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2 शुद्ध द्रव्यायिक नय पर्याय को स्वीकार नही करते । अत उनके अनुसार काल के भूत, भविष्य और वर्तमान- ये तीन विभाग नही होते, केवल वर्तमान काल ही होता है 1 1 3 तीनो शब्दनय पर्याय को स्वीकृति देते हैं, इसलिए वे काल के तीन विभाग मान्य करते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि द्रव्य का अपरिणामी अश कालવિમાન ળ અપેક્ષા નહી રલતા । અર્ચ-પર્યાય ક્ષરવર્તી હોતા હૈ, ન હસે ની काल-विभाग की अपेक्षा नही होती । व्यजन-पर्याय दीर्घकालीन होता है । अत उसे काल-विभाग की अपेक्षा होती है ।
3 द्रव्य मे क्रमवर्ती और अक्रमवर्ती दोनो प्रकार के धर्म पाए जाते हैं । वह वर्तमान मे विवक्षित स्वरूप से है, अन्य काल मे उस स्वरूप से नही होता । उसमे जैसे कालभेद से स्वरूप भेद होता है वैसे ही सावन आदि से भी स्वरूप भेद होता है | इस आधार पर प्रकारान्तर से स्वाद्वाद के सात भंग बनते हैं
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( 1 )
( 11 )
(111)
( 1v )
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(V)
(VI)
(VII )
एक द्रव्य है ।
वह किसी एक स्वरूप से है ।
उसकी उत्पत्ति का कोई एक साधन भी है ।
उसका एक अपादान भी है ।
उसका किसी से सवव भी है ।
उसका कोई एक अधिकरण भी है ।
उसका कोई एक काल भी है ।
क्रमवर्ती पर्यायों मे वर्तमान पर्याय निश्चित होता है, किन्तु आने वाले पर्याय की सभावना और अनिश्चितता के लिए कोई नियम नही बनाया जा सकता श्रभुक पर्याय के बाद अमुक पर्याय ही होगा, ऐसी निश्चित भविष्यवाणी नहीं की जा सकती । इस संदर्भ मे हाइजनवर्ग के अनिश्चितता के सिद्धान्त (Principle of Uncertainty ) का मूल्यांकन किया जा सकता है |
4 स्याद्वाद के द्वारा दूर-निकट, छोटा वडा आदि आपेक्षिक पर्यायों की ही व्याख्या नही की जाती, किन्तु द्रव्य के स्वाभाविक पर्यायों की भी उससे व्याख्या की जा सकती है । नित्यता और अनित्यता स्वाभाविक पर्याय है । स्थूल जगत् मे
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कसायपाहुड, भाग 1, पृष्ठ 260
अप्पहारणीकयपरिणामेसु सुद्धदव्वट्ठिएसु गएसु खादीदारणागयवट्टमारणकालविभागो अत्यि ।
कमायपाहुड, भाग 1, पृष्ठ 309 ( जयववला मे उद्धृत)
યન્વિત્ ર્નાવત્ વિવત્ છુતરવત્ વષિત્ વત્ कदाचिच्चेति पर्यायात् स्यादवाद. सप्तभङ्ग मृत् ॥