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( 89 ) प्रकार विकल्पात्मक ज्ञान सिद्ध होता है। विकल्प एक प्रकार के मन ढत हैं, किन्तु 'Eve' वस्तुओ पर अन्य व्यावृत्ति के द्वारा प्रारोपित होने के कारण उनमे व्यवहारसमर्थता ५२-परया सिद्ध होती है । विकल्प नियत-विषयक और अनियत-विषयक दोनो होते हैं । नियत-विषयक विकल्प प्रमाण-कोटि मे श्रारूढ होता है । यही अनुमान कहलाता है । इस प्रकार ज्ञान मे प्रतीत द्वैत से ही प्रमाणो का द्वैत सिद्ध होता हैमाक्षात्कारात्मक ज्ञान प्रत्यक्ष है और नियत-विकल्पात्मक अनुमान । सभी नियतविषयक ज्ञान इन दो कोटियो मे समा जाता है ।22
___वो दो प्रकार के प्रमेय मानते है स्वलक्षण (विशेष) और अन्यापोह (सामान्य) । विशेष प्रत्यक्ष के द्वारा जाना जाता है और सामान्य अनुमान के द्वारा जाना जाता है।
जनो और वौद्धो की तर्क-परम्परा मे प्रमेय की विविधता के आधार पर प्रमाण की विविधता मान्य होने पर भी उनमे मौलिक अन्तर है। जन ५९म्परा के अनुसार प्रमेय सामान्य-विशेषात्मक होता है । सामान्य और विशेष दोनो वस्तु धर्म है अत वे वास्तविक हैं । निर्विकल्प ज्ञान (अनाकार उपयोग या दर्शन) अनिश्चयात्मक होने के कारण प्रमाण ही नहीं होता। सविकल्पज्ञान (साकार उपयोग) ही निश्चयात्मक होने के कारण प्रमाण होता है । प्रमेय का साक्षात् ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष और उसका असाक्षात् (अन्य माध्यमो के द्वारा) ग्रहण करने वाली ज्ञान परोक्ष होता है।
प्रत्यक्ष के दो प्रकार हैं- इन्द्रियमानस प्रत्यक्ष अथवा साव्यवहारिक प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष अथवा पारमार्थिक प्रत्यक्ष । परोक्ष के पाच प्रकार हैं स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान और प्रागम ।
स्वसविदित ज्ञान प्रत्यक्ष ही होता है। अर्थ-ग्रहण की दृष्टि मे उसके दो प्रकार होते है प्रत्यक्ष और परोक्ष । जो ज्ञान विशद होता है, ज्ञय अर्थ को साक्षात् जानता है, किसी माध्यम से नही जानता, जिसमे ज्ञाता और ज्ञय के मध्य कोई व्यवधान नहीं होता, वह प्रत्यक्ष है । जो ज्ञान अविशद होता है, बाहरी उपकरणो के माध्यम से ज्ञय अर्थ को जानता है, जिसमे शाता और ज्ञय के मध्य व्यवधान होता है, वह परोक्ष है।
प्रत्यक्ष की नियामक-शक्ति वशय है । श्रात्ममात्रापेक्ष होने के कारण विषयबोध मे वह कही भी स्खलित नहीं होती। इसीलिए यह परमार्थिक प्रत्यक्ष है। इन्द्रिय-मनोजन्य मान आत्ममात्रापेक्ष नहीं होता, इसलिए वह अविशद है । फिर भी 22 न्यायविन्दु (गोविन्द्रचन्द्र पाकृत अनुवाद) पृ० 4 ।