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( 2 ) प्रमेय के विषय मे दो मत हैं । कुछ दर्शन प्रमेय की वास्तविता को स्वीकार करते हैं और कुछ नकारते हैं, किन्नु प्रमाण के विषय मे दो मत नहीं है। प्रमेय की पास्तविकता और अवास्तविकता-दोनो ही प्रमाण के द्वारा सिद्ध की जाती हैं। इमलिए सर्वप्रथम प्रमाण की चर्चा करना आवश्यक है।
प्रमाण संस्था
प्रमाणो की सस्या के विषय मे मव दर्शन एकमत नहीं हैं। चार्वाक दर्शन ने एक प्रत्यक्ष प्रमाण को स्वीकृति दी है। पाद और वैशेषिक दर्शन में दो प्रमार॥ सम्मत हैं-प्रत्यक्ष और अनुमान । जनदर्शन भी दो प्रमाणो को स्वीकार करता है प्रत्यक्ष और परोक्ष । माख्य दर्शन मे तीन प्रमाण स्वीकृत है प्रत्यक्ष, अनुमान और बागम । नैयायिक दर्शन प्रमाण-चतुष्टयी को मान्यता देता है प्रत्यन, अनुमान, आगम और उपमान । मीमामक दर्शन में प्रभाकर ने 'अपित्ति को जोडकर पाच और कुमारिल ने 'प्रभाव के साथ छह प्रमाण स्वीकृत किए है । महर्षि चरक ने 'युक्ति' महित मात और पौराणिको ने 'ऐतिह्य के माय पा० प्रमाण मान है। प्रमाणो की सस्या का और भी विस्तार किया जा सकता है । प्रामाणिको ने प्रमाणसंख्या के संदर्भ मे एकमति क्यो नही प्रदशित की ? नाना मतिया क्यो स्वीकृत है ? इसके हेतु की खोज आवश्यक है। उपादान के नानात्व से प्रमाण का नानात्व
प्रमाण के उपादान पार हैं। 1 इन्द्रिय-जान । 2 मानसिक-ज्ञान।
प्रना। 4 अतीन्द्रिय-जान ।
जिन दार्शनिको ने केवल इन्द्रिय-जान को ही निर्णायक माना उनके सामने केवल प्रत्यक्ष को प्रमाण मानने के अतिरिक्त कोई विकल्प शेष नही रहा । भारतीय दर्शनो मे चार्वाक दर्शन ने इन्द्रिय-जान को ही सत्य की शोध का साधन माना था। उसका अभ्युपगम है कि जो इन्द्रिय के द्वारा जाना जाता है वह यथार्थ है, शेष अयथार्थ । इन्द्रियातीत नान कल्पना के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जब जानने की मर्यादा केवल इन्द्रिय-जान है तब प्रत्यक्ष के सिवाय कोई प्रमाण हो नहीं सकता। एक प्रत्यक्ष प्रभास की स्वीकृति के कारण पाकि दर्शन के अनुयायियों को व्यावहारिक कठिनाइयो का सामना करना पड़ा। उनके समाधान के लिए उन्होंने 'अनुमान' की उपादेयता स्वीकृत की। यह स्वीकृति मात्र श्रीपचारिक है, व्यवहारमिद्धि के लिए है, किन्तु वास्तविक नही है ।