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( 31 ) जिन मगरणी क्षमाश्रमण ने समन्वय की धारा को इतना विशाल बना दिया कि उसमे स्व-दर्शन और पर-दर्शन का भेद परिलक्षित नहीं होता । उनका तर्क है कि मिथ्यात्वो (असत्यो) का समूह सम्यक्त्व (सत्य) है । पर-दर्शन सम्यग् दृष्टि के लिए उपकारक होने के कारण वस्तुत वह स्व-दर्शन ही है । सामान्यवाद, विशेषवाद, नित्यवाद, क्षणिकवाद ये सब सम्यक्त्व की महापारा के करण हैं । इन सबका समुदित होना ही सम्यक्त्व है और वही जैन दर्शन है । 32 वह किसी एक नय के खडन या मडन मे विश्वास नहीं करता, किन्तु सब नयो को समुदित कर सत्य की अखडता प्रदर्शित करता है।
1 क्या आगमयुग मे समन्वय का सिद्धान्त मान्य नही था ? क्या उस उस समय धर्मो के तुलनात्मक अध्ययन की पद्धति प्रचलित नही थी ?
समान भागम-साहित्य वर्तमान मे उपलब्ध नही है। उसके उपलब्ध अशो के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सापेक्षता और समन्वय के सिद्धान्त उस युग मे मान्य रहे हैं। दर्शनयु। के प्राचार्यों ने वीजरूप मे प्राप्त उन सिद्धान्तो को ही विकसित किया।
श्रागम- साहित्य मे स्वसमय वक्तव्यता, परसमय वक्तव्यता और उन दोनो की वक्तव्यत। इस प्रकार तीन वक्तव्यताए उपलब्ध हैं। इसका तात्पर्य है कि उस समय के मुनि अपने सिद्धान्तो के साथ-साथ दूसरो के सिद्धान्तो का भी अध्ययन करते थे । समन्वय मे विश्वास करने वालो के लिए विभिन्न विचारो का तुलनात्मक अध्ययन करना स्वाभाविक है।
2 क्या सामान्य और विशेष का समन्वय किया जा सकता है ?
अत का विचार सामान्यग्राही है। अत दर्शन सब पदार्यों का सश्लेषण कर अन्तिम सीमा तक पहुंच गया। उस शिखर से उसने घोषणा की कि दूसरा कोई नही है । भेद की कल्पना व्यर्थ है। बौद्धो का जान पूरा विश्लेषणात्मक था। उन्होने विभाजन के चरम-विन्दु पर पहुंच कर उद्घोष किया कि विशेष ही सत्य है। सामान्य की कल्पना व्यर्थ है। एक सामान्य का चरम स्वीकार और एक विशेष का चरम स्वीकार । जैन दार्शनिको ने किसी चरम को स्वीकृति नहीं दी। उन्होने 31 विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 949
मिच्छत्तसमूहमय सम्मत्त ज च तदुवगारम्मि ।
पति परसिद्ध तो तस्स तयो ससिद्ध तो ॥ 32 विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1528
इय सवणयमताइ परित्तविसयाई समुदिताई तु । जइस वमन्तरागद सणिमित्तसगाहि ॥