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: 7: अनुमान
अनुमान न्यायशास्त्र का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। इसका परिवार बहुत बड। है। इसी के आधार पर त-िविद्या या आन्वीक्षिकी का विकास हुआ है । अनुमान गद 'अनु' और 'मान' इन दो शब्दो से निष्पन्न हुआ है । इसका अर्थ है प्रत्यक्षपूर्वक होने वाला जान । जन भागमो के अनुसार श्रुत मतिपूर्वक होता है 'मइपुक्य सुय' | न्यायदर्शन मे भी अनुमान को प्रत्यक्षपूर्वक माना गया है।'
___ अनुमान के दो अग होते हैं साधन और साध्य । मावन प्रत्यक्ष होता है और साध्य परोक्ष । हम पहले सावन को देखते है, फिर व्याप्ति की स्मृति करते हैं, उसके बाद साव्य का ज्ञान करते हैं।
अनुमान दो प्रकार का होता है-स्वानुमान और परार्यानुमान । जन परपरा मे समग्रजान स्वार्य और परार्य इन दो भागो मे विभत है । सूत्रकृतान मे नान के दो सावन बतलाए गए हैं।ात्मत और परत ।' आत्मगत जान स्वार्थ और वचनात्मक जान परार्य होता है । चार ज्ञान केवल स्वार्थ होते हैं, श्रुतगान “वार्य और परार्य दोनो होता है । वस्तुत जान परार्य नहीं होता । वचन मे मान का आरोप कर उसे परार्य माना जाता है । जान और वचन मे तादात्म्य और तदुत्पत्ति संबंध नहीं है । वचन एक व्यक्ति के जान को दूसरे व्यक्ति तक सप्रेषित करता है, इसलिए उपचार से उसे ज्ञान मानकर परार्थ कहा जाता है । वस्तुत वचन ही परार्थ होता है, न कि जान । जान के विषय मे स्वार्य और परार्थ की धारणा प्राचीन काल से है, किन्तु अनुमान के ये दो विभाग- (वार्य और परार्थ नयायिक और बौर परपस से गृहीत हैं। श्राचार्य सिद्धमेन ने अनुमान की भाति प्रत्यक्ष को भी परार्थ माना है । उन्होंने लिखा है-- प्रसिद्ध अर्य का प्रकाशन प्रत्यक्ष और अनुमान दोनो से होता है और वे दोनो ही दूसरे के लिए जान के उपाय हैं, 1 न्यायसूत्र, 11115
तत्पूर्वकम् । 2 नूयगडो, 12119
जे प्राततो ५.तो वा वि सच्चा ।