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( 90 ) अनुमान आदि की अपेक्षा वह ज्ञेय को स्पष्टतया जानता है। इसलिए वह साव्यवहारिक प्रत्यक्ष है ।23
परोक्ष का नियामक तत्व है अवराध । अनुमान हेतु के माध्यम से इसीलिए होता है कि उसमें गध की क्षमता नही होती।
बौद्ध प्रत्यक्ष को निर्विकल्प मानते हैं । नैयायिक प्रत्यक्ष को निर्विकल्प और सविकल्प दोनो मानते है। उनके अनुसार निविकल्प ज्ञान सविकल्प जान को उत्पन्न करता है। जैन ५९परा के अनुसार प्रत्यक्ष निविकल्प और सविकल्प - दोनो प्रकार का होता है। इन्द्रिय-मानस-प्रत्यक्ष के क्रम-विकास की व्यवस्था इस प्रकार है- सर्वप्रथम विषय और विषयी का सन्निपात होता है । चार इन्द्रिया प्राप्यकारी हैं। चक्षु और मन अप्राप्यकारी हैं । इन्द्रिय-चतुष्टय का विषय के साथ सन्निकर्ष तथा चक्षु और मन का वि५य के साथ उचित सामीप्य जो होता है वह सन्निपात है। उसके अनन्तर सामान्यमात्राही दर्शन होता है । तत् पश्चात् अवान्तर सामान्य का वोव होता है । इसका नाम अपग्रह है । प्राप्यकारी इन्द्रिया व्यजनावग्रह (सवध-वोच) के बाद अर्य को ग्रहण करती हैं । चक्षु और मन अर्थ को सीधे ही जान लेते हैं । अवाह के बोध का आकार 'कुछ है' यह होता है । यह अनिदश्य सामान्य का वोध है । इसमे नाम, जाति, द्रव्य, गुण, और क्रिया की कल्पना नही होती 124 यह शब्द है, रूप है इस आकार का वोध नहीं होता। अवग्रह के पश्चात् सशय-जान होता है । इसके बाद ईहा होती है अन्वय-व्यतिरेकपूर्वक विमर्श होता है। उसका आकार है-यह श्रोत्र का विषय बन रहा है, अन्य इन्द्रियो का विषय नहीं बन रहा है, इसलिए शब्द होना चाहिए । 'यह शब्द ही है' - इस आकार का निर्णय ज्ञान अवाय है । निर्णीत विषय सस्कार बन जाता है, वह धारणा है ।
यह शब्द-पर्याय का ज्ञान है । शब्द के अन्य पर्यायो के जान मे भी अवग्रह आदि का कम चलता है, जैसे -
'शब्द है' - इस आकार का जान अवग्रह है। फिर संशय होता है।
यह शब्द मयुरधर्मा है, कशधर्मा नहीं है, इसलिए शख का होना चाहिए, सीग का नही होना चाहिए-इस प्रकार का नान ईहा है। 23 लघीयस्त्रय, 3
प्रत्यक्ष विशद जान, मुख्यसव्यवहारत । परोक्ष शेषविमान , प्रमाणे इति सग्रह ॥ विशेषावश्यकभाष्य, गाय 251 साममणिम मलपणामतिकपणारहित ॥
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