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(85) प्रामाण्य और अप्रामाण्य ।
ज्ञान का स्वरूप उभय प्रकाशी है । उसके स्वप्रकाशी स्वरूपाश मे प्रामाण्य और अप्रामाण्य का प्रश्न उपस्थित होता है। 5 जो अर्थ जैसा है उसे उसी रूप मे जानना, प्रमेय के प्रति अविसवादी या अव्यभिचारी होना, प्रामाण्य है । व्यभिचारी या विसवादी होना- जो अर्थ जसा नहीं हैं वैसा जानना - अप्रामाण्य है ।16
प्रामाण्य और अप्रामाण्य ज्ञान मे स्वाभाविक होता है या किसी बाहरी सामग्री से उत्पन्न होता है ?- यह प्रश्न तार्किक परम्परा मे बहुत मीमासित हुआ है ।
जन परम्परा का मत यह है प्रामाण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति परत होती है और उनकी ज्ञप्ति (निश्चय) अभ्यास (परिचय की) दशा मे स्वत होती है
और अनायास (अपरिचय की) दशा मे परत होती है। मैं मानता हूं कि विभज्यवाद का श्राश्रय लिए विन। इस विषय की स्पष्टता नही हो सकती । प्रस्तुत मत प्रमाणशास्त्रीय चर्चा के संदर्भ मे निश्चित हुआ है । आगमिक ज्ञान मीमासा के
अन्वय-प्रत्यय भी नहीं होता। इसलिए वह बाह्य पदार्थ को ग्रहण नहीं करता, केवल चैतन्यरूप रहता है। जब बाह्य पदार्थ को जानने के लिए चैतन्य साकार या ज्ञेयाकार होता है तब वह ज्ञान कहलाता है ।
विषय और विषयी के सन्निपात के अनन्तर पदार्थ का जो निर्विकल्प या सामान्य बोध होता है, वह दर्शन है । और उसके पश्चात् जो सविकल्प वोध होता है, वह ज्ञान है । यह दर्शन और शान की दार्शनिक व्याख्या है। दिखें कसायपाहुड, भाग 1, पृ० 338, धवला, भाग 1, पृष्ठ 149, वृहद् द्रव्यसग्रह टीका, 45 43]
अनाकार-साकारगत 'प्राकार' शब्द का अर्थ विकल्प, विशेष और कर्मकारक होता है । बौद्ध तदुत्पत्ति और तदाकारता से प्रतिनियत अर्थ का ज्ञान होना मानते हैं। जनी को यह अभिप्रेत नही है । अमृत ज्ञान मूर्त पदार्थ के आकार का नही हो सकता । प्रस्तुत विषय मे साकार या शेयाकार का प्राशय यही है कि बाह्य विषय को जानने के लिए शाता मे एक विकल्प उत्पन्न होता
है । उस आन्तरिक विकल्प को साकार या शेयाकार उपयोग कहा जाता है । 15 प्राप्तमीमासा, श्लोक 83
भावप्रमेयापेक्षाया, प्रमाणाभासनिन । वहि प्रभेयापेक्षाया प्रमाण तन्निभ च ते ॥ प्रमाणनयतत्वालोक, 1118
ज्ञानस्य प्रमेयाव्यभिचारित्व प्रामाण्यम् । तदितरत्वमप्रामाण्यम् । 17 प्रमानयतत्वालोक, 1119
तदुभयमुत्पत्तौ परत एव, सप्तौ तु स्वत परतश्च ।
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