्यकारिका की रचना की। न्यायशास्त्र के विकास मे वौद्धो और नैयायिको ने पहल की। बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन (ई० 300) ने गौतम के 'न्यायसूत्र' की आलोचना की। वात्स्यायन (ई० 400) ने 'न्यायमूत्र भाष्य' से उस पालोचना का उत्तर दिया । बौद्ध श्राचार्य दिड नाग (ई० 500) ने वात्स्यायन के विचारों की समीक्षा की। उद्योतकर (ई० 600) ने 'न्यायवातिक' मे उनका उत्तर दिया । वौद्ध आचार्य धर्मकीति (ई० 700) ने 'न्यायविन्दु' मे उद्योतकर की समीक्षा की प्रत्यालोचना की । वाद आचार्य धर्मोत्तर (ई० 8-9 शती) ने 'न्यायविन्दु' की टीका मे दिना। और धर्मकीति के अभ्युपगमी की पुष्टि की। वाचस्पति मिश्र (ई० 800) ने 'न्यायपातिक की तात्पर्य टीका' मे बौद्धो के आक्षेपो का निरसन कर उद्योतकर के अभ्युपगमो का समर्थन किया। ईसा की तीसरी शताब्दी से आठवी शताब्दी तक बौद्धो और नैयायिको मे खडन-मडन का तीव्र संघर्ष चला। इस सघर्ष मे न्यायशास्त्र के नये युग का सूत्रपात हुआ। जहा दर्शनी का परस्पर संघर्ष होता है, सब दार्शनिक अपने-अपने अभ्युपगमा की स्थापना और दूसरो के अभ्युपगमो का निरसन करते हैं वही आगम का गौ। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 18 ) और हेतु का मुख्य होना स्वाभाविक है। दार्शनिक साध्य की सिद्धि के लिए आगम का समर्थन नहीं चाहता, वह हेतु पाहता है। प्रागम और हेतु का समन्वय दर्शनयुगीन जैन न्याय की कुछ विशिष्ट उपलब्धिया है। पहली उपलब्धि हैआगम और हेतु का समन्वय । श्राम युग मे अतिम प्रामाण्य प्रारमअन्य या व्यक्ति का माना जाता था। मीमासक अतिम प्रामाण्य वेदो का मानते हैं। उनका अभिमत है कि वेद अपौरुषेय हैं पुरुष के द्वारा निर्मित नही हैं। ईश्वरीय निदश हैं इसलिए अतिम प्रामाण्य उन्ही का हो सकता है । जैन आचार्य पीता मनुष्य को अतिम प्रमाण मानते हैं। जन परिभाषा मे आगम का अर्थ होता है पुरु५ । वह पुरु५ जिसके सव दोष क्षीण हो जाते हैं, जो वीतराग या केवली वन जाता है । स्याना। मूत्र मे पाच व्यवहार निर्दिष्ट हैं श्रागम, श्रुत, पासा, धारणा और जीत । केवलनानी, अवधिज्ञानी, मन पर्यवशानी, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी और अभिन्नदशपूर्वी (नौ पूर्व तथा दसवे पूर्व की तीसरी आचारचूला को जानने वाला) ये छहो पुरुष भागम होते हैं । आगमपुरु५ को उपस्थिति मे वही सर्वोपरि प्रमाण है। उसकी अनुपस्थिति मे श्रत (आगम पुरुष का वचन-सकलन) प्रमाण होता है। आगमयुग मे पागम पुरु५ का और उसकी अनुपस्थिति मे श्रुत का प्रामाण्य था। दर्शनयुग मे आगम का प्रामाण्य गोय, हेतु या तक का प्रामाण्य मुख्य हो गया। जन आचार्यो द्वारा आगमयुग मे भी हेतु अस्वीकृत नही या। 'नकोऽप्रति०'तर्क अ-प्रतित है-यह विचार जैन न्याय मे कभी प्रतिष्ठित नहीं हुआ। इसका कारण समझने के लिए पूर्व पचित पाच नानो के विषय-वस्तु को समझना होगा। मति और श्रुतमान के द्वारा सब द्रव्य जाने जा सकते हैं, किन्तु उनके सब पर्याय नही जाने जा सकते ।' द्रव्य दो प्रकार के हैं पूत और अमूर्त । अमूत द्रव्य इन्द्रियों के द्वारा ज्ञय नही हैं, मन के द्वारा वे जाने जा सकते है । वे परोपदे। के द्वारा भी जाने जा सकते है । जैन आगमो मे पद्रव्य की व्यवस्था है धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय । इनमे पुद्गलास्तिकाय मूत है और शेष मब अमूक्त । अमूर्त द्रव्य इन्द्रियो के द्वारा 1 (क) भगवती, 8/184,185 1 (ख) तत्वार्य, 1/26 मतिश्रुतयोनिवन्धो द्रव्येवमर्वपर्यायषु । 2 तत्वार्यवातिक, 126 બનન્દ્રિયપુ મતે રમાવાત મર્વદ્રવ્યાનપ્રત્યય કૃતિ રે, ર, નફન્દ્રિયविपर्यत्वात् । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 19 ) गम्य नही होते, इसका तात्पर्य है कि उसकी व्याप्ति नही हो सकती-अविनाभाव के नियम का निर्धारण नहीं हो सकता । जिसकी व्याप्ति नही हो सकती उसका अनुमान नही हो सकता । अत अभूत द्रव्य केवल परोपदेश (श्रुत जान) के द्वारा ही जाने जा सकते हैं । अतीन्द्रिय-द्रष्टा पुरुषो ने अमूर्त द्रव्यो का साक्षात् किया और उनका प्रतिपादन किया । उस प्रतिपादन के आधार हम जान सकते हैं कि अमूर्त द्रव्य हैं । मूर्त द्रव्यो को इन्द्रियो के द्वारा जान सकते हैं। उन्हे कुछेक पर्यायो द्वारा नहीं जान सकते हैं, सब पयायो द्वारा नही जान सकते । चक्षु के द्वारा वस्तु के रूप को जान सकते हैं किन्तु अन्य पर्यायो को नही जान सकते । परोपदेश (श्रुतज्ञान) शब्द के माध्यम से होता है । शब्द सख्येय हैं । पर्याय सख्येय, असख्येय और अनन्त हैं, इसलिए परोपदेश के द्वारा भी सर पर्याय नही जाने जा सकते। अवधि और मन पर्यव के द्वारा मूर्त द्रव्य ही जाने जा सकते है । केवलज्ञान से मूत और अमूत-दोनो साक्षात् होते है ।। केवलज्ञान के द्वारा शेय का साक्षात् होता है, इसलिए उसमे हेतु का कोई अवकाश नहीं होता । श्रुतज्ञान के द्वारा पदार्थ का साक्षात् ज्ञान नही होता इसलिए उसमे हेतु का अवकाश है । सिद्धान्त चक्रवर्ती नेमिचन्द्र ने श्रुतज्ञान के दो प्रकार बतलाए हैं शव्दज और लिगज । शब्द के सहारे होने वाला श्रुतज्ञान शब्दज होता है और लिग (हेतु) से होने वाला श्रुतज्ञान लिगज कहलाता है । एक अर्य के द्वारा दूसरे अर्थ का उपलभ होना श्रु तज्ञान है। जब हम धूम के द्वारा अग्नि का ज्ञान करते हैं तब धूम नामक अर्थ से अग्नि नामक अर्थ का बोध होता है । इस प्रकार श्रुतज्ञान मे हेतु की अस्वीकृति नही है । इसका तात्पर्य है कि प्रागमयुग मे भी हेतु मान्य रहा है । किन्तु श्रागमपुरुष की उपस्थिति मे उसकी उपयोगिता कम हो जाती है। जब तक 3 तत्वार्थवात्तिक, 1/26 श्रुतमपि शब्दारच सव सख्यया एव, द्रव्यपर्याया पुन संख्येयाऽसख्येयानन्तभेदा , न ते सर्व विशेषकारण विषयाक्रियन्ते । 4 (क) तत्वार्य 1/27 रूपिववधे । (ख) वही, 1/28 तदनन्तभागो मन पर्ययस्य । 5 तत्वार्थ, 1/29 સર્વદ્રવ્યપર્યાયેષુ વેવસ્યા. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 20 ) केवलजानी अोर विशिष्ट पूर्वधर पानार्य थे तब तब जी पर मेरा गा प्रमाण-मीमामा का विकास नहीं हुआ। नापी पहनी माता सी में ग्रायक्षिन में अनुयोगहार मूत्र मे प्रमाण की विशद जी की है। मन प्रवती गारि ५ मे प्रमाण की इतनी विशद प प्राप्त नहीं होती । र्शन युग में जन् हेनुवा- प्रमुना और विशिष्ट श्रुतव प्राचार्यो की उपयिति नही रही तब मन मानाय भी हेतुवाद की ओर आकृष्ट हुए । इम। मर्गत नि नि मारित्य में मिलता है। नियुक्तिकार का निदश है कि मन्दबुद्धि श्रोता के लिए उदा. - ग्रोर तीर वार श्रोता के लिए हेतु का प्रयोग करना चाहिए।" यतिवृपम ने हेतुवाद के समर्थन में ph महायपूर्ण उd fail है 13. अनुसार अतीन्द्रिय पदार्थों के विषय मे छदमम्य मनुष्य (जिसे व नान प्राप्त नही है) के विकल्प नियमत अविमवादी नहीं होते। ये विनयादी भी होते है । इसलिए पूर्वाचार्यों की व्यास्यात्री के माथ-साय हेतुवाद की दि. भी थी न होनी पाहिए । उससे दो लाम हो सकते है व्युत्पन्न शिष्यों को बुद्धि की मनुष्टि हो सकती है और अव्युत्पन्न शिप्यो को तत्त्व की अोर श्राप किया जा सकता है। हेतुवाद के प्रयोग की दो ओर मे अपेक्षा हुई। दूसरे दानिक व तुपाद के द्वाग खडन-मइन करने लगे तब अपने मिद्धान्तों की सुरक्षा के लिए हेतुवाद का प्रयोग करना आवश्यक प्रतीत हुआ। प्रभावान् जैन मुनि भी विषय के प८८ बोच लिए हेतुवाद की माग करने लगे। इस प्रकार भीतरी और बाहरी दोनों कारणो मे हेतुवाद को विकसित करना अपेक्षित हो गया । जन प्राचार्यों के पीछे भागमपुरुषो के निरपणो की एक. पुष्ट परम्परा पी। उसमे अनेक अतीन्द्रियगम्य तत्व निरूपित थे । वे हेतुगम्य नही थे । इस स्थिति मे हेतु के प्रयोग की मर्यादा करना आवश्यक हुा । इस आवश्यकता की पूर्ति आचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेन ने की। प्राचार्य सिद्धसेन ने 'मनमति मे मागम और हेतुवाद इन दो पक्षो की स्वतन्त्रता स्थापित की और यह बतलाया कि आगमपाद के पक्ष मे पागम का और हेतुवाद के पक्ष मे हेतु का प्रयोग करने वाला तत्व का सम्यक व्याख्याता होता है तथा आगनवाद के पक्ष मे हेतु का और हेतुवाद के 6 दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 49 । 7 तिलोयपणती, 7/613 શ્રવિંવિણબુ પવન્વેસુ દુખત્યવિયખાામવિવાશિયમામાવાવો ! तम्हा पु०वाइरियवसायापरिपाए एसा वि दिसा हेतुवादासारिवियुपण्णसिसाघुगह-अनुप्पण्याजउपायण च दरिसे६०वा । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 21 ) पक्ष मे पागम का प्रयोग करने वाला तत्व का सम्यक व्याख्याता नही होता 18 बारामग्रन्यो मे केवलजानी के वचन सकलित होते हैं। उनमे प्राय अतीन्द्रिय अर्थ निरूपित होते हैं। वे हेतु या तर्क से अतीत होते है। इसलिए उनमे हेतु का प्रयोग नहीं किया जा सकता। इन्द्रियगम्य वि५५ हेतु के द्वारा समझे जा सकते है अत उनकी सिद्धि हेतु के द्वारा की जानी चाहिए। उनकी सिद्धि के लिए आगम का प्रयोग करना उपयुक्त नहीं होता। अहेतुगम्य पदार्थ शरीरमुक्त आत्मा अतीन्द्रिय है। उसकी सिद्धि के लिए कोई तर्क नहीं है। मति उसे ग्रहण नही कर पाती । भृगुपुत्रो ने अपने पिता से कहा आत्मा अमूत है, अत वह इन्द्रियो के द्वारा नही जाना जा सकता वनस्पति के जीव वास लेते हैं। उनमे श्राहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध मान, माया, लोभ ये सारी सजाए होती हैं । हर्ष और शोक होता है। पृथ्वी काय के जीवो मे उन्माद होता है। ये अतीन्द्रिय विषय हैं । हेतु के द्वारा इन्हे प्रमाणित नहीं किया जा सकता । अमूत तत्व, सूक्ष्म मूत तत्व और सूक्ष्म पर्याय ये सब बागम के प्रामाण्य से ही सिद्ध हो सकते है । अतीन्द्रिय पदार्य भागम-साधित पदार्थ होते है । हेतुगम्य पदार्थ शरीरयुक्त जीव हेतु के द्वारा सिद्ध किया जा सकता है । जिसमे सजातीय से उत्पन्न होने और सजातीय को उत्पन्न करने की क्षमता होती है वह जीव होता 8 सन्मति प्रकरण, 3/43-45 दुविही धम्मावाश्री अहेउवाश्री य हेउवायो य । तत्थ उ अहेउवाश्रो भवियाऽभवियादी भावा । भविश्री सम्म६ सण-पाण-चरित्तपडिवत्तिसपनो । सियमा दुखतकडो ति लक्खरण हेउवायरस ।। जो हेउवायपसम्मि हेऽश्रो भागमे य श्रागमिश्री । सो ससमयपण्णवो सिद्ध तविराही अनो।। 9 धवला, 6/1/9/6 आगमी हि गाम केवलणाणपुरस्सरो पायेण । શ્રાવિયત્યવસો ઐતિયસામો નુત્તિમોયરાવીયો 10 प्राया, 5/124,125 तक्का तत्य रण विज्ज । मई तत्य रण गहिया । 11 उत्तरयणागि, 14/19 नो इदियगेज्झ अमुत्तभावा । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 22 ) है । जिसमे ये क्षमताए नही होती वह जीव नही होता નિમમે શ્વાન ળા પવન होता है वह जीव होता है । गरीवारी श्रात्मा का जीवत्व हेतु के द्वारा सिद्ध किया जा सकता है । अत हेतु सावित पदार्थो के लिए हेतु का प्रयोग अपेक्षित है । श्राचार्य समन्तभद्र ने लिखा है अनाप्त वक्ता की उपस्थिति मे तत्व की सिद्धि हेतु से की जाती है । वह हेतुसाधित तत्व होता है । प्राप्त वक्ता की उपस्थिति मे तत्त्व की सिद्धि उसके वचन से की जाती है । वह श्रागमन्साचित त होता है | 12 ज्ञान का प्रमाणीकरण दूसरी उपलब्धि है ज्ञान का प्रमाण के रूप मे प्रस्तुतीकरण । श्रार्यरक्षित द्वारा अनुयोगद्वार सूत्र मे किया हुआ प्रसारण-निरूपण न्यायदर्शनावलम्बी होने के कारण जैन न्याय मे प्रतिष्ठित नहीं हो सका । अन्य दार्शनिक प्रमारण की चर्चा प्रस्तुत करते थे, वहा जैन दर्शन मे ज्ञान की प्रतिष्ठा थी । प्रमारणसमर्पित दर्शन गुम मे जब सभी दार्शनिक प्रमाण का विकास कर रहे थे, उन समय समन्वय की दृष्टि से जैन आचार्यों के सामने भी प्रमाण के विकास का प्रश्न उपस्थित हुआ । इस प्रश्न का समावान सर्व प्रथम वाचक उमास्वाति ने किया। उन्होंने ज्ञान और प्रमाण का समन्वय प्रस्तुत किया । यह श्रागमयुगीन ज्ञान-परम्परा और प्रमारणव्यवस्था के बीच समन्वयमेतु बना | सिद्धसेन और कलक ने प्रमाण को स्वतंत्र रूप मे प्रतिष्ठित कर दिया | वाचक उमास्वाति का समन्वय इन सूत्रो मे प्रस्तुत है 12 13 મતિશ્રૃતાધિમનીપર્યંચવજ્ઞાન જ્ઞાનમ્ । तत् प्रमाणे । आद्य परोक्षम् । प्रत्यक्षमन्यत् । 13 मति, श्रुत, अवधि, मन पर्यंव और केवल ये पाच ज्ञान हैं । ये ज्ञान ही प्रमाण हैं । मति और श्रुत ये दो ज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं । अवधि, मन पर्यंव और केवल ये तीन ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । आप्तमीमासा, 78 वक्तर्यनाप्ते यद्धतो, साच्य तद्धेतुसावितम् । પ્રાપ્તે વક્ત્તરિ નવાચાર્સાવ્યમાનમસાધિતન तत्त्वार्य, 1/9-12 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 23 ) वाचक उमास्वाति द्वारा प्रस्तुत प्रमाण-व्यवस्था मे प्रथम दो ज्ञानो को परोक्ष तथा शेष तीन जानो को प्रत्यक्ष मानने की आगमिक परम्परा सुरक्षित है । इस व्यवस्था मे केवल इतना परिवर्तन है कि प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण के रूप मे प्रस्थापित किए गए प्राचीन परम्परा मे ज्ञान का वही अर्थ था जो दर्शनयुग मे प्रसारण का किया गया । वाचक उमास्वाति ने प्रमाण का लक्षण सम्यग्ज्ञान किया है । जो ज्ञान प्रशस्त, अव्यभिचारी या सगत होता है वह सम्यग् है 114 उन्होने अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, सम्भव और प्रभाव - विभिन्न तार्किको द्वारा सम्मत इन प्रमाणो का मति और श्रुतज्ञान मे समावेश किया है । इन प्रमाणो मे इन्द्रिय और अर्थ का मन्निकर्ष निमित्त होता है, इसलिए ये मति और श्रुतज्ञान के अन्तर्गत ही है 115 श्रागम, सिद्धसेन दिवाकर ने न्यायावतार की रचना की । जैन परंपरा मे न्यायशास्त्र का यह पहला ग्रन्थ है । इसकी कुल बत्तीस कारिकाए है। इसमे प्रमाण के लक्षण, प्रकार तथा अनुमान के अगो की व्यवस्था की है। इसमे प्रमाण-व्यवस्था का विकसित रूप उपलब्ध नहीं है, फिर भी न्यायशास्त्र का आदि ग्रन्थ होने का गौरव इसे प्राप्त है । आचार्य समन्तभद्र ने न्यायशास्त्र का कोई स्वतंत्र ग्रन्य नहीं लिखा, किन्तु श्राप्तमीमासा तथा स्वयभूस्तोत्र मे उन्होंने न्यायशास्त्रीय विषयो की चर्चा की । उन्होने प्रमाण का स्व-पर-प्रकाशी के रूप मे प्रयोग किया है 116 प्रत्यक्ष प्रसारण की सपर्कसूत्रीय परिभाषा बौद्ध दार्शनिक इन्द्रियाश्रित ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण मानते थे । इन्द्रियो से वस्तु का साक्षात्कार होता है इसलिए उससे होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष होता है । वह कल्पनात्मक नही होता और भ्रान्त नही होता ये उसकी दो विशेषताए हैं । 14 तत्त्वार्थभाष्य, 1/1 । 15 तत्त्वार्यभाष्य, 1/12 16 અનુમાનોપમાનામાર્થાષત્તિસમ્ભવામાવાનધિ = પ્રમાણાનીતિ નિર્ मन्यन्ते । तत् कथमेतदिति ? त्रोच्यते । सर्वाण्येतानि मतिश्रुतयोरन्तर्भूતાનીન્દ્રિયાર્થસન્નિબૅનિમિત્તત્વાન્ । स्वयंभूस्तोत्र, 63 परस्परेक्षान्वयभेदलिङ्गत, પ્રસિદ્ધસામાન્યવિશેષયોસ્તવ 1 समग्रतास्ति स्वपरावभासक, यथा प्रमाण भुवि बुद्धिलक्षणम् ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 24 ) नैयायिक इन्द्रिय और अर्य के मन्त्रिक से होने वाले नान को प्रत्यक्ष मानते हैं । नव्य नैयाथिको ने प्रत्यक्ष के दो भेद माने है लौकिक और अलौलिक । लांकिक प्रत्यक्ष मे इन्द्रिय का अर्थ के साथ माधारण मन्निकर्ष होता है। अलोकिक प्रत्यक्ष मे इन्द्रिय का पदार्य के साय असाधारण या अलौकिक मनिकर्ष होता है । जन परपरा मे इन्द्रियज्ञान परोक्ष माना जाता था। आचार्य पुन्दकुन्द ने इन्द्रियनान के परोक्ष होने का तर्कपूर्ण पद्धति से समर्थन किया। उमास्वाति ने भी मति-श्रुत को परोक्ष प्रमाण मानकर इन्द्रियनान के परोक्ष होने की पुष्टि की। इस प्रकार इन्द्रियज्ञान के विषय मे प्रामाणिको मे दो ५२पराए चल रही थी एक प्रत्यक्षवादी और दूसरी परोक्षवादी। इस स्थिति मे कुछ जन दार्शनिको ने दोनो परपराओं के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न प्राभि किया। इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का पहला उल्लेख अनुयोगद्वार मूत्र मे मिलता है। स्थाना मूत्रगत जान-मीमासा मे प्रत्यक्ष के 'केवल' (केवलनान) और 'नो-केवल' (अवधि मन पर्यव) ये दो प्रकार मिलते है ।।5 अनुयोगहार सूत्र मे प्रत्यक्ष के दो प्रकार कि गए हैं इन्द्रिय-प्रत्यक्ष और नो-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष । इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के पाच प्रकार है 1 श्रोत्र-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष । 2 चक्षु-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष । 3 नाग-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष । 4 रस-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष । 5 स्पर्श-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष । नो-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के तीन प्रकार हैं 1 अवधिनान । 2 मन पर्यवज्ञान। 3 केवल जान 119 17 न्यायसूत्र 1/1/4 ઇન્દ્રિયાર્થસન્નિત્પન્ન ગાનમાવેશ્યમવ્યમિનાર વ્યવસાયાત્મ प्रत्यक्षम् । 18 , 2/87 ५पक्से गाणे दुबिहे पण्यात, न जहा केवलवाणे घेव, गोकेवलवाणे चव। 19 अयोगदाराई , सूत्र 516, 517, 518 । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 25 ) नदी सूत्र मे भी अनुयोगद्वारगत प्रत्यक्ष विषयक परपरा का अनुसरण हुआ है । इन दो ही आगमो मे इन्द्रियमान को प्रत्यक्ष की कोटि मे रखा गया है । अनुयोगद्वार का रचनाकाल ईसा की पहली शताब्दी और नदी सूत्र का रचनाकाल ईसा की पाचवी शताब्दी है। जिनभद्रगरणी क्षमाश्रमण का अस्तित्व काल ईसा की सातवी शताब्दी है। वे आगमिक ५२५५। के प्रतिनिधि आचार्य थे। उन्होने मात और श्रुतज्ञान के परोक्ष होने का समर्थन किया है किन्तु साथ-साथ उसमें एक नया उन्मेष भी जोडा है। उन्होने प्रतिपादित किया कि अनुमान एकान्तत प्रत्यक्ष हैं । इन्द्रिय ज्ञान और मानस-ज्ञान सव्यवहार प्रत्यक्ष है ।20। साधन से होने वाला साध्य का ज्ञान अनुमान है। धूम-दर्शन से जो अग्नि का ज्ञान होता है, वह इन्द्रियो के भी साक्षात् नही होता। इसलिए अनुमान ज्ञान एकान्तत परोक्ष है । अवधि आदि से होने वाला अर्थ का ज्ञान साक्षात् होता है, उसमे किसी माध्यम की अपेक्षा नही होती, इसलिए वह एकान्तत प्रत्यक्ष है। इन्द्रियो से जो स्पर्श श्रादि विषयो का ज्ञान होता है वह इन्द्रिय साक्षात्कार है। प्रत वह इन्द्रिय के लिए प्रत्यक्ष है और आत्मा के लिए वह परोक्ष है । इन्द्रिया स्वय अचेतन हैं। उन्हे विषयो का ज्ञान नहीं होता । वे जान के माध्यममात्र हैं। इस दृष्टि से यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि इन्द्रियज्ञान व्यावहारिक दृष्टि से प्रत्यक्ष है और पारमार्थिक दृष्टि से परोक्ष है ।। । ज्ञाता-ज्ञय--पारमार्थिक प्रत्यक्ष । साता- इन्द्रिय ज्ञय-साव्यवहारिक प्रत्यक्ष । (इस प्रकार मे जय शाता के लिए परोक्ष और इन्द्रिय के लिए प्रत्यक्ष होता है ।) * ज्ञाता- मन धूम- अग्नि केवल परोक्ष। इन्द्रियज्ञान को साव्यवहारिक कोटि के प्रत्यक्ष की स्वीकृति ने सपर्क सूत्र का काम किया। जैन प्रामाणिको तथा अन्य प्रामाणिको के बीच प्रत्यक्ष विषयक जो समस्या थी उसका समाधान हो गया। प्रमाण-व्यवस्था के युग में भी साव्यवहारिक 20 विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 95 एगते। परोक्ख लिगियमोहाइय च पचक्ख । इ दियमणोभव ज त सबवहार५च्चक्ख ॥ 21 विशेषावश्यकभाष्य, गाया 95, स्वीपशवृत्ति यत् पुन साक्षादिन्द्रियमनोनिमित्त तत् तेषामेव प्रत्यक्षम्, अलिङ्गत्वात्, आत्मनोऽवच्यादिवत्, न त्वात्मन , अात्मनस्तु तत् परोक्षमेव पर निमित्तत्वात् अनुमानवत् इत्युक्तम् । तेषामपि च तत् सव्यवहारत एव तत्प्रत्यक्षम्, न परमार्यत । कस्मात् ? अचेतनत्वात, पटवत्, इत्युक्तम् । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 26 ) और पारमायिक प्रत्यक्ष की परम्परा मान्य हो । प्रमाण-व्यवस्था के मुख्य सूत्रधा। प्राचार्य अकलक ने इस ५२-५२। को मान्यता देकर इसे स्थायित्व दे दिया 122 अनेकांत-व्यवस्था और दर्शन-समन्वय चौथी उपलब्वि है-न-मन्वय और उसके लिए अनेकान्त की व्यवस्था का विकास और उसका व्यापक प्रयोग। उपनिषद काल से दो प्रश्न चचित होते रहे हैं ? 1 क्या पूर्ण सत्य जाना जा सकता है ? 2 क्या पूर्ण सत्य की व्याख्या की जा सकती है ? इन पर विभिन्न दानो ने विभिन्न ममावान प्रस्तुत किए हैं। जैन दर्शन ने भी इनका ममावान किया है। प्रथम प्रान का समाधान जान-मीमामा के श्रीधार पर दिया और दूसरे का समाधान अनेकान्त के आधार पर दिया । 1 केवलनानी पूर्ण मत्य को जान सकता है। उनका मान मया अनावृत होता है । इसलिए उनके जान मे कोई अवरोव नहीं होता, अन्तय नहीं होता । जो केवलगानी नही है वह पूर्ण मत्य को नहीं जान सकता। क्योकि वह जानी ही नहीं होता, अजानी भी होता है । हम अकेवली के ज्ञान को स्वीकार करते हैं तो माय-माय उनके अजान को भी स्वीकार करते हैं। पेतना की आवृत अवस्था मे नान और अज्ञान दोनो जुडे हुए रहते हैं । केवलजानी को ही हम पूर्णनानी कह सकते हैं । फेवलज्ञानी का एक अर्थ यह भी किया जा सकता है 'कोरा ज्ञानी' । वह केवलज्ञानी है, अज्ञानी नहीं है । नान के स्तर पर केवलज्ञानी से नीचे जितने भी लोग हैं वे भव जानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं । ज्ञान और अज्ञान की महस्वीकृति का फलित है कि पूर्ण सत्य को केवलज्ञानी ही जान सकता है, दूसरा नहीं जान सकता। सत्य के मुख्य पहनु दो हैं द्रव्य और पर्याय । श्रुतमानी मूत और अमूर्तसभी द्रव्यो को जान लेता है, ५२ मव पर्यायो को नहीं जानता। केवली व द्रव्यो और मव पर्यायी को जानता है, इसलिए वह पूर्ण मत्य को जानता है । श्रुतशानी श्रुत के आधार पर सब द्रव्यों को जानता है। केवलगानी उन्हें मासात् जानता है, इमलिए वह पूर्ण सत्य को जानता है । आचार्य समन्तभद्र के शब्दो मे स्वादाद और 22 (क) लघीयस्त्रय, 3 . प्रत्यक्ष विशद ज्ञान, मुख्यसव्यवहारत । परोल पविनान, प्रमाण इति मग्रह ॥ (ख) लघीय-त्रय विवृत्तिकारि५। 4 તત્ર માવ્યવહામિદ્રિવાનિદ્રિયપ્રત્યક્ષમ | Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 27 ) केवलज्ञान दोनो सव तत्त्वो को प्रकाशित करने वाले हैं। दोनो मे इतना अन्तर है कि केवलज्ञान के द्वारा वे साक्षात् प्रकाशित होते है और स्याद्वाद के द्वारा वे परोक्षत प्रकाशित होते है ।23। ___2 जन तत्त्व-भीमासा के अनुसार मूल द्रव्य दो है- चेतन और अचेतन । प्रत्येक द्रव्य अनन्त-अनन्त स्वतंत्र इकाइयो मे विभक्त है । प्रत्येक इकाई मे अनन्तअनन्त पर्याय हैं । इन सब द्रव्यो, उनकी स्वतत्र इकाइयो और उनके पर्यायो की समष्टि का नाम पूर्ण सत्य है । अतवादी निरपेक्ष सत्य को मान्यता दे सकते है किन्तु द्वैतवादी उसे स्वीकृति नहीं दे सकते । इसीलिए जैन दर्शन ने अनेकान्तवाद के आधार पर सत्य की व्याख्या की। सत्य अनन्त पर्यायात्मक है और भाषा की शक्ति सीमित है। एक क्षण मे एक शब्द के द्वारा एक ही पर्याय का प्रतिपादन किया जा सकता है। पूरे जीवन मे भी सीमित पर्यायो का ही प्रतिपादन किया जा सकता है, श्रत पूर्ण सत्य की व्याख्या नहीं की जा सकती, सत्यारा की व्याख्या की जा सकती है। स्पिनोजा ने द्र०५ को अनिर्वचनीय बतलाकर समस्या से मुक्ति पाने का प्रयत्न किया है 124 अतवादी भारतीय दर्शनो ने भी सत्य को अनिर्वचनीय माना है । जन ताकिको ने द्रव्य की अनिर्वचनीयता को मान्यता नही दी । उनका तर्क है कि द्रव्य यदि अनिर्वचनीय है तो उसका निर्वचन नही किया जा सकता और उसका निर्वचन किए विना अनिर्वचनीयता भी सिद्ध नहीं होती। अत द्रव्य सर्वथा अनिर्वचनीय नही है और सर्वथा निर्वचनीय भी नही है। द्रव्य के अनन्त पर्याय युगपत् नही कहे जा 23 प्राप्तमीमासा, 105 स्यादवादकवलशाने, सर्वतत्वप्रकाशने । भेद साक्षादसाक्षाच्च, ह्यपरत्वन्यतम भवेत् ।। द्रव्य निर्गुण और अनिर्वचनीय है । हमारी वाणी और बुद्धि की पहुच द्रव्य तक नही है। बुद्धि द्रव्य की ओर सकेत करती है, किन्तु उसे पूर्णरूप मे नही जान सकती। यह निर्विकल्प अनुभूति का विषय है । गुण बुद्धि के विकल्प हैं। किसी वस्तु का गुण बताना उस वस्तु को उस गुण द्वारा परिच्छिन्न करना है। किसी वस्तु का निर्वचन करना उसे उस अश मे सीमित करना है । सीमा या परिच्छेद का अर्थ है- अन्य गुणो का निषेध । जैसे किसी वस्तु को श्वेत कहना उसमे काले, पीले, लाल आदि गुणो का निषेध करना है । द्रव्य अपरिच्छिन्न है, अत निर्गुण और अनिर्वचनीय है । [पाश्चात्य दर्शन, पृष्ठ 109 ] 24 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 28 ) सकते । इस दृष्टि से यह अनिर्वचीय है, किन्तु जिन धर्मों का निर्वचन किया जाता है, उनकी दृष्टि से वह निर्वचनीय भी है । यह व्यारया उन्होने स्थावाद के आधार पर की। 'अस्ति रक्तो घट' घडा लाल है इस वाक्य मे वर्ग के द्वारा वट की व्याख्या की गई है। घट केवल वात्मक नही है । उसमे रम, गन्च, स्पर्श आदि अन्य अनेक धर्म विद्यमान है । हम एक धर्म के द्वारा उसकी व्याख्या करते है तब शेप धर्मों को उमसे पृथक नही कर सकते और युगपत् मब धर्मों को कह मक, ऐसा कोई उपाय नही है । इस निरुपायता की समस्या को सुलझाने के लिए 'स्यात्' शब्द का श्राविकार किया गया । स्यावाद के अनुसार यह नहीं कहा जा सकता 'अस्ति रक्तो ५८ , किन्तु यह कहना वास्तविक होगा कि 'स्याद् अस्ति रक्तो घर' सापेक्षता की दृष्टि से घडा लाल है । 'स्यात्' शब्द का प्रयोग इस वास्तविकता का सूचक है कि आप घट रक्तवर्ण को मुख्य मानकर घट का निर्वचन कर रहे है और ५ धर्मो को गोरा बनाकर उपेक्षित कर रहे हैं, किन्तु उन्हें अस्वीकार नहीं कर रहे हैं । thवर्ण को घट के शेष धर्मो से विभक्त नहीं कर रहे, किन्तु उसका निर्वचन करते हुए भी घट की ममता का वोध कर रहे हैं । 'स्थाद् अस्ति ५८' इसमे 'अस्ति' धर्म ५८ के ५ धर्मो से विच्छिन्न नही हैं उसके विच्छिन्न होने पर घट का घटत्व भी समाप्त हो जाता है । एक धर्म की मुख्यता से वस्तु का प्रतिपादन और उसके शेष धर्मो की मीन स्वीकृति यही हमारे पास अखड वस्तु की व्याख्या का एक उपाय है जिसके आधार पर हम वस्तु को अनिर्वचनीय और निर्वचनीय दोनो मान सकते है। हम बहुत बार मापेक्षता के आधार पर केवल एक धर्म का ही प्रतिपादन करते है, एक धर्म के माध्यम से शेष धर्मों के प्रतिपादन का प्रयत्न नही करते । इस व्याख्या-पद्धति मे अनिर्वचनीय जैसा कुछ नही होता । एक धर्म की व्याख्या-पद्धति को 'नय' तथा एक धर्म के माध्यम से अखड वस्तु की व्याख्या-पद्धति को 'स्वादाद' कहा जाता है 125 अखड और खड की व्याख्या की इन दोनो पतियो का विकास अनेकान्त-व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण प्रतिफलन है । समन्वय के प्रायाम वार, नैयायिक और मीमासक ये सब अपने-अपने सिद्धान्त का समर्थन और दूसरो के सिद्धान्तो का निरसन कर रहे थे। इस पद्धति मे तीन न्याय और कटूक्तिपूर्ण आक्षेप प्रयुक्त हो रहे थे । अहिंसाप्रिय जनो को यह पद्धति रूचिकर नही लग रही थी। वे इस भागम-वाणी से प्रभावित थे जो अपने सिद्धान्त की प्रासा और दूसरो के सिद्धान्तो की निन्दा करते हैं वे समस्या का समाधान नही 25 न्यायावतार, लोक 30 नयानामनिठाना, प्रवृत्त. श्रुतवमनि । નપૂર્ણવિનિઃશ્વામિ, સ્થાવાવ,તમુખ્યતે | Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 29 ) अपनी कर सकते 1920 लम्बी अवधि तक प्रविष्ट ही नही हुए । वे बीच जो कुछ चल रहा था उसे और राजनीतिक परिस्थितियो ने परिषद् मे उपस्थित होकर अपने की सुरक्षा सभव नही रही । उस स्थिति मे समर्थन और दूसरो के सिद्धान्तो का निरसन शुरू किया । किन्तु उनकी निरसनपद्धति श्राक्षेपप्रधान नहीं थी। उन्होने अहिंसा की सुरक्षा और सत्य की सपुष्टि के लिए निरसन को समन्वय से जोड दिया । उनकी चिन्तनधारा का प्र प्रतिबिम्ब हरिभद्रसूरी की इस उक्ति मे मिलता है 127 जैन विद्वान् इस तर्क गीमासा की सीमा मे सीमा मे रहे और विभिन्न वादी-प्रतिवादियों के मौन भाव से देखते रहे । साम्प्रदायिक, सामाजिक ऐसी विवशता उत्पन्न कर दी कि तार्किको की सिद्धान्तो को तर्क - समर्पित किए बिना प्रस्तित्व जैन विद्वानो ने अपने सिद्धान्तो का , "शास्त्रकारी महात्मान प्रायो वीतस्पृहा भवे । सत्त्वार्यसम्प्रवृत्ताश्च कथ तेऽयुक्तभाषिण ?" 'जितने शास्त्रकार है वे सब महात्मा हैं, परमार्थदृष्टि वाले है । वे मिय्या बात कैसे कहेंगे ?" प्रश्न उठा, फिर उनके दर्शनों मे इतना अन्तर क्यो ? तो हरिभद्र ने कहा 'उनके अभिप्राय की खोज करनी चाहिए कि उन्होने यह किस आशय से कहा है । हम तात्पर्य को समझे बिना विरोध-प्रदर्शित करते हैं, वह सत्योन्मुखी प्रयत्न नही है ।' निरसन की पद्धति को समन्वय की दिशा देने का महान् श्रेय आचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेन को है । वे अनेकान्त व्यवस्था के साथ-साथ समन्वय के भी सूत्रधार हैं | आचार्य सिद्धसेन ने साख्य, बौद्ध, वैशेषिक आदि दर्शनो की समीक्षात्मक समन्वय-पद्धति मे अद्भुत कौशल प्रदर्शित किया है। उन्होने लिखा है साख्य दर्शन द्रव्यार्थिक नय की वक्तव्यता है । वह कूटस्थनित्य की स्वीकृति है । बोद्ध दर्शन पर्यायार्थिक नय की वक्तव्यता है । वह क्षणिकत्व की स्वीकृति है । एक कूटस्थ नित्यवाद और दूसरा क्षणिकवाद | दोनो मे से एक मिथ्या होगा । या तो बौद्धो के क्षणिकवाद को मिथ्या मानना होगा या साख्यो के कूटस्यनित्यवाद को । दोनो सही नही हो सकते । वैशेषिक दर्शन सामान्य और विशेष - दोनो को मान्य करता है | अत वह द्रव्यायिक और पर्यायायिक दोनो नयो को स्वीकृति देता है । किन्तु वह सामान्य और विशेष दोनो को परस्पर निरपेक्ष और स्वतंत्र मानता है | इसलिए ये सब वक्तव्यताए एकागी होने के कारण मिय्या हैं । वोद्ध और 26 सूयगडो, 1/1/50 27 सय सय पससता, गरहता पर वय । जे उतत्य विउस्सति, ससारे ते विउस्सिया || शास्त्रवार्तासमुच्चय, 3 / 15 1 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 30 ) वैशेषिक माख्यो के सत्कार्यवाद को मिथ्या मानते है और साल्य उनके अमत्कार्यवाद __ को मिय्या मानते हैं । उक्त सव वक्तव्यताए सत्य हैं। उनमे कोई भी व्यता मिथ्या नही है । वे निरपेक्ष होने के कारण मिथ्या है । वे यदि सापेक्ष हो तो कोई भी वक्तव्यता मिथ्या नहीं है । ५८ मिट्टी से पृथक नहीं है, इसलिए वह उसमे अभिन्न है । पटावस्या से पहले मिट्टी मे ५८ नही था। वटाकार परिणति होने पर घट वना है, इसलिए वह मिट्टी से भिन्न है । इस प्रकार अभेद और भेद या सामान्य और विशे५ को सापेक्ष प्टि से देखने पर कोई भी वक्तव्यता मिथ्या नहीं होती ।28 जितने वचन-पय हैं उतने ही नयवाद हैं। जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय हैं अन्य दर्शन हैं ।29 प्रत्येक विचार एक नय है । वह किमी दृष्टिकोण से निरूपित है । कोई भी एक विचार पूर्ण नहीं है। वह शेष सब विचारो से सब होकर पूर्ण होता है इसलिए कोई भी निरपेक्ष विचार सत्य नहीं होता और कोई भी सापेक्ष विचार मिथ्या नही होता। प्रश्न हो सकता है कि यदि निरपेक्ष विचार मिथ्या है तो वे समुदित होकर सत्य कसे होगे ? मिथ्या का समूह मिथ्या ही होगा। वह सम्यक् कसे होगा ? इस प्रश्न का प्राचार्य समन्तभद्र ने समाधान दिया कि विचार मिथ्या नहीं हैं । वे निरपेक्ष है इसलिए मिथ्या हैं । वे सापेक्ष या समुदित होते ही वास्तविक हो जाते हैं 130 ___ 28 सन्मति प्रकरण 3/48-52 ज काविल दरिसरण एय दयट्टियस्स पत्त० । सुद्धोणतणस्त उ परिसुद्धो पज्जवविअप्पो 1148।। दोहि वि णएहि पी सत्यमुलूएस तह वि मिच्छत्त । ज सविसअप्पहाणतणेण अण्णोण्य वेक्खा ।49।। ज मतवायदोसे मक्कोलूया भरगति मखा।।। सखा य असताए तसि स० वि ते सप्पा 1500 ते उ भयगोवरणीश्री सम्म सरणमणुत्तर होति । ज भवदुक्पविमोक्स दो वि न पूरन्ति पाडिक 115111 नात्य पुढवीविसिट्ठो घडो त्ति ज तेरा जुज्ज असण्यो। ज पुरण घडो त्ति पुष्व रण आमि पुढवी तश्री अण्णा ।।5211 29 सन्मति प्रकरण, 3/47 जावइया वयपहा, तावइया चेव होति ॥यवाया। जावइया एयवाया, तायडया पेव परसमया ।। 30 प्राप्तमीमासा, लोक 108 मिथ्यासमूहो मिथ्या पेन्न मिथ्यकान्ततास्ति न ! निरपेक्षा नया मिथ्या, मापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ।। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 31 ) जिन मगरणी क्षमाश्रमण ने समन्वय की धारा को इतना विशाल बना दिया कि उसमे स्व-दर्शन और पर-दर्शन का भेद परिलक्षित नहीं होता । उनका तर्क है कि मिथ्यात्वो (असत्यो) का समूह सम्यक्त्व (सत्य) है । पर-दर्शन सम्यग् दृष्टि के लिए उपकारक होने के कारण वस्तुत वह स्व-दर्शन ही है । सामान्यवाद, विशेषवाद, नित्यवाद, क्षणिकवाद ये सब सम्यक्त्व की महापारा के करण हैं । इन सबका समुदित होना ही सम्यक्त्व है और वही जैन दर्शन है । 32 वह किसी एक नय के खडन या मडन मे विश्वास नहीं करता, किन्तु सब नयो को समुदित कर सत्य की अखडता प्रदर्शित करता है। 1 क्या आगमयुग मे समन्वय का सिद्धान्त मान्य नही था ? क्या उस उस समय धर्मो के तुलनात्मक अध्ययन की पद्धति प्रचलित नही थी ? समान भागम-साहित्य वर्तमान मे उपलब्ध नही है। उसके उपलब्ध अशो के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सापेक्षता और समन्वय के सिद्धान्त उस युग मे मान्य रहे हैं। दर्शनयु। के प्राचार्यों ने वीजरूप मे प्राप्त उन सिद्धान्तो को ही विकसित किया। श्रागम- साहित्य मे स्वसमय वक्तव्यता, परसमय वक्तव्यता और उन दोनो की वक्तव्यत। इस प्रकार तीन वक्तव्यताए उपलब्ध हैं। इसका तात्पर्य है कि उस समय के मुनि अपने सिद्धान्तो के साथ-साथ दूसरो के सिद्धान्तो का भी अध्ययन करते थे । समन्वय मे विश्वास करने वालो के लिए विभिन्न विचारो का तुलनात्मक अध्ययन करना स्वाभाविक है। 2 क्या सामान्य और विशेष का समन्वय किया जा सकता है ? अत का विचार सामान्यग्राही है। अत दर्शन सब पदार्यों का सश्लेषण कर अन्तिम सीमा तक पहुंच गया। उस शिखर से उसने घोषणा की कि दूसरा कोई नही है । भेद की कल्पना व्यर्थ है। बौद्धो का जान पूरा विश्लेषणात्मक था। उन्होने विभाजन के चरम-विन्दु पर पहुंच कर उद्घोष किया कि विशेष ही सत्य है। सामान्य की कल्पना व्यर्थ है। एक सामान्य का चरम स्वीकार और एक विशेष का चरम स्वीकार । जैन दार्शनिको ने किसी चरम को स्वीकृति नहीं दी। उन्होने 31 विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 949 मिच्छत्तसमूहमय सम्मत्त ज च तदुवगारम्मि । पति परसिद्ध तो तस्स तयो ससिद्ध तो ॥ 32 विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1528 इय सवणयमताइ परित्तविसयाई समुदिताई तु । जइस वमन्तरागद सणिमित्तसगाहि ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 32 ) सामान्य और विशे५ मे समन्वय प्रदर्शित किया और इस मूत्र का प्रतिपादन किया 'मामान्यशून्य विशेष और विशेषशून्य मामान्य मिथ्या है। द्रव्य सामान्य है और पर्याय वि५ है । द्रव्य शून्य पर्याय और पर्यायशून्य द्रव्य कही भी उपलब्ध नहीं होता ।' 3 विभिन्न दर्शनो ने भिन्न-भिन्न मख्यात्रो मे तत्वो का प्रतिपादन किया है । क्या उनका समन्वय भी सम्भव है ? मूल तत्व दो हैं चेतन और अचेतन । ५ भव तत्व उनके पर्याय है। तत्त्वो की संख्या का विकास किमी अपेक्षा या उपयोगिता के आधार पर किया गया है । यदि उपयोगिता की विवक्षा न की जाए तो उन सबका समावेश दो मूल तत्वो मे हो जाता है। 4 क्या प्रमाण भी सापेक्ष हैं ? यदि वह सापेक्ष हैं तो क्या प्रमाण की व्यवस्था अव्यवस्था मे नही बदल जायेगी। प्रमेय है तव प्रमाण है। यदि प्रमेय न हो तो प्रमाण की कोई अपेक्षा ही नही होती । प्रमास प्रमेय सापेक्ष है । प्रमाता प्रमेय को जानने का यत्न करता है तब प्रमाण अपेक्षित होता है। इसलिए प्रमाण प्रमाता-मापेक्ष भी है । मापेक्षवाद अनिश्चय की स्थिति उत्पन्न नहीं करता, किन्तु निश्चय की पृष्ठभूमि मे रहे हुए सभी तत्वो के सम्बन्धो की व्याख्या करता है । यदि हम प्रमाण को निरपेक्ष माने तो वह प्रमाता और प्रमेय से निरपेक्ष होकर अपने अस्तित्व को भी नहीं बचा पायेगा । इन्द्रिय-प्रत्यक्ष इन्द्रिय-जान की अपेक्षा से प्रमाण है, अतीन्द्रियगान की अपेक्षा से वह प्रमाण नही है । इसे उलट कर भी कहा जा सकता है कि अतीन्द्रियमान अव्यवहित विपथ-ग्रहण की अपेक्षा मे प्रमाण है, किन्तु व्यवहित विषयमाही मति और श्रुत की अपेक्षा से वह प्रमाण नही है। प्रमाण की व्यवस्था सापेक्षवाद के आधार पर ही स्थिर हो सकती है । शब्दनय की अपेक्षा से जान और अजान का विभाग नहीं होता। जितने सविकल्प उपयोग हैं वे उस उसकी दृष्टि मे मान ही हैं। वह श्रुत और केवल-इन दो गानो को ही स्वीकृति देता है । अत उसे प्रमाण और अप्रमाण का विभाग मान्य नही है । नैगम, सग्रह और व्यवहार ये तीनो नये नान और अनान के विभाग को स्वीकृति देते हैं, अत उनको सम्मति में प्रमाण और अप्रमाण का विभाग समुचित है 133 प्रमाण और अप्रमाण की समूची व्यवस्था विभिन्न सन्टिकोणो श्रीर अपेक्षाभो ५२ निर्भर है। इसका निर्णय चेतना-विकास और वितन की विभिन्न भूमिकामी के श्रावार पर किया जा सकता है। 33 तत्वार्थभाष्य 1/351 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 33 ) 5 क्या श्रागमयुग के पूर्व भी किसी दर्शनयुग की स्थिति को स्वीकृति दी जा सकती है । अथवा नही ? क्या कोई दर्शन-विहीन युग भी था ? ___ आगमयुग और दर्शनयुग यह विभाजन भी एक नय की अपेक्षा से है । आगमयुग को या उससे पहले के युग को दर्शनयुग कह सकते है । वस्तुत आगमयुग और दर्शनयुग मे कोई भेद नहीं है । आप्त-पुरु५, अतीन्द्रिय-ज्ञान और निरीक्षण की प्रधानता होती वही वास्तव मे दर्शनयुग है और वही आगमयुग है । ईसा पूर्व तीसरी चौथी शताब्दी मे दर्शन के क्षेत्र मे तर्क का प्राधान्य हो गया, उस नय की अपेक्षा से दर्शनयुग और आगमयुग का विभाजन किया गया है। निर्विकल्पनानुभूति या अपरोक्षानुभूति ही वस्तुत दर्शन है । वर्तमान मे उसकी परिभाषा बदल गई । आज हम निर्विकल्पनानुभूति या अपरोक्षानुभूति को दर्शन नही मानते । किन्तु सविकल्पशान, तर्क या हेतु के प्रयोग को दर्शन मानने लग गए हैं। इसी आधार पर प्रस्तुत विभाजन का औचित्य सिद्ध होता है। ऐतिहासिक काल मे दर्शन युग का प्रारम्भ भगवान पार के अस्तित्व-काल या उपनिषद्-काल (ईसा पूर्व 8 वी शती) से प्रारंभ होता है। 6 सापेक्षवाद का प्रयोग सर्वत्र होता है या कही-कही ? यदि सर्वत्र होता है तो क्या आप हिंसा को भी सापेक्ष मानते है ? हिसा है भी और नही भी यह मानते हैं ? हिंसा भी निरपेक्ष नही है। उसकी व्याख्या अनेक नयो से की जाती है। आचार्य हरिभद्र ने इस प्रश्न की अनेक नयो से समीक्षा की है ।34 हिंसा प्रमाद-सापेक्ष है । प्रमाद है तो हिंसा है । यदि प्रमाद नही है तो हिंसा भी नही है ।35 7 क्या सत्य भी इष्टि-सापेक्ष होता है ? यदि हा तो वह सार्वभौम नही हो सकता। द्रव्य मे विरोधी प्रतीत होने वाले स्वाभाविक पर्यायो मे वस्तुत कोई विरोध नही है । इसकी स्थापना के लिए सापेक्षवाद का सहारा लिया जाता है। द्रव्य के सापेक्षिक पर्यायो तथा विभिन्न सबधो की व्याख्या के लिए भी उसका उपयोग किया जाता है। द्रव्य सत्य है और पर्याय भी सत्य है । द्रव्य का मौलिक स्वरूप निरपेक्ष है, किन्तु उसके पर्याय और सवध निरपेक्ष नहीं है। निरपेक्ष-सत्य की व्याख्या निरपेक्षष्टि से और सापेक्ष-सत्य की व्याख्या सापेक्षष्टि में की जाती है । अस्तित्व की दृष्टि से सत्य सार्वभौम हो सकता है । शे५ पर्यायो की दृष्टि से वह नियत भूमि वाला ही होगा। 34 हिंसाफलाष्टकप्रकरणम्, 1-8 । 35 भगवई, 1/33, 34 । