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( 24 ) नैयायिक इन्द्रिय और अर्य के मन्त्रिक से होने वाले नान को प्रत्यक्ष मानते हैं । नव्य नैयाथिको ने प्रत्यक्ष के दो भेद माने है लौकिक और अलौलिक । लांकिक प्रत्यक्ष मे इन्द्रिय का अर्थ के साथ माधारण मन्निकर्ष होता है। अलोकिक प्रत्यक्ष मे इन्द्रिय का पदार्य के साय असाधारण या अलौकिक मनिकर्ष होता है ।
जन परपरा मे इन्द्रियज्ञान परोक्ष माना जाता था। आचार्य पुन्दकुन्द ने इन्द्रियनान के परोक्ष होने का तर्कपूर्ण पद्धति से समर्थन किया। उमास्वाति ने भी मति-श्रुत को परोक्ष प्रमाण मानकर इन्द्रियनान के परोक्ष होने की पुष्टि की।
इस प्रकार इन्द्रियज्ञान के विषय मे प्रामाणिको मे दो ५२पराए चल रही थी एक प्रत्यक्षवादी और दूसरी परोक्षवादी। इस स्थिति मे कुछ जन दार्शनिको ने दोनो परपराओं के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न प्राभि किया।
इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का पहला उल्लेख अनुयोगद्वार मूत्र मे मिलता है। स्थाना मूत्रगत जान-मीमासा मे प्रत्यक्ष के 'केवल' (केवलनान) और 'नो-केवल' (अवधि मन पर्यव) ये दो प्रकार मिलते है ।।5 अनुयोगहार सूत्र मे प्रत्यक्ष के दो प्रकार कि गए हैं इन्द्रिय-प्रत्यक्ष और नो-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष । इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के पाच प्रकार है
1 श्रोत्र-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष । 2 चक्षु-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष । 3 नाग-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष । 4 रस-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष । 5 स्पर्श-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष ।
नो-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के तीन प्रकार हैं 1 अवधिनान । 2 मन पर्यवज्ञान।
3 केवल जान 119 17 न्यायसूत्र 1/1/4
ઇન્દ્રિયાર્થસન્નિત્પન્ન ગાનમાવેશ્યમવ્યમિનાર વ્યવસાયાત્મ प्रत्यक्षम् । 18 , 2/87
५पक्से गाणे दुबिहे पण्यात, न जहा केवलवाणे घेव, गोकेवलवाणे चव। 19 अयोगदाराई , सूत्र 516, 517, 518 ।