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( 125 ) स्थावाद की दूसरी निपत्ति समन्वय है । जैन मनोपियों ने विरोधी धर्मों का एक साथ होना असम्भव नही माना । उन्होने अनुभवसिद्ध अनित्यता आदि धर्मों को स्वीकार नहीं किया, किन्तु नित्यता आदि के साथ उनका समन्वय स्थापित किया । तर्फ से स्थापना और तक से उसका उत्यापन- इस पद्धति मे तर्क का चक्र पलता रहता है । एक तर्क-परम्परा का अभ्युपगम है कि शब्द अनित्य है, क्योकि पह कृतक है । जो कृतक होता है वह अनित्य होता है, जैसे पडा। दूसरी तर्कपरम्परा ने इसका प्रतिपादन किया और वह भी तर्क के आधार ५• किया कि शब्द नित्य है, क्योकि यह प्रकृतक है । जो प्रकृतक होता है वह नित्य होता है, जैसे
आकाश । इन दो विरोधी तर्कों मे समन्वय को खोजा जा सकता है। विरोध समन्वय का जनक है । 'शब्द अनित्य है - यह अभ्युपगम इसलिए सत्य है कि एक क्षण मे शब्द श्रीन्द्रिय का विषय बनता है और दूसरे क्षण मे वह अतीत हो चुका है । इस परिवर्तन की दृष्टि से शब्द को अनित्य मानना असगत नही है। मीमासको ने शब्द के उपादानभूत स्फोट को नित्य माना, वह भी अनुचित नही है। भाषावर्गणा के पुद्गल शब्दरूप मे परिणत होते हैं और वे पुद्गल कभी भी अ-पुद्गल नही होते । इस अपेक्षा से उनकी नित्यता भी स्थापित की जा सकती है । सापेक्ष सिद्धान्त के अनुसार वस्तु का निरपेक्ष धर्म सत्य नही होता । वे समन्वित होकर ही सत्य होते है । साय॥ माधवाचार्य (ई० 1300) ने 'सर्वदर्शनसग्रह' नामक ग्रन्थ की रचना की। उसमे उन्होने पूर्व दर्शन का उत्तर दर्शन से खण्डन करवाया है और अन्तिम प्रतिष्ठा वेदान्त को दी है। प्रखर ताकिक मल्लवादी (ई० 4-5 शती) ने द्वादशा-नयचक्र की रचना की। उसमे एक दर्शन का प्रस्थान प्रस्तुत होता है। दूसरा उसका निरसन करता है। दूसरे के प्रस्थान का तीसरा निरसन करता है। इस प्रकार प्रस्थान और निरसन का चक्र चलता है। उसमे अन्तिम प्रतिष्ठा किसी दर्शन की नही है सब दर्शनो के नय समन्वित होते हैं तब सत्य प्रतिष्ठित हो जाता है। एक-एक नय की स्वीकृति मिथ्या है। उन सबकी स्वीकृति सत्य है। इस समन्वय के दृष्टिकोण ने तर्क-शास्त्र को पिता के पात्याचक्र से मुक्त कर सत्य का स्वस्थ प्राधार दिया।
जैन प्रमाण-शास्त्र की दूसरी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है-प्रमाण का वर्गीकरण । प्रत्यक्ष और परोक्ष इस वर्गीकरण मे सकीर्णता का दोष नही है। इसमे सब प्रमाणो का समावेश हो जाता है । हम या तो ज्ञेय को साक्षात् जानते हैं या किसी माध्यम से जानते हैं । जानने की ये दो ही पद्धतिया हैं । इन्ही के आधार पर प्रमाण के दो मूल विभाग किए गए हैं । वौद्ध और शपिक ताकिको ने प्रत्यक्ष और अनुमान--दो प्रमाण माने तो आगम को उन्हे अनुमान के अन्तर्गत मानना पडा । श्रागम को अनुमान के अन्तर्गत मानना निर्विवाद नही है । परोक्ष प्रमाण मे अनुमान, आगम स्मृति, तर्क आदि सबका समावेश हो जाता है और किसी का लक्षण साकर्यदोष,