________________
( 98 )
दो आदि सख्या का बोध भी प्रत्यभिज्ञान से होता है । स्मृति और प्रत्यक्ष के निमित्त से होने वाले जितने भी सकलनात्मक मानम-विकल्प हैं ये सब प्रत्यभिज्ञान केही प्रकार हैं 134
बौद्ध तार्किक प्रत्यभिज्ञा को मान्य नही करते । उनका मत है कि 'वह' यह परोक्ष ज्ञान है और 'यह' यह प्रत्यक्ष ज्ञान है । प्रत्यक्ष और परोक्ष दो विरोधी ज्ञानो का श्राधार एक नही हो सकता, इसलिए यह दो जानो का समुचय है, एक स्वतंत्र ज्ञान नही है |
प्रत्यक्ष और
जैन तार्किक इस तर्क को स्वीकार नहीं करते । वे कहते हैं कि परोक्ष ज्ञान प्रत्यभिज्ञा के कारण हैं । उन दोनो कारणो से एक स्वतंत्र ज्ञान उत्पन्न होता है । उसी के द्वारा हम 'यह' और 'वह' के बीच मे रहे हुए एकत्व को जानते हैं । उस एकत्व का बोध हमे न प्रत्यक्ष से हो सकता है और न परोक्ष से भी हो सकता है । प्रत्यक्ष और परोक्ष के सम्मिश्रण से एक नया ज्ञान उत्पन्न होता है और उसी के द्वारा हम एकत्व को जानते हैं । वह एक्त्व प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिए एकत्व वोध को परोक्ष की कोटि मे स्थान दिया गया है । वौद्धमतानुसार एक ही ज्ञान निर्विकल्प और सविकल्प दो विरोधी धर्मो का आधार हो सकता है तब प्रत्यभिना दो विरोधी धर्मो का ग्राधार क्यो नही हो सकती ?
नैयायिक प्रत्यभिना को प्रत्यक्षज्ञान मानते हैं । उनके अनुसार सावारण प्रत्यक्ष केवल वर्तमानावगाही होता है और प्रत्यभिज्ञा मे वर्तमान सवेदन अतीत की स्मृति से प्रभावित होता है । प्रतीतावस्यावच्छिन्न वर्तमान को मुख्यता देने के कारण इसे वे वर्तमान की कोटि मे सम्मिलित करते हैं ।
जैन तर्क के अनुसार प्रत्यभिज्ञान प्रत्यक्ष नही हो सकता । क्योकि हमे प्रत्यक्ष व्यक्ति का ज्ञान नही करना है, किन्तु प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दोनो कालो मे विद्यमान व्यक्ति के एकत्व को जानना है । वर्तमान अश को जान लेने के बाद प्रत्यक्ष का कार्य संपन्न हो जाता है, इसलिए उसके द्वारा एकत्व को नही जाना जा सकता |
उपमान के विषय मे न्यायशास्त्रीय धारणा एक नही है । वौद्ध उपमान को प्रत्यक्ष से भिन्न नहीं मानते । वैशेषिक उसे अनुमान के अन्तर्गत मानते हैं । नैयायिक उसे स्वतन्त्र प्रमाण के रूप मे स्वीकार करते हैं । जैन परम्परा में वह प्रत्यभिज्ञा का 34
प्रमाणप्रवेश, 21
इदमल्प महद्द्द्दूरमासन्न प्राशुनेति वा । व्यपेक्षात समक्षेऽयं, विकल्पः साधनान्तरम् ॥
दृष्टेष्वयंपु परस्परव्यपेक्षा लक्षण अल्प महत्वादिज्ञान अधरोत्तरादिज्ञान द्वित्वादिसख्याज्ञान प्रत्यच्च प्रमाण, अविसम्वादकत्वात् उपमानवत् ।