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वाचक उमास्वाति द्वारा प्रस्तुत प्रमाण-व्यवस्था मे प्रथम दो ज्ञानो को परोक्ष तथा शेष तीन जानो को प्रत्यक्ष मानने की आगमिक परम्परा सुरक्षित है । इस व्यवस्था मे केवल इतना परिवर्तन है कि प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण के रूप मे प्रस्थापित किए गए
प्राचीन परम्परा मे ज्ञान का वही अर्थ था जो दर्शनयुग मे प्रसारण का किया गया । वाचक उमास्वाति ने प्रमाण का लक्षण सम्यग्ज्ञान किया है । जो ज्ञान प्रशस्त, अव्यभिचारी या सगत होता है वह सम्यग् है 114 उन्होने अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, सम्भव और प्रभाव - विभिन्न तार्किको द्वारा सम्मत इन प्रमाणो का मति और श्रुतज्ञान मे समावेश किया है । इन प्रमाणो मे इन्द्रिय और अर्थ का मन्निकर्ष निमित्त होता है, इसलिए ये मति और श्रुतज्ञान के अन्तर्गत ही है 115
श्रागम,
सिद्धसेन दिवाकर ने न्यायावतार की रचना की । जैन परंपरा मे न्यायशास्त्र का यह पहला ग्रन्थ है । इसकी कुल बत्तीस कारिकाए है। इसमे प्रमाण के लक्षण, प्रकार तथा अनुमान के अगो की व्यवस्था की है। इसमे प्रमाण-व्यवस्था का विकसित रूप उपलब्ध नहीं है, फिर भी न्यायशास्त्र का आदि ग्रन्थ होने का गौरव इसे प्राप्त है ।
आचार्य समन्तभद्र ने न्यायशास्त्र का कोई स्वतंत्र ग्रन्य नहीं लिखा, किन्तु श्राप्तमीमासा तथा स्वयभूस्तोत्र मे उन्होंने न्यायशास्त्रीय विषयो की चर्चा की । उन्होने प्रमाण का स्व-पर-प्रकाशी के रूप मे प्रयोग किया है 116
प्रत्यक्ष प्रसारण की सपर्कसूत्रीय परिभाषा
बौद्ध दार्शनिक इन्द्रियाश्रित ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण मानते थे । इन्द्रियो से वस्तु का साक्षात्कार होता है इसलिए उससे होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष होता है । वह कल्पनात्मक नही होता और भ्रान्त नही होता ये उसकी दो विशेषताए हैं ।
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तत्त्वार्थभाष्य, 1/1 ।
15 तत्त्वार्यभाष्य, 1/12
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અનુમાનોપમાનામાર્થાષત્તિસમ્ભવામાવાનધિ = પ્રમાણાનીતિ નિર્
मन्यन्ते । तत् कथमेतदिति ? त्रोच्यते । सर्वाण्येतानि मतिश्रुतयोरन्तर्भूતાનીન્દ્રિયાર્થસન્નિબૅનિમિત્તત્વાન્ ।
स्वयंभूस्तोत्र, 63
परस्परेक्षान्वयभेदलिङ्गत,
પ્રસિદ્ધસામાન્યવિશેષયોસ્તવ 1
समग्रतास्ति स्वपरावभासक, यथा प्रमाण भुवि बुद्धिलक्षणम् ॥