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________________ ( 34 ) 8 यदि अतीन्द्रियशानावस्था मे मन, भाषा, पाणी आदि का लोप हो जाता है तो उम अवस्था मे लौटने पर अर्थात् साधारण लौकिक-शान के स्तर पर पाने के बाद उस व्यक्ति की अतीन्द्रिय अवस्था की स्मृति कसे रह सकती है ? क्योकि स्मृति तो तव ही रह सकती है जब अतीन्द्रिय अवस्था मे श्राप मन की भी किसी प्रकार मे सत्ता स्वीकार करें। अतीन्द्रिय-शानावस्या ज्ञानपक्ष है । यह जीवन का क्रियापक्ष नही है । वाणी जीवन का क्रियापक्ष है । मन शानपक्ष और क्रियापक्ष--दोनो के दायित्व का पहन करता है । क्रियापक्ष को वहन करने वाला द्रव्यमान और शानपक्ष को वहन करने वाला भावमन होता है । अतीन्द्रियज्ञानी यदि केवली है तो उनके क्रियापक्ष का वहन करने पाला मन और वाणी ये दोनो होते हैं। उनके शानपक्ष का मन नहीं होता। बागम साहित्य मे उन्हे नो रामनस्क और नो-अमनस्क कहा गया है । सामान्य अतीन्द्रियशानी के ज्ञानपक्ष का मन भी होता है। किन्तु अतीन्द्रियमान के उपयोग में वे मन का सहयोग नही लेते । अतीन्द्रिय-ज्ञानावस्था मे मन वाणी श्रादि का लोप हो जाता हे इस भाषा की अपेक्षा यह भाषा अधिक उपयुक्त होगी कि उस अवस्था मे मन, वाणी आदि महयुक्त नहीं होते। केवली लौकिकशान के स्तर पर कभी नही लौटते । सामान्य अतीन्द्रियमानी अतीन्द्रियज्ञान के लिए मानसशान का प्रयोग नहीं करते, किन्तु उनके मन का लो५ નહી હોતા શ્રત ની પ્રતીન્દ્રિય નેતના પ્રપને અનુભવો છો માનસિક વેતના ને सक्रान्त कर देती है। फलत अतीन्द्रिय-ज्ञानावस्था के अनुभव मन की धरोहर बन जाते हैं । 9 श्रापने कहा-केवली ही आगम है और स्वत प्रमाण है । प्रश्न है कि क्या केवली वाचिक क्रिया करता है अथवा नही ? यदि नही तक तो उसका ज्ञान वैयक्तिक अनुभूति-मात्र है, इसलिए दूसरे उसे ज्ञान कहकर सवाधित नही कर सकेंगे । और यदि केवली वाचिक क्रिया के द्वारा अपना ज्ञान अभिव्यक्त करता है तो दूसरी के लिए जो वस्तु प्रमाण होगा वह उसकी वाचिक क्रिया होगी, जो कि श्रुतशान के समान ही है। फिर, मात्र वचन ही प्रमाण नही हो सकता । वचन के साथ कुछ अन्य कारक मिलकर ही श्रुतज्ञान को प्रमाणरू५ मे स्थापित कर सकेंगे। __जैसे परानुमान काल मे अनुमाता का वचन दूसरे के लिए प्रमाण होता है वैसे ही केवली का वचन भी दूसरे के लिए प्रमाण होता है। कोरा वचन प्रमाण नही होता, किन्तु यह शान को अभिव्यक्त करता है इसलिए प्रमाण होता है । कोई लौकिक प्राप्तपुरु५, जिसने अपनी श्राखो से वन मे सिंह को देखा है और वह आकर
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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