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________________ ( 105 ) इसलिए वे दोनो ही परार्य होते हैं । 3 वादिदेवसूरी ने भी इस सिद्धसेनीय मत का अनुसरण किया है। अनुमान द्वारा ज्ञात अर्य का वचनात्मक निरूपण जैसे परार्यानुमान है वैसे ही प्रत्यक्ष द्वारा जात अर्थ का वचनात्मक निरूपण परार्थ प्रत्यक्ष है । साधन से होने वाला साध्य का विज्ञान स्वार्थानुमान है। जैसे किसी ने धूम देखा और दूर देश मे स्थित अग्नि का ज्ञान हो गया । इस शान मे पक्ष और दृष्टान्त की आवश्यकता नहीं है । दूसरे को समझाने के लिए पक्ष श्रीर हेतु का वचनात्मक प्रयोग करना परार्थानुमान है । जैसे कोई व्यक्ति दूसरे से कहता है कि देखो उस नदी के किनारे अग्नि है, क्योकि वहा धूम दिखाई दे रहा है । यह सुनकर श्रोता के भो स्वार्थानुमान हो जाता है । प्रमाण ज्ञानात्मक होता है और परार्यानुमान शदात्मक है । शब्दात्मक होने के कारण वह प्रमाण नहीं हो सकता । इसीलिए यह उपचारत प्रमाणरूप मे स्वीकृत है । परार्थानुमान स्वार्थानुमान का कारण है । कारण को उपचार से कार्य मानकर परार्थानुमान को प्रमाण माना जाता है। न्याय दर्शन मे अनुमान के तीन प्रकार मिलते है पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदष्ट । साख्यशास्त्र और परक' में भी ये ही तीन प्रकार प्राप्त हैं । आर्य रक्षितसूरी ने भी अनुमान के ये तीन प्रकार थोडे मे नामभेद के साथ स्वीकृत किए है पूर्ववत्, शेपवत् और दृष्टसाधम्र्यवत् 18 वौद्व न्यायशास्त्र के विकास के बाद इन तीनो प्रकारो की ५२५रा गौण हो गई। जन ५२५ मे अनुमान का लक्षण सर्वप्रथम श्राचार्य सिद्धसेन ने किया। उसका सभी जन ताकिक अनुसरण करते रहे है। 3 न्यायावतार, श्लोक 11 प्रत्यक्षेणानुमानेन, प्रसिद्धार्थप्रकाशनात् । परस्य तदुपायत्वात्, परार्यत्व द्वयोरपि ॥ 4 प्रमाणनयतत्त्वालोक, 3126,27 1 5 न्यायसूत्र, 11115 पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतो७८ च । 6 साल्यकारिका, 5, मा०रवृत्ति । 7 चरक, सूत्रस्थान, श्लोक 28,29 । 8 अशुश्रोगहाराई, सूत्र 519 । न्यायावतार, श्लोक 5 साध्याविनाभुवो लिङ्गात्, साध्यनिरचायक स्मृतम् । अनुमान तदभ्रान्त, प्रमाणत्वात् सपक्षवत् ।।
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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