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प्रत्यक्ष और परोक्ष का विभाग स्पष्टता (वैशध) और अस्पष्टता (अवंशध) के आधार पर किया गया है । अवग्रह से धारणा तक चलने वाली ज्ञानधारा स्पष्ट है, इसलिए वह प्रत्यक्ष की कोटि मे स्वीकृत है । स्मृति से अनुमान तक की ज्ञानधारा मे ज्ञेय-विषय स्पष्ट नहीं होता, इसलिए वह परोक्ष की कोटि मे स्वीकृत है ।
2 प्रत्यभिज्ञा मे ज्ञेय-अर्थ प्रत्यक्ष होता हैं, फिर उसे परोक्ष क्यो माना जाए?
अनुमान मे धूम प्रत्यक्ष होता है, किन्तु उसका ज्ञेय घूम नही है । उसका ज्ञेय अग्नि है, जो प्रत्यक्ष नही है । इसी प्रकार प्रत्यभिजा का ज्ञेय सामने उपस्थित वस्तु या व्यक्ति नहीं है किन्तु उनके अतीत और वर्तमान पर्यायो मे होने वाला एकत्व है, जो कि प्रत्यक्ष का विषय नहीं बनता।
3 ईहा का कार्य भी अन्वय-व्यतिरेक के द्वारा उपलब्ध अर्थ की परीक्षा करना है तब ईहा और तर्क को भिन्न यो माना जाए ?
हा पर्यालोचनात्मक ज्ञान है । उसके द्वारा वस्तु मे पाए जाने वाले अन्वय और व्यतिरेक धर्म पालोचित होते हैं। उनके आधार पर अर्थ के स्वरूप की सभावना की जाती है । तर्क का कार्य है- व्याप्ति की परीक्षा करना। इसलिए दोनो का कार्य एक नहीं है । यद्यपि ईहा और तक दोनो के लिए 'ऊह' शब्द का प्रयोग मिलता है, फिर भी दोनो के 'जह' का स्वरूप एक नही है।
4 निर्णायक ज्ञान अवाय होता है, फिर अवग्रह और ईहा को प्रमाण कसे माना जा सकता है ?
एक सिकोरा है जो अभी-अभी श्रावे से निकाला गया है । उस पर जल की एक वू द डाली । वह सूख गई। फिर दो-चार वू दे डाली वे भी सूख गई। बू दें डालने का क्रम चालू रहा । एक क्षण ऐसा आया कि सिकोरा गीला हो गया । क्या सिको। अन्तिम वू द से गीला हुआ ? पहली वू द से वह गीला नहीं हुआ ? हम केवल निष्पत्तिकाल को ही गीला होने का क्षण नहीं कह सकते । प्रारभ काल भी उसके गीला होने का क्षण है । यदि सिकोरा पहली वू द से गीला न हो वह अतिम बू द से भी गीला नही होगा । अवग्रह के पहले क्षण मे यदि निर्णय होना प्रारभ न हो तो अवाय मे भी निर्णय नही हो सकता । अवाय एक धारागत निर्णयो की निष्पत्ति है, इसलिए स्थूल भाषा मे हम कहते हैं कि अवाय मे निर्णय होता है । यदि सूक्ष्म भाषा का प्रयोग करें तो अवग्रह और ईहा भी अपने-अपने शेय-पर्याय) के निर्णायक है।