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न्याय की परिभाषा इस प्रकार होगी 'प्रमाणनये रर्याधिगमो न्याय -प्रमाण और नय के द्वारा अर्थ का अधिगम ( निर्णय या परीक्षण) करना 'न्याय' है । उद्योतकर ने प्रमाण-व्यापार के द्वारा किये जाने वाले अधिगम को 'न्याय' माना है । 13 जैन परम्परा मे 'न्याय' की अपेक्षा 'युक्ति' शब्द अधिक प्रचलित रहा है । यतिवृषभ का अभिमत है कि जो व्यक्ति प्रमाण, नय और निक्षेप के द्वारा अर्थ का निरीक्षण नहीं करता, उसे युक्त प्रयुक्त और प्रयुक्त युक्त प्रतीत होता है । 14
प्रमाण का अर्थ है सम्यग् ज्ञान । नय का अर्थ है वस्तु के एक धर्म को जानने वाला ज्ञाता का अभिप्राय । निक्षेप का अर्थ है - - प्रस्तुत अर्थ को जानने का उपाय । प्रमारण, नय और निक्षेप की युक्ति के द्वारा होने वाला अर्थ का अधिगम 'न्याय' है । यतिवृषभ के शब्दो मे यह न्याय आचार्य परम्परा से चला ना रहा है 115 आचार्य समन्तभद्र के श्रभिमत मे जैन-न्याय का प्रतिनिधि शब्द 'स्यात् ' है । वह सर्वथा विधि श्रोर सर्वथा निषेध को स्वीकार नहीं करता । उसके अनुसार विधि और निषेध दोनो सापेक्ष है 116 जैन परम्परा के अनुसार समूचा प्रमाणशास्त्र या न्यायशास्त्र स्यादवाद की मर्यादा का अतिक्रमण नही करता । उक्त तथ्यों के आधार पर जैन तर्क-परम्परा के अनुसार न्याय की परिभाषा यह होगी प्रमाण, नय और निक्षेप के द्वारा किया जाने वाला वस्तु का सापेक्ष अधिगम 'न्याय' है ।
जैन न्याय के तीन युग
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जैन न्याय तीन युगो मे विभक्त होता है 1, आगमयुग का जैन-न्याय |
न्यायवार्तिक,
14 तिलोयपण्णत्ती, 1/82
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समस्तप्रमाणव्यापारादर्थाधिगतिर्व्याय ।
जोग मायेहि क्खिवेण रिक्खदे प्रत्य । तस्साजुत्त जुत्त जुजु च पडिहादि ॥ तिलोयपण्णत्ती, 1/ 83,84
होदि प्रमाणो वि गादुस्स हिदयभावत्यो । रिणम्खेवो वि उवाश्रो जुत्तीए प्रत्थपडिगहण ॥ इस गाय अवहारिय श्रइरियपरपरागद मरणसा पुण्वाइरियाश्रारणास रणन तिररणयरिणमित्तं ॥ स्वयंभू स्तोत्र 102
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सर्वथा नियमत्यागी
यथादृष्टमपेक्षक । स्याच्छन्दस्तावके न्याये नान्येषामात्मविद्विषाम् ॥