________________
( 37 ) विभिन्न चिन्तको ने सत्य के विभिन्न रू५ उपस्थित किए है। उसकी दो आधारशिलाए हैं निर्विकल्प अनुभूति और सविकल्पज्ञान । निर्विकल्प अनुभूति मे जय का साक्षात्कार होता है, इसलिए तद्विषयक बोध भिन्न नही होता । ऐन्द्रियिक स्तर पर होने वाले सविकल्पज्ञान मे ज्ञेय का साक्षात्कार नही होता, इसलिए उसका वोध नाना प्रकार का होता है । वेदान्त ने द्रव्य को पारमार्थिक सत्य मानकर पर्याय को काल्पनिक मान लिया। वौद्धो ने पर्याय को परमार्थ सत्य मानकर द्रव्य को काल्पनिक मान लिया । जैन न्याय के अनुसार द्र०य और पर्याय दोनो पारमार्थिक सत्य हैं । पर्याय की तरगो के नीचे छिपा हुआ द्रव्य का समुद्र हमे दृष्ट नही होता तव पर्याय प्रधान और द्रव्य गौण हो जाता है। द्रव्य के शान्त समुद्र मे जब पर्याय की मिया अदृष्ट होती हैं तव द्रव्य प्रधान श्रीर पर्याय गौण हो जाता है । वेदान्त का विकल्प समुद्र की अतर गित अवस्था है और पौद्धो का विकल्प उसकी तरगित अवस्था है। अनेकान्त की दृष्टि मे ये दोनो समन्वित है
'अपर्यय वस्तु समस्यमानमद्रव्यमेतच विविध्यमानम् ।
आदेशभेदोदितसप्तभङ्गमदीशव बुधरूपqधम् ॥2 हमारा विकल्प जव सश्लेषणात्मक होता है तब द्रव्य उपस्थित रहता है, पर्याय खो जाते हैं और हमारा विकल्प जव विश्लेषणात्मक होता है तब पर्याय उपस्थित रहता है, द्रव्य खो जाता है। अनेकान्त-व्यवस्था के युग मे कुछ अविनाभाव के नियम निर्धारित किए गए । यह इस युग की महत्वपूर्ण निष्पत्ति है।
अनेकान्त का पहला नियम है सामान्य और विशेष का अविनाभाव सामान्य विशेष का अविनाभावी है और विशेष सामान्य का अविनाभावी है । इसका फलित है कि द्रव्य रहित पर्याय और पर्याय रहित द्रव्य सत्य नहीं है। सत्य और मिथ्या के बीच मे कोई विशेष दूरी नही है। एक विकल्प सत्य और दूसरा विकल्प असत्य ऐसी विभाजन-रेखा नही है । केवल इतनी-सी दूरी है कि सामान्य विशेष से निरपेक्ष होता है और विशेष सामान्य से निरपेक्ष होता है तो वे दोनो विकल्प मिथ्या हो जाते हैं । दोनो एक-दूसरे के प्रति सापेक्ष होते हैं तो दोनो विकल्प सत्य
हो । व्यवहार न विशुद्ध कल्पना पर आधारित है और न विशुद्ध परमार्य ५२ । उसका विश्व कल्पित और अकल्पित, दोनो ही प्रकार के तत्वो से सपिडित है। जहा सौत्रान्तिको की दृष्टि उसके वस्तुपक्ष पर केन्द्रित है, विज्ञानवादियो की ष्टि उसके कल्पना-पक्ष पर । दिनाग ने दोनों को समुचित कर एक नई धारा प्रवाहित की।
-अपोहसिद्धि, गोविन्दचन्द्र पाडे कृत अनुवाद, पृष्ठ 29 अन्ययोगव्यवच्छेद्वात्रिशिका, २लोक 23 1
2