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 34 ) 8 यदि अतीन्द्रियशानावस्था मे मन, भाषा, पाणी आदि का लोप हो जाता है तो उम अवस्था मे लौटने पर अर्थात् साधारण लौकिक-शान के स्तर पर पाने के बाद उस व्यक्ति की अतीन्द्रिय अवस्था की स्मृति कसे रह सकती है ? क्योकि स्मृति तो तव ही रह सकती है जब अतीन्द्रिय अवस्था मे श्राप मन की भी किसी प्रकार मे सत्ता स्वीकार करें। अतीन्द्रिय-शानावस्या ज्ञानपक्ष है । यह जीवन का क्रियापक्ष नही है । वाणी जीवन का क्रियापक्ष है । मन शानपक्ष और क्रियापक्ष--दोनो के दायित्व का पहन करता है । क्रियापक्ष को वहन करने वाला द्रव्यमान और शानपक्ष को वहन करने वाला भावमन होता है । अतीन्द्रियज्ञानी यदि केवली है तो उनके क्रियापक्ष का वहन करने पाला मन और वाणी ये दोनो होते हैं। उनके शानपक्ष का मन नहीं होता। बागम साहित्य मे उन्हे नो रामनस्क और नो-अमनस्क कहा गया है । सामान्य अतीन्द्रियशानी के ज्ञानपक्ष का मन भी होता है। किन्तु अतीन्द्रियमान के उपयोग में वे मन का सहयोग नही लेते । अतीन्द्रिय-ज्ञानावस्था मे मन वाणी श्रादि का लोप हो जाता हे इस भाषा की अपेक्षा यह भाषा अधिक उपयुक्त होगी कि उस अवस्था मे मन, वाणी आदि महयुक्त नहीं होते। केवली लौकिकशान के स्तर पर कभी नही लौटते । सामान्य अतीन्द्रियमानी अतीन्द्रियज्ञान के लिए मानसशान का प्रयोग नहीं करते, किन्तु उनके मन का लो५ નહી હોતા શ્રત ની પ્રતીન્દ્રિય નેતના પ્રપને અનુભવો છો માનસિક વેતના ને सक्रान्त कर देती है। फलत अतीन्द्रिय-ज्ञानावस्था के अनुभव मन की धरोहर बन जाते हैं । 9 श्रापने कहा-केवली ही आगम है और स्वत प्रमाण है । प्रश्न है कि क्या केवली वाचिक क्रिया करता है अथवा नही ? यदि नही तक तो उसका ज्ञान वैयक्तिक अनुभूति-मात्र है, इसलिए दूसरे उसे ज्ञान कहकर सवाधित नही कर सकेंगे । और यदि केवली वाचिक क्रिया के द्वारा अपना ज्ञान अभिव्यक्त करता है तो दूसरी के लिए जो वस्तु प्रमाण होगा वह उसकी वाचिक क्रिया होगी, जो कि श्रुतशान के समान ही है। फिर, मात्र वचन ही प्रमाण नही हो सकता । वचन के साथ कुछ अन्य कारक मिलकर ही श्रुतज्ञान को प्रमाणरू५ मे स्थापित कर सकेंगे। __जैसे परानुमान काल मे अनुमाता का वचन दूसरे के लिए प्रमाण होता है वैसे ही केवली का वचन भी दूसरे के लिए प्रमाण होता है। कोरा वचन प्रमाण नही होता, किन्तु यह शान को अभिव्यक्त करता है इसलिए प्रमाण होता है । कोई लौकिक प्राप्तपुरु५, जिसने अपनी श्राखो से वन मे सिंह को देखा है और वह आकर Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 35 ) कहता है - मैने इस पन मे सिंह को देखा है तो हमे प्रत्यक्ष दर्शन और अनुमान के बिना भी वन मे सिंह के होने का बोध हो जाता है। केवल लोकोत्तर प्राप्त है। उसके वचन से भी हमे अ६ष्ट और अननुमित विषय का वोध होता है। केवली जो कहता है वह उसका वाक्-प्रयोग है। हम उसके वचन के आधार पर अर्यवोध करते हैं, वह हमारा मावश्रु त है। केवली का वचन हमारे भावत का निमित्त बनता है इसलिए वह द्रव्यश्रुत है । 000 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 अनेकान्त-व्यवस्था के सूत्र 1 सामान्य और विशेष का प्रविनाभाव હમ સત્ય છે નાનતે હૈં ઔર વસે શ્રમિથજી રતે હૈં મર્ય, શત્ શ્રી નાન વહ કસકી ત્રિપુટી હૈ વિધિન્ન હાનિ ને અમે બન્ન-ભિન્ન દૃષ્ટિકોણ વેલા હૈ વેરાન્ત ને રમ તીન પ ી વ્યાહ્યા હી હૈ પામધ, વ્યાવહારિક ર પ્રાતિમાસિ | ત્રાપારમા સત્ય હૈ ફન્દ્રિય-નમ વ્યાવહારિ સત્ય હૈ. મૃમરીનિફો-નાન, સ્વપ્નજ્ઞાન પ્રાતિ માસ સત્ય હૈ વહ્વો ને મત્ય વિશે દિપ માના હૈ પરમાર્થ સત્ય કૌર સવૃતિસત્ય (વ્યાવહારિ યા છાત્પનિક સત્ય ) વસ્તુ . સ્વ-ન્ના (ક્ષશિતા) પરમાર્થ સત્ય હૈ વસ્તુ છે મામાન્ય નક્ષ પ્રપોઝનિત હોને જે રૂાર સવૃતિસત્ય હૈ !' 1 () પ્રમાણવત્ત, 2/4 પ્રક્યિાસમર્થે થતુ, તવત્ર પરમાર્યસત્ | પ્રજ્ય સવૃતિસત્ બોલત, તે સ્વસામાન્ય છે (૧) સૌત્રાન્તિવો જે અનુસાર સમી દ્રવ્યસન પવાર્થ પ્રચવા વસ્તુ મા વાત્મા fજ્યાગીન કવ ક્ષહિ હૈ ત ધટપટ શ્રાવિ હમારા પરિન્દ્રિત વિરવ વાસ્તવિક નહી કા ના સતા કિન્તુ અવાસ્તવિક હોતે દુર મી સદી વ્યાપાર સાર્થકતા સ્વીકાર ન હોગી હે યહ માનના પહેમ વિ ધટપટ આદિ ગાન હમારી ત્વના હોતે હુણ શી હને વાછિત વસ્તુ તવ પવાને સૌર વાછિત હે વત્તાને એ સહાયક સિદ્ધ હોતા હૈ યદિ વસ્તુ ક્ષ િર સ્વ-નલ (દ્વિતીય સ્વભાવ) ચુ , હમારી સામાન્ય-નાક્ષાત્મ જ્યના વન પર વ્યવહાર કે તે ના હોતી હૈ? જ પ્રારા-લુમ પી સી કોરી ફત્પના વ્યવદારોપયો હોત હૈ ઔર ન ત્રિતોની સે ન્યારી, હત્પન્ન હોતે- વિનિષ્ઠ વસ્તુ, નો ન પ મી થી, મવિષ્ય ને શમી દોરી વ્યવહાર છે નિણ સ્થિરાસ્થિર, મરંડામદરી વસ્તુ l ના વાહિનિસને સાધ્ય મૌર સાધન જે નોડને છે નિણ સ્મૃતિ, વિવાર શ્રી મઝેબ ! સાર્થક પ્રવજા Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 37 ) विभिन्न चिन्तको ने सत्य के विभिन्न रू५ उपस्थित किए है। उसकी दो आधारशिलाए हैं निर्विकल्प अनुभूति और सविकल्पज्ञान । निर्विकल्प अनुभूति मे जय का साक्षात्कार होता है, इसलिए तद्विषयक बोध भिन्न नही होता । ऐन्द्रियिक स्तर पर होने वाले सविकल्पज्ञान मे ज्ञेय का साक्षात्कार नही होता, इसलिए उसका वोध नाना प्रकार का होता है । वेदान्त ने द्रव्य को पारमार्थिक सत्य मानकर पर्याय को काल्पनिक मान लिया। वौद्धो ने पर्याय को परमार्थ सत्य मानकर द्रव्य को काल्पनिक मान लिया । जैन न्याय के अनुसार द्र०य और पर्याय दोनो पारमार्थिक सत्य हैं । पर्याय की तरगो के नीचे छिपा हुआ द्रव्य का समुद्र हमे दृष्ट नही होता तव पर्याय प्रधान और द्रव्य गौण हो जाता है। द्रव्य के शान्त समुद्र मे जब पर्याय की मिया अदृष्ट होती हैं तव द्रव्य प्रधान श्रीर पर्याय गौण हो जाता है । वेदान्त का विकल्प समुद्र की अतर गित अवस्था है और पौद्धो का विकल्प उसकी तरगित अवस्था है। अनेकान्त की दृष्टि मे ये दोनो समन्वित है 'अपर्यय वस्तु समस्यमानमद्रव्यमेतच विविध्यमानम् । आदेशभेदोदितसप्तभङ्गमदीशव बुधरूपqधम् ॥2 हमारा विकल्प जव सश्लेषणात्मक होता है तब द्रव्य उपस्थित रहता है, पर्याय खो जाते हैं और हमारा विकल्प जव विश्लेषणात्मक होता है तब पर्याय उपस्थित रहता है, द्रव्य खो जाता है। अनेकान्त-व्यवस्था के युग मे कुछ अविनाभाव के नियम निर्धारित किए गए । यह इस युग की महत्वपूर्ण निष्पत्ति है। अनेकान्त का पहला नियम है सामान्य और विशेष का अविनाभाव सामान्य विशेष का अविनाभावी है और विशेष सामान्य का अविनाभावी है । इसका फलित है कि द्रव्य रहित पर्याय और पर्याय रहित द्रव्य सत्य नहीं है। सत्य और मिथ्या के बीच मे कोई विशेष दूरी नही है। एक विकल्प सत्य और दूसरा विकल्प असत्य ऐसी विभाजन-रेखा नही है । केवल इतनी-सी दूरी है कि सामान्य विशेष से निरपेक्ष होता है और विशेष सामान्य से निरपेक्ष होता है तो वे दोनो विकल्प मिथ्या हो जाते हैं । दोनो एक-दूसरे के प्रति सापेक्ष होते हैं तो दोनो विकल्प सत्य हो । व्यवहार न विशुद्ध कल्पना पर आधारित है और न विशुद्ध परमार्य ५२ । उसका विश्व कल्पित और अकल्पित, दोनो ही प्रकार के तत्वो से सपिडित है। जहा सौत्रान्तिको की दृष्टि उसके वस्तुपक्ष पर केन्द्रित है, विज्ञानवादियो की ष्टि उसके कल्पना-पक्ष पर । दिनाग ने दोनों को समुचित कर एक नई धारा प्रवाहित की। -अपोहसिद्धि, गोविन्दचन्द्र पाडे कृत अनुवाद, पृष्ठ 29 अन्ययोगव्यवच्छेद्वात्रिशिका, २लोक 23 1 2 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (38 } हो जाते हैं । दोनो एक-दूसरे का निरसन करते हैं तो वे मिय्या हो जाते हैं और दोनो अपने-अपने विषय का प्रतिपादन करते हैं तो सत्य हो जाते है । 2 नित्य और अनित्य का अविनाभाव अनेकान्त का दूसरा नियम है નિત્ય ઔર સનિત્ય ના વિનામાવ નિત્ય अनित्य का अविनाभावी है और अनित्य नित्य का अविनाभावी है । चार्वाक का अभिमत है कि इन्द्रिय-जगत् ही सत्य है। आध्यात्मिक सत्य जैसा कुछ भी नही है | श्रात्मवादी दार्शनिको ने कहा आत्मा ही सत्य है, इन्द्रिय-जगत् मिय्या है | जैन ताकिको ने इसकी समीक्षा की। उन्होंने प्रतिपादित किया इन्द्रियजगत् असत्य नही है | सत्य वह है जिसमे अर्थक्रियाकारित्व होता है । इन्द्रियो का अर्थक्रियाकारित्व है, इसलिए वे असत्य नही हैं । उनके विषय भी असत्य नही हैं । સદ્ ા તક્ષા હૈં ત્લાવ, વ્યય શ્રઔર ધ્રૌવ્ય ।નિસમે પ્રક્રિયા ારિત્વ હૈં, વ उत्पन्न भी होता है, नष्ट भी होता है और ध्रुव भी रहता है । हम इन्द्रिय-जगत् को मत्य और आत्मा को श्रमत्य मानें, यह व्यवहार की भाषा हो सकती है किन्तु सूक्ष्म सत्य की भाषा नही हो सकती । हम केवल आत्मा को ही पारमायिक सत्य मानें और इन्द्रिय-जगत् को श्रमत्य मानें यह अध्यात्म की भाषा हो सकती है किन्तु वस्तु जगत् की भाषा नही हो सकती । श्रव्यात्म और तत्व मीमासा की भाषा एक नही होती । श्रव्यात्म की भाषा मे इन्द्रिय-विपय क्षणिक है, नरवर है । भौतिक जगत् से विरति उत्पन्न करने के लिए यह दृष्टिकोण सत्य हो सकता है किन्तु तत्त्वमीमासा मे यह सत्य नही है । वहा इन्द्रिय-विषय और आत्मा की वास्तविकता मे कोई अन्तर नही है | इस ग्रगुली के परमाणु जितने सत्य है, आत्मा भी उतना ही सत्य है | आत्मा जितना सत्य है, उतने ही इम अगुली के परमाण सत्य हैं । जो उत्पन्न और नष्ट होता है तथा ध्रुव रहता है, वह नव मत्य है | यह विलक्षणात्मक मत्व जैसा श्रात्मा मे है वैसा पुद्गल मे है और जैसा पुद्गल मे है वैसा आत्मा मे है । અવ્યાત્મ વે મૂલ્ય વસ્તુખ઼ાત્ મૂલ્ય વન ૫ તવ ક્ષત્તિા [ સિદ્ધાન્ત વિવાવાસ્પદ્ बन गया । अन्यया वह बहुत मूल्यवान् है | अध्यात्म के सभी चिन्तको ने उसका प्रतिपादन किया है । जेनो ने भी क्षरणमगुरता पर बहुत बल दिया है । उनकी वारह भावनाओ मे पहली अनित्य भावना है । इस भावना से अपने मन को भावित करने વાળા સાથ ‘સર્વેમનિત્યક્ इस सूत्र को बार बार दोहराता है, किन्तु यह आध्यात्मिक पक्ष है । जहा तात्त्विक पक्ष का प्रश्न है वहा जैन दर्शन को यह मान्य नही है कि पोद्गलिक जगत् अनित्य है और आत्मिक जगत् नित्य है । तत्त्व- मीमासा मे आत्मिक जगत् जितना नित्य है उतना ही पोदुगलिक जगत् नित्य है और पोदुगलिक जगत् 3 तत्वार्थ, 5/29 ઉત્પાવવ્યવઋવ્યયુક્ત સત્ । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 39 ) जितना अनित्य है उतना ही आत्मिक जगत् अनित्य है । नित्यत्व और अनित्यत्व को विभक्त नहीं किया जा सकता। नित्य को अनित्य मे विभक्त मानने के कारण माल्य दर्शन ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया बन्च और मोक्ष प्रकृति के होता है । पुरु५ के -4 और मोक्ष नहीं होता। वह नित्य-शुद्ध है। पुरु५ के वध और મોલ મનને ઘર સે પરિણામ પર ઐનિત્ય માનના પડતા ઢોર ચહ વસે ફક્ટ નહી था, इसलिए पु०५ को बच-मोक्ष से परे माना। आचार्य पुन्दकुन्द ने भी यह निरूपित किया है कि जीव कर्म का कर्ता नही है। कर्म कर्म का करता है। यदि जीव कर्म का कर्ता हो तो वह कर्मसे कभी मुक्त नही हो सकता । वह कर्म का पता नहीं है इसीलिए कम से मुक्त होता है । शुद्ध द्रव्याथिक नय की दृष्टि में यह मत्य है कि जिसका जो स्वभाव होता है वह कभी नहीं बदलता । चेतन का अपना विशिष्ट स्वभाव है पैतन्य । वह कभी विनष्ट नहीं होता । उ441 काम है-अपनी अनुभूति । फिर वह विजातीय कर्म का का कसे हो सकता है ? यह शुद्ध द्रव्यायिक या कोपाधि-निरपेक्ष नय है । इस नय मे पास्य दर्शन के प्रकृति के बन्च मोक्ष वाले सिद्धान्त का समर्थन किया जा सकता है । जैन परिमापा में कहा जा सकता है कमगरीर के ही 4 और मोक्ष होता है । अशुद्ध द्रव्यायिक नय इन विकल्प को स्वीकृति देता है कि जीव कर्म का कर्ता है।' द्रव्यायिक न4 सामान्यग्राही है । जहा सामान्य का विकल्प मुख्य होता है वहा पर्याय गौर हो जाता है । नित्यत्व इसीलिए मत्य है कि वस्तु है और वह मदा है । यह नि.तरता इसीलिए चल रही है कि वस्तु मे दीर्घकाल तक रहने का गुण है । जहा हम वस्तु के समान अशो का निर्णय करते है पहा एकता, सामान्य और द्रव्यत्व की दृष्टि फलित होती है। उत्पाद और व्यय का क्रम निस्तर चल रहा है । हम कसे कह सकते है कि यह वही पर्वत है ? यह वही मनुष्य है ? यह वही भवन है जो दस वर्ष पहले हमने वृहद् नयचर 191 5 कामास मज्माद जीव जो गह सिद्धसकास । भण्इ नो सुद्धको खलु कामोवाहिणि रक्खो॥ वृहद नयचर 194 भावे सरायमादी स०वे जीवाम्म जो दु जपदि । मो हु असुद्धो उत्तो कम्मापोवाहिरिणखो ॥ वृहद् नयच+ 192 . उप्पादवय किया जो गह केला सत्ता। भण्ा सो सुदणी इह सत्तागाहियो समये ।। 6 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 40 ) देखा था ? पुराने परमाणु विस्थापित हो रहे है और नए परमाणु स्थापित हो रहे है । हमारे शरीर के भी तदाकार परमाणु विजित हो रहे है और दूसरे परमाणु आ रहे हैं । यदि तदाकार परमाणु विसजित नही होते ता अनुपस्थिति मे फोटो लेने की पद्धति प्राविकृत नहीं होती। परमाणुओ का यह गमनागमन प्रमाणित करता है कि द्रव्य अनित्य है। जब हम उत्तरोत्तर ममान पर्यायो को देखते जाते है तब हमे नित्यता की प्रतीति होती है । जब हम भेदो या विशेषो की ओर ध्यान देते है तब हमे अनित्यता की प्रतीति होती है । इन दोनो स्थितियो मे क्या हम निन्य को सत्य माने या अनित्य को सत्य माने ? यदि नित्य को सत्य मानते हैं तो अनित्य को मिथ्या मानना होगा और यदि अनित्य को सत्य मानते है तो नित्य को असत्य मानना होगा । एक को सत्य और एक को अमत्य मानने वाले परस्पर विवाद कर रहे हैं। एक अनित्यत्व का निरसन कर रहा है तो दूसरा नित्यत्व का निरसन कर रहा है । अनेकान्त किसी एक नय को सत्य नही मानता । હસો અનુસાર અનિત્ય-નિરપેક્ષ-નિત્ય સત્ય નહી હોત ૨ નિત્ય-નિરપેક્ષ-અનિત્ય सत्य नही होता । दोनो सापेक्ष होकर ही सत्य होते हैं ।' प्राचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है कोई भी ऐसा सृजन नही है जहा ध्वस न हो और कोई भी ऐसा वस नही है जहा सृजन न हो। कोई भी ऐसा सृजन और ध्वस नही है जहा स्थिति या ध्रुवता न हो । इन तीनो एजन, वस और स्थिति का समन्वय ही सत्य है । अर्थ-पर्याय क्षणवर्ती पर्याय है । उसके अनुसार यह पर्वत वह नहीं हो सकता जिसे दस वर्ष पहले हमने देखा था। यह मनुष्य वह नही हो सकता जिसे दस वर्ष पहले हमने देखा था। व्यजन-पर्याय दीर्घकालीन पर्याय है । उसके अनुसार यह पर्वत वही है और यह मनुष्य वही है जिसे हमने दस वर्ष पहले देखा था। अर्थ-पर्याय मे सादृश्यवोव नही होता । व्यजन-पर्याय मे सायवोध होता है । सय और साय के आधार पर अनित्यता और नित्यता को फलित करना स्थूल सत्य है, सूक्ष्म मत्य नहीं है । अर्थ-पर्याय मे होने वाला वैसदृश्य और व्यजन-पर्याय मे होने वाला सादृश्य ये दोनो ही पर्याय हैं । इन दोनो से अनित्यता ही फलित होगी। काल की प्रलव शृखला मे 7 विशेषावश्यकभाष्य, गाया 72। एक विवदति या मिच्छामिणिवेमतो परोप्परतो । इदमिह स०पयमय जिमतमरावज्जमच्चत ॥ 8 प्रवचनसा• 100, 101 ण भवो भगविहीणो भगो वा गरिय सभवविहीणो । उप्पादो वि य भगो ण विणा घोर अत्य॥ उपाहिदिभगा विज्जते पज्जएसु पज्जाया । ६०वे हि सति सियद तम्हा दर हपदि स० ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 41 ) एक दिन ऐसा आता है कि मनुष्य मर जाता है और पर्वत भी विनष्ट हो जाता है। किन्तु जिन परमाणो से पर्वत की सरचना हुई थी वे परमाणु कभी विनष्ट नही होगे । जिन परमाणुप्रो से मनुष्य के शरीर की सरचना हुई थी वे परमाणु कभी विनष्ट नहीं होगे । जिस श्रात्मा ने उस शरीर मे प्रार-संचार किया था वह कभी विन नही होगा। नित्यता का प्राधार मूल द्रव्य है । पर्याय क्षणिक हो या दीर्थकालीन, विसदृश हो या सश, अनित्यता को ही प्रस्थापित करता है। मामान्य और नित्यता का इष्टिकोण या व्याख्या न्यायिक नय है । विशेष और उत्पाद-व्ययात्मक परिशमन का दृष्टिकोण या व्याख्या पर्यायायिक नय है । ये दो मूल नय हैं और परस्पर सापेक्ष है । इनकी सापेक्षता के आधार पर अनेकान्त के 'सामान्य-विशे५ का भेदाभेद' और 'सापेक्ष-नित्यानित्यत्व' ये दो सूत्र प्रस्थापित किए गए। 3 अस्तित्व और नास्तित्व का अविनाभाव अनेकान्त का तीसरा नियम है अस्तित्व और नास्तित्व का अविनाभाव-- अस्तित्व नास्तित्व का अविनाभावी है और नास्तित्व अस्तित्व का अविनाभावी है । प्लेटो का तर्क था कि कुर्सी का का० कार है इसलिए वह हमारे भार को सहन करती है। उसका का० मृदु है इसलिए उसे कुल्हाड़ी से काटा जा सकता है । कठोरता श्रीर मृदुता दोनो विरोधी धर्म है। विरोधी धर्म एक साथ रह नही सकते, इसलिए कठोरता भी असत्य है, मृदुता भी असत्य है और कुर्सी भी असत्य है। अनेकान्त की पद्धति मे सोचने का यह प्रकार नही है। वहा इस प्रकार सोचा गया कि एक ही द्रव्य मे अनन्त विरोधो का होना अपरिहार्य है । द्रव्य अनन्त धर्मों की समष्टि है । वे धर्म परस्पर विरोधी हैं इसलिए द्रव्य का द्रव्यत्व बना हुआ है। यदि सब धर्म विरोधी होते तो द्रव्य का द्रव्यत्व समाप्त हो जात।। विरोधी धों का होना द्रव्य का स्वभाव है, तब हम उस विरोध की चिन्ता मे उलझ कर द्रव्य के अस्तित्व को नकारने का प्रयत्न क्या करें ? धर्मकीति के शब्दो मे यदिद स्वयमर्थभ्यो रोचते तत्र के वयम्' यदि विरोध स्वयं द्रव्य को रूचिकर है, वहा कौन होते है हम उसकी चिन्ता करने वाले ? हमारी चिन्ता यही हो सकती है कि हम उन विरोधी धर्मो के मूल कारणो और उनके समन्वय सूत्र को खोजें। अनेकान्त ने इसकी खोज की और उसने पाया कि अस्तित्व और नास्तित्व दोनो एक साथ होते हैं । प्रतिषेधशून्य-विधि और विधिशून्य-प्रतिषेध कभी नही होता। विधि भी द्रव्य का धर्म है और प्रतिषेध भी द्रव्य का धर्म है। अस्तित्व विधि है और नास्तित्व प्रतिषेध है । अस्तित्व का कारण है द्रव्य का स्वभाव और नास्तित्व का कारण है द्रव्य का पर-भाव । घट जिस मृत्-द्रव्य से बना वह उसका स्व-द्रव्य है, जिस क्षेत्र मे बना वह उसका स्व-क्षेत्र है, जिस काल मे बना वह उसका स्व-काल Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 42 ) है तथा जिस वर्ग और प्राकृति मे है वह उसका स्व-भाव है । स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से घ८ का अस्तित्व है । पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से उसका नास्तित्व है । यह अपेक्षा समन्वय का सूत्र है । जिस अपेक्षा से घट का अस्तित्व है, उस अपेक्षा से ५८ का नास्तित्व नही है। अस्तित्व और नास्तित्व दोनो विरोधी धर्म हैं और दोनो एक द्रव्य मे एक साथ रहते हैं । पर दोनो का कारण एक नही है । अपेक्षा का सूत्र दोनो मे रहे हुए सामजस्य को प्रदर्शित और उनके एक साथ रहने की वास्तविकता को सिद्ध करता है। आचार्य अकलक ने अस्तित्व और नास्तित्व के विभिन्न कारणो का उल्लेख किया है । स्वात्मा की अपेक्षा पर है, परात्मा की अपेक्षा ५८ नही है इस प्रतिपादन से प्रश्न उपस्थित हुआ कि ५८ का स्वात्मा क्या है और परात्मा क्या है ? उत्तर मे आचार्य ने बताया जिस वस्तु मे घट-बुद्धि और घट-२००६ का व्यवहार हो वह स्वात्मा और उससे भिन्न परामा है । स्वात्मा का उपादान और परात्मा का अपोह इस व्यवस्था से ही वस्तु का वस्तुत्व सिद्ध होता है। यदि स्वात्मा मे 'पट' आदि परात्मा की व्यावृत्ति न हो तो सर्वात्मना भी रूपो मे घट का व्यपदेश किया जाएगा । परात्मा की व्यावृत्ति होने पर भी यदि स्वात्मा का उपादान न हा तो श ग की भाति वह असत् हो जाएगा। घट-शब्द-वाच्य अनेक घटो मे से विवक्षित घट का जो आकार आदि है वह स्वात्मा है, अन्य परात्मा । यदि अन्य घटो के आकार से भी विवक्षित घटका अस्तित्व हो तो ५८ एक ही हो जाएगा। विवक्षित घट भी अनेक अवस्था पाला होता है। उसकी मध्यवर्ती अवस्था स्वात्मा है, पूर्व और उत्तरवर्ती अवस्या परात्मा है । विवक्षित ५८ की मध्यवर्ती अवस्था मे भी प्रतिक्षा उपचय और अपचय होता रहता है । अत वर्तमान क्षण की अवस्था ही स्वात्मा है और अतीत अनागतकालीन अवस्या परात्मा है । यदि वर्तमान क्षण की भाति अतीत और अनागत क्षणो से भी ५८ का अस्तित्व माना जाए तो सभी घट एक क्षणवर्ती ही हो जायेंगे। अतीत और अनागत की भाति यदि वर्तमान क्षरण से भी ५८ का नास्तित्व माना जाए तो घट का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। वर्तमान क्षणवर्ती घट मे रूप, रस, irrd आकार आदि अनेक गुण और पर्याय होते हैं । ५८ के रूप को श्राख से देखकर उसके अस्तित्व का वोध होता है, अत रू५ स्वात्मा है, रस आदि परात्मा है । यदि चक्षुग्राह्य ५८ मे रू५ की भाति रम आदि भी स्वात्मा हो जाए तो वे भी चाग्राह्य होने के कारण रूपात्मक हो जाएंगे। इस स्थिति मे अन्य इन्द्रियो की कल्पना व्यर्य हो जाती है । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 43 ) घट शब्द के प्रयोग से उत्पन्न घटाकार ज्ञान स्वात्मा है, बाह्य घटाकार परात्मा है । चेतना के दो प्रकार होते हैं- ज्ञानाकार प्रतिविम्वशून्य दर्पण की भाति । ज्ञेयाकार प्रतिविम्वयुक्त दर्पण की भाति । इनमे ज्ञेयाकार स्वात्मा है और ज्ञानाकार परात्मा है । यदि ज्ञानाकार से घट का अस्तित्व माना जाए तो पट आदि के ज्ञानकाल मे भी घट का व्यवहार होना चाहिए | यदि ज्ञेयाकार से घट का नास्तित्व माना जाए तो घट का व्यवहार ही निराधार हो जाएगा। 4 वाच्य और श्रवाच्य का श्रविनाभाव अनेकान्त का चौथा नियम है- वाच्य और अवाच्य का अविनाभाव वाच्य श्रवाच्य का अविनाभावी है और अवाच्य वाच्य का अविनामावी है । द्रव्य अनन्तधर्मात्मक है | एक क्षण मे युगपत् अनन्त धर्मों का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता, श्रायु और भाषा की सीमा होने के कारण कभी भी नही किया जा सकता | इस समग्रता की अपेक्षा से द्रव्य अवाच्य है 110 एक क्षण मे एक धर्म का प्रतिपादन किया जा सकता है । अनेक क्षरणो मे अनेक धर्मों का भी प्रतिपादन किया जा सकता है | इस आशिक अपेक्षा से द्रव्य वाच्य है । अनेकान्त का व्यापक उपयोग उक्त नियम-चतुष्टयी अनेकान्त का आधार स्तम्भ है | दर्शनयुग मे दार्शनिक समस्याओं को सुलझाने के लिए इस चतुष्टयी का व्यापक उपयोग हुआ है । प्रमारण व्यवस्था का विकास होने पर भी इसका उपयोग कम नही हुआ । यह सिद्धान्त बराबर मान्य रहा कि अनेकान्त के विना प्रमाण की व्यवस्था सम्यक् नही हो सकती | आचार्य सिद्धसेन ने न्यायावतार मे प्रमाण की विवेचना की और अन्त मे अनेकान्त का निरूपण कर उसकी अनिवार्यता स्थापित की । कलक, विद्यानन्द, हरिभद्र, माणिक्यनन्दि, वादिदेव, हेमचन्द्र आदि सभी आचार्यो ने प्रमारण की चर्चा 1 9 तत्त्वार्यवार्तिक 1161 10 विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 450, स्वोपज्ञवृत्ति उक्कोसयसुतरणाणी वि जारणमारणो वि तेऽभिलप्पे वि । तरति सव्वेवोत्तु र पहुप्पति जेरण कालो से ॥ इह तानुत्कृष्टश्रुतो जानानोऽभिलाप्यानपि सर्वान् (न) भाषते, अनन्तत्वात्, परिमितत्वाच्यायुष क्रमवर्तिनीत्वाद् वाच इति । , Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 44 ) अनेकान्त की छत्रछाया मे की। प्रमाण-व्यवस्था का विकास होने पर भी अनेकान्त का अवमूल्यन नहीं हुआ, प्रत्युत अविमूल्यन हुआ। भाव और अभाव, एक और अनेक आदि अविनाभाव के नियमो का व्यवस्थित विकास होता गया। भागमयुग मे अनेकान्त के इन नियमो का उपयोग नहीं होता था ऐसा नही मानना चाहिए। ये नियम दर्शनयुग मे खोजे गए ऐमा भी नही है । दोनो युगो के मध्य केवल उपयोग भूमि का अन्तर है। प्रागमयुग मे उन नियमो का उपयोग द्रव्य की मीमासा के लिए होता था और दर्शनयुग मे उनका उपयोग विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तो मे समन्वय स्थापित करने के लिए किया गया। 5 अस्ति नास्ति का अविनाभाव गौतम ने भगवान महावीर से पूछा “भते । क्या अस्तित्व अस्तित्व मे परिणत होता है और नास्तित्व नास्तित्व मे परिणत होता है ? भगवान ने कहा 'हा, गौतम । ऐसा ही होता है । 'भते । अस्तित्व अस्तित्व मे और नास्तित्व नास्तित्व मे जो परिणत होता है वह प्रयोग से होता है या स्वभाव से होता है ?' गौतम | वह प्रयोग से भी होता है और स्वभाव से भी होता है ।' 'भते । तुम्हारा अस्तित्व अस्तित्व मे परिणत होता है, वैसे ही क्या तुम्हारा नास्तित्व नास्तित्व मे परिणत होता है ? जैसे तुम्हारा नास्तित्व नास्तित्व मे परिणत होता है, वैसे ही क्या तुम्हारा अस्तित्व अस्तित्व मे परिणत होता है ?' 'हा, गौतम । ऐसा ही होता है ।'11 भगवई, 1/133-135 से सूरण भते । अत्यित्त वित्त परिणमइ ? नत्यित्त नत्यित्त परिणमई ? हता गोयमा | अयित अत्यित्त परिणम । जे ण भते | अयित अस्थित्त परिणमइ, नात्यत्त नत्यित्त परिणमई, त कि पयोगसा ? वीससा ? गोयमा ! पयोगसा वि त, वासमा वि त । जहा ते भते । अत्थित अस्थित्त परिणमई, नायित्त नत्यित परिणमइ ? जहा ते नत्यित्त नत्यित्त परिणमा, तहा ते अत्यित्त अयित परिणम ? हता गोयमा । जहा मे अत्यित्त अत्यित परिणमइ, तहा मे नत्थित्त नात्यत्त परिणाम | जहा मे नत्यित्त नयित परिणमई, तहा मे अत्थित्त अयित्त परिणम । 11 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 45 ) इस सवाद मे अस्तित्व श्रीर नास्तित्व के अविनाभाव का प्रतिपादन हुआ है । भगवान महावीर ने 'सर्व अस्ति' और 'सर्व नास्ति'- इन दोनो सिद्धान्तो को स्वीकृति नहीं दी। उन्होंने 'अस्ति' और 'नास्ति' दोनो के समन्वय को स्वीकृति दी । भगवान् के ज्येष्ठ शिष्य गौतम ने अन्य दार्शनिको से कहा - 'देवानुप्रियो । हम अस्ति को नास्ति नही कहते श्रीर नास्ति को अस्ति नही कहते । देवानुप्रियो । हम 'सर्व अस्ति' को अस्ति कहते है और स नास्ति' को नास्ति कहते है । इस निरूपण मे केवल अस्ति और केवल नास्ति की अस्वीकृति और दोनो के समन्वय की स्वीकृति है। इसमें यह भी स्पष्ट किया गया है कि अस्ति और नास्ति दोनो का अपना-अपना स्थान और अपना-अपना मूल्य है । 6 नित्य और अनित्य का अविनाभाव ___ गौतम ने पूछा 'भते । अस्थिर परिवर्तित होता है, स्थिर परिवर्तित नही होता । अस्थिर मन होता है, स्थिर भन्न नही होता । क्या यह सच है ?' 'हा, गौतम ! यह ऐसा ही है । द्रव्य अकम्प और प्रकम्प तथा स्थिर और अस्थिर दोनो का सह-अस्तित्व है । एक अवस्थित और दूसरा निरत र परिशमनशील । जीव अप्रकम्प है, इसलिए वह कभी अजीव नहीं होता और वह प्रकम्प भी है, इसलिए निरतर विभिन्न अवस्थाओ मे परिणत होता रहता है । मडितपुत्र ने पूछ। 'भते । जीव सदा निरत र प्रकपित होता है और फलत नाना अवस्थाओ मे परिणत होता है । क्या यह सच है ? 12 भगवई, 7/217 । तए ण से भगव गोयमे ते अण्णउत्थिए एक बयासी नो खलु 44 देवाराप्पिया | अयि भाव नत्यि त्ति दामो, नस्थि भाव अत्यि ति दामो। अम्हे ण देवाणपिया | स०प अयि भाव अस्थि त्ति पदामो, स०५ नत्थि भाव नत्थि ति वदामो। 13 भगवई, 1/440 से सूरण भने । अथिरे पलोदृ३, नो थिरे पलोइ ? अथिरे भज्जइ, नो थिर भज्ज? हता गोयमा । अथिरे पलो३, नो थिरे पलोदृ । अथिरे भज्ज३, नो थिर भज्जइ । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દ્રવ્ય વળી નિત્યતા ા હેતુ હનળા અષ્ટમ્પ (ધ્રૌવ્યપુરા) સ્વભાવ ોર અનિત્યતા િહેતુ રસના પ્રમ્પ (સાવ ઔર થય) સ્વમાવ હૈ । નિમ્ન મંવાવ સે યહ્ સ્વપ્ન દ્દો નાતા હૈ। ગૌતમ તે જૂથા—બતે I નીવ શાશ્વત હૈ યા શ્રશાવત ? બાવાનું તે હા-પૌતમ 1 નીવ ત્યા શાવત હૈ ઔર સ્થાત્ બ્રશાશ્વત । દ્રવ્ય (ધ્રૌવ્ય પુરા) જૈ શ્રપેક્ષા હૈ વહ શારવત હૈ ઔર ભાવાર્થ (ઉત્સાવ ઔર વ્યય) ની અપેક્ષા તે વહ અશાશ્વત હૈ ।'16 નીવ હ્રીઁ નહી ન્તુિ સમી દ્રવ્ય વન શાશ્વત ચા અશાવત નો ફ્ શાવત શ્રઔર બ્રશાવંતનોનો હૈં । 14 હા, મહિતપુત્ર I ચત્તુ સન હૈ !’14 પરમાણુ છે વિધ્ ની સૌ સિદ્ધાન્ત જા પ્રતિપાવન દુશ્મા હૈ 115 के 7 द्रव्य और पर्याय के मेदाभेद का श्रविनामाव ‘જ્ઞાન નીવ ા લક્ષણ હૈં ।'17 સમે નીવ-દ્રવ્ય ઔર જ્ઞાન-પુણ दोनो મેદ્રષ્ટિ સે પ્રતિપાવિત હૈં । નો શ્વાત્મા હૈ, વહ વિજ્ઞાતા હૈ । નો વિનાતા હૈ વન્ આત્મા હૈ ! ‘નીવ ઝિમ દ્વારા ખાનતા હૂઁ વદ્ આત્મા હૈ ।'18 મે ખોવ ઔર જ્ઞાનવોનો ા અમેવ પ્રતિપાવિત હૈ । ૧ ૭ 17 ( 46 ) 18 ભાવર્ડ, 3/143 । ખીને રા મતે ! સયા સમિત તિ વૈયત્તિ વતિ વડું વૃક્ વુભ છવીરવ 7.7 ભાવ પિરણામ ? 7. 7. ભાવ પરિામડ્ āતા મશ્રિપુત્તા ! નીવે રફ સયા મિત તિ બાવરે, 7/150 માવર્ડ, 1/58,59 ઉત્તરજ્યા, 28/10 નીવા રા મતે 1 વિ સાસયા ? અસાસચા ? નોયમા ! નીવા સિય સાસયા, સિય અસાયા । તે જેટ્ટ રા મતે 1 વ વુન્નઃ—નવા સિય સાસચા, સિય શ્રસાસયા ? નોયમા ! હવદ્ગયા! સાસયા, માવğયાણું અસાસયા 1 आया । આયારો, 5/104 નીવો વસ્રોલઘો ને આયા સે વિાયા, ને વિÇાયા સે શ્રાયા 1 ને વિજ્ઞાાતિ સે Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 47 ) मृत्तिका द्रव्य है और घट उसका एक पर्याय है । घट मिट्टी से होता है, उसके बिना नही होता - इस पेक्षा से वह मिट्टी से अभिन्न है । घटाकार परिणति पूर्व मिट्टी में घट की क्रिया (जल -धारण) नही हो सकती, इस अपेक्षा से वह मिट्टी से भिन्न भी है । 12 घट कार्य है और मिट्टी उसका उपादान कारण है 1 द्रव्य और पर्याय मे भेदाभेद सम्वन्ध होता है, अत कार्य-कारण मे भी भेदाभेद सम्बन्ध होता है । 8 एक और अनेक का प्रविनाभाव सोमिल ने पूछा 'भते । 'सोमिल | मैं द्रव्य की अपेक्षा से एक हू, ज्ञान और दर्शन की अपेक्षा से दो हू । प्रदेश (द्रव्य का घटक अवयव) की अपेक्षा से अक्षय, अव्यय और अवस्थित हू । परिणमनशील चैतन्य - व्यापार (उपयोग ) की अपेक्षा से मैं अनेक 120 एक-अनेक, सामान्य-विशेष और नित्य-अनित्य-इन सबके मूल मे द्रव्य और पर्याय हैं । द्रव्य एक और पर्याय अनेक होते है । द्रव्य सामान्य और पर्याय विशेष होते है । द्रव्य नित्य और पर्याय अनित्य होते है । सामान्य दो प्रकार का होता है - तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य 122 'मैं एक हू'यह तिर्यक् सामान्य है | इसमे एकत्व अन्वय या ध्रुवत्व की अनुभूति है । 'मैं चैतन्य - व्यापार (उपयोग ) की अपेक्षा से अनेक हू'यह ऊर्ध्वता 19 आप एक है या अनेक ?" 20 21 सन्मति प्रकरण, 3/52 नत्यि पुढवीविसिठ्ठी घडो तिज तेण जुज्जइ अण्णो । ज पुरण घडोति पुव्व र असि पुढवी तो प्रणो ॥ भगवई 18/219,220 . एगे भव ? दुवे भव ? શ્રણ મૂચમાવદ્િ ભવ सोमिला | एगे वि श्रह जाव अगभूयभावभविए वि श्रह । ? ? ? अक्खए भव अव्वए भव अवट्ठिए भव ? से केराट्ठे ण भते । एव पुच्चइ. सोमिला | दव्वट्टयाए एगे अह, नारद सरणट्टयाए दुविहे श्रह, पएसठ्ठयाए अक्सर विश्र, श्रव्वए वि श्रह, उवयोगट्टयाए अगभूयभावमविए वि श्रह । प्रमाणनयतत्वालोक, 5/3 સામાન્ય દ્વિપ્રારતિયંજ્ઞામાન્યમૂતાસામાન્ય( 1 ? Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મામાન્ય હૈ ફલ પર્વોપર્વ ની અનુભૂતિ હૈ તિવે ના તુત્ય પરિતિ હું, નો અને અવસ્થામાં મે પુત્વ સ્થાપિત કરતી હૈં કર્ધ્વતા સામાન્ય પૂર્વ ર કર પર્યાવ હોને વાવી તેમાન પરિણીત હૈ નો અતીત, વર્તમાન જીર અનામતતીનો શાનો ને પ્રત્વ સ્થાપિત ત હું ગ્રામ સાહિત્ય કે અન્ત ચાર્વા વળો વિગત વિવેવન મિતતા હૈ કામિલ વ્યાવ્યા છે. પ્રસિદ્ધ સૂત્ર હું અતિ નિણવય વિહીમાં જો ન નનવવન નયન પેલ નહી હોતા ! માન છે પ્રત્યેના વાક્ય ની વ્યાવ્યા નથી સે નાતી થી અનુતિ અનુસાર દિવાદ નામના પૂર્વાન્ય કે વિભિન્ન નવો રે ફી ભર્ડ હાનિ પણ પત્તળું થી ના પૂર્વ તીની રોતી જે કો મુત્ય મા નુપ્ત હો મયા, કુછ મરી રોષ રહે : જે શ્રાવાર પર નિરેન વિવાર બાવાર્ય સમન્ત ને વિમિત્ત નવો ને હાનિ વં ચ નમન્વય ને કી પદ્ધતિ ૧. સૂત્રપાત ઈિ સિદ્ધસેન ને વહુ ચાપિત શિવા વિ સાલ્ય વર્ગન શો દ્રવ્ય નય કે સમાવેગ હોતા હૈ ઔર વઢ વન વ પર્યાય નય કે સમાવેશ હોતા હૈ ફસ પ્રજા સમી નો જે સિદ્ધાન્તો ની વિમિત્ર નવો સે સુના , નમે સાપ જે નમન્વય પ્રગત યિા હૈ ફક્ત વિષય ને sની મહત્વપૂર્ણ તિ ફ્રેનન્મતિ' ! આવા તમન્તમ વર મહત્વપૂ ત્વના હું આપ્તમીનાના પાનને કોને નિત્યાનિત્ય સામાન્ય-વિરોષ, મેરામે, માવાભાવ પ્રાદિ વિરવી વાવો મે સપ્તમી ને વોગના : સમન્વય સ્થાપિત દિયા હૈ વોનો પ્રત્વે અને જાન્ત-વ્યવસ્થા જે બાવા ખૂંત હૈં અનન્ત નિત ઔર સમસ્યા અનેરૂાન્ત શી રષ્ટિ સે હાનિ ન જે નો ઘારા પ્રવાહિત શી વહુ વારોત્તર અતિરણીત હોતી નર્વ ના વી શ્રાવી ગત ને શ્રાવાર્ય અને મર રમક ને શૌર અધિક વિશાત વના વિવા માનાર્થ મિદ્ર જા અને ત્તાવપતારા નામ અન્ય કો સ્વયમ્ પ્રમાણે હૈ! સમન્વય કી હિરા નિરન્તર વિનિત રોતી જ હસતે હુ સમસ્યા થી તન્ન દુર્વા વાનિ ના મેં યહું બરન સ્થિત હોને ન કિ નંન દર્શન ક્યા દૂસરે રે દર્શન પુસ્તિત્વમાત્ર હૈ અપનો કુછ મતિ વિવાર ની હું? પ્રાનિક વિદ્વાન મી ડન માપા મે સોવતે કૌર વોનો દૈનિક જૈન વાનિકો ને દૂસરો જે સિદ્ધાન્તો છે પ્રપના ૨ પ્રપને વન સ વિત્ત નિવા હૈ ફસ કાર છે વિવાર નિર્માણ કે નૈન ની સમવયવૃત્તિ ફ્રી નિમિત્ત હૈ વાવ ઉમાસ્વાતિ જે મામને ભી ચ પ્રાન હપતિ તુક થી જ્યારે વિવિધ નય વિમિત્ર વનો જે મતવાલો વાન હું પ્રપની મતિ ડાન્ન નિ હું પક્ષપાણી વિકલ્પ હૈ? ઇન્દ્રોને ડસ પ્રશ્ન છે સમાવાન કે હા રે નય તો વિખિન્ન વર્ગનો છે મતવાવો સાન ફ્રેન રે ડાન્ન વિણ ના વિકલ્પ હૈ કિન્તુ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 49 ) અનન્તધર્માત્મા જ્ઞોય. પાર્થે જે વિષય મે હોને વારે વિમિત્ર પ્રવ્યવસાય (નિરાય) હૈં 122 ડ્સ વિષય ા વિશવ વિવેત્તન ‘નયવાવ’ મે જિયા નાÜા 123 22 તત્ત્વાર્યમાષ્ય, 1/35 23 [][] [] મેતે તન્ત્રાન્તરીયા વાવિન બ્રાહોસ્વિત્ સ્વતન્ત્રા વ નોવપક્ષપ્રાોિ મતિભેદ્દન વિપ્રષાવિતા તિ 1 પ્રત્રોન્યતે । નૈતે તન્ત્રાન્તરીય નાપિ સ્વતન્ત્રા મતિભૈરેન વિપ્રૠાવિતા । Ī યસ્ય વસ્યાવ્યવસાયાન્તરાજ્યેતાનિ 1 તેવું કારણ સૌયા । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयवाद : अनन्त पर्याय, अनन्त दृष्टिकोण सह पोर व्यवहार नय अस्तित्व द्रव्य का मामान्य गुण है। कोई भी द्रव्य ऐमा नही है जिसका अस्तित्व न हो । इस अस्तित्व गुण के आधार पर द्रव्यमान का अवत फलित होना है ।' उस अत का चरम शिखर है - मत्ता (महासत्ता या परम मामान्य)। इस सत्ता के आधार ५. विश्व की व्याख्या इन दो मे होगी 'विश्व एक है, क्योकि सत्ता सर्वत्र सामान्यरूप से व्याप्त है। 2 यह अहत ष्टि सग्रहनय है । अनेकान्त के व्याख्याकारों ने इस नय के आधार पर वेदान्त, सास्य आदि दर्शनों के विचारों का समन्वय किया है, किन्तु इसका अर्थ यह नही कि उन्होंने यह अद्धत या सामान्य को ष्टि वेदान्त या सास्य दर्शन से ऋण-५ मे प्राप्त की है। उन्होंने मता का निरपेक्ष-अद्वत मानने वाले दर्शनो के एकागी दृष्टिकोण की समालोचना की है । सत्ता तात्विक है और विशेष अतात्विक है । यह संग्रहनय का श्राभान है । सत्ता गुण की अपेक्षा मे विव एक हो सकता है, किन्तु द्रव्य मे मत्ता के अतिरिक्त अन्य गुण भी हैं। विशेष' द्रव्य का एक गुण है। उम मुख के आधार पर जब विश्व की व्याख्या करते है तव द्वैत फलित हो जाता है । मत्ता के दो-रूप हैं- द्रव्य और पर्याय । मामान्य द्रव्य का गुण है । उसके आधार पर होने वाला अध्यवसाय (निर्णय) अत का समर्थन करता है । विशेष भी द्रव्य का गुण है। उसके श्रापार पर होने वाला अध्यवसाय हूँत का समर्थन करता है। इस प्रकार द्र०य मे जितने गुण, धर्म या पर्याय हैं उतने ही उनके अध्यवसाय-निर्णयात्मक प्टिकोण हैं। इसीलिए 1 वृहद् नयचक्र, 246 मवारण सहावाण, अत्यित्त पुण सुपरमसभाप । વિસાવા તવે, પ્રચિત્ત મ4માવાય T 2 प्रमाणनयतत्वालोक, 7116 । વિશ્વમે મદ્રવિશેષાદ્વિતિ | 3 प्रमाणनयतत्वालोक, 7124 यत् मत् तद् द्रव्य पयार्यो वा । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 51 ) नयवाद के आधार पर द्रव्य के किसी भी गुण पर आधारित विचार का समर्थन किया जा सकता है । समन्वय इस नयवाद की देन है, इसलिए यह भ्रम नही होना चाहिए कि नयवाद विभिन्न दर्शनों के विचार-सकलन का प्रतिफलन है । સામનય द्रव्य अनन्त धर्मात्मक है किन्तु सर्वात्मक नही है । जीव द्रव्य मे भी अनन्त धर्म है और जीव द्रव्य मे भी अनन्त धर्म हैं । जीव और प्रजीव मे अत्यन्ताभाव है -- जीव कभी अजीव नही होता और अजीव कभी जीव नही होता । इस अत्यन्ताभाव का हेतु उनके स्वरूप का वैशिष्ट्य हैं । जीव मे चैतन्य नाम का विशिष्ट गुरण है | वह जीव मे नही है । अजीव द्रव्य के पाच प्रकार हैं ( 1 ) धर्मास्तिकाय गति गुरण । (2) अधर्मास्तिकाय स्थिति गुरण । (3) श्राकाशास्तिकाय -- अवकाश गुरण | (4) पुद्गल वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श गुण । (5) काल वर्तना गुरण | गुरणो के आधार पर उनकी भिन्नता अजीव के ये विशिष्ट गुरण जीव से नहीं । इन विशिष्ट गुरणो के श्राधार पर जीव और अजीव का विभाग होता है । सामान्य गुणो के आधार पर जीव और अजीव की एकता स्थापित होती है और विशेष स्थापित होती है । द्रव्य निस्वभाव नही है उसका द्रव्यत्व बाहरी सबवो और देश-काल की अपेक्षाओं से प्रस्थापित नही है । प्रत्येक द्रव्य का अपना मौलिक स्वरूप है, अपना वैशिष्ट्य है । सवध और अपेक्षा से फलित होने वाले गुरण उसे उपलब्ध होते हैं, पर वे उसके स्वरूप के निर्णायक नहीं होते । । द्रव्य मे धर्म होते हैं इसलिए उसे धर्मी कहा जाता है । शोक होते हैं गुण और पर्याय । गुण सहभावी धर्म होते हैं और चैतन्य जीव का सहभावी धर्म है । सुख, दुख, हर्ष और धर्म हैं । धर्म और धर्मी सर्वथा भिन्न नही है और सर्वथा मे ही होते हैं -- इस आधार और प्राधेयभाव के कारण वे एक और धर्म अनेक इस दृष्टिकोण से वे सर्वथा भिन्न नही हैं । उनमे प्रभेद और भेद दोनो समन्वित हैं । इस समन्वय के आधार पर दो श्रध्यवसाय निर्मित होते हैं श्र धर्म दो प्रकार के पर्याय क्रमभावी । ये उसके क्रमभावी भिन्न नही है । धर्म धर्मी सर्वथा भिन्न नही हैं । धर्मी 1 जीव है यह अभेद-प्रधान श्रध्यवसाय है। इसमे 'ज्ञान' धर्म 'जीव' धर्मी से भिन्न विवक्षित नही है । 2 ज्ञानवान् जीव है यह भेद-प्रधान अध्यवसाय है । इसमे 'ज्ञान' धर्म 'जीव' धर्मी से भिन्न विवक्षित है । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 52 ) अभेद-प्रधान दृष्टिकोण मे धर्म गौण और धर्मा मुख्य होता है। भेद-प्रधान दृष्टिकोण मे धर्म मुख्य और धर्मी गौण होता है । द्रव्य मे पर्यायो का चक्र चलता रहता है। वर्तमान क्षण मे होने वाले पर्याय सत् होते हैं । भूत और भावी पर्याय असत् होते हैं। सत् पर्याय वस्तुस्पर्शी होता है और असत् पर्याय ज्ञाननि होता है। जो पर्याय बीत चुका वह वस्तु मे नहीं रहता, पर हमारे ज्ञान मे रहता है । हमारे मस्तिष्क मे किसी वस्तु के निमणि की कल्पना उत्पन्न होती है और हम उसका काल्पनिक चित्र बना लेते है । वस्तु-जगत् मे उसका अस्तित्व नही होता किन्तु हमारे ज्ञान मे वह अवस्थित हो जाता है। सभी भूत और भावी पर्याय हमारे ज्ञान मे ही होते हैं । सकल्प एक सचाई है, इसलिए उसके आधार पर उत्पन्न होने वाले अव्यवसाय हमारे व्यवहार का संचालन करते हैं । नैगमनय सकल्प की सचाई को भी स्वीकार करता है । कार्य-कारण, आचार-आधेय आदि की दृष्टि से होने वाले उपचारो की प्रामाणिकता भी इसी न4 के आधार पर सिद्ध की जाती है । __ 1 कार्य मे कारण का उपचार 'एक वर्ष का पौधा' इसमे पौधे का परिमन कार्य है । एक वर्ष का काल उसका कारण हे । कार्य मे कारण का उपचार कर पौधे को एक वर्ष का कही जाता है। __2 कारण मे कार्य का उपचार हिसा दुख है । हिंसा दु ख का कारण है । कारण मे कार्य का उपचार कर हिंसा को ही दुख कहा जाता है। 3 आधार मे आय का उपचार वास्तव मे जीव ही मोक्ष होता है। वे मुक्त जीव जिस लोकान मे रहते है, उपचार से उसे भी मोक्ष कहा जाता है। 