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( 88 ) है । अजान-निवृत्ति होने पर प्रमाता किसी वस्तु को ग्रहण करता है, किसी को छोडता है और किसी के प्रति उपेक्षाभाव रखता है। केवलनान का परपर फल केवल उपेक्षा है । केवली कृतकृत्य होने के कारण उपादेय श्रीर हेय के प्रपच से मुक्त होता है।
प्रमाण का विभाग
प्रमाण के दो विभाग हैं प्रत्यक्ष और परोक्ष । इन्द्रियगम्य और अतीन्द्रियगम्य प्रमेय की इस द्विविच परिणति के आधार पर प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो विभाग किए गए हैं। प्रमेय की सिद्धि प्रमाण के अधीन है इस वास्तविकता को उलट कर भी कहा जा सकता है कि प्रमाण का विभागीकरण प्रमेय के अवीन है। अतीन्द्रियगम्य पदार्य प्रत्यक्ष पद्धति के द्वारा जाने जाते हैं और इन्द्रियगम्य पदार्थ परोक्ष पद्धति के द्वारा जाने जाते है। इसीलिए प्रमाण के दो विभाग मान्य हुए है ।19 जिनभद्रगगी क्षमाश्रमरा ने भी ज्ञय-भेद से ज्ञान-भेद का सिद्धान्त स्वीकार किया है ।20
पौद्ध ताकिको ने भी मेय की विविधता के कारण मान की विविधता का प्रतिपादन किया है ।2। चर्मकीति के मतानुसार ज्ञान मे दो मौलिक तत्व देखे जाते हैं अर्य-साक्षात्कार और कल्पना । साक्षात्कार मे ज्ञान उपस्थित विषय का ग्रहण मात्र करता है, अथवा यह कहना चाहिए कि एक विशिष्ट आकृति के माय ज्ञान की स्फूर्ति अयवा प्रतिभास होता है । इसमे ज्ञान कुछ गढता नही, केवल देखता है। दूसरी ओर, शब्द के सहारे एवं उसके द्वारा पिछली स्मृतियो और सस्कारों से કમાવત હોર જ્ઞાન અને સાક્ષાત્કારો ફાટ-છાટ »ર નોડતોડ દ્વારા कल्पनाए प्रस्तुत करता है। इनमें नाम, जाति, द्र०य, गुण और कर्म ये पाच कल्पनाए तो अनादि-पासना से सिद्ध मिलती है और इन्हे चित्त अपने स्थायी साचो की तरह प्रयुक्त करता है । अनुभव की सारी सामग्री इनमे ढाली जाती है और इस 19 न्यायावतार, २लाक 1 .
प्रमाण स्वपराभासिज्ञान वाचविजितम् ।
प्रत्यक्ष च परोक्ष च विवा मेयविनिश्चयात् ॥ 20 विशेषावश्यभाष्य, गाथा 400
त पुरा चतुति रोयमेततो ते॥ ज तदुवयुत्ता ।
શ્રાવેલ સબ્ધ હવાતિવાન્વિઘ મુતિ | स्वोपज्ञवृत्ति इह ज्ञयभेदात् ज्ञानभेद । 21 प्रमारावात्तिक, 2/1
मान विविध मेय विच्यात् ।