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घट शब्द के प्रयोग से उत्पन्न घटाकार ज्ञान स्वात्मा है, बाह्य घटाकार
परात्मा है ।
चेतना के दो प्रकार होते हैं-
ज्ञानाकार प्रतिविम्वशून्य दर्पण की भाति । ज्ञेयाकार प्रतिविम्वयुक्त दर्पण की भाति ।
इनमे ज्ञेयाकार स्वात्मा है और ज्ञानाकार परात्मा है । यदि ज्ञानाकार से घट का अस्तित्व माना जाए तो पट आदि के ज्ञानकाल मे भी घट का व्यवहार होना चाहिए | यदि ज्ञेयाकार से घट का नास्तित्व माना जाए तो घट का व्यवहार ही निराधार हो जाएगा।
4 वाच्य और श्रवाच्य का श्रविनाभाव
अनेकान्त का चौथा नियम है- वाच्य और अवाच्य का अविनाभाव वाच्य श्रवाच्य का अविनाभावी है और अवाच्य वाच्य का अविनामावी है । द्रव्य अनन्तधर्मात्मक है | एक क्षण मे युगपत् अनन्त धर्मों का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता, श्रायु और भाषा की सीमा होने के कारण कभी भी नही किया जा सकता | इस समग्रता की अपेक्षा से द्रव्य अवाच्य है 110 एक क्षण मे एक धर्म का प्रतिपादन किया जा सकता है । अनेक क्षरणो मे अनेक धर्मों का भी प्रतिपादन किया जा सकता है | इस आशिक अपेक्षा से द्रव्य वाच्य है ।
अनेकान्त का व्यापक उपयोग
उक्त नियम-चतुष्टयी अनेकान्त का आधार स्तम्भ है | दर्शनयुग मे दार्शनिक समस्याओं को सुलझाने के लिए इस चतुष्टयी का व्यापक उपयोग हुआ है । प्रमारण व्यवस्था का विकास होने पर भी इसका उपयोग कम नही हुआ । यह सिद्धान्त बराबर मान्य रहा कि अनेकान्त के विना प्रमाण की व्यवस्था सम्यक् नही हो सकती | आचार्य सिद्धसेन ने न्यायावतार मे प्रमाण की विवेचना की और अन्त मे अनेकान्त का निरूपण कर उसकी अनिवार्यता स्थापित की । कलक, विद्यानन्द, हरिभद्र, माणिक्यनन्दि, वादिदेव, हेमचन्द्र आदि सभी आचार्यो ने प्रमारण की चर्चा
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9 तत्त्वार्यवार्तिक 1161
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विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 450, स्वोपज्ञवृत्ति
उक्कोसयसुतरणाणी वि जारणमारणो वि तेऽभिलप्पे वि ।
तरति सव्वेवोत्तु र पहुप्पति जेरण कालो से ॥
इह तानुत्कृष्टश्रुतो जानानोऽभिलाप्यानपि सर्वान् (न)
भाषते, अनन्तत्वात्, परिमितत्वाच्यायुष क्रमवर्तिनीत्वाद् वाच इति ।
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