4 श्राधेय में आधार का उपचार मचान पर बैठे लोग चिल्लाते हैं। उपचार से कहा जाता है मचान चिल्लाता है। धर्म और धर्मी तथा अवयव और अवयवी मे सर्वया भेद करने वाला टिकोण प्रस्तुत नय को मान्य नहीं है, इसलिए उसे नगमामास कहा जाता है । वैशेषिक धर्म और धर्मी मे सर्वथा भेद मानते हैं, इसलिए उनका यह विचार नगमाभास के उदाहरण के रूप मे प्रस्तुत किया गया है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 53 ) ऋजुसूत्रनय अनेक द्रव्यो के अाधार पर अभेद और भेद के अध्यवसाय उत्पन्न होते हैं, वैसे ही एक द्रव्य मे भी अभेद और भेद के अध्यवसाय उत्पन्न होते है। द्र०य की अविच्छित्ति के आधार पर अभेद का अध्यवसाय उत्पन्न होता है और कालक्रम से होने वाले पर्यायो के आधार ५. भेद का अध्यवसाय उत्पन्न होता है। अतीत और अनागत पायो की उपेक्षा कर प्रत्युत्पन्न पर्याय को स्वीकृति देने वाला अध्यवसाय ऋजसूत्रनय है। इसे विविध आकारो मे समझा जा सकता है।' ___1 क्रियमाणकृत एक वस्त्र का निर्माण किया जा रहा है। यह दीर्थकालीन किया है, किन्तु उसका जो अश प्रत्युत्पन्न है वह कृत है। यदि प्रत्युत्पन्न अश को कृत न माना जाए तो निमणि के अतिम क्षण मे भी उसे निर्मित नही माना जा सकता। प्रयम क्षण मे वस्त्र की साशत अनिष्पत्ति नहीं है। अत जितनी निष्पत्ति है उमे कृत मानना चाहिए। यह प्रत्युत्पन्न क्षण से उत्पन्न होने वाला अध्यवसाय है। ___2 निर्हेतुक विनाश उत्पन्न होना और नष्ट होना वस्तु का स्वभाव है । उत्पत्ति ही वस्तु के विनाश का हेतु है । वस्तु का स्वभाव ही ऐसा है कि पहले क्षण मे वह उत्पन्न होती है और दूसरे क्षण मे नष्ट हो जाती है । जो वस्तु उत्पत्ति-क्षरण के अनन्तर नष्ट न हो तो फिर वह कभी नष्ट नही हो सकती। घट पत्थर आदि किसी दूसरी वस्तु के योग से फूटता है विनष्ट होता है, यह स्थूल जगत् का नियम है । सूक्ष्म जगत मे यह नियम घटित नही होता ।। 3 निर्हेतुक उत्पाद जो उत्पन्न हो रहा है वह अपनी उत्पत्ति के प्रथम क्षण मे अपने कार्यभूत दूसरे क्षण को उत्पन्न नही करता । जो उत्पन्न हो चुका है वह दूसरे क्षण मे विनष्ट हो जाता है, इसलिए अपने कार्यभूत दूसरे क्षण को उत्पन्न नही करता। पूर्वक्षण की सत्ता उत्तरक्षण की सत्ता को उत्पन्न नहीं करती। अत उत्पाद का कोई हेतु नही है, वह स्वभाव से ही होता है। 4 वर्ण आदि पर्याय न्याश्रित नहीं होते कौश्रा काला नही है । वे दोनो अपने-अपने स्वरूप मे हैं काला रंग काला है और कौश्रा कोसा है। यदि काले रंग को कोश्री माना जाए तो भवरे आदि को भी काले होने के कारण कौया मानना 4 तत्वार्यवात्तिक, 1133, कसायपाहुड, भाग 1, पृ०० 223-243 । कसायपाहुड, भाग 1, पृष्ठ 227 पर उद्धत जातिरेव हि भावाना, निरोघे हेतुरिष्यते ।। यो जातश्च न च वस्तो, नश्येत् पश्चात् स केन व ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 54 ) होगा । यदि काला रंग को५ का स्वरूप हो तो फिर सफेद कोपा नही हो सकता कौए के लाल माम, मफेद हड्डी और पीले पित्त को भी फिर काला मानना होगा। वस्तुत ऐसा नहीं है, अत काला । अपने स्वरूप मे काला है और कोत्रा अपने स्वरू५ मे कोया है । 5 सामानाधिकरण्य का प्रभाव काले रंग और कौए मे सामानाविकरण्यदो वर्मों का एक अधिकरण नही होता, क्योकि विभिन्न शक्तियुक्त पर्याय ही अपना अस्तित्व रखते हैं, द्रव्य कुछ नहीं है । यदि काले रंग की प्रधानता मे कौए को काला कहा जाए तो काले रंग की प्रधानता वाली कवलो को भी कोना कहना होगा। 6 विशेषण-विशेष्यभाव नहीं होता दो भिन्न पर्यायो मे विशेषण-विशेष्य का भाव मानने पर अव्यवस्था उत्पन्न होती है और अभिन्न पर्यायो मे विशेषणविशेष्यभाव होता नही । 7 ग्राह्य-प्राहकभाव नहीं होता जान के द्वारा अपवद्ध अर्थ का ग्रहण नही होता । यदि असव अर्थ का ग्रह माना जाए तो सभी पदार्यो का ग्रहण प्राप्त हो जाएगा । फिर ग्रहण की नियत व्यवस्था नही रहेगी। नान के द्वारा सबद अर्य का प्रहण भी नही होता, क्योकि ग्रहणकाल मे वह रहता ही नहीं। 8 पाच्य-पाचकभाव नहीं होता सवर-अर्थ शब्द का वाच्य नही होता, क्योकि उसके साथ सम्बन्ध ग्रहण किया जाता है तब शब्द-प्रयोगकाल मे वह अतीत हो जाता है । असबद्ध अर्थ को शब्द का वाच्य मानने पर अव्यवस्था होती है । अत असवद्ध अर्थ भी शब्द का पाच्य नहीं होता। अर्थ से शब्द की उत्पत्ति नहीं होती। उसकी उत्पत्ति तालु आदि से होती है, यह प्रत्यक्ष है । शब्द से अर्थ की उत्पत्ति नही होती। द की उत्पत्ति से पहले ही अर्य की उपलब्धि होती है। शब्द और अर्थ मे तादात्म्यसम्बन्ध भी नहीं है । शब्द भिन्न देश में रहता है और अर्य भिन्न देश मे । शब्द श्रीयोन्द्रियग्राह्य है और अर्थ अन्य इन्द्रियो से भी ग्राह्य है । इस अधिकरण और करण (इन्द्रिय) के भेद की स्थिति मे तादात्म्यसम्बन्ध हो नहीं सकता । यदि और अर्थ मे तादात्म्यसम्बन्ध माना जाए तो अग्नि शब्द के उच्चारण से मुह के जल जाने का प्रसा आता है। अर्थ की भाति विकल्प भी शब्द का वाच्य नही है। अर्थ को ८८ का वाच्य मानने पर जिन दोपो का उद्भव होता है, विकल्प को शब्द का वाच्य मानने पर भी उन्ही दोपो की प्रसक्ति होती है । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 55 ) ऋजुसूत्रनय प्रत्युत्पन्न एकक्षणवर्ती पर्याय से उत्पन्न अध्यवसाय है । यह अतीत और अनागत को स्वीकृति नही देता। दो पर्यायो और सम्बन्धो को भी यह मान्य नही करता। प्रस्तुत अध्यवसाय लोक व्यवहार-सम्मत नही है इस प्रश्न को उपस्थित कर यह बताया गया कि यह एक दृष्टिकोण है । लोक व्यवहार का प्रतिनिधित्व करने वाला प्टिकोण नैगमनय है । व्यवहार सब नयो के समूह से सिद्ध होता है । एक न4 के अध्यवसाय से उसकी सिद्धि की अपेक्षा नही होनी चाहिए।' ऋजुसूत्रनय से बौद्धो के क्षणिकवाद की तुलना की जाती है, किन्तु बौद्धष्टि सर्वनयसापेक्ष नही है इसलिए उसे ऋजुसूत्रनय के प्राभास के रूप मे भी उदाहत किया गया है । शवनय शब्द हमारे व्यवहार और शान का एक शक्तिशाली माध्यम है । मनुष्य समाज ने उस (शब्द) मे सकेत आरोपित किए हैं और उनके आधार पर उसमे अर्थबोध कराने की क्षमता निहित है । उसमे स्वाभाविक सामर्थ भी है । वह वक्ता के मुह से निकल कर श्रोता तक पहुचता है । यह अभिव्यक्ति का सामर्थ्य अगुली आदि के सकेतो मे भी है, पर शव्द मे जितना स्पष्ट है उतना अन्य किसी मे नही है, इसी लिए हम अर्यवोध के लिए शब्द का सहारा लेते हैं । शब्दो के आधार पर हमारे अध्यवसाय उत्पन्न होते हैं इसलिए नयशास्त्र मे २००६-रचना या वाक्य-रचना की बहुत सूक्ष्म मीमासा की गई है। लौकिक शब्दशास्त्र मे काल, कारक आदि के भिन्न होने पर भी वाच्य को भिन्न नही माना जाता किन्तु शन्दनय को यह मत स्वीकार्य नही है । उसका अध्यवसाय यह है कि काल श्रादि के द्वारा वाचक का भेद होने पर वाच्यअर्थ भिन्न हो जाता है। कालभेद से अर्थमेव जयपुर था। जयपुर है। जयपुर होगा। 6 तत्वार्थवात्तिक, 133 सर्वसन्यवहारलो५ इति चेत्, न, विषयमात्रप्रदर्शनात्, पूर्वनयवक्तव्यात् सव्यवहार सिद्धिर्भवति । 7 सर्वार्थसिद्धि, 133 सर्वनयसमूहसाध्यो हि लोकसव्यवहार । 8 प्रमाणनयतत्वालोक, 7130, 31 सर्वथा द्रव्यापलापी सदाभास । यथा-तयागतमतम् । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 56 ) अतीतकालीन, वर्तमानकालीन और भविष्यकालीन जयपुर एक नहीं हो। सकते। लिगभेव से अयमेव मामने पहाड है। मामने पहाडी है। पहाड और पहाडी एक नहीं हो सकते । वचनमेद से अर्थभेद मनुष्य जा रहा है। मनुष्य जा रहे हैं। जहा अर्थभेद विवक्षित होता है वही काल आदि के द्वारा २८८ का भेद किया जाता है । इसीलिए यह अव्यवमाय निर्मित होता है कि जहा काल आदि कृत शब्दभेद हो वहा अर्थभेद होना ही चाहिए । સમિલ્ડ્રન समभिरुनय का अध्यवसाय गन्दनय से सूक्ष्म है । इसके अनुसार एक पायअर्थ मे अनेक वाचक-शब्दो का प्रयोग नही किया जा सकता। हम अर्थ के जिम पर्याय का वोध या प्रतिपादन करना चाहते है उसके लिए उसी पर्याय-प्रत्यायक काद का प्रयोग करते हैं । शब्दकोष मे एकार्थक या पर्यायवाची शब्दो को मान्यता प्राप्त है, किन्तु प्रस्तुत नय उन्हे मान्य नही करता। यह 14 इस सिद्धान्त की स्थापना करता है कि वाच्य-अर्य की भिन्नता हुए विना वाचक शब्द की भिन्नता नही हो सकती। ऐसे कोई भी दो शब्द नही हैं जो एक ही वाच्य-अर्थ के लिए प्रयुक्त किए जा सकते हो । दो भिन्न शब्दो का एक पाय-अर्थ के लिए प्रयोग करने पर विरोध प्राप्त होता है । दो दो की शक्ति समान नही होती। यदि उनकी शक्ति समान मानी जाए तो ये फिर दो नही होगे । उन्हें एक ही मानना होगा, इसलिए भिन्न-भिन्न वाचक शब्दो का प्रयोग भिन्न-भिन्न वाच्य-यों के आधार पर ही किया जा सकता है। प्रश्न उपस्थित होता है कि शब्द वस्तु (अर्थ) का धर्म नहीं है, क्योकि वह वस्तु से भिन्न है । शब्द की अर्थक्रिया वस्तु की अर्थक्रिया से भिन्न है । शब्द की उत्पत्ति का कारण वस्तु की उत्पत्ति के कारण से भिन्न है । गद और वस्तु मे उपाय-उपेयभाव सबंध है । शब्द के द्वारा वस्तु का बोध होता है इसलिए शब्द उपाय है और वस्तु उपय है । शब्द और वस्तु का अभेद-सबंध नही है तो फिर शब्द के भेद से वस्तु का भेद कसे माना जा सकता है ? Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 57 ) इसका समाधान प्रमाण और सूर्य आदि प्रकाशी द्रव्यो के आलोक मे खोजा जा सकता है । जैसे--- (1) प्रमाण का प्रमेय (वस्तु) के साथ अभेद सबध नही है फिर भी प्रमाण प्रमेय का निर्णय करता है । प्रमाण और प्रमेय मे भेद होने पर भी यदि ग्राह्य-ग्राहक सबध स्वीकार किया जा सकता है तो शब्द और वस्तु की भिन्नता होने पर उनमे वाम-वाचक सवध क्यो नही स्वीकार किया जा सकता ? (2) सूर्य, प्रदीप आदि प्रकाशी पदार्थ घट आदि प्रकाश्य वस्तुओ से भिन्न होते हुए भी उन्हे प्रकाशित करते हैं । प्रदीप और घट मे भिन्नता होने पर भी यदि प्रकाश्य और प्रकाशक का सबध हो सकता है तो शब्द और वस्तु मे वाच्य-वाचक, सवध क्यो नही हो सकता ? शब्द और वस्तु मे वाचक-वाच्यभाव सवध है इसलिए वाचक-शब्द का भेद होने पर वाच्य-र्य का भेद होना ही चाहिए । शब्द-भेद के आधार पर होने वाले अर्थ-भेद को इन रूपो मे समझा जा सकता है। (क) यह मर्त्य है। (ख) यह पुरुष है। ये दोनो मनुष्य के पर्यायवादी शब्द है, किन्तु भिन्न-भिन्न पर्यायो के वाचक होने के कारण से एकार्थक नहीं हैं । (क) यनुष्य मरधर्मा है इसलिए 'मय' है । यह शब्द मनुष्य की मरण पर्याय का निर्वचन करता है। (ख) मनुष्य शरीर मे रहता है (पुरि शेत-पुरुष ) इसलिए 'पुरुष' है । यह शब्द मनुष्य के शरीर-पर्याय का निर्वचन करता है । (क) यह भागीरथी का प्रवाह है । (ख) यह हैमवती का स्रोत है। इन वाक्यो मे भागीरथी और हमवती--ये दोनो गगा के पर्यायवाची शब्द है, किन्तु भिन्न-भिन्न पर्यायो के वाचक होने के कारण ये एकार्थक नहीं हैं। (क) गगा भगीरथ के द्वारा प्रवाहित की गई, इसलिए वह भागीरथी है । (ख) गगा का उत्स हिमालय पर्वत है, इसलिए वह हं भवती है । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 58 ) एवं भूतनय अतीत और भावी पर्याय का बोध कराने वाले शब्द का प्रयोग समुचित नही है यह इस नय का अध्यवसाय है । अर्यवोध के लिए द का प्रयोग वही होना चाहिए जो वर्तमान पर्याय (या क्रिया) का वाचक हो । अध्यापक विद्यार्थी को पढ़ा रहा है । इस वाक्य मे अध्यापन क्रिया में परिणत व्यक्ति को अध्यापक कहा गया है, ___ इसलिए यह समुचित प्रयोग है। अध्यापक भोजन कर रहा है । इस वाक्य मे अध्यापक शब्द का प्रयोग समुचित नहीं है । वह भोजन की क्रिया मे परिणत है इसलिए उसे अध्यापक नही कहा जा सकता है । नय की मर्यादा द्रव्य सामान्य है और पर्याय विशे५ । ये दो ही मूलभूत प्रमेय हैं। इन्ही के श्रावार ५२ नय के दो मौलिक भेद किए गए हैं (1) द्रव्य या सामान्य वोध का अव्यवसाय द्रव्यायिकनय । (2) पर्याय या विशेष वोध का अध्यवसाय पर्यायायिकनय । नेगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन द्रव्यायिकनय है। ऋजुसूत्र, गन्द, समभिरून और एक भूत-ये चार पर्यायायिकनय हैं। प्रथम चार नय अर्याश्रयी होने के कारण अर्थनय और अतिम तीन शब्दाश्रयी होने के कारण शब्दनय कहलाते हैं । यह नयो के विभाजन की दूसरी मर्यादा है। नेगम नय संकल्पनाही होने के कारण तथा भूत-भावी पर्याय वस्तु मे नही रहते, मान मे रहते हैं अत वह शाननय भी है । नय के दो कार्य हैं अर्थवोव और अर्थ का प्रतिपादन । अर्थवोध की अपेक्षा से सभी नय ज्ञाननय हैं और अर्य-प्रतिपादन की अपेक्षा से सभी नय शब्दनय हैं। हम द्रव्य के पारमायिक स्वरूप या उपादान का निरूपण भी करते है और उसका निरूपण पर निमित्त से होने वाले पर्यायो के द्वारा भी करते हैं। प्रथम निरूपण निश्चयनय है और दूसरा व्यवहारनय । 9 तत्वायरलोकवात्तिक, 1133 सर्व गदनयास्तेन, परार्थप्रतिपादने । સ્વાર્થપ્રારાને માતુરિમે જ્ઞાનનયા સ્થિતા | Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 59 ) अनेकान्त के मूल विभाग दो है प्रमाण और नय । प्रमाण सम्पूर्ण अर्थ का विनिश्चय करता है और नय अर्थ के एक अश का विनिश्चय करता है । स्याद्वाद के द्वारा ज्ञात अखड वस्तु के खड-खड का अध्यवसाय जब हम करते हैं तव न4पद्धति का सहारा लेते है ।10 घडे मे भरे हुए समुद्र के जल को समुद्र भी नही कहा जा सकता और अ-समुद्र भी नहीं कहा जा सकता, किन्तु समुद्राश कहा जा सकता है । वैसे ही प्रमाण से उत्पन्न होने पर भी नय को प्रमाण भी नहीं कहा जा सकता। और अप्रमाण भी नहीं कहा जा सकता। नय अपना-अपना पक्ष प्रस्तुत करता है, दूसरे के पक्ष का खण्डन नही करता, इसीलिए वह नय है । 2 दूसरे के पक्ष का खण्डन करने वाला निरपेक्ष होने के कारण दुर्नय हो जाता है । निरपेक्ष नय विवाद उत्पन्न करता है। सापेक्ष या समुदित नय सवाद उत्पन्न करता है। जसे एक सूत्र मे गु फित रत्न अपनी पृथक्-पृथक सज्ञाओ को मिटाकर रत्नावली की सज्ञा को प्राप्त होते है, वैसे ही पृथक-पृथक् अध्यवसाय वाले नय सापेक्षता के सूत्र मे आबद्ध होकर अनेकान्त की सज्ञा को प्राप्त होते हैं 113 अनेकान्त का मर्मज्ञ नही कहता कि यह नय सत्य है और यह नय मिथ्या है । वह इस वास्तविकता की घोषणा करता है कि निरपेक्ष नय मिथ्या और सापेक्ष नय सत्य है। निक्षेप निक्षेप विशिष्ट २००६-प्रयोग की पद्धति है । एक शब्द अर्थ के अनेक पर्यायो तथा प्रारीपो को अभिव्यक्त करता है । उस अभिव्यक्ति के लिए एक ही शब्द अनेक 10 प्राप्तमीमासा, 106 सधर्मगाव साव्यस्य, साधादविरोधत । स्थावादप्रविभक्तार्यविशेषव्यजको नय ॥ 11 तत्त्वार्यश्लोकवात्तिक, 116 नाय वस्तु न चावस्तु, वस्त्वश कथ्यते यत । नासमुद्र समुद्री वा, समुद्राशी यथोच्यते ॥ 12 सन्मति प्रकरण, 1128 यियवणिज्जसपा स०वराया परवियालणे मोहा । ते उ उ दिसमश्रो विभयह सच्चे व अलिए वा ॥ 13 सन्मति प्रकरण, 1122-25 । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 60 ) विशेषणो से विशेपित होता है । जैसे-नाम मनुप्य, स्थापना मनुप्य, द्रव्य मनुष्य, भाव मनुप्य। निक्षेप की पति आगमयुग मे ही विकसित हो चुकी थी । दर्शनयुग और प्रमाण-यवस्था युग में भी उनका उपयोग सतत होता रहा। अनेकार्थक शब्द के विवक्षित अर्थ का निर्णय-विधि अलका शास्त्र मे वति है, किन्तु एकार्यकाल के विवक्षित अर्य की निर्णय-विधि केवल जैन श्रामो के व्याच्या प्रन्यो मे ही उपलब्ध होती है । यह केवल तर्कशास्त्र के लिए ही उपयोगी नहीं है, किन्तु प्रत्येक शास्त्र के विवक्षित अर्थ को जानने के लिए इसकी विश्लेषण पति बहुत मूल्यपान है। हमार जान और व्यवहार का क्रमिक विकास इस प्रकार होता है मर्वप्रथम हम प्रमाण के द्वारा अखड वस्तु का बोध करने है । तत् पश्चात् नय के द्वारा उसके खड-खड का वोध करते है । पहले जान सलेपणात्मक होता है फिर विश्लेषणात्मक | जव प्रमाण और न4 के द्वारा पदार्थ नात हो जाता है तब उसका नामकरण किया जाता है। जैसे- जल धारण करने तथा विशिष्ट आकार वाले पदार्थ का घर नामकरण किया । घट पदार्य और घ८ शब्द की मम्ववयोजना होने पर पदार्थ घट गद का वाच्य और ५८ भब्द उसका वाचक हो जाता है । यह प्राथमिक प्रक्रिया है, किन्तु कालक्रम से शब्द का अर्थ-विस्तार होता जाता है । जलवारण की क्रिया से शून्य घट की प्रतिकृति या चित्र भी घट नाम से अभिहित होता है। घर की प्रथम अवस्था मृत्-पिंड श्रीर उनको भग्नावस्या कपाल भी घट द से अभिहित होता है । जव एक गन्द का अर्थ विस्तार हो जाता है तब इनका निर्णय आवश्यक हो जाता है कि प्रस्तुत प्रकरण में प्रयुक्त शब्द का विवक्षित अर्य क्या है ? उस विवक्षित अर्य को जानने के लिए ही नाम के साथ विशेषण जोडकर उनमे भेद किया जाता है । यही निक्षेप की पद्धति है। निक्षेप की इयत्ता नही है । जो शब्द जितने अर्थों को प्रकाशित करता है, उतने ही उसके निक्षेप किए जा सकते हैं। कम से कम चार निक्षेप तो प्रत्येक गाद के होते हैं । पदार्य का कोई न कोई नाम होता है और कोई आकार भी होता है। उसके भूत-भावी पर्याय होते हैं और वर्तमान पर्याय भी होता है । अत निक्षेपचतुष्टया स्वत फलित होती है 1 नाम निक्षे५ पदार्थ का नामाश्रित व्यवहार । 2 स्थापना निक्षेप पदार्थ का आकाराश्रित व्यवहार । 14 लघीयस्त्रय, 74, स्वोपज्ञविवृति તાિતાના વાચતામાપન્નાના વાવડુ મેવોપચાર ન્યાસ ! Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 61 ) 3 द्र०यनिक्षेप पदार्थ का भूत और भावी पर्यायाश्रित व्यवहार । 4 भावनिक्षेप पदार्य का वर्तमात पर्यायाश्रित व्यवहार । जिनभद्रगति क्षमाश्रमण ने निक्षेप की व्याख्या भिन्न प्रकार से भी की है। उनके अतुसार पदार्थ की सज्ञा नाम निक्षेप है । उसका आकार स्थापना निक्षेप है । कारणरू५ पदार्थ द्रव्यनिक्षेप है। कार्यरूप पदार्थ भावनिक्षेप है ।।5 सज्ञाकरण, प्राकृतिकरण, कार-व्यवस्था श्रीर कार्य-व्यवस्था- ये व्यवहार जगत् मे अवतरित वस्तु के न्यूनतम पर्याय हैं । इसीलिए जो वस्तु है वह चतुपायात्मक अवश्य ही होती है 116 नय और निक्षेप नय अर्थात्मक, ज्ञानात्मक और शब्दात्मक होते है, वैसे ही निक्षेप भी तीनो प्रकार के होते है ।” नय ज्ञान है और निक्षेप व्यवहार है। इनमे विषय और विषयी का सबध है વિજયી. વિપય नामनिक्षेप शब्दात्मक व्यवहार शब्दनय। स्थापनानिक्षेप ज्ञानात्मक व्यवहार सकल्पनाही नैगमनय । द्रव्यनिक्षेप अर्थात्मक व्यवहार नैगम, सग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र 18 भावनिक्षेप अर्थात्मक व्यवहार शब्दनाय । 15 विशेषावश्यकभाष्य, गाया 60 । अघवा त्यभिधारण गाम ठपणा य जो सदागारो। कारणया से द० कज्जाव तय भावी ॥ _16 विशेषावश्यकमाव्य, गाया 73 सामादि भेदसइत्यबुद्धिपरिणाममावतो सियत । ज पत्थुमत्यि लोए चतुपज्जाय तय सच ॥ 17 वचनप्रवेश, 74 नयानुगतनिक्षेपपाय भदवेदने । विरचच्यार्थवाक्प्रत्ययात्मभेदान् श्रु तापिताम् ॥ ऋजुसूत्र न4 दो प्रकार का होता है शुद्ध और अशुद्ध । शुद्ध ऋजुसूत्र नय प्रत्युत्पन्न पर्याय को ग्रहण करता है। अशुद्ध ऋजुसूत्र नय अनेक क्षणवर्ती व्यजनपर्याय को ग्रहण करता है। अत द्रव्यनिक्षेप इसका विषय बन जाता है । 18 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 62 ) अर्थ के नाम, रूप और विभिन्न पर्यायो को एक ही शब्द अभिहित करता है तब प्रकृत और अ-प्रकृत वाच्य का प्रश्न उपस्थित होता है। सिंह का चित्राकन भी 'सिंह' शब्द के द्वारा अभिहित होता है और जीवित सिंह भी उसी सन्द के द्वारा अभिहित होता है । मिह का मृत शरीर भी मिह कहलाता है पीर सिंह शब्द सुनते ही 'सिंह-अर्थ' का वो हो जाता है। इस प्रकार अयं को विभिन्न अवस्यायो का शब्द मे न्यान होता है। उपन्यास को विशेषण के द्वारा विशिष्ट का प्रस्तुत का वोष का लिया जाता है । ज्ञान और ध्यान एक ही यात्रा के दो पडाव हैं। चल-जान के द्वारा पदार्थ जेय बनता है और अचल-जान के हारा वह ध्येय बनता है। ध्यान की पद्धति मे भी निक्षेप बहत उपयोगी है। कोई व्यक्ति नाम का पालन लेकर ध्यान करता है तो कोई आकृति का पालवन लेकर । कोई भूत भावी पर्यायो का पालवन लेकर ध्यान करता है तो कोई वर्तमान पर्याय का बालबन लेकर ध्यान करता है। इस प्रकार एक ही अर्य की अनेक अवस्याए ध्येय बन जाती हैं 120 प्रतिकृति मूल अर्थ का प्रतिनिधित्व करती है, इसलिए नैगमनय उम जानात्मक अर्थ का मूलद्रव्य के माय अभेद मानता है। नाम वाञ्च-अर्य का वोव करता है इसलिए शब्दनय उस आन्दात्मक अर्थ का मूल अर्थ के माय अभेद मानने है । भूत और भावी पर्याय का अर्थ मे उपचार किया जाता है, इसलिए नंगम, नरह और व्यवहार नय मूल अर्थ के वर्तमान पर्याय के माय उनका अभेद मानते हैं। आदनय अर्थ के वर्तमान पर्याय को वास्तविक मानते हैं । इस प्रकार अर्थ की विभिन्न अवस्यात्री की अभिव्यक्ति के लिए होने वाले स-विशेषण शब्द प्रयोग को नयों की मान्यता प्राप्त होती है । इस प्रक्रिया मे माय, विपर्यय और अनिश्चय की स्थिति को पार कर हम ८८ के माध्यम से वक्ता के विवक्षित अर्य को जान लेते हैं। 19 लघीयस्त्रय, 74, स्वोपजविवृति अप्रस्तुतार्यापाक पात् प्रस्तुतार्यव्याकरणाच निक्षेप. फलवान् । 20 वृहद् नयचर, 270 दल विविहमहाव, जेण महावेश होइ न झेय । तस्स गिमित्त कारs, एक्कपि य द०१ पउभेय ॥ 21, धवला, 11119 સાથે વિપર્યયે શ્રન વ્યવસાયે વા સ્થિત તેમ્પો પસાર્ય નિરવયે क्षिपतीति निक्षेप । अथवा वाह्याविकल्पो निक्षे५ । अप्रकृतनिराकरणद्वारे प्रकृतप्ररूपको वा। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 63 ) 1 एक नेय का अभिप्राय दूसरे नय से भिन्न ही नही किन्तु विरोधी भी है। इस स्थिति मे हम किसे सत्य माने ? एक को सत्य मानने पर दूसरे को असत्य मानना ही होगा। दोनो विरोधी मतो को सत्य माना नही जा सकता। क्या सत्य भी नयो के आधार ५२ वटा हुआ है ? 1 द्रव्य सामान्य-विशेषात्मक होता है। उसका अन्वयी धर्म सामान्य और व्यतिरेकी धर्म विशेष कहलाता है । अन्वयी धर्म व्यतिरेकी धर्म से और व्यतिरेकी ધર્મ પ્રયી ધર્મ કે સર્વથા મિન્ન નહી હોતા ! ફતા દ્રવ્ય અન્વથી બૌર વ્યતિરે धर्मों की स्वाभाविक समन्विति है। अन्वयी धर्म ध्रुव होता है और व्यतिरेकी धर्म उत्पन एव नष्ट होता रहता है । प्रतिक्षण व्यतिकी धर्म उत्पन्न होता है। वह अपने से पूर्ववर्ती व्यतिरेकी धर्म का ध्वम होने पर ही उत्पन्न होता है। इसलिए पूर्ववर्ती व्यतिरेकी धर्म कारण और उत्पन्न होने वाला व्यतिरेकी धर्म कार्य कहलाता है । अन्वयी धर्म भी उसका कारण होता है । सहकारी सामग्री भी कार्य की उत्पत्ति मे निमित्त बनती है । यह वस्तु-स्थिति का निरूपण है। मनुष्य का समूचा चिन्तन या सत्य-बीच उक्त दो धर्मो (सामान्य और विशेष या अभेद और भेद या ध्रौव्य और पर्याय) के श्राधार पर होता है । नगमानय सामान्याश्रित अभिप्राय है, इसलिए वह कारण मे कार्य का सद्भाव स्वीकार करता है अर्थात् वह सत्कार्यवाद को स्वीकृति देता है । अन्षयी धर्म के आधार पर इससे भिन्न चिन्तन नही हो सकता। अन्वयी धर्म जैसे द्रव्य की वास्तविकता है, वैसे ही व्यतिरेकी धर्म भी उसकी वास्तविकता है । ऋजुसूत्रनय विशेषाश्रित अभिप्राय है, इसलिए वह कार्य-कारणभाव को स्वीकार नहीं करता अर्थात् वह असत्कार्यवाद को स्वीकृति देता है । एक नय सत्कार्यवाद को स्वीकृति देता है और दूसरा असत्कार्यवाद को। यह उनकी स्वच्छन्द कल्पना नही है । वस्तु-जगत् मे ऐसा घटित होता है, इसीलिए ये दोनो वस्तु-आश्रित विकल्प है । अन्वयी धर्म भी वस्तु-आश्रित है और व्यतिरेकी धर्म भी वस्तु-आश्रित है । अन्वयी धर्म शावत और व्यजन-पर्याय दीर्घकालीन होता है, इसलिए उनमे कार्य-कारणभाव घटित होता है । अर्थ-पर्याय क्षणवर्ती है, इसलिए उसमे कार्यकारभाव परित नहीं होता। ये दोनो विकल्प दो भिन्न तथ्यो ५९ श्राधृत हैं और दोनो वास्तविकताए हैं । इसीलिए उन दोनो (वास्तविकताओ। को दो नय भिन्नभिन्न रूप मे (जिसमे जैसा घटित है उसी रूप मे) जानते और प्रतिपादित करते हैं । न4 ज्ञानात्मक हैं । उनका काम जय का निर्माण करना नहीं किन्तु ज्ञेय को ययार्थरू५ मे जानना और निरूपित करना है । सत्य नयो के आधार पर विभth नहीं है किन्तु नय वास्तविकता के आधार पर विभक्त है। निरपेक्ष नयवादी दर्शन या तो सामान्याश्रित विकल्प को सत्य मानते हैं या विशेषाश्रित विकल्प को सत्य मानते हैं । इसलिए कुछ दर्शन केवल सत्कार्यवादी हैं और कुछ केवल असत्कार्यवादी । जैन-दर्शन अवयी और व्यतिरेकी धर्मों को सापेक्षता के आधार पर उनसे फलित Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 64 ) होने वाले नयो को भी सापेक्ष मानता है । इसलिए वह सत्कार्यवाद और अमत्कार्यवाद दोनो को सापेक्षसत्य मानता है । इन दोनो मे प्रतीत होने वाले विरोध का वह सापेक्षता के प्राचार ५२ परिहार करता है। अन्वयी धर्म की अपेक्षा से सत्कार्यवाद वास्तविकता है और व्यतिरेकी धर्म की अपेक्षा से असत्कार्यवाद वास्तविकता है। दोनो वास्तविकताओ के दो आधार है और वे दोनो सापेक्ष हैं एक ही द्रव्य के अंग है, अपनी-अपनी मर्यादात्रो मे रहते हैं, इसलिए वे विरोधी नही हैं । નવ વોનો તથ્ય વિરોધી નહી હૈ તવ ન ચાધાર પર હોને વાના વિકલ્પ વિરોધી कसे हो सकता है ? जहा विरोध की श्राराका हो वहा इस अपेक्षा को ध्यान मे लेना आवश्यक है कि यह विचार अन्वयी धर्माश्रित है और यह विचार व्यतिरेकी धर्माश्रित है। इस ष्टिकोण से देखने ५० विरोव की प्रतीति सहज ही निरस्त हो जाती है। 2 सास्य कूटस्यनित्यवादी है और बौद्ध क्षणिकवादी है। इस आधार पर द्र०यायिक और पर्यायायिक नयो की योजना नहीं की गई। किन्तु द्रव्य ध्रीन्य और उत्पाद-व्यय की समन्विति है-प्रोन्य से उत्पाद-व्यय और उत्पाद-०यय से ध्रौव्य स्वतत्ररू५ मे कही भी प्राप्त नही होता, इस आधार पर द्रव्यायिक और पर्यायायिक नयो की योजना हुई है। वे इस तथ्य के वोधक हैं कि द्रव्य का ध्रौव्य अश नित्य है अपरिवर्तनशील है और उसका उत्पाद-व्यय अा अनित्य है परिवर्तनशील है। नयो के आधार पर द्रव्य की नित्यता और अनित्यता की स्थापना नही है किन्तु द्रव्य मे उपलब्ध नित्यत्व और अनित्यत्व धर्मों के आधार पर नयो की योजना की 3 अभेद और भेद द्रव्य के स्वगत धर्म है। द्रव्याथिक नय अभेद का वोचक है और पर्यायाथिक नय भेद का । द्र०य का जो सश-परिणाम-प्रवाहरू५-भेद एक शब्द का वाच्य बनकर व्यवहार्य होता है, वह द्रव्य का व्यजन-पर्याय है। जो भेद अतिम होने के कारण अविभाज्य या अविभाज्य जैसा प्रतीत होता है, वह द्रव्य का अर्थ-पर्याय है । द्रव्य व्यक्ति५ मे एक और अखड होता है। अपने अर्थ-पर्यायो और व्यजन-पर्यायो से खडित होकर वह अनेक या अनन्त हो जाता है। एक पुरुष जन्म मे मृत्यु पर्यन्त 'पुरुष' शब्द के द्वारा ही पाच्य होता है। व्यजन-पर्याय की अपेक्षा से उम पुरुप मे द्रष्टा को सदा पुरुष की ही प्रतीति होती है। यह द्रव्य का अभेद है । उस पुरु५ मे बाल, योवन आदि अनेक भेद होते हैं । वाल्य अवस्था भी विभाज्य होती है, जैसे दूधमु हा बच्चा, तीन वर्ष का वच्चा श्रादि-श्रादि । इस प्रकार व्यजन-पर्याय अभेद और भेद अर्थात् एकता और अनेकता - दोनो को प्रस्थापित करता है । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 65 ) 4 उपनिषदो मे ‘स एष नेति नेति' के द्वारा परमार्य सत्ता को अनिर्वचनीय वतलाया गया है । आचारा॥ सूत्र मे बतलाया गया है कि प्रात्मा अपद है, इसलिए वह किसी पद के द्वारा वाच्य नही है ।22 भगवान बुद्ध ने भी आत्मा, परलोक प्रादि को अव्याकृत कहा है । द्रव्य के स्वभाव का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि यह अवाच्यता उसके एक धर्म से सापेक्ष है। दूसरे धर्म की हाष्ट से वह वाच्य भी है । अर्थ-पाय क्षणवर्ती और सूक्ष्म होने के कारण शब्द का विषय नहीं बनता। श्रत अर्थ-पर्याय की अपेक्षा से द्रव्य अवाच्य है । व्यजन-पर्याय दीर्घकालीन और स्थूल तथा सदृश-परिणाम-प्रवाह का जनक होने के कारण शब्द का विषय बनता है । अत व्यजन-पर्याय की अपेक्षा से द्रव्य वाच्य है। - इस चर्चा से यह समझा जा सकता है कि नयो की योजना का मूल आधार द्रव्य का मौलिक रूप और उसका पयाय-समूह है। ये नय न तो दूसरो के मतो का सकलन हैं और न ऐच्छिक विकल्प । 2 क्या 'पन्च्यापुत्र'- इसके लिए भी कोई नय है ? 'वन्ध्यापुत्र' - यह एक विकल्प है । कोई भी विकल्प अपेक्षाशून्य नहीं होता। असत् की हम कल्पना नही कर सकते। वघ्या असत् नही है और पुत्र भी असत् नही है । प्राकाश भी असत् नही है और कुसुम भी असत् नही है । ये योगज-विकल्प हैं । पुत्र एक सचाई है । उसकी अपेक्षा से 'वन्ध्यापुत्र' एक अभावात्मक विकल्प है। कुसुम एक सचाई है । उसके आधार पर 'श्राकाशकुसुम' एक अभावात्मक विकल्प है । वन्ध्या के पुत्र नही होता किन्तु वास्तव मे यदि पुत्र नही होता तो 'पन्ध्यापुत्र'यह विकल्प भी नही बनता। आकाश के कुसुम नही होता किन्तु कही भी यदि कुसुम नही होता तो 'आकाशकुसुम' यह विकल्प भी नही बनता। इसलिए ये भावसापेक्ष अभावात्मक विकल्प हैं । नैगम नय सकल्पग्राही होने के कारण इन उपचरित सत्यो की भी व्याख्या करता है। 22 आयारो 51139 अपयस्त पय पत्थि। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સ્થાવાવ ઔર સપ્તસઁની ન્યાય ‘સ્યાત્' શબ્દ અને અર્ચ સ્વાાવ ‘સ્યાત્' શ્રૌર વાવ' નો શબ્દો સે નિષ્પન્ન હૈ । ત્તિઽન્ત પ્રતિરૂપ નિપાત હૈં। સજે ‘અનેળાન્ત, વિવિ, વિશ્વાર શ્રાવિ હોતે હૈં । યહા ઙસા ‘અનેાન્ત' શ્રર્ય વિક્ષિત હૈ । યહ ચિત્ (વેશ) ૌર વાષિત્ (ગન) કે અ મે ભી પ્રયુક્ત હોતા હૈ । સમાવના ઔર સગય છે અમે ભી સજા પ્રયોગ મિનતા હૈ । ત્યાવાવ મે ‘સાત્' શબ્દ જા પ્રયોગ સશય કે પ્રર્ચ મે નહી હૈ । યહ અનેાન્ત જે શ્રર્ય મેં હૈ ઔર અનેાન્ત પ્રનન્ત ધર્માત્મા વસ્તુ જા નિશ્વયાત્મ જ્ઞાન હૈ । સોલર ‘સ્યાત્' ગવ મી નિશ્વિત અર્ચ વાતા હૈ । સભાવના ઔર સાપેક્ષતા પસને સાય બુડે દ્રુ હૈં । ‘સ્યાત્' શબ્દ જા પ્રયો। યે વિના શ્બ્દ ધર્મ જી વિધિ શૌર અનિષ્ટ વર્મ વા નિલેષ નહી જિયા ના સર્જાતા, નિયે પાયે જાપ્રતિપાવન રને વાની પ્રત્યે વાજ્ય-પદ્ધતિ છે સાય 'ચાત્' શ । પ્રયોગ જિયા ખાતા હૈ । નહી મા સાક્ષાત્ પ્રયોગ નદ્દો હોતા વટ્ઠાં વદ્ ામ્ય હોતા હૈ । વહ્ વો અ* જો સૂષિત રતા હૈ 1 વિધિશૂન્ય નિષેધ ઔર નિષેધશૂન્ય વિધિ નો દ્દો સતી । 2 અન્વયી ધર્મ (ધ્રૌવ્ય યા સામાન્ય) શ્રૌર વ્યતિરેળી ધર્મ (ઉત્સાવ શ્રૌર વ્યય વિશેષ) – ચે વોનો સાપેક્ષ હૈં । ધ્રૌવ્યવિદ્દીન ઉત્પાવ-વ્યય શ્રીર ઉત્પાવ-વ્યયવિહીન પ્રૌવ્ય હો ભી પાવ નહીં હોતા 1 1 તત્ત્વાર્યર્પાત્તળ, 4/42 સ નિડન્સ (તિડન્ત) પ્રતિરૂપો નિપાત । સઁસ્થાનેશિિવિજ્ઞારાવિયુ વધ્રુવપુ મમવત્યુ હ વિવજ્ઞાવશાત્ અને ન્તાર્યો શ્રૃદ્ઘતે 1 2. સાયપાત્તુડ, માય 1, પૃષ્ઠ 370 મિયાદ્દો ાિવાયત્તાવો નવિ વિપ્રોોસુ પ્રત્યેનુ વવે, તો વિ પત્યે ત્ય વિ વાજે વેસે ત્તિ વેસુ પ્રત્યેનુ વતૃમાણો ઘેત્તન્ત્રો ! 3 તત્ત્વાર્યવાત્તિ, 1/6 સાાવો નિશ્વિતાર્યું વેક્ષિતયાાતવસ્તુવાવિાત્ । 4 ન્યાયજીનુંવત્ત×, ભાવ 2, પૃષ્ઠ 694 સ્વાભરમન્તરે ડાઈનષ્વયોિિનિષેધાનુપત્ત । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 67 ) वस्तु का स्वरूप सर्वात्मक नहीं है, इसलिए स्व-रूप से उसकी विधि और पर-०५ से उसका निषेध प्राप्त होता है। उत्पाद और व्यय का क्रम चलता रहता है । इसलिए उत्पन्न पर्याय की अपेक्षा से पस्तु की विधि और अनुत्पन्न या विगत पर्याय की अपेक्षा से उसका निषेध किया जाता है। पादरी निकोलस के अनुसार इन्द्रिय-प्रत्यक्ष द्वारा होने वाला वस्तु का सवेदन विधानात्मक होता है, निषेधात्मक नहीं होता। अनुमान विध्यात्मक और निषेधात्मक दोनो होता है । स्याद्वाद का सिद्धान्त यह है कि विधि और निषेध वस्तुगत धर्म हैं । हम अग्नि का प्रत्यक्ष करते हैं, इसलिए उसकी विधि का अर्थ होता है कि अमुक देश में अग्नि है। हम धूम के द्वारा अग्नि का अनुमान करते हैं तब साधक-हेतु मिलने पर अमुक दे। मे उसकी विधि और वाधक-हेतु मिलने पर उसका निषेध करते हैं किन्तु स्यद्वाद का विधि-निषेध वस्तु के देशकाल से संबद्ध नही है। वह उसके स्वरूप-निर्धारण से सबद्ध है । अग्नि जब कभी और जहा-कही भी होती है वह अपने स्वरूप से होती है, इसलिए उसकी विधि उसके घटको पर निर्भर है और उसका निषेध उन तत्वो पर निर्भर है जो उसके घटक नही हैं । वस्तु मे विधि और निषेध ये दोनो पर्याय एक साथ होते हैं । विधि-पर्याय होता है इसलिए वह अपने स्वरू५ मे रहती है और निषेध-पर्याय होता है इसलिए उसका स्वरूप दूसरो से श्राकान्त नही होता । यही वस्तु का वस्तुत्व है । इस स्वरूपगत विशेषता की सूचना 'स्यात्' शब्द देता है। स्याद्वाद को विभज्यवाद' और 'भजनावाद'' भी कहा जाता है। भगवान महावीर ने कहा -मुनि विभज्यवाद का प्रयोग करें, तत्व-निरूपण मे जितने विकल्प सभव हो उन सब विकल्पो का प्रयोग कर, एकांगी दृष्टि से तत्व का निरूपण न करे। महावीर स्वयं भी अनेक प्रश्नों के उत्तर विभज्यवाद की पद्धति से देते थे। जयन्ती ने पूछा भते । सोना अच्छा है या जागना अच्छा है। महावीर ने कहा 'जयन्ती | कुछ जीवो का सोना अच्छा है और कुछ जीवो का जागना अच्छा है।' 5 तत्वार्थवात्तिक, 1/6 स्वपरामोपादानापोहनव्यवस्थापाच हि वस्तुनो वस्तुत्वम् । 6 सूयगडो, 1114122 : 7 सायपाहुड, भाग, 1, पृ०० 281 । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 68 ) 'भते । यह कैसे? 'जो जीव अधर्मी हैं उनका मोना अच्छा श्री. जो धर्मी हैं उनका जागना अच्छा है। सोना ही अच्छा है या जागना ही अच्छा है यह एकागी उत्तर होता । महावीर ने इस प्रश्न का उत्तर विभाग करके दिया, एकाङ्गी दृष्टि से नहीं दिया। 'द्रव्य से गुण अभिन्न हैं', यदि इस नियम को स्वीकृति दी जाए तो द्रव्य और गुण दो नहीं रहते, एक हो जाते हैं। फिर 'द्रव्य मे गुण'--इस प्रकार की वाक्य-रचना नहीं की जा सकती। द्रव्य से गुण भिन्न है, यदि इस नियम को स्वीकृति दी जाए तो यह गुण इस द्रव्य का है' इस प्रकार की वाक्य-रचना नहीं की जा सकती। भजनावार के अनुसार अभेद और भेद का एकागी नियम स्वीकृत नहीं होता। उसमे अमद और भेद-दोनो की स्वीकृति होती है । द्रव्य श्री. गुण का अभेद मानने पर उनमे विशेष-विशेष्य-भाव नही हो सकता यह प्राशका मजनावाद मे मापेक्ष प्टिकोण से समाहित हो जाती है । नील उत्पल - इस वाक्य मे 'उत्पल' विशेष्य और 'नील' विशेषण है । नील गुरण उत्पल से अभिन्न है, भिर भी उनमे विशेष्य-विशेषणमाव है । 'दाढीवाला मनुष्य पा रहा है'- इस वाक्य-रचना मे मनुष्य' विशेष्य और 'दाढीवाला' विशेषण है। विशेषण विशेष्य से कथचिट पृथक भूत होता ही है । इसलिए द्रव्य और गुण मे कचि भेदाभेद मानने में विशेष्य-विशेषणभाव संबंध वाधा उपस्थित नहीं करता। विधेय प्रतिषेध्य से विरुद्ध नही है । यह स्यावाद की मर्यादा है। जो द्वन्द्व (युगल) विरोधी प्रतीत होते हैं, उनमे परस्पर अविनाभाव संबंध है इस स्थापना के आधार पर अनेकान्त का सिद्धान्त अनन्त विरोधी युगलो को युगपत् रहने की स्वीकृति देता है । अनेकान्तात्मक अर्य की प्रतिपादक वाक्य-पद्धति स्यादवाद है । प्रस्तुत वाक्य-रचना मे विवि, निषेध आदि अनेक विकल्पो द्वारा वस्तुतत्व का नियमन किया जाता है । इस विषय को सप्तमगी के प्रयोग से समझा जा सकता है स्यात् अस्ति एव घट कयचिद् घट है ही। स्यात् नास्ति एव घ८ कयचिद् घ८ नही ही है । स्यात् अस्ति एव घ८ स्यात् नास्ति एव घट -कचिद् घट है ही और कचिद घट नही ही है। स्यात् अवक्तव्य एव घट - कथचित् घट अवक्तव्य ही है। 8 भगवई, 12153,54 । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 69 ) स्यात् अस्ति एव ५८ स्यात् अवक्तव्य एव ५८ कयचिद् घट है ही और कथचित् घट अवक्तव्य ही हैं। स्यात् नास्ति एव घट स्यात् अवक्तव्य एव घट -कथचिद् ५८ नही ही है और केचित् घट अवक्तव्य ही है। स्यात् अस्ति एव घट स्यात् नास्ति एव घट स्यात् अवक्तव्य एव घट. कपिट ५८ है ही, कथचित घट नही ही है और कयचिद् घट अवक्तव्य ही है। सप्तमगी की वाक्य-रचना मे 'स्यात्' शब्द अनेक धात्मक घट के अस्तित्व धर्म का मुख्य रूप से प्रतिपादन करता है और उसमे विद्यमान शेष धर्मों का गौण कर देता है, उनकी विवशा नही करता। 'एवार' का प्रयोग विवक्षित धर्म के प्रति निश्चयात्मक दृष्टिकोण देता है । सामान्यत कहा जाता है कि स्यावाद मे 'ही' के स्थान से 'भी' का प्रयोग करना चाहिए, किन्तु कुछ गहरे मे जाए तो यह बहुत अर्थवान नही है। 'एक्कार' (ही) का प्रयोग किए बिना विवक्षित धर्म का निश्चय ही नही हो सकता । यदि सापेक्षता न हो तो 'ही' का प्रयोग एकागी ष्टिकोण बना देता है । किन्तु सापेक्षता सूचक स्यात्-शब्द का प्रयोग होने पर 'ही' का प्रयोग एकागी दृष्टिकोण नही देता, केवल विवक्षित धर्म की असदिग्धता जताता है। 'एक्कार' के प्रयोग के तीन प्रयोजन होते हैं 1 अयोग का व्यवच्छेद असबध की निवृत्ति । 2 अन्ययोग का व्यवच्छेद दूसरे के संबंध की निवृत्ति । 3 अत्यन्तायोग का व्यवच्छेद - अत्यन्त असबध की निवृत्ति । 'शव पाण्डुर एव'-शख श्वेत ही है । इस वाक्य मे प्रयोग का व्यवच्छेद है । सद्भाव-विषयक शका की निवृत्ति के लिए विशेषण के साथ 'एक्कार' का प्रयोग किया जाता है । किसी का प्रश्न हो कि शख श्वेत होता है या नही' तव उसके उत्तर मे यह कहा जाता है कि शख श्वेत ही होता है। ___ 'पार्थ एव धनुर्धर.' अजुन ही धनुर्धारी है। इस वाक्य मे अन्ययोग का व्यवच्छेद है। अजुन के धनुर्धारी होने में किसी को सराय नही है किन्तु अर्जुन जसा कोई दूसरा धनुर्धारी है या नही-इस साधारण सद्भाव विषयक शका की निवृत्ति के लिए विशेष्य के साथ 'एक्कार' का प्रयोग किया जाता है । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 70 ) 'नील कमलमस्त्येव' -नील कमल होता ही है । इस वाक्य मे अत्यन्तअयो। का व्यवच्छेद है । पूर्ण सद्भाव की विधि तथा सर्वथा प्रयोग विषयक अर्का की निवृत्ति के लिए क्रिया के साथ 'एक्कार' का प्रयोग किया जाता है । स्यात् अस्ति एवं घर' कथपिद् घट है ही। इस qाक्य मे 'पट' विशेय और 'अस्ति' विशेषण है । 'एक्कार' विशेषण के साथ जुड़कर ५८ के अस्तित्व धर्म का अवधारण करता है। यदि इस वाक्य मे 'स्यात्' का प्रयोग नहीं होता तो 'अस्तित्व- एकान्तवाद' का प्रमग या जाता । वह इष्ट नहीं है । क्योकि घट मे केवल अस्तित्व धर्म नही है उसके अतिरिक्त अन्य धर्म भी उसमे हैं। स्यात्' शब्द का प्रयोग इस आपत्ति को निरस्त कर देता है । 'एक्कार' के द्वारा सीमित अर्थ को वह व्यापक बना देता है। विवक्षित धर्म का अमदिन प्रतिपादन और अविवक्षित अनेक वर्मो का सग्रहण इन दोनो की निष्पत्ति के लिए 'स्यात्कार' और 'एक्कार' का समन्वित प्रयोग किया जाता है। सप्तमगी के प्रथम भंग मे विवि की और दूसरे मे निषेध की कल्पना है। प्रथम भाग मे विवि प्रवान है और दूसरे मे निषेध । शब्द के द्वारा विवक्षित धर्म प्रधान और जो गम्यमान होता है (शब्द द्वारा विवक्षित नही होता) वह गोरस होता है। वस्तु स्वरूपशून्य नहीं है इसलिए विवि की प्रधानता से उसका प्रतिपादन किया जाता है और वह सर्वात्मक नहीं है इसलिए निषेध की प्रधानता ने उसका प्रतिपादन किया जाता है । विधि जैसे वस्तु का धर्म है वैसे ही निषेध भी वस्तु का धर्म है । स्व-द्रव्य की अपेक्षा घट का अस्तित्व है। यह विधि है । पर द्रव्य की अपेक्षा घट का नास्तित्व है । यह निषेव है । इसका अर्थ हुआ कि निषेध अपिक्षिक पर्याय है-दूसरे के निमित्त से होने वाला पर्याय है। किन्तु वस्तुत. ऐसा नही है । निषेध की शक्ति द्रव्य मे निहित है । द्रव्य यदि अस्तित्व वर्मा हो और नास्तित्पवर्मा न हो तो वह अपने द्रव्यत्व को बनाए नही रख सकता । निषेध 'पर' की अपेक्षा से व्यवहृत होता है, इसलिए उसे आपेक्षिक या पर-निमित्तक पर्याय कहते हैं । वह वस्तु के सुरक्षा-कवच का काम करता है, एक के अस्तित्व मे दूसरे को मिश्रित नही होने देता । 'स्व-द्रव्य की अपेक्षा से घट है' और 'पर-द्रव्य की अपेक्षा घट नही है ये दोनो विकल्प इस सचाई को प्रगट करते हैं कि ५८ सापेक्ष है । वह सापेक्ष है इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि जिस क्षण मे उसका अस्तित्व है, उस क्षण मे उसका नास्तित्व नही है । या जिस क्षण मे उसका नास्तित्व है, उस क्षण मे उसका अस्तित्व नहीं है । अस्तित्व और नास्तित्व (विधि और निषेध)-दोनो युगपत् है । किन्तु एक क्षण मे एक साथ दोनो का प्रतिपादन कर सके, ऐसा कोई शब्द नही है । इसलिए युगपत् दोनो धर्मो का बोध कराने के लिए अवक्तव्य भग का प्रयोग होता Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 71 ) है। इसका तात्पर्य यह है कि दोनो धर्म एक साथ हैं, किन्तु उनका कथन नहीं किया जा सकता। अस्ति, नास्ति और अवक्त०५ -ये तीन मूल भाग है ' शेष चार भग भागरचना की गणितीय पद्धति से निष्पन्न होते हैं । आगमयुग मे तीन भगो का प्रयोग अधिक मिलता है । सात भगो का प्रयोग भी कुछ निरूपणो से फलित होता है । गौतम ने पूछ। 