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( 126 ) से दूषित नहीं होता। इस दृष्टि से प्रमाण का प्रस्तुत वर्गीकरण सर्वग्राही और वास्तविकता पर आधारित है।
इन्द्रियनान का व्यापार-कम (अवग्रह, ईहा अवाय और धारणा) भी जन प्रमाण-शास्त्र का मालिक है । इसकी चर्चा पहले प्रकरण 'भागमयुग का जन-न्याय' मे तथा छठ प्रकरण 'प्रमाण-व्यवस्था' में की जा चुकी है। मानस-शास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से यह बहुत ही महत्वपूर्ण है।
तर्कशास्त्र मे स्वत प्रामाण्य का प्रश्न बहुत चचित रहा है। जन तर्क-परम्परा मे स्वत प्रमाण मनुष्य का स्वीकृत है। मनुष्य ही स्वत प्रमाण होता है, अन्य स्वत प्रमाण नहीं होता। अन्य के स्वत प्रामाण्य की अस्वीकृति और मनुष्य के स्वत प्रामाण्य की स्वीकृति एक बहुत विलक्षण सिद्धान्त है । पूर्वमीमासा ग्रन्थ का स्वत प्रामाण्य मानती है, मनुप्य को स्वत प्रमाण नही मानती। उसके अनुसार मनुष्य वीतराग नहीं हो सकता, और वीतराग हुए बिना कोई सर्वन नही हो सकता और अ-सर्वन स्वत प्रमाण नही हो सकता। जैन चिन्तन के अनुसार मनुष्य वीतराग हो सकता है और वह केवल नान को प्राप्त कर सर्वन हो सकता है। इसलिए स्वत प्रमाण मनुष्य ही होता है। उसका पचनात्मक प्रयोग, अन्य या पाइ मय भी प्रमाण होता है, किन्तु वह मनुष्य की प्रामाणिकता के कारण प्रमाण होता है इसलिए वह स्वत प्रमाण नहीं हो सकता । पुरुष के स्वत प्रामाण्य का सिद्धान्त जन तकशास्त्र की मौलिक देन है। समूची भारतीय तर्क-परम्परा मे सर्वशत्व का समर्थन करने वाली जैन परम्परा ही प्रधान है । समूचे भारतीय वाड मय मे सर्वजत्व की सिद्धि के लिए लिखा गया विपुल साहित्य जैन परम्परा मे ही मिलेगा। वौद्धो ने बुद्ध को स्वत प्रमाण मानकर अन्य का परत प्रामाण्य माना है। किन्तु वे बुद्ध को धर्मन मानते हैं, मर्वज्ञ नही मानते । पूर्वमीमासा के अनुसार मनुष्य धर्मन भी नही हो सकता। बौद्धो ने इससे आगे प्रस्थान किया और कहा कि मनुष्य धर्मज हो सकता है । जैनो का प्रस्थान इससे आगे है । उन्होंने कहा गनुष्य सर्वज्ञ भी हो सकता है। कुमारिल ने समन्तभद्र के सर्वशता के सिद्धान्त की कडी भीमासा की है । धर्मकीति ने मर्वजता पर तीखा व्यग कसा है । उन्होंने लिखा है
"दूर पश्यतु वा मा वा तत्वमिष्ट तु पश्यतु ।
प्रमाण दूरदर्शी देत गृध्रानुपास्महे ।" ___1 प्रमाणवात्तिक, 1/34
हेयोपादेयतत्त्वस्य, साभ्युपायस्य वेदक ।
य प्रमाणममाविष्टो, न तु सर्वस्य वेदक ॥ ___2 प्रमाणवातिक, 1/351