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( 120 ) जा सकता । यदि उससे व्याप्ति का निचय किया जाए तो सार कार्य प्रत्यक्ष ने ही हो जाएगा, फिर व्याप्ति की अपेक्षा ही नही हेगी। इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का व्यापा. नियमत सन्निहित (वर्तमान में निहित) है । यही उनके व्यवसाय की सीमा है। उसके आधार पर न कोई नियम बनाया जा सकता है और न किसी नियम का निश्चय किया जा सकता है। अनुमान मे व्याप्ति का निरचय पारने मे वही अन्योन्याश्रयदोष श्राएगा एक की सिद्धि दूसरे ५. निर्भर होगी । व्याप्ति के लिए अनुमान और अनुमान के लिए व्याप्ति के नाम का कही अन्त नहीं होगा।
व्याप्ति का निश्चय करने के लिए एका ल्वन माननविकल्प की अपेक्षा है। जो उपलभ और अनुपलम के आधार पर माच्य और साधन के सम्बन्ध का परीक्षा कर व्याप्ति का निवारण या निश्चय करे उम मानस-विकल्प की सना 'तक' है, जिसकी चर्चा पूर्व पृष्ठी मे की जा चुकी है।
तकनान के द्वारा तादात्म्यमूलक सहमा तथा तादात्म्यभून्य सहभाप के बीच भेदरेखा खीची जाती है । इसी प्रकार तदुत्पत्तिमूलक क्रममाव या कार्यकारणभाव तथा तदुत्पनिशून्य कमभाव का अन्तर जाना जाता है। अग्नि और घूम मे आनन्तर्य सम्बन्ध नहीं है, किन्तु श्रान्तरिक अनिवार्य सम्बन्व है। अनि जनक है और धूम जन्य है, इसलिए उनमे आन्तरिक अनिवार्यता है। रविवार के अनन्तर सोमवार आता है- उनमें केवल प्रानन्तर्य है। रविवार सोमवार को उत्पन्न नहीं करता, इसलिए उनमे जन्य-जनकभाव या आन्तरिक अनिवार्यता नहीं है। यह सच है कि श्रानन्तर्य के आधार पर कार्यकारण सम्बन्ध की कल्पना करना मिथ्याज्ञान है और यह भी सच है कि इन्द्रियानुभव विशेपो तक सीमित है, इसलिए वह सामान्य या सार्वभौम अनिवार्य नियम को प्रकल्पना नही कर सकता, किन्तु इस सचाई को हम अस्वीकार नही कर सकते कि मानस-विकल्प का स्वतत्र कार्य भी है। यह केवल इन्द्रियानुभव से प्राप्त सवेदनो या विमानो का पृथक्करण या एकीकरण ही नही करता, इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ करता है। जहा सवेदन की गति नहीं है वहा मानस-विकल्प को पहुच नही है यह वात अनुभवविक्ष है। वह इन्द्रिय-परतन्त्र है, पर सर्वथा इन्द्रिय-परतत्र नहीं है, स्वतत्र भी है। वह अपनी स्वतंत्रता का उपयोग कर सामान्य या सार्वभौम अनिवार्य नियम का निश्चय करता है। रविवार और सोमवार मे होने वाले अधिनाभाव नियम का आकार केवल श्रानन्तर्य है। जैन ताकिको ने नियमित प्रानन्तर्य के आधार पर अविनामाव का नियम निश्चित किया है। सोमवार रविवार के बाद ही आता है, इसलिए वे परस्पर गमक होते हैं । रोहिणी नक्षत्र कृत्तिका नक्षत्र के वाद ही उदित होता है, इसलिए वे परस्पर गमक होते हैं । पूर्वचर और उत्तरचर हेतु की कार्य-कारणहेतु से पृथक प्रकल्पना कर जन ताकिको ने आनन्तर्य और कार्यकारणभाव के पार्यक्य का स्५८ वोध प्रस्तुत किया है। इसी