'भते । विदेशी स्कूध प्रात्मा हैं, अनात्मा है या प्रवक्तव्य ?' ___ महावीर ने कहा गौतम | विदेशी स्कध स्यात् श्रात्मा है, स्यात् अनात्मा है और स्यात् प्रवक्तव्य है ।' गौतम -- 'भते । यह कसे ?' महावीर गौतम । स्व की अपेक्षा वह आत्मा है, पर की अपेक्षा वह अनात्मा है और दोनो की अपेक्षा वह अवक्तव्य है।' प्रश्न की इस शृखला मे चार भाग और फलित होते है 1 विदेशी स्कंध स्यात् श्रात्मा है, स्यात् आत्मा नही है । 2 द्विप्रदेशी कप स्यात् श्रात्मा है, स्यात् अवक्तव्य है। 3 विदेशी स्कध स्यात् आत्मा नही है, स्यात् अवक्तव्य है। सातवा भाग विदेशी स्कध से फलित होता है त्रिप्रदेशी स्कघ स्यात् श्रात्मा है, स्यात् आत्मा नही है, स्यात् अवक्तव्य है। वस्तु भावाभावात्मक है । उस भावाभाव धर्म के आधार पर उक्त सप्तभगी की रचना हुई है। वह सामान्य-विशेषात्मक, नित्यानित्यात्मक, वाघ्यावाच्यात्मक भी है। इनमें से प्रत्येक युगल की सप्तभगिया बनती है। उदाहरणस्वरूप प्रत्येक के तीन-तीन भग प्रस्तुत हैं स्यात् स एव ५८ · कचित् घट सदृश ही है। स्थात् विसश एव घट कथचित् घट विसदृश ही है। स्यात् प्रवक्तव्य एव घट. कथचित् घट अवक्तव्य ही है । 2 स्यात् नित्य एव घट कथ चित् घट नित्य ही है। २यात् अनित्य एव घट कथचित् ५८ अनित्य ही है। स्थात् प्रवक्तव्य एप घट कयचित् घट अवक्तव्य ही है। 9 भगवई 121219। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 72 ) 3 स्यात् वाच्य एव ५८. - कथ चित् घट वाच्य ही है। स्यात् अवाच्य एव घट कचित् घट अवाच्य ही है। स्यात् अवक्तव्य एव ५८ – कथ चित् ५८ अवक्तव्य ही है । वस्तु मे जितने धर्म होते है उतनी ही सप्तभगिया होती हैं । नित्य अनित्य का और अनित्य नित्य का विरोधी है, फिर एक ही घट नित्य और अनित्य दोनो कसे हो सकता है ? इस विरोव मे सापेक्षता के द्वार। समन्वय स्थापित किया जाता है। ईसा पूर्व छठी-पाचवी शताब्दी मे होने वाले हेरेफ्लाइटस (Heraclhtus ) ने विरोध को समन्वय का जनक माना है। उनके अनुसार 'जव धनुप से वारा पलाया जाता है तो चलाने वाले के दोनो हाय विरोधी दिशाओ मे खिचते हैं, किन्तु लक्ष्य उनका एक ही है । वीणा के तार भिन्न-भिन्न राति से सोपे जाते हैं और तक भी विभिन्न स्वर एक ही राग को उत्पन्न करते हैं । अत विरोव समन्वय का जनक है ।10 वे क्ष-भगवादी थे इसलिए उन्होंने यह प्रतिपादित किया कि प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील होने के कारण सापेक्ष है। क्योकि क्षणिकवस्तु का सापेक्ष होना अनिवार्य है। हम हैं भी और नही भी हैं । हम सत् भी हैं और असत् भी हैं और सत्-असत्-अनिवनीय भी। जितने भी द्वन्द्व हैं सव मापेक्ष हैं । हेरेफ्लाइटस का सापेक्षवाद क्षणिकवाद पर आवृत है। जन दर्शन के सापेक्षवाद का स्वरूप इससे भिन्न है। उनके अनुसार क्षणिकता अक्षणिकता की अपेक्षा रखती है और अक्षणिकता क्षणिकता की अपेक्षा रखती है। उन दोनो का योग ही वस्तु का स्वरूप बनता है। केवल परिवर्तन या क्षणिकता का दृष्टिकोण एकागी है । उसके श्रापार पर सापेक्षता का सिद्धान्त स्थापित नही किया जा सकता। दो विरोवी धर्मों की युगपत् सत्ता मे ही सापेक्षता के सिद्धान्त की स्थापना की जा सकती है । प्राचार्य अमृत चन्द्र ने गोपी के टान्त द्वारा सापेक्षता को समझाया है । जैसे गोपी विलौना करते समय दाए हाय को पीछे ले लाती है और पाए हाथ को आगे लाती है, फिर वाए हाय को पीछे ले जाती है और दाए हाय को आगे लाती है, इस क्रम में उसे नवनीत मिलता है। स्थावाद भी इसी प्रकार प्रधान धर्म को आगे लाता है और गौर। वर्म को पीछे ले जाता है। फिर गौर धर्म को प्रधान बनाकर आग लाता है और प्रधान धर्म को गोरा बनाकर पीछे ले जाता है। विरोधी दिशा मे जाने वाले उन प्रवान और गौण वर्मा मे सापेक्षता होती है ।1 10 पाश्चात्य दर्शन, पृष्ठ 5, 6 । 11 पुरुषार्थसिद्धयुपाय, लोक 225 एकनाकर्षन्ती लिथयन्ती वस्तुतत्पमितरे । अन्तेन जयति जैनी नीतिमन्याननेत्रमिव गोपी ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સાવાવ છે પતિત 1 तार्किक जगत् मे कार्य-कारण का सिद्धान्त सार्वभौम माना जाता है, किन्तु स्यादवाद के अनुसार यह सार्वभौम नियम नही है । कार्य-कारण का नियम स्थूल जगत् में घटित होता है। सूक्ष्म जगत् का अपना स्वतंत्र नियम है । कर्मशास्त्रीय भाषा मे कर्म के विपाक या विलय से जो घटित होता है उसमे कार्यकरण का नियम खोजा जा सकता है । स्थूल परमाणु स्कंधो के परिवर्तन मे भी कार्य-कारण का नियम लागू होता है । स्वाभाविक परिवर्तन (पारिणामिक भाव ) मे कार्य-कारण का नियम लागू नहीं होता । एक काले व का परमाणु निश्चित हो जाता है । प्रश्न हो सकता है कि उसके वर्णकोई कारण नही है । उसके यह उस परमाणु का स्वगत श्रर्थ-पर्याय (एक क्षरणवर्ती पर्याय) कार्य-कारण के नियम से को प्रत्येक क्षण मे बदलना पडता है । वर्तमान क्षण का अस्तित्व दूसरे क्षण मे तभी सुरक्षित रहता है जब वह दूसरे क्षण के अनुरूप अपने आपको ढाल लेता है । अर्थपर्याय को अभिव्यक्ति देने वाला एक प्रसिद्ध श्लोक है अवधि के वाद दूसरे वर्ण का परिवर्तन का कारण क्या है ? व्याख्या नहीं की जा सकती । परिवर्तन के हेतु की नियम है । वस्तुका मुक्त होता है । द्रव्य ( 73 ) 12 द्रव्य अनादि और अनन्त है | उसमे प्रतिक्षरण स्व-पर्याय वैसे ही उत्पन्न और विलीन होते रहते है जैसे जल मे तरगें । 'अनादिनिधने लो, स्वपर्याया प्रतिक्षणम् । उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते, जलकल्लोलवज्जले 11 * कार्य-कारण के विषय मे नयदृष्टि की भीमासा इस प्रकार है * नैगम, संग्रह, व्यवहार और व्यजनपर्यायग्राही ऋजुसूत्र - ये चार नय कार्य-कारण के सिद्धान्त को स्वीकृति देते हैं । शब्द, समभिरूढ चोर एवभूत ये तीन नय कार्य-कारण के सिद्धान्त को मान्य नही करते | इनके अनुसार कार्य अपने स्वरूप से उत्पन्न होता है । उसकी किसी दूसरे से उत्पत्ति मानना संगत नही है । जो अपने स्वरूप से उत्पन्न हो चुका है, उसकी दूसरे से उत्पत्ति मानने का कोई अर्थ नही होता । कारण यदि कार्य से अभिन्न हो तो फिर कार्य और कारण का सवध ही नही होता | इसलिए कार्य अपने स्वाभाविक परिणमन से ही उत्पन्न होता है, किसी दूसरे कारण से नहीं 112 कसायपाहुड, भाग 1, पृष्ठ 319 एद योगम-सगह-ववहार-उजुसुदारण, तत्य कज्जका रणभावसभवादो। तिण्ह सद्दयारण रण केरण वि कसा, तत्य कारणेण विणा कज्जुप्पत्तीए । हवा श्रदइएण भावेरण कसाओ । एद रोगमादिचउण्ह गयारण । तिह सहायारण पारिणामिए भावेण कसा । कारणेण विरणा कज्जुप्पत्तीदी | Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' 74 ) 2 शुद्ध द्रव्यायिक नय पर्याय को स्वीकार नही करते । अत उनके अनुसार काल के भूत, भविष्य और वर्तमान- ये तीन विभाग नही होते, केवल वर्तमान काल ही होता है 1 1 3 तीनो शब्दनय पर्याय को स्वीकृति देते हैं, इसलिए वे काल के तीन विभाग मान्य करते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि द्रव्य का अपरिणामी अश कालવિમાન ળ અપેક્ષા નહી રલતા । અર્ચ-પર્યાય ક્ષરવર્તી હોતા હૈ, ન હસે ની काल-विभाग की अपेक्षा नही होती । व्यजन-पर्याय दीर्घकालीन होता है । अत उसे काल-विभाग की अपेक्षा होती है । 3 द्रव्य मे क्रमवर्ती और अक्रमवर्ती दोनो प्रकार के धर्म पाए जाते हैं । वह वर्तमान मे विवक्षित स्वरूप से है, अन्य काल मे उस स्वरूप से नही होता । उसमे जैसे कालभेद से स्वरूप भेद होता है वैसे ही सावन आदि से भी स्वरूप भेद होता है | इस आधार पर प्रकारान्तर से स्वाद्वाद के सात भंग बनते हैं 14 ( 1 ) ( 11 ) (111) ( 1v ) 14 (V) (VI) (VII ) एक द्रव्य है । वह किसी एक स्वरूप से है । उसकी उत्पत्ति का कोई एक साधन भी है । उसका एक अपादान भी है । उसका किसी से सवव भी है । उसका कोई एक अधिकरण भी है । उसका कोई एक काल भी है । क्रमवर्ती पर्यायों मे वर्तमान पर्याय निश्चित होता है, किन्तु आने वाले पर्याय की सभावना और अनिश्चितता के लिए कोई नियम नही बनाया जा सकता श्रभुक पर्याय के बाद अमुक पर्याय ही होगा, ऐसी निश्चित भविष्यवाणी नहीं की जा सकती । इस संदर्भ मे हाइजनवर्ग के अनिश्चितता के सिद्धान्त (Principle of Uncertainty ) का मूल्यांकन किया जा सकता है | 4 स्याद्वाद के द्वारा दूर-निकट, छोटा वडा आदि आपेक्षिक पर्यायों की ही व्याख्या नही की जाती, किन्तु द्रव्य के स्वाभाविक पर्यायों की भी उससे व्याख्या की जा सकती है । नित्यता और अनित्यता स्वाभाविक पर्याय है । स्थूल जगत् मे 13 कसायपाहुड, भाग 1, पृष्ठ 260 अप्पहारणीकयपरिणामेसु सुद्धदव्वट्ठिएसु गएसु खादीदारणागयवट्टमारणकालविभागो अत्यि । कमायपाहुड, भाग 1, पृष्ठ 309 ( जयववला मे उद्धृत) યન્વિત્ ર્નાવત્ વિવત્ છુતરવત્ વષિત્ વત્ कदाचिच्चेति पर्यायात् स्यादवाद. सप्तभङ्ग मृत् ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 75 ) ન વોનોમે વિરોધ ની પ્રતીતિ હોતી હૈ । સ્વભાવ મે વિરોધ નહી હોતા, નિર્ सापेक्षता के द्वारा इनके विरोध का परिहार किया जाता है । 5 स्यादवाद के सदर्भ मे वैज्ञानिक सापेक्षवाद का अध्ययन बहुत ही महत्वपूर्ण है। ઇ સાહ્યિંળી વિશેષજ્ઞો ને સ્વાાવ ળી સપ્તમની ને સાહ્યબી (statistics) सिद्धान्त के आधाररूप में प्रस्तुत किया है । इस विषय मे प्रो० PC Mahalanobis का लेख વડુત माननीय है । उसका कुछ प्रश इस प्रकार है ssion I should now like to make some bief observations of my own on the connexion between Indian-Jaina views and the foundations of statistical theory I have already pointed out that the fourth category of syadvada, namely, avaktavya or the "indeterminate" is a synthesis of three earlier categories of (1) assertion ("it 18"), (2) negation ("it is not"), and (3) assertion and negation in succeThe fourth category of syadvada, therefore, seems to me to be in essence the Qualitative (but not quantitative) aspect of the modern concept of probability Used in a purely qualiative sense, the fourth category of predication in Jaina logic corresponds precisely to the meaning of probability which covers the possibility of (a) something existing, (b) something not-existing, and (c) sometimes existing and sometimes not-existing The difference between Jaina "avaktavya" and "probability" lies in the fact that the latter (that 18, the concept of probability) has definite quantitative implications namely, the recognition of numerical frequencies of occurrence of (1) "it 18", or (2) "it is not", and hence in the recognition of relative numerical frequencies of the first two categories (of "it is" and "it is not") in a synthetic form It is the explicit recogition of (and emphasis on) the concept of numerical frequency ratios which distinguishes modern statistical theory from the Jaina theory of a syadvada At the same time it is of interst to note that 1500 or 2500 years ago syadvada seems to have given the logical background of statistical theory in a qualitative form Secondly, I should like to draw attention to the Jaina view that "a real is a particular which possesses a generic attribute" This is very close to the concept of an individual in relation to the population to which it belongs The Jaina view in fact denies the possibility of making any predication about a single and unique individual which would be also true in modern statistical theory Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 76 ) The third point to be noted is the emphasis given in Jaina philosophy on the relatedness of things and on the multiform aspects of reals which appear to be similar (again in a purely qualitative sense) to the basic ideas underlying the concepts of association, correlation and concomitant variation in modern statistics The Jaina views of “existence, persistence, and cessation" as the fundamental characteristics of all that is real necessarily leads to a view of reality as something relatively permanent and relatively changing which has a flavour of statistical reasoning "A real changes every moment and at the same time continucs" is a view which is somewhat sympathetic to the underlying idea of stochastic processes Fifthly, a most important feature of Jaina logic is its insistence on the impossibility of absolutely certain predication and its emphasis on non-absolutist and relativist predication In syadvada the qualification "syat" that it, “may be or perhaps" must be attached to every predication without any exception All predication, according to syadvada, thus has a margin of uncertainty which is somewhat similar to the concept of 'uncertain inference" in modern statistical theory The Jaina view, however, is essentially qualitative in this matter (while the great characteristic of modern statistical theory is its insistence of the possibility and significance of determining the margin of uncertainty in a meaningful way) The rejection of absolutely certain predication naturally leads Jaina philosophy continually to emphasize the inadequacy of “pure" or "formal" logic, and hence to stress the need of making inferences on the basis of data supplied by experience I should also like to point out that the Jaina view of causality as "a relation of determination” bases on the observation of “concomitance in agreement and in difference" has dual reference to an internal condition in the developed state of our mind" which would seem to correspond to the state of organized knowledge in any given context and also to an external condition based on "the repeated observation of the sequence of the two events” which is suggestive of a statistical approach Finally, I should draw attention to the realist and pluralist views of Jaina philosophy and the continuing emphasis on the Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 77 ) multiform and infinitely diversified aspects of reality which amounts to the acceptance of an "open" view of the universe with scope for unending change and discovery For reasons explained above, it seems to me that the ancient Indian Jaina philosophy has certain interesting resemblances to the probabilistic and statistical view of reality in monern times 1 1 'स्यात्' का अर्थ अपेक्षा कैसे ? क्या यह विधिलिङ्ग का प्रयोग नही है ? 'अस्तिवीरा वसुन्धरा' मे 'अस्ति' जैसे निपात् है वैसे ही स्यादवाद मे 'स्यात्' शब्द निपात है । यह विधिलिङ्ग का प्रयोग नही है । यह अनेक अर्थी का द्योतक है । उनमे एक अर्थ अपेक्षा भी है । 2 चेतन भी अनन्तवर्मा और अचेतन भी अनन्तधर्मा, फिर दोनो मे अन्तर क्या है ? 'सर्व सर्वात्मक' तो हो ही गया । धर्म दो प्रकार के होते हैं सामान्य और विशेष । विशेष धर्म के द्वारा द्रव्य का स्वतन्त्र अस्तित्व स्थापित होता है । चैतन्य एक विशेष धर्म है । वह चेतन में ही है, अचेतन मे नही है | चैतन्य की अपेक्षा से चेतन और अचेतन मे अत्यन्ताभाव है | इसलिए चेतन अचेतन से और अचेतन चेतन से स्वतन्त्र द्रव्य है । जो द्रव्य है वह अनन्तधर्मा है, फिर भी अपनी असाधारणतया के कारण उसमे 'सर्वं सर्वात्मक' के दोष का प्रसंग नही है । चेतन मे चैतन्य की सत्ता स्वाभाविक है पर-निरपेक्ष हैं । पुद्गल (अचेतन) मे वर्ण, गध, रस और स्पर्श ये स्वाभाविक गुण हैं-पर-निरपेक्ष हैं । चेतन और पुद्गल के सयोग से होने वाले जितने धर्म या व्यजन-पर्याय हैं, वे सब पर सापेक्ष हैं । पर-निरपेक्ष और पर-सापेक्ष ये दोनो पर्याय संयुक्त होकर द्रव्य को अनन्तधर्मा बनाते हैं । 3 नैयायिक आदि भी अवच्छेदक धर्म के द्वारा वस्तु के स्वरूप निश्चित करते हैं और स्यादवाद की प्रक्रिया में भी विशेष धर्म के द्वारा वस्तु के स्वरूप का निश्चय किया जाता है । तो फिर दोनो मे अन्तर क्या है ? दोनो मे निरपेक्षता सिद्ध होती है । स्यादवाद मे सापेक्षता होनी चाहिए । 'स्यात् अस्त्येव जीव. ' - चैतन्य धर्म की चैतन्य का अस्तित्व प्रदर्शित है, वही जीव का उसका स्वरूप है । प्रश्न हो सकता है कि यदि 1 पी सी महलनोविस का पूरा डाइलेक्टिका भाग 8, न प्रकाशित है । लेख 2, अपेक्षा से जीव है । इस वाक्य मे स्वरूप नही है, किन्तु नास्तित्व भी पराश्रित नास्तित्व जीव का स्वरूप The foundations of Statistics 15 जून 1954 स्वीट्जरलेन्ड मे Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 78 ) हो तो जीव मे जो रूप आदि हैं उसे भी जीव का स्वरूप मानना होगा । इसका उत्तर स्पष्ट है | अस्तित्व और नास्तित्व दोनो वस्तु के स्वरूप हैं, यह प्रमारण-सिद्ध रहते हैं । अस्तित्व नातित्व का अविनाभावी 1 वूम और अग्नि एक अधिकरण मे है यह सिद्ध करना ही स्यादवाद का पेक्षावद है । स्याद्वाद द्रव्य के स्वरूप का निर्माण नहीं करता । उसका स्वरूप स्वभाव मे है | वह क्यो है, इसकी कोई व्याक्या नही की जा सकती । जो स्वरूप है उसकी व्याख्या करना स्याद्वाद का काम है | जैन दर्शन ने पाच विशिष्ट गुरण मान्य किए हैं । उनके आवार पर पाच द्रव्यों की स्वीकृति है गुण 1 નાતિ 2 3 4 5 સ્થિતિ अवकाश वर्ण, गर्व, रस, स्पर्श चैतन्य इन पाच गुणो के अतिरिक्त शेष मव गुरण सामान्य है | सामान्य और विशेष गुणों की व्याख्या स्यादवाद की पद्धति से की जाती है | द्रव्य धर्मास्तिकाय अवर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय पुद्गलास्तिकाय નીવાસ્તિાય 4 आपने कहा कि द्रव्य के प्रत्येक धर्म मे सप्तभगी की योजना की जा सकती मकती है | क्या अनेकान्त मे भी सप्तभगी की योजना की जा सकती है ? यदि को जा सकती है तो उसका निपेवात्मक भग एकान्त भी होगा । इस प्रकार अनेकान्त की व्यवस्था सार्वत्रिक नहीं हो सकती । है आचार्य समन्तभद्र ने अनेकान्त की व्याख्या अनेकान्तदृष्टि से की है । प्रखंड વસ્તુ છે વોર્વે શ્રૌર પ્રતિપાવન વે લિપ ના ત્યાાવ પ્રમાણ ધ યોા યિા ગાતા वहा अनेकान्त अपेक्षित है । श्रीर उसके एक वर्म के वोध और प्रतिपादन के लिए नय का उपयोग किया जाता है वहा एकान्त भी अपेक्षित है । अनेकान्तवादी को मान्य हैं | इसलिए अनेकान्त की सप्तभगी हो दोनो अनेकान्त और एकान्त मकती है - 1 स्वात् एकान्त 2 स्यात् अनेकान्त 3 स्यात् उभय 4 स्यात् अवक्तव्य 5 स्यात् एकान्तश्च कचित् एकान्त है | कचित् अनेकान्त है । कर्याचित दोनो है । कचित् श्रवतव्य है । वक्तव्यश्च स्यात् अनेकान्तश्च अवक्तव्यश्य कचित् एकान्त है और अवक्तव्य है । कयचित् अनेकान्त है और वक्तव्य है । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 19 ) 7 સ્યાત પાન્તર અનેકાન્તન્ન અવરૂથર ત્િ કાન્ત હૈ. અનેકાન્ત હૈ ઔર શ્રવજીન્ય હૈ हमारा एकान्त से विरोध नहीं है । उस एकान्त को हम अस्वीकार करते हैं जो मिथ्या है दूसरे नय के मत का खडन करता है । इस आधार पर एकान्त के જે મેદ હોતે હૈં--સમ્યમ્ જાન્ત ર મિથ્યા અન્તિ સભ્ય કાન્ત જય હૈ કૌર મિથ્યા કાન્ત દુર્નય ! અનેકાન્ત તે હમારા ફોર્ડ ઇન્દ્રધન નહી હૈ. હમ કસ અનેકાન્ત को भी स्वीकार नहीं करते जो एक वस्तु मे प्रत्यक्ष आदि प्रमाणो से विरुद्ध अनेक ઘમ વી કલ્પના કરતા હૈ ઉસ ખાવાર પર અનેકાન્ત છે શી વો મેર હોતે હૈં સભ્ય માન્ત શ્રી મિથ્યા અનેકાન્ત સ અનેાન્ત પ્રમાણે હૈ ઔર મિટ્યા અનેકાન્ત પ્રમાણમાસ હૈ5 સખ્યમ્ શાન્ત સાર્વત્રિક હોતા હૈ. શ્રાવાર્ય અત્તર ને નીવ દ્રવ્ય જેમ સમની વી યોનના ફી સ્થા નીવ વત્ નીવ હૈ. સ્થાત્ શનીવ – નિત નીવ નહી હૈ ચિંતન્ય-વ્યાપાર કી દૃષ્ટિ જે ગીવ નેતનાત્મક હૈ પ્રમેયત્વ શ્રાવિ ઘમ વી પેલા જે નવ વેતનાત્મા નહી હૈ ફુલ બાર પ્રમાણે તે અવિરુદ્ધ નિતને ભી ઘર્મ હૈં, રે સવ અનેકાન્ત વિષય વનતે હૈં 16 15 તવાર્યવાત II6 અને શાન્તોડપિ દિવિષ સાન્તો મિથ્યાનેકાન્સ ફેતિ | તત્રી સાન્તો હેતુવિરોષસામવેલ પ્રમાણે કવિતાË વેરાવેરા / tત્માવષોરોન પ્રત્યારોબનિરાશકવાછિિમથ્થાન્ત | પુત્ર પ્રતિપક્ષાનેધર્મસ્વરનિ પણ યુવત્યાકામાખ્યામવિરુદ્ધ સનેહાન્ત ! તવતત્ત્વમાવવસ્તુશૂન્ય પરિપિતાનેાત્મ વન વાવિજ્ઞાન મિથ્યાનેnત્ત તત્ર સોજાન્તી નય હત્યુગ્યતા સનેહાન્ત પ્રમાણમ્ ! નયા"ાવેશાન્તી મવતિ નિરવ પ્રવાત્વાત, પ્રમાણપણાનેકાન્તો મવતિ અનેનિશ્વયાધિરાત્વા છે સમીત મિશ, પૃષ્ઠ 19 પવનય યાજ્ઞીવ ફતિ મૂનામદયમાં તત્રોપયોગાત્મના નીવ , પ્રમેયત્વાઘાત્મનાડનીવ હતિ તવર્ષે | તદુ મટ્ટાનવે પ્રમેયત્નાવિમિÊનિવાત્મા નિહાત્મા ! જ્ઞાનવરનતસ્તક્માન્યેતનાન્ચેતના તિા અનીવત્વ જ પ્રશ્ન તેડનીવવૃત્તિપ્રમેયસ્વાતિ ધર્મવત્વમ, નીવત્વ ર જ્ઞાનવનાદ્રિમજ્વમિતિ દદવ્યમ્ ! 16. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 80 ) 5 क्या सापेक्ष की भी सहभगी हो सकती है ? यदि हो सकती है तो निरपेक्ष सत्य की स्वीकृति सहज ही हो जाती है । वस्तु कयचित् सापेक्ष है और वह कयचित् निरपेक्ष है । ये दोनो भाग मान्य हो सकते हैं । अर्थ-पर्याय या स्वाभाविक पर्याय की दृष्टि से वस्तु निरपेक्ष होती है । अर्थ-पर्याय की दृष्टि से आकाश आकाश है । आपेक्षिक और वैभाविक पर्यायों की दृष्टि से वस्तु सापेक्ष होती है । सापेक्ष दृष्टि से आकाश घटाकाश, पटाकोश आदि अनेक रूपो मे प्राप्त होता है । जितने व्यजन-पर्याय हैं वे सब सापेक्ष ही होते हैं । इस विश्व व्यवस्था मे कोई एक तत्त्व ऐसा नही है जिसे हम निरपेक्ष कह सकें | किन्तु प्रत्येक द्रव्य निरपेक्ष और सापेक्ष की समन्विति है । निरपेक्षता और सापेक्षता को सर्वथा पृथक् नही किया जा सकता | उनका पार्थक्य भी अपेक्षा से ही होता है अर्थ-पर्याय की दृष्टि से निरपेक्षता और व्यजन-पर्याय की दृष्टि से मापेक्षता है । 000 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 6: प्रमाण व्यवस्था श्राचार्य सिद्धसेन ने ईसा की 3-5 शताब्दी मे जन परम्परा मे प्रमाण०यवस्था का सूत्रपात किया । इससे पूर्व प्रमाणशास्त्र का कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ उपलब्ध नही होता । ज्ञान-मीमासा विषयक प्रचुर वाडमय उपलब्ध था। किन्तु दूसरे दर्शनो के संदर्भ मे जिस प्रमाण-व्यवस्था और प्रमाणशास्त्रीय परिभाषा की अपेक्षा थी उसकी पूर्ति का प्रथम प्रयत्न श्राचार्य सिद्धसेन ने किया। प्रमाण-व्यवस्था के विकास का श्रेय आचार्य अकलक को है। उन्हें जन परम्परा मे प्रमाण-व्यवस्था के विकास का पुरस्कत्ता कहा जा सकता है । ईसा की आठवी शताब्दी मे दो महान् प्राचार्य हुए हैं हरिभद्र और अकलक । हरिभद्र का जन्म-स्थल और कर्मक्षेत्र राजस्थान प्रदेश रहा और अकलक का दक्षिणाचल । हरिभद्र ने अनेकान्त और समन्वय के सूत्रधार के रूप मे और गोल रूप मे प्रमाणशास्त्र के क्षेत्र मे भी कार्य किया। अकलक का मुख्य कर्तृत्व प्रमाणशास्त्र के क्षेत्र मे प्रस्फुटित हुआ। उन्होंने लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, प्रमाण-संग्रह आदि ग्रन्थो के माध्यम से प्रमाण-व्यवस्था की सुदृढ आधारशिला रखी । उसके आधार पर वर्तमान शती तक प्रमाण के प्रासाद खडे होते रहे हैं। वौद्ध, नैयायिक, सांख्य और नशेषिक दर्शन अपनी-अपनी परम्परा के अनुसार प्रमाणशास्त्रीय अन्य निर्मित कर चुके थे और तविषयक परिभाषाए निर्मित कर रहे थे। अकलक श्रादि श्राचार्यों ने अपनी परिभाषाओ का निर्माण उनके पश्चात् किया। इसलिए उन्होने अपनी परम्परा के साथ-साथ दूसरी परम्पराश्रो का भी उपयोग किया । फलत वे अधिक परिष्कृत और परिमार्जित परिभाषाए प्रस्तुत कर सके। प्रमाण की परिभाषा ____ वाद न्याय के महान् श्राचार्य धर्मकीति ने प्रमाण की यह परिभाषा की है अविसवादी ज्ञान प्रमाण है । नयाथिको ने प्रमाण की परिभाषा इस प्रकार की-जो 1 प्रमाणवात्तिक, 3 प्रमाणमविसवादि शान अर्थनियास्थिति । અવિવાન શાત્રેડમિત્રાયનિવેદ્રના છે Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 पव्व का हेतु है वह प्रमारण है । वौद्धो ने ज्ञान को प्रमाण माना । नैयायिको ने ज्ञान की सहायक सामग्री को भी प्रमारण के रूप मे स्वीकार किया | जैन तार्किको को यह इष्ट नही था । वे ज्ञान को प्रमाण मानने के पक्ष मे थे । आचार्य सिद्धसेन ने प्रमारण की परिभाषा यह निश्चित की - जो स्व-पर-प्रकाशी और वाववर्जित ज्ञान है वह प्रमाण है। जिसके द्वारा अर्थ का ज्ञान हो वह प्रमाण है अर्थात् प्रमा का साधकतम करण प्रमारण है । इस परिभाषा मे मतद्वंत न होने पर भी सावकतम करण के विषय मे मतैक्य नही था । नैयायिक प्रमा मे साधकतम करण इन्द्रिय और सन्निकर्ष को मानते हैं । जैन और वोद्ध सन्निकर्ष को सावकतम करण नहीं मानते किन्तु ज्ञान को ही सावकतम करण मानते हैं । इस दृष्टि से प्रमारण की परिभाषा मे 'ज्ञान' शब्द का प्रयोग करना श्रावश्यक हुआ| | सगयज्ञान और विपर्ययज्ञान ज्ञान होने पर भी प्रमाण नही होता । इस दृष्टि मे के लक्षण मे 'वाविवजित' विशेषरण का प्रयोग किया गया । यह विशेषरण 'सम्यम्' पद का प्रतिनिधित्व करता है | ज्ञान-मीमासा मे ज्ञान और अज्ञान- ये दो शब्द व्यवहृत हैं । सशय और विपर्यय अज्ञान की कोटि मे हैं, इसलिए 'ज्ञान प्रमारण हैं' इतना ही कहना पर्याप्त होता । उमास्वाति ने ज्ञान को ही प्रमाण कहा है । " ज्ञान सम्यक् और निर्णायक ही होता है । मिय्या और अनिर्णायक जो होता है, वह ज्ञान नही होता, अज्ञान होता है । इस परिभाषा को अन्य-दर्शन सुलभ करने के लिए 'वाषविवर्जितम्' विशेषरण का चुनाव किया गया प्रतीत होता है । प्रमाण ज्ञान अर्थ को प्रकाशित करता है । यदि वह स्व-प्रकाशी न हो तो अर्थ को प्रकाशित नहीं कर सकता । वह स्व-प्रकाशी और अर्थ प्रकाशी दोनो है । इस श्राशय को स्पष्ट करने के लिए 'स्वपराभासि' विशेषरण का प्रयोग किया गया। ( आचार्य अकलक ने उक्त परिभाषा मे कुछ परिष्कार किया और कुछ नया जोडा । प्रमारण के लक्षण मे आए हुए 'वाघविवर्जितम्' के स्थान पर 'अविसवादि' विशेषरण का प्रयोग किया । सशय और विपर्यय अविसवादी ज्ञान नही होते । इसलिए वे श्रप्रमाण हैं । प्रारण वही ज्ञान होता है जो अविसवादी हो । दूसरा विशेषरण है कि वह अज्ञात अर्थ को जानने वाला हो ।' स्मृति के प्रामाण्य का समर्थन 2 ન્યાયવાત્તિ, 3 न्यायावतार, 1 4 5 अर्योपलव्विहेतु प्रमारणम् । प्रमाण स्वपराभासि ज्ञान वावविवर्जितम । तत्त्वार्थ, 1/9,101 भ्रष्टशती, प्रमाणमविसवादि ज्ञानमनधिगतार्यलक्षणत्वात् Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 83 ) करते हु भी प्रस्तुत विशेषरण का प्रयोग सार्थक प्रतीत नही होता । किन्तु पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से विचार करने पर इसकी सार्थकता समझ मे आ जाती है द्रव्यायिक नय की दृष्टि से ज्ञात अर्थ को जानने वाला या धारावाही ज्ञान प्रमारण है । पर्यायायिक नय की दृष्टि से प्रतिक्षरण परिवर्तनशील श्रर्य अज्ञात ही होता है । इसलिए हम ज्ञात को नही जानते किन्तु अज्ञात को ही जानते हैं । 'अनधिगत' विशेषरण उसी अर्थ को व्यक्त करता है । बोद्ध न्याय मे प्रमाण के लक्षण मे ज्ञान का 'अनधिगतार्थाधिगम' विशेषरण मिलता है | आचार्य अकलक ने उक्त विशेषरण के प्रयोग मे बौद्धों का अनुसरण किया है । इस अनुसरण का अभिप्राय है - वोद्ध सम्मत एकान्तिक अभिप्राय को अनेकान्त के द्वारा परिमार्जित कर प्रस्तुत करना । नय दृष्टि के अनुसार 'अनधिगत' का अर्थ सर्वथा अज्ञात नही है | इसलिए बोद्धो द्वारा किया जाने वाला स्मृति के प्रामाण्य नही है | किन्तु सापेक्ष अज्ञात का निरसन उचित माणिक्यनन्दि ( ई० 993-1053) ने 'अनधिगत' के आधार पर 'अपूर्व' शब्द का प्रयोग किया ।" उत्तरवर्ती परम्परा में यह विशेषरण बहुत समाहत नही हुआ । मीमासक ज्ञान को परोक्ष मानते हैं । उनके अनुसार ज्ञान अर्थ को जानता है, स्वयं को नही जानता । वह अनुमेय है । अर्थबोध हो रहा है । यह जिससे हो रहा है, वह ज्ञान है । अर्थबोध के द्वारा ज्ञान अनुमेय है । नैयायिक ज्ञान को ज्ञानान्तवेद्य मानते हैं । उनके अनुसार मनुष्य का ज्ञान ईश्वरीय ज्ञान से प्रकाशित है | स्व-सविदित ज्ञान ईश्वर का ही हो सकता है | साख्य ज्ञान को अचेतन मानते हैं । जैन परम्परा का अभिप्राय इन सबसे भिन्न है । उसके अनुसार ज्ञान स्वयं प्रकाशित होकर ही दूसरे को प्रकाशित कर सकता है । जो स्व-प्रकाशी नही होता, वह पर-प्रकाशी नही हो सकता । 'स्व' का अर्थ ज्ञान और '५२' का अर्थ ज्ञान से भिन पदार्थ है ।" ज्ञान-काल मे ज्ञान अपनी ओर उन्मुख होता है, इसलिए वह स्वप्रकाशी है और बाह्य पदार्थ की ओर उन्मुख होता है, इसलिए वह पर-प्रकाशी भी है । जैसे, 'मैं घट को जानता हू' । जब कोई मनुष्य घट को जानता है, तब उसे केवल घट का ही ज्ञान नही होता, 'मैं' इस कर्तृपद का भी ज्ञान होता है और 'जानता हू' 1- इस क्रियापद का भी ज्ञान होता है ।" ज्ञान नेत्र की भाति स्व-प्रकाशी 6 परीक्षामुख, सूत्र 111 7 स्वापूर्वार्यव्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाणम् । प्रमाणनयतत्त्वालोक, 1/15 ज्ञानादन्योऽपर । 8 प्रमाणमीमासा, सूत्र 2, वृत्ति ‘ધડમાઁ નાનામિ' ત્યાવી ઋતુ મંવત્ જ્ઞપ્તે પ્લવમાસમાનાત્ । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 84 ) नही है किन्तु सूर्य की भाति स्व-पर-प्रकाशी है। जैसे सूर्य का प्रकाश अपनी उपलब्धि के लिए दूसरे प्रकाश की अपेक्षा नहीं सिता में ही ज्ञान अपनी उपलब्धि के लिए मानान्तर की अपेक्षा नहीं रखता। माणिक्यनन्दि, वादिदेवसूरि,10 विद्यानन्द आदि प्राचार्यों ने 'स्वपरामासि' के स्थान ५२ 'स्व५र०यवसायि' का प्रयोग किया, इसलिए 'वाधविजितम्' या 'अविमवादि' जैसे विशेषण अपेक्षित नही रहे । आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाण के लक्षण मे 'स्व' के प्रयोग को भी आवश्यक नहीं माना । उनके मतानुसार प्रमाण का लक्षण 'सम्यग अर्थ निर्णय' ही पर्याप्त है । उन्होंने यह स्थापित किया है कि 'स्व निर्णय' प्रमाण का लक्षण नही हो सकता, क्योकि वह अप्रमाण मे भी हो सकता है । ज्ञान की कोई भी मात्रा ऐसी नहीं है जो स्वविदित न हो । वृद्ध आचार्यों ने प्रमाण के लक्षण मे इसका प्रयोग किया है, वह परोक्षजानवाद आदि की परीक्षा के लिए है, इसलिए वह दोषपूर्ण नही है 113 तन्य आत्मा का स्वभाव है। उसके अन्वयी परिणाम को उपयोग कहा जाता है। उसके दो रूप हैं अनाकार और सकार । निर्विकल्प पेतना अनाकार श्रीर सविकल्प चेतना साकार होती है । शनाकार उपयोग दर्शन और साकार उपयोग जान है ।14 दर्शन की तुलना बौद्ध सम्मत निर्विकल्प जान से की जाती है । बौद्ध निर्विकल्प जान को प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं। जन परम्परा दर्शन को इसलिए प्रमाण नही मानती कि वह व्यवसायी (निर्णायक) नहीं होता। 9 परीक्षामुख, 1/1 10 प्रमाणनयतत्त्वालोक, 1/2 स्वपरव्यवसायि ज्ञान प्रमाणम् । 11 तत्वार्थश्लोकवात्तिक, 1/10/17 सायात्मक ज्ञान प्रमाणम् । 12 प्रमाणमीमासा, सूत्र 2 सम्यग निर्णय प्रमाणम् । __13 प्रमाणमीमासा, सूत्र 3 स्वनिर्णय सन्नप्यलक्षण अप्रमाणेऽपि भावात् । वृत्ति स्वनिर्णयस्तु अप्रमाणेऽपि सशयादौ वर्तते, न हि काचित् જ્ઞાનમાત્રા સાત થી જ સ્વસવિવિતા નામ . તતો જ સ્વનિર્ણયો लक्षणमुक्तोऽस्माभि , वृद्ध स्तु परीक्षार्थमुपक्षिप्त इत्यदोष । 14 दर्शन और शान की व्याख्या का एक प्रकार सैद्धान्तिक है और दूसरा दार्शनिक । सैद्धान्तिकव्याख्या इस प्रकार है दर्शन मे 'यह ५८ है, ५८ नही' इस प्रकार वाह्य पदार्यगत व्यतिरेकप्रत्यय नही होता । 'यह भी ५८ है, यह भी घट है'-इस प्रकार वाह्य पदार्यगत Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (85) प्रामाण्य और अप्रामाण्य । ज्ञान का स्वरूप उभय प्रकाशी है । उसके स्वप्रकाशी स्वरूपाश मे प्रामाण्य और अप्रामाण्य का प्रश्न उपस्थित होता है। 5 जो अर्थ जैसा है उसे उसी रूप मे जानना, प्रमेय के प्रति अविसवादी या अव्यभिचारी होना, प्रामाण्य है । व्यभिचारी या विसवादी होना- जो अर्थ जसा नहीं हैं वैसा जानना - अप्रामाण्य है ।16 प्रामाण्य और अप्रामाण्य ज्ञान मे स्वाभाविक होता है या किसी बाहरी सामग्री से उत्पन्न होता है ?- यह प्रश्न तार्किक परम्परा मे बहुत मीमासित हुआ है । जन परम्परा का मत यह है प्रामाण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति परत होती है और उनकी ज्ञप्ति (निश्चय) अभ्यास (परिचय की) दशा मे स्वत होती है और अनायास (अपरिचय की) दशा मे परत होती है। मैं मानता हूं कि विभज्यवाद का श्राश्रय लिए विन। इस विषय की स्पष्टता नही हो सकती । प्रस्तुत मत प्रमाणशास्त्रीय चर्चा के संदर्भ मे निश्चित हुआ है । आगमिक ज्ञान मीमासा के अन्वय-प्रत्यय भी नहीं होता। इसलिए वह बाह्य पदार्थ को ग्रहण नहीं करता, केवल चैतन्यरूप रहता है। जब बाह्य पदार्थ को जानने के लिए चैतन्य साकार या ज्ञेयाकार होता है तब वह ज्ञान कहलाता है । विषय और विषयी के सन्निपात के अनन्तर पदार्थ का जो निर्विकल्प या सामान्य बोध होता है, वह दर्शन है । और उसके पश्चात् जो सविकल्प वोध होता है, वह ज्ञान है । यह दर्शन और शान की दार्शनिक व्याख्या है। दिखें कसायपाहुड, भाग 1, पृ० 338, धवला, भाग 1, पृष्ठ 149, वृहद् द्रव्यसग्रह टीका, 45 43] अनाकार-साकारगत 'प्राकार' शब्द का अर्थ विकल्प, विशेष और कर्मकारक होता है । बौद्ध तदुत्पत्ति और तदाकारता से प्रतिनियत अर्थ का ज्ञान होना मानते हैं। जनी को यह अभिप्रेत नही है । अमृत ज्ञान मूर्त पदार्थ के आकार का नही हो सकता । प्रस्तुत विषय मे साकार या शेयाकार का प्राशय यही है कि बाह्य विषय को जानने के लिए शाता मे एक विकल्प उत्पन्न होता है । उस आन्तरिक विकल्प को साकार या शेयाकार उपयोग कहा जाता है । 15 प्राप्तमीमासा, श्लोक 83 भावप्रमेयापेक्षाया, प्रमाणाभासनिन । वहि प्रभेयापेक्षाया प्रमाण तन्निभ च ते ॥ प्रमाणनयतत्वालोक, 1118 ज्ञानस्य प्रमेयाव्यभिचारित्व प्रामाण्यम् । तदितरत्वमप्रामाण्यम् । 17 प्रमानयतत्वालोक, 1119 तदुभयमुत्पत्तौ परत एव, सप्तौ तु स्वत परतश्च । 16 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 86 ) »નુસાર ફતે વિખરુ ને ઘર જુછ નયા તિત હોતા હૈ પ્રામાખ્ય કી સ્પતિ પરત હોતી હૈ યહ મત નિરપેક્ષે નહીં હો સકતા | પ્રતીન્દ્રિય પ્રત્યક્ષ કે પ્રામાખ્ય જી કાત્તિ સ્વત હોતી હૈ ઔર ન્દ્રિય-જ્ઞાન છે પ્રમાણે ની ઉત્પત્તિ પરંત હોતી હૈ અતીન્દ્રિય જ્ઞાન સ્વાપેક્ષ હોતા હૈ ફનિઈ કસ કામાખ્ય વી કાત્તિ મે વિસી દૂસરે કાર વી અપેક્ષા નહી હોતા ફન્દ્રિયજ્ઞાન સાપેક્ષ હોતા હૈ ફલતિ પર કામાખ્ય ફી કત્પત્તિ પરત હોતી હૈ. ફન્દ્રિયજ્ઞાન ની કત્પત્તિ મે અપેક્ષિત સામગ્રી વઢિ નિર્દોષ હોતી હૈ તો ઉસ કામાખ્ય હોતા હૈ શૌરય વહ સદ્દોષ હોતી હૈ તો હસી अप्रामाण्य होता है। - ઇન્દ્રિયજ્ઞાન ની વિદ્યુત મીમિત શૌર પ્રસ્પષ્ટ હું ફસનિહ કસ કામાખ્ય ૌર અપ્રામાણ્ય કી મેઢ રેલા વાત શી હૈ. આવાર્ય છત્ત ને ફસ વિષયો મર્મસ્પર્શી પદ્ધતિ મે વિરતિ કિયા હૈ વિશ્વવાદ થી દષ્ટિ સે યહું વડુત ઈં મહત્ત્વપૂર્યા હૈ ! કનકા મત હૈ કિ ઇજા દાબ્દો સે કિસી ભી જ્ઞાન છો પ્રમાણુ યા ત્રમાણ નહી હા ના સતા ! જ્ઞાન જે નિત પ્રારિ રે તત્ત્વ નિર્ણય હોતા હું, વસ પ્રપેક્ષા સે હસી પ્રામાખ્ય હોતા હૈ, ફનતિ પ્રત્યક્ષ શ્રી પ્રત્યક્ષામાને છે પ્રામા ર પ્રકામાખ્ય ની સ્થિતિ સારી હૈ સની મારાય ફસ કાર સ્પષ્ટ રિયા ના સકતા છોરૂં મનુષ્ય સ્વસ્ડ ફન્દ્રિયવાના હોને પરમ વન્દ્રમાં છે ક્ષિતિજ વો છૂતા દુમા તેલતા હૈ થ યથાર્ય ને છે કારણ મા નહી હૈજો મનુષ્ય અસ્વસ્થ ફન્દ્રિય વાના હોને પર તે વાત દેવતા હૈ કસ વિન્દ્ર જ્ઞાન મે સત્યા-જ્ઞાનવરોધ વિસાવી હૈ, રિશી વન્દ્રારા જ્ઞાન પ્રવિણવાવી હૈ ફૂલ સ્થિતિ જે પ્રમાણે શ્રીર પ્રમાણ વી વ્યવસ્થા આધાર ક્યા હો સતા ? દુલ ૪ત્તર ને શ્રાવાર્ય અને ને નિલા હૈ ગંતે નૂ અનેક દ્રવ્યો છે જે પરમ ગર્વ ની પ્રાર્ષતા છે જરા હસી સજ્ઞા વતૂ હોતી હૈ, વૈસે ઉનસ જ્ઞાન મે સવાલ હી પ્રવર્ધતા હોત હૈ કી સર પ્રમાણે હૈ ઔર નિસને વિસવાવ ની પ્રર્પતા હોતી હૈ, ઉસકી સત્તા પ્રકમા હૈ 11 દ્રિય જ્ઞાન કી શક્સિ-સીમા ર વાદ્ય સામગ્રી ની માતા છે જાર ફન્દ્રિય-પ્રત્યક્ષ વી પૂર્ણ વિશ્વસનીયતા નહી હોતી ! ફલ શ્રાવાર પર શ્રાવાર્ય મન ને પ્રામાખ્ય ઔર અપ્રામાર્થે વી સીતા [ સિદ્ધાન્ત નિશ્વિત યિા उसका मूल्याकन वहुत कम ताकिक कर पाए हैं। 18 શ્રદ્ધાતી (પ્રાપ્તમીમાસા, રત્ત 101 વૃત્તિ) : વૃદ્ધ રાન્તાત્ યેનારા તત્ત્વરિ તપેલયા પ્રમાણમ્ | તત પ્રત્યક્ષતામાસયોરપિ બાયો સવી પ્રામાવેતરસ્થિતિહન્નતિન્યા પ્રસિદ્ધાનુપહોંદયદÈરપ વન્દ્રાવિવું તે પ્રત્યાત્યાય મૂતારાવમાસનાતું તયોપહતાલાવેરપિ સહ્યાદ્ધિવિરવાડપિ વષ્નવસ્વ માવતત્ત્વોપના માત ! તસ્ત્રમ્પયા વ્યપરાવ્યવસ્થા ઉપદ્રવ્યાવિત . Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 87 ) प्रमाग का फल जैन दर्शन प्रात्मवादी होने के कारण आत्मा को प्रमाता मानता है । ज्ञान आत्मा का गुण है और वह प्रमा का साधकतम उपकरण है, इसलिए ज्ञान को प्रमाण मानता है। अज्ञान की निवृत्ति ज्ञान से ही होती है, इसलिए ज्ञान को ही प्रमाण का फल (प्रमिति) मानता है। ज्ञान को प्रमाण और फल नहीं माना जा सकता यह प्रतिवादी नैयायिक द्वारा उपस्थापित तक है । यदि ज्ञान ही प्रमाण और वही फल हो तो, या तो ज्ञान होगा या फल । दोनो एक साथ कैसे हो सकते है ? इस समस्या के समाधान के रूप मे उनका परामर्श है कि ज्ञाता और विषय-ज्ञान के मध्य सबध स्थापित करने पाला इन्द्रिन-व्यापार, सन्निकर्ष आदि साधकतम करण प्रमाण है और उससे होने पाला विषय-ज्ञान या प्रमा प्रमाण का फल है । प्रमा का जो साधकतम करण है वह प्रमाण है इस विषय मे जैन और नैयायिक तक परम्परा मे मतभेद नही है। किन्तु मतभेद इस विषय मे है कि नैयायिक इन्द्रिय-व्यापार, सन्निकर्प आदि अचेतन तत्त्वो को प्रमा का साधकतम करण मानता है । जैन दर्शन अचेतन सामग्री को प्रमा का साधकतम कर नही मानता, ज्ञान को ही उसका सापकतम करण मानता है। नैयायिक मान्यता का फलित यह है-जिस कारण से ज्ञान उत्पन्न होता है, वह प्रमाण है। और ज्ञान उसका (प्रमाण का) फल है। जैन मान्यता का फलित इससे भिन्न है। उसके अनुसार पूर्वक्षण का ज्ञान (साधन ज्ञान ) प्रमाण है और उत्तरक्षण का शान (साध्य शान) उसका फल है। प्रमाणरूप स परिणत आत्मा ही फलरूप मे परिरात होता है, इसलिए प्रमाण को अज्ञानात्मक और फल को ज्ञानात्मक नही माना जा सकता । ज्ञयोन्मुख ज्ञान-व्यापार प्रमाण और अज्ञान-निवृत्तिरूप ज्ञान-व्यापार फल होता है । शान का साक्षात् फल अशान-निवृत्ति है । ज्ञान ही अज्ञान-निवृत्ति नहीं है। ज्ञान से अज्ञान-निवृत्ति होती है, इसलिए प्रमाण अज्ञान-निवृत्तिरूप फल का सावन है । प्रमाण पूर्वक्षणवर्ती है और फल उत्तरक्षणावर्ती । इस क्षण-भेद के कारण प्रमाण और फल भिन्न है। प्रमाण शान का साधनात्मक पर्याय है और फल उसका साध्यात्मक पर्याय है । इस पर्याथ-भेद से भी प्रमाण और फल भिन्न हैं। जो प्रमाता ज्ञय को जानता है उसी का अज्ञान निवृत्त होता है । जो ज्ञान रूप में परिणत होता है, वही फलरूप मे परिणत होता है । इस अपेक्षा से प्रमाण और फल अभिन्न भी हैं। अनेकान्तदृष्टि के अनुसार प्रमाण और फल मे सर्वथा भेद इसलिए नही हो - सकता कि वे दोनो एक ही ज्ञानधारा के दो क्षण हैं, और सर्वथा अभेद इसलिए नही हो सकता कि उनमें पौपिर्य या साध्य-साधन-भाव है। प्रमाण का अनन्तर (साक्षात्) फल अशान-निवृत्ति है । उसका परपर फल उपादान, हान और उपेक्षाबुद्धि Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 88 ) है । अजान-निवृत्ति होने पर प्रमाता किसी वस्तु को ग्रहण करता है, किसी को छोडता है और किसी के प्रति उपेक्षाभाव रखता है। केवलनान का परपर फल केवल उपेक्षा है । केवली कृतकृत्य होने के कारण उपादेय श्रीर हेय के प्रपच से मुक्त होता है। प्रमाण का विभाग प्रमाण के दो विभाग हैं प्रत्यक्ष और परोक्ष । इन्द्रियगम्य और अतीन्द्रियगम्य प्रमेय की इस द्विविच परिणति के आधार पर प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो विभाग किए गए हैं। प्रमेय की सिद्धि प्रमाण के अधीन है इस वास्तविकता को उलट कर भी कहा जा सकता है कि प्रमाण का विभागीकरण प्रमेय के अवीन है। अतीन्द्रियगम्य पदार्य प्रत्यक्ष पद्धति के द्वारा जाने जाते हैं और इन्द्रियगम्य पदार्थ परोक्ष पद्धति के द्वारा जाने जाते है। इसीलिए प्रमाण के दो विभाग मान्य हुए है ।