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: 1: प्रागमयुग का जैन न्याय
"यस्मिन् विज्ञानमानन्द, ब्रह्म चकात्मता गतम् । स श्रद्धय स च ध्येय , प्रपद्य शरण च तत् ॥"
प्रमेय की सिद्धि प्रमाणाधीन
भारतीय दर्शन में सर्वप्रथम प्रमाण की चर्चा की जाती है। प्रमेय की चर्चा उसके पश्चात् आती है । प्रमाण और प्रमेय ये दो न्यायशास्त्र के मूलभूत अंग हैं । प्रमेय की स्थापना प्रमाण के द्वारा होती है । 'प्रमेयसिद्धि प्रमाणाद्धि' प्रमेय की सिद्धि प्रमाण से होती है, यह ईश्वरकृष्ण का अभिमत है ।' प्राचार्य अकलक का भी यही मत है । प्रमेय का अस्तित्व स्वतत्र है, किन्तु उसकी सिद्धि प्रमाण के अधीन है। जब तक प्रमाण का निर्णय नही होता तब तक प्रमेय की स्थापना नही की जा सकती। इसीलिए दर्शन के प्रारम्भ मे प्रमाण-विद्या [तर्क-विद्या, भान्वीक्षिकी या न्याय-विद्या ] की चर्चा की जाती है।
आगम सूत्रो मे पहले ज्ञान का फिर ज्ञय का निर्देश मिलता है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार मे ज्ञानखड के पश्चात् ज्ञयखड का प्रतिपादन किया है। अनुयोगद्वार तथा नदीसूत्र का प्रारम्भ शान-सूत्र से ही होता है।
सत्य ज्ञय है । उसको जानने का साधन ज्ञान है । सत्य का अस्तित्व अपने आपमे है। वह ज्ञाता के ज्ञान पर निर्भर नहीं है और उससे उत्पन्न भी नही है । पैतन्य का अस्तित्व भी स्वतंत्र है। वह शेय पर निर्भर नहीं है और उससे उत्पन्न भी नही है। पैतन्य के द्वारा कुछ जाना जाता है तब वह ज्ञान बनता है और जो जाना जाता है वह ज्ञेय बनता है । पैतन्य मे जानने की क्षमता है इसलिए वह शान बनता है और पदार्थ मे ज्ञान का विषय बनने की क्षमता है इसलिए वह ज्ञय बनता है। इसीलिए जन दार्शनिको ने ज्ञय से पूर्व शान की मीमासा की है।
1 साख्यकारिका, 4 2 तत्वार्थ राजवात्तिक 1/10
प्रमेयसिद्धि प्रमाणाधीना । 3 उत्तरायणाणि, 28/4-14