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( 32 ) सामान्य और विशे५ मे समन्वय प्रदर्शित किया और इस मूत्र का प्रतिपादन किया 'मामान्यशून्य विशेष और विशेषशून्य मामान्य मिथ्या है। द्रव्य सामान्य है और पर्याय वि५ है । द्रव्य शून्य पर्याय और पर्यायशून्य द्रव्य कही भी उपलब्ध नहीं होता ।'
3 विभिन्न दर्शनो ने भिन्न-भिन्न मख्यात्रो मे तत्वो का प्रतिपादन किया है । क्या उनका समन्वय भी सम्भव है ?
मूल तत्व दो हैं चेतन और अचेतन । ५ भव तत्व उनके पर्याय है। तत्त्वो की संख्या का विकास किमी अपेक्षा या उपयोगिता के आधार पर किया गया है । यदि उपयोगिता की विवक्षा न की जाए तो उन सबका समावेश दो मूल तत्वो मे हो जाता है।
4 क्या प्रमाण भी सापेक्ष हैं ? यदि वह सापेक्ष हैं तो क्या प्रमाण की व्यवस्था अव्यवस्था मे नही बदल जायेगी।
प्रमेय है तव प्रमाण है। यदि प्रमेय न हो तो प्रमाण की कोई अपेक्षा ही नही होती । प्रमास प्रमेय सापेक्ष है । प्रमाता प्रमेय को जानने का यत्न करता है तब प्रमाण अपेक्षित होता है। इसलिए प्रमाण प्रमाता-मापेक्ष भी है । मापेक्षवाद अनिश्चय की स्थिति उत्पन्न नहीं करता, किन्तु निश्चय की पृष्ठभूमि मे रहे हुए सभी तत्वो के सम्बन्धो की व्याख्या करता है । यदि हम प्रमाण को निरपेक्ष माने तो वह प्रमाता और प्रमेय से निरपेक्ष होकर अपने अस्तित्व को भी नहीं बचा पायेगा । इन्द्रिय-प्रत्यक्ष इन्द्रिय-जान की अपेक्षा से प्रमाण है, अतीन्द्रियगान की अपेक्षा से वह प्रमाण नही है । इसे उलट कर भी कहा जा सकता है कि अतीन्द्रियमान अव्यवहित विपथ-ग्रहण की अपेक्षा मे प्रमाण है, किन्तु व्यवहित विषयमाही मति और श्रुत की अपेक्षा से वह प्रमाण नही है। प्रमाण की व्यवस्था सापेक्षवाद के आधार पर ही स्थिर हो सकती है । शब्दनय की अपेक्षा से जान और अजान का विभाग नहीं होता। जितने सविकल्प उपयोग हैं वे उस उसकी दृष्टि मे मान ही हैं। वह श्रुत और केवल-इन दो गानो को ही स्वीकृति देता है । अत उसे प्रमाण और अप्रमाण का विभाग मान्य नही है । नैगम, सग्रह और व्यवहार ये तीनो नये नान और अनान के विभाग को स्वीकृति देते हैं, अत उनको सम्मति में प्रमाण और अप्रमाण का विभाग समुचित है 133
प्रमाण और अप्रमाण की समूची व्यवस्था विभिन्न सन्टिकोणो श्रीर अपेक्षाभो ५२ निर्भर है। इसका निर्णय चेतना-विकास और वितन की विभिन्न भूमिकामी के श्रावार पर किया जा सकता है। 33 तत्वार्थभाष्य 1/351