19 जिनभद्रगगी क्षमाश्रमरा ने भी ज्ञय-भेद से ज्ञान-भेद का सिद्धान्त स्वीकार किया है ।20 पौद्ध ताकिको ने भी मेय की विविधता के कारण मान की विविधता का प्रतिपादन किया है ।2। चर्मकीति के मतानुसार ज्ञान मे दो मौलिक तत्व देखे जाते हैं अर्य-साक्षात्कार और कल्पना । साक्षात्कार मे ज्ञान उपस्थित विषय का ग्रहण मात्र करता है, अथवा यह कहना चाहिए कि एक विशिष्ट आकृति के माय ज्ञान की स्फूर्ति अयवा प्रतिभास होता है । इसमे ज्ञान कुछ गढता नही, केवल देखता है। दूसरी ओर, शब्द के सहारे एवं उसके द्वारा पिछली स्मृतियो और सस्कारों से કમાવત હોર જ્ઞાન અને સાક્ષાત્કારો ફાટ-છાટ »ર નોડતોડ દ્વારા कल्पनाए प्रस्तुत करता है। इनमें नाम, जाति, द्र०य, गुण और कर्म ये पाच कल्पनाए तो अनादि-पासना से सिद्ध मिलती है और इन्हे चित्त अपने स्थायी साचो की तरह प्रयुक्त करता है । अनुभव की सारी सामग्री इनमे ढाली जाती है और इस 19 न्यायावतार, २लाक 1 . प्रमाण स्वपराभासिज्ञान वाचविजितम् । प्रत्यक्ष च परोक्ष च विवा मेयविनिश्चयात् ॥ 20 विशेषावश्यभाष्य, गाथा 400 त पुरा चतुति रोयमेततो ते॥ ज तदुवयुत्ता । શ્રાવેલ સબ્ધ હવાતિવાન્વિઘ મુતિ | स्वोपज्ञवृत्ति इह ज्ञयभेदात् ज्ञानभेद । 21 प्रमारावात्तिक, 2/1 मान विविध मेय विच्यात् । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 89 ) प्रकार विकल्पात्मक ज्ञान सिद्ध होता है। विकल्प एक प्रकार के मन ढत हैं, किन्तु 'Eve' वस्तुओ पर अन्य व्यावृत्ति के द्वारा प्रारोपित होने के कारण उनमे व्यवहारसमर्थता ५२-परया सिद्ध होती है । विकल्प नियत-विषयक और अनियत-विषयक दोनो होते हैं । नियत-विषयक विकल्प प्रमाण-कोटि मे श्रारूढ होता है । यही अनुमान कहलाता है । इस प्रकार ज्ञान मे प्रतीत द्वैत से ही प्रमाणो का द्वैत सिद्ध होता हैमाक्षात्कारात्मक ज्ञान प्रत्यक्ष है और नियत-विकल्पात्मक अनुमान । सभी नियतविषयक ज्ञान इन दो कोटियो मे समा जाता है ।22 ___वो दो प्रकार के प्रमेय मानते है स्वलक्षण (विशेष) और अन्यापोह (सामान्य) । विशेष प्रत्यक्ष के द्वारा जाना जाता है और सामान्य अनुमान के द्वारा जाना जाता है। जनो और वौद्धो की तर्क-परम्परा मे प्रमेय की विविधता के आधार पर प्रमाण की विविधता मान्य होने पर भी उनमे मौलिक अन्तर है। जन ५९म्परा के अनुसार प्रमेय सामान्य-विशेषात्मक होता है । सामान्य और विशेष दोनो वस्तु धर्म है अत वे वास्तविक हैं । निर्विकल्प ज्ञान (अनाकार उपयोग या दर्शन) अनिश्चयात्मक होने के कारण प्रमाण ही नहीं होता। सविकल्पज्ञान (साकार उपयोग) ही निश्चयात्मक होने के कारण प्रमाण होता है । प्रमेय का साक्षात् ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष और उसका असाक्षात् (अन्य माध्यमो के द्वारा) ग्रहण करने वाली ज्ञान परोक्ष होता है। प्रत्यक्ष के दो प्रकार हैं- इन्द्रियमानस प्रत्यक्ष अथवा साव्यवहारिक प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष अथवा पारमार्थिक प्रत्यक्ष । परोक्ष के पाच प्रकार हैं स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान और प्रागम । स्वसविदित ज्ञान प्रत्यक्ष ही होता है। अर्थ-ग्रहण की दृष्टि मे उसके दो प्रकार होते है प्रत्यक्ष और परोक्ष । जो ज्ञान विशद होता है, ज्ञय अर्थ को साक्षात् जानता है, किसी माध्यम से नही जानता, जिसमे ज्ञाता और ज्ञय के मध्य कोई व्यवधान नहीं होता, वह प्रत्यक्ष है । जो ज्ञान अविशद होता है, बाहरी उपकरणो के माध्यम से ज्ञय अर्थ को जानता है, जिसमे शाता और ज्ञय के मध्य व्यवधान होता है, वह परोक्ष है। प्रत्यक्ष की नियामक-शक्ति वशय है । श्रात्ममात्रापेक्ष होने के कारण विषयबोध मे वह कही भी स्खलित नहीं होती। इसीलिए यह परमार्थिक प्रत्यक्ष है। इन्द्रिय-मनोजन्य मान आत्ममात्रापेक्ष नहीं होता, इसलिए वह अविशद है । फिर भी 22 न्यायविन्दु (गोविन्द्रचन्द्र पाकृत अनुवाद) पृ० 4 । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 90 ) अनुमान आदि की अपेक्षा वह ज्ञेय को स्पष्टतया जानता है। इसलिए वह साव्यवहारिक प्रत्यक्ष है ।23 परोक्ष का नियामक तत्व है अवराध । अनुमान हेतु के माध्यम से इसीलिए होता है कि उसमें गध की क्षमता नही होती। बौद्ध प्रत्यक्ष को निर्विकल्प मानते हैं । नैयायिक प्रत्यक्ष को निर्विकल्प और सविकल्प दोनो मानते है। उनके अनुसार निविकल्प ज्ञान सविकल्प जान को उत्पन्न करता है। जैन ५९परा के अनुसार प्रत्यक्ष निविकल्प और सविकल्प - दोनो प्रकार का होता है। इन्द्रिय-मानस-प्रत्यक्ष के क्रम-विकास की व्यवस्था इस प्रकार है- सर्वप्रथम विषय और विषयी का सन्निपात होता है । चार इन्द्रिया प्राप्यकारी हैं। चक्षु और मन अप्राप्यकारी हैं । इन्द्रिय-चतुष्टय का विषय के साथ सन्निकर्ष तथा चक्षु और मन का वि५य के साथ उचित सामीप्य जो होता है वह सन्निपात है। उसके अनन्तर सामान्यमात्राही दर्शन होता है । तत् पश्चात् अवान्तर सामान्य का वोव होता है । इसका नाम अपग्रह है । प्राप्यकारी इन्द्रिया व्यजनावग्रह (सवध-वोच) के बाद अर्य को ग्रहण करती हैं । चक्षु और मन अर्थ को सीधे ही जान लेते हैं । अवाह के बोध का आकार 'कुछ है' यह होता है । यह अनिदश्य सामान्य का वोध है । इसमे नाम, जाति, द्रव्य, गुण, और क्रिया की कल्पना नही होती 124 यह शब्द है, रूप है इस आकार का वोध नहीं होता। अवग्रह के पश्चात् सशय-जान होता है । इसके बाद ईहा होती है अन्वय-व्यतिरेकपूर्वक विमर्श होता है। उसका आकार है-यह श्रोत्र का विषय बन रहा है, अन्य इन्द्रियो का विषय नहीं बन रहा है, इसलिए शब्द होना चाहिए । 'यह शब्द ही है' - इस आकार का निर्णय ज्ञान अवाय है । निर्णीत विषय सस्कार बन जाता है, वह धारणा है । यह शब्द-पर्याय का ज्ञान है । शब्द के अन्य पर्यायो के जान मे भी अवग्रह आदि का कम चलता है, जैसे - 'शब्द है' - इस आकार का जान अवग्रह है। फिर संशय होता है। यह शब्द मयुरधर्मा है, कशधर्मा नहीं है, इसलिए शख का होना चाहिए, सीग का नही होना चाहिए-इस प्रकार का नान ईहा है। 23 लघीयस्त्रय, 3 प्रत्यक्ष विशद जान, मुख्यसव्यवहारत । परोक्ष शेषविमान , प्रमाणे इति सग्रह ॥ विशेषावश्यकभाष्य, गाय 251 साममणिम मलपणामतिकपणारहित ॥ 24 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 91 ) 'यह शंख का ही शब्द है' इस प्रकार का ज्ञान अपाय है । शव शब्द के बोध की अविच्युति धारणा है । इस प्रकार पर्यायो का उत्तरोत्तर वोध होता है 125 इन्द्रिय-प्रत्यक्ष की भाति मानस-प्रत्यक्ष भी अवग्रहादि चतुष्टयी के क्रम से होता है । इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के क्रम मे अवग्रह तक केवल इन्द्रिया काम करती है और ईहा से उसमे मन का योग हो जाता है । इन्द्रियों का काम वस्तु को जानना और फेवल वर्तमान का वोध करना है । विकल्प उनका काम नही है । वह मन का काम है । प्रश्न हो सकता है कि अवगृहीत विषय को निर्णय की कोटि तक मन ले जाता है. फिर उसे इन्द्रिय-ज्ञान क्यो माना जाए ? इसके समाधान की भाषा यह है कि जिसका आरभ इन्द्रिय-ज्ञान से होता है और जो ज्ञान वस्तु-विषयक होता है, वह 25 मूलपर्याय के बोध को नैश्चयिक अवग्रह-चतुष्टय और उत्तरपर्यायो के वोध को व्यावहारिक अवग्रह-चतुष्टय कहा जाता है। एक परपरा अवग्रह को विशेष' मानने के पक्ष मे रही है। उसके अनुसार दर्शन अविभावित-विशेष होता है, जैसे-कुछ है। अपग्रह विभावित-विशेष होता है, जैसे यह रूप है । यह सफेद है या काला-यह सशय है । यह सफेद होना चाहिए यह ईहा है । यह मफेद ही है, काला नही है-यह अवाय है । अकलक के अनुसार 'यह पुरुप है'--इस प्रकार का वोध अवग्रह है । भाषा, अवस्था आदि विशेषो की श्राकाक्षा ईहा है । विशेष के आधार पर निर्णय होना अवाय है, जैसे यह पुरुष दक्षिण प्रदेशवासी है, यह पुरुष युवा है । (तत्वार्यवातिक 1135) जिनभद्र ने इस अवग्रह, ईहा श्रीर श्रावाय की धारा को उपचरित माना है । यह उत्तरोत्तर उद्घाटित होने वाले विशेष) की अपेक्षा सामान्य है, इसलिए इसमें सामान्य का उपचार किया जा सकता है। जव तक अन्तिम विशेष या भेद प्राप्त न हो तब तक सामान्य-विशेष का उपचार किया जा सकता है। (विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 281-283, वृत्ति इह यद् वस्तुसामान्यमात्रग्रहणमनि६ २यमयमविग्रहो नैश्चयिक समयमात्रकाल प्रथम । तत 'किमिदम्' इत्यन्त रमीहितमस्तुविशेषस्य शब्दविशेषे विज्ञानरूपी योऽवाय स एव हि पुन विनीमीहामवाय चापेक्ष्याऽवग्रह इत्युपचरित सूत्रे, यस्मादेष्यविशेषापेक्षया सामान्यमालम्बते । सामान्यार्थावग्रहण पावग्रह इति । ततो भूय किमय શાહ શર્ડોિ વેત્યાદ્રિ વિશેષાઃ ક્ષાનન્ત રમવાય શાહ શા વેત્યાદ્રિ ! स एव भूयस्तविशेपाकाक्षातो भाविनीमाहामवायमेष्यविशेषाश्चापेक्ष्य सामान्यालम्बनादवग्रह इत्युपचर्यते । इत्येव सर्वत्र सामान्यविशेषापेक्षया यावदन्त्यो भेदस्तदाकाक्षाविनिवृत्तिवति ।) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 92 ) इन्द्रिय-प्रत्यक्ष है । इस क्रम मे मन उसका सहयोगी है, किन्तु उस जान धारा का प्रवर्तक नही है । मानस-प्रत्यक्ष मे जान की धारा का प्रारभ मन में ही होता है । मन इन्द्रियगृहीत विषयो को ग्रहण कर उनका सकलन, मीमामा, वितर्क करता है तथा नये-नये नियमो और प्रत्ययो का निर्माण करता है । ये प्रवृत्तिया इन्द्रियार नही होती । यह मनका अपना कार्यक्षेत्र है । नदी के शिकार ने बताया है कि स्वप्न अवस्था मे मन शब्द आदि विषयो को ग्रहण करता है । वह ग्रहण अवह आदि के क्रम से होता है । जागृत अवस्था मे इन्द्रिय-व्यापार के अभाव में केवल मन का मनन होता है । वह भी अवग्रह आदि के क्रम मे होता है ।25 हम जब कभी इन्द्रिय-मानस-प्रत्यक्ष की स्थिति में होते हैं तब इसी अवग्रह आदि के क्रम से गुजरते हैं । यह क्रम इतना प्राशुमचारी है कि यह पता ही नही चलता कि ऐसा होता है । अपरिचित विषय के वोध मे इस क्रम का अनुभव किया जा सकता है। किन्तु परिचित विषय के बोध मे इसका महज अनुभव नहीं होता, यद्यपि यह कम अवश्य होता है। दर्शन व्यवसायी नहीं होता, इसलिए तर्क-परम्परा मे उसे प्रमाण की कोटि मे नही माना गया। फिर अवग्रह और ईहा को प्रमाण कसे माना जा सकता है ? यह प्रश्न सहज ही उपस्थित होता है। इस प्रश्न को दो कोणो से उत्तरित किया जा सकता है। पहला कारण यह है अपग्रह, ईही और अवाय-ये एक ही मानधारा के तीन विराम हैं, इसलिए अवाय के प्रमाण होने का अर्थ है कि अवह और ईही भी प्रमाण हैं। दूसरा कोण यह है-अवग्रह मे विषय का बोध होता है। हमे અન્વય માર વ્યતિરેક ઘમ l વિમર્શ હોતા હૈ ઔર પ્રવાય એ ની પુષ્ટિ હોતી है। इस प्रकार प्रत्येक विराम मे नये-नये पर्याय का उद्घाटन होता है। और यदि इसमें कोई विसवादिता न हो तो इस समय ज्ञानधारा को प्रमाण मानने मे कोई विप्रतिपत्ति नहीं है। वौद्धो ने प्रत्यक्ष के चार भेद माने हैं 1 इन्द्रिय-ज्ञान 2 मानस-प्रत्यक्ष 3 स्व-सवेदन 4 योगि-प्रत्यक्ष । (क) नदी, सूत्र 56, पूणि एवं मणमो वि सुविणे सहादिविमएसु अवगहादयो रोया, अण्णात्य वा इदियवावाअभाव मणमासति । (ख) विशेषावश्यक भाष्य, गाया 293 । 26 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 93 ) जन परम्परा मे स्व-सवेदन-प्रत्यक्ष की स्वतंत्र गणना नही है । मामासको का मत है कि जान केवल ज्ञेय-अयं को प्रकाशित करता है। उसकी अपनी सत्ता का अर्थवाव से अनुमान किया जाता है। नैयायिक मानते हैं कि ज्ञान का ज्ञान जानान्तर (अनुव्यवसाय) से होता है। यह घट है' ऐसा प्रत्यक्ष ज्ञान व्यवसाय है । इस प्रत्यक्ष ज्ञान का मानस-प्रत्यक्ष अनुव्यवसाय कहलाता है। जैसे गै देख रहा हू कि यह घट है। वौद्ध दर्शन की एक शाखा माध्यमिक भी ज्ञान को स्वप्रकाशी नही मानती। इन मतो को ध्यान मे रखकर धर्मकात्ति ने स्व-सवेदन-प्रत्यक्ष को स्वतंत्र स्थान दिया। जन परम्परा मे मान का स्वरूप स्व-पर-प्रकाशक है, इसलिए स्वसवेदन जानमात्र मे होता है। वह प्रत्यक्ष का विशिष्ट प्रकार नहीं बन सकता। स्व-सवेदन चेतना का अनाकार उपयोग या दर्शन है। यद्यपि दार्शनिक युग मे दर्शन का अर्थ सामान्यग्राही उपयोग और ज्ञान का अर्थ विशेपनाही उपयोग किया गया है, किन्तु यह मीमासनीय नही है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। द्रव्य सामान्य-विशेषात्मक है, तब केवल विशेष को जानने वाला जान (साका. या सविकल्प उपयोग) प्रमाण कसे हो सकता है और केवल सामान्य को जानने वाला दर्शन (अनाकार या निविकल्प उपयो1) अप्रमाण कसे हो सकता है ? उक्त व्याख्या मे केवलनान और केवलदर्शन का अर्थ भी घटित नहीं होता। उन्हे युगपत् माना जाए तो प्रस्तुत व्याख्या के अनुमार वे दोनो युक्त होकर प्रमाण बनते हैं, अकेला कोई प्रमाण नहीं होता । यदि उन्हे कम माना जाए तो केवलजान विशेषग्राही होने के कारण सपूर्ण अर्यग्राही नही होता, इसलिए वह प्रमाण नही हो सकता। दर्शन (अनाकार उपयोग) और ज्ञान (साकार उपयोग) को यह व्याख्या मानी जाए कि स्व-सवेदन या आन्तरिक वोध दर्शन है और वाह्य अर्य का बोध ज्ञान है और वे सदा युगपत् होते हैं तो समूची समस्या का समाधान हो जाता है । दर्शन प्रमाण नहीं है। इसे इस प्रकार व्याख्यायित किया जा सकता है कि स्व-मवेदन मे वाह्य पदार्थ को जानने का कोई प्रयल या श्राकार नहीं होता। वह केवल स्व-प्रत्यय ही होता है, इसलिए अनाकार है । और अनाकार है इसलिए उसे वाह्य पदार्थ-बोध की अपेक्षा से प्रमाण नहीं माना जा सकता। शान मे वाह्य पदार्थ को जानने का प्रयत्न या श्राकार नहीं होता। वह पर-प्रत्यय होता है, इसलिए साकार है और साकार है इसलिए वह वाह्य पदार्थ-बोध की अपेक्षा से प्रमाण है । इस आधार पर केवलज्ञान के प्रामाण्य में भी कोई श्राप नही आती। स्वरूप की अपेक्षा ज्ञान प्रत्यक्ष ही है। प्रत्यक्ष और परोक्ष का प्रमाणशास्त्रीय विभाग केवल बाह्य पदार्य-बोध की अपेक्षा से है। प्रमाण और अप्रमाण का विभाग भी केवल बाह्य पदार्य-बोध की अपेक्षा मे है । इन अभ्युपगमो की सगति भी दर्शन को स्व-प्रत्यय और ज्ञान को परप्रत्यय मानने पर ही होती है। दर्शन का अर्थ भी प्रत्यक्ष या साक्षात् है । स्व-प्रत्यय साक्षात् ही होता है, इसलिए दर्शन शब्द उस अर्थ को यथार्थ अभिव्यक्ति देता है। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 94 ) અતીન્દ્રિય-પ્રત્યક્ષ (નો-ફન્દ્રિય-પ્રત્યક્ષ) જે તીન પ્રજાર હૈં પ્રર્વે, મન પર્યવ ઔર વન । સ વિષય મેં પ્રમાણમીનાસા ળા વચ્ચે વિપય જ્ઞાનમીમાતા કે મિશ નહી હૈ । શ્રૃવધિજ્ઞાન મવહેતુ ભી હોતા હૈ, નિમ્ શ્રીન્દ્રિયજ્ઞાન જો પૂર્વાંત યોવિજ્ઞાન નહી . હા ના સર્જાતા । ન્તુ મવ-પ્રત્યય પ્રર્વાવનાનો છોડ ર્ શેષ અધિજ્ઞાન થ્રોર મન પર્યવજ્ઞાન ૌ વૌદ્ધો છે યોનિ-પ્રત્યક્ષ સૌ નવ્ય તૈયાચો યોાન-પ્રત્યક્ષ કે तुलना की जा सकती है । જૈવલજ્ઞાન સવસે શ્રૃષિ સીટી પર સા ાયા હૈં । સ સમર્ચન ઔર વિરોવ મે વિશાલ પ્રત્ય-રાશિ પન્નવ્યે હોતી હૈ । લેવલજ્ઞાન ળા શ્ચર્ય હૈ સર્વસતા । નો સર્વન હોતા હૈ વદ્ ધર્મજ્ઞ હોતા હૈં। હૈ । મીમાસ માનતે હૈં મનુષ્ય ધર્મજ્ઞ નહી દ્દો સત્ત્તા 1 સસે ટી વિપરીત મત વૌઢો વધ હૈ । વિડ ના ા ત હૈ નિ મનુષ્ય ધર્મ હો સત્તા હૈ, સર્વગ નહી દો સતા ધર્મજ્ઞતા કે લિપ વે-પ્રામાણ્ય ની આવશ્યતા નદી હૈ । જૈનદૃષ્ટિ ન વોનો સે ખિન્ન હૈં । -સજે અનુસાર મનુષ્ય સર્વજ્ઞ હો સર્જાતા હૈ ઔર નો સર્વગ હોતા હૈ, વહ્ ધર્માં હોતા દ્દી હૈ । ધર્મરતા જ અન્તિમ કામા સર્વજ્ઞતા હી હૈ । कुन्दकुन्द શ્રાવાયે ને સર્વજ્ઞતા ની વ્યાહ્યા નયો છે . આધાર પર જી હૈ । હના મત હૈ જિ વલી મવળો નાનતા હૈ-યદ્ વ્યવહારનવા બ્દિોયા હૈ । નિશ્વયનય ળી દષ્ટિ સે વલી શ્રપનો ભ્રાત્મા જો હી નાનતા હૈ । ડસા નિત હૈ જિ વ્યવહારનય સે જેવી સર્વન હૈં શ્રીર નિશ્વયનય સે પ્રાત્મા 18 સમી શ્રાત્મવાવી વર્ગનો ને અતીન્દ્રિયજ્ઞાના સાક્ષાત્કારો સ્વીòતિ દ્દી હૈ । મતમેવ ા નો વિન્તુ મૈં વહ્‘સર્વ' શ હૈ । સ ‘સર્વ' શબ્દ થી વ્યાવા ની સવળી મિસ-મિસ હૈ । ચૈત્ત પરમ્પરા મે સર્વજ્ઞ છે. ‘સર્વ’ શબ્દ ↑ વ્યાહ્યા યહ્ન હૈ—વલજ્ઞાન સવ દ્રવ્યો, સત્ર ક્ષેત્રો, સવ ાનો ઔર સવ પર્યાયો જો નાનતા હૈ । ‘સર્વ' શબ્દ જી 27 28 29 નવીન તૈયાયિળો ને પ્રત્યક્ષ જે વો કાર પ્િ હૈં નોળિ પ્રત્યક્ષ બ્રૌર પ્રૌળિ પ્રત્યક્ષ 1 પોશ ઉપાધ્યાય જે અનુસાર બ્રૌ િપ્રત્યક્ષ રીત્ત પ્રાર । હોતા હૈ --સામાન્યલક્ષા, વિશેષજ્ઞક્ષા શ્રઔર યોગન । નિયમસાર, માયા 158 નાણાવિ પતિ સન્ન, વવહારના વલી માવ । વલસાણી નાવિ પત્ત્તવાિયમેરા શ્રખાય ॥ ની, સૂત્ર 33 I નવો રા વનનાણી સવવવાડનાર્ પાસ લેત્તશ્નો રા વનનાહી સત્વ લેત્ત નારા પાસફ્ । ળાનો આ વત્તનાથી સવ્વ ાન નારાજ્ પાસવું । માવો ા વનનાણી સત્રે ભાવે નારા પાસદ્ ી Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 95 ) इस व्यापक विषयावसाहिता मे केवल मीमासको को ही विप्रतिपत्ति नहीं है, वौद्धो को भी है । एक दृष्टि से नैयायिको और साख्यो को भी है। सैद्धान्तिकेष्टि से आगमयुग मे केवलज्ञान की व्याख्या के ये फलित हैं 1 सर्वथा अनावृत चेतना जो ज्ञानावरण के क्षीण होने पर होती है। 2 शुद्ध चेतना जो पाय के क्षीण होने पर होती है । 3 केवलमान जो कषायजनित सदनो के क्षीण होने पर होता है । भगवान महावीर को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और उसके बाद उन्होंने जो जाना उससे फलित होने वाली केवलज्ञान की व्यास्या में सर्वशता और सर्वभावदर्शिता है, फिर भी उसकी उतनी व्यापकता नही है जितनी दार्शनिक युग की व्याख्यानो मे है। नन्दीसूत्र मे केवलजान की जो न्यास्या है और जो भगवतीसूत्र मे सक्रान्त हुई है, उसीके आधार पर जैन ताकिको ने सर्वज्ञता का समर्थन किया है। उसके समर्थन मे अनेक तर्फ प्रस्तुत किए गए हैं। यहां उनमे से कुछेक तर्को का मै उल्लेख करूगा - 1 आत्मा स्वभाव से ही 'ज' है। वह प्रतिबन्धक (शानावरण) के होने पर 'अ-ज' होता है सूक्ष्म, व्यवहित और दूस्य पदार्थों का साक्षात नही कर सकता। प्रतिवन्धक हेतु समाप्त होने पर वह 'ज्ञ' हो जाता है। फिर 'ज्ञ' और 'जय' के वीच कोई अवरोध नहीं होता, इसलिए ज्ञेयमात्र उसमे प्रतिभासित होता है 130 __2 सर्पज्ञता का निरसन करने वाले कहते हैं कि मनुष्य सर्वज्ञ नही हो सकता । प्राचार्य ने पूछा-यह आप कैसे कहते है ? सर्वश नहीं है, यह आप जानकर कहते हैं या अनजाने ही ? सदा, सर्वत्र, सबमे से कोई भी सर्वज्ञ नही होता, यदि यह जानकर कहते हैं तो श्राप ही सर्वज्ञ हो गए। और यदि विना जाने कहते है तो आप यह कसे कह सकते हैं कि किसी भी देश-काल मे कोई व्यक्ति सर्वज्ञ नही होता ? ___3 किसी तत्व की सत्ता साधक-प्रमाण और बाचक- प्रमाण के अभाव द्वारा की जाती है। सर्वज्ञता का कोई सुनिश्चित वाचक-प्रमाण उपलब्ध नही है। इसलिए उसकी स्वीकृति निधि है ।। 30 योगविन्दु, श्लोक 431 ज्ञो ज्ञेये कमश. स्यादसति प्रतिवन्धके । दाह्य ऽग्निदाहको न स्यात् कथमप्रतिबन्धक ॥ ___31 प्रमाणमीमासा, 1/1/17 ___ बाधकामावाप । 'वृत्ति--सुनिश्चितासमवद्धाधकत्वात् सुखादिवसिद्धि । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 96 ) 4 सूक्ष्म, अन्तरित (व्यवहित) और देश-काल से विप्रकृष्ट पदार्थ किसी व्यक्ति के अवश्य प्रत्यक्ष हैं, क्योकि वे अनुमेय हैं, जैसे अनुमेय अग्नि किसी के प्रत्यक्ष होती है । 32 5 शान मे तरतमता उपलब्ध होती है । उसका कोई चरम विन्दु होता है। जसे परिमाण की तरतमता का चरमरू५ आकाश है, वैसे ही ज्ञान की तरतमता का चरमरूप केवलज्ञान है ।33 મૃતિ, अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा यह प्रत्यक्ष का क्रम-विभाग है। इसका उत्तरवर्ती क्रम-विभाग परोक्ष का है। यह विभाजन वैशध और अवधि के आधार पर है, किन्तु कार्यकारणभाव के प्राचार पर ये सब एक ही सूत्र में आवद्ध हैं। जो धारणा होती है-हमारे मस्तिकीय प्रकोठो मे सस्कार निर्मित हो जाते हैं वह निमित्त पाकर जागृत हो जाती है । अन्य ताकिक परपराश्रो मे स्मृति का प्रामाण्य सम्मत नहीं है । जैन परंपरा मे इसका प्रामाण्य समर्थित है। स्मृति अविसवादी ज्ञान है । अतीत की स्मृति मे जातिस्मृति का भी एक स्थान है, जिससे सुदूर अतीत अर्थात् पूर्वजन्म का मान होता है । वह यथार्थवोध है और उसके द्वारा मवादी व्यवहार सिद्ध होता है, इसलिए उसका प्रामाण्य असदिग्ध है। बौद्धो का तर्क था कि स्मृति पूर्वानुभव-परतत्र है, इसलिए वह प्रमाण नही हो सकती। प्रमाण वह मान होता है जो अपूर्व-अर्थ को जानता है । स्मृति का विषय है-पूर्वानुभव का जान । वह प्रमाण कसे हो सकती है ? मीमासप्रवर कुमारिल ने भी गृहीतार्य-प्राहिता के आधार पर स्मृति का अप्रामाण्य प्रतिपादित किया है। नैयायिकमनीपी जयन्त ने स्मृति के प्रामाण्य का इसलिए निरसन किया कि वह अर्थजन्य नहीं है । जान को अर्थज-अर्योत्पन्न होना चाहिए। यदि वह अर्थज नही है तो प्रमाण कसे हो सकता है ? 32 प्राप्तमीमासा, श्लोक 5 सूक्ष्मान्तरितदूरार्था प्रत्यक्षा. कस्यचिद्यया । અનુયત્વતોડકન્યાવિરતિ સર્વ સ્થિતિ . 33 प्रमाणमामासा, 1/1/16 જ્ઞાતિમવિશ્વાત્યાદ્રિસિદ્ધ સ્તત્સદ્ધિ ! વૃત્તિ પ્રજ્ઞાયા અંતરાય तारतम्य क्वचित् विश्रान्तम्, अतिशयत्वात् परिमाणातियवदित्यनुमानेन निरतिशयप्रजादिसिद्ध या तस्य केवलज्ञानस्य मिद्धि । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 97 ) जैन तार्किको ने उक्त आक्षेपों की समीक्षा मे कहा कि स्मृति के प्रामाण्य की कसोटी व्यवहार-प्रवर्तन है । पानी पीया, प्यास बुझ गई । मार्ग से चला, लक्ष्य तक पहुच गया । पानी से प्यास बुझती है इस पूर्वानुभव की स्मृति के आधार पर मनुष्य पानी पीता है | अमुक मार्ग अमुक नगर को जाता है - इस पूर्ववोध की स्मृति के आवार पर मनुष्य निश्चित मार्ग पर चलता है । व्यवहार की सिद्धि सवादिता सिद्ध करती है, फिर स्मृति का प्रामाण्य कैसे निरस्त किया जा सकता है, भले फिर वह पूर्वानुभव परतत्र या गृहीतार्थग्राही ज्ञान हो । स्मृति अर्थोत्पन्न नहीं है, इसलिए यदि उसे अप्रमाण माना जाए तो अनुमान के प्रामाण्य मे भी कठिनाई उपस्थित होगी । पुष्य नक्षत्र का उदय होगा, क्योंकि इस समय पुनर्वसु नक्षत्र उदित है । पुष्य का उदय होगा, वर्तमान मे वह उदित नही है फिर पूर्वचर हेतु कैसे बनेगा ? उत्तरचर हेतु भी कैसे बन सकता है ? नदी मे बाढ देखकर वर्षा का अनुमान (नैयायिक सम्मत शेषवत् अनुमान) कैसे होगा ? इसलिए स्मृतिज्ञान अर्थोत्पन्न नही है - यह तर्क महत्त्वपूर्ण नही है । प्रत्यभिज्ञा स्मृति का हेतु केवल धारणा है । प्रत्यभिज्ञा के दो हेतु हैं प्रत्यक्ष और स्मरण । इसलिए यह संकलनात्मक ज्ञान है । स्मृतिज्ञान का आकार 'वह मनुष्य' है और प्रत्यभिज्ञा का आकार 'यह वही मनुष्य है' है । 'यह मनुष्य' यह इन्द्रियप्रत्यक्ष है । 'वह' - यह स्मृति है । इन दोनो का जो योग है, वह एकत्वप्रत्यभिज्ञा है । शाकाहारी पशु गाय की भाति पानी पीते हैं । मासाहारी पशु गाय की भाति पानी नही पीते । वे जीभ से पानी का लेहन करते हैं । इनमे प्रथम सादृश्य-प्रत्यभिज्ञा और दूसरा वैसदृश्य प्रत्यभिज्ञा है । 'यह उससे छोटा है', 'यह उससे बडा है', 'यह उससे दूर है', 'यह उससे निकट है', यह उससे ऊंचा है', 'यह उससे नीचा है' यह सापेक्ष प्रत्यभिज्ञा है | सज्ञा और सज्ञी के सबध का ज्ञान भी प्रत्यभिज्ञा से होता है । किसी ने बताया कि जो दूध और पानी को अलग करे वह हस होता है । जिसके तीन-तीन पत्त होते हैं वह पलाश होता हैं । श्रोता न हस को जानता है और न पलाश को । उसने देखा, और पानी જીસને વતા से सुना और उसके मन मे एक संस्कार निर्मित हो गया । पक्षी की चोच दूध को प्याली मे पडी और दूध फट गया- दूध अलग अलग | प्रत्यक्ष और स्मृति - दोनो का योग हुआ, उसे सज्ञा श्रीर सज्ञी (हस शब्द और इस शब्दवाच्य पक्षी) के सबध का ज्ञान हो गया । इसी प्रकार उसने जगल मे तीन-तीन पत्ते वाले पेड को देखा । प्रत्यक्ष और स्मृति दोनों युक्त हुए और उसे सज्ञा-सज्ञी ( पलाश शब्द और पलाश शब्दवाच्य पेड) के सबध का ज्ञान हो गया । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 98 ) दो आदि सख्या का बोध भी प्रत्यभिज्ञान से होता है । स्मृति और प्रत्यक्ष के निमित्त से होने वाले जितने भी सकलनात्मक मानम-विकल्प हैं ये सब प्रत्यभिज्ञान केही प्रकार हैं 134 बौद्ध तार्किक प्रत्यभिज्ञा को मान्य नही करते । उनका मत है कि 'वह' यह परोक्ष ज्ञान है और 'यह' यह प्रत्यक्ष ज्ञान है । प्रत्यक्ष और परोक्ष दो विरोधी ज्ञानो का श्राधार एक नही हो सकता, इसलिए यह दो जानो का समुचय है, एक स्वतंत्र ज्ञान नही है | प्रत्यक्ष और जैन तार्किक इस तर्क को स्वीकार नहीं करते । वे कहते हैं कि परोक्ष ज्ञान प्रत्यभिज्ञा के कारण हैं । उन दोनो कारणो से एक स्वतंत्र ज्ञान उत्पन्न होता है । उसी के द्वारा हम 'यह' और 'वह' के बीच मे रहे हुए एकत्व को जानते हैं । उस एकत्व का बोध हमे न प्रत्यक्ष से हो सकता है और न परोक्ष से भी हो सकता है । प्रत्यक्ष और परोक्ष के सम्मिश्रण से एक नया ज्ञान उत्पन्न होता है और उसी के द्वारा हम एकत्व को जानते हैं । वह एक्त्व प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिए एकत्व वोध को परोक्ष की कोटि मे स्थान दिया गया है । वौद्धमतानुसार एक ही ज्ञान निर्विकल्प और सविकल्प दो विरोधी धर्मो का आधार हो सकता है तब प्रत्यभिना दो विरोधी धर्मो का ग्राधार क्यो नही हो सकती ? नैयायिक प्रत्यभिना को प्रत्यक्षज्ञान मानते हैं । उनके अनुसार सावारण प्रत्यक्ष केवल वर्तमानावगाही होता है और प्रत्यभिज्ञा मे वर्तमान सवेदन अतीत की स्मृति से प्रभावित होता है । प्रतीतावस्यावच्छिन्न वर्तमान को मुख्यता देने के कारण इसे वे वर्तमान की कोटि मे सम्मिलित करते हैं । जैन तर्क के अनुसार प्रत्यभिज्ञान प्रत्यक्ष नही हो सकता । क्योकि हमे प्रत्यक्ष व्यक्ति का ज्ञान नही करना है, किन्तु प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दोनो कालो मे विद्यमान व्यक्ति के एकत्व को जानना है । वर्तमान अश को जान लेने के बाद प्रत्यक्ष का कार्य संपन्न हो जाता है, इसलिए उसके द्वारा एकत्व को नही जाना जा सकता | उपमान के विषय मे न्यायशास्त्रीय धारणा एक नही है । वौद्ध उपमान को प्रत्यक्ष से भिन्न नहीं मानते । वैशेषिक उसे अनुमान के अन्तर्गत मानते हैं । नैयायिक उसे स्वतन्त्र प्रमाण के रूप मे स्वीकार करते हैं । जैन परम्परा में वह प्रत्यभिज्ञा का 34 प्रमाणप्रवेश, 21 इदमल्प महद्द्द्दूरमासन्न प्राशुनेति वा । व्यपेक्षात समक्षेऽयं, विकल्पः साधनान्तरम् ॥ दृष्टेष्वयंपु परस्परव्यपेक्षा लक्षण अल्प महत्वादिज्ञान अधरोत्तरादिज्ञान द्वित्वादिसख्याज्ञान प्रत्यच्च प्रमाण, अविसम्वादकत्वात् उपमानवत् । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 99 ) एक प्रकार है । वे इसका समर्थन इस आधार पर करते हैं गवय गाय के समान होता है' इस आकार मे गाय और गवय का ज्ञान मुख्य नहीं है, किन्तु उनमे रहा हुआ सा२य-बोध मुख्य है । इसलिए यह मान प्रत्यभिज्ञा से भिन्न नही है। उपमान को स्वतन्त्र प्रमाण मानने मे कोई आपत्ति नहीं है । इसका प्रत्यभिज्ञा मे समावेश हो सकता है पीर प्रमाणो की सस्या अनन्त न हो, इस दृष्टि से प्रमाणव्यवस्था-युग मे इसका प्रत्यमिना मे समावेश किया गया। तर्क तक भारतीय दर्शन का सुपरिचित शब्द है । कुछ विषयो मे इसे अप्रति०० कहा गया है। फिर भी चिन्तन के क्षेत्र मे इसका महत्त्व बहुत पहले से रहा है । न्याय-शास्त्र मे इसका विशेष अर्थ है । अनुमान के लिए व्याप्ति की अनिवार्यता है और व्याप्ति के लिए तर्क की अनिवार्यता है क्योकि इसके विना व्याप्ति की सत्यता का निर्णय नहीं किया जा सकता । प्राय सभी तकशास्त्रीय परम्पराए तक के इस महत्व को स्वीकार करती हैं । उनमें यदि कोई मतभेद है तो वह इसके प्रामाण्य के विषय मे है । नैयायिक प्रादि इसे प्रमाण या अप्रमाण की कोटि मे नही गिनते, प्रमाण का अनुप्राहक मानते हैं । जन परपरा मे यह प्रमाणरूप में स्वीकृत है। इसका स्वतंत्र कार्य है, इसलिए यह परोक्ष प्रमाण का तीसरा प्रकार है । जहाँ-जहा धूम होता है वहाँ-वहा अग्नि होती है यह व्याप्ति है । इस व्याप्ति का ज्ञान इन्द्रियप्रत्यक्ष और मानस-प्रत्यक्ष के द्वारा नहीं होता । प्रत्यक्ष कार्य-कारण को जानता है, उनके संबंध को नही जानता । अनुमान व्याप्ति के बाद होता है, अत उसके द्वारा भी व्याप्ति का ज्ञान नही हो सकता। अनुमान के द्वारा व्याप्ति को सिद्ध किया जाए और व्याप्ति के द्वारा अनुमान को सिद्ध किया जाए तो इस अन्योन्याश्रयता मे कोई निर्णयात्मक विकल्प हमारे हाथ नही लगता। इस समस्या को सुलझाने के लिए जन ताकिको ने तर्क का प्रामाण्य स्वीकार किया। तर्क का कार्य व्याप्ति का निर्णय करना है । जो धूम है वह अग्निजन्य है, अग्नि-भिन्न-पदार्थ से जन्य नही है । अग्नि के सद्भाव मे धूम का होना उपलभ है और उसके प्रभाव से धूम का न होना अनुपलभ है। इस उपलभ और अनुपलभ से तर्क उत्पन्न होता है और वह धूम और अग्नि के सबध का निर्णय करता है । उसके द्वारा सर्व काल, सर्वदेश और सर्वव्यक्ति मे प्राप्त होने वाले अविनाभाव सबंध को व्याप्ति के रूप मे स्वीकृति मिलती है । जो सबध सार्वकालिक, सार्वदेशिक और सार्ववैयक्तिक नही होता, उसे व्याप्ति के रूप मे तर्क का समर्थन नही मिलता और जिसे तक का समर्थन नही मिलता, वह व्याप्ति अनुमान के लिए उपयोगी नही होती। तर्क के द्वारा अविनाभाव-सबध का निश्चय हो जाने पर ही साधन के द्वारा साध्य का ज्ञान अर्थात् अनुमान किया जा सकता है । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 100 ) प्रागम प्राचार्य मिद्धसेन ने परोक्ष के दो भेद स्वीकार किए हैं अनुमान और श्रुत-बागम 135 स्मृति, प्रत्यभिना और तर्क का उन्होने परोक्ष प्रमाण के प्रकार के ९५ मे उल्लेख नही किया है । परोक्ष के उक्त पाच प्रकारों की व्यवस्था प्राचार्य अकलक ने की। उसका आधार तत्वार्थसूत्र और नदीसूत्र मे वणित मतिनान रहा 135 स्मृति, प्रत्यभिजा, तर्क और अनुमान ये चार मतिजान के प्रकार हैं और भागम श्रुतजान है । अकलक ने अनुमान को श्रुतनान के अन्तर्गत माना है। 7 सिद्धान्त चक्रवर्ती नेमिचन्द्र ने श्रुतमान के दो प्रकार किए हैं शब्दालगज-आगम और अलिगज-अनुमान 138 जन ताकिको ने श्रागम का व्यात्या लौकिक और लोकोत्तर दोनो स्तरों पर की है । प्राप्त के वचन से होने वाला अर्थ-सवेदन श्रागम है। उपचार से प्राप्त-वचन भी आगम है। लोकोत्तर भूमिका मे अतीन्द्रियज्ञानी प्राप्त होता है और लौकिक भूमिका में प्राप्त की कसौटी अविसवादित्व है। जो जिस विषय मे अविमवादी (अवचक) है वह उस विषय मे प्राप्त है ।39 जन तक-५२५९। मे ३२१ रीयनान और अन्य की अपारयता इन दोनो को कोई स्थान नही है। उसमें मानवीयज्ञान और अन्य की मनुष्यकृतता-ये दोनो प्रतिष्ठित हैं । द पौद्गलिक है पुद्गल का एक परिणामन है। पुद्गल का परिमन होने के कारण वह अनित्य है । जव शब्द ही अनित्य है तब कोई भी आदात्मक अन्य नित्य कैसे हो सकता है ? वयाकर॥ मानते हैं कि पनि क्षणिक है। उनसे अर्थवो नही हो सकता। वर्ष से अतिरिक्त किन्तु वाभिव्यग्य जो अर्थ-प्रत्यायक नित्य शब्द है वह स्फोट है । वध्वनि से वह अभिव्यक्त होता है । उससे अर्थबोध होता है । 35 न्यायावतार, २लोक, 5,8,91 36 (क) तत्वार्य, सूत्र 1113 । (ख) नदी, सूत्र 541 37. न्यायविनिश्चय, श्लोक 473 सर्वमतच्छतज्ञानमनुमान तयागम । 38 गोमटसार (जीवकाण्ड), गाया 315 । 39 प्राप्तमीमामा, लोक 78, अष्टशती यो यत्राविसवादक स तत्राप्त , तत परोऽनाप्त । तत्त्वप्रतिपादनमविवाद । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 101 ) मीमासको का मत है कि शब्द की कभी उत्पत्ति नही होती और उसका कमी विनाश नहीं होता। वह नित्य है । श्रारण या व्यवधान के कारण वह हमे निरतर सुनाई नहीं देता । श्रीचरण के दूर होने पर हम उसे सुन सकते हैं । इस सिद्धान्त के आधार पर उनका मानना है कि शब्द अभिव्यक्त होता है, उत्पन्न नहीं होता। जन परम्परा मे उth मत स्वीकृत नही है । उसके अनुसार शब्द उत्पन्न होता है । उसकी उत्पत्ति के दो कारण है सघात और भेद । दो वस्तु परस्पर मिलती है या कोई वस्तु अलग होती है, टूटती है तब शब्द उत्पन्न होता है । 40 उसमे प्रतिपादन की शक्ति स्वाभाविक है। सकेत के द्वारा उसमे अर्थवोधकता आरोपित की जाती है। प्रत्येक शब्द मे प्रत्येक प्रर्य का वाचक होने की क्षमता है। अमुक शब्द अमुक अर्य का ही वाचक हाता है इसका नियामक सकेत है। स्वाभाविक शक्ति और सकेत के द्वारा शब्द अर्य का वोध कराता है। जिसे सकेत जात होता है वही व्यक्ति शब्द के द्वारा उसके पाच्य को समझ पाता है। अग्नि शब्द मे अग्नि अर्य का सकेत प्रारोपित है। यदि वह सकेत मुझे ज्ञात है तो मैं अग्नि शब्द के वाच्य अग्नि अर्य को समझ पाऊगा। जो भारतीय भाषा को नही जानता वह उसे नही समझ पाएगा। तर्जनी अगुली के हिलाने में एक सकेत आरोपित है। उसे जानने वाला उसके हिलते ही तर्जना का अनुभव के ने लग जाता है। यही वात शब्द के सकेत की है। ___मीमासक मानते हैं कि शब्द का विषय केवल सामान्य है। गो शब्द गो व्यक्ति का नही, गोत्व सामान्य का वाचक है। सामान्य मे सकेत किया जा सकता है । असत्य विशेषो मे वह नहीं किया जा सकता। जनदृष्टिकोण इससे भिन्न है । उसके अनुसार शब्द का विषय सामान्य-विशेषात्मक वस्तु है । केवल सामान्य (जाति) अर्थक्रियाकारी नही हो सकता। घट, ५८ श्रादि व्यक्ति अर्थक्रियाकारी हो सकते है, किन्तु घटत्य या पटत्व अर्थनियाकारी नही हो सकते । ममान परिणति वाले वाच्यअर्थों के अनगिन होने पर भी सकेत का ग्रहण हो सकता है। अग्नि साध्य है और धूम साधन । वे असख्य हैं, फिर भी तर्क के द्वारा उन सबको जाना जा सकता है तब असंख्य विशेषो से सवद्ध सकेत को क्यो नही जाना जा सकता? वस्तु का स्वरूप ही सामान्य-विशेषात्मक है, इसलिए केवल सामान्य या केवल विशेष शब्द का वाच्य नही होता । सामान्य-विशेषात्मक वस्तु ही शब्द का वाच्य होती है । 40 ला 2/220 दोहिं ठाणेहि सह पाते सिया, त जहा साहणताण घेव पोग्गलारण स६ पाए सिया, भिज्जतारण चेव पोगलाप सह प्पाए सिया । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 102 ) धूम और अग्नि मे जमे व्याप्ति-सबंध है, वैसे लाद और अर्थ मे व्याप्तिसवध नही है। उनमें भेदाभेद का मवध है। यदि भन्द अर्य से सर्वथा अभिन्न हो, उनमे तादात्म्य संबंध हो तो अग्नि अर्थ और अग्निगद की प्रिया भिन्न नहीं हो सकती। फिर अग्नि शब्द के उच्चारणमात्र से दहन का क्रिया हो जाएगी। ऐसा नहीं होता, इसलिए जाना जाता है कि शब्द और अर्थ में व्याप्ति सवध नहीं है। यदि शब्द अर्थ से सर्वथा भिन्न हो तो उनमे पाय-वाचक-संबंध नहीं हो सकता। ५८ २१८८ से ५८ पदार्य का वोध इसीलिए होता है कि गाद के प्रतिपादन पर्याय और अर्थ के प्रतिपाद्य पर्याय मे एक सवध स्थापित है। ___घ८ द से घट पदार्य का ही बोध होता है, घट से भिन्न पदार्थ का बोध नहीं होता। इसका नियमन 'सकेत' करता है। शब्द और अर्य का संबंध नैसगिक नही है। जिस अर्थ के लिए जिस आद का प्रयोग मनुष्य हा निर्धारित किया जाता है वह २००६ उम अर्थ का वाचक हो जाता है। इसलिए शब्द और अर्य का मवध ऐच्छिक है। इसीलिए विभिन्न मूखडो मे एक ही पदार्य के अनेक शब्द वाचक है । यदि शब्द और अर्थ का मवध नैसर्गिक होता तो ससा की एक ही भाषा होती और एक अर्थ के लिए स्वभावत एक ही वाचक होता। सापेक्ष सिद्धान्त के आवार ५९ स्फोट की व्याख्या की जा सकती है। भाषा पौद्गलिक है । समूचे आकाश मडल मे मापा-वर्गमा के पुद्गल-स्कर फैले हुए हैं और वे सदा फैले हुए रहते हैं । कोई भी मनुष्य वोलता है तो उन भा५/-वर्गणा के पुगल-स्कयो को ग्रहण किए बिना नहीं बोल सकता। हमारी वोलने की प्रक्रिया यह है कि हम सर्व प्रथम शारीरिक प्रयत्न के द्वारा भापा-वर्गरणा के पुद्गल-स्कयो को ग्रहण करते हैं, फिर उन्हें भाषा के रूप मे परिणत करते हैं और उसके बाद उनका विमर्जन करते हैं । यह विसर्जन का क्षण ही शब्द है और ही हमे सुनाई देता है । विसर्जन-क्षरण से पहले शब्द अगद होता है और उस क्षण के बाद भी द अगर हो जाता है । विसर्जन-क्षण मे होने वाली वर्णवनि क्षणिक और अनित्य होती है । भापा-वर्गणा के पुद्गल-स्कयो को मतति-प्रवाह-५ मे नित्य माना जा सकता है और उनकी स्फोट से तुलना की जा सकती है। स्मृति मे सस्कार, प्रत्यभिज्ञा मे एकरप और साय, तर्क मे अविनाभाव संवय और श्राम मे अभिधेय-अर्थ परोक्ष होते हैं, इसलिए ये सब परोक्ष प्रमाण के अवान्तर विभाग है। 1 अवग्रह से अनुमान तक कार्य-कारण का संबंध प्रतीत होता है । फिर पारणा को प्रत्यक्ष श्री स्मृति आदि को परोक्ष मानने का क्या कारण है ? Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 103 ) प्रत्यक्ष और परोक्ष का विभाग स्पष्टता (वैशध) और अस्पष्टता (अवंशध) के आधार पर किया गया है । अवग्रह से धारणा तक चलने वाली ज्ञानधारा स्पष्ट है, इसलिए वह प्रत्यक्ष की कोटि मे स्वीकृत है । स्मृति से अनुमान तक की ज्ञानधारा मे ज्ञेय-विषय स्पष्ट नहीं होता, इसलिए वह परोक्ष की कोटि मे स्वीकृत है । 2 प्रत्यभिज्ञा मे ज्ञेय-अर्थ प्रत्यक्ष होता हैं, फिर उसे परोक्ष क्यो माना जाए? अनुमान मे धूम प्रत्यक्ष होता है, किन्तु उसका ज्ञेय घूम नही है । उसका ज्ञेय अग्नि है, जो प्रत्यक्ष नही है । इसी प्रकार प्रत्यभिजा का ज्ञेय सामने उपस्थित वस्तु या व्यक्ति नहीं है किन्तु उनके अतीत और वर्तमान पर्यायो मे होने वाला एकत्व है, जो कि प्रत्यक्ष का विषय नहीं बनता। 3 ईहा का कार्य भी अन्वय-व्यतिरेक के द्वारा उपलब्ध अर्थ की परीक्षा करना है तब ईहा और तर्क को भिन्न यो माना जाए ? हा पर्यालोचनात्मक ज्ञान है । उसके द्वारा वस्तु मे पाए जाने वाले अन्वय और व्यतिरेक धर्म पालोचित होते हैं। उनके आधार पर अर्थ के स्वरूप की सभावना की जाती है । तर्क का कार्य है- व्याप्ति की परीक्षा करना। इसलिए दोनो का कार्य एक नहीं है । यद्यपि ईहा और तक दोनो के लिए 'ऊह' शब्द का प्रयोग मिलता है, फिर भी दोनो के 'जह' का स्वरूप एक नही है। 4 निर्णायक ज्ञान अवाय होता है, फिर अवग्रह और ईहा को प्रमाण कसे माना जा सकता है ? एक सिकोरा है जो अभी-अभी श्रावे से निकाला गया है । उस पर जल की एक वू द डाली । वह सूख गई। फिर दो-चार वू दे डाली वे भी सूख गई। बू दें डालने का क्रम चालू रहा । एक क्षण ऐसा आया कि सिकोरा गीला हो गया । क्या सिको। अन्तिम वू द से गीला हुआ ? पहली वू द से वह गीला नहीं हुआ ? हम केवल निष्पत्तिकाल को ही गीला होने का क्षण नहीं कह सकते । प्रारभ काल भी उसके गीला होने का क्षण है । यदि सिकोरा पहली वू द से गीला न हो वह अतिम बू द से भी गीला नही होगा । अवग्रह के पहले क्षण मे यदि निर्णय होना प्रारभ न हो तो अवाय मे भी निर्णय नही हो सकता । अवाय एक धारागत निर्णयो की निष्पत्ति है, इसलिए स्थूल भाषा मे हम कहते हैं कि अवाय मे निर्णय होता है । यदि सूक्ष्म भाषा का प्रयोग करें तो अवग्रह और ईहा भी अपने-अपने शेय-पर्याय) के निर्णायक है। