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( 70 ) 'नील कमलमस्त्येव' -नील कमल होता ही है । इस वाक्य मे अत्यन्तअयो। का व्यवच्छेद है । पूर्ण सद्भाव की विधि तथा सर्वथा प्रयोग विषयक अर्का की निवृत्ति के लिए क्रिया के साथ 'एक्कार' का प्रयोग किया जाता है ।
स्यात् अस्ति एवं घर' कथपिद् घट है ही। इस qाक्य मे 'पट' विशेय और 'अस्ति' विशेषण है । 'एक्कार' विशेषण के साथ जुड़कर ५८ के अस्तित्व धर्म का अवधारण करता है। यदि इस वाक्य मे 'स्यात्' का प्रयोग नहीं होता तो 'अस्तित्व- एकान्तवाद' का प्रमग या जाता । वह इष्ट नहीं है । क्योकि घट मे केवल अस्तित्व धर्म नही है उसके अतिरिक्त अन्य धर्म भी उसमे हैं। स्यात्' शब्द का प्रयोग इस आपत्ति को निरस्त कर देता है । 'एक्कार' के द्वारा सीमित अर्थ को वह व्यापक बना देता है। विवक्षित धर्म का अमदिन प्रतिपादन और अविवक्षित अनेक वर्मो का सग्रहण इन दोनो की निष्पत्ति के लिए 'स्यात्कार' और 'एक्कार' का समन्वित प्रयोग किया जाता है।
सप्तमगी के प्रथम भंग मे विवि की और दूसरे मे निषेध की कल्पना है। प्रथम भाग मे विवि प्रवान है और दूसरे मे निषेध । शब्द के द्वारा विवक्षित धर्म प्रधान और जो गम्यमान होता है (शब्द द्वारा विवक्षित नही होता) वह गोरस होता है।
वस्तु स्वरूपशून्य नहीं है इसलिए विवि की प्रधानता से उसका प्रतिपादन किया जाता है और वह सर्वात्मक नहीं है इसलिए निषेध की प्रधानता ने उसका प्रतिपादन किया जाता है । विधि जैसे वस्तु का धर्म है वैसे ही निषेध भी वस्तु का धर्म है । स्व-द्रव्य की अपेक्षा घट का अस्तित्व है। यह विधि है । पर द्रव्य की अपेक्षा घट का नास्तित्व है । यह निषेव है । इसका अर्थ हुआ कि निषेध अपिक्षिक पर्याय है-दूसरे के निमित्त से होने वाला पर्याय है। किन्तु वस्तुत. ऐसा नही है । निषेध की शक्ति द्रव्य मे निहित है । द्रव्य यदि अस्तित्व वर्मा हो और नास्तित्पवर्मा न हो तो वह अपने द्रव्यत्व को बनाए नही रख सकता । निषेध 'पर' की अपेक्षा से व्यवहृत होता है, इसलिए उसे आपेक्षिक या पर-निमित्तक पर्याय कहते हैं । वह वस्तु के सुरक्षा-कवच का काम करता है, एक के अस्तित्व मे दूसरे को मिश्रित नही होने देता । 'स्व-द्रव्य की अपेक्षा से घट है' और 'पर-द्रव्य की अपेक्षा घट नही है ये दोनो विकल्प इस सचाई को प्रगट करते हैं कि ५८ सापेक्ष है । वह सापेक्ष है इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि जिस क्षण मे उसका अस्तित्व है, उस क्षण मे उसका नास्तित्व नही है । या जिस क्षण मे उसका नास्तित्व है, उस क्षण मे उसका अस्तित्व नहीं है । अस्तित्व और नास्तित्व (विधि और निषेध)-दोनो युगपत् है । किन्तु एक क्षण मे एक साथ दोनो का प्रतिपादन कर सके, ऐसा कोई शब्द नही है । इसलिए युगपत् दोनो धर्मो का बोध कराने के लिए अवक्तव्य भग का प्रयोग होता