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________________ ( 99 ) एक प्रकार है । वे इसका समर्थन इस आधार पर करते हैं गवय गाय के समान होता है' इस आकार मे गाय और गवय का ज्ञान मुख्य नहीं है, किन्तु उनमे रहा हुआ सा२य-बोध मुख्य है । इसलिए यह मान प्रत्यभिज्ञा से भिन्न नही है। उपमान को स्वतन्त्र प्रमाण मानने मे कोई आपत्ति नहीं है । इसका प्रत्यभिज्ञा मे समावेश हो सकता है पीर प्रमाणो की सस्या अनन्त न हो, इस दृष्टि से प्रमाणव्यवस्था-युग मे इसका प्रत्यमिना मे समावेश किया गया। तर्क तक भारतीय दर्शन का सुपरिचित शब्द है । कुछ विषयो मे इसे अप्रति०० कहा गया है। फिर भी चिन्तन के क्षेत्र मे इसका महत्त्व बहुत पहले से रहा है । न्याय-शास्त्र मे इसका विशेष अर्थ है । अनुमान के लिए व्याप्ति की अनिवार्यता है और व्याप्ति के लिए तर्क की अनिवार्यता है क्योकि इसके विना व्याप्ति की सत्यता का निर्णय नहीं किया जा सकता । प्राय सभी तकशास्त्रीय परम्पराए तक के इस महत्व को स्वीकार करती हैं । उनमें यदि कोई मतभेद है तो वह इसके प्रामाण्य के विषय मे है । नैयायिक प्रादि इसे प्रमाण या अप्रमाण की कोटि मे नही गिनते, प्रमाण का अनुप्राहक मानते हैं । जन परपरा मे यह प्रमाणरूप में स्वीकृत है। इसका स्वतंत्र कार्य है, इसलिए यह परोक्ष प्रमाण का तीसरा प्रकार है । जहाँ-जहा धूम होता है वहाँ-वहा अग्नि होती है यह व्याप्ति है । इस व्याप्ति का ज्ञान इन्द्रियप्रत्यक्ष और मानस-प्रत्यक्ष के द्वारा नहीं होता । प्रत्यक्ष कार्य-कारण को जानता है, उनके संबंध को नही जानता । अनुमान व्याप्ति के बाद होता है, अत उसके द्वारा भी व्याप्ति का ज्ञान नही हो सकता। अनुमान के द्वारा व्याप्ति को सिद्ध किया जाए और व्याप्ति के द्वारा अनुमान को सिद्ध किया जाए तो इस अन्योन्याश्रयता मे कोई निर्णयात्मक विकल्प हमारे हाथ नही लगता। इस समस्या को सुलझाने के लिए जन ताकिको ने तर्क का प्रामाण्य स्वीकार किया। तर्क का कार्य व्याप्ति का निर्णय करना है । जो धूम है वह अग्निजन्य है, अग्नि-भिन्न-पदार्थ से जन्य नही है । अग्नि के सद्भाव मे धूम का होना उपलभ है और उसके प्रभाव से धूम का न होना अनुपलभ है। इस उपलभ और अनुपलभ से तर्क उत्पन्न होता है और वह धूम और अग्नि के सबध का निर्णय करता है । उसके द्वारा सर्व काल, सर्वदेश और सर्वव्यक्ति मे प्राप्त होने वाले अविनाभाव सबंध को व्याप्ति के रूप मे स्वीकृति मिलती है । जो सबध सार्वकालिक, सार्वदेशिक और सार्ववैयक्तिक नही होता, उसे व्याप्ति के रूप मे तर्क का समर्थन नही मिलता और जिसे तक का समर्थन नही मिलता, वह व्याप्ति अनुमान के लिए उपयोगी नही होती। तर्क के द्वारा अविनाभाव-सबध का निश्चय हो जाने पर ही साधन के द्वारा साध्य का ज्ञान अर्थात् अनुमान किया जा सकता है ।
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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