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 7: अनुमान अनुमान न्यायशास्त्र का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। इसका परिवार बहुत बड। है। इसी के आधार पर त-िविद्या या आन्वीक्षिकी का विकास हुआ है । अनुमान गद 'अनु' और 'मान' इन दो शब्दो से निष्पन्न हुआ है । इसका अर्थ है प्रत्यक्षपूर्वक होने वाला जान । जन भागमो के अनुसार श्रुत मतिपूर्वक होता है 'मइपुक्य सुय' | न्यायदर्शन मे भी अनुमान को प्रत्यक्षपूर्वक माना गया है।' ___ अनुमान के दो अग होते हैं साधन और साध्य । मावन प्रत्यक्ष होता है और साध्य परोक्ष । हम पहले सावन को देखते है, फिर व्याप्ति की स्मृति करते हैं, उसके बाद साव्य का ज्ञान करते हैं। अनुमान दो प्रकार का होता है-स्वानुमान और परार्यानुमान । जन परपरा मे समग्रजान स्वार्य और परार्य इन दो भागो मे विभत है । सूत्रकृतान मे नान के दो सावन बतलाए गए हैं।ात्मत और परत ।' आत्मगत जान स्वार्थ और वचनात्मक जान परार्य होता है । चार ज्ञान केवल स्वार्थ होते हैं, श्रुतगान “वार्य और परार्य दोनो होता है । वस्तुत जान परार्य नहीं होता । वचन मे मान का आरोप कर उसे परार्य माना जाता है । जान और वचन मे तादात्म्य और तदुत्पत्ति संबंध नहीं है । वचन एक व्यक्ति के जान को दूसरे व्यक्ति तक सप्रेषित करता है, इसलिए उपचार से उसे ज्ञान मानकर परार्थ कहा जाता है । वस्तुत वचन ही परार्थ होता है, न कि जान । जान के विषय मे स्वार्य और परार्थ की धारणा प्राचीन काल से है, किन्तु अनुमान के ये दो विभाग- (वार्य और परार्थ नयायिक और बौर परपस से गृहीत हैं। श्राचार्य सिद्धमेन ने अनुमान की भाति प्रत्यक्ष को भी परार्थ माना है । उन्होंने लिखा है-- प्रसिद्ध अर्य का प्रकाशन प्रत्यक्ष और अनुमान दोनो से होता है और वे दोनो ही दूसरे के लिए जान के उपाय हैं, 1 न्यायसूत्र, 11115 तत्पूर्वकम् । 2 नूयगडो, 12119 जे प्राततो ५.तो वा वि सच्चा । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 105 ) इसलिए वे दोनो ही परार्य होते हैं । 3 वादिदेवसूरी ने भी इस सिद्धसेनीय मत का अनुसरण किया है। अनुमान द्वारा ज्ञात अर्य का वचनात्मक निरूपण जैसे परार्यानुमान है वैसे ही प्रत्यक्ष द्वारा जात अर्थ का वचनात्मक निरूपण परार्थ प्रत्यक्ष है । साधन से होने वाला साध्य का विज्ञान स्वार्थानुमान है। जैसे किसी ने धूम देखा और दूर देश मे स्थित अग्नि का ज्ञान हो गया । इस शान मे पक्ष और दृष्टान्त की आवश्यकता नहीं है । दूसरे को समझाने के लिए पक्ष श्रीर हेतु का वचनात्मक प्रयोग करना परार्थानुमान है । जैसे कोई व्यक्ति दूसरे से कहता है कि देखो उस नदी के किनारे अग्नि है, क्योकि वहा धूम दिखाई दे रहा है । यह सुनकर श्रोता के भो स्वार्थानुमान हो जाता है । प्रमाण ज्ञानात्मक होता है और परार्यानुमान शदात्मक है । शब्दात्मक होने के कारण वह प्रमाण नहीं हो सकता । इसीलिए यह उपचारत प्रमाणरूप मे स्वीकृत है । परार्थानुमान स्वार्थानुमान का कारण है । कारण को उपचार से कार्य मानकर परार्थानुमान को प्रमाण माना जाता है। न्याय दर्शन मे अनुमान के तीन प्रकार मिलते है पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदष्ट । साख्यशास्त्र और परक' में भी ये ही तीन प्रकार प्राप्त हैं । आर्य रक्षितसूरी ने भी अनुमान के ये तीन प्रकार थोडे मे नामभेद के साथ स्वीकृत किए है पूर्ववत्, शेपवत् और दृष्टसाधम्र्यवत् 18 वौद्व न्यायशास्त्र के विकास के बाद इन तीनो प्रकारो की ५२५रा गौण हो गई। जन ५२५ मे अनुमान का लक्षण सर्वप्रथम श्राचार्य सिद्धसेन ने किया। उसका सभी जन ताकिक अनुसरण करते रहे है। 3 न्यायावतार, श्लोक 11 प्रत्यक्षेणानुमानेन, प्रसिद्धार्थप्रकाशनात् । परस्य तदुपायत्वात्, परार्यत्व द्वयोरपि ॥ 4 प्रमाणनयतत्त्वालोक, 3126,27 1 5 न्यायसूत्र, 11115 पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतो७८ च । 6 साल्यकारिका, 5, मा०रवृत्ति । 7 चरक, सूत्रस्थान, श्लोक 28,29 । 8 अशुश्रोगहाराई, सूत्र 519 । न्यायावतार, श्लोक 5 साध्याविनाभुवो लिङ्गात्, साध्यनिरचायक स्मृतम् । अनुमान तदभ्रान्त, प्रमाणत्वात् सपक्षवत् ।। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 106 ) प्राचार्य सुवन्धु ने हेतु को रूप्य माना और दिड नाग ने उसका विकास किया। उनके अनुसार हेतु मे पक्षधर्मत्व, सपक्षमत्व और विपक्षासत्व ये तीन लक्षण पाए जाते हैं 1 पक्षवर्मत्व हेतु पक्ष मे होना चाहिए । 2 सपक्षसत्व हेतु सपक्ष अन्वय ६८/न्त मे होना चाहिए । 3 विपक्षासत्त्व हेतु विपक्ष मे नही होना चाहिए । जनताकिको ने हेतु के इस रूप्य लक्षण का निरसन किया। उन्होने 'अन्ययानुपपत्ति' या 'अविनामाव' को ही एकमात्र हेतु का लक्षण माना 110 स्वामी पात्रकेसरी ने विलक्षणकदर्शन' अन्य मे हेतु के त्रस्य का निरसन कर अन्ययानुपपत्ति लक्षण हेतु का समर्थन किया। उनका प्रसिद्ध लोक है । 'अन्ययानुपपनत्व, यत्र तत्र ये किम् ? नान्यथानुपपन्नत्व, यत्र तत्र त्रये किम् ? जहा अन्यथा-अनुपपत्ति है पहा हेतु को रूप्यलक्षण मानने से क्या लाभ ? जहा अन्यथा-अनुपपत्ति नही है वहा हेतु को रूप्यलक्षण मानने से क्या लाभ ? हेतु के लिए पक्षवर्मत्व आवश्यक नही है । रोहिणी नक्षत्र का उदय होगा क्योकि कृत्तिका नक्षत्र का उदय हो चुका है। इस हेतु मे पक्षधर्मत्व नहीं है । कृत्तिका के उदय और महूत के पश्चात् होने वाले रोहिणी के उदय मे अविनाभाव है, पर कृत्तिका का उदय रोहिणी नक्षत्र का उदय होगा' इस पक्ष मे नही है । अत. पक्ष-. धर्मत्व हेतु का अनिवार्य लक्षण नहीं है । शब्द अनित्य है क्योकि वह श्रावण है श्रोत्र का विषय है इस अनुमान मे कोई पक्ष नहीं है। जो-जो सुनाई देता है वह मारा का सारा शब्द है, इसलिए मपक्ष को कोई अवकाश ही नहीं है। सुनाई देने के कारण शब्द अनित्य है और जो सुनाई देता है वह शब्द है-इममे द और श्रावणत्व की अन्तव्याप्ति है। इसका कोई दृष्टान्त या समान पक्ष नही हो सकता। पहिव्याप्ति मे सपक्ष हो सकता है और उसका उपयो। इसलिए किया जाता है कि किमी दृष्टान्त के माध्यम से हेतु का अविनामा बताया जा सके, किन्तु उन वहिाप्ति (टान्त या सपक्ष) के आधार पर हेतु गमक नहीं होता। 10 न्यायावतार, श्लोक 21 : अन्यवानुपपनत्व हतोलक्षमीरितम् । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 107 ) 'सब कुछ क्षणिक है क्योकि सत् है' इस हेतु का सपक्ष नही हो सकता । वौद्ध) के अनुसार अक्षणिक कुछ भी नही है तब सपक्ष कसे होगा ? यह प्रदेश अग्निमान् है क्योकि धूम है, जैसे रसोई घर । इस बहिव्याप्ति मे सपक्ष हो सकता है। धूम जैसे निर्दिष्ट प्रदेश मे है वैसे ही रसोई घर मे भी है। अन्तव्याप्ति मे समग्र वस्तु का समाहार हो जाता है, शेष कुछ बचता ही नही । इसलिए 'सपक्षसत्व' हेतु का लक्षण नही हो सकता। विपक्ष मे हेतु का असत्व होना ही अन्यथानुपपत्ति है । यही हेतु का एक मात्र लक्षण है। जन तक-परपरा मे यह लक्षण सबके द्वारा समर्थित और मान्य हेतु के प्रकार : जन तर्क-परपरा मे अविनाभाव का संबंध केवल तादात्म्य और तदुत्पत्ति से ही नही है । अविनाभाव के दो रूप हैं सहभाव और क्रमभाव । सहभाव तादात्म्यमूलक भी होता है और तादात्म्य के बिना भी होता है । इसी प्रकार क्रममाव कार्यकारणभावमूलक भी होता है और कार्य-कारणभाव के बिना भी होता है। अविनाभाव के इस व्यापक स्वरूप के आधार पर हेतु के स्वभाव, व्याप्य, व्यापक, कार्य, कारण, पूर्वच र, उत्तरचर, सहचर ये आठ विकल्प माने गए । इनमे कुछ उपलब्धि हेतु हैं और कुछ अनुपलब्धि हेतु । उपलब्धि हेतु विधि और प्रतिषेध (भाव और अमाव) दोनो को सिद्ध करते हैं । अनुपलब्धि हेतु भी उन दोनो को सिद्ध करते हैं। इनकी विस्तृत चर्चा के लिए प्रमाणनयतत्वालोक 3154-109, या 'भिक्षुन्यायकणिका (परिशिष्ट पहला) द्रष्टव्य है'। अवयव-प्रयोग __ जैन आचार्यों ने प्रत्येक विषय पर अनेकान्तदृष्टि से विचार किया है । नय के विषय मे उनका दृष्टिकोण है कि श्रोता की योग्यता के अनुसार नयो का प्रतिपादन करना चाहिए । अवयव-प्रयोग के विषय में भी उनका यही दृष्टिकोर है । ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल मे उदाहरण या दृष्टान्त का प्रयोग प्रचुरता से किया जाता था। प्रबुद्ध श्रोता के लिए हेतु का भी प्रयोग मान्य था। नियुक्तिकार भद्रपाहु ने लिखा है जिन-वचन स्वयसिद्ध है, फिर भी उभे समझाने के लिए अपरिणत श्रोता के लिए उदाहरण का प्रयोग करना चाहिए । श्रोता यदि अपरिणत हो तो हेतु का प्रयोग भी किया जा सकता है । 11. दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 49 जिरायण सिद्ध चेव, मण्याए कत्यई उदाहरण । પ્રાસન્ન = સીયાર, હેક્કવિ હૃત્તિ મોળા ll Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 108 ) नियुक्तिकार ने पाच तथा दस अवयवो के प्रयोग का भी निदग किया है ।12 इस प्रकार नियुक्तिकार ने अवयव-प्रयोग के पाच विकल्प निदिष्ट किए हैं अवयव हेतु दृष्टान्त हेतु प्रतिनी * प्रतिना પ્રતિજ્ઞા प्रतिमा प्रतिना उदाहरण * हेतु પ્રતિજ્ઞાવિશુદ્ધિ પ્રતિજ્ઞાવિમરજી * उदाहरण हेतु उपमहार હેતુવિશુદ્ધિ હેતુવિમm दृष्टान्त વિપક્ષે દષ્ટાન્તવિશુદ્ધિ प्रतिषेध उपसहार દૃષ્ટાન્ત પસંહારવિશુદ્ધિ प्राशका निगमन तत्प्रतिपेध નિમર્તાવિશુદ્ધિ નિયમન सिद्धसेन ने पक्ष, हेतु और हटान्त-5न तीन अवयवो के प्रयोग की चर्चा की है। मामान्यत प्राय भी ताकिको ने स्वार्यानुमान मे प्रतिजा और हेतु इन दो अवयवो का तथा परार्थानुमान मे उन दो के अतिरिक्त मन्दमति को व्युत्पन्न करने के लिए दृष्टान्त, उपनय और निगमन का भी प्रयोग स्वीकृत किया है। वादिदेवसूरी ने बौद्धों की भाति केवल हेतु के प्रयोग का भी समर्थन किया है । मान्य की सिद्धि के लिए उम (माच्य) का निर्देश करना प्रतिमा है, जमे पर्वत अनिमान है। माध्य की मिद्धि के लिए मावन का निर्देश करना हेतु है, जैसे क्योकि वह। चूम है। माथ्य के समान किमी प्रदेश का निर्देश करना हटान्त या उदाहरण है जहाजहा घृम होता है वहा-वहा अग्नि होती है, जैसे - रसोईघर ।। साधन-धर्म का माव्य-धर्मी मे उपमहार करना उपनय या उपमहार है, जमे-पर्वत धूमयुक्त है। 12 दशवकालिक नियुक्ति, या 50 करय पचावयव दसहा वा मवहा न पहिसिद्ध । न च पुग म०व मार हदी सविधारमसाय ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 109 ) साध्य - कोटि की प्रतिज्ञा साधन के द्वारा सिद्ध-कोटि मे आ जाती है, वह निगमन है, जैसे इसलिए पर्वत अग्निमान् है । नैयायिक इस पचावयवप्रयोग को स्वीकार करते है । उनके अनुसार इस श्रवयवप्रयोगात्मक अनुमान को पचावयव वाक्य, महावाक्य अथवा न्यायप्रयोग कहा जाता है | X X X 1 हम जानना चाहते हैं कि संख्या के विषय मे जैन परम्परा का अभिमत क्या है ? कुछ विचारक जैन दर्शन को परमसाख्य कहते हैं । जैनो का तत्वचिन्तन संख्या-प्रधान रहा है, इसलिए यह कहा भी जा सकता है । श्रागमसाहित्य चार भागो मे विभक्त है 13 1 द्रव्यानुयोग - द्रव्यमीमासा, दर्शन | ? चरणानुयोग आचारमीमासा । 3 धर्मकयानुयोग हण्टान्त, उपमा और उदाहरण 1 4 गणितानुयोग गणितशास्त्र । द्रव्यमीमासा और कर्मशास्त्र मे गणित का बहुत उपयोग किया गया है । पदार्थ को जानने के चौदह उपाय निर्दिष्ट हैं 13 1 निर्देश नाम निर्देश, स्वरूप निश्चय अधिकारी । 2 स्वामित्व 3 साधन कारण। 4 अधिकरण आधार । 5 स्थिति काल-मर्यादा । 6 विधान प्रकार । 7 सत् अस्तित्व, सद्भाव | 8 संख्या - गणना, पदार्थ के परिमाण की उपलब्धि का भेदलक्षण वाला सावन । 9 क्षेत्र आश्रयस्थान 1 10 स्पर्शन पावर्ती आकाश-प्रदेशो का स्पर्श । 11 फाल अवधि 12 अन्तर दो अवस्थाश्री का मध्यवर्ती अन्तराल | तत्त्वार्यं सूत्र, 1/7, 8 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 110 ) 13 भाव परिणति का प्रकार । 14 अल्प-बहुत्व-तुलनात्मकदृष्टि से अल्पता या अधिकता उक्त चौदह उपायो मे सस्या पाठवा उपाय है । उसके द्वारा परिमाण का _ निर्धारण किया जाता है । वह पदार्य की व्याख्या का एक श्रावश्यक अग है । उत्तराध्ययन सूत्र मे पर्याय के छह लक्षण प्रतिपादित है 14 1 एकत्व सदृश परिणति ।। 2 पृयक्त्व विसदृश परिणति । 3 सख्या एक, दो आदि व्यवहार का हेतु । 4 सस्थान प्राकृति । 5 सयोग दो पदार्यो का वाह्य मवध । 6 विभाग दो सयुक्त पदार्थों का अलगाव । द्रव्य गुण-पर्यायात्मक होता है। गुरण उसके स्वभावभूत होते हैं। उनकी प्रतीति पर-निरपेक्ष होती है। पर्याय उसके क्रममावी धर्म हैं। उनकी प्रतीति परसापेक्ष होती है । अल्प-बहुत, ऊंचा-नीचा, दूर-निकट, दो-तीन श्रादि सख्या ये सब पर्याय दूसरे पदार्थों की अपेक्षा से अभिव्यक्त होते हैं, इसलिए ये पर-सापेक्ष हैं। मख्या द्रव्य का आपेक्षिक पर्याय है। वह जाता के ज्ञान पर निर्भर नही है । जिसका अस्तित्व स्वतत्र (ज्ञाता-निरपेक्ष) होता है वह किसी के जानने से निर्मित नहीं होता और न जानने से समाप्त नही होता। जॉन लॉक (1632-1704) ने दो प्रकार के गुण माने हैं- मूलगुण (Primary Qualitres) और उपगुण (Secondary Qualities) । मूलगुण द्रव्यो के वास्तविक धर्म हैं । उपगुण द्रव्यो के वास्तविक धर्म नहीं हैं। वे प्रात्मा के सवेदनमात्र हैं। द्रव्यो का धनत्य (Solidity), Cater (Extension', 44141€ (Shape), vla (Mouoni, faula (Rest) श्रीर संख्या (Number) ये एकाधिक इन्द्रियो के द्वारा प्राप्त होने के कारण मूलगुण है-द्रव्यात वास्तविकताए है। इन्द्रियो का इन मूलगुणो से सम्पर्क होता है तब वे हमारी आत्मा मे सवेदन उत्पन्न करते है। ह्य म ने मानवज्ञान को दो काटियो मे विभक्त किया है । विनानी के पारस्परिक सम्बन्धो का जान Knowledge of the relations of the ideas 2 वस्तु-जगत् का ज्ञान Knowledge of the Matters of fact 14 उत्तरायणारिण, 28/13 एमत्त च पुहत्त च, सख्या सगणमेव य । मजोगा य विभागा य, पज्जवा तु लक्खर । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 111 ) गणितशास्त्र और तकशास्त्र मे विजानो के पारस्परिक सम्बन्धो का ज्ञान होता है, इसलिए गणित और तक मे सार्वभौम और अनिवार्य सिद्धान्तो की कल्पना की जा सकती है। दो और दो पार ही होते है यह केवल कल्पना है। इसका वस्तु-जगत् से कोई सम्बन्ध नही है । लॉक और ह्य म ये दोनो अनुभववादी (Idealistic) दार्शनिक हैं। नव-वास्तविकतावादी (New realistic) दार्शनिको के अनुसार संख्याबोव प्रत्यय-जनित नही है । वह प्रत्यक्ष से होता है। दो और दो चार होते हैं यह अभिगम अपने अस्तित्व के लिए किसी समय और क्षेत्र पर आधृत नही है, किन्तु समयो और क्षेत्रो की अपेक्षा के बिना ही सत्य है। इस अभिगम के द्वारा जो सत्य प्रतिपादित होता है वह वास्तविक सत्य है । वह सीधे (प्रत्यक्ष) ही जाना जाता है और सीधे ही चतन्य की अनुभूति में आता है, किसी प्रत्यय के द्वारा नही । वास्तविकतावादी विचार के अनुसार तक और गणित के अभिगम अपना स्वतंत्र (ज्ञाता-निरपेक्ष) अस्तित्व रखते हैं और वैज्ञानिक सिद्धान्तो को श्राविकृत करते है, वनात नही । इस सिद्धान्त से इस विचारधारा को आधार मिला है कि वैज्ञानिक जब फॉरभुलाओ, समीकरणों और निगमन-विश्लेषणो द्वारा कार्य करते हैं, तब वे वास्तविकता के बारे मे ही काम करते है । जैन दर्शन की स्वीकृति अनुभववाद और वस्तुवाद इन दोनो से भिन्न है । उसके अनुसार सख्या कल्पना नहीं है, वह वस्तु का एक पर्याय है। उसका बोध न केवल प्रत्यय से होता है और न केवल प्रत्यक्ष से होता है, किन्तु प्रत्यय और प्रत्यक्ष के सकलन प्रत्यभिज्ञा से होता है । जितने सबंधात्मक, तुलनात्मक और साक्षशान होते हैं, वे सारे उसीके द्वारा होते हैं । वह प्रत्यक्ष और स्मृति--इन दोनो के योग से उत्पन्न होता है, इसलिए सापेक्षबोध उसका विषय बनता है। किसी वडी रेखा को ध्यान मे रखकर हम दूसरी रेखा को छोटा कहते हैं । केवल एक रेखा बडी या छोटी नही हो सकती । छोटा और बड़ा यह दो मे ही होता है। पूर्वज्ञान की स्मृति और वर्तमान का प्रत्यक्षशान ये दोनो मिलकर ही उन दो अवस्थाप्रो (छुटपन, वडपन) का बोध करते है। दो रेखाए प्रत्यक्ष होती हैं। उनके तुलनात्मक ज्ञान में भी पूर्वदेष्ट का ज्ञान परोक्ष होता है। दोनो रेखाओ को तुलनात्मक दृष्टि से देखते हैं तब किसी एक रेखा की ओर अभिमुख होते ही दूसरी का ज्ञान परोक्ष हो जाता है। सख्या का ज्ञान भी इसी पद्धति से होता है। हमने देखा घट है, फिर देख) ५८ है, तब हम इन दोनो घट-शानी का सकलन करते हैं दो घट हैं। यह द्वित्व पर्याय सापेक्ष है । दो वस्तुओ की अपेक्षा मे ही यह पर्याय अभिव्यक्त होता है। इस प्रकार अनेकत्वसूचक संख्या के जितने प्रकार हैं वे सब सापेक्ष ही हैं। दो और दो चार होते हैं-यह प्राथमिक वोध प्रत्यक्ष होता है, फिर यह संस्कार बन जाता है। दो युगलो का प्रत्यक्ष होते ही संस्कार जागृत होकर स्मृति का रूप लेता है और दो और दो चार होते हैं, Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 112 ) इसका बोध हो जाता है। पूर्व का निरीक्षण और अपर का निरीक्षण ये दो निरीक्षण अपेक्षावुद्धि को उत्पन्न करते हैं और उससे मस्या की प्रतिपत्ति होती है।15 भाग माहित्य मे प्रमाण का विशद वर्गीकरण मिलता है । अनुयोगहार मे प्रमाण के चार प्रकार परिणत हैं---द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण और भावप्रमाण । भावप्रमा॥ के तीन प्रकार हैं गुणप्रमाण, नयप्रमाण और सत्याप्रमाण। आचार्य अकलक ने सख्या और उपमा को एक कोटिक प्रमाण माना है।" द्रव्यो और गुणो मे जो सस्यास्प धर्म पाया जाता है उसे जयवला मे सत्याप्रमा। कहा गया है। श्रागमयुग मे सत्याप्रमाण और उपमाप्रमाण स्वतत्र थे। प्रमाण-यवस्यायुग मे उन्हे प्रत्यभिज्ञा के अन्तर्गत स्थापित किया गया। 15 सिद्धिविनिश्चय, पृ०० 150 सत्यादिप्रतिपत्तिरच, पूर्वापरनिरीक्षणात् । 16 विस्तार के लिए देखें परिशिष्ट 1 । 17 तत्वार्यवात्तिक, 3/38 । 18 कसायपाहुड, भाग 1, पृष्ठ 381 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .8 વિનામાવ अनुमान हेतुमूलक होता है और हेतु अविनाभावमूलक । इसलिए अनुमान का प्रधान अग हेतु है और हेतु का प्रधान अग अविनाभाव है। इस अविनाभाव को ध्याप्ति, संघ या प्रतिवन्ध भी कहा जाता है। हम अविनाभाव के आधार पर सार्वभौम नियमो का निर्धारण करते हैं। उन्ही के आधार पर हेतु गमक होता है। अविनाभाव के आधार ये हैं 1. तादात्म्य, 2 तदुत्पत्ति, 3 सहभाव, 4 क्रमभाव । तादात्म्य सम्बन्ध उनमे होता है जो सहभावी होते है हेतु और साध्य, भस्तित्व की दृष्टि से, अभिन्न होते हैं, जैसे यह वृक्ष है, क्योकि यह अशोक है । इस पाक्य मे वृक्ष साध्य है। अशोक है यह हेतु है। इसमें साध्य हेतु की सत्ता के अतिरिक्त किसी अन्य हेतु की अपेक्षा नही रखता, इसलिए यह 'स्वभाव हेतु' है । अशोकरप और वृक्षत्व मे नियत सहभाव है, इसलिए यह तादात्म्यमूलक अविनाभाव है। 'व्यापक' हेतु भी तादात्म्यमूलक होता है। जैसे इस प्रदेश मे पनस नही है, क्योकि वृक्ष नही है । इस वाक्य मे पनस व्याप्य है और वृक्ष व्यापक | व्याप्य का व्यापक के साय नियत सहभाव होता है। जहा वृक्षत्व नही होता पह। पनसत्व नही होता-इस अविनाभाव के आधार पर व्यापक' हेतु बनता है। धूम अग्नि से ही उत्पन्न होता है, अन्य किसी से उत्पन्न नहीं होता। इस तदुत्पत्ति के आधार पर धूम का अग्नि के साथ कार्यकारमूलक अविनाभाव सबंध है । अग्नि कारण है और घूम कार्य । इसलिए घूम अग्नि का गमक होता है । सहभाव तादात्म्यमूलक ही नही होता, जिनमे तादात्म्य नही होता उनमे भी सहभाव होता है। इस आधार पर सहचर हेतु बनता है। रूप और रस दोनो सहचर हैं। ०५ चक्षुग्राह्य होता है और रस जिह्वाग्राह्य । इस स्वरूप भेद के कारण उनमे तादात्म्य सबध नहीं है। उनमे तादात्म्य सबंध नही है इसलिए वे स्वभाव हेतु नही हो सकते । रूप और रस एक साथ उत्पन्न होते हैं और एक साथ उत्पन्न Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 114 ) होने वाली मे कार्यकारणमूलक संबंध नहीं होता, इसलिए वे कार्यकारण हेतु नही बन सकते । 61 रस का और रस रु५ का, नियत साहचर्य के आधार पर, गमक होता है, इसलिए सहचर हेतु की स्वीकृति में कोई विप्रतिपत्ति नहीं है । जैसे कोई मनुष्य अधेरे मे आम चूस रहा है। वह उस रसास्वाद के श्रावार पर यह जान लेता है कि इस आम मे रूप है, क्योकि जहा रस होता है वहा रूप होता ही है । क्रममा कार्यकारणमूलक ही नही होता, जिनमे कार्यकारणात्मक सवय नही होता उनमे भी क्रमभाव होता है । इस आधार पर पूर्वचर और उत्तरचर हेतु बनते हैं। मुहूत के पश्चात् रोहिणी का उदय होगा, क्योकि इस समय कृत्तिका उदित है। मुहूर्त पहले पूर्वाफाल्गुनी का उदय हो चुका है, क्योकि इस समय उत्तराफाल्गुनी उदित है। पूर्वचर और उत्तरचर मे समय का व्यवधान होता है, इसलिए ये स्वभावहेतु और कार्यहेतु नही हो सकते । तादात्म्य मध समकालीन वस्तुओ मे होता है और तदुत्पत्ति सवध अव्यवहित पूर्वोत्तर-क्षणपती पदार्यों में होता है। इस प्रकार उन दोनो मे समय का व्यवधान नहीं होता। जही समय का व्यवधान होता है वहा कार्यहेतु नही होता। इसीलिए पूर्वचार और उत्तरपर मे क्रममाव होने पर भी उन्हे कार्यहेतु की कोटि मे नही रखा जा सकता । कारण वही होता है जो कार्य की उत्पत्ति मे व्यापृत है। कुमकार घट की उत्पत्ति में व्याप्त होता है तब उसे घट का कारण माना जाता है। कार्य के प्रति व्यापृत वही होता है जो विद्यमान होता है। जो नट हो चुका है अथवा जो अभी उत्पन्न ही नही हुआ है वह असत् है। असत् किसी कार्य की उत्पत्ति मे व्यापृत नही होता। जो कार्य की उत्पत्ति मे व्यापृत नही होता उसे कारण नही माना जा सकता। मुहत्त के पश्चात् होने वाला रोहिणी का उदय अनागत होने के कारण असत् है तथा मुहत्त पूर्व उदित पूर्वाफाल्गुनी अतीत होने के कारण असत् है । इसलिए कृत्तिका को रोहिणी का और पूर्वा-फाल्गुनी को उत्तराफाल्गुनी का कारण नही माना जा सकता । कृत्तिका के पश्चात् रोहिणी के उदय का क्रम नियत है तथा उत्तराफाल्गुनी के पहले पूर्वाफाल्गुनी का उदय नियत है। उनके क्रम मे कोई नियमभग नही है, इसलिए पूर्व चर और उत्तरपर--दोनो गमक हैं और जो गमक होता है उसे हेतु मानने में कोई विप्रतिपत्ति नही होती। वीर मानते हैं कि स्वभाव और कार्य मे ही तादात्म्य और तदुत्पत्ति रहती है और उसीके आधार पर जाप्य और ज्ञापक का सम्वन्न होता है, इसलिए उन्ही कार्य और स्वभाव से वस्तु अर्थात् विधि की सिद्धि होती है। इस प्रकार वे विधिसाधक हेतु दो ही मानते हैं-स्वभावहेतु और कार्यहेतु । उनके अनुसार कार्य कारण Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 115 ) के बिना नही हो सकता, इसलिए कार्य का कारण के साथ अविनाभाव सम्बन्ध है । कार्य कारण के बिना भी होता है, इसलिए कारण का कार्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध नहीं है । कारण का कार्य के साथ अविनाभाव नहीं है, इसीलिए कारण हेतु नही बन सकता। कारणहेतु के समर्थन मे जैन परम्परा का तर्क यह है प्रत्येक कारण हेतु नही होता। किन्तु वह कारण हेतु अवश्य होता है जिसकी शक्ति प्रतिबन्धक तत्वो से प्रतिबन्धित न हो और जिसकी सहकारी सामग्री विद्यमान हो । अप्रतिबधित शक्ति और सहकारी सामग्री से युक्त कारण कार्य को अवश्य उत्पन्न करता है, इसलिए इस प्रकार के कारण का कार्य के साथ अविनामाव होता है । अधेरी रात मे प्राम चूसने वाला व्यक्ति रस को उत्पन्न करने वाली सामग्री का अनुमान करता है । जो रस चूसा जा रहा है वह कार्य है । वह पूर्वक्षणवर्ती रस और रू५ के द्वारा उत्पन्न हुआ है, इसलिए वह उत्तरक्षणवर्ती रस-विज्ञान का कारण है। यह कार्य से कारण का अनुमान है। श्राम चूसने वाला उस पूर्वक्षणवर्ती रूप से वर्तमान क्षणवर्ती रूप का अनुमान करता है। यह कारण से कार्य का अनुमान है । बौद्धमतानुसार पूर्वक्षणवर्ती रस, रूप आदि मिलकर ही उत्तरक्षणवर्ती रस उत्पन्न करते हैं । पूर्वक्षणवर्ती रस उत्तरक्षणवर्ती रस का उपादान कारण होता है और रूप सहकारी कारण । इस प्रकार पूर्वक्षणवर्ती रूप से जो उत्तरक्षणवर्ती रूप का अनुमान किया जाता है वह कारण से कार्य का अनुमान है। अविनामाच (व्याप्ति) को जानने का उपाय अविनाभाव के लिए अकालिक अनिवार्यता अपेक्षित है। अनिवार्यता की कालिकता का बोध हुए विना अविनाभाव का नियम निर्धारित नहीं किया जा सकता । नयायिक मानते हैं कि भूयो दर्शन से अविनामाव का वोध होता है । पार-बार दो वस्तुओ का साहचर्य देखते हैं तव उस साहचर्य के आधार पर नियम का निर्धारण कर लेते हैं : नियम का आधार केवल साहचर्य ही नहीं होता, किन्तु व्यभिचार (अपवाद) का अभाव भी होना चाहिए । इस प्रकार व्याप्तिमान के लिए दो विषयो का शान आवश्यक है साहचर्य का ज्ञान तथा व्यभिचारमान का अभाव । घूम के साथ अग्नि का साहचर्य है और धूम के साथ अग्नि का व्यभिचार कही भी प्राप्त नहीं है, अत अव्यभिचारी साहचर्य-सम्बन्ध के शान से व्याप्ति का वोध होता है। डानिन तथा उसके अनुगामी विकासवादी शानिको ने माना है कि यद्यपि प्रकृति नियमबद्ध चलती है, फिर भी कभी-कभी और कही-कही उत्प्लवन भी होता है, छला। भी होती है । इस प्लुतसचारवाद के अनुसार सामान्य नियम का अतिक्रमण भी होता है । हम इन्द्रियनान के द्वारा विशेषो को जान लेने हैं, पर विशेषो मे Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 116 ) सामान्य विषयक सूत्रो को खोजना और उनमे अनिवार्यता का पता लगाना बहुत कठिन है । कालिकता का प्रश्न और भी टेढा है। अविनाभाव तब बनता है जब कालिक अव्यभिचार हो किसी भी देश-काल मे उसका अपवाद न हो । वर्तमान मे साहचर्य के अव्यभिचार को जाना जा सकता है । स्मृति की परिधि मे रहे हुए अतीत मे भी जाना जा सकता है। किन्तु स्मृति की परिधि से मुक्त अतीत मे और अनन्त भविष्य मे साहचर्य का नियम नही ही बदलेगा- इसका नियमन को किया जा सकता है ? इसलिए अविनाभाव के नियम के साथ जुडी हुई कालिकना की शर्त अवश्य ही परीक्षा की कसौटी ५२ कमने योग्य है । हम नियम की सरचना उपलब्ध नान-सामग्री के आधार पर करते हैं। अनुपलव्य जान उपलब्ध ज्ञान से बहुत विशाल है, फिर हम अविनाभाव के नियम को निरपेक्ष का मान सकते हैं ? अविनाभाव का नियम उपलब्ध जान-सापेक्ष ही होना चाहिए । जन ताकिको ने भी अविनाभाव के नियम का कालिक आधार माना है । ५२ निरन्तर विकासमान जान और अनुपलब्धि से उपलब्धि की ओर बढ़ते हुए मानवीय जान-विजान के चरण यह सोचने के लिए बाध्य करते हैं कि व्याप्ति के पीछे जुडा हुआ कालिकता का विशेषण निरपेक्ष नही हो सकता। मैं देख रहा हूँ कि वजानिक तथ्यों के उद्घाटित हो जाने पर अनेक व्याप्तिया खण्डित हो चुकी हैं । यह नहीं कहा जा सकता कि सारी व्याप्तिया सही ही हैं । जिस काल मे व्याप्तिया निश्चित की गई, अविनाभाव के नियम निर्धारित किए गए, उस समय उन्हे कालिक सत्य समझा गया था। किन्तु उत्तर काल मे उनकी सत्यता वैसी ही रहती है, यह कहना सभव नहीं है । व्याप्ति के निर्माण मे हमारा प्रत्यक्ष ही काम करता है। बार-बार निरीक्षण के द्वारा जब हम एक ही तथ्य की पुनरावृत्ति देखते हैं तब एक व्याप्ति बना लेते है इसके होने पर यह होगा और इसके न होने पर यह नही होगा। व्याप्ति वादी और प्रतिवादी दोनो पक्षो द्वारा मान्य होनी चाहिए-यह सिद्धान्त सर्वमान्य रहा है । जिसकी व्याप्ति प्रमाण से निश्चित नहीं होती उसे हेतु नही माना जाता, किन्तु असिद्धहेत्वाभास माना जाता है । शब्द परिणामी है, क्योकि चाक्षुप है । यह चाक्षुषत्व हेतुवादी और प्रतिवादी दोनो के लिए प्रसिद्ध है । शब्द की व्याप्ति चक्षु के साथ नही है, इसलिए शब्द का चाक्षुष होना सिद्ध नही है। 'वृक्ष चेतन हैं, क्योंकि वे सोते हैं ।' अथवा 'वृक्ष चेतन हैं, क्योकि सब छाल के निकलने पर वे मर जाते हैं ये हेतु प्रतिवादी पौर के लिए प्रसिद्ध है । वे मानते हैं कि पक्षभूत वृक्षो का पत्तों के मिकुडने से लक्षित सोना अशत सिद्ध नही है, क्योकि सब वृक्ष गत मे पत्त नही मिकोडते, किन्तु कुछ वृक्ष ही ऐसा करते हैं । वौद्ध विनान, इन्द्रिय और श्रायु के निरोध को ही मृत्यु का लक्षण मानते हैं और वह (मृत्यु) वृक्षो मे सभव नहीं है । सपूर्ण चाल के निकालने की मरने के साथ जो Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 117 ) व्याप्ति जनो ने निश्चित की, उसके प्रतिकार मे बौद्ध कहते हैं-'जनवादी ने साध्य के द्वारा व्याप्त अथवा अन्याप्त मृत्यु का विवेक किए बिना मृत्युमात्र को हेतु कहा है । वादी ने हेतुभूत मरण को नहीं समझा और इस अज्ञान के कारण उसके लिए शुष्कतारूप म२६॥ वृक्षो मे दीखने के कारण सिद्ध है । प्रतिवादी को पता होने के कारण प्रसिद्ध है । यदि वादी को भी पता होगा तो उसके लिए भी प्रसिद्ध होगा, यह नियम से कहा जा सकता है। जैन ताकिक मानते हैं कि 'वृक्ष चेतन है', इसका शान बौद्धो को होता तो उक्त हेतु प्रसिद्ध नही होता । इसलिए वे कहते हैं-'वृक्ष अचेतन हैं, क्योकि उनका विज्ञान, इन्द्रिय और आयु की समाप्तिरू५ मरण नही होता । यह हेतु वादी बौद्ध के लिए सिद्ध है, किन्तु प्रतिवादी जन के लिए प्रसिद्ध है । अविनाभाव के नियम बहुत विवादास्पद रहे है। प्राकृतिक तथ्यो मे सबद्ध व्याप्तिया भी भिन्न-भिन्न रही हैं। उनमें से एक का उल्लेख उपर किय गया है। संद्धान्तिक विपयो से संबद्ध व्याप्तिया वहत ही भिन्न हैं। जिस दर्शन का जो सिद्धान्त रहा, उसने उसीके श्राधार पर व्याप्ति का निर्माण किया, जैसे -- 1 जैन परिणाम नित्यत्ववादी हैं। इस परिणामि-नित्यता के आधार पर उन्होंने एक व्याप्ति निश्चित की- जो सत् है वह उत्पाद, व्यय, ध्रौव्ययुक्त है अर्थात् एक साथ नित्य और अनित्य दोना है। 2 वीरो ने क्षणिकवाद के आधार पर यह व्याप्ति निश्चित की जो सत् है वह क्षणिक है अर्थात् सत् केवल अनित्य है । 3 नैयायिक, वैशेषिक दर्शन कुछ द्रव्यो को नित्य मानते हैं और कुछ को अनित्य मानते हैं । इसलिए सत् के विषय में उनकी न्याप्ति भिन्न प्रकार की होगी। इन उदाहरणो से समझा जा सकता है कि अविनाभाव के नियम-निर्धारण के प्राधार (सहभाव और क्रममाव) के विषय मे सब की समिति समान होने पर भी उनके फलित समान नहीं हैं। इसका कारण यही प्रतीत होता है कि सूक्ष्म सत्यो के विषय मे सबक सिद्धान्त समान नही हैं । यह सैद्धान्तिक असमानता ही अविनाभाव के नियमो मे विभिन्नता लाती है। ___ यह हो सकता है कि नए रहस्यो के उद्घाटन के पश्चात् सर्वसम्मत व्याप्तिया भी बदल जाए, अविनाभाव के नियम खडित हो जाए । 1 न्यायबिन्दु (गोविन्दचन्द्र पाण्डे कृत अनुवाद) पृ०० 85 । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 118 ) भीमासप्रवर कुमारिल ने लिया है 'यनाप्यतिशयो दृप्ट म स्वार्यानतिलधनान् । दूरसूक्ष्मादि टी स्थान, न रूपे श्रोनवृत्तिता ।। ‘जहा विशेषता दिखाई देती है, वह उनकी मीमा में ही होती है । सीमा का अतिक्रमण कर वह नहीं होती । देखने मे प्राय की पटुता का प्रति जय हो सकता है-दूरस्थ और सूक्ष्म वस्तु को देखा जा सकता है। किन्तु इस पटुता का विकास यहा तक नही हो सकता कि श्राव सुनने भी लग जाए । जब मैंने यह श्लोक पढा तब मेरे मन मे प्रश्न उठा कि यह निरपण जनसम्मत नहीं है । जन मानते हैं कि 'सभिन्नयोतोपलब्धि' का विकास होने ५२ .न्द्रियो की प्रतिनियतार्याहिता समाप्त हो जाती है। फिर किसी भी न्द्रिय मे किनी भी इन्द्रिय का काम लिया जा सकता है, पाव से देखा भी जा सकता है, मुना भी जा सकता है और स्पर्शवोध भी किया जा सकता है। वर्तमान का विमान भी इस सत्य की पुष्टि करता है कि शरीर विमान के अनुसार शरीर के मव कोप एक जैसे है । कुछ कोपो ने विशेषज्ञता प्राप्त करली है । यदि प्रशिक्षित की जाए तो श्राव की चमडी भी देख सकती है । कान की हडियो की तुलना मे दात ध्वनि का अपेक्षाकृत अच्छा वाहक है । एक उपकरण को दातो मे फिट कर उनसे कान का काम लिया जा सकता है । इन वजानिक उपलब्धियों के पश्चात् 'जो श्रोनगाह्य है वह गद है' इस व्याप्ति को बदलना पडेगा । उसके दतग्राह्य होने पर श्रीजग्राह्यता का નિયમ સાર્વમમ ન હતા ! મૈને તત્ત્વાયંત્ર ી, સિદ્ધસેના િત માવ્યાનુસાર टीका मे पढ़। 'गुलियो से पढा जा सकता है।' उस पर मुझे आश्चर्य हुआ। कुछ समय पूर्व वजानिक पत्रिकामी मे पढ़ा कि रूस मे एक लडकी अगुलियो से पढ़ लेती है । फास मे एक लड़की अशुलियो से २॥ पहिचान लेती है । यह कोई जादूटोना या मजाक्ति नही है । उनकी अगुलियो के ज्ञान तन्तु इतने विकसित हो गए कि वे आख का काम दे सकते हैं । हमारे शरीर के हर हिस्से मे पैतन्य है । उसे विकसित कर लेने ५२ गरीर का प्रत्येक भाग वाह्य विपयो को जान सकता है। एक व्याप्ति है - जो भारी है वह नीचे जाता है, जैसे वृक्ष का सयोग टूट जाने पर फल, भारी होने के कारण, नीचे गिरता है । 'जहाँ-जहा गुरुत्व है, वहापहा अधोगमन है' इस प्राचीन व्याप्ति का, न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण (Theory of Gravitation) और श्राइस्टीन के आकाशीय 4ता (Curvation of Space) के सिद्धान्त के पश्चात्, स्वरूप बदल जाता है। भारी वस्तु नीचे जाती है और हल्की वस्तु ऊपर जाती है-यह सिद्धान्त वजन के आधार पर बना हुआ है । न्यूटन ने यह स्थापित किया कि दो जड वस्तुओं के द्रव्यमान (Mass) और उनके बीच की 2 २लोकवात्तिक, सूत्र 2, २लो० 114 । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 119 ) दूरी के आधार पर अधोगमन और ऊर्ध्वगमन होता है । दोनो वस्तुए एक-दूसरे को श्राकर्षित करती हैं, गतिमान् बनाती हैं । जिसका द्रव्यमान अधिक होता है वह दूरी के अनुपात मे, कम द्रव्यमान वाली वस्तु को आकर्षित कर लेती है । पृथ्वी का द्रव्यमान फल के द्रव्यमान की अपेक्षा अत्यधिक है, इसलिए वह फल को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है । श्राइस्टीन ने इसमे संशोधन प्रस्तुत किया । उसके अनुसार पदार्थ अपने द्वारा अवगाहित श्राकाशीय क्षेत्र मे वक्ता उत्पन्न करता है । उस वक्रता के श्रावार पर अधोगमन होता है । एक विषय मे जैसे-जैसे सिद्धान्त बदलता है वैसे-वैसे उसके आधार पर निर्मित नियम भी बदल जाते हैं । वर्तमानज्ञान के आधार पर नियमों का निर्धारण होता है । नया ज्ञान उपलब्ध होने पर नियम भी नए बन जाते है | इसलिए अविनाभाव या व्याप्ति की पृष्ठभूमि में कालिक बोध नही होता, कालिक फिर भी हो सकता है । भविष्य की बात भविष्य पर छोड देनी चाहिए । इन्द्रिय और मानसज्ञान की एक निश्चित सीमा है, इसलिए उन पर हम एक सीमा तक ही विश्वास कर सकते है । कालिकबोध प्रतीन्द्रिय-ज्ञान का कार्य है और वह प्रत्यक्ष है, इसलिए वह अनुमान की सीमा से परे है । व्याप्ति और हेतु की सीमा का बोध न्यायशास्त्र के विद्यार्थी के लिए बहुत आवश्यक है । इस बोध के द्वारा हम श्रनिश्चय या सदेह की कारा मे बन्दी नही बनते किन्तु अवास्तविकता को वास्त विकता मानने के अमिनिवेश से मुक्त हो सकते है श्रीर नई उपलब्धियों के प्रति हमारी ग्रहणशीलता प्रवाधित रह सकती है । पश्चिमी दार्शनिक ह्यूम ने कार्य-कारणमूलक क्रमभाव की आलोचना की है । उनके अनुसार कार्य-कारण का सम्बन्ध जाना नही जा सकता । हमे पृथक्पृथक् सवेदनो या विज्ञानो के श्रानन्तर्य सम्बन्ध का अनुभव होता है, उनके आन्तरिक अनिवार्य सम्बन्ध (Causation) का अनुभव नही होता । वस्तुनो मे ऐसा कोई अनिवार्य सम्वन्ध हमे प्रतीत नही होता । हमारे विज्ञानो के आनन्तर्यभाव को, उनकी इस अपेक्षा से कि एक के बाद तुरन्त दूसरा आता है, हम अपने अभ्यास के कारण भ्रमवश एक आन्तरिक और अनिवार्य कार्यकारणभाव नामक सम्बन्ध मान बैठते हैं । विश्व की एकरूपता (Uniformity of Nature) के नियम का हमे अनुभव नही हो सकता । इन्द्रियो के द्वारा हम किसी प्रकार की सार्वभौमिकता या अनिवार्यता के सिद्धान्त पर नही पहुच सकते । ह्य ूम के अनुसार कार्यकारणभाव के अनिवार्य और आवश्यक सम्बन्ध का ज्ञान न प्रत्यक्ष से हो सकता है और न अनुमान से । श्राचार्य हेमचन्द्र ने भी यह प्रश्न उपस्थित किया कि व्याप्ति कैसे जानी जा सकती है ? इस प्रश्न के उत्तर मे उन्होने अपना निर्णय यह दिया कि इन्द्रिय-प्रत्यक्ष से व्याप्ति का निश्चय नही किया 3 पाश्चात्य दर्शन, पृष्ठ 161, 162 । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 120 ) जा सकता । यदि उससे व्याप्ति का निचय किया जाए तो सार कार्य प्रत्यक्ष ने ही हो जाएगा, फिर व्याप्ति की अपेक्षा ही नही हेगी। इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का व्यापा. नियमत सन्निहित (वर्तमान में निहित) है । यही उनके व्यवसाय की सीमा है। उसके आधार पर न कोई नियम बनाया जा सकता है और न किसी नियम का निश्चय किया जा सकता है। अनुमान मे व्याप्ति का निरचय पारने मे वही अन्योन्याश्रयदोष श्राएगा एक की सिद्धि दूसरे ५. निर्भर होगी । व्याप्ति के लिए अनुमान और अनुमान के लिए व्याप्ति के नाम का कही अन्त नहीं होगा। व्याप्ति का निश्चय करने के लिए एका ल्वन माननविकल्प की अपेक्षा है। जो उपलभ और अनुपलम के आधार पर माच्य और साधन के सम्बन्ध का परीक्षा कर व्याप्ति का निवारण या निश्चय करे उम मानस-विकल्प की सना 'तक' है, जिसकी चर्चा पूर्व पृष्ठी मे की जा चुकी है। तकनान के द्वारा तादात्म्यमूलक सहमा तथा तादात्म्यभून्य सहभाप के बीच भेदरेखा खीची जाती है । इसी प्रकार तदुत्पत्तिमूलक क्रममाव या कार्यकारणभाव तथा तदुत्पनिशून्य कमभाव का अन्तर जाना जाता है। अग्नि और घूम मे आनन्तर्य सम्बन्ध नहीं है, किन्तु श्रान्तरिक अनिवार्य सम्बन्व है। अनि जनक है और धूम जन्य है, इसलिए उनमे आन्तरिक अनिवार्यता है। रविवार के अनन्तर सोमवार आता है- उनमें केवल प्रानन्तर्य है। रविवार सोमवार को उत्पन्न नहीं करता, इसलिए उनमे जन्य-जनकभाव या आन्तरिक अनिवार्यता नहीं है। यह सच है कि श्रानन्तर्य के आधार पर कार्यकारण सम्बन्ध की कल्पना करना मिथ्याज्ञान है और यह भी सच है कि इन्द्रियानुभव विशेपो तक सीमित है, इसलिए वह सामान्य या सार्वभौम अनिवार्य नियम को प्रकल्पना नही कर सकता, किन्तु इस सचाई को हम अस्वीकार नही कर सकते कि मानस-विकल्प का स्वतत्र कार्य भी है। यह केवल इन्द्रियानुभव से प्राप्त सवेदनो या विमानो का पृथक्करण या एकीकरण ही नही करता, इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ करता है। जहा सवेदन की गति नहीं है वहा मानस-विकल्प को पहुच नही है यह वात अनुभवविक्ष है। वह इन्द्रिय-परतन्त्र है, पर सर्वथा इन्द्रिय-परतत्र नहीं है, स्वतत्र भी है। वह अपनी स्वतंत्रता का उपयोग कर सामान्य या सार्वभौम अनिवार्य नियम का निश्चय करता है। रविवार और सोमवार मे होने वाले अधिनाभाव नियम का आकार केवल श्रानन्तर्य है। जैन ताकिको ने नियमित प्रानन्तर्य के आधार पर अविनामाव का नियम निश्चित किया है। सोमवार रविवार के बाद ही आता है, इसलिए वे परस्पर गमक होते हैं । रोहिणी नक्षत्र कृत्तिका नक्षत्र के वाद ही उदित होता है, इसलिए वे परस्पर गमक होते हैं । पूर्वचर और उत्तरचर हेतु की कार्य-कारणहेतु से पृथक प्रकल्पना कर जन ताकिको ने आनन्तर्य और कार्यकारणभाव के पार्यक्य का स्५८ वोध प्रस्तुत किया है। इसी Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 121 ) प्रकार उन्होंने इन्द्रियानुभव तथा इन्द्रियानुभव-परतत्र मानस-विकल्प से स्वतन्त्र मानस-विकल्प की स्थापना कर अविनाभाव या व्याप्ति के निश्चय की समस्या को समीचीनरूप मे समाहित किया है । । अक्सिवादिता प्रत्येक प्रमाण की कसौटी है । विसवादी ज्ञान प्रमाण नहीं होता, फिर प्राप्त को अविसवादी या अवचक कहने का हेतु क्या है ? प्राप्त के वचन से होने वाला अर्य का सवेदन आगम है। जिसके वचन से अर्य का सवेदन हुआ है वह व्यक्ति यदि प्राप्त है अविसवादी वचन का प्रयोक्ता है, तो उसका वचन भी प्रमाण होगा। यदि वह व्यक्ति विसवादी वचन का प्रयोक्ता है तो उसका वचन प्रमाण नही होगा। जो दूसरे को बता रहा है उसे यथार्थ ज्ञान होना चाहिए और उस ज्ञान के अनुसार ही उसका वचन होना चाहिए । प्राप्तत्व की कसौटी है यथार्य ज्ञान और यथार्थ वचन । अविसवादिता प्रत्येक प्रमाण की कसौटी है, पर जब हम एक व्यक्ति के वचन को प्रमाण मान लेते हैं वहा हम स्वयं पर निर्भर नही रहते, उस पर निर्भर हो जाते हैं। इन्द्रियानुभव मे हम इन्द्रियों पर निर्भर होते हैं। उसमे इन्द्रियो की अविसवादकता अनिवार्यत अपेक्षित है, पर वह स्वयं से भिन्न नही है । आगम मे अविसवादिता दूसरे व्यक्ति से जुडी रहती है, इसलिए दूसरे व्यक्ति की प्रामाणिकता मुख्य रहती है । इसीलिए प्राप्त के साथ 'अविसवादी' या 'अवचक' विशेष जोडा जाता है। 2 श्राप्तत्व का निर्णय कसे होगा ? एक व्यक्ति एक विषय मे प्राप्त हो सकता है और दूसरे विषय मे अनाप्त, फिर उसे प्राप्त माने या अनाप्त ? श्राप्तत्व को हम सीमा मे नही बाध सकते। जहा-जहा अविसवादिता या अवचकता है वहा-वहा प्राप्तत्व है। जहा विसवादिता या वचकता है वहा-वहा आतत्व नही हो सकता । तर्क के धरातल पर हम किसी भी लौकिक पुरुष को सार्वभौम प्राप्त नही मान सकते। 3 तादात्म्यमूलक उदाहरण दें । पूर्वापरत्व के उदाहरण मे क्या अन्तर है, वह समझना चाहता हु । अविनाभाव या व्याप्ति का आधार केवल तादात्म्य सम्बन्ध ही नही है, श्रानन्तर्य सम्बन्ध भी उसका प्राधार बनता है। रविवार और सोमवार मे तादात्म्य सम्बन्ध नही है। सोमवार रविवार से उत्पन्न नही होता, इसलिए उसका रविवार से तदुत्पत्ति सम्बन्ध भी नहीं है, किन्तु सोमवार रविवार के अनन्तर ही होता है, Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 122 ) उससे पहले नहीं होता। यह प्रानन्तयं या कमभाव भी मामान्य या मा मोम नियम का प्राधार बनता है। एक के अनन्तर दूसरी घटना अनिवार्यत. चरित होती है, उसके आधार पर भौतिकशास्त्री अनेक नियम निर्धारित करते हैं। उत्तरवर्ती पर्याय का पूर्ववर्ती पर्याय के साथ अनिवार्य सम्पन्न होता है तो पूर्ववर्ती पर्याय उत्तरवर्ती पर्याय का और उत्तरवर्ती पर्याय पूर्ववर्ती पर्याय का गमक हो सकता है । पूर्वपर पीर उत्तरचर मे क्यधिकरण्य होता है, वे एक आधार मे नहीं होते, फिर भी उनका अानन्तर्य कही और कभी वाधित नहीं होता। तादात्म्य में शिपा से वृक्षत्व को पृय नही किया जा सकता। रविवार और मोमवार मे तादात्म्य सम्बन्ध नही है, इसलिए इन्हे पृथक किया जा सकता है, किन्तु इनके प्रानन्तर्य सम्बन्ध को नहीं तोड़ा जा सकता। आनन्तर्य तादात्म्य की भाति गमक हो सकता है, इसलिए इसके आधार पर सामान्य नियम बनाने मे कोई वाचा नहीं पा ।। OOD Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :9 . भारतीय प्रमाण-शास्त्र के विकास में जैन __परंपरा का योगदान विचार-स्वातंत्र्य की दृष्टि से अनेक परम्परात्री का होना अपेक्षाकृत है और विचार-विकास की दृष्टि से भी वह कम अपेक्षित नही है। भारतीय तत्व-चिन्तन की दो प्रमुख धाराए हैं- श्रमण और वैदिक । दोनो ने सत्य की खोज का प्रयत्न किया है, तत्व-चिन्तन की परम्परा को गतिमान बनाया है। दोनो के वैचारिक विनिमय और सक्रमण से भारतीय प्रमाणशास्त्र का कलेवर उपचित हुआ है। उसमे कुछ सामान्य तत्त्व हैं और कुछ विशिष्ट । जन परम्परा के जो मौलिक और विशिष्ट तत्व है उनकी सक्षिप्त पर्चा यहा प्रस्तुत है । जन मनीषियों ने तत्त्व-चिन्तन मे अनेकान्तष्टि का उपयोग किया । उनका तत्व-चिन्तन स्यावाद की भाषा मे प्रस्तुत हुआ । उसकी दो निष्पत्तिया हुई-सापेक्षता और समन्वय । सापेक्षता का सिद्धान्त यह है एक विराट विश्व को सापेक्षता के द्वारा ही समझा जा सकता है और सापेक्षता के द्वारा ही उसकी व्याख्या की जा सकती है। इस विश्व मे अनेक द्रव्य हैं और प्रत्येक द्रव्य अनन्त पर्यायात्मक है। द्रव्यो मे परस्पर नाना प्रकार के सबंध है। वे एक दूसरे से प्रभावित होते हैं। अनेक परिस्थितिया हैं और अनेक घटनाए धरित होती हैं। इन सबकी व्याख्या सापेक्ष दृष्टिकोण से किए बिना विमगतिया का परिहार नही किया जा सकता। सापेक्षता का सिद्धान्त समग्रता का सिद्धान्त है। वह समग्रता के सदर्भ मे ही प्रतिपादित होता है । अनन्त धर्मात्मक द्रव्य के एक धर्म का प्रतिपादन किया जाता है तब उसके साथ 'स्यात्' शब्द जुड़ा रहता है। वह इस तथ्य का सूचन करता है कि जिस धर्म का प्रतिपादन किया जा रहा है वह समग्र नहीं है। हम समानता को एक साथ नही जान सकते । हमारा ज्ञान इतना विकसित नही है कि हम समग्रता को एक साथ जान सकें। हम उसे खडो में जानते हैं, किन्तु सापेक्षता का सिद्धान्त खड की पृष्ठभूमि मे रही हुई अखडता से हमे अनिभिज्ञ नही होने देता। निरपेक्ष सत्य की बात करने वाले इस वास्तविकता को भुला देते हैं कि प्रत्येक द्रव्य अपने स्वत्व मे निरपेक्ष है किन्तु सम्वन्धो के परिप्रेक्ष्य मे कोई भी निरपेक्ष नही है। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 124 ) व्याप्ति या अविनामाव के नियमों का निर्धारण मापेक्षता के सिद्धान्त पर ही होता है। स्यूल जगत् के नियम सूक्ष्म जगत् मे सटित हो जाते हैं। इसीलिए विश्व की व्याख्या दो नयो से की गई। वास्तविक या कम मत्य की व्याया निश्चय नय से और स्थूल जगत् या दृश्य सत्य की याया व्यवहार नय में की गई। प्रात्मा कर्म का कर्ता है यह सभी पास्तिक दीनो की स्वीकृति है, किन्तु यह स्थूल सत्य है और यह व्यवहार नय की भा५। है। निश्चय नय की भाषा यह नही हो सकती। वास्तविक सत्य यह है कि प्रत्येक द्रव्य अपने स्वभाव का ही का होता है। प्रात्मा का स्वभाव पतन्य है, अतः वह पतन्य-पर्याय नाही कर्ता हो सकता है। कर्म पीद्गलिया होने के कारण विभाव हैं, विजातीय हैं । इमलिए आत्मा उनका कत्ता नहीं हो सकता । यदि प्रात्मा उनका पात हो तो वह कर्म-चक्र से कभी मुक्त नहीं हो सकता । अत 'आत्मा फर्म का पाना है' यह भाषा व्यवहार सापेक्ष भाषा है। हम किसी को हल्का मानते हैं और किसी को भारी, किन्तु हल्कापन और भारीपन दे-सापेक्ष हैं । गुरुत्वाकर्षण की सीमा मे एक वस्तु दूसरी वस्तु की अपेक्षा हल्की-भारी होती है । गुरुत्वाकर्षण की मीमा का अतिक्रमण करने ५. वस्तु भारहीन हो जाती है। हम वस्तु की व्याख्या लम्बाई और चौडाई के रूप में करते है । मूर्त वस्तु के लिए यह व्याख्या ठीक है । अमूर्त की यह व्याल्या नही हो सकती। उसमे लम्बाई और चौडाई नहीं है। वह आकाश-देश का अवगाहन करती है पर स्थान नहीं रोकती। अत. लम्बाई और चौडाई भू-द्रव्य-मापेक्ष है । उता के रूप में विद्यमान ऊर्जा को गति में बदल देने पर उसकी मात्रा समान रहती है। यह उज्ाता-तिविज्ञान (योडायनेमिक्स) का पहला सिद्धान्त है । इसका दूसरा सिद्धान्त यह है कि किसी यत्र मे निक्षिप्त ऊर्जा की मात्रा मे कमी हो जाती है। वह कमश क्षीण होती जाती है। इसलिए किसी ऐसे यन्त्र का निर्माण सम्भव नही है जिसमे ऊर्जा का निक्षेप વિયા ના આર વદ અને દારા સવા અતિગીન વિના રહે છે વાનિકો દ્વારા यह सम्भावना व्यक्त की गई है कि हमारे देश और काल मे व्यवहार में प्रयुक्त कर्जा की अक्षीयता निप्पन नही हुई है। ५२ सम्भव है किसी देश और काल से वह क्षीण न हो और उस देश-काल मे यह सम्भव हो सकता है कि एक बार पत्र मे ऊर्जा का निक्षेप कर देने पर वह सदा गतिशील बना रहे । इन कुछ उदाहरणो से हम समझ सकते है कि विशिष्ट देश और काल की व्याप्तिया सवत्र लागू नहीं होती। इसलिए उनका निवारण सापेक्षता के सिद्धान्त के आधार पर किया जाता है। साख्यिकी (statistics) और भौतिकविजान (Physics) के अनेक सिद्धान्तो की व्याख्या सापेक्षता के सिद्धान्त से की जा सकती है। 1 देखें पाचवा प्रकरण 'स्यादवाद और सप्तभनी न्याय ।' Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 125 ) स्थावाद की दूसरी निपत्ति समन्वय है । जैन मनोपियों ने विरोधी धर्मों का एक साथ होना असम्भव नही माना । उन्होने अनुभवसिद्ध अनित्यता आदि धर्मों को स्वीकार नहीं किया, किन्तु नित्यता आदि के साथ उनका समन्वय स्थापित किया । तर्फ से स्थापना और तक से उसका उत्यापन- इस पद्धति मे तर्क का चक्र पलता रहता है । एक तर्क-परम्परा का अभ्युपगम है कि शब्द अनित्य है, क्योकि पह कृतक है । जो कृतक होता है वह अनित्य होता है, जैसे पडा। दूसरी तर्कपरम्परा ने इसका प्रतिपादन किया और वह भी तर्क के आधार ५• किया कि शब्द नित्य है, क्योकि यह प्रकृतक है । जो प्रकृतक होता है वह नित्य होता है, जैसे आकाश । इन दो विरोधी तर्कों मे समन्वय को खोजा जा सकता है। विरोध समन्वय का जनक है । 'शब्द अनित्य है - यह अभ्युपगम इसलिए सत्य है कि एक क्षण मे शब्द श्रीन्द्रिय का विषय बनता है और दूसरे क्षण मे वह अतीत हो चुका है । इस परिवर्तन की दृष्टि से शब्द को अनित्य मानना असगत नही है। मीमासको ने शब्द के उपादानभूत स्फोट को नित्य माना, वह भी अनुचित नही है। भाषावर्गणा के पुद्गल शब्दरूप मे परिणत होते हैं और वे पुद्गल कभी भी अ-पुद्गल नही होते । इस अपेक्षा से उनकी नित्यता भी स्थापित की जा सकती है । सापेक्ष सिद्धान्त के अनुसार वस्तु का निरपेक्ष धर्म सत्य नही होता । वे समन्वित होकर ही सत्य होते है । साय॥ माधवाचार्य (ई० 1300) ने 'सर्वदर्शनसग्रह' नामक ग्रन्थ की रचना की। उसमे उन्होने पूर्व दर्शन का उत्तर दर्शन से खण्डन करवाया है और अन्तिम प्रतिष्ठा वेदान्त को दी है। प्रखर ताकिक मल्लवादी (ई० 4-5 शती) ने द्वादशा-नयचक्र की रचना की। उसमे एक दर्शन का प्रस्थान प्रस्तुत होता है। दूसरा उसका निरसन करता है। दूसरे के प्रस्थान का तीसरा निरसन करता है। इस प्रकार प्रस्थान और निरसन का चक्र चलता है। उसमे अन्तिम प्रतिष्ठा किसी दर्शन की नही है सब दर्शनो के नय समन्वित होते हैं तब सत्य प्रतिष्ठित हो जाता है। एक-एक नय की स्वीकृति मिथ्या है। उन सबकी स्वीकृति सत्य है। इस समन्वय के दृष्टिकोण ने तर्क-शास्त्र को पिता के पात्याचक्र से मुक्त कर सत्य का स्वस्थ प्राधार दिया। जैन प्रमाण-शास्त्र की दूसरी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है-प्रमाण का वर्गीकरण । प्रत्यक्ष और परोक्ष इस वर्गीकरण मे सकीर्णता का दोष नही है। इसमे सब प्रमाणो का समावेश हो जाता है । हम या तो ज्ञेय को साक्षात् जानते हैं या किसी माध्यम से जानते हैं । जानने की ये दो ही पद्धतिया हैं । इन्ही के आधार पर प्रमाण के दो मूल विभाग किए गए हैं । वौद्ध और शपिक ताकिको ने प्रत्यक्ष और अनुमान--दो प्रमाण माने तो आगम को उन्हे अनुमान के अन्तर्गत मानना पडा । श्रागम को अनुमान के अन्तर्गत मानना निर्विवाद नही है । परोक्ष प्रमाण मे अनुमान, आगम स्मृति, तर्क आदि सबका समावेश हो जाता है और किसी का लक्षण साकर्यदोष, Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 126 ) से दूषित नहीं होता। इस दृष्टि से प्रमाण का प्रस्तुत वर्गीकरण सर्वग्राही और वास्तविकता पर आधारित है। इन्द्रियनान का व्यापार-कम (अवग्रह, ईहा अवाय और धारणा) भी जन प्रमाण-शास्त्र का मालिक है । इसकी चर्चा पहले प्रकरण 'भागमयुग का जन-न्याय' मे तथा छठ प्रकरण 'प्रमाण-व्यवस्था' में की जा चुकी है। मानस-शास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से यह बहुत ही महत्वपूर्ण है। तर्कशास्त्र मे स्वत प्रामाण्य का प्रश्न बहुत चचित रहा है। जन तर्क-परम्परा मे स्वत प्रमाण मनुष्य का स्वीकृत है। मनुष्य ही स्वत प्रमाण होता है, अन्य स्वत प्रमाण नहीं होता। अन्य के स्वत प्रामाण्य की अस्वीकृति और मनुष्य के स्वत प्रामाण्य की स्वीकृति एक बहुत विलक्षण सिद्धान्त है । पूर्वमीमासा ग्रन्थ का स्वत प्रामाण्य मानती है, मनुप्य को स्वत प्रमाण नही मानती। उसके अनुसार मनुष्य वीतराग नहीं हो सकता, और वीतराग हुए बिना कोई सर्वन नही हो सकता और अ-सर्वन स्वत प्रमाण नही हो सकता। जैन चिन्तन के अनुसार मनुष्य वीतराग हो सकता है और वह केवल नान को प्राप्त कर सर्वन हो सकता है। इसलिए स्वत प्रमाण मनुष्य ही होता है। उसका पचनात्मक प्रयोग, अन्य या पाइ मय भी प्रमाण होता है, किन्तु वह मनुष्य की प्रामाणिकता के कारण प्रमाण होता है इसलिए वह स्वत प्रमाण नहीं हो सकता । पुरुष के स्वत प्रामाण्य का सिद्धान्त जन तकशास्त्र की मौलिक देन है। समूची भारतीय तर्क-परम्परा मे सर्वशत्व का समर्थन करने वाली जैन परम्परा ही प्रधान है । समूचे भारतीय वाड मय मे सर्वजत्व की सिद्धि के लिए लिखा गया विपुल साहित्य जैन परम्परा मे ही मिलेगा। वौद्धो ने बुद्ध को स्वत प्रमाण मानकर अन्य का परत प्रामाण्य माना है। किन्तु वे बुद्ध को धर्मन मानते हैं, मर्वज्ञ नही मानते । पूर्वमीमासा के अनुसार मनुष्य धर्मन भी नही हो सकता। बौद्धो ने इससे आगे प्रस्थान किया और कहा कि मनुष्य धर्मज हो सकता है । जैनो का प्रस्थान इससे आगे है । उन्होंने कहा गनुष्य सर्वज्ञ भी हो सकता है। कुमारिल ने समन्तभद्र के सर्वशता के सिद्धान्त की कडी भीमासा की है । धर्मकीति ने मर्वजता पर तीखा व्यग कसा है । उन्होंने लिखा है "दूर पश्यतु वा मा वा तत्वमिष्ट तु पश्यतु । प्रमाण दूरदर्शी देत गृध्रानुपास्महे ।" ___1 प्रमाणवात्तिक, 1/34 हेयोपादेयतत्त्वस्य, साभ्युपायस्य वेदक । य प्रमाणममाविष्टो, न तु सर्वस्य वेदक ॥ ___2 प्रमाणवातिक, 1/351 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 127 ) 'इष्ट तत्व को देखने वाला ही हमारे लिए प्रमाण है, फिर वह दूर को देखे या न देखे । यदि दूरदर्शी ही प्रमाण हो तो आइए, हम गीधी की उपासना करें क्योकि वे बहुत दूर तक देख लेते है।' सर्वज्ञत्व की मीमासा और उस पर किए गए व्यगो का जैन आचार्यों ने सटीक उत्तर दिया है और लगभग दो हजार वर्ष की लम्बी अवधि से सर्वज्ञत्व का निरत र समर्थन किया है। जैन तर्क-परम्परा की देय के साथ-साथ प्रादेय की चर्चा करना भी अप्रासगिक नही होगा। जन ताकिको ने अपनी समसामयिक ताकिक परम्पराओ से कुछ लिया भी है । अनुमान के निरूपण मे उन्होंने बौद्ध और नैयायिक तक५९परा का अनुसरण किया है। उसमे अपना परिमार्जन और परिष्कार किया है तथा उसे जन परम्परा के अनुरूप ढाला है। वौद्धो ने हेतु का रूप्य लक्षण माना है, किन्तु जैन-ताकिको ने उल्लेखनीय परिष्कार किया है। हेतु का अन्यथाअनुपपत्ति लक्षण मान कर हेतु के लक्षण मे एक विलक्षणता प्रदर्शित की है। हेतु के चार प्रकार 1 विधि-साधक विधि हेतु । 2 निषेध-साधक विधि हेतु । 3 निषेध-साधक निषेध हेतु । 4 विधि-साधक निषेध हेतु । की स्वीकृति भी सर्वथा मौलिक है । उक्त कुछ निदर्शनो से हम समझ सकते हैं कि भारतीय चिन्तन मे कोई अवरोध नही रहा है। दूसरे के चिन्तन का अपला५ ही करना चाहिए और अपनी मान्यता की पुष्टि ही करनी चाहिए ऐसी रूढ धारणा भी नही रही है । श्रादान और प्रदान की परम्परा प्रचलित रही है । हम सपूर्ण भारतीय वाडमय मे इसका दर्शन कर सकते हैं। दर्शन और प्रमाण-शास्त्र : नई समावनाए प्रमाणशास्त्रीय चर्चा के उपसहार मे कुछ नई संभावनाश्रो पर ष्टिपात करना असामयिक नही होगा। इसमे कोई सदेह नही कि प्रमाण-०यवस्था या न्यायशास्त्र की विकसित अवस्था ने दर्शन का अभिन्न अंग बनने की प्रतिष्ठा प्राप्त की है। यह भी असदिन है कि उसने दर्शन की धारा को अवरुद्ध किया है, उसे अतीत की व्याख्या मे सीमित किया है। दार्शनिको की अधिकारी शक्ति तक-मीमासा मे लगने लगी । फलत निरीक्षण गौण हो गया और तर्क प्रधान । सूक्ष्म निरीक्षण के Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 128 ) अभाव मे नए प्रमेयो कोमोज का दार . हा गया । सत्यमी योजफे तीन साधन हैं 1 निरीक्षण (Observation) 2 अनुमान या तक (Logic! 3 परीक्षण (Experiment) मान-विनान की जितनी मालाए हैं दन, भौतियाविनान, मनोविकान, वनस्पतिविज्ञान उन मयको वास्तविकतानो का पता ही नावनो मेनगाया जाता है। इन्ही पद्धतियो मे हम सत्य को खोजते न्हे हैं जब मे हमने सत्य की खोज प्रारम्भ की है। दन की धारा में नए-नए प्रमेय माने गए हैं, वे निरीक्षण के द्वारा ही खोजे जा सकते हैं। जब हमारे दानिक निरीक्षण की पद्धति को जानते थे तब प्रमेयो की खोज हो रही थी। जब तक-मीमासा ने बुद्धि पी प्रधानता उपस्थित कर दी, तर्क का अतिरिक्त मूल्य हो गया नव निरीक्षण की परति दानिक के हार से टूट गई। वह विस्मृति के गर्न मे जाकर लुप्त हो गई। प्राज किमी को दार्शनि५. कहने की अपेक्षा दर्शन का व्याख्याता कहना अधिक उपयुक्त हो।।। दानिक व हुए हैं जिन्होने अपने सूक्ष्म निरीक्षणों के द्वारा प्रमेयो की पोज की है, न्यापना की है। इन पन्द्रह शताब्दियो मे नए प्रमेयो की खोज या स्थापना नहीं हुई है, केवल अतीत के दार्शनिको के द्वारा खोजे गए प्रमेयो की पर्चा हुई है, पालोचना हुई है, खडन-मइन हुआ है। सूक्ष्म निरीक्षण के अभाव मे इनमे अतिरिक्त कुछ होने की श्रागा भी नहीं की जा सकती। सूक्ष्म निगम की एक विशिष्ट प्रक्रिया थी। उसका प्रतिनिधि सन्द है अतीन्द्रियजान । __ वर्तमान विज्ञान ने नए प्रमेयो, गुण-धमों और सम्बन्धो की खोज की है, उसका कारण भी अतीन्द्रियज्ञान है । मैं नहीं मानता कि आज के वैज्ञानिक ने अतीन्द्रियनान की पद्धति विकसित नही की है। उसके विकास का मार्ग भिन्न हो सकता है किन्तु जो तथ्य इन्द्रियो से नही जाने जा सकते, उन्हें जानने के साधन विज्ञान ने उपल० किए हैं । अतीन्द्रियज्ञान के तीन विषय हैं सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृ५८ (दूरस्य) । इन्द्रियो के द्वारा सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट तथ्य नही जाने जा सकते । आज का वैज्ञानिक सूक्ष्म का निरीक्षण करता है। तर्क की भाषा मे जो चाक्षुप नही है, जिन्हे हम धर्मचक्षु से नही देख सकते, उन्हे वह सूक्ष्मवीक्षण (Microscope) यत्र के द्वारा देखता है। इस सूक्ष्मवीक्षण यंत्र को मैं अतीन्द्रिय उपकरण मानता है । यह अतीन्द्रियज्ञान मे सहायक होता है। जो इन्द्रिय से नहीं देखा जाता वह उससे देखा जाता है। व्यवहित को जानने के लिए 'एक्सरे' की कोटि के यत्रो का आविष्कार हुआ है। उनके द्वारा एक वस्तु को पार कर दूसरी Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 129 ) वस्तु को देखा जा सकता है। विप्रकृष्ट (दूरस्थ) को जानने के लिए दूरवीक्षण, लिस्को५ श्रादि यत्रो का विकास हुआ है । जिस अतीन्द्रियज्ञान के द्वारा सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थ जाने जाते थे, वह आत्मिक अतीन्द्रियज्ञान वैज्ञानिको को उपलब्ध नहीं है किन्तु उन्होंने उन तीनो प्रकार के पदार्थों को जानने के लिए अपेक्षित यात्रिक उपकरण (सूक्ष्मदृष्टि, पारदर्शीष्टि और दूरदष्टि) विकसित कर लिए हैं । दार्शनिक के लिए ये तीनो बातें आवश्यक हैं । दार्शनिक वह हो सकता है जो इन्द्रियातीत सूक्ष्म, व्यवहित और विकृष्ट तथ्यों को उपलब्ध कर सके । किन्तु दर्शन के क्षेत्र मे आज ऐसी उपलब्धि नहीं हो रही है। मुझे कहना चाहिए कि तर्कपरम्परा ने जहा कुछ अच्छाइया उत्पन्न की हैं, वहा कुछ अवरोध भी उत्पन्न किए है। श्राज हम अतीन्द्रियज्ञान के विषय मे सदिग्ध हो गए हैं। जिन क्षणो मे अतीन्द्रिय-बोध हो सकता है उन क्षणो का अवसर भी हमने खो दिया है । अतीन्द्रियबोध के दो अवसर होते हैं 1 किसी समस्या को हम अवचेतन मत मे आरोपित कर देते हैं । कुछ दिनो के लिए उस समस्या पर अवचेतन मन मे क्रिया होती रहती है। फिर स्वप्न मे हमे उसका समावान मिल जाता है। एक सभावना थी स्वप्नावस्था की, जिसका वीज अर्धजागृत अवस्या में पाया जाता था। उसका प्रयोग भी आज का दार्शनिक नही कर रहा है। 2 दूसरी सभावना थी निर्विकल्प पतन्य के अनुभव की । जीवन मे कोई एक क्षरण ऐसा आता है कि हम विचारशून्यता की स्थिति मे चले जाते हैं । उस क्षण मे कोई नई स्फुरणा होती है, असभावित और अज्ञात तथ्य सभावित और ज्ञात हो जाते हैं। ये दो सभावनायें थी प्राचीन दार्शनिक के सामने । वह उन दोनो का प्रयोग करता था । वर्तमान के वशानिको ने भी यत्र-तत्र इन दोनो सभावनाओ की चर्चा की है । विकल्पशून्य अवस्था मे पेतना के सूक्ष्म स्तर सक्रिय होते हैं और ये सूक्ष्म सत्या के समाधान प्रस्तुत करते हैं। स्वप्नावस्था मे भी स्थूल चेतना निक्रिय हो जाती है । उस समय सूक्ष्म चेतना किसी सूक्ष्म सत्य से सपर्क करा देती है। मैं नहीं मानता कि आज के दार्शनिक मे क्षमता नही है। उसकी क्षमता तर्क के परतो के नीचे छिपी हुई है । वह दार्शनिक की अपेक्षा ताकि अधिक हो गया है । उसके निरीक्षण की क्षमता निष्क्रिय हो गई है । दर्शन की नई सभावनाओ पर विचार करते समय हमे वास्तविकता की विस्मृति नही करनी चाहिए। तक को हम अस्वीकार नही कर सकते । दर्शन से उसका सम्बन्धविच्छेद नही कर सकते । पर इस सत्य का अनुभव हम कर सकते हैं कि तर्क का स्थान दूसरा है, निरीक्षण और परीक्षण का स्थान पहला । 'अनुमान' मे विद्यमान 'अनु' शब्द इसका सूचक है कि पहले प्रत्यक्ष और फिर तक का प्रयोग । तर्क-विद्या का एक नाम Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 130 ) 'आन्वीक्षिकी' है । ईक्षण के पश्चात् तक हो सकता है, इसीलिए इसे 'आन्वीक्षिकी' कहा जाता है। निरीक्षण या परीक्षण के पश्चात् नियमो का निर्धारण किया जाता है । उन नियमो के आधार पर अनुभव किया जाता है । प्रायोगिक पद्धतिया हमारे लिए अतिम निर्णय लेने की स्थिति निर्मित कर देती हैं। वे स्वयं सिद्धातो का निरूपण नहीं करती। तक ही वह माधन है जिसके आधार पर निरीक्षित तथ्यों से निष्कर्ष निकाले जाते हैं और उनके आधार पर नियम निर्धारित किए जाते है। इस प्रक्रिया का अनुसरण दर्शन ने किया था और विजान भी कर रहा है । वैज्ञानिको ने परीक्षण के पश्चात् इस नियम का निर्धारण किया कि ठंडक से सिकुडन होती है और उच्यता से फैलाव । यह सामान्य नियम सब ५९ ला होता है, पर इसका एक अपवाद भी है । चार डिग्री से जीरो डिग्री तक जल का फलाव होता है । ठडा होने पर भी वह सिकुडता नही है । यह विशेष नियम है । केवल सामान्य नियमो के आधार पर वास्तविक घटनाओ के बारे मे विवानात्मक वात नही की जा सकती । यह सिद्धान्त मंधान्तिक विमान (Theoratical Science), चिकित्सा और कानून तीनो पर लागू होता है । विशेष नियम के आधार पर निर्णायक भविष्यवाणिया (Predictions) की जा सकती हैं, जैसे- एक ज्ञानिक जल की चार डिग्री से नीचे की ठडक के आधार ५२ जलवाहक पाइप के फट जाने की भविष्यवाणी कर देता है । यह सब तर्क का कार्य है । उसका बहुत बड़ा उपयोग है फिर भी उसे निरीक्षण का मूल्य नही दिया जा सकता । जव निरीक्षण के साक्ष्य (Observational evidences) हमारे पास नही हैं तब हम निममो का निवारण किस अधिार पर करेंगे और तर्क का उपयोग कहा होगा ? दर्शन के जगत् मे मैं जिम वास्तविकता की अनिवार्यता का अनुभव कर रहा हूँ वह तीन सूत्रो मे प्रस्तुत है - . 1 नए प्रमेयो की गवेपणा और स्थापना । 2 सूक्ष्म निरीक्षण की पद्धति का विकास । 3 सूक्ष्म निरीक्षण की क्षमता (चित्त की निर्मलता) का विकास । इस विकास के लिए प्रमाणशास्त्र के साथ-साय योगशास्त्र, कर्मशास्त्र और મનોવિજ્ઞાન છે સમન્વિત અધ્યયન હોના વાહણ ! ફલ સમન્વિત પ્રવ્યયન લી ઘારણા मस्तिष्क मे नही होगी तब तक सूक्ष्म निरीक्षण की बात सफल नही होगी। 'योग' दर्शन का महत्वपूर्ण अग है। उसका उपयोग केवल शारीरिक अस्वास्थ्य तथा मानसिक तनाव मिटाने के लिए ही नहीं है, हमारी चेतना के सूक्ष्म स्तरो को उद्घाटित करने के लिए उसका बहुत बडा मूल्य है । सूक्ष्म सत्यो के साथ सपर्क स्थापित करने का वह एक सफल माध्यम है। महर्षि चरक पोधो के पास जाते और उनके गुण-धर्मो को जान लेते । सूक्ष्म यत्र उन्हें उपलव्व नही थे। वे ध्यानस्य होकर बैठ जाते और पावो के गुण-धर्म उनको चेतना के निर्मल दर्पण मे प्रति Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 131 ) विम्बित हो जाते । जैन वाई मय मे हजारो वर्ष पहले वनस्पति आदि के विषय में ऐसे अनेक तथ्य निरूपित हैं, जो ध्यान की विशिष्ट भूमिकामो मे उपलब्ध हुए थे । सूक्ष्म निरीक्षण की पद्धति को विकसित करने के लिए कर्मशास्त्रीय अध्ययन भी बहुत मूल्यवान है। हमारे पौद्गलिक शरीर (Physical body) के भीतर एक कर्म-शरीर (Karmic body) है। वह सूक्ष्म है । उसकी क्रियाए स्थूल शरीर मे प्रतिक्रिया के रूप मे प्रगट होती हैं । कर्म-शरीर के बिम्बो के निरीक्षण की क्षमता प्राप्त कर हम स्थूल शरीर के प्रतिबिम्बो की सूक्ष्मतम व्याख्या कर सकते है और उनके कार्य-कारण-भाव का निर्धारण भी कर सकते हैं । मन की विभिन्न प्रवृत्तियो, उसकी पृष्ठभूमि मे रही हुई चेतना के विभिन्न परिवर्तनो और चेतना को प्रभावित करने वाले वाहरी तत्वो का अध्ययन कर हम निरीक्षण की क्षमता को नया आयाम दे सकते हैं। इस समन्वित अध्ययन की परम्परा को गतिशील बनाने के लिए दार्शनिक को केवल तर्कशास्त्री होना पर्याप्त नहीं है। उस साधक भी होना होगा। उसे चित्त का निर्मलता भी अजित करनी होगी। बहुत सारे वैज्ञानिक भी साधक होते हैं और वे तपस्वी जैसा निर्मल जीवन जीते हैं जो सत्य की खोज में निरत होते हैं उनके मन मे कलुषताए नही रहती और यदि वे रहती हैं तो पग-पग पर बाधाए उपस्थित करती हैं । सत्य की खोज के लिए निरीक्षण-पद्धति का विकास आवश्यक है और उसके विकास के लिए चित्त की निर्मलता और एकाग्रता आवश्यक है। आज के वैज्ञानिक वातावरण मे निरीक्षण के द्वारा उपलब्ध प्रमेयो का परीक्षण भी होना चाहिए । विज्ञान को दर्शन का उत्तराधिकारी मिला है, अत दर्शन और विज्ञान मे दूरी का अनुभव क्यो होना चाहिए ? निरीक्षण के पश्चात् परीक्षण और फिर तर्क का उपयोग - इस प्रकार तीनो पद्धतियो का समन्वित प्रयोग हो तो दर्शन पुन प्राणवान होकर अपने पितृस्थान को प्रतिष्ठापित कर सकता है । इस भूमिका में न्य,यशास्त्र या प्रमाणशास्त्र का भी उचित मूल्याकन हो सकेगा। Page #148 --------------------------------------------------------------------------  Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ प्रमारणों के विभिन्न प्रकार Page #150 --------------------------------------------------------------------------  Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण के चार प्रकार 1 2 3 4 द्रव्य प्रसारण के दो प्रकार विभागनिष्पन्न के पाव प्रकार द्रव्य प्रमाण क्षेत्र प्रमाण काल प्रमाण भाव प्रमाण क्षेत्र प्रमाण 1 2 1. प्रदेश निष्पन्न (परमाणु, द्विप्रदेशिक स्कध आदि) 2 विभागनिष्पन्न | 1 2 3 4 1 2 ( 135 ) मान उन्मान अवमान इससे धान्य और रस (द्रव) वस्तुओ का माप किया जाता है । इसमे नगर के क्रम श्रादि का तोल किया जाता है । हाय आदि से किया जाने वाला भाप | काल प्रमाण के दो प्रकार 1 2 गण्य गणना प्रमाण प्रतिमान स्वर्ण, मरिण, मुक्ता श्रादि का माप के दो प्रकार प्रदेशनिष्पन्न ( एक प्रदेशावगाढ आदि) विभागनिष्पन्न (गुल प्रादि) भाव प्रमाण के तीन प्रकार 1 गुरण प्रभारण गुणद्रव्य का परिच्छेद करते हैं । श्रत यह प्रमाण है । 2 नय प्रमाण' । 3 संख्या प्रमाण । प्रदेशनिष्पन्न - - एक समय स्थितिक आदि । समय, वलिका, मुहूर्त आदि । વિભાાનિષ્પન્ન अनुयोगद्वार वृत्ति पत्र 212 एते च नया ज्ञानरूपास्ततो जीवगुरणत्वेन यद्यपि गुणप्रमाणेऽन्तवन्ति तथापि प्रत्यक्षादिप्रमाणेभ्यो नयरूपतामात्रेरण पृथक् प्रसिद्धत्वात् बहुविचारविपयत्वाज्जिनागमे प्रतिस्थानमुपयोगित्वाच्च जीवगुणप्रभारणात् पृथक्ता | अनुयोगद्वार, वृत्ति पत्र 224 નામસ્યાપનાવિવવિશ્વાનવિષયાત્ मरयाप्रमाणात् गुणप्रमारण पृयगुक्तम् अन्यथा सख्याया अपि गुणत्वाद् गुणप्रमाणे एवान्तर्भाव स्यादिति । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरण प्रमारण के दो प्रकार I जीवगुण प्रमारण, जीव गुरेण प्रमारण के तीन प्रकार 1 ज्ञानगुण प्रमाण दर्शनगुरण प्रमारण चारित्रगुरण प्रमारण 3 ज्ञानगुण प्रमाण के चार प्रकार प्रत्यक्ष, श्रीपस्य और 1 3 प्रत्यक्ष के दो प्रकार- I इन्द्रिय प्रत्यक्ष और इन्द्रिय प्रत्यक्ष के पांच प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय प्रत्यक्ष घ्राणेन्द्रिय प्रत्यक्ष स्पर्शनेन्द्रिय प्रत्यक्ष I 3 5 नो-इन्द्रिय प्रत्यक्ष के तीन प्रकार अवधिज्ञान प्रत्यक्ष मन पर्यवज्ञान प्रत्यक्ष केवलज्ञान प्रत्यक्ष 1 2 3 अनुमान के तीन प्रकार 1 3 પૂર્વવત્ दृष्टमावयवत् रोषवत् के पाच प्रकार 1 कार्येण, 3 गुगणेन, 5 श्राश्रयेण दृष्टसाधर्म्यंवत् के दो प्रकार 1 मामान्यदृष्ट ( 136 ) 2 जीवगुरण प्रमाण 2 4 2 2 4 2 2 4 2 अनुमान, आगम नो-इन्द्रिय प्रत्यक्ष चक्षु इन्द्रिय प्रत्यक्ष जिह्व ेन्द्रिय प्रत्यक्ष शेपवत् कारणेन, श्रवयवेन, विशेषदृण्ड | Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 137 ) विशेषष्ट के तीन प्रकार । अतीतकालग्रहण, ३ अनागतकालग्रहण 2 वर्तमानकालग्रहण, प्रौपम्य के दो प्रकार - 1 साचोपनीत, 2 वैवोपनीत साधय के तीन प्रकार 1 किञ्चित् साधम्र्य, 3 सर्वसाधर्म्य 2 प्राय सावयं, पागम के दो प्रकार 1 लौकिक 2 लोकोत्तर दर्शन गुरण प्रमाण के चार प्रकार । चक्षुदर्शन 3 अवधिदर्शन 2 4 अचक्षुदर्शन केवलजान चरित्रगुरा प्रमाग के पाच प्रकार । मामयिक 3 परिहार विशुद्धि 5 ययाख्यात 2 4 छेदोपस्थापन, सूक्ष्मसपराय, नय प्रमार के तीन प्रकार 1 प्रस्तरसपटान्तन 3 પ્રાદબ્દાન્તન 2 वमतिदृष्टान्तन संख्या प्रमाण के पाठ प्रकार 1. नाम सन्ध्या 2 स्थापना सस्या 3 द्रव्य साया 4. श्रीपम्य माया 5 परिमाण माया जान मम्ध्या 7 गगना मस्या 8. भाव गरया प्रमाण के दो प्रकार । लोकि ग्रो 2 जोरोनर Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकिक प्रमारण 1 2 3 1 2 के छह प्रकार लोकोत्तर प्रमाण के चार प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, मान, उन्मान, अवमान, 4 द्रव्य प्रमाण के दो प्रकार 1 सख्या और तत्वार्यवार्तिक 3138 ) प्रमाण के सात प्रकार 1 2 3 नाम, ( 138 } स्थापना, सस्या, द्रव्य, 4 5 6 3 4 2 5 6 7 गणना, પ્રતિમાન, तत्प्रमाण काल, भाव ७५मा क्षेत्र फाल और ज्ञान प्रमाण (मय महस्समिदि सव्वगुरणारण मलारण वम्मा सखाप मारग नाचपाहुड, भाग 1, जय धवला पृ 38 ) चेव पहारण, (पमारणेमु गाणपमारण णारणमभावप्पसनादो -- कसायपाहुड, भाग 1, जय एदेण विरणा पृ 42 ) સર્કસેનમા Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ व्यक्ति, समय और न्याय-रचना Page #156 --------------------------------------------------------------------------  Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 141 ) प्रकलक 7 9 10 व्यक्ति समय न्याय-विषयक अन्य (ईसवी शताब्दी) શ્રાવી अष्टशती, लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय प्रमारसग्रह, सिद्धिविनिश्चया, न्यय चूलिका નન્તીતિ ___9-11 वी बृहत्सर्वज्ञसिद्धि, लधुसर्वसिद्धि अनन्तवीर्य दसवी सिद्धिविनिश्चय टीका અનન્તવીર્ય ग्यारहवी प्रमेयरत्नमाला अभयतिलक चौदहवी न्यायालकारवृत्ति, तकन्यायसूत्र टीका, પક્વઝન્યાયતવ્યાથી अभयदव 10-11 वी तत्वोचविधायिनी टीका (वाद महाव) आशाधर (पडित) 1188-1250 प्रमेय रत्नाकर उमास्वाति पहली-दूसरी तत्वार्यसूत्र तया भाष्य कुन्दकुन्द दूसरी प्रवचनसार, नियमसार, पचास्तिकाय कुमारनन्दि पाठवी वादन्याय गुणरत्नमूरी 14-15 वी तक रहस्य दीपिका 14-15 वी रत्नाकररावतारिका टिप्पनक चन्द्रसेन 12-13 वी उत्पादसिद्धि परिकीति पडिताचार्य --- प्रमाणरत्नालकार । जिनदत्तमूरी तेरहवी पट्दर्शनसमुच्चय वृत्ति जिनपतिमूरी 13 वी પ્રવીવવાવત जिनभद्रगणी 5-6 विशेपावश्यक भाष्य क्षमाश्रमण जिनेश्वरसूरी 12-13 वी प्रमालक्ष्म सटीक देवनन्दि(पूज्यवाद) 6 સર્વાર્થસિદ્ધિ देवप्रभसूरी 12-13 वी न्यायावताटिप्पण देवभद्र 11-12 वी ન્યાયાવતારવત્તરી देवसेन दर्शनसार धर्मभूषण 14-15 न्यायदीपिका, प्रमाणविस्तार 11 12 जानचन्द्र 13 15 17 18 20 21 22 23 10 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 નવન્ડમૂર નરેન્દ્રના 26 પાત્રની પ્રચંમ્નસૂરી 28 પ્રમાનન્ટ 1 142 ) न्यायकदी વમાબયન ત્રિનર્જન 5-6 12. વાચન 10-11 પ્રમેયમનમાર, વાયવુમુન્દ્રવ શ્રાદ્ધ વિનવતત્વપ્રાગ, પ્રમેય માવજન 11-13 ન્યાય ને 4-5 14 10- 1 12 માઇન્ડ 31 મન્નવાહી મન્નવા 33 મન્નિવે 34 મછિનવનન્દ્રિ મુનિનન્દ્રની 36 મ7 37 અતિવૃપને 38 રત્નપ્રમજૂરી જાનવરનુરી 40 રામવન્દ્રસૂરી વમુનન્દ્રિ 42 વાદિવેવપૂરી 15 5-6 39 12-13 14-15 13 11-12 ન્યાયવિ પર રિબન સ્યાદામની પરીક્ષાનુવ અનેવાન્તનાપતાકાવૃત્તિ બનવા પફુર્ગનનિય તિયપત્તી પન્નાલાવતાર રત્નાકરાવતારિજાપનિઝl વ્યતિરેક્કનૈગિક પ્રાપ્તીમાનાવૃત્તિ પ્રમાણનયતવાનો, વાદ્રા રત્નર (સ્વોપર ટી) વાથવિનિગ્નવિવર, પ્રભાસ- નિય, ચારાસિન્દ્રિ પ્રમાણપરીક્ષા, પ્રમાામી માસા, પ્રમાનિય પ્રાપ્ત રીલા, નન્જનિય, નિયવિવર, શ્રદનની મારિ ! मनमगीत शिनी ન્યાયાવતાર પ્રયત્નમા 11-12 !! 43 વિરાનમૂરી 44 વાવીઃ 45 વિદ્યાનન્દ્રિ S-9 7-9. 15 46 વિમાનવામાં 47 બાતમૂરી 48 ગતિ 12 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5-6 50 રિવાર્ય મવન્દ્ર शुभप्रकाश 16 16 समन्तभद्र 2-3 સત્તામઢ (તબુ) 13 સિદ્ધ 10 સિદ્ધન મુવપ્રવાસ 4-5 ( 143 ) ઉદ્ધિવિનિશ્વય पड्दर्शनप्रमागप्रमेयम ग्रह ન્યાયમન્ડવિવેવન શ્રાપ્તમીમાસા, જ્યનુશાસન વિષમતાત્પર્યટી ન્યાયાવતારર્દી સન્મતિ, ન્યાયાવતાર ન્યાયતીપાવતી ટી! સન્મતિત ટીકા પડનસમુય ટી ન્યાયપ્રગમિત્રવૃત્તિના નસ્પનિર્ણય અનેન્તિનાપતાવી, યોદ્ઘટસમુચ્ચય, પદો નમુવયા પ્રમાયામીમામા. સુમતિ. 8-9 14- 5 12 સોમતિ પૂરી श्रीचन्द्रसूरी થીદ્રત્ત હરિમંદ 60 6. મકવન્દ્ર 11-12 Page #160 --------------------------------------------------------------------------  Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ न्याय ग्रन्थ के प्रणेताश्री का संक्षिप्त जीवन-परिचय Page #162 --------------------------------------------------------------------------  Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 147 ) 1 अकलक (ई 8) इनका जन्म कर्णाटक प्रान्त के मान्यखेट नगरी के राजा शुभतु ग ( राष्ट्रकूट सम्राट् कृष्णराज प्रथम ) के मन्त्री पुरुषोत्तम ( अ५. नाम लहन या लघुअ०१) के घर हुआ था ।। इनकी माता का नाम जिनमती था। 'भट्ट' इनका पद था । इनके भाई का नाम निकलक था । एक बार दोनो भाई बौद्ध तर्कशास्त्र का अभ्यास करने के लिए एक वीद म० मे रहने लगे। वही इनके जैन होने का पता लगा गया । निष्कलक मारे गए। अकलक बच निकले । उन्होने आचार्य पद प्राप्तकर कलिंग नरेश हिमशीतल की सभा मे बौद्धो से वाद-विवाद किया। विरोधी पक्ष पाले एक घडे मे तारादेवी की स्थापना करते और उसके प्रभाव मे वाद मे अजेय बन जाते । अकलक ने यह रहस्य जान लिया। उन्होने अपने शासन देवता की आराधना की और घडे को फोड वौद्धो को वाद मे पराजित किया। इनके द्वारा रचित मुख्य ग्रन्य ये हैं । तत्त्वार्थ राजपातिक समाष्य । 2 अष्टशती समन्तभद्रकृत प्राप्तमीमामा की व्याख्या । लधीयस्त्रय - इसमे प्रमाण, नय और प्रवचन ये तीन प्रकरण हैं । न्यायविनिश्चय प्रत्यक्ष, अनुमान और श्रागम इन तीन प्रमाणो का विवेचन । प्रमाणमग्रह प्रमाण सम्बन्धी विभिन्न विषयो की चर्चा प्रस्तुत करने वाला ग्रन्थ । 6 मिद्धिविनिश्चय प्रमाण, नय आदि विषयो की विवेचना से युक्त । 7 न्यायचूलिका। ___ इन्हे जैन न्याय का प्रवर्तक कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इनके समय मे ही न्याय शास्त्र को व्यवस्थित रूप मिला। उत्तरकालीन ग्रन्यकार अनन्तवीर्य, माणिक्यनन्दि, विद्यानद, हेमचन्द्र, यशोविजय ग्रादि सभी प्राचार्यों ने अकलक द्वारा प्रस्थापित जैन न्याय की पद्धति का अनुसरण या विस्तार किया है । अष्टशती पर विद्यानन्द ने, लघीयस्त्रय पर अभय चन्द्र और प्रभाचन्द्र ने, न्यायविनिश्चय पर पादिराज ने तथा प्रमाणसग्रह और सिद्धिविनिश्चय पर अनन्तवीर्य ने विस्तृत व्याख्याए लिखी। देवचन्द्रकृत कन्नड भाषा के 'राजवलीकये' नामक ग्रन्थ मे इनके पिता का नाम जिनदास प्राह्मण बतलाया है। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 148 ) 2 अनन्तकात (ई० 9 वी से 11 वी के वीच) ये प्रसिद्ध ताकिक प्राचार्य थे। उन्होंने वृहत्ममिद्धि औ. लघुमर्वसिद्धि नामक ग्रन्यो की रचना की है । प्रशस्ति के अभाव मे इनके विषय का कोई विवरण प्राप्त नही है। माना जाता है कि इनके वृहत्मवजमिद्धि का प्रभाव प्रभावकृत न्यायकुमुदचन्द्र ५२ ५। है । 3 अनन्तवीर्य (ई० 10 ताब्दी) ये विभद्र के शिप्य तथा श्रवणबेलगोला के निवासी थे। ये आचार्य अकलक के ग्रन्यो के प्रवान टीकाकार थे । इन्होने 'सिद्धिविनिश्चय' टीका लिखी। ये अकलक के अन्यो के मर्मज्ञ श्री• यथार्यजाता माने जाते थे। आचार्य प्रभाचन्द्र ने भी प्राचार्य अनन्तवीर्य की विद्वत्ता और तलपगिता के विषय मे लिखा है-मन अकलक की तत्वनिरूपण पद्धति का तथा अनन्तवीर्य की उक्तियो का सैकडो वार अभ्यास कर ममझने मे सफलता पाई है। प्राचार्य अलिक के मूट प्रकरणो को यदि अनन्तवीर्य के वचनप्रदी५ प्रगट नही करते तो उन्हे कान समझ सकता था ? 4. अनन्तवा (द्वितीय) (ई० 11 वी शती) उन्होने 'अमेयरत्नमाला' की रचना को। इम ५२ आचार्य प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्र का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है । 5 अन्यतिलक (ई० 14 वी) सम्भव है ये मोमतिलकसूरी के गुरु भाई हो। ये उपाध्याय पदवी पर सुशोभित थे। उन्होंने 'न्यायालकारवृत्ति', तर्कन्यायसूत्र टीका, ' पपस्यन्यायतक વ્યાચા' આદિ અને પ્રન્ય નિલે ! 5 अमयदेव (ई० 10-11 वी) ये चन्द्रकुलीय और चन्द्रगच्छ के प्रद्य नसूरी के शिप्य ये । इनके विद्याशिष्यो एक दीक्षा-शियो का परिवार बहुत वडा और अनेक भागो मे विभक्त था। इस परिवार मे अनेक विद्वान हुए थे और उनमें से कई विद्वानो ने राजो से प्रचुर सम्मान भी पाया था। उनकी जाति, माता-पिता अथवा जन्मस्थान के विषय मे कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं है । उनका विहार-क्षेत्र राजस्थान और गुजरात .हा है । इनके दो शिय-वनेश्वर और जिनेवर बहुत विद्वान् हुए है। उन्होंने मन्मति पर तत्ववोधविधायिनी नाम की टीका लिखी। इसका अ५२ नाम है – 'वादमहार्णव' । 7 प्राशावर (पडित) (ई० 1188- 250) ये धारा नगरी की ववाल जाति के वैश्य थे। इनके पिता का नाम मल्लक्षण, माता का नाम श्रीरत्नी, पत्नी का नाम सरस्वती और पुत्र का नाम Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 149 ) छाह था। उन्होने विद्यार्जन धारा नगरी के 'शारदा सदन' नामक विद्यापीठ मे किया और फिर जैन धर्म के उद्योत के लिए घार। नगरी को छोडकर नलकच्छपुर (नालछा) मे आकर वम गए । लगभग पतीस वर्ष तक वही रहकर इन्होंने जन शान और साहित्य को अपूर्व सेवा की। पडित श्राधिजी की कुछेक रचनाए 1 प्रमेय रत्नाकर गद्य-पद्यमय ग्रन्थ । 2 जानदीपिका धर्मामृत (सागार-अनगार) की स्वीपज्ञ पजिका। मूलाराधना टीका शिवार्यकृत आराधना (प्राकृत) की टीका । 4 आराधनासार टीका प्राचार्य देवसेन के आराधनासार नामक प्राकृत ग्रन्य की टीका। ८ उमास्वाति (ई० 44-85) उन्होने तत्त्वार्यसूत्र ( मोक्ष मार्ग ) की रचना की। मस्कृत का यह आदि ग्रन्थ माना जाता है । इस ग्रन्य की रचना का भी एक इतिहास है। सौराष्ट्र मे कैयन नाम का एक श्रावक रहता था। उसके मन मे एक वार यह विचार आया कि उसे मोक्षमार्ग विषयका कोई ग्रन्थ तैयार करना चाहिए । गहरे चिन्तन के बाद उसने यह प्रतिज्ञा की "मैं रोज एक सूत्र की रचना करके ही भोजन करू गा, अन्यथा उस दिन उपवास रखू गा।' इस सकल्प के अनुसार उसने पहला सूत्र बनाया-'दर्शनजानचास्त्रिाणि मोक्षमार्ग ।' विस्मृति के भय से उसने इसे एक खभे प. लिख दिया । दूसरे दिन वह कार्यवश बाहर चला गया। एक मुनि भिक्षा के लिए उसके घर पाए । लौटते समय उनकी दृष्टि उस स्तभ पर ५ढी जिस पर पहला सूत्र लिखा हुआ था । उन्होने उसे पढ़ा और प्रारम्भ मे 'सम्यम्' शब्द जोडकर वे वहा से चले गए। श्रावक द्वैपायन घर आया। सूत्र के आगे 'सम्यम्' सब्द की योजना से उसका मन प्रफुल्लित हो उठा और उसे अपने ज्ञान की न्यूनता का वोध हुआ। वह मुनि के पास पहुचा और ग्रन्थ-निर्माण के लिए मुनि को निवेदन किया। मुनि उसकी भावना को श्रादर दे, अन्य-निर्माण में लग गए । इसी प्रयत्न के फलस्वरूप दस अध्यायो मे विभक्त तत्त्वार्यसूत्र की रचना हुई। तत्त्वार्यसूत्र और और उसका भाष्य-ये इनकी दो मुख्य रचनाए है। श्वेताम्बर और दिगम्बर-दोनो परम्पराए एन्हे समान रूप से आदर देती हैं। ६ कुन्दकुन्द (ई० 127-179) प्रानीन उल्लेख के अनुसार इनका जन्मस्थान दक्षिण भारत का 'हमपाम' था। इसकी पहचान तामिलनाडु प्रान्त के 'पोन्नूर गाव से की जाती है। उसे ही Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 150 ) कोण्डकुण्डपुर (कुडकुन्दपुर) पहा जाता हा हो । इनके पास नीलगिरि की पहाडी पर प्राचार्य कुन्दकुन्द की चर।। पादुकाए भी है। इनके पाच नाम थे- पचनन्दि, कुन्दकुन्द, वक्रग्रीव एलक श्री. पिन्छ । पअनन्दि दीक्षा ममय का नाम । 2 कुन्दन्द - गाव के कारण प्रचलित नाम । वक्री गर्दन कुछ टेडी होने के कारण प्रचलित नाम । 4 एलन । पिच्छ-विदेह क्षेत्र मे लोटन समय गस्ते मे मयूर पिच्छ के fજન ના ઘર પૃપિછ ની મત ડm નામ અનિતા या। माना जाता है कि ये च रणजटहि मे नपन्न थे। श्री. भूमि मे चार अगुन ऊपर चलने ये। इनके दीक्षागुरू जिन चन्द्र और शिक्षागुन कुमानिन्दिये । रे अहवाल हारा स्थापित (वी नि 593) नन्दि मघ के तीसरे प्रभावी प्राचार्य थे। इन्होने 84 पाडो (प्रामृत) की रचना की किन्तु आज केवल 12 पाइ ही उपलब्ध हैं। उनमे मे दमण पार पात्तिपा, मुत्तपाइ, बोवपाहु, भावपाड श्री. मोसपाहुइ ५. श्रुतसागर । की टीका भी उपलब्ध है। इनके दूसरे मुस्य ग्रन्थ है- समयसार, प्रवचनमा• पचास्तिकाय, नियममा याना आदि । इन्होने पट्सण्डागम अन्य के प्रथम तीन वण्डो ५२ वाद हा लोक प्रमाण परिकर्म' नाम की टीका भी लिपी थी। समयमार, प्रवचनमा. और पचास्तिकाय में न्याया-त्र की प्रारंभिक चर्चा प्राप्त है। १० कुमारनन्दि (ई० 776) ये चन्द्रनन्दि के निप्प थे। इनके शिष्य कात्तिनन्दि श्री. प्रति विमल चन्द्र थे। इन्होने 'वादन्याय' नाम का एक पन्य रचा था। ये कुन्दकुन्द के अन्वय के थे। ११ गुणरत्नसूरी (ई० 1400- 475) ये अपने काल के प्रभावक प्राचार्य श्री देव मुन्दरी के शिष्य थे। इनका विहा क्षेत्र गुजरात राजस्थान ·हा है । ये वादविद्या मे कुशल थे। इन्होने कियारत्नसमुच्चय, कर्म न्य, अवधू , आदि अन्य लिखे। उन्होने प्राचार्य हरिभद्रकृत पट्दर्शनसमुच्चय पर तक रहस्यदीपिका' नाम को टीका लिपी। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 151 ) १२. ज्ञानचन्द्र (ई० 14-15 वी) ये साधुपूर्णिमा (सार्धपूर्णिमा) गच्छ के आचार्य गुणचन्द्र के शिष्य थे । ये राजशेख र के समकालीन थे । इन्होने रत्नाकरावतारिका पर टिप्पन लिखा। १३. चन्द्रसेन (ई० 12-13 वी) ये प्रद्युम्नसूरी के शिष्य थे । इन्होने वि० 1207 मे 'उत्पाद सिद्धि' नाम के ग्रन्थ की रचना की। १४ जिनदत्तसूरी (ई० 13 वी) ये वायडाच्छ के जीवदेवसूरी के शिष्य थे। इन्होने विवेकविलास' की पना की । इसके अष्टम उल्लास मे पडदर्शनविचार' नाम का प्रकरण है। १५ जिनपतिसूरी (ई० 13 वी) ये 'प्रबोववादस्यल के करता है। १६ जिनमद्राणी क्षमाश्रमण (ई० 6-7) ये बहुश्रत विद्वान थे। उनका प्रमुख अन्य है- विशेषावश्यक भाष्य । इसमे आगमिक विषयो की गभीर ची तया यथाप्रसग मतातरो की चर्चा भी प्राप्त है। इसमे तर्कशास्त्र के विभिन्न अगो पर स्वतन्त्र विचार मिलते है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने इन्हे व्याख्यातायो मे अग्रणी माना है। १७ जिनेश्वरसूरी (ई० 12-13 वी) धारा नगरी मे एक धनाढ्य पेठ रहता था। उसका नाम या लक्ष्मीपति । उसके पास मध्यप्रदेश का एक ब्राह्मण रहता था। उसके दो पुत्र थे- श्रीधर और श्रीपति । दोनो प्राचार्य वर्वमानसूरी के पास दीक्षित हुए । - उनका नाम जिनेश्वर और बुद्धिसागर रखा गया। आगे चलकर जिनेश्व रसूरी ने खरतरगच्छ की स्थापना की। उन्होने जाबालपुर मे रहते हुए अनेक अन्य रचे । उनमे मुख्य है-- पलिंगीप्रकरण, हरिभद्राष्टकटीका, प्रमालक्ष्म सटीक । १८ देवनन्दि (पूज्यपाद) (ई० 5 6) इनका समय विक्रम की छठी शताब्दी के पूर्वाद्ध माना जाता है। वि० की दसवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध (990) मे लिखे गए दर्शनमार अन्य मे यह 2 यह सरस्वती अन्यमाला कार्यालय, प्रागरा से वि० 1976 मे प्रकाशित हो चुका है। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 152 ) उल्लेख प्राप्त होता है कि पूज्यपाद के गिप्य वजनन्दि ने वि०म० 526 में दक्षिण मथुरा (मदुरा) मे द्राविट मघ की स्थापना की थी। देवनन्दि कुन्दकुन्द ग्राम्नाय के देशीयगण के प्राचार्य चन्द्रनन्दि के शिष्य या प्रथिए । । इन मुन्य ग्रन्थ ये है । जनेन्द्र न्याय नवर्थिमिति तत्वार्यसूत्र प. उन पर ती टीका । 3 ममाबितत्र। 4 दावतार -पाणिनि व्यक्ति ५९ न्याम । 5 जनेन्द्र न्याम जनेन्द्र प्याक पर वापज न्याम । १६ देवप्रभसूरी (ई० 12-13 वी) ये मलबा हेमचन्द्र के प्रभिप्य श्रीचन्द्रसूरी के शिष्य थे। इन्होंने 'न्याया4तार टिप्पण' लिया। २० देवभद्र (ई० 11-12) ये नवागी टीकाकार अमयदेव के शिम अमनचन्द्र के शिष्य थे। इनका पहला नाम गुणचन्द्र गसी या । इन्होने अनेक प्रन्यो की रचना की। कगा- पर 'प्रमाणप्रकाश नामक अन्य भी लिखा । २१ देवसेन (ई० 10) इनके गुरु का नाम श्री विमनसेन गावर था । ऐसा माना जाता है कि ये आचार्य कुन्दकुन्द के अन्य के प्राचार्य थे। इन्होने बारा नगरी मे पानाय के मन्दिर मे वि० स 990 माघ शुक्ला दशवी को दर्शनमार नामक अन्य की रचना की। २२ धर्मभूषण (ई 14-15) ये नन्दिसघ के प्राचार्य थे। इन्होने 'न्यायदीपिका' और 'प्रमाणविस्तार'ये दो न्यायविषयक अन्य लिखे । 3 4 भावसग्रह, 701 मिरिविमल सागहरमिस्मो, खामेण देवसेपो ति। दर्शनमार, 49,50 पुवायरियकवाड गाहाइ मचिजण एयत्य । सिरिदेवसेगसिया धाराए मवसरण ॥ श्री दस सारो हारो भवाय नवमए नए । मिरिपासणाहगेहे सुविसुद्ध माहमुदसमीए । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 153 ) 23. नरचन्द्रसूरी {ई 13 वी) ये देवप्रभसूरी के शिष्य थे । उन्होने न्यायकदली पर टीका लिखी। 24 पात्रकेसरी (ई० 5-6 शताब्दी) इनका जन्म ब्राह्मण कुल मे हुआ था। ये अहिच्छत्र नगर के राजपुरोहित ये। ममन्तभद्र द्वारा रचित देवागमस्तोत्र सुनकर ये जैन मुनि वने । ये न्यायशास्त्र के पारगत विद्वान थे । इनका न्याय-विषयक ग्रन्थ है विलक्षणकदर्थन बौद्ध श्राचार्यों द्वारा निरपित हेतु के लक्षणों का खडन करने वाला ग्रन्थ । यह अभी उपलब्ध नही है। 25 प्रधु मनसूरी (ई० 12 वी) इनके गिप्य 'चन्द्रमैन' थे। इन्होने 'वादस्यल' नाम का ग्रन्थ रचा। 26 प्रमाचन्द्र (ई० 980-1065) इनके गुरु गोल्लाचार्य के शिष्य पद्मनन्दि सैद्धान्तिक थे। इनका कार्यक्षेत्र धारानगरी तथा उसके ग्रामपास का क्षेत्र रहा है । ये मूल सघ के अन्तर्गत नन्दिगरण की प्राचार्य-परम्परा मे हुए थे। ये धारानगरी के राजा भोज के मान्य विद्वान थे। इनके मवर्मा श्रीकुलभूपण मुनि थे। इन्होने स्वतन्त्र रूप से भी अनेक ग्रन्थो की रचना की तथा अनेक ग्रन्यो पर व्याख्याए लिखी। गद्यकथाको। इनकी स्वतन्त्र रचना है । व्याख्या ग्रन्यो मे मुख्य ये है 1 प्रमेयकमलमार्तण्ड आचार्य माणिक्यनन्दि कृत परीक्षामुख की व्याख्या । 2 न्यायकुमुदचन्द्र ---प्राचार्य अकलक के लधीयस्त्रय की व्याख्या। इसमे प्रमाण विषयो के साथ प्रमेय विषयो की चर्चा है । 3 तत्वार्थवृत्तिपदविवरण सार्थमिद्धि की व्याख्या । 4 शाकटायन न्यास शाकटायन व्याकरण की व्याख्या। 5 गाम्भोजभास्कर-जैनेन्द्र व्याकरण का महान्यास । 6 प्रवचनसारस रोजभास्कर कुन्दकुन्द के प्रवचनसार की टीका । विद्वानो की मान्यता है कि प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र जैन न्याय के श्राक र अन्य है और जनदर्शन के मध्ययुगीन अन्यो मे अपना विशिष्ट स्थान रखते है । यद्यपि ये व्यास्याए है, फिर भी प्राचार्य प्रभाचन्द्र की बहुश्रु तता पग-पग पर मुखर हुई है और ये ग्रन्थ उत्तरकालीन न्याय विषयक ग्रन्यो के लिए आधारभूत बने हैं। 5 न्यायकुमुदचन्द्र, भाग 2, प्रस्तावना पृ० 58 । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 154 ) ___ 27 मापसेन ( 1 2-1 3 जी) ये सनगण के श्राचाय थे । इन्हे 'विध यो उाविमाप्त थी ! इनके तीन __अन्य प्रकाशित हैं उनमे दो ग्रन्थ न्याय-विषयक हैं _1 विश्वतत्वप्रकाश विभिन्न दर्शनो के मतव्यो का जनदृष्टि से परीक्षण। 2 प्रमाप्रमेय--- जनदृष्टि से प्रमाणो की व्याख्या । अप्रकाशित अन्यो मे न्याय के अन्य ये हैं न्यायदीपिका, न्यायसूर्यावली । 28 मल्लवादी (ई० 4-5 आती) ये सीट मे वलभीपुर के निवासी थे । इनकी माता का नाम दुर्लभदेवी था । इन्होंने अपने मातुल प्राचार्य जिनानन्द से दीक्षा ली। वे बहुत बड़े ताकिक थे । एक वार वे बौद्ध प्राचार्य से पराजित हो गए। इसके फलस्वरूप राजा शिलादित्य ने जन मुनियो को अपने गज्य से निर्वासित कर दिया। यह वात मल्लवादी को बहुत अप्रिय लगी। वे तर्कशास्त्र के गहन अध्ययन मे दत्तचित्त हुए और राजा शिलादित्य के दवार मे वौद्ध आचार्यो को पराजित किया। उन्होने 'दादगारनयचक्र' की रचना की, किन्तु वह आज मूलरूप मे उपलब्ध नहीं है । मिहमूरी द्वारा लिखित टीका के आधार पर उसका पुनरुद्धार करने का प्रयत्न हृया है। 29 मल्लवादी (ई० 700-750) इन्होंने धर्मकीति के न्यायविन्दु ५२ धर्मातर की टीका पर टिप्पन लिखा जो अभी तक अमुद्रित है। 30 मल्लिपेरण (ई० 14 वी) ये नागेन्द्रगधीय उदयप्रमभूरी के शिष्य थे। इन्होने जिनप्रभसूरी की महायता से 'भ्यावादमजरी' ग्रन्य का निर्माण किया । वह हमचन्द्र द्वारा चित अन्ययोगव्यवच्छेदिका की टीका है । उपाध्याय यशोविजयजी ने स्याद्वादमजी पर स्यादवादमजूपा नाम की वृत्ति लिखी है । 31 मासिक्यनन्दि (ई० 993-1053) नन्दिमघ देशीयगर गुर्वावली के अनुसार ये काल्ययोगी के शिष्य थे और प्रमाचन्द्र के गुर । 'परीक्षामुख' इनकी प्रमुखकृति है। इस पर उनके विद्वान् शिप्य प्रभाचन्द्र ने 'प्रम कमलमानण्ड' नाम की टीका लिवी। परीक्षामुक ग्रन्थ ५. प्राचार्य शुभचन्द्रदेव ने-- 'परीक्षामुखवृत्ति' तथा यात्राय जातिवणों ने 'प्रमेयकठिका' नाम की टीका लिखी। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ t 155 ) 32 मुनिन्द्र (ई= 12 वीं) ये वृहद्गच्छीय उद्यानाचाय के शिष्य उपाध्याय श्राम्रदेव के शिष्य थे । इनके गुरुभाई का नाम था नेमिचन्द्रसूरी, जिन्होने उत्तराध्ययन सूत्र पर 'सुखबोधा' वृत्ति लिखी थी। माना जाता है कि इस वृत्ति के लिखने मे मूल प्रेरक मुनिचन्द्रसूरी ही थे । गातिसूरी के बत्तीस शिष्य थे । वे अपने गुरु के पास प्रमारण शास्त्र का अभ्यास करते थे | एक बार मुनिचन्द्र नाडोल से विहार कर वहाँ पहुचे श्रीर शातिमूरी द्वारा दी जाने वाली वाचना को खड़े-खड़े ही सुनकर चले गए । यह क्रम पन्द्रह दिनो तक चलता रहा | सोलहवें दिन वत्तीय शिष्यो के साथ-साथ उनकी भी परीक्षा ली गई। मुनिचन्द्र की प्रतिभा से प्रभावित होकर शांतिसूरी ने उन्हें अपने पास रखा और प्रमाणशास्त्र का गहरा अध्ययन करवाया । इन्होंने अनेकान्तजयपताकावृत्ति पर टिप्पर लिखा । 33 मेरुतु ग ( ई० 15 वी ) ये अचलगच्छीय महेन्द्रप्रभमूरी के शिष्य ये । प्रसिद्ध दीपिकाकार माणिक्यशेखरसूरी इन्ही के शिष्य ये । इन्होने 'पद्दर्शननिर्णय' नाम का अन्य लिखा । 34 यतिवृषभ ( ई० 5-6 ) इनकी महत्त्वपूर्ण रचना है- तिलोयपण्णत्ती' | यह प्राठ हजार श्लोको मे वद्ध प्राकृत रचना है । हरिपेरण के कथाको मे प्राप्त एक कथा के अनुसार एक वार श्राचार्य यतिवृपक्ष श्रावस्ती नगरी के राजा जयसेन को धर्मबोध देने गए। वहा किसी शत्रु द्वारा भेजे गए एक गुप्तचर ने यतिवृषभ के शिष्य का वेश धारण कर राजा की एकान्त में हत्या कर दी । तब जैन संघ को राजघात के कलक से बचाने के लिए यतिवृपभ ने श्रात्म-वलिदान किया 7 35 रत्नप्रभसूरी ( ई० 12-13 वी ) ये प्रमाणनयतत्वालक के रचयिता वादी देवसूरी के शिष्य थे । विजयमेनसूरी इनके दीक्षा गुरु थे । प्रमाणनयतत्वालोक पर 'स्यादवादरत्नाकर' नाम की स्वोपन टीका है | इस टीका के प्रणयन मे रत्नप्रभसूरी ने सहयोग दिया था, ऐसा प्राचार्य देवसूरी ने उल्लेख किया है । यह टीका अत्यन्त गहन यी इसलिए रत्नप्रभ ने इस पर 'रत्नाकरावतारिका नाम की एक लघु टीका लिखी । परन्तु वह भी 6 7 कुछ इन्हे यशोभद्र के शिष्य मानते है । वीरशासन के प्रभावक प्राचार्य, पृष्ठ 39 । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 156 ) इतनी सरल नही बनी। फिर अनेक प्राचार्यों ने इस पर पञ्जिका और टिप्पण लिखे। 36 राजेश्वरसूरी (ई 14-15) ये मलवारी अभयदेवमूरी के सतानीय हपपुरीय मलवारी गच्छ के प्राचार्य तिलकसूरी के शिष्य ये। उन्होने विक्रम की पन्द्रहवी शताब्दी के पहले दूसरे दशक मे रत्नावतारिका ५२ पनिका लिखी। उन्होंने स्याद्वादकलिका, पट्दर्शनसमुच्चय, आदि अनेक ग्रन्यो की रचना की। 37 रामचन्द्रसूरी (ई० 1 3 वी) ये कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्र के शिप्य ये । इन्होंने 'व्यतिरेकहानिशिका' अन्य लिखा । 38 वसुनन्दि (ई० 11-12) ये श्री नेमिचन्द्र के शिष्य थे। इनका अपर नाम 'जयसेन' या। इनकी कृतिया हैं - प्राप्तमीमामावृत्ति, मूलाचारवृत्ति, वस्तुविधा, श्रावकाचार आदि-आदि । श्रावकाचार का अपर नाम 'उपासकाध्ययन' है । इस ग्रन्य के अन्त में इन्होने अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख किया है। उनके अनुसार श्री कुन्दकुन्द की परम्पर। मे श्रीनन्दी नाम के प्राचार्य हुए । उनके शिष्य थे नयनन्दी और नयनन्दी के निप्य थे श्रीनेमीचन्द्र । ये इनके गुरु थे। 39 वादिदेवसूरी (ई० 1087-1170) ये श्रीमुनिचन्द्रसूरी के पट्टशिष्य ये । इनका जन्म गुर्जर देश के प्रावाटवंश मे वि स 1087 मे हुअा। ये नौ वर्ष की अवस्था ( 1096 ) मे भडीच नगर मे दीक्षित हुए और इकतीस वर्ष की अवस्था मे वि स 1118 मे प्राचार्य पद ५२ आसीन हुए । अहिलपुर मे राजा जयसिंह सिद्धगज की सभा मे दिगम्बर विद्वान् कुमुदचन्द्र से वाद हुप्रा और उसके बाद ही उन्हें 'वादी' की उपाधि प्राप्त हुई । माणिक्यनन्दि के परीक्षामुख का परिवर्धन कर इन्होने प्रमानयतत्वालोक की रचना की और उस पर 'स्याद्वादरत्नाकर' नामक बृहत्काय व्याख्या लिखी। इनका स्वर्गवास 1117 मे हुआ। भद्रेश्वर इनके पट्टवर शिष्य हुए और लभ प्रमुख शिष्य । रत्नप्रभ के स्याद्वादनाकर का मक्षिप्तरूप रत्नाकरवितारिका के नाम से प्रसिद्ध है। 40 पादिराजसूरी (ई 11) ये दक्षिण के सोलकी 41 के प्रसिद्ध नरे। जयसिंह (प्रयम) की राजममा के सम्मानित वादी थे। इनके द्वारा रचित पाश्र्वनाथ चरित्र की प्रशस्ति से पता लगता Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 157 ) है कि ये 'कटगेरी' के आसपास के निवासी थे। यह अब भी एक साधारण सा गाव है, जिसके भानावशेषो से यह ज्ञात होता है कि यह कभी बडा शहर रहा होगा। ये नन्दिसघ के अरू गल अन्वय के प्राचार्य श्रीमाल के शिप्य मतिसागर के शिष्य थे। इनके गुरुबन्धु का नाम दयापाल था। 'वादिराज यह एक तरह की पदवी थी। उनका यथार्थ नाम क्या था, यह अज्ञात है। 'पट्तकपण्मुख' 'स्याद्वादविद्यापति' और 'जगदेकमल्लवादी' ये इनकी उपाधिया थी। 41 वादामसिंह (ई 8-9) यह पदवी है नाम नहीं। इस पदवी के धारक अनेक प्राचार्य हुए है । ये श्राचार्य पुष्यषण अकलक के शिष्य वादीमसिंह है। प्राचार्य पुष्यषेण अकलक के गुरुभाई थे। वादीभसिंह का मूल नाम क्या था, यह अजात है। उनके दो अन्य उपलब्वे हैं । स्थाबाद सिद्धि और 2 नवपदार्थ निश्चय । 42 विधानन्दि (विद्यानन्द) (ई 775-840) जन ताकिको मे इनका विशिष्ट स्थान था। ये मगध की राज्य सभा के प्रसिद्ध विद्वान थे । ये एक वार पावनाथ भगवान के मदिर मे चरित्रभूषण मुनि के मुख से श्राचार्य ममतभद्र द्वारा रचित देवागमस्तोत्र का पा० सुनकर प्रतिवृद्ध हुए। माना जाता है कि ये अकलक की आम्नाय मे उनके कुछ ही समय पश्चात् हुए थे। इनकी प्रमुख रचनाए है 1 प्रमाणपरीक्षा 2 प्रमाणमीमासा 3 प्रमाणनिर्णय 4 प्राप्तपरीक्षा 5 जल्पनिर्णय 6 नवविवरण 7 युक्त्यनुशासन 8 अष्टसहस्त्री 9 तत्वार्थश्लोकपातिक 10 पत्रपरीक्षा। ये दक्षिण के महान् टीकाकार ये । इन्होने समतभद्र की प्राप्तमीमासा श्रीर उस पर अकलकदेव के अटशती भाष्य को सबद्ध कर अष्टसहनी नामक अन्य की रचना की। इनका विद्यानन्द महोदय' ग्रन्य अनुपलब्ध है। 43 विमलदास (ई 15) ये जन गृहस्य थे। इनका निवास स्थान तेजानगर और गुरु अनन्तदेव स्वामी ये। उन्होने 'सप्तभगीतर गिरणी' की रचना की । 8 पट्कर्णपण्मुख स्याद्वादविद्यापतिगलु जगदेकयल्लवादिगलुएतिमिद श्रीवादिराजदेवरम् - मि राइस द्वारा सपादित नगर तालुक्का के इस्किप्सन न 36। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 158 ) -4 तिरूरी (ई 11) पूतल गच्छ के प्राचार्य वर्धमान के शिष्य थे। उन्होने मिद्धसेन के यायावतार पर वातिक की रचना की और उस पर टीका भी लिखी। इसके चार करण है- प्रमाण, प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम । 45 सातिपेरण (ई 13) उनका 'प्रमेयरत्नमार' नामका अन्य उपलब्ध है । 416 शिवार्य ये भगवती श्राराधना के कर्ता है । उन्होंने संस्कृत मे 'सिद्धिविनिश्चय' नामका न्य लिखा। 47 शुभचन्द्र (ई० 1516-1556) ये विजयकीति के शिष्य तथा लक्ष्मीचन्द्र के गुरु थे। इन्हे ‘पटभापा कवि' की उपाधि थी। इन्होंने अनेक ग्रन्यो की रचना की। उनमे से कुछ ये है प्राकृत व्याकरण, अगपण्यत्ति, समस्यावदनविकार, ५३दर्शनप्रमाणप्रमेयसग्रह, स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा की टीका, आदि-श्रादि । 48 समन्तभद्र (ई० 2-3) ये उ. पु. के राजा के पुत्र थे। इनका जन्मकालीन नाम शातिवर्मा था । ये महाबादी ये । इनकी द विशेषण प्राप्त थे। प्राचार्य, कवि, वादिरा, पडित, दंवन, मिषक, मात्रिक, तात्रिक, प्रामासिद्ध श्रीर सिद्धमा स्वत । इन विरोपणो से इनकी बहुश्रुतता का सहज वोध हो जाता है । इनकी मुस्य रचनाए है | पट्टागम के प्रथम पाच वडो ५. टीका, 2 कर्मप्राभृत टीका 3 गधहम्तिमहाभाष्य 4 प्राप्तमीमामा 5 युक्त्यनुशासन 6 तत्त्वानुशासन 7 स्वयभूस्तोत्र 49 समन्तभद्र (लघु) (ई० 13) उन्होंने अष्टमहनी (विद्यादित) पर 'विपमपदतात्पर्यटीका' लिखी है । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 159 ) 50 लिपि (ई० 9-10) ये आचार्य दुर्गस्वामी के शिष्य थे। इन्होने वि स 962 ज्येउ शुक्ला पचमी को 'उपमितिभवप्र५-चकया' की रचना की। इन्होने सिद्धसेन के 'न्यायावतार' पर टीका भी लिखी। 51 सिद्धसेन दिवाकर (ई० 4-5 शती) ये विद्याधर गोपाल से निकली हुई विद्याधर शाखा के प्राचार्य वृद्धवादी के शिष्य थे। इनका जन्म दक्षिण के ब्राह्मण कुल में हुआ था। एक बार इन्होने आगमो का सस्कृत अनुवाद करने का प्रयत्न किया, किन्तु गुरु द्वारा निषिद्ध करने ५२ प्रयत्न छोड दिया। इनके प्रमाण विषयक दो ग्रन्थ बहुत ही महत्त्वपूर्ण है 1 सन्मतितर्क 167 प्राकृत गाथाओ मे नयवाद का विशद निरूपण प्राप्त है। 2 न्यायावतार 32 सस्कृत श्लोको मे प्रमाणो का सक्षिप्त विवेचन है। प्रमाण का यह आद्य-ग्रन्थ माना जाता है। 52 सुमति (ई० 8-9) वादिराजसूरी ने अपने द्वारा रचित पावनाथचरित मे इनके 'सन्मतितकटीका' का उल्लेख किया है । मल्लिपण प्रशस्ति मे इनके 'सुमतिसप्तक' ग्रन्थ का उल्लेख है। 53 सोमतिलकसूरी (वि 1355-1424) इनका दूसरा नाम विद्यातिलक था। इनका जन्म वि 1355, दीक्षा वि 1369, प्राचार्यपद वि 1373 और मृत्यु वि. 1424 मे है । इन्होने हरिभद्रकृत पट्दर्शनसमुच्चय पर आदित्यवर्धनपुर मे वृत्ति की रचना की । 54 श्रीचन्द्रसूरी (ई० 12 वी) ये शीलभद्रसूरी के शिष्य थे । इनका दूसरा नाम पार्वदेवाणि या। इन्होने अनेक अागमो पर टीकाए लिखी। इन्होने दिड नाग कृत न्यायप्रवेश पर हरिभद्रसूरी द्वारा कृत टीका पर पञ्जिका लिखी । उसका नाम है न्यायप्रवेशहरि मद्रवृत्ति पजिका। 9 गुर्वावली 273,29। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 160 ) ___55 श्रीदत्त (ई 6) ये पूज्यवाद मे कुछ पहले हुए है । ये महान् ताकिक प्राचार्य थे। विक्रम की चौथी शताब्दी मे होने वाले विद्यानन्दी मे महान तार्किक प्राचार्य के तत्वार्थलोकपातिक के अनुसार इन्होने 62 वादियो को पराजित किया था। इन्होने 'जल्पनिर्णय' नाम का एक अन्य लिखा था । वह अप्राप्य है । 56 हरिभद्र (ई 7-8) ये चित्रकूट (चित्तोड) के ब्राह्मण कुल मे उत्पन्न हुए थे। उन्होंने जन मावी याकिनी द्वारा प्रतिबुद्ध होकर जैन दीक्षा ग्रहण की। ये विद्यावर गच्छ के आचार्य जिनभट्ट के शिष्य थे। इनके दीक्षागुरु का नाम जिनदत्त था। ये संस्कृत के प्रथम टीकाकार श्रीर बहुविध माहित्य के जप्टा थे। इन्होंने जैन दर्शन के संवर्धन मे अपूर्व काम किया। इनकी कुछेक न्यायविषयक रचनाए ये है--अनेकान्तजयपताका, योगष्टिसमुच्चय, शास्त्रात सिमुच्चय, पदनसमुच्चय । उनके द्वारा रचित लगभग सौ ग्रन्यो का अब तक पता लगा है। ये 1 444 प्रकीर्णको के रचयिता माने जाते हैं ।10 57 हेमचन्द्र (ई 1088-1172) इनका जन्म गुजरात के बन्यूका नगर के एक वैश्य परिवार मे मन् 1088 मे हुआ । वाल्य अवस्था मे ये प्राचार्य देवचन्द्र के सघ मे दीक्षित हुए और वाइसवे वर्ष मे प्राचार्य वने । ये कलिकालसर्वज्ञ कहलाते थे । इनके प्रमुख ग्रन्य हैं 1 ઉદ્ધહેમશબ્દાનુરામના 2 अनेकार्थचिन्तामणिकोप 3 अभिवानचिन्तामणिकोप 4 देशीनाममाला 5. काव्यानुशासन 6 बन्दोनुशासन 7 इनका तर्कशास्त्र का प्रमुख अन्य है--प्रमाणमीमामा । 10 इनके ५.परागत वृत्तान्त के लिए दे३ प्रभावकचरित्र मे हरिभद्र वृत्तान्त । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ पारिभाषिक शब्द विवरण Page #178 --------------------------------------------------------------------------  Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यवमाय प्रनव्यवसाग्र ( 163 ) અતીન્દ્રિયનાના केवल आत्मा से उद्भूत प्रत्यक्ष ज्ञान । નદંતવાદ -- - एक सर्वव्यापी तत्व को स्वीकार करनेवाला सिद्धान्त । वास्तिकाय लोकव्यापी स्थिति-सहायक द्रव्य । निर्णयात्मक दृष्टिकोण। - वस्तु का अस्पष्ट-बोध, वह जान जो विकल्प की स्थिति तक न पहुचे । अनाकार ---- आकार का अर्थ है विशेष या विकल्प । जिसमे आकार न हो विशेष (भेद) या विकल५ न हो वह अनाकार अर्थात् निविकल्प । अनाकार बोध दर्शन है और माकार बोध जान । अनिर्वचनीय -- जिसका निर्वचन न किया जा सके। अनुभववाद इन्द्रिय-सवेदनो को वास्तविक ज्ञान मानने वाला सिद्धान्त । अनुमान साधन के द्वारा साध्य का जान । पूर्ववत् कारण से कार्य का अनुमान । ओपवत् कार्य मे कारण का अनुमान । सामान्यताहण्ट । सामान्य धर्म के द्वारा होने वाला अनुमान । दृष्टसाधम्र्यवत् । અને નત - अनन्त धर्मात्मक वस्तु का निश्चयात्मक जान । सम्यक् अनेकान्त -प्रमाण । मिथ्या अनेकान्त प्रमाणामास । अनेक प्रात्माओ की स्वीकृति वाला सिद्धान्त । माध्य मे ही सावन का होना । अभाव अनुपलब्धि प्रमाण । 'यह भूतल घटशून्य है क्योकि यहा वट अनुपलब्ध है।' अभिनिवोध सावन में होने वाला मान्य का जान, अनुमान । अभिन्नापूर्वी -नौ पूर्वो (आगम शास्त्रो) तथा दश पूर्व ( विद्यानुप्रवाद ) की तीसरी वस्तु (अध्याय) का नाता ।। अभ्युपगम स्वीकृत सिद्धान्त । अर्थ क्रियाकारित्व जिमका अस्तित्व है उसमे कुछ न कुछ क्रिया होती हती है । यह 'अर्य क्रियाकवि ' ही वस्तु का लक्षण है। अर्थप्रर्याय क्षणवर्ती पर्याय । अनेकात्मवाद अन्वय Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અય્યર્પીત્ત 최다의 અવન્તુવાવી વર્ગન અવાય વિનામાવ ચમત્કાર્યવાન અસ્તિત્વ આાળાગાસ્તિયિ આમચુરુષ श्रागमयुग આન્વીસિ आरभवाद પ્રાર્થનત્ય ઉદા કલવા ઉપયોગ ( 164 ) -દૃષ્ટ અર્થ ળી સિદ્ધિ કે ત્તિ સિી અદૃષ્ટ શ્રી પના રના। જૈસે દેવવત્ત મોટા હૈ । વહેં વિન મેં ઇ નહીં જ્ઞાતા । ડન વોનો વાળ્યો. જેવદેવામાસ મૈં હમ મ વાળ્ય. મેં મમતિ રતે હૈં િવવત્ત રાત મેં મોનન રતા હૈ !' યહું ચર્ચાત્ત હૈ । મીમાનજો દ્વારા નમ્મત પ્રમાણે હ્રીં હળ પ્રજાર I ન્દ્રિય ઔર ચર્ચા યોય હોને પર વર્ઝન છે. પ્રશ્વાન્ હોને વાલા નામાત્સવોંધ આવર્ગવાવી વર્ગન, જ્ઞાનવાદી વર્ઝન । મળે અનુનાર વસ્તુ મૈં સત્તા વાસ્તવિ નહી હોતી । નિર્ણાયાત્મ જ્ઞાન | - નમાવ ચૌર્ મમાવ ા નિયમ । —ારા જો સત્ ઔર હાર્ય નો અત્ માનનેવાના સિદ્ધાન્ત । ન્યાય ઔર વગેપિળ વર્ગનો ા મિમત।શે. આ મવાદ भी कहते हैं । વસ્તુ ા વિવ્યાત્મજ વેર્યું 1 તોળ-અલોળ વ્યાપી પ્રવાાનનુ વાના દ્રવ્ય કે આપ્તપુષ્પ, ચાચંદ્રષ્ટા । વસ્તુ ; ચચાર્યે સ્વસ્થ્ય જો ખાનને સૌર ગાન અે અનુસાર સર્જા પ્રતિપાવન ને વાલા પુશ્ય | ઈમા પૂર્વે 599 તે ફ્રેના જી પત્ની શતાબ્દી ત ા યુT I — તજ-વિદ્યા । —સાર્યવાવ જ અપરનામ । ૐ લ, ટુ વન્દેતુ, ટુ લ-નિરોધ ઔર દુ લનિોવકા રૂપાય – વૌદ્ધ વર્ગનેં સમ્મત વાર પ્રાર્યસત્ય – વિવિ-નિષેવ પૂર્વજ ‘શ્રમુરુ હોના વા’િના બ્રહ્મય । - નળે દ્દો પ્રર્ચ હૈં 1 અત્યન્ત મિત્ર ગબ્દો મે મીનિી સમાનતા છે ચાવાર પર હની મિન્નતા ી ઉપેક્ષા જરના 2 મુલ્ય છે અમાત્ર મેં ગૌણ તે મુલ્યવત્ માનના 1 - ચેતના શૈ પ્રવૃત્તિ 1 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साकार अनाकार उपादान एकान्त सम्यक्"एकान्त मिथ्या एकान्त एकात्मवाद પેતિદ્ય क्रियमारणकृत कूटस्यनित्यवाद क्षणिकवाद गुण ज्ञान મતિજ્ઞાન श्रुतज्ञान અધિજ્ઞાન મન પર્યવજ્ઞાન केवलज्ञान નાનાન્તરવેદ્ય चिन्ता નેતના ત—િ उपयोग छद्मस्य जातिस्मृति ( 165 ) सविकल्प चेतना की प्रवृत्ति ज्ञान । निर्विकल्प चेतना की प्रवृत्ति - दर्शन । मूल कारण । अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एक धर्म का निश्चय । નયષ્ટિ | दुर्नय | एक सर्वव्यापी श्रात्मा की स्वीकृति । - पौराणिको द्वारा सम्मत एक प्रमाण । - देखें - प्रकरण चौथा । आत्मा को सर्वथा अपरिवर्तनीय मानने वाला सिद्धान्त । -सव द्रव्यो को क्षरणवर्ती स्वीकृत करनेवाला बोद्ध सिद्धान्त । - वस्तु का सहभावी धर्म । इन्द्रिय र मन से होनेवाला ज्ञान । - वाच्य वाचक संबंध की योजना से होनेवाला मानसिक ज्ञान । - श्रतीन्द्रिय ज्ञान का एक प्रकार । मूर्त द्रव्यो को साक्षात् जानने वाला ज्ञान | - प्रतीन्द्रिय ज्ञान का एक प्रकार | मन का साक्षात् ज्ञान । - अतीन्द्रिय ज्ञान का एक प्रकार । सर्वथा अनावृत ज्ञान, कोरा ज्ञान, निरुपाधिक ज्ञान । उत्तरवर्ती ज्ञान के द्वारा पूर्ववर्ती ज्ञान को जानना, ज्ञान का स्व- सवेदी न होना । नियमो का निर्णायक - वोध, तर्क या अह् । - श्रात्मा का एक गुण । इसी गुरण के द्वारा जीव की प्रजीव मे स्वतन्त्र सत्ता स्थापित होती है । जय को जानने की क्षमता । - ज य को जानने की प्रवृत्ति । - वह पुरुष जिसका ज्ञान पूर्णत निरावृत नही होता । पूर्वजन्मों का ज्ञान | Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तर्क दर्शन વપૂર્વો दुर्नय दृष्टान्त મૈં તવાવ ધર્મગ धर्मास्तिकाय वारणा નય नैगम मनह વ્યવહાર 은얻었다 – समभिरुद एवभूत ( 166 J - श्रन्वय और व्यतिरेक का निर्णय | मत्ता मात्र का बोध, निर्विकल्प वोच । जाननय - दगपूर्वी (शास्त्रो) का ज्ञाता | अपने अभिप्रेत वस्तुधर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मो का निराकरण करनेवाला विचार-विकल्प | --व्याप्ति का प्रतीति-स्थल | साव्य के समान किसी ग्रन्य प्रदेश का निदेश करना | इसके दो भेद हैं अन्वयी दृष्टान्त और व्यतिरेकी दृष्टान्त - दो तत्त्वो ( चेतन और अचेतन ) की स्वतंत्र स्वीकृत करने वाला सिद्धान्त । वेदो के आवार पर वर्म को जानने वाला | लोकव्यापी गति महायक द्रव्य | निर्णयात्मक ज्ञान की अवस्थिति, मस्कार या वामना । अनन्त धर्मात्मक वस्तुके विवक्षित का ग्रहण तथा शेष श्री का निराकरण न करने वाला प्रतिपादक का अभिप्राय, वस्तु के एक धर्म को जानने वाला जाता का अभिप्राय | नय सात हैं - प्रभेद या भेद दोनो को ग्रहण करने वाला अभिप्राय । - मामान्यग्राही विचार 1 इसके दो भेद हैं-पर और अपर । लोकप्रसिद्ध अर्थ का प्रतिपादन करने वाला विचार | जैसे भरें मे पाँचो वर्ण होते है, फिर भी उसे काला कहा जाता है । वर्तमान पर्यायग्राही विचा काल, मख्या, लिंग आदि के भेद में श्रर्यभेद स्वीकार करनेवाला विचार । मत्ता को पर्यायवाची शब्दो मे नितभेद से अर्थभेद स्वीकार करने वाला विचार | विभिन्न अपेक्षाओ से नयो के भेद क्रिया की परिणति के अनुरूप शब्दप्रयोग को स्वीकार करनेवाला विचार - ज्ञानप्रवान नय | Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 167 ) शब्दनय नास्तित्व क्रियानय -क्रियाप्रधान नय। द्रव्यायिकनय --सामान्य या अभेदग्राही दृष्टिकोण या व्याख्या । प्रथम नय द्रव्यायिक हैं। पर्यायायिक नय विशेष या भेदग्राही विचार । शे५ पार नय पर्यायाथिक है । अर्थनय - अर्थाश्रयी दृष्टिकोण। प्रथम चार नय नैगम, सग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र-ये अर्यनय हैं। उनमें शब्द का काल, लिग, निरुक्त आदि के आधार पर अर्य नहीं वदलता। - सदाश्रयी दृष्टिकोण । शेप तीन नय शब्द, समभिरूढ और एवभूत ये शब्दनाय हैं। इनमें शब्दो का काल, लिंग, निeth आदि के आधार पर अर्थ बदल जाता है। निश्चयनय ताविक अर्थ को स्वीकार करने वाला विचार । जैसे-भौरा काला है क्योकि उसका शरीर एक स्थूल स्कंध है । वस्तु का प्रतिषेधात्मक धर्म । निक्षेप प्रस्तुत अर्थ को जानने का उपाय, विशिष्ट आन्द-प्रयोग की पद्धति । नाम निक्षेप ~पदार्थ का नामात्मक व्यवहार । स्थापनानिक्षेप -पदार्य का श्राका राश्रित व्यवहार । द्रव्यनिक्षेप -पदार्थ का भूत-भावी पर्यायाश्रित व्यवहार । भावनिक्षेप -पदार्थ का वर्तमान पर्यायाश्रित व्यवहार । નિયમન माध्य धर्म का वर्मा मे उपसंहार करना । नित्यानित्यवाद સમી દ્રવ્યો જે નિત્ય બોર અનિત્ય સ્વીત કરને વાના सिद्धान्त । नियुक्तिकार - जन प्रागमो की प्राचीन व्याख्या को नियुक्ति कहा जाता है। ये प्राकृत भाषा की पद्यमय रचनाए है । आचार्य भद्रबाहु द्वितीय (वि पहली शती) नियुक्तिकार के रूप मे मान्य हैं। निर्विकल्पज्ञान अनाकार उपयोग या दर्शन । नंगमाभास एकान्त सामान्य या एकान्त विशे५ का पक्षपाती दृष्टिकोण। नो-केवलज्ञान ~ अवधिज्ञान और मन पर्यवसान । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय ( 168 ) युक्ति के द्वारा तत्व का परीक्षण । पचावयव प्रयोग प्रतिज्ञा, हेतु, हटान्त, उपनय और निगमन-य पाच अवयव है । पगर्वानुमान में इनका प्रयोग होता है । पक्षधर्मत्व .-हेतु का पक्ष मे होना। पर्याय -~-वस्तु का क्रममावी धर्म परमाणु परम + अ =परमाए । सर्व सूक्ष्म अविभाज्य अम । परमार्थ मत्य नै चयिक मत्य । ५२-ममय-4thव्यता - दूमरो के सिद्धान्त का निरूपण । परिणामवाद सत्कार्यवाद का अपर नाम । परिवामिनित्यत्ववाद देखे मदमत्कार्यवाद । परोक्ष इन्द्रियो के महयोग से होने वाला जान । पुइगलास्तिकाय स्पर्ग, वर्ण, गध और मयुक्त मूर्त द्रव्य । जन पागम-गास्त्र की एक मना । 'पूर्व' श्रुत या शब्द नान के अक्षय कोप हैं । इनकी नन्या चौदह है । जान की वह क्षमता जिममे अनात नियम और सवव भी जान लिए जाते है। પ્રતિજ્ઞા माध्य का निदंश करना। પ્રતિવર્વક હેતુ अवरोध उत्पन्न करने वाला पार । दूसरे प्रभारणो तया पौद्गलिक इन्द्रियों की महायता के विना प्रात्मा से उद्भूत होने वाला जान । लौकिक प्रत्यक्ष इन्द्रिय-जान । लोकोत्तर प्रत्यक्ष अतीन्द्रिय-जान । इन्द्रिय प्रत्यक्ष इन्द्रियो मे होने वाला साक्षात् जान । नो-इन्द्रिय प्रत्यक्ष अतीन्द्रिय जान । साव्यावहारिक इन्द्रिय श्री. मन मे साक्षात् होने वाला जान ! प्रत्यक्ष पारमायिक अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष । प्रनी प्रत्यक्ष प्रत्यक्ष परार्थ प्रत्यक्ष प्रत्यभिजा प्रत्यक्ष द्वारा नान अर्थ का वचनात्मक निरूपण । अनुभव और स्मृति के योग से उत्पन्न होने वाला मकाननात्मक जान । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्ष (विज्ञान) प्रमाण प्रमय ( 169 ) इन्द्रियो के द्वारा अजित अनुभव । सम्यग्ज्ञान, यथार्यज्ञान । सशय और विपर्यय से रहित भाव से पदार्थ का परिच्छेद करना । प्रमाण का साध्य । न्याय के चार अगो मे से एक । अभ्युपगम, सिद्धान्त । - योगिकजान । भविष्य मे घटित होने वाली घटना का पूर्वाभास । ग्राह्य वस्तु से सपृक्त होकर ही अपने विषय को जानने वाली इन्द्रिया। वे चार हैं स्पर्शन, रसन, ब्राण और श्रोत्र। प्रस्थान प्रातिभनान प्राप्यकारी इन्द्रिया प्रामाण्य -- स्वत प्रामाण्य परत प्रामाण्य भग भजनावाद भाषा वर्गणा युक्ति योगिप्रत्यक्ष વસ્તુવાવી દર્શન जानने के साथ-साथ यह जानना यथार्थ है' ऐसा स्वप्रत्यथित ज्ञान । जानने के साथ-साथ यह जानना यथार्य है' ऐसा सवादक प्रमाण से जानना । विकल्प विकल्पवाद । भापा के रूप मे परिणत होने योग्य पुद्गलो का समूह । न्याय-विद्या । महर्षि चरक द्वारा स्वीकृत एक प्रमाण । बौद्ध सम्मत प्रत्यक्ष का एक भेद । वस्तु की सत्ता को वास्तविक मानने वाला, वस्तु के अस्तित्व को जान से भिन्न मानने वाला। पाच्य-वाचक का सवध । वाच्य जो कहा जा सके, वाचक - जिसके द्वारा कहा जाए। हेतु का विपक्ष मे होना। अतत् मे तत् का अध्यवसाय । जो जैसा नही है उसको वैसा जानन।। विकल्पवाद अर्थात् स्यादवाद । दीर्घकालीन पर्याय, जीवनव्यापी पर्याय । इद्रिय और अर्थ का सबध-वोध । साध्य के अभाव मे साधन का अभाव । वाच्यवाचकभाव विपक्षमत्त्व विपर्यय विभज्यवाद व्यजन पर्याय व्यजनावग्रह થતિ રેવ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 170 ) व्यपदेश कथन । વ્યવસાયી निर्णायक થાપ્તિ कालिक साहचर्य या अविनामाव का नियम । जमे जहा. जहा धूम है वहाँ-वहा अग्नि है। अन्तराप्ति पक्षीकृत विषय मे ही मावन की नाध्य के साथ व्याप्ति मिले, अन्यत्र न मिले, यह अन्तयाप्ति है। इसमें सावर्य नही मिलता। वहिरव्याप्ति - पक्षीकृत विषय के सिवाय भी मावन की माध्य के माय व्याप्ति । इसमें साधर्म्य मिलता है। जा (प्रत्यभिज्ञा) स्मृति और प्रत्यक्ष से होने वाला यह वह है' इस प्रकार का वोध । मभव .-पौराणिको द्वारा मम्मत प्रमाए। का एक प्रकार । मभिन्नश्रोतोलधि - प्रत्येक इन्द्रिय का पानी इन्द्रियों के विषयो को ग्रहण करने की क्षमता का विकास सवृतिसत्य व्यावहारिक या काल्पनिक सत्य । निर्णयशून्य विकल्प । मत्कार्यवाद कार्य की उत्पत्ति से पूर्व उपकी सत्ता कारण मे विद्यमान रहती है ऐमा सिद्धान्त । सास्य सत्कार्यवादी है। मदमत्कार्यवाद कार्य कारणरूप मे मत् और कार्य रूप मे अमत् रहता है एमा सिद्धान्त । जैन सद्सत्कार्यवादी है । ન્દ્રિય ચૌર શ્રર્ય તો સામીપ્ય " सपक्षसत्त्व हेतु का पक्ष (अन्वयदृष्टान्त) मे होना । सप्तमगी सात विकल्प । स्यादवाद के सात विकल्प है। सामानाधिकरण्य दो धर्मों का एक प्राधार मे होना। --अभेद प्रतीति का निमित्त । तिर्यक सामान्य दो या अनेक द्रव्यो में जातिगत एकता, जैसे वरंगद, नीम आदि मे वृक्षत्व । एक ही द्रव्य की पर्यायगत एकता, जैसे वचपन और यौवन मे समानरू५ मे रहने वाला पुरुषत्व । थतनान दात्मक जान । शब्द या संकेत के द्वारा दूसरो को ममझाने में समर्थ ज्ञान । सब मामान्य ऊध्वता सामान्य Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । 171 ) शब्दालगज शब्दात्मक हेतु से होने वाला ज्ञान । अलिगज अर्थात्मक हेतु से होने वाला ज्ञान, जैसे धूम से होने वाला अग्नि का ज्ञान । सौत्रान्तिक वौद्ध दर्शन के चार सप्रदायो मे एक। ये बाह्यानुमेय वादी है। स्फोट शब्द का उपादान कारण। स्मृति -~-सस्कार के जागरण से होने वाला 'वह' इस प्रकार का वोध । तिऽन्त प्रतिरूपक निपात । इसके अनेकान्त, विधि, विचार, श्रादि अनेक अर्थ होते है। 'स्याद्वाद' मे प्रयुक्त 'स्यात्' शब्द का अर्थ है अनेकान्त । स्थाद्वाद देखें पाचवा प्रकरण। स्वलक्षण वस्तु का क्षणवर्ती होना। स्व-सवेदन प्रत्यक्ष बौद्ध-सम्मत प्रत्यक्ष का एक भेद । स्व-समय वक्तव्यता अपने मत का सिद्धान्त । हीनयान बौद्ध धर्म की एक शाखा । देख-प्रकरण सातवा । स्यात् Page #188 --------------------------------------------------------------------------  Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५ प्रयुक्त ग्रन्थ सूची Page #190 --------------------------------------------------------------------------  Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक लेखक-सपादक ग्रन्थ जैन विश्व भारती, लाडनू (1974) 1 स. मुनि नथमल अणुअोगद्दाराइ 2 प्राचार्य हेमचन्द्र अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका डॉ गोविन्दचन्द्र पाडे कृत अनुवाद दर्शन प्रतिष्ठान, जयपुर (सन् 1971) 3 अपोहसिद्धि भा जैन सिद्धान्त प्रकाशन संस्था, काशी(सन् 1914) अष्टशती अकलक ( 175 ) प्राप्तमीमासा प्राचार्य समन्तभद्र 5 6 आयारो स मुनि नथमल जैन विश्व भारती, लाडनू (सन् 1974) जैन श्वेताम्बर तेरापथी महासभा, कलकत्ता (सन् 1967) वीर शामन सघ, कलकत्ता (ई 1955) 7 स मुनि नथमल उत्तरज्झयणारिण 8 कसायपाहुड प्राचार्य गुणधर ग्रन्यमाला कलकत्ता 9 गोमटसार या नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती 10 चरक आदर्श साहित्य सघ, चूरू (द्वितीयावृत्ति, सन् 1970) आचार्य तुलसी 11 जैन सिद्धान्त दीपिका Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक लेखक-सपादक ग्रन्थ 12 ठाण स मुनि नथमल जैन विश्व भारती, लाडनू (सन् 1976) दे ला जैन पुस्तको फड, बम्बई (वि 1982) 13 तत्त्वार्थ भाष्य उमास्वाति (स्वोपज्ञ) भारतीय ज्ञानपीठ, काशी (1953) 14 तत्त्वार्थ वार्तिक अकलक 15 तत्त्वार्थ राजवार्तिक ) 16 तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक प्राचार्य विद्यानन्दि 9 प्राचार्य उमास्वाति ( 17 तत्त्वार्थ सूय 18 तिलोयपण्णत्ती 19 । दशवकालिक नियुक्ति निर्णयसागर यत्रालय, बम्बई ( 1918) निर्णयसागर यत्रालय, बम्बई (ई 1905) जैन मस्कृति सरक्षक संघ, सोलापुर (1943) आगमोदय ममिति, भावनगर, गुजरात प्राचार्य यतिवृपभ प्राचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) स मुनि नथमल आचार्य कुन्दकुन्द अप्रकाशित 20 नदी 21 नियममार दिगम्बर जैन पुस्तकालय, मूरत, (स 1966) न्यायकुमुन्दचन्द्र प्राचार्य प्रभाचन्द्र माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला,बम्बई(ई.1938) Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न० 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 133 न्यायविन्दु न्यायभाष्य न्यायवार्तिक न्यायविनिश्चय न्यायसूत्र न्यायावतार पचास्तिकाय परीक्षामुख पाश्चात्यदर्शन ग्रन्थ पुरुषार्थसिद्धयुपाय प्रमाणनयतत्त्वालोक डॉ गोविन्दचन्द्र पाडे कृत अनुवाद वात्स्यायन उद्योतकर लेखक-संपादक अकलक अक्षपाद गौतम सिद्धसेन दिवाकर आचार्य कुन्दकुन्द आचार्य माणिक्यनन्दि चन्द्रधर शर्मा श्राचार्य अमृतचन्द्र वादिदेवसूरी प्रकाशक दर्शन प्रतिष्ठान, जयपुर, (सन् 1972) सिंघी जैन ग्रन्थमाला, कलकत्ता, ( ई 1939) श्वे जैन महासभा, बम्बई (वि 1985) परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई ( वि 1972 ) जैन मस्कृति सघ, सोलापुर (ई 1962) मनोहर प्रकाशन, जतनवर, वाराणसी (1973) परमश्रुत प्रभावक मण्डल, अगास, गुजरात (पाचवी आवृत्ति, 1966) यशो वे जैन पाठशाला, काशी (ई 1904 ) ( 177 ) Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ लेखक-सपादक प्रकाशक प्राचार्य हेमचन्द्र सिंघी जैन ग्रन्थमाला, कलकत्ता (ई 1939) 34 प्रमाणमीमासा 35 प्रमाणवार्तिक वर्मकीर्ति 36 प्रवचनप्रवेश अकलक 37 प्रवचनसार प्राचार्य कुन्दकुन्द परमथ त प्रभावक मडल, वम्बई (1969) 38 बृहद्नयचक्र ( 178 ) 39 भगवई म, मुनि नथमल जैन विश्व भारती, लाडनू (मन् 1974) 40 लघीयस्त्रय प्राचार्य अकलक मा दि जैन गन्थमाला, बम्बई (वि 1972) 41 विशेपावश्यक भाष्य | जिनभद्रगरणी क्षमाश्रमण शास्त्रवार्तासमुच्चय 43 श्लोकवार्तिक आचार्य हरिभद्र प्राचार्य कुमारिल ऋपभदेव केसरीमल श्वेताम्बर मस्था, रतलाम (ई 1936) श्री जैन ग्रन्थ प्रकाशन सभा, अहमदाबाद (ई० 1939) 4+ सप्तमगीनरगिणी विमलदास परमथ त प्रभावक मडल, बम्बई (वी नि 2431) Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक लेखक-सपादक पन्थ , मन्मतिप्रकरण नर्वामिति | मान्यकारिका भूयगडो / स्वयभूस्तोत्र आचार्य मिद्धसेन ज्ञानोदय ट्रस्ट, अहमदाबाद (ई 1963) प्राचार्य पूज्यपाद भारतीय ज्ञानपीठ, वनारस (ई 1971) ईश्वरकृष्ण अनु डॉ ब्रजमोहन चतुर्वेदी नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली (ई 1969) म मुनि नथमल जैन विश्व भारती, लाडनू (ई 1974) प्राचार्य समन्तभद्र वीर सेवा मदिर, सहारनपुर (ई 1950) प्राचार्य हरिभद्र श्री जैन ग्रन्थ प्रकाशन सभा, अहमदाबाद (ई 1939) ( 179 ) फलाप्टप